THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Monday, February 24, 2014

बहस तलब,मुद्दा जाति उन्मूलन का है,सत्ता में भागेदारी का नहीं।बंगाल में माकपाई दलित मुस्लिम राजनीति के पुनरुत्थान से जाति का गणित उसी तरह नहीं बदलने वाला है,जैसे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से।उदितराज का रामराज कायाकल्प अस्मिता राजनीति का ही नतीजा।

बहस तलब,मुद्दा जाति उन्मूलन का है,सत्ता में भागेदारी का नहीं।बंगाल में माकपाई दलित मुस्लिम राजनीति के पुनरुत्थान से जाति का गणित उसी तरह नहीं बदलने वाला है,जैसे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से।उदितराज का रामराज कायाकल्प अस्मिता राजनीति का ही नतीजा।

पलाश विश्वास

बहस तलब



Jagbir Shorot

2:50pm Feb 24

Dont come with stupid topics.

Castes will stay till the we are not educated and have a hold on who our sons and daughters marry


Shivesh Dwivedi

2:47pm Feb 24

Aalochana krte raho bs chutiyo ki tarah,

jhaantu dimaag, jhaantu soch


हम जगबीर जी और शिवेश जी के आभारी हैं कि कम से कम वे खुलकर बोल रहे हैं। बाकी जो झंडेवरदार लोग हैं,उनसे तो ये लोग बेहतर हैं, जिनमें असहमति का साहस है।हम भाषा पर कुछ नहीं कहना चाहते।


मुद्दा जाति उन्मूलन का है,सत्ता में भागेदारी का नहीं।बंगाल में माकपाई दलित मुस्लिम राजनीति के पुनरुत्थान से जाति का गणित उसी तरह नहीं बदलने वाला है,जैसे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से।


आज दिन भर फोन आते रहे।कुछ लोगों ने हर्ष के साथ सूचित किया कि हमारे कुछ और मित्र बिक गये।तो कुछ लोग दुःखी हैं कि हिंदुत्व को खारिज करने वाले उदितराज हिंदुत्व के ही सिपाहसालार कैसे बन गये। भारतीय जनता पार्टी ने मिशन 2014 के लिए हर मुमकिन रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। इसी मिशन के तहत बीजेपी अब दलितों को लुभाने की ओर एक कदम आगे बढ़ा चुकी है। जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष उदित राज तो बीजेपी के पक्ष में आ ही गए हैं, एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान के भी बीजेपी से गठबंधन के आसार दिख रहे हैं। उदित राज तो बीजेपी की जमकर तारीफ भी कर रहे हैं।


मोदी को अछूत और ओबीसी चहरा बतौर प्रोजेक्ट करने की रणनीति दरअसल बहुजनों की बड़ी केशरिया फौज बनाने की कवायद है।अब पासवान और उदितराज इस केशरिया हिंदुत्व पैदल सना के सिपाहीसालार होंगे।


उदित राज ने कहा कि एक समय था जब बीजेपी का विरोध किया था। अनुभवों के आधार पर हमने देखा कि बीजेपी दलितों के मामले में अन्य पार्टियों से अच्छी है। वाजपेई जी की सरकार ने संशोधन ने किया था जिससे दलितों का भला हुआ था लेकिन कांग्रेस की 10 साल की सरकार में दलितों के लिए कोई काम नहीं हुआ है। बीजेपी ही है जो भागीदारी की बात मान सकती है। दलित आदिवासी की भागीदारी के लिए हम बीजेपी में शामिल होंगे।


वहीं एनसीपी नेता तारिक अनवर ने बीजेपी-एलजेपी गठबंधन के आसार पर कहा कि अगर ये गठबंधन होता है तो राजनीति में इससे ज़्यादा विडम्बना की बात नहीं होगी। 2002 में गुजरात दंगों के बाद रामविलास ने इसी बात पर गठबंधन तोड़ा था और मोदी पर आरोप लगाए थे।



कुछ लोगों को उत्साह है  कि फेंस पर जो लोग खड़े हैं, वे लोग भी अब केशरिया बनने को हैं और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से को रोक ही नहीं सकता।


