THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, April 23, 2013

जूट उद्योग के कायकल्प की कोशिश हो तो बच जायें किसान और मजदूर, मिल मालिकों का भी कल्याण हो और औद्योगिक परिदृश्य बदलें!

जूट उद्योग के कायकल्प की कोशिश हो तो बच जायें किसान और मजदूर, मिल मालिकों का भी कल्याण हो और औद्योगिक परिदृश्य बदलें!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


पश्चिम बंगाल में कपड़ा उद्योग का तो सत्यानाश हो गया, जूट उद्योग भी आखिरी सांसें ले रहा है। नई सरकार के कार्यकाल के दो साल पूरे होने को हैं, लेकिन राज्य के लिए उद्योग नीति अभी फाइनल नहीं है। सरकार सारी कार्रवाई विदेसी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए कर रही है। पर भूमि अधिग्रहण विवाद के कारण निवेश आ नहीं रहा है। राजनीति हिंसा और तनाव के माहौल की वजह से भी राज्य में उद्योगों और कारोबर के लिए सही मायने में कोई माहौल नहीं बन रहा है। इस परिदृश्य में विडंबना है कि बंगाल की औद्योगिक पहचान जिस जूट उद्योग के लिए औपनिवेशिक काल से बनी हुई है , उसकी सिरे से उपेक्षा की जा रही है। इसके लिए भूमि अधिग्रहण और उदोग नीति जैसे जटिल समस्याओं का लसामना राज्यसरकार और प्रशासन को नहीं करना है। जूट मजदूर, युनियनें और सरकार मिलकर सकारात्मक पहल करें तो राज्य के औद्योगिक वास्तव की दशा और दिशा दोनों बदल सकती है। जूट उद्योग के कायाकल्प से बंगाल भर के किसान और मजदूरों का भविष्य जुड़ा हुआ है। बंद मिलों के कामगार इनमें शामिल हैं तो खेती से जूट का नामोनिशान मिटा देने वाले ैसे किसान भी हैं, जो सत्तर और अस्सी के दशक में भी जूट को अपनी पहली पसंद बनाये हुए थे। बंगाल की जमीन और जलवायु, मौसमचक्र सबकुछ जूट उद्योग के अनुकूल है। परिवहन और रेलवे नेटवर्क से सीधे जुड़ी हैं तमाम मिलें। जूट उद्योग की समस्याओं को संबोधित किये बना सिर्फ वेतनमान के लिए राजनीति और यूनियनबाजी ने किसानों और मजदूरों , दोनों तबके को तबाह कर दिया। जूट मिलों के मालिक भी तबाह होते रहे।राष्ट्रीकृत मिलों की सांसे भी रुक गयी। सारी जूट मिलें या तो कब्रिस्तान में तब्दील है या फिर जल्दी ही इसके लिए अभिशप्त हैं। मजदूर बस्तियों में बेरोगारी और भुखमरी का आलम है। इन मजदूरों में हिंदी प्रदेशों के मजदूर सबसे ज्यादा हैं . जो पीढ़ियों से जूट उद्योग के वसन्तोत्सव के दिनों  से बंगाल में डेरे डाले हुए हैं।इनमें अल्पशिक्षित व लगभग अशिक्षित मजदूर ज्यादा हैं जो अपने देस देहात से पूरी तरह कटकर बंगाल के होकर रह गये हैं। मुश्किल है कि बंगाल सरकार को इनकी कोई परवाह नहीं है तो इनके हिंदीभाषी नेता भी इनके लिए कुछ बी करने की हालत में नहीं है। हिंदी पट्टी के नेता तो इनकी सुधि लेते ही नही हैं। काम धंधे से बेदखल ये लोग अपने वजूद के लिए मर मरकर जी रहे हैं। गौरतलब है कि जूट को 'गोल्डन फाइबर' कहा जाता है, सबसे उपयोगी और बहुमुखी प्रकृति द्वारा मनुष्य को तोहफे में फाइबर है. जूट इसके लिए हस्तकला उद्योग में विभिन्न रूपों में प्रयोग करने की क्षमता के लिए लोकप्रिय है।  उद्योग देश की अर्थव्यवस्था में बहुत योगदान है और अगले कुछ दशकों के लिए कम से कम अर्थव्यवस्था प्रेरित करने की क्षमता है। जूट उद्योग अकेला 0.26 मिलियन लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है, और 4.0 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से उद्योग के लिए जुड़े हुए हैं।  कुल में, श्रम प्रधान उद्योग में यह दस लाख से अधिक लोगों को 4.35 संलग्न है।  इसकी प्रमुख योगदान और भारत अर्थव्यवस्था  में महत्वपूर्ण भूमिका को साकार, सरकार को अपनी राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में उद्योग के लिए विशेष ध्यान देने का फैसला किया है।


