THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, February 23, 2013

माओवाद का विकल्प नहीं बन पायी सरकार

माओवाद का विकल्प नहीं बन पायी सरकार


बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं, जो नक्सली विचारधारा में मददगार साबित हो रहे हैं. सरकारें गरीबों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में नाकाम रही हैं. हमारा आर्थिक और शासनतंत्र आदिवासियों के लिए मुफीद नहीं है...

राजीव

केन्द्र सरकार ने देश के सात राज्यों के 60 जिलों को माओवाद प्रभावित मानते हुए उन्हें विकास के लिए सबसे बड़ा रोड़ा बतलाया है. वहीं प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने अपने हालिया बयान में माओवाद की समस्या को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा और चुनौती कहा. ऐसे में सवाल उठता है कि समता के सिद्धांत पर सभी को बुनियादी सुविधा का हक है, से शुरू हुए माओवादी आंदोलन ने आज हिंसक रूप क्यों अख्तियार कर लिया है.

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आदिवासी अत्याचारों की सरकार

माओवादी विचारधाराओं को मानने वाले ससंदीय लोकतंत्र, संवैधानिक मूल्यों तथा राजनीतिक संरचना को नहीं मानते हैं, मगर इन दिनों माओवादियों का विचारधारा से मोहभंग हो रहा है और ज्यादातर स्थानों में फिरौती-वसूली, जबरन धन उगाही और अपराध का जरिया बनता जा रहा है. बस्तर के पत्रकार नेमीचंद की हत्या कर बीच सड़क पर फेंक दिए जाने के बाद जनता की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले माओवादियों ने पत्रकार नेमीचंद की हत्या को स्वीकार करते हुए कहा कि चूंकि वह पुलिस का मुखबिर था, इसलिए उसे मार दिया गया. निश्चित तौर पर जनता की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले माओवादियों का यह कृत्य घोर निंदनीय है.

गौरतलब है कि माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में झारखंड में 14 जिले, ओडिशा में 15, छत्तीसगढ़ में 10, मध्यप्रदेश में 8, बिहार में 7, महाराष्ट्र में 2, आंध्र प्रदेश में 2 तथा एक-एक जिला उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल शामिल हैं. इसके अतिरिक्त कुछ अन्य जिलों में भी माओवाद का प्रभाव है. माओवाद प्रभावित इन जिलों को देखा जाये तो बिहार को छोड़ नक्सल प्रभावित सभी इलाकों में समानता नजर आती है. ये सभी इलाके आदिवासी बहुल हैं तथा वनों से घिरे हुए हैं. 

ये क्षेत्र अकूत खनिज संसाधनों जैसे कोयला, लौह अयस्क, बाक्साइट, यूरेनियम आदि से समृद्ध हैं और सभी राज्य मुख्यालयों से लगभग कटे हुए हैं. यह समानता इस बात की तरफ इंगित करती है कि हमारा आर्थिक, राजनीतिक शासनतंत्र आदिवासियों के संबंध में कारगर नहीं है इसमें परिवर्तन अपेक्षित है. वर्ष 2011 के सेंसस के अनुसार देश में आदिवासियों की आबादी 8 करोड़ से अधिक है और वह देश की आबादी के 8 प्रतिशत हैं, जबकि विकास के सभी मापदंडों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, पोषण, स्वच्छता आदि में देश के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले सबसे निचले स्तर पर है. 

यही वजह है कि आदिवासी अपनी समस्याओं का हल माओवाद में देखते हैं. भूख, अशिक्षा, पोषण का दंश झेलते भोले-भाले आदिवासियों को जबरन माओवादी बनना पड़ता है. अगर सरकार आदिवासियों की समस्याओं का त्वरित गति से समाधान नहीं करती है तो आने वाले दिनों में माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है. हालाँकि यह बात सरकार पक्ष में सुखद कही जा सकती है कि अभी भी सभी आदिवासी माओवादियों के साथ नहीं हैं.

गौरतलब है कि भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण महकमा वन विभाग ने आदिवासियों के प्रति गलत और गैरकानूनी रवैया अख्तियार कर रखा है. केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने 26 जनवरी को अपने झारखंड यात्रा के दौरान इस बात को स्वीकार किया कि 'वन विभाग के अफसरों ने कानून की आड़ में निर्दोष आदिवासियों को झूठे मुकदमे में फंसा रखा है. राज्य में छह हजार से अधिक निर्दोष आदिवासी झूठे मुकदमे में फंसकर जेल में हैं.' 

