THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, February 24, 2013

स्टालिन के असम्मान और सिंगुर की चर्चा के बहाने `कांगाल मालसाट' को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं​​!

स्टालिन के असम्मान और सिंगुर की चर्चा के बहाने `कांगाल मालसाट' को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं​​!
​​
​पलाश विश्वास
​​


बंगाल में सेंसर बोर्ड ने स्टालिन के असम्मान और सिंगुर प्रकरण के बाद सत्ता में आयी ममता बनर्जी के उल्लेख के कारण विख्यात साहित्यकार नवारुण भट्टाचार्य के चर्चित उपन्यास `कांगाल मालसाट' के आधार पर इसी नाम से निर्देशक सुमन मुखोपाध्याय की फिल्म को सर्टिफिकेट देने से ​​मना कर दिया है।सेंसर बोर्ड में जो लोग हैं, उनके तृणमूल कांग्रेस और दीदी से बेहतर ताल्लुकात बताये जाते हैं। `कांगाल मालसाट' को सेंसर  सर्टिपिकेट देने से इंकार करते हुए सेंट्रल बोर्ड आफ सर्टिफकेशन के कोलकाता कार्यालय से रिफ्युजल सर्टिफिकेट दे दिया गया है।अब इस फिल्म को फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्राइब्युनल में भेजा गया है।इस फिल्म में सिंगुर के टाटाविरोधी आंदोलन के अलावा मुख्यमंत्री पद के लिये ममता बनर्जी के शपथ ग्रहण समारोह और विशिष्टजनों की विभीन्न कमिटियों से संबंधित कुछ दृश्यों पर सख्त एतराज बताया जा रहा है।फिल्म की भाषा में गोलीगलौज के प्राचुर्य पर भी आपत्ति जताय़ी गयी है। सिंगुर का मामला तो समझ में आता है, पर स्टालिन के असम्मान की दलील देकर ३५ साल के वाम शासन में किसी फिल्म को रोकने की कोई नजीर नहीं है।वैसे इस कथा पर नाटक के कामयाब मंचन पर कोई बवाल नहीं हुआ। बांग्ला और भारतीय साहित्य में सामाजिक यथार्थ और वर्चस्ववादी सत्ता के विरुद्ध वंचितों के विद्रोह की यह कथा `यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा  देश', लिखने वाले नवारुण भट्टाचार्य की अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति है।​इस कथा में दो वर्ग है चौक्तार और फैताड़ु। फैताड़ु उड़नेवाले लोग हैं। सत्ता के खिलाफ विद्रोह फैताड़ु लोग करते हैं।इसकी भाषा अंत्यज कोलकाता के यथार्थ की दृष्टि से गढ़ी गयी है। कंगाल का मतलब है भिखारी और मालसाट का मतलब है युद्ध घोषणा।यानि यह कथा वंचितों और अंत्यजों, जो कंगाल​​ है, सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की कथा है, जो बंगाल ही नहीं, पूरे भारत के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है। वाम शासन के दौरान ​​ही कंगाल मालसाट का प्रकाशन हुआ। इससे पहले नवारुणदा के उपन्यासों `हर्बर्ट' और `फैताड़ु' में भी सामाजिक यथार्थ का नंगा चित्रण हुआ।`हर्बर्ट' के लिए तो उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। पर किसी भी स्तर पर उनकी तीखी अभिव्यक्ति रोकने की कोशिश तब नहीं हुई। नवारुण दा भी परिवर्तन के हक में सड़क पर उतरने वाले लोगों में ​​शामिल थे। सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलनों के दौरान नवारुण दा के अलावा इस फिल्म के निर्देशक बंगालके प्रख्यात रंगकर्मी सुमन​ ​ मुखोपाध्याय भी सड़क पर उतरे थे। यही नहीं, नवारुण भट्टाचार्य की मां विश्वविख्यात साहित्यकार महाश्वेता दीदी  अब भी ममता बनर्जी की मां माटीमानुष की सरकार से उम्मीदें बांधी हुई हैं। सिंगर आंदोलन, टाटा मोटर्स का बंगाल से बैरंग वापस होना और इन्ही आंदोलनों की वजह ​​से दीदी का मुखयमंत्री बनना ऐतिहासिक सच है। समझ में नहीं आता कि फिल्म में यथार्थ दिखाने की वजह से उसे कैसे रोका जा सकता है। स्टालिन का अपमान तो और ज्यादा हास्यास्पद तर्क है, वह भी मां माटी सरकार के जमाने में।

