THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, February 1, 2014

हम वाकई एक असभ्य समाज हैं, क्रूर हैं

हम वाकई एक असभ्य समाज हैं, क्रूर हैं

हम वाकई एक असभ्य समाज हैं, क्रूर हैं

HASTAKSHEP

दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश

पलाश विश्वास

दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश। इसी नस्लभेद की उपज है जाति व्यवस्था और जातिव्यवस्था से बाहर इस देश की निनानब्वे फीसद जनता को वध्य बना देने का यह निरंकुश राज्यतन्त्र। मामला सिर्फ अरुणाचल का नहीं है और न पूर्वोत्तर का। यह नस्लभेद मुसलमानों के नागरिक न मानने और हिंदू राष्ट्र की मुहिम भी है। यह कश्मीर समेत तमाम हिमालयी लोगों की तबाही का आलम है। इसी नस्ल भेद के कारण बांग्ला में बोलने वाला हर आम व खास आदमी बाकी देश की नजर में बांग्लादेशी घुसपैठिया है। इसी वजह से काला हर आदमी अशुद्ध है और अस्पृश्य महिषासुर या वानर है तमिलनाडु समेत पूरा दक्षिण भारत। इसी नस्लभेद की वजह से देश हर आदिवासी को नक्सली, माओवादी और हर मुसलमान को दहशतगर्द मानता है। मणिपुर, असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, नगालैंड, अरुणाचल की क्या कहें, पूरे हिमालयी क्षेत्र का हिन्दुत्व और सवर्णत्व इस नस्ली भेदभाव के आगे उन्हें गोरखा या पहाड़ी बना देता है।

सिखोंके नरसंहार का तीस साल बाद भी अभी न्याय नहीं हुआ। इस देश में किसी भी दंगे का आज तक कोई न्याय नहीं हुआ। पैंतीस साल हो गये मरीचझांपी नरसंहार के, न्याय की माँग करने वाले ही सिरे से गायब हैं। आदिवासियों के विनाश पर विकास गाथा की बहुमंजिली इमारत है तो कश्मीर,समूचे हिमालयी क्षेत्र, मध्यभारत और पूर्वोत्तर के अलावा जाति हिंसा के तहत पूरे देश में वैज्ञानिक तकीनीकी समृद्ध पद्धति से अविराम नरसंहार की संस्कृति है। अंध राष्ट्रवाद की यह फसल नस्ली दिल्ली के राष्ट्रगान और भव्य परेड का स्थायी भाव है।

हमारे आदरणीय मित्र विद्याभूषण रावत जी ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा हैः

दिल्ली के 'गरीब', 'जातिवादी' और 'नस्लवादी' लोगों ने अरुणाचल प्रदेश के एक लड़के को पीट-पीट के मार डाला। ये घटना दिल्ली के प्रतिष्टित ग्रीन पार्क इलाके में हुयी है। ये राष्ट्रीय शर्म है। दिल्ली की घटना अकेली नहीं है, हैदरबाद, बेंगलुरू, मुम्बई आदि शहरो में वाले उत्तर पूर्व के छात्रों को नसलवादी घटनाओं का शिकार होना पड़ता है। भारत को सोचना पड़ेगा कि क्या ऐसी हालातों में देश की एकता रह पायेगी। क्या हम अपने उत्तर पूर्व के मित्रों, भाई बहिनों को उनके अधिकारो की साथ नहीं रहने देंगे। इस देश पर उत्तर पूर्व के लोगों का उतना ही हक़ है जितना किसी और का। एक बात स्वीकारनी पड़ेगी कि हम वाकई एक असभ्य समाज हैंक्रूर हैं। हमारी राजनीति के लिये ये प्रश्न जरुरी नहीं है। भ्रष्टाचार के नाम पर केवल उत्तर भारतीय प्रभुत्वाद को देश पर थोपने की हर कोशिश की जा रही है लेकिन देश की विविधता, उसके अन्दर रह रहे उत्तर पूर्व के लोगों को देश में उनके अधिकार नहीं मिल पा रहे। दिल्ली में नस्लवादी और जातिवादी नजरिया भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा है और अब समय आ गया है हम सब इसके खिलाफ खड़े हों और अपना विरोध दर्ज करें और दोगली राजनीति का पर्दाफाश करें।