अरविंद केजरीवाल से भाजपायी और संघी कितना घबड़ाये हुए थे और केशरिया खेमे में कितनी बेचैनी है,इस ताजा दलबदल से साबित हुआ।यह सिलसिला आगे भी जारी रहना है।हिंदुत्व सुनामी क्या कुछ बह जायेगा कहना मुश्किल है।हम इसीलिए अपने अनुभव से बार बार निवेदन करते रहे हैं कि केजरीवाल पर जनपक्षधर मोर्चा और धर्मनिरपेक्ष ताकतें फिलहाल वार करने से बचें तो बेहतर है।केजरीवाल के हाशिये पर जाने का मतलब नरेंद्र मोदी के लिए खुल्ला मैदान।कांग्रेस की तरह नागपुर के संघी मुख्यालय से अन्ना टीम को प्लान बी के तहत मैदान में उतारकर ममता बनर्जी का विकल्प भी तैयार है।



हम लोकसभा चुनाव में अमेरिकी समर्थन से,मीडिया सक्रियता से और कारपोरेट लाबिइंग के तहत निर्मामाधीन जनादेश में हस्तक्षेप करने की हालत में नहीं है।जो भी करपोपरेट विकल्प सत्ता में काबिज होना है उसका एकमात्र विकल्प है जनसंहार।इसका जवाबी अंबेडकरी एजंडा जाति उन्मूलन है,जिसके तहत बहुसंख्य भारतीय जन गण और सामाजिक शक्तियों को हम गोलबंद कर सकते हैं। इसी रणनीति के तहत मोदी को अगर अरविंद केजरीवाल अपनी वोट काटू भूमिका से रोकते हैं,तो वह बहुत बड़ी राहत होगी।


बंगाल में बहुजनों को अब नजरुल इस्लाम,रज्जाक मोल्ला और नंदीग्राम विख्यात हल्दिया के पूर्व माकपाई सांसद लक्ष्मण सेठ की तिकड़ी के भरोसे से उम्मीद है कि स्वतंत्रतापूर्व अखंड बंगाल की तर्ज पर बंगाल में दलित मुस्लिम वोट गठजोड़ से फिर दलितों का राज बहाल हो जायेगा।


हमारे तमाम साथी उत्तर भारत के गो वलय में सामाजिक उथल पुथल से व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देखते रहे हैं। तमाम बहुजन चिंतक और मसीहा कारपोरेट राज में बुराई नहीं देखते और इस आक्रामक ग्लोबीकरण को बहुजनों के लिए  स्वर्णकाल मानते हैं।


कांशीराम जी ने जो सत्ता की चाबी ईजाद कर ली है,उसके बाद से निरंतर अंबेडकर हाशिये पर जाते रहे हैं और उनके जाति उन्मूलन के एजंडा अता पता नहीं है। सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी राजनीति,अस्मिता और पहचान को पूंजी बनाकर पार्टीबद्ध राजनीति कारपोरेट राज का पर्याय बन गयी है।


हमारे मेधावी साम्यवादी विद्वतजन इसे अंबेडकरी विचारधारा का ही परिणाम मानते हैं तो हम जाति उन्मूलन के एजंडे से अंबेडकरी आंदोलन के विचलन को ही भारतीय गणतंत्र के लिए सबसे बड़ा कुठाराघात मानते हैं।


बहरहाल लोक जनशक्ति पार्टी ने भाजपा का कमल थामने का फैसला कर लिया है। जल्द ही दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन की औपचारिक घोषणा कर दी जाएगी। इस बीच, इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता उदितराज भाजपा में शामिल हो गए हैं।


