THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, February 23, 2013

यौन हिंसा की जड़ें

यौन हिंसा की जड़ें

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/37672-2013-01-29-05-44-09

Tuesday, 29 January 2013 11:13

अजेय कुमार 
जनसत्ता 29 जनवरी, 2013:  सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में भारत सरकार द्वारा गठित समिति का उद्देश्य था आपराधिक कानूनों और अन्य प्रासंगिक कानूनों में ऐसे संभव संशोधन सुझाना ताकि 'महिलाओं पर चरम यौन हमलों के मामलों में तेजी से फैसला हो सके और मुजरिमों को कहीं ज्यादा सजा दिलाई जा सके।' अभी इस समिति को बने ज्यादा समय नहीं हुआ कि बलात्कार की अन्य हालिया घटनाओं में बहुत जल्द न्यायिक फैसले करने के उदाहरण सामने आ रहे हैं। इसका अर्थ साफ है कि न्यायिक व्यवस्था भी देखती है कि कौन-से अपराध पर सरकार गंभीर होने का संकेत दे रही है। सरकार ने लोकसभा में पिछले साल 19 अक्तूबर को एक विधेयक पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि यौन हमला एक लिंग-निरपेक्ष अपराध है। इस विधेयक में भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं में यौन हमले को लिंग-निरपेक्ष बनाने के लिए कई संशोधनों का प्रस्ताव किया गया है। अगर यौन हमले को लिंग-निरपेक्ष अपराध मान लिया जाए तो महिलाओं के खिलाफ यौन हमले का सवाल ही महत्त्वहीन हो जाता है। वर्मा समिति को सबसे पहले इन संशोधनों को वापस लेने की सिफारिश करनी चाहिए थी।
दूसरे, उन लोगों के प्रति कानून और भी सख्त होना चाहिए, जिनका काम कानून की रक्षा करना है। सरकारी कर्मचारियों, पुलिसकर्मियों, जेल प्रबंधकों के साथ-साथ सेना, अर्द्धसैनिक बलों आदि के लोगों से सख्ती से पेश आना होगा। मणिपुर की थांगजाम मनोरमा, कश्मीर की नीलोफर और अशिया, और हजारों आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं से, विशेषकर गुजरात दंगों में, बलात्कार करने के बाद हत्याएं करने की कई घटनाएं सामने आई हैं। इन्हें 'विरल में भी विरलतम' की श्रेणी में रख कर दोषी फौजियों, पुलिसकर्मियों और दंगाइयों को फांसी की सजा देनी चाहिए क्योंकि ये केवल बलात्कार के नहीं, हत्या के भी मामले हैं। दिल्ली बलात्कार कांड के अपराधी भी इसी श्रेणी में आते हैं।
संगीनतर यौन हमलों में सामूहिक बलात्कार, संरक्षण में बलात्कार, बच्चों से बलात्कार, सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा के अंतर्गत हुए बलात्कार, मानसिक या शारीरिक रूप से अपंग के साथ बलात्कार आदि शामिल होने चाहिए। ऐसे मामलों में कठोर आजीवन कारावास का प्रावधान होना चाहिए जो अपराधी की स्वाभाविक मृत्यु तक चले।
बलात्कार के सभी मामलों में समयबद्धता का ध्यान रखा जाए। अमूमन तीन महीनों में फैसला सुना देना चाहिए। यौन हिंसा के एक लाख से ज्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं। उन्हें त्वरित अदालतों को हस्तांतरित करना चाहिए। जावेद अख्तर ने बिल्कुल सही कहा है कि जो सजा वर्तमान कानून में बलात्कार के लिए निर्धारित है, वह भी कितने अपराधियों को दी जाती है। 