विद्याभूषण जी के इस मंतव्य से मैं सहमत हूँ।

दिल्ली नस्लभेदी है और नस्लभेदी दिल्ली की प्रजा है बाकी देश। यही नस्ली वर्णवर्चस्वी राज्यतन्त्र इस देश की बुनियादी समस्य़ाओं की जड़ है। चूँकि दिल्ली में मीडिया को पल दर पल टीआरपी की जंग लड़नी होती है तो यह उसके लिये महज नया मसाला है,कोई मुद्दा-वुद्दा नहीं है। पैनलों मे जो लोग बैठकर बतियाते हैं और जो लोग टनों कागद इस एक प्रकरण पर खर्च करेंगे, उन्हें दरअसल इसी नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी सैन्य राज्यतन्त्र ने हर सुविधा दी हुयी है कि वे ऐसी बहसें चलाते रहें, लेकिन इस इंतजाम में कोई खलल न पड़ने दें। जो दिल्ली में हुआ, वह सिर्फ पूर्वोत्तर में या कश्मीर में या दंडकारण्य में ही नहींपूरे देश में रोजमर्रे का रोजनामचा है अंध राष्ट्रवादी धर्मोन्माद के नस्ली आवेग से अँधी आँखों को इरोम शर्मिला का आमरण अनशन साल दर साल चलते रहने का सच दिखायी नहीं देता।

इसी नस्ली भेदभाव की वजह से सिखों को तीस साल से अभी न्याय नहीं मिला और न इस जनसंहार संस्कृति के निर्माता लोग सत्ता से बाहर हुये। उस तन्त्र के लोग हमें बेवकूफ बनाने के लिये कुछ लोगों के अपराध का स्वीकार तो करते हैं, लेकिन न्याय करना तो दूर, इस देश व्यापी जनसंहार के लिये माफी माँगने के लिये भी तैयार नहीं हैं। क्या सिखों की नियति सर्वश्रेष्ठ खेती से देश को अन्न देने और जिस देश में उन्हें नागरिक और मानवाधिकार तक से वंचित किया जाता है, उसी देश लिये सीमा के भीतर बाहर अपने ताजा जवानों की शहादत देते रहने की है। जिन लोगों ने शहीदेआजम भगत सिंह की कुर्बानी तक को मटिया दिया, उन्हें आम सिखों की कितनी परवाह होगी,समझने वाली बात है। इस पर सिख जो तीस साल से लगातार न्याय की माँग कर रहे हैं, भारत राष्ट्र के धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रभक्त अपनी अंतरात्मा से पूछकर देखें, उसके पक्ष में बाकी देश कब और कितना खड़ा रह पाया।

मैं विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थी हूँ और मेरे पिता आजादी के पहले से इस देश में विभाजनपीड़ितों का नेतृत्व करते रहे हैं देशभर में। वे तेभागा से लेकर ढिमरी ब्लाक तक के किसान आंदोलनों के नेतृत्व में भी रहे हैं। मेरा जन्म, पढ़ाई लिखाई उत्तराखंड में हुआ। मैं लगातार 1973 में भारतीय भाषाओं में जनपक्षधर लेखन में जुटा हूँ,लेकिन असहमति के किसी भी बिंदु पर मुझे कोई भी बांग्लादेशी शरणार्थी कहकर गाली दे देता है। गाली देने वालों में सबसे आगे हैं बंगाली सत्तावर्ग के लोग जो नस्ली भेदभाव के सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं।