इस साल बारिश की कमी से असम और बंगाल में जूट उत्पादन पर असर होने की आशंका है।जूट की बुवाई अमूमन मार्च से लेकर मई महीने के बीच होती है।जूट मालिकों की संस्था ​इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष मनीश पोद्दार इसे लेकर फिक्रमंद हैं।उन्होंने कहा है कि उद्योग को फिलहाल बारिस की जरुरत है।पोद्दार ने कहा, हमें चीनी मिलों की तरफ से कोई ऑर्डर नहीं मिल रहा है। निर्यात की हिस्सेदारी बढ़ाने और अनाज की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों की आपूर्ति में बढ़ोतरी के जरिए होने वाले नुकसान की भरपाई की कोशिशें जारी हैं। सरकार ने कच्चे जूट की टीडी-5 किस्म का न्यूनतम समर्थन मूल्य साल 2012-13 के सीजन के लिए बढ़ाकर 2200 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है जबकि पहले यह 1675 रुपये प्रति क्विंटल था। इस तरह से एमएसपी में करीब 31.34 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। उद्योग को किसानों की इतनी परवाह है, तो मजदूरों के बिना काम कैसे चल सकता है। हालत तो यह है कि बंद जूट मिलों के ज्यादातर कर्मचारी बंदी के लिए मालिकों के बजाय राजनीति और युनियनबाजी को जिम्मेदर ठहराते हैं। अभी जूट मिलों पर वाम वर्चस्व ढीला नहीं  हुआ है।बदली हुई हालत में अगर पक्ष विपक्ष की यूनियनें मजदूरों के हित में विचार करें तो खूब संभव है कि मिल मालिक बी सहयोग करें।​हालात लेकिन जूट उद्योग के कायाकल्प के बने हुए हैं। दरकार है सही और सकारात्मक पहल की। राज्य की हमेशा शिकायत है कि जूट उद्योग को प्रोत्साहन देने  की केंद्र की कोई मंशा नहीं है। लेकिन इसबार आर्थिक मामलों की केबिनेट समिति ने टीडी- पाच ग्रेड के जूट की कीमत में कम सेकम सौ रुपये की बढ़ोतरी कर दी है। इससे किसानों को अपनेखेतों में फिर जूट उगाने की प्रेरमा मिल सकती है। किसान और मजदूर दोनों तबके उद्योग के हित में खड़े हो जायें और केंद्र भी जूट उद्योग को राहत और पैकेज दें, तो बात राज्य सरकार के प्रबंधन की दक्षता पर आकर ठहर जाती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में जूट के उपयोग और मांग में निरंतर कमी आने से संकट में फंसे जूट उद्योग को निकालने के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों को पहल करनी चाहिए। दूसरे के पाले में गेंद धकेलते रहने के खेल से हालात सुधरने के आसार कम हैं।जूट उद्योग की समस्याओं के समादान के लिए जूट निगम बना हुआ है और उसका यह रवैया है कि पंजाब के गोदामों में जूट की बोरी कम पड़ कही है, निगम से पंजाब सरकार लगातार मांग कर रही है। पर निगम ने इस और अभी ध्यान ही नहीं दिया।