उदित राज का उद्भव ग्लोबीकरण को वैधता देने केलिए निजी क्षेत्र में आरक्षण आंदोलन के अभियान के साथ है।निजीकरण,उदारीकरण और एकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण को बेमुद्दा बनाकर अप्रासंगिक आरक्षण को मुद्दा बनाने के लिए बहुजनों की गोलबंदी के लिए उन्होंने बाबासाहेब की तर्ज पर धर्मंतरण अभियान भी चलाया और उनके वाजपेयी सरकार से भी उतने ही मधुर संबंध थे,जितने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ।उनकी कमान संभालने वाली युथिका मैडम अत्यंत चतुर महिला हैं,जो कारपोरेट प्रबंधन के तहत जस्टिस पार्टी चलाती रही हैं।इसलिए बदलते हुए मौसम में केशरिया कायाकल्प उनसे अपेक्षित ही था। बहुजन राजनीति के और भी बड़े नाम केशरिया होने वाले हैं क्योकि उनकी बहुजन हिताय या अंबेडकरी विचारधारा से लेना देना नहीं है।वे बहुजन कारोबारी हैं।


हमारे पुरातन पाठकों को मालूम होगा कि अस्सी के दशक में मैं खूब अखबारी लेखन करता रहा हूं लघुपत्रिकाओं में निरंतर छपते रहने के साथ साथ। 1991 से मेरा साम्राज्यवाद विरोधी उपन्यास अभियान इंटरएक्टिव अमेरिका से सावधान के साथ ही हमारा अखबारी लेखन छूट गया।लोगों ने हमें छापना ही बंद कर दिया।जब तक मै अखबारी लेखन करता रहा तब तक कुछ राजनेताओं और मंत्रियों को मैं चिरकुट नेता चिरकुट मंत्री लिखता रहा हूं।वही चिरकुट प्रजाति अब भारतीय कारपोरेट राजनीति के कुरु पांडव हैं। उनके विचलन,उनकी बाजीगरी विचार निरपेक्ष हैं और बाजार की अर्थव्यवस्था ने विचारधारा की हत्या सबसे पहले करके उन्हीं को सत्ता की चाबी सौंप दी है। हम नाम लेकर बताना नहीं चाहते। हाथ कंगन को आरसी क्य,पढ़े लिखे को फारसी क्या। बूझ लीजिये।


जाहिर है कि मुद्दा जाति उन्मूलन का है,सत्ता में भागेदारी का नहीं।अंबेडकरी आंदोलन को सत्ता की चाबी में बदलने की कवायद में लगे रंग बिरंगी अस्मिताओं के चितेरे पारटीबद्ध नेता और मसीहा की अर्जुन दृष्टि सत्ता मछली की आंख की निसानेबाजी में निष्णात हैं।मौसम चक्र की तरह हर चुनाव में पहला और बाद में सत्ता दावत में शामिल होने की गरज से महान अंबेडकरी बहुजन समाजवादी नेता माफिक पोशाक बदल लेते हैं।अस्मिता की राजनीति उनके लिए वोट बैंक साधने का सर्वोत्तम उपकरण है।


जब सत्ता सुख ही चरमोत्कर्ष है और उसी अर्गानेज्म में साध्य खोजा जाना है तो बहुजन या आम विमर्श धोखेबाज फंडा है। न बदलाव की कोई प्रतिबद्धता है और न बुनियादी जनप्रतिबद्धता।


जाति उन्मूलन इनका मिशन नहीं है।जाहिर है कि बिना पेंदी के लोटे की तरह इनमे ंसे कोई कहीं भी कभी भी लुढ़क सकता है।


राम विलास पासवान लगातार सत्ता शिखर पर रहने के अभ्यस्त रहे हैं और उनके,शरद पवार,मुलायम,लालू के पक्षांतर में चले जाने का अचरज भी नहीं होता।माना जा रहा है कि अगले एक-दो दिन में रामविलास पासवान से दोस्ती पर कोई औपचारिक घोषणा हो सकती है। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा को जोड़ने के बाद भाजपा लोजपा को भी साथ लाकर चुनावी समीकरण दुरुस्त करना चाहती है। बताते हैं कि खुद पासवान पर पार्टी के अंदर से बहुत दबाव है।