दिल्ली में जो प्रदर्शन हुए, उनमें अधिकतर प्रदर्शनकारियों की तख्तियों पर 'बलात्कारियों को फांसी दो' या 'बधियाकरण' की मांगें लिखी हुई थीं। यह बात किसी हद तक सही है कि आज समाज में कानून का डर नहीं रह गया है। लेकिन बलात्कार का मामला चोरी-डकैती, लूटपाट, हत्या जैसे अपराधों से भिन्न है। यह केवल कानून को कठोर बनाने से खत्म नहीं होगा। इसकी जड़ें हमारी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और जनमानस के सोच में बहुत गहराई तक धंसी हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कठोर कानून बनाए जाने के बावजूद महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाओं में कमी नहीं आ पाई है। 
यूरोप में एक जमाने में खरगोश चुराने पर फांसी दे दी जाती थी। यह दौर खत्म हुआ तो नाजियों ने अपराध को खत्म करने के लिए अपराधियों को ही खत्म करने का तर्क दिया। हिटलर के शासन में फ्रीजलर नाम के कानूनमंत्री का विश्वास था कि दंड को इतना कठोर बना दो कि लोग अपराध करने से पहले कांपने लगें। इन तमाम उपायों ने आज तक अपराध को खत्म करने में सफलता नहीं पाई है।
समस्या यह है कि कानून बनाने वालों से लेकर उन्हें लागू करने वालों तक के सोच में ही गड़बड़ है। जरा देखें कि हमारे न्यायाधीशों की एक जमात औरत के बारे में क्या सोचती है। कल्याणी मेनन और एके शिवकुमार द्वारा लिखित पुस्तक (भारत में स्त्रियां) में 1996 में किए गए एक अध्ययन का जिक्र है, जिसमें औरतों के खिलाफ हिंसा के बारे में 109 न्यायाधीशों से लिए गए साक्षात्कारों का निचोड़ दिया गया है। इसके कुछ अंश इस प्रकार हैं।
अड़तालीस प्रतिशत न्यायाधीशों का मानना था कि कुछ मौके ऐसे होते हैं जब पति द्वारा पत्नी को थप्पड़ मारना जायज होता है। चौहत्तर प्रतिशत का मानना था कि परिवार को टूटने से बचाना ही औरत का पहला सरोकार होना चाहिए, चाहे वहां उसे हिंसा का सामना ही क्यों न करना पड़ता हो। अड़सठ प्रतिशत का मानना था कि 'उत्तेजक' कपड़े पहनना यौन हमले को बुलावा देना है। पचपन प्रतिशत का मानना था कि बलात्कार के मामले में औरत के नैतिक चरित्र की अहमियत है।
इसी प्रकार पुलिस में जो लोग काम करते हैं, उनका क्या सोच है? एक किस्सा मैंने सोमनाथ चटर्जी के मुख से सुना है। उन्होंने बताया कि हरियाणा में एक औरत को जब उसके पति ने पीटा तो वह थाने पहुंची। थानेदार ने उसकी कहानी सुनी और पति को थाने में बुलवाया। पति से उसने एक ही सवाल पूछा कि शिकायतकर्ता क्या उसकी जोरू है? जब उसने 'हां' में जवाब दिया तो उसे बिना कुछ कहे थानेदार ने घर भेज दिया। फिर औरत से कहा, 'तेरा पति अगर अपनी लुगाई (पत्नी) को नहीं पीटेगा तो क्या पड़ोसी की लुगाई को पीटेगा?' इस तरह उसने औरत को भी डांट कर उसके घर भेज दिया। 