वर्तमान में, वहाँ 78 जूट भारत में लगाए हैं जिनमें से 61 अकेले पश्चिम बंगाल के पूर्वी क्षेत्र में स्थित हैं मिलों कर रहे हैं। सभी जूट मिलों के अलावा, 64 निजी तौर पर भारतीय निर्माताओं और निर्यातकों के स्वामित्व में हैं, उनमें से 6 केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में हैं, राज्य सरकार 4 मालिक है, और केवल मिलों के 2 सहकारी समितियों के अधीन हैं। जूट उद्योग अकेला रुपये 6500 करोड़ की वार्षिक कारोबार और कुल जूट उत्पादों के निर्यात के मूल्य के लिए खातों लगभग Rs1000 करोड़ रुपये है। कुछ संगठनों को भारतीय जूट उद्योग पर नियंत्रण रख बनाई गई हैं। इन जूट विविधीकरण के लिए राष्ट्रीय केन्द्र शामिल हैं (कोलकाता), जूट निर्माता विकास परिषद (कोलकाता), राष्ट्रीय जूट निर्माता निगम, इंडिया लिमिटेड के जूट निगम (कोलकाता), पक्षी जूट और जूट प्रौद्योगिकी (कोलकाता) के लिमिटेड, संस्थान, निर्यात और भारतीय जूट उद्योग अनुसंधान संघ (कोलकाता।भारत सबसे बड़ा उत्पादक है कच्चे जूट के साथ ही समाप्त अच्छे उत्पादों। जूट यार्न, जूट बद्धी, जूट हेस्सियन बैग, जूट हेस्सियन भी बर्लेप कपड़ा, जूट Geotextiles और मिट्टी Savers नामक कपड़ा निर्यात के क्षेत्र हावी उत्पादों रहे हैं। यह वजह से भारत में सस्ते और कुशल मजदूरों की उपलब्धता, और उद्यमशीलता कौशल की भी उपलब्धता के लिए संभव हो गया।



राज्य सरकार क्या कर सकती है, इसका एक रास्ता उत्तर प्रदेश में निकला है।वित्तीय वर्ष 2013-14 में प्लास्टिक कचरे की अधिकता से निपटने के लिए प्लास्टिक कैरी बैग समेत अन्य यूज एंड थ्रू वाले उत्पाद पर वार होगा। जूट व फाइबर काटन क्लॉथ से बनने वाले कैरी बैग उत्पाद बनाने बाली इकाइयों को उद्योग बंधु से तरजीह का मसौदा बनेगा। खासकर इकोफ्रेंडली उत्पादों को बढ़ावा दिए जाने की नीति उद्योग बंधु की योजना में औद्योगिक संगठन व पर्यावरणविद करेंगे। प्रदेश नगर विकास विभाग ने भी महाकुंभ में भीषण प्लास्टिक कचरे का संज्ञान लिया है। यही कारण है कि अब नगर विकास विभाग स्थानीय निकायों को प्लास्टिक कचरे के लिए पूर्व में जारी उपविधि को अपडेट कर लागू करने का मनाया है।फैसला किया है। बंगाल में भी पोलिथिन निषिद्ध है। अगर सरकार यह प्रावधान कर दें कि पोलिथिन की जगह जूट के कैरी बैग का इस्तेमाल हो तो उद्योग को भारी राहत मिल सकती है। लेकिन राज्य सरकार का रवैया जूट उद्योग  के साथ सहयोग का नहीं है। मसलन पश्चिम बंगाल में कभी विकासशील रहा जूट उद्योग आज खस्ताहाल है। अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग में कारोबारियों की कोई संस्था नहीं है।जूट मजदूर यूनियन तो अनेक हैं और वर्षों से उनके आंदोलन बेहतर वेतन, बडी संख्या में ठेका मज़दूरों को स्थायी किये जाने, सेवानिवृत्ति जैसी मांगों को लेकर जारी है। औद्योगिक विवाद और आर्थिक कारणों से एक का बाद एक जूट मिले बंद होती रही हैं।जूट उद्योग को केंद्र और राज्य सरकार की ओर सेकोई सहारा नहीं है। सरकारें तो बस हड़ताल और तालाबंदी की हालत में हरकत में आती है। उद्योग को खस्ताहाली से निकालने की दिशा में कोई पहल नहीं हो पाती। कारोबारियों की अपनी कोई संस्था नहीं होने की वजह से वे सरकारों पर दबाव भी नहीं बना पाते। इधर केंद्र सरकार ने बंद सरकारी जूट मिलों को खोलने की कवायद शुरु की है। टीटागढ़ किनिसन जूट मिल में फिर काम चालू हो गया है। पर बंद पड़ी निजी मिलों को फिर चालू करने की कोई कारगर पहल नहीं हो पा रही है।जूट को प्रोत्साहन देकर, उद्योग की समस्याएं सुलझाने की कोई पहल किये बिना अब केंद्र सरकार बंद पड़ी जूट मिलों की जमीन पर उद्योग लगाने के बहाने वहां शापिंग माल और आवासीय कांप्लेक्स बनाने  की मुहिम में लगी हुई है।इससे मिल मालिकों और इन मिलों में काम करनेवालों को एक साथ झटका लग सकता है।केंद्र सरकार के प्रस्ताव के मुताबिक यूनियन जूट मिल की १४.१३ एकड़,बर्ट जूट एंड एक्सपोर्ट्स लिमिटेड की ४९.६८ एकड़ ,नेशनल जूट मिल की ६३.६४ एकड़ और अलेक्जेंड्रा जूट मिल की ५२.६८ एकड़ जमीन बेचकर करीब तार हजार करोड़ रुपये की राजस्व आय की योजना है।