लोजपा के कई नेताओं का मानना है कि पिछले वर्षों में पार्टी को उस वोट बैंक का लाभ नहीं मिला, जिसके लिए नीति बनाई गई थी। अब जब प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को एसआइटी ने बरी कर दिया है, तो भाजपा के बहिष्कार का कोई कारण नहीं है।


सूरजभान सिंह ने खुलकर भाजपा से गठजोड़ की पैरवी कर दी है। पासवान के कई अन्य नजदीकी भी यही चाहते हैं। दरअसल, कांग्रेस-राजद-लोजपा गठजोड़ को लेकर भी कोई ठोस बात नहीं हो पाई है। ऐसे में एक रास्ता अपनाना जरूरी है।

हालांकि, लोजपा संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने अभी किसी गठजोड़ से इनकार किया, लेकिन साथ ही कहा कि पार्टी के अंदर कई विचार हैं। उम्मीद है कि लोजपा संसदीय बोर्ड की बैठक मंगलवार को होगी। ध्यान रहे कि बिहार में भाजपा पहले ही मोदी का ओबीसी कार्ड खेल रही है। अगर पासवान भी साथ आए तो राजग बड़े वोटबैंक का दावा कर सकती है।


गठजोड़ की पुष्टि तो भाजपा के नेता भी नहीं कर रहे हैं, लेकिन पटना में सुशील मोदी ने सीबीआई के मुद्दे पर पासवान का बचाव शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि पासवान को उलझाने की कोशिश हो रही है। हालांकि, औपचारिक घोषणा से पहले कई सीटों पर सहमति बनाना कठिन होगा।


दूसरी तरफ पासवान के दलित मोर्चे में रह चुके उदितराज सोमवार को भाजपा में शामिल हुए। माना जा रहा है कि पार्टी उन्हें उत्तर प्रदेश में किसी सीट से चुनाव भी लड़ा सकती है। अगर उदितराज और पासवान राजग में जुटे तो इसी के सहारे उत्तर प्रदेश में बसपा वोटबैंक को तोड़ने की कोशिश भी होगी।


लेकिन उदित राज को उनके रामराज समय से जानता रहा हूं।महात्वाकांक्षा और मौकापरस्ती इलाहाबाद के देहात मेजा के एक बेहद सादा मेहनती ईमानदार नौजवान को इस मंजिल तक ले जा सकता है कि हिंदुत्व के विरोध में बाबासाहेब की तर्ज पर बौद्ध धर्म अपना कर धर्मांतरण से सामाजिक क्रांति का अभियान चलाने के बाद वे ही हिंदुत्व के सिपाहसालार हो गये।


कभी देवी प्रसाद त्रिपाठी के कायाकल्प से सदमा पहुंचा था।बौद्धप्रिय मौर्य के हश्र पर हैरत हुई थी।


अब ऐसा नहीं होता।


शायद हमारे युवा मित्रों अभिनव सिन्हा,आनंद सिंह और सत्यनारायण सिंह सही कहते हैं कि सामाजिक बदलाव के लिए भाववाद यथार्थवादी दृष्टिकोण का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है।अस्मिता और पहचान की राजनीति अंततः भावनाओं की लहलहाती सुनामी है,कब किसे किस मुकाम तक बहा ले जायेगी,कहना मुश्किल है।


डा. अंबेडकर के बदले बहुजनों ने जिस कांशीराम की दीक्षा को अंतिम सत्य माना है,सत्ता में भागेदारी के चरम लक्ष्य हासिल करने के लिए मौकापरस्ती उसका अहम त्तव है ,जिसे सोशल इंजीनियरंगि कहा जाता है।


उदित राज जी सोनिया गांधी और राहुल गांधी से सीधा संबंध होने के हवाला देते हुए मुझसे कई दफा आर्गेनिक इंटेलेक्चुअल बनने की दावत देते रहे हैं। लेकिन हम तो शरणार्थी किसान के बेटे हैं,सामाजिक राजनीतिक आर्थिक ऊंचाइयों से डर लगता है।अंबेडकरवादियों,संघियों और ऐसे तमाम तत्वों के सत्ता निमंत्रण से मैं हाजार योजन दूर हूं।


