THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, September 19, 2015

उनके विद्रोही स्वरों में छुपा था मेरा कर्णप्रिय संगीत विद्या भूषण रावत

उनके विद्रोही स्वरों में छुपा था मेरा कर्णप्रिय संगीत 

विद्या भूषण रावत 

लगभग दो दशक पूर्व मेरा परिचय मोहम्मदाबाद के स्वच्छकार समाज से हुआ और एक प्रकार से मैं उनके परिवार में शामिल हो गया और समाज की दैनिक समस्याओ से रूबरू होने लगा।  एक व्यक्ति जिसने मुझे शुरू से बहुत प्रभावित किया वो थी चंपा देवी जिनका आज सुबह लम्बी अस्वस्थता के बाद निधन हो गया।  चम्पा जी से मेरा लगाव उनसे पहली मुलाकात के बाद ही होगया जब मैं मोहम्मदाबाद नगर पालिका के अंतर्गत रह रहे स्वच्छकार समाज की आर्थिक सामजिक हालातो से वाकिफ होने कोशिश कर रहा था और पुरे इलाके में मैला धोने के प्रथा जारी थी और स्वच्छ्कार समाज जो वहां पर रावत समुदाय के नाम से जाना जाता है, अपने जीवन के संघर्ष में लगा हुआ था।  लड़कियों के पढ़ने की स्थिति नहीं थी और नवयुवतियां बीड़ी बनाने का कार्य  करती थी और गाँव में मैला भी ढोती थी। 

चंपा देवी उस समाज से आई जहाँ लड़कियों के बहार निकलने का मतलब समाज से विद्रोह माना जाता है। मोहम्मदाबाद से लगभग ७ किलोमीटर दूर रानीपुर गाँव के मोहम्मदाबाद शहर तक का उनका सफर एक विद्रोह की निशानी है जो दलित महिला के दोहरे उत्पीड़न के खिलाफ सशक्त विद्रोह माना जा सकता है।  एक तरफ सामंती मुस्लिम समाज और दूसरी और सामंती हिन्दू जहाँ किसी काम को ना करने का मतलब लाश का भी पता न चल सकना हो सकता है वहां चंपा देवी ने मैला धोने को बिलकुल दुत्कार दिया।  बचपन में हुए विवाह को त्याग दिया जहाँ  उन्हें मैला धोने के लिए मज़बूर किया  गया।  वह  गाँव छोड़कर मोहम्मदाबाद आ गयी और अकेले रहने लगी।  उस ज़माने में एक छोटे कसबे में अकेले रहना जहाँ पितृसत्ता और पुरुषवाद भयानक तौर पर  आज भी विद्यमान है, एक बहुत बड़ी चुनौती था लेकिन चंपा देवी ने अपने साहस से वो कार्य किया।  वह नगरपालिका मोहम्मदाबाद में बतौर सफाई कर्मचारी कार्य करने लगी और अपने समाज  कुरीतियों पर जमकर बोलने लगी।  उन्होंने हर उस आंदोलन को सराहा और समर्थन दिया जो उनके समाज में बदलाव का वाहक बना।  वो बार बार कहती थी हमें अपनी लड़कियों को पढ़ना चाहिए, उन्हें  कारीगरी और हुनर का कार्य करना चाहिए जैसे सिलाई, कढ़ाई, बुनाई और अपने लिए इज्जत से कमाना सीखना चाहिए। 