मसलन केंद्र चाहता है कि उल्टाडांगा इलाके में बंद बर्ड जूट एंड एक्सपोर्ट्स की बेशकीमती जमीन पर  मेला व प्रदर्शनी स्थल बनाने का प्रस्ताव है।​​मालूम हो कि केंद्र सरकार ने पहले ही एनजीएमसी की सियालदह कनवेंट लेन स्थित यूनियन जूट मिल,हावड़ा केसांकराइल में नेशनल जूट मिल और जगदल की अलेक्जेंड्रा जूट मिल को बंद करने का ऐलान किया हुआ है और अब सरकार इन मिलों की जमीन बेच देना चाहती है। केंद्र सरकार चाहती है कि बंद पड़ी निजी जूट मिलों की जमीन का भी वाणिज्यिक इस्तेमाल किया जाये।मालूम हो कि ये जूट मिलें वर्षों से बंद पड़ी हैं और खड़दह जूट मिल या किनिसन की तरह इन्हें फिर चालू करने की सरकार की कोई योजना भी नहीं है।जाहिर है सरकारी मिलों के बारे में जब सरकारी रवैया यह है तो बंद निजी मिलों को चालू करने में उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती है।गनीमत है कि केंद्र की इस मुहिम का विरोध कर रही हैं बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उन्हींके विरोध की वजह से जूट मिलों के​​ कब्रिस्तान में केंद्र सरकार के `औद्योगीकरण' की मुहिम पर लगाम लगा हुआ है। केंद्र और राज्य सरकार में इसे लेकर ठनी हुई है।पर इस सिलसिले में हैरत की बात है कि मिल मालेकों और मजदूरों की ओर से इस बारे में कोई राय अभी तक नहीं उजागर हुई है।केंद्र की योजना ​​है कि बंद जूट मिलों की जमीन का चरित्र बदलकर वहां बहुमंजिली आवास परियोजनाएं, मल्टीप्लेक्स और शापिंग माल बना दिया जाये।कहीं कहीं ​​तो रिसार्ट तक बनाने का प्रस्ताव है।इस योजना पर राज्यसरकार की सहमति आवश्यक है और वस्त्र मंत्रालय ने पत्र भी लिखा है। पर मुख्यमंत्री अपनी घोषित औद्योगिक नीति पर अडिग है। उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी के मुताबिक बंद जूट मिलों में किसी भी हाल में आवासीय परियोजनाएं या शापिंग माल बनाने की इजाजत नहीं दी जायेगी। मिल मालिक क्या चाहते हैं, इससे राज्य सरकार की नीति बदलने की संभावना नहीं है।


वस्त्र मंत्रालय ने राज्य सरकार से न केवल जूट मिलों की जमीन बेच देने की इजाजत देने के लिए कहा है , बल्कि इस पर भी जोर दिया है कि वह इस जमीन का चरित्र बदलकर वहां आवासीय परियोजनाएं वगैरह बनाने की अनुमति दे दें। पर राज्य के उद्योग मंत्री का कहना है कि बंद जूट मिलों की जमीन प सिर्प कारखाना लगाने की अनुमति दी जा सकती है। जमीन का चरित्र बदलने की अनुमति हर्गिज नहीं।


दिसंबर 2009 में जूट मिलों में काम करने वाले कर्मचारी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए थे जिसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार और मजदूरों के बीच अंतत: समझौता हुआ। यह समझौता फरवरी 2013 तक  वैध है। अब मजदूरों ने मिल मालिकों को अपनी मांगों की नई सूची सौंपी है। इन्होंने जो मांगें रखी हैं उनमें महंगाई भत्ते में वृद्धि, महिला कर्मचारियों के लिए बराबर मजूदरी और वेतन बढ़ोतरी शामिल हैं। इंडियन जूट मिल एसोसिएशन (आईजेएमए) के पूर्व चेयरमैन संजय कजारिया कहते हैं, 'आने वाले समय में हड़ताल की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।'