पिछले दिनों 'तहलका' पत्रिका ने दिल्ली के विभिन्न इलाकों में तैनात पुलिसकर्मियों के साक्षात्कार प्रकाशित किए हैं जिनमें दो को छोड़ कर सभी की राय थी कि जो महिलाएं बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने थाने में आती हैं, वे या तो अनैतिक, स्वच्छंद स्वभाव की, चरित्रहीन होती हैं, या वेश्याएं होती हैं और वे पुरुषों को ब्लैकमेल करना चाहती हैं। जिनके कंधों पर महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, उन्हें अगर अपना सोच बदलने के लिए प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा तो परिवर्तन कैसे होगा? 
यह बात भी समझने की है कि बलात्कार केवल यौन-लिप्सा मिटाने का मामला नहीं है, यह एक महिला पर अपना प्रभुत्व जमाने का भी मामला है। सोलह दिसंबर के सामूहिक बलात्कार के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने कहा है कि उसे सबसे अधिक गुस्सा तब आया जब पीड़िता ने उसका खुला विरोध किया। जब आसाराम बापू यह कहते हैं कि लड़की को बलात्कारियों के पैरों में पड़ जाना चाहिए था, तो वे एक तरह से ड्राइवर रामसिंह के सोच का ही समर्थन कर रहे होते हैं। यह सोच, केवल आसाराम बापू का नहीं है, हमारे अधिकतर राजनीतिकों का भी है, वे मर्द हों या औरत, मोहन भागवत हों या ममता बनर्जी।
जिन लोगों ने दिल्ली में छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार किया, वे इसी समाज के बाशिंदे हैं। यह वह समाज है जहां विज्ञापनों और फिल्मों में औरत को लगभग नंगा दिखा दिया जाता है। यहां 'मुन्नी बदनाम हुई', 'शीला की जवानी' के बाद ऐसे गानों के बोलों पर कोई रोक नहीं कि 'मैं तंदूरी मुर्गी हूं यार, घटका ले मुझे एल्कोहोल से' (दंबग-2 का फेवीकोल वाला गीत)। सामूहिक बलात्कार करने वाले ड्राइवरों और रिक्शाचालकों के शैक्षिक स्तर को देखें। उन्हें एक सभ्य मनुष्य बनाने के लिए इस व्यवस्था ने कितना खर्च किया है, इस पर भी सोचना होगा।  क्या वे समझ सकते हैं कि एक पारा-मेडिकल छात्रा इस समाज को कितना कुछ दे सकती है और उसकी हत्या नहीं करनी चाहिए। इन लोगों ने औरतों को केवल अपने घरों में खटते देखा है। उन्होंने शराबी पिता और घर में चाचा-ताऊ की जबर्दस्त हिंसा झेलती हुई अपनी बहनों और मांओं को देखा है। उन्होंने युवा होते-होते देखा है कि घर के परेशानहाल पुरुष उनके साथ समाज में हो रहे अत्याचारों का बदला घर की औरत की देह से लेते हैं। और घर अगर गांव में हो, तो शहर में चलती-फिरती कोई भी औरत उनका शिकार हो सकती है। 
उड़नशील विदेशी और देसी पूंजी महिलाओं को घर से बाहर आने के लिए आमंत्रित कर रही है, पर समाज अब भी पुरुषवादी वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है। उद्योगीकरण के लिए, औरत-मर्द की समानता का प्रश्न इसलिए केंद्रीय महत्त्व का है। 
नेहरू ने कहा था कि भारत में प्रगति का यह आलम है कि एक तरफ नाभिकीय संयंत्र हैं तो दूसरी तरफ गोबर का चूल्हा। आज भी हम देखते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में सड़कों पर भैंसा-बुग्गी के साथ-साथ मर्सिडीज बैंज दौड़ती हुई दिखाई देती है। लालबत्ती पर गौर से देखने पर इन लंबी-लंबी कारों में अनपढ़ गंवार युवा भी दिखाई दे जाते हैं।
यह नवधनाढ्य वर्ग है जिसके पास पिछले कुछ वर्षों में नवउदारवादी नीतियों के कारण बहुत पैसा आ गया है। प्राय: इनके पास पुश्तैनी जमीन है, जो शहरों में बड़े-बड़े मॉल बनाने की जरूरत के चलते बहुत महंगी हो गई है। युवाओं के पास पचास-पचास हजार के मोबाइल और घड़ियां, लेकिन शिक्षा के नाम पर सिफर। ऐसे लड़के जब शहरों और कस्बों में अपनी गाड़ियों में निकलते हैं तो महिलाएं इनका पहला शिकार बनती हैं।
संपन्नता और ऊंचे रसूख के कारण इस वर्ग के बलात्कारी एक ही रात में जमानत लेकर छूट जाते हैं। पकड़ में आते हैं तो रिक्शाचालक, ट्रक ड्राइवर आदि। इसका अर्थ यह नहीं कि दरिद्र वर्ग के लोगों को बलात्कार करने का अधिकार है। पर हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए, जैसा कि डायसन कार्टर ने अपनी मशहूर पुस्तक 'पाप और विज्ञान' में लिखा है कि ''प्रत्येक अपराध का बीज समाज में मौजूद होता है। समाज ही उन परिस्थितियों को जन्म देता है जिनसे अपराध के लिए इंसान को बढ़ावा मिलता है।'' 
एक और बात! बलात्कार का अर्थ इज्जत का चले जाना नहीं होना चाहिए। दरअसल, इज्जत तो बलात्कारी की जानी चाहिए जैसे किसी लुटेरे या जेबकतरे की जाती है, पर हमारे यहां इसे औरत की इज्जत से जोड़ दिया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 और 509 में भी 'महिला के मान भंग करने' का जिक्र है। 
सुषमा स्वराज ने बलात्कार की शिकार महिलाओं को जिंदा लाश ही कह डाला। क्या कौमार्य खो जाने से एक स्त्री के जीवन का मूल्य खत्म हो जाता है? इस धारणा को खारिज करने की जरूरत है कि औरत की इज्जत उसकी योनि में है। यह उतनी ही बेहूदा बात है कि कोई यह कहे कि एक पुरुष की बुद्धिमता उसके जननांग में होती है। बलात्कार जघन्य अपराध है, इसमें दो राय नहीं, पर एक औरत की जिंदगी में बहुत-सी परेशानियां, पेचीदगियां हैं जैसे किसी पुरुष की जिंदगी में। बहुत-सी नारीवादी स्त्रियां पितृसत्ता से नफरत करते-करते पुरुषों से ही नफरत करने लगती हैं। सवाल पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म करने का है, पुरुषों को नहीं। मुक्तिकामी जनता- जिसमें पुरुष और स्त्रियां दोनों शामिल हैं- के संघर्षों का हिस्सा बन कर ही स्त्रियों समेत शोषित-पीड़ित वर्गों की आजादी और इज्जत की रक्षा की जा सकती है।

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