वो अपने समाज के चौधरियों को भी ललकारती और नेता मंडली से दूर रहती।  हकीकत यह है के समाज के पुरुष प्रभुत्ववाद ने उन्हें उभरने नहीं दिया नहीं तो वो मोहम्मदाबाद में बदलाव की एक बहुत बड़ी वाहक बन सकती थी।  लेकिन चाहे जो कुछ हो मेरे लिए चंपा देवी उस विद्रोह का प्रतीक है जो दलित महिलाओ ने समय समय पर  जातीय और सामाजिक प्रभुत्ववाद के विरूद्ध किया है।  वो  मुझे परिवार जैसा मानती थी और जब भी अवसर मिला हमने लम्बे बात भी की।  दो बातें जो मुझे उनकी सबसे महत्वपूर्ण लगी या  यूं  कहिये कि मेरा कर्णप्रिय संगीत बन गयी वो हमारी एक मज़ेदार बातचीत का हिस्सा है जो मैं जब 'बदलाव की चाह' नामक फिल्म बना रहा था तो उसकी रिकॉर्डिंग के दौरान हुई।  मैंने उनसे प्रश्न किया के मैला प्रथा के बारे में आपके क्या विचार हैं तो उन्होंने उत्तर दिया , ' मैला एक घृणित प्रथा है और हमारे समाज को कूपमंडूकता छोड़कर इस काम को  स्वतः ही छोड़ देना चाहिए।  फिर उनके स्वर में आक्रोश आ गया और वो बोली , ' यदि चौराहे पर खड़ा करके हमको फांसी पर भी लटका देंगे तो मैं ये काम नहीं करुँगी नै करुँगी नहीं करुँगी। ' ये शब्द मेरे लिए  कर्णप्रिय संगीत की तरह थे क्योंकि वर्षो से कार्य करते करते मैं ये समुदाय के लोगो के मुँह से सुन्ना चाहता था के वे स्वयं इस गुलामी  से मुक्त होना चाहते हैं।  क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं के भारत के लोगो और यहाँ की सरकारों को छुआछूत मिटाने या मैला ख़त्म  करने में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं और वो सौ साल या हज़ार साल तक इंतज़ार कर सकते हैं क्योंकि उनका कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन जिस दिन समाज ने खुद ही इस प्रथा का पोस्ट मोर्टेम  कर दिया तो  क्रांति आ जाएगी।  

मैंने पूछा चम्पाजी लोग कहते हैं के अगर हमने 'काम' छोड़ दिया तो जिएंगे कैसे।  वो तमतमा उठती और कहती इसे काम कहते हैं ? क्या किसी का पैट भर जाता है।  अरे जूठन खाने को, भीख में दिया खाने को क्या हम काम कह सकते हैं।  जैसे दूसरे समाज के लोग अपने लिए काम ढूंढते है वैसे रावत समाज के लोग क्यों नहीं करते ? क्या लोगो के मलमूत्र को धोने का जिंदगी भर का ठेका हमने लिया है ? 

एक बार मैंने उनको उकसाते हुए पोछा के कई लोग कहते हैं के पैसा बढ़ जाएँ तो कोई समस्या नहीं है।  वो गुस्से में थी बोली, ' अरे तुम मुझे  मल मूत्र साफ़ करने का कितना पैसे दोगे।  दस रुपैये या बीस रुपैये या पचास रुपैये। . अरे मैं चुनौती देती हूँ उन सब 'बड़े' लोगो को के मैं तुम्हे सौ रुपैये दूंगी तुम मेरे घर खाँची लेकर आओ और हमारा मलमूत्र साफ़ करो।"

आज चंपा देवी नहीं रही और हो सकता है के उनके आस पास के लोगो उनके महत्व को ना पहचाने लेकिन मेरे लिए उनके अपने छोटे से विद्रोह में पूरे समाज की आज़ादी का मंत्र छुपा है इसलिए उनकी स्मृति को कायम रखना जरूरी है।   ये जरूर याद रखना होगा के क्रन्तिकारी केवल बड़ी बड़ी पोथियाँ पढ़कर या बन्दूक पकड़कर आज़ादी दिलाने का सपना दिखाने वाले ही नहीं होते अपितु जो लोग अपने समाज में दैनिक जीवन में अपने लोगो और अपने दुश्मनो से भिड़ते और झूझते हैं, वे भी होते हैं।  

चंपा देवी को हमारा नमन। 

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