बंद पड़ी फैक्टरियों को खोलने का प्रयास नाकाम


बंद पड़ी फैक्टरियां खोलने की बात मौजूदा तृणमूल कांग्रेस के घोषणापत्र में शीर्ष पर थी। राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा था कि करीब 58,000 बंद फैक्टरियां खोलने की योजना है। राज्य ने बंद फैक्टरियों पर नियंत्रण के लिए उद्यममियों को आमंत्रित किया। हालांकि पिछले डेढ़ साल में इस मोर्चे पर अधिक सफलता नहीं मिली है। इस सिलसिले में प्रयास करते हुए राज्य सरकार ने कुछ जूट मिलें खोलने की कोशिश कीं जो इस समय औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्गठन बोर्ड (बीआईएफआर) के तहत हैं। लेकिन जूट मिलों में काम करने वाले कर्मचारियों का मानना है कि ये मिलें व्यावहारिक दृष्टिकोण से निष्क्रिय हैं। आईजेएमए के कजारिया भी मानते हैं कि दोबारा खुलीं मिलों में शायद की काम होता है। पिछले एक साल के दौरान जूट मिलों में कम से कम चार से पांच बार तालाबंदी हो चुकी है।


मजदूरों की कमी और मनरेगा से बुरा हाल


हाल में ही राज्य में कई जूट मिलों के मालिक संजय कजारिया ने स्वेच्छा से अस्थायी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाकर प्रति दिन 220 रुपये कर दिया। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। निर्माण क्षेत्र में अच्छी मजदूरी और बिहार, उत्तर प्रदेश से पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या कम होने से जूट मिलों में मजदूरों की कमी हो गई है। मनरेगा के तहत रोजगार सुनिश्चित होने से इन स्थानों से मजदूरों का पलायन कम हो गया है। जूट मिलों में काम करने वाले अस्थायी कर्मचारियों को रोजाना 157 रुपये जबकि स्थायी श्रमिकों को प्रतिदिन 350 रुपये मिलते हैं। केवल 10 प्रतिशत कर्मचारी ही स्थायी हैं।


अनिवार्य पैकेजिंग नियमों में छूट


इस साल सरकार ने पहली बार जूट पैकेजिंग मटीरियल्स एक्ट (जेपीएमए), 1987के तहत पैकेजिंग अनिवार्यता में 60 प्रतिशत कमी कर दी थी। अधिनियम के तहत चीनी मिलों को केवल जूट के बोरे इस्तेमाल करने का निर्देश दिया गया था। लेकिन चीनी मिलों की जूट के बोरों की मांग पूरी नहीं हो पाने और सस्ते विकल्प जैसे प्लास्टिक के बोरे उपलब्ध होने से पैकेजिंग नियमों में ढील दी गई। इसके साथ ही जूट के बोरों की मांग कम हो गई है। इस बारे में आईजीएमए के चेयरमैन मनीष पोद्दार ने कहा, 'चीनी मिलों से हमें न के बराबर ऑर्डर मिल रहे हैं।'



जूट बोर्ड :- यह एक संवैधानिक निकाय है जिसकी स्‍थापना भारत में जूट उद्योग को प्रोत्‍साहन देने एवं इसके विकास के साथ इस उद्योग में कार्यरत कामगारों की रहने की परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए जूट उद्योग अधिनियम, 1953 के तहत की गई थी।