इस सम्बन्ध में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंड़ा को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने जांच करने की बात कही थी लेकिन अभी तक इस मामले में कोई रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुयी है. उल्लेखनीय है कि झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है तथा राज्यपाल के सलाहकार के. विजय कुमार ने भी इस मुद्दे पर हाल में रिपोर्ट तलब की है. हालांकि एक सप्ताह गुजर जाने के बाद भी अभी किसी तरह की रिपोर्ट पेश होने की खबर नहीं है.

प्रसिद्ध समाजशास्त्री बाल्टर फर्नांडिस के अनुसार 'बीते पांच दशकों में विकास योजनाओं की वजह से मध्य और पूर्वी भारत में 50 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. विस्थापित लोग आज भी पुर्नवास की बाट जोह रहे हैं. आज भी बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं, जो नक्सली विचारधारा में मददगार साबित हो रहे हैं. यह राज्य और केन्द्र सरकार की विफलता का प्रमाण है. सरकारें गरीबों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में नाकाम
रही हैं. यह बात साबित होती रहती है कि हमारा आर्थिक और शासनतंत्र आदिवासियों के लिए मुफीद नहीं है, इसमें परिवर्तन की जरुरत है. केन्द्र और राज्य सरकारों को आदिवासियों की समस्या को विशेष तवज्जो देनी चाहिए.'

अंग्रेजों के जमाने का वन कानून माओवाद के विस्तार की एक बड़ी वजह है. वन कानून 1967 के अनुसार वन अधिकारी वन की किसी भी संपदा को
नुकसान पहुँचाने या निजी प्रयोग में लाने वाले को अपराधी मानें. सदियों से जो आदिवासी वनों पर निर्भर हैं, जिनकी वजह से वन बचा हुआ है, को यह कानून एक पल में अपराधी घोषित कर देता है, जबकि केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनवासी, वन अधिकारों की मान्यता, अधिनियम 2006, नियम 2008 को 15 दिसंबर 2006 को लोक सभा से व 18 दिसंबर 2006 को राज्यसभा से पारित कर दिया है. इस पर राष्ट्रपति ने 29 दिसंबर 2006 को हस्ताक्षर कर दिये तथा नियम 2008 के साथ वनाधिकार अधिनियम 1 जनवरी 2008 से पूरे देश में लागू कर दिया गया. 

इस अधिनियम को पारित करने के पीछे केन्द्र सरकार का यह मानना था कि इससे आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की भरपाई की जा सकेगी. मगर इस अधिनियम को सही ढंग से लागू नहीं होने का सबसे बड़ा बाधा वन विभाग है, जो नहीं चाहता है कि वन भूमि आदिवासियों को मिले. वन विभाग के कई आला सेवानिवृत अधिकारीगण ने वनरोपण के नाम पर वन में निवास करे वाले आदिवासियों व अन्य परम्परागत वनवासियों को मुकदमों में फंसा रखा है. 

झारखंड में राज्यपाल के केन्द्र से भेजे गए पूर्व सीआरपीएफ के डीजी के. विजय कुमार ने झारखंड राज्य के विभिन्न जेलों में वन विभाग द्वारा किए गए मुकदमों में बंद लगभग 6000 आदिवासियों के संबंध में एक सप्ताह के अंदर रिपोर्ट सौपने का आदेश दिया है.

इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज हजारों हथियारबंद गुरिल्ला हिंसा के लिए तैयार हैं. उनकी औसत आयु 18 से 20 वर्ष है. ये इस बात का पुख्ता सबूत है कि हमारी शासन व्यवस्था की आधारभूत संरचना कार्य नहीं कर पा रही है. लोकतंत्र से एक बड़ी तादाद के विमुख होने से हमारी राजनीतिक व्यवस्था बहुत हद तक जिम्मेवार है. 

नागालैंड, असम और पंजाब में विश्वास बहाली के जरिए शान्ति लाने में बहुत हद तक सफलता मिली है. यहां दोनों पक्ष समझौता वार्ता के जरिए समस्या समाधान पर पहुँचे हैं. असम, नागालैंड और मिजोरम में कभी उग्रवादी रहे आज राजनेता बन चुके हैं. ऐसा प्रयोग देश के अन्य नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भी किया जा सकता है.

rajiv.jharkhand@janjwar.com

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