सोशल इंजीनियरिंग का अंतिम लक्ष्य जाति उन्मूलन हो नहीं सकता।वह जाति को मजबूत करने का भेदभाव को प्रतिष्ठानिक मान्यता देने और वर्चस्व के तिलिस्म को अभेद्य बनाने का खेल है।


बंगाल में जो लोग दशको तक वामपंथ के जरिये क्रांति करने के लिए ब्राह्मण मोर्चा की सत्ता जीते रहे हैं,वे लोग ही अब दलित मुस्लिम सोशल इंजीनियरिंग की कमान थामे हुए हैं। रज्जाक अली मोल्ला जैसे राष्ट्रीय किसान नेता से तो बड़ी शख्सियत हैं नहीं उदित राज।


मायावती के तमाम आलोचक मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए केशरिया खेमे के सिपाहसालार शरद यादव,राम विलास पासवान और कैप्टेन जय नारायण निषाद के साथ न केवल मंच साझा करते रहे हैं,बल्कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए वैदिकी यज्ञ भी करवाते रहे हैं। अभी तो फेंस पर इंतजार में खड़े तमाम लोग है।


भारत में जाति सर्वस्व व्यवस्था को बहाल रखने में एसी फर्जी अस्मिता राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका है जिसका अंबेडकरी जाति उन्मूलन एजंडा से कुछ लेना देना नहीं है।ये लोग बहुसंख्य जनगण को धर्मोन्मादी प्रजाजन या जनसंहारी अश्वमेध की पैदल सेना बनाये रखने के दुश्चक्र के पेशेवर खिलाड़ी हैं।


हमें जाहिर है कि उनके उत्थान पतन पर हर्षविषाद भावांतर से बचना ही चाहिए।


राजनीति और सरकार में बड़ी जाति के लोगों का बोलबाला और पश्चिम बंगाल में दलित मुख्यमंत्री होने के नारे के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के विद्रोही नेता अब्दुर रजाक मुल्ला ने रविवार को दलितों और अल्पसंख्यकों की पार्टी खड़ी कर दी। मुल्ला ने कहा कि नया संगठन सामाजिक न्याय मोर्चा राजनीतिक दल का रूप लेगा और 2016 में राय में होने वाले विधानसभा चुनाव में कम से कम 185 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। संगठन के पहले सार्वजनिक सम्मेलन के मौके पर उन्होंने कहा, हम किसी जाति के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन लंबे समय से सरकार, पार्टियों और प्रशासन में उच्च जाति का बोलबाला है।


और दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों का भला कभी नहीं हो सका है।


संगठन ने दलित मुख्यमंत्री होने पर जोर देने के साथ ही एक मुस्लिम गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ ही साथ अन्य महत्वपूर्ण विभाग अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को दिए जाने की बात की है। सम्मेलन में अल्पसंख्यक समुदाय के कई धार्मिक नेताओं ने हिस्सा लिया। माकपा के एक और विद्रोही नेता लक्ष्मण सेठ ने भी नए संगठन को समर्थन देने की वकालत की है।


अपनी ही पार्टी माकपा और खास तौर से पूर्व मुख्यमंत्री एवं पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य बुध्ददेव भट्टाचार्य के धुर आलोचक मुल्ला ने हालांकि पार्टी छोड़ने के कारणों पर कुछ भी नहीं कहा।


अपने झारखंडी मित्र फैसल अनुराग का मंतव्य गौरतलब हैः


न तो यह अजीब है और न ही इस से कोई अचरज होना चाहिए रामविलास परसवान या उदितराज दलित नेता जरूर है लेकिन दलितों के नेता नहीं है. दूसरों की बैसाखी के बिना इनकी कोई पहचान नहीं है और अतीत में कभी रही भी नहीं.पासवान तो हमेशा सामंतो के दलाल रहे है और उदितराज कांशीराम से खुन्नस खाए नौकरशाह जो साहब होने की आकांक्षा पालता रहा है. अच्छा है चुनाव के पहले सब साफ हो रहा है क्योंकि भारत के जनगण अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देगें. भारतीय चुनावी राजनीति में पहले भी ऐसा हुआ है जनगण का अपना व्यापक गठबंधन उभरता रहा है जो अपने विवेक से फैसला लेता रहा है और इस बार ज्यादा सजगता से लेगा. थके—हारे और सत्ता के लालची नेताओं का यह हश्र देर—सेबेर होना ही था. आदिवासी—दलित जनगण ऐसे नेताओं को खारिज करने की परंपरा का निर्वाह करती रहेगी