पश्चिम बंगाल में कभी विकासशील रहा जूट उद्योग आज अधिकारियों की उपेक्षा के कारण खस्ताहाल है। नए-नए उत्पादों में जूट की उपयोगिता बढ़ाने में असफल रहने, वैश्विक बाजार में निर्यात बढ़ाने में नाकाम रहना भी इसकी प्रमुख वजह रही। सिंथेटिक विकल्पों की उपलब्धता और महंगी मजदूरी इस उद्योग के सामने समस्या पैदा कर रही है, वहीं प़डोसी बांग्लादेश से भी इसे क़डी प्रतियोगिता का सामना करना प़ड रहा है।जूट उद्योग के लिए चीन गंभीर खतरा बनकर उभर रहा है। वह बांग्लादेश की मदद से इस क्षेत्र में पैठ जमाने की कोशिश कर रहा है। केंद्रीय जूट आयुक्त एवं नेशनल जूट बोर्ड के सचिव अत्रि भट्टाचार्य ने यह चिंताजनक तथ्य पेश किया। वे सोमवार को भारत चैंबर ऑफ कॉमर्स की ओर से आयोजित जूट और बंगाल विषय पर परिचर्चा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि चीन ऐसा देश है जो किसी भी क्षेत्र में घुसपैठ कर सकता है। जूट उद्योग में पैठ जमाने के लिए वह बांग्लादेश की मदद लेने के फिराक में है, जो चिंता की बात है। बांग्लादेशी जूट की गुणवत्ता भारतीय जूट से अच्छी है। भट्टाचार्य ने बंगाल में जूट व्यवसाय को उद्योग का दर्जा दिलाने के लिए राज्य सरकार से बातचीत करने का आश्वासन दिया। जूट बंगाल की अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है।


भारत में जूट उद्योग से जुड़े एक वर्ग ने केंद्र सरकार से आयातित फाइबर पर लागू चार फीसदी का विशेष अतिरिक्त शुल्क (एसएडी) समाप्त करने की मांग की है। पिछले पांच वर्षों में बांग्लादेश से उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे जूट के आयात में 75 फीसदी से अधिक का इजाफा हो चुका है। पेट्रापोल, पश्चिम बंगाल के आंकड़ों से पता चलता है कि कच्चे जूट का आयात 2006-07 के लगभग 50 हजार गांठ से बढ़ कर 2011-12 तक 90 हजार गांठ पर पहुंच गया। भारत में कच्चे जूट की कुल जरूरत में से लगभग 9-10 फीसदी को बांग्लादेश से आयात के जरिये पूरा किया जाता है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मार्च 2012 में बांग्लादेश से कच्चे जूट के आयात पर एसएडी लगाया था। कच्चे जूट पर एसएडी से उत्पाद की लागत बढ़ गई है जिससे स्थानीय जूट उद्योग को घरेलू और निर्यात बाजारों में प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

एसएडी लगाने की पहल वैट और सीएसटी (केंद्रीय बिक्री कर) के संदर्भ में मौजूदा राज्य और केंद्रीय कानूनों के लिए भी टकरावपूर्ण है। हालांकि कस्टम ऐक्ट के अनुसार सरकार ने अधिकतम 4 फीसदी की दर पर अतिरिक्त शुल्क लगाने का अधिकार सुरक्षित रखा है। जूट उद्योग अप्रैल 2007 से जूट सामान निर्यात प्रोत्साहन योजना का लाभ उठा रहा है। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय ने जूट सामान निर्यातकों के लिए अप्रैल 2007 में एक्सटर्नल मार्केट असिस्टेंस (ईएमए) योजना समाप्त कर दी थी, क्योंकि वह अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही थी। ईएमए 1992 से चल रही थी।


जूट उद्योग को एक और झटका तब लगा है जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल में जूट निर्माण क्षेत्र को रुपये में निर्यात क्रेडिट पर 2 फीसदी की ब्याज राहत मार्च 2014 तक दिए जाने से इनकार कर दिया। यह ब्याज राहत जूट उद्योग के लिए मार्च 2011 तक उपलब्ध थी। जून 2012 में आरबीआई ने इस सूची में जूट निर्माण को हटा दिया था। बांग्लादेश के जूट निर्यातकों से कड़ी प्रतिस्पर्धा की वजह से जूट निर्यात लगभग 15 फीसदी तक घटा है। बांग्लादेश के जूट निर्यातकों को वहां की सरकार से 10 फीसदी की सब्सिडी मिलती है।