नवारुण भट्टाचार्य की चिंता है,`आजकल मैं इस बात को लेकर बहुत परेशान हूँ कि आज हमारे पार्लियामेंट में पांच सौ पैंतालीस सांसदों में करीब तीन सौ करोड़पति हैं। हमारे देश की राजनीति में यह एक खतरनाक ट्रेंड है।'इसी चिंतन की वजह से वह व्यवस्था और सत्ता के खिलाफ युद्धघोषणा, मोर्चा बंदी, उड़ते हुए कंगाल लड़ाके और वास्तविक युद्ध की कथा दक्षता के साथ सामाजिक यथार्थ के पूरे निर्वाह के साथ कह सकते हैं। सुमन मुखोपाध्याय की छवि भी यथार्थवादी रंगकर्मी और फिल्मकार के रुप में है। नवारुण भट्टाचार्य की कविता में  सिंगुर की तापसी मलिक है। इसने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया। आरोप है कि इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया।जब कविता में सिंगुर मौजूद है तो फिल्म में सिंगुर की मौजूदगी पर एतराज कैसा?नवारुण भट्टाचार्य ने तो माओवादी नेता किशनजी की हत्‍या पर एक कविता लिखी है!

शराब नहीं पीने पर भी
स्ट्रोक नहीं होने पर भी
मेरा पांव लड़खड़ाता है
भूकंप आ जाता है मेरी छाती और सिर में

मोबाइल टावर चीखता है
गौरैया मरी पड़ी रहती हैं
उनका आकाश लुप्त हो गया है
तस्करों ने चुरा लिया है आकाश

पड़ी रहती है नितांत अकेली
गौरैया
उसके पंख पर जंगली निशान
चोट से नीले पड़े हैं होंठ व आंखें
पास में बिखरे पड़े हैं घास पतवार, एके फोर्टिसेवेन
इसी तरह खत्म हुआ इस बार का लेन-देन

ज़रा चुप करेंगे विशिष्ट गिद्धजन
रोकेंगे अपनी कर्कश आवाज़
कुछ देर, बिना श्रवण यंत्र के, गौरैया की किचिर-मिचिर
सुनी जाए।

मुक्त बाजार और विनियंत्रण की अर्थव्यवस्ता में तो नब्वे फीसद लोग कंगाल ही हैं। इस लिहाज से यह उनकी कथा है। भारतीय फिल्मों की सौवीं वर्षगांठ मनाने का वाकई यह नायाब तरीका ही कहा जायेगा, जब यथार्थ के फिल्मांकन की वजह से कोई फिल्म रोकी जा रही है।मालूम हो कि इस फिल्म में तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद कबीर सुमन बी नजर आयेंगे।इस फिल्म को समीक्षक डार्क पालिटिकल स्टोरी कहते रहे हैं। निर्देशक सुमन भी इसे डार्क एण्ड ग्रिम कहते हैं। आशय यह है कि यह फिल्म अंधकार में छुपे सामाजिक यथार्थ का गंभीर चित्रांकन है।इस फिल्म की कथा, विवरण  और चरित्र चित्रण में कुलीन फिल्मी परंपरा को गंभीर चुनौती दी गयी है।​फिल्म में त्रिकालदर्शी काक यानी दंडवायुश के रुप में नजर आयेंगे कबीर सुमन। फिल्म के मुख्य चरित्र भोदीके रुप में चर्चित बांग्ला फिल्म​​ `लैपटाप' में विशिष्ट भूमिका निभानेवाले कौशिक गांगुली नजर आते हैं।`देव डी' के दिव्येंदु को फैताड़ु यानी उड़नदस्ता के मदन के रुप में देखा ​​जायेगा। कमलिका कबीर सुमन की पत्नी की भूमिका में हैं तो नवोदित अभिनेत्री उशषी यौनकर्मी काली के रुप में नजर आती हैं।कांगाल मालसाट पर लंबे ्रसे से सुमन तैयारी कर रहे थे, जाहिर है।