Dalit Mat

उदित राज जी, क्या हो गया सर..?? काहे..?? खाली राज्यसभा और लोकसभा में पहुंचने के लिए..??

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दिलीप मंडल का मुताबिक

पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 तक यानी साढ़े तीन दशक के निरंतर वामपंथी राज के बाद....


देश का सबसे बड़ा वेश्यालय आज भी कोलकाता में है.

कोलकाता देश का अकेला शहर है, जहां हाथ रिक्शा से सवारियां ढोई जाती हैं.

पश्चिम बंगाल में मुसलमान नौकरियों और शिक्षा में सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं. चौथाई मुस्लिम आबादी के लिए 2.1% सरकारी नौकरियां.

पश्चिम बंगाल में ओबीसी आरक्षण सबसे बाद में लागू हुआ और सबसे कम लागू हुआ.

पश्चिम बंगाल में मुस्लिम दलित, आदिवासी और ओबीसी शहरी लोकजीवन में लगभग लापता हैं.

बांग्ला में दलित साहित्य की कोई मजबूत धारा विकसित नहीं हो पाई....


और जो वामपंथी कहते हैं कि सीपीएम संशोधनवादी हैं और खांटी वामपंथी वे हैं, उन्होंने सीपीएम की इन बातों के खिलाफ कोई आंदोलन किया, यह मेरी संज्ञान में नहीं हैं.


वामपंथ से उम्मीद थी कि वे सोशल पॉलिटिक्स का बेहतर मॉडल देते और देश की वंचित जतियों को कहते कि देखो, ऐसा होता है वामपंथ. 35 साल कम नहीं होते.


पश्चिम बंगाल की राजनीति में लंबे समय तकवाम सरकार में भू-राजस्व मंत्री रहे व दक्षिण 24 परगना जिले के भांगड़ से वर्तमान माकपा विधायक रज्जाक मोल्ला ने अलग पार्टी बनाने के संकेत दिए हैं। वामो से मोहभंग होने के बाद उन्होंने कहा कि बंगाल को अब दलित मुख्यमंत्री की दरकार है। वे प्रदेश में दलितों के हितों वाली सरकार बनाने का प्रयास करेंगे। हाल में दर्जन भर से अधिक मुस्लिम व दलित संगठनों को लेकर गठित अपने सामाजिक न्याय मंच के पहले सम्मेलन में उन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे को सामने रखा।


मोल्ला ने कहा कि बंगाल में ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्य महज चार फीसद हैं लेकिन आजादी के बाद से ही वे 96 फीसद लोगों पर राज कर रहे हैं। प्रदेश में मुसलमानों और अनुसूचित जाति व ओबीसी, आदिवासियों को अब तक सामाजिक न्याय नहीं मिल सका है। पीसी घोष से लेकर अब तक चार फीसद आबादी वाले 'कोलकाता केंद्रित लोग' ही बंगाल की जनता पर राज करते आए हैं। हालांकि उन्होंने स्वयं विधानसभा चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की लेकिन पार्टी बनाने का संकेत जरूर दिया। मोल्ला के पहले सम्मेलन में माकपा के विक्षुब्ध नेता व नंदीग्राम के तमलुक से प्रभावशाली सांसद रहे लक्ष्मण सेठ भी शरीक हुए। लेकिन वे श्रोताओं के बीच बैठे रहे। माकपा की ओर से उन्हें बर्खास्त करने की खबरों से जुड़े सवाल पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। मोल्ला के मंच को जदयू सांसद और पसमांदा मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष अली अनवर अंसारी ने भी अपना समर्थन दिया है। दक्षिण कोलकाता के रवींद्र सदन में रविवार को आयोजित सम्मेलन में अली अनवर ने कहा कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी दलित हैं। सम्मेलन को अन्य दलित नेताओं ने भी संबोधित किया।