भारतीय जूट मिल संघ के पूर्व अध्यक्ष संजय कजारिया ने कहा कि अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग में कारोबारियों की कोई संस्था नहीं है, जो इस उद्योग की रक्षा और विकास के बारे में सोचे। कजारिया हास्टिंग्स जूट मिल के मालिक हैं। उन्होंने कहा कि कानून के मुताबिक अनाजों को जूट की बोरियों में भरा जाना चाहिए। लेकिन चीनी को जूट की बोरियों में नहीं रखा जा रहा है। लोग कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही है। इसके साथ ही सरकार ने पूर्व घोषित जूट पार्क भी नहीं बनाया। पर्यावरण अनुकूल और प्राकृतिक होने के कारण जूट का जितना इस्तेमाल होना चाहिए, उतना हो नहीं रहा है। बंगाल नेशनल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स के सचिव डी. पी. नाग ने कहा कि बांग्लादेश में जूट का कागज और वस्त्र उद्योग में इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह हमारे यहां भी नए प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने पॉलीथिन की थ्ौलियों पर सख्ती से पाबंदी लगाने की भी बात कही। पश्चिम बंगाल में जूट की खेती 6,00,000 हेक्टेयर भूमि पर होती है। मौजूदा कारोबारी साल में यहां 7,80,000 गांठ का उत्पादन हुआ। राज्य में 62 ब़डी जूट मिलें हैं और जूट के उत्पाद बनाने वाली 1,026 पंजीकृत इकाइयां हैं। नाग ने कहा कि हमारे जूट की 80 फीसदी खपत घरेलू बाजार में होती है। हम वैश्विक बाजार में जगह बनाने में नाकाम रहे हैं। मैन्यूफैक्चरिंग डेवलपमेंट काउंसिल के सचिव अत्री भट्टाचार्य ने कहा कि जूट उद्योग को सिंथेटिक विकल्प से चुनौती मिल रही है। भट्टाचार्य ने कहा कि सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में एक पंचवर्षीय जूट प्रौद्योगिकी मिशन (जेटीएम) शुरू की थी। जेटीएम के चौथे मिनी मिशन की नौ योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय जूट बोर्ड की है। इस मिशन के तहत जूट मिलों का आधुनिकीकरण किया जाना है। जेटीएम के लागू होने के बाद जूट उत्पादों की संख्या में वृद्धि होगी।  



अनाज और चीनी की पैकिंग के मामले में प्लास्टिक उद्योग जूट क्षेत्र को पीछे छोडऩे के लिए तैयार है। सिंथेटिक बैग की कीमत जहां महज 12 रुपये है वहीं जूट के बोरे की कीमत 28 रुपये पड़ती है। माना जा रहा है कि दिसंबर 2012 और अप्रैल 2013 के रबी सत्र के दौरान अनिवार्य जूट पैकिंग ऑर्डर में 37 प्रतिशत की कमी आएगी। यह पहले के निर्धारित 10 प्रतिशत के स्तर से अधिक है।जूट पैकेजिंग मैटेरियल ऐक्ट (जेपीएमए), 1987 के तहत प्रावधान है कि देश में उत्पादित चीनी और अनाज की पैकिंग उस साल बने जूट के बोरों में ही की जाएगी। हालांकि इस साल 11 अक्टूबर को आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) ने चालू वित्त वर्ष के लिए इस प्रावधान में 10 प्रतिशत छूट देने का फैसला किया था। सरकार का कहना था कि जूट उद्योग के पास आवश्यक क्षमता नहीं है जिससे वह पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रहा।


जूट उद्योग पर खराब और निम्न गुणवत्ता वाले बोरों की आपूर्ति का आरोप लगा है। इससे पहले 16 नवंबर को सीसीईए ने जूट क्षेत्र की समीक्षा का फैसला किया था। हालांकि अभी यह किया जाना बाकी है। खाद्यान्न पैकिंग में 10 प्रतिशत की ढील देने की घोषणा के साथ ही 11 अक्टूबर को सीसीईए ने पुराने जुट के बोरे में 40 प्रतिशत चीनी की पैकिंग अनारक्षित कर दिया।



डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुराने जूट उद्योग ने प्रतिस्पर्धा को दूर रखने के लिए सरकार पर निर्भरता को अपनी आदत बना लिया है। यह वैकल्पिक उत्पादों से पैदा होने वाली चुनौतियों से हमेशा बेखबर रहा है। सरकार ने भी अब तक इस उद्योग को निराश नहीं किया है। अधिकारियों की सहानुभूति जीतने में यह पुराना उद्योग सफल क्यों रहा? इसकी वजह यह है कि अगर जूट पैकेजिंग सामग्री को सिंथेटिक के वैकल्पिक उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी तो कच्चे जूट की खेती में संलग्न 50 लाख परिवार इस व्यवसाय को छोड़ देंगे।