विभाजनपीड़ितों के देशनिकाले के लिये जो सर्वदलीय अभियान चल रहा है, वह नस्लभेद के सिवाय और कुछ भी नहीं है। बहरहाल मुझे अपने शरणार्थी होने का गर्व है। गर्व है कि मैं बंगाल के बजाय उत्तराखंड में जन्मा हूँ और इस देश के चप्पेचप्पे की माटी की सुगंध मेरे दिलोदिमाग में है। मैं विश्वप्रसिद्ध बंगालियों की तरह बाकी देश से न कटा हूँ और न अपने लोगों के अलावा दूसरों को अपने से कमतर समझता हूँ।

हम देश के इतिहास में शंहशाह अकबर का महिमामंडन करने से चूकते नहीं हैं। जोधा अकबर की प्रेमकथा हर माध्यम में हमें उद्वेलित करती है। दिलीपकुमार नर्गिस मधुबाला से लेकर आज के खान बंधुओं को हम पलक पाँवड़े पर बैठाये हुये रहते हैं। बहादुरशाह ज़फ़र को हम आजादी की पहली लड़ाई का शहीद मानते हैं और ताजमहल को अपनी विरासत। फिर भी आज तक हमने मुसलमानों को अपना भाई नहीं माना। जो अरब या मंगोलिया या तुर्की से आये होंगे, उनकी बात रही अलग, जो धर्मांतरित मुसलमान हैं देशज जैसे समूचे दक्षिण भारत में, पूर्व और पूर्वोत्तर में, उन्हें हम लगातार भारतीय मानने से इंकार कर रहे हैं। मुगलों-पठानों की हर विरासत पर केसरिया लहराने के एजंडे के साथ ही नमोमय है भारत। गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस के मानवता के विरुद्ध युद्ध अपराधियों को हम राष्ट्र की बागडोर सौंपना चाहते हैं। क्या यह हमारी युद्धक नस्ली सोच की वीभत्स अभिव्यक्ति नहीं है, सोचें दोस्त।

गुजरात से लेकर मुजफ्परनगर तक के दंगे इसी नस्ली भेदभाव की लहलहाती फसल है, जिसकी खेती आधुनिक भारत का सबसे फायदेमन्द कॉरपोरेट कारोबार और राजकाज है।

हर कोई चिल्लाता है, दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कशमीर मांगोगे तो चीर देंगे लेकिन कश्मीर में दिल्ली की जो सैन्यतांत्रिक दमन उत्पीड़न जारी है, उसके खिलाफ किसी की आवाज तो निकली ही नहीं, लेकिन जो कश्मीरियों को भी इस देश का नागरिक मानकर उनके मानवाधिकार और नागरिक हक हकूक की बात करते हैं, सशस्त्र सैन्य बल अधिनियम के खिलाफ बोलते हैं, हम सारे लोग गोलबंद होकर उसे राष्ट्रद्रोही करार देने में एक क्षण की देरी नहीं लगाते, भले ही वे लोग इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत कश्मीरियों के चुने हुये जनप्रतिनिधि, यहाँ तक कि कश्मीर का मुख्यमन्त्री ही क्यों नहीं हो।

हमें पूरा का पूरा कशमीर चाहिए, लेकिन कश्मीरी गैरनस्ली विधर्मी जनता के कत्लेआम को हम राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये निहायत जरूरी मानते हैं। इस देश के बाकी नागरिक आदिवासियों को अब भी असुर, राक्षस, दैत्य, दानव, वानर जैसा ही कुछ समझते हैं। बस, संवैधानिक मजबूरी है कि उनके हक हकूक की भी चर्चा हो जाती है। हमारी तरह समान नागरिक न हुये तो क्या उनका भी वोट बैंक है, आदिवासियों के वोट भी जनादेश के लिये जरूरी है। लेकिन जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से आदिवासी आवाम की निरंकुश बेदखली को हम भारत की अर्थव्यवस्था और विकास के लिये अनिवार्य मानते हैं।

पढ़े लिखे मध्य वर्ग, जिसे मुक्त बाजार के विस्तार के लिये प्रधानमंत्रित्व के अहम दावेदार सत्तर फीसद तक कर देना चाहते हैं, उसके नजरिये से आदिवासियों के सफाये से ही देश का विकास सम्भव है।