Dear All,

I don't agree with Mr. Anand Teltumbade on unity of Dalit organisations (if my translation is correct) and Leftists. The simple reason, first why Dalit organisation can't come together, is CORRUPTION. It has gone so deep into the number of Dalit organisations  whether social or political, that these organisations are not in a position to correct themselves. Secondly Leftists have viewed Indian reality in a very narrow manner either innocently or deliberately and they themselves are part of carrying out the 'intellectual corruption' on which social hierarchy in India is based by merely treating Dalits as victims and not  beyond. We need a paradigm shift in our thinking in order to know the complex undercurrents which are flowing in Indian Socio-political environment particularly in youths. And most importantly, we must think beyond Dalit as symbolic identity. Then only we will be able to think about the new socio-political structures designed for dynamically deeper percolation of  democracy in Indian masses. This will certainly then strengthen democracy of India.



with warm regards

Anil Mokhade      

Bhanwar Meghwanshi

भाड़ में जाये ऐसे दलित नेता !


देश मे दलित बहुजन मिशन के दो मजबूत स्तम्भ अचानक ढह गये, एक का मलबा भाजपा मुख्यालय में गिरा तो दूसरे का एनडीए में, मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, मिट्टी जैसे मिट्टी में जा कर मिल जाती है, ठीक वैसे ही सत्ता पिपासु कुर्सी लिप्सुओं से जा मिले। वैसे भी इन दिनों भाजपा में दलित नेता थोक के भाव जा रहे है, राम नाम की लूट मची हुई है, उदित राज (रामराज), रामदास अठावले, रामविलास पासवान जैसे तथाकथित बड़े दलित नेता और फिर मुझ जैसे सैकड़ों छुटभैय्ये, सब लाइन लगाये खड़े है कि कब मौका मिले तो सत्ता की बहती गंगा में डूबकी लगा कर पवित्र हो लें।


एक तरफ पूंजीवादी ताकतों से धर्मान्ध ताकतें गठजोड़ कर रही है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की शक्तियां साम्प्रदायिक ताकतों से मेलमिलाप में लगी हुई है, नीली क्रान्ति के पक्षधरों ने आजकल भगवा धारण कर लिया है, रात दिन मनुवाद को कोसने वाले 'जयभीम' के उदघोषक अब 'जय सियाराम' का जयघोष करेंगे। इसे सत्ता की भूख कहे या समझौता अथवा राजनीतिक समझदारी या शरणागत हो जाना ?


आरपीआई के अठावले से तो यही उम्मीद थी, वैसे भी बाबा साहब के वंशजो ने बाबा की जितनी दुर्गत की, उतनी तो शायद उनके विरोधियों ने भी नहीं की होगी, सत्ता के लिये जीभ बाहर निकालकर लार टपकाने वाले दलित नेताओं ने महाराष्ट्र के मजबूत दलित आन्दोलन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और हर चुनाव में उसे बेच खाते है। अठावले जैसे बिकाऊ नेता कभी एनसीपी, कभी शिव सेना तो कभी बीजेपी के साथ चले जाते है, इन जैसे नेताओं के कमीनेपन की तो बात ही छोडि़ये, जब क्रान्तिकारी कवि नामदेव ढसाल जैसे दलित पैंथर ही भीम शक्ति को शिवशक्ति में विलीन करने जा खपे तो अठावले फठावले को तो जाना ही है।