मूक सहानुभूति के अलावा यह नहीं जाना जाता है जिस तरह अन्य नकदी फसलों के प्रसंस्करणकर्ताओं ने देश के विभिन्न भागों में इन फसलों का उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया है, उसी तरह जूट उद्योग पूर्वी राज्यों में वैज्ञानिक तरीके से जूट उगाने को प्रोत्साहित करने में मददगार रहा है। जूट मिलों में श्रम विवाद भी काफी होते हैं। अनेक बार हुई हड़तालें कई महीनों के बाद खत्म हुई हैं, जिससे सरकारी एजेंसियों और चीनी फैक्ट्रियों का जूट के बोरे खरीदने का कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ है।


चीनी के थोक उपभोक्ताओं जैसे शीतलपेय निर्माता, दवा इकाइयां और मिठाई निर्माता चीनी में बैचिंग तेल की उपस्थिति मिलने से भारी नाराज हैं। इस तेल का इस्तेमाल जूट और लूज फाइबर को नरम बनाने में किया जाता है। संयोग से अंतरराष्ट्रीय कारोबार में चीनी को हाई डेंसिटी पॉलिथीन (एचडीपीई) बोरों में भरने को स्वीकार्यता मिली हुई है। तेल की उपस्थिति के कारण देश में थोक उपभोक्ता सीधे जूट के बोरों में भरी चीनी की डिलिवरी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। देश में चीनी कंपनियों पर एचडीपीई बोरों के इस्तेमाल पर कानूनी प्रतिबंध है। इसलिए ये कंपनियां जूट के बोरों में एलकाथीन लाइनर्स लगा रही हैं, जिससे इस प्रक्रिया में उनकी लागत बढ़ रही है।


इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा कि उद्योग का लक्ष्य मिलावट रहित और कम कीमत पर बाजार में चीनी उपलब्ध कराना है, लेकिन जब तक जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट (जेपीएमए) की तलवार हमारे सिर पर लटकी रहेगी तब तक यह संभव नहीं हो सकेगा। उन्होंने कहा कि 50 किलोग्राम के जूट के बोरों की बुनाई इस तरह से होती है कि इनमें से चीनी निकलती है और साथ ही इनमें बंद सामग्री के विषाक्त होने की आशंका होती है। लागत की बात करें तो 50 किलोग्राम के एचडीपीई बोरे की कीमत 15 रुपये है, जबकि आदर्श क्षमता वाला जूट का एक बोरा 35 रुपये में आता है। जेपीएमए के तहत यह आवश्यक है कि चीनी के संपूर्ण उत्पादन की पैकिंग जूट के बोरों में की जानी चाहिए। राजनीतिक कारणों से सरकार लगातार स्थायी सलाहकार समिति की सिफारिशों को नकारती रही है। समिति सिफारिश करती रही है कि चीनी फैक्ट्रियों को अपने उत्पादन के 25 फीसदी भाग की पैकिंग गैर-जूट बोरों में करने की स्वीकृति दी जाए। जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट (जेपीएमए) की 1987 में घोषणा के समय अनाज, चीनी, उर्वरकों और सीमेंट की पैकेजिंग के लिए जूट के बोरों के इस्तेमाल का प्रावधान किया गया था।


हालांकि सीमेंट और उर्वरक निर्माताओं को जल्द ही जेपीएमए से छूटकारा मिल गया। इसकी वजह यह थी कि इन दो जिंसों की जूट के बोरों में पैकेजिंग से इनकी हैंडलिंग और सभी मौसम में सुरक्षित रखना संभव नहीं है। तकनीकी कारणों के साथ ही सीमेंट और उर्वरक उत्पादकों की जीत की वजह इनकी लॉबिंग पावर थी। इसकी वजह से जेपीएमए के दायरे में केवल चीनी और अनाज रह गए। लेकिन जहां चीनी फैक्ट्रियां बोरों की कीमतों के लिए जूट मिलों की दया पर निर्भर हैं वहीं सरकार खुद द्वारा तय कीमत पर जूट के बोरों की खरीद करती है। इस्मा का कहना है कि सीमेंट और उर्वरकों के जेपीएमए के जाल से बचने के बावजूद जूट मिलों ने जूट बोरों की कीमत तय करने में मनमानी बंद नहीं की है।



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