महाश्वेता दी खुद नवारुणदा को खचड़ा लेखक कहने से नहीं चूकतीं। उनका कहना है कि नवारुम एक शब्द भी फालतू नहीं लिखता। दीदी के शब्दों में नवारुम की पर्यवेक्षण क्षमता अद्बुत है। ऴह कुछ इसतरह है कि घर में कब मच्छर घुसते हैं, नवारुणदा यह बता देंगे। अपने तमाम ​​उपन्यासों में कालकाता महानगर के वंचितों के जीवन की बारीक से बारीक छवि पेश करने में उन्होंने महारत दिखायी है। जो महाश्वेतादी ​​कहती हैं, वह मां बेटे के लेखन शैली का अंतर भी है। नवारुण दा के लेखन में कोई रोमानियत नहीं मिलती।इस लेखन में कहीं कोई चर्बी है​​ ही नहीं। `फैताड़ु' और `हर्बर्ट' होकर कांगाल मालसाट में उन्होंने बाकायदा एक वृत्त पूरा किया है।

'हरबर्ट' में कलकत्ता शहर का भी इतिहास है और मनुष्य का भी। बेशक उतना ही, जितना कि मैंने देखा जाना है। एक तरह से उपन्यास के चरित्र हरबर्ट की असहायता मैंने भी भोगी है। इसी असहायता को एक आकार देने की कोशिश है यह उपन्यास। -नवारुण भट्टाचार्य ...

नवारुण भट्टाचार्य को मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए आज फिर से 'संघर्ष और निर्माण' के नारे की याद आती है।जब साहित्य में वाम शासन के दौरान इसी जनप्रतरोध को उन्होंने आवाज दी, तो उनकी खूब वाहवाही हुई। और परिवर्तन के जरिये वाम शासन के अवसान के बाद उनकी ही औपन्यासिक कृति पर बनी फिल्म इस तरह निषिद्ध हो गयी। इसे सत्तावर्ग के पाखंड के अलावा क्या कह सकते ​​हैं? परिवर्तनपंथियों की कलामाध्यमों के बारे में इस बैमिलसाल समझदारी की बलिहारी!

`कांगाल मालसाट' में युद्ध की घोषणा ही नही है, बल्कि सार्थक जुझारु मोर्चाबंदी है, जिसमें सत्तावर्ग की रक्षा पंक्ति को तहस नहस करने का पूरा विवरण है।पूरी रणनीति है। जैसा कि महाश्वेता दी कहती हैं, इस उपन्यास में फालतू कुछ भी नहीं है। जब यह उपन्यास लिखा गया, तब नवारुणदा भाषा बंधन के प्रकाशन की तैयारी भी कर रहे थे। साहित्य पर वर्चस्ववाद के खिलाफ वह उनकी युद्धघोषणा थी।तब उनके उड़नदस्ते में हमारे जैसे लोग भी हुआ करते थे।फिल्म को सर्टिफिकेट न देने का​​ यह तर्क भी है कि सिंगुर प्रकरण का उल्लेख उपन्यास में नहीं है। तो क्या निर्देशकीय स्वतंत्रता और रचनात्मकता का कोई महत्व नहीं है। बंगाल के ही जगतविख्यात फिल्मकार सत्यजीत राय ने अपनी `पथेर पांचाली' समेत अपु त्रिलाजी  में विभूति भूषण के मूल उपन्यास की कथा का ​​अतिक्रमण किया। इसीतह `अरण्येर दिनरात्रि' में तो उपन्यासकार सुनील गंगोपाध्याय के मुताबिक कथा का वर्ग विन्यास ही उन्होंने बदल​ ​ दिया था।


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