वैसे भी मुक्त बाजार का आधार यही है, आधार प्रकल्प यही है, ज्यादा से ज्यादा क्रयशक्ति सम्पन्न वर्ग की गोलबन्दी बाकी आधारविहीन जनता के खिलाफ। सत्तावर्ग के वर्णवर्चस्वी नस्ली सैन्यतन्त्र को बहाल करने के लिये नस्लीभेदभाव के तहत बाकी, राहुल गांधी के लक्ष्य के मुताबिक तीस फीसद का सफाया तो तय है। इस नस्ली भेदभाव के बारे में भी विचार करें मित्र।

हमें देश का मुकम्मल एक भूगोल चाहिए और उसके लिये हथियारों के जखीरा खड़ा करने के नाम पर पारमाणविक होड़ के तहत महाविध्वँस का आवाहन हम करते हैं पल-पल। रक्षा सौदों पर उंगली नहीं उठाते, उठाते हैं तो पवित्र रक्षाकवचों के अंतराल में कालाधन और अबाध विदेशी पूँजी प्रवाह के विनियन्त्रित मुक्त बाजार बने देश में नस्ली भेदभाव के तहत अस्पृश्य भूगोल के इंच-इंच में जनगण के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध और मनुष्यता के विरुद्ध जारी युद्ध गृहयुद्ध के औचित्य पर हम सवाल खड़े नहीं कर सकते।

सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून को खत्म करने की कोई भी माँग हमें देशद्रोह लगता है। जबकि सलवाजुड़ुम में, देश के तमाम आदिवासी इलाकों में संविधान, कानून के राज और लोकतन्त्र की गैरमौजूदगी हमें सामाजिक समरसता लगती है।

दक्षिण के लोग काले हैं तो हम चाहते हैं कि वे तो हमारी हिंदी को सीख कर बलरोज मधोक की दलील की तर्ज पर अपना भारतीयकरण कर लें, लेकिन हम हर्गिज उनकी कोई भाषा नहीं सीखेंगे। हम तमाम आदिवासियों में प्रचलित गोंड, कुर्माली, संथाली जैसी भाषाओं क अपनी भाषा नहीं मान सकते और न हम उनकी संस्कृति, उनके रंग रूप, उनकी देशज जीवन शैली का सम्मान करना जानते हैं। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ, विदेशी हमलावरों के खिलाफ आदिवासी हजारों साल से लड़ रहे हैं अलग-थलग। बाकी देश उनकी लड़ाई में कभी शामिल ही नहीं हुआ।

आज भी वही स्थिति है जस का तस।

उनके हक हकूक की हर लड़ाई को बाकी देश सत्ताभाषा के मुताबिक राष्ट्र के समक्ष सबसे बड़ी माओवादी चुनौती मानता है तो हर मुसलमान संदिग्ध दहशत गर्द है और बांगाल में बोलने वाला हर कोई विदेशी घुसपैठिया। और तो और, मुंबई में तो हिंदुत्व के झंडेवरदारों को उत्तर भारत के लोगों के खदेड़े बिना चैन नहीं है।

मुक्तबाजार के नोबेल गरिमामंडित राथचाइल्डस दामाद प्रवक्ता को भी बहुआयामी ज्ञान के लिये संस्कृत को पुनर्जीवित करने की जरूरत महसूस होती है, जिस भाषा में बोलने वाले कुल जमा पन्द्रह सौ लोग भी नहीं है। संस्कृत से बेहद पुरानी शास्त्रीय भाषा तमिल है, लेकिन वह सत्तावर्गीय विशुद्धरक्त आर्यों की भाषा नहीं है और भारत की प्राचीनतम द्रविड़ संस्कृति की धारक वाहक है। तमिल भी शास्त्रीयभाषा है। लेकिन डॉ. अमर्त्य सेन देश भर में तमिल या दूसरी दक्षिण भारतीय भाषाओं को सिखाने या गोंड या कोई आदिवासी भाषा सीखने की सलाह नहीं देते।

About The Author

 पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।


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