रही बात खुद को आधुनिक अम्बेडकर समझ बैठै उतर भारत के बिकाऊ दलित लीडरों की, तो वे भी कोई बहुत ज्यादा भरोसेमंद कभी नहीं रहे, लोककथाओं के महानायक का सा दर्जा प्राप्त कर चुके प्रचण्ड अम्बेडकरवादी बुद्ध प्रिय मौर्य पहले ही सत्ता के लालच में गिर कर गेरूआ धारण करके अपनी ऐसी तेसी करा चुके है, फिर उनकी हालत ऐसी हुई कि धोबी के प्राणी से भी गये बीते हो गये, अब पासवान फिर से पींगे बढाने चले है एनडीए से। इन्हें रह रह कर आत्मज्ञान हो जाता है, सत्ता की मछली है बिन सत्ता रहा नहीं जाता, तड़फ रहे थे, अब इलहाम हो गया कि नरेन्द्र मोदी सत्तासीन हो जायेंगे, सो भड़वागिरी करने चले गये वहाँ, आखिर अपने नीलनैत्र पुत्ररतन चिराग पासवान का भविष्य जो बनाना है, पासवान जी, जिन बच्चों का बाप आप जैसा जुगाड़ू नेता नहीं, उनके भविष्य का क्या होगा ? अरे दलित समाज ने तो आप को माई बाप मान रखा था, फिर सिर्फ अपने ही बच्चे की इतनी चिन्ता क्यों ? बाकी दलित बच्चों की क्यों नहीं ? फिर जिस वजह से वर्ष 2002 में आप एनडीए का डूबता जहाज छोड़ भागे, उसकी वजह बने मोदी क्या अब पवित्र हो गये ? क्या हुआ गुजरात की कत्लो गारत का, जिसके बारे में आप जगह-जगह बात करते रहते थे। दंगो के दाग धुल गये या ये दाग भी अब अच्छे लगने लगे ? लानत है आपकी सत्ता की लालसा को, इतिहास में दलित आन्दोलन के गद्दारों का जब भी जिक्र चले तो आप वहाँ रामविलास के नाते नहीं भोग विलास के नाते शोभायमान रहे, हमारी तो यही शुभेच्छा आपको।


एक थे रामराज, तेजतर्रार दलित अधिकारी, आईआरएस की सम्मानित नौकरी, बामसेफ की तर्ज पर एससी एसटी अधिकारी कर्मचारी वर्ग का कन्फैडरेशन बनाया, उसके चेयरमेन बने, आरक्षण को बचाने की लड़ाई के योद्धा बने, देश के दलित बहुजन समाज ने इतना नवाजा कि नौकरी छोटी दिखाई पड़ने लगी, त्यागपत्रित हुये, इण्डियन जस्टिस पार्टी बनाई, रात दिन पानी पी पी कर मायावती को कोसने का काम करने लगे, हिन्दुओं के कथित अन्याय अत्याचार भेदभाव से तंग आकर बुद्धिस्ट हुये, रामराज नाम हिन्दू टाइप का लगा तो सिर मुण्डवा कर उदितराज हो गये। सदा आक्रोशी, चिर उदास जैसी छवि वाले उदितराज भी स्वयं को इस जमाने का अम्बेडकर मानने की गलतफहमी के शिकार हो गये, ये भी थे तो जुगाड़ ही, पर बड़े त्यागी बने फिरते , इन्हें लगता था कि एक न एक दिन सामाजिक क्रांति कर देंगे, राजनीतिक क्रान्ति ले आयेंगे, देश दुनिया को बदल देंगे, मगर कर नहीं पाये, उम्र निरन्तर ढलने लगी, लगने लगा कि और तो कुछ बदलेगा नहीं खुद ही बदल लो, सो पार्टी बदल ली और आज वे भी भाजपा के हो लिये।


माननीय डाॅ. उदित राज के चेले-चपाटे सोशल मीडिया पर उनके भाजपा की शरण में जाने के कदम को एक महान अवसर, राजनीतिक बुद्धिमता और उचित वक्त पर उठाया गया उचित कदम साबित करने की कोशिशो में लगे हुये है। कोई कह रहा है - वो वाजपेयी ही थे जिन्होेंने संविधान में दलितों के हित में 81, 82, 83 वां संशोधन किया था, तो कोई दावा कर रहा है कि अब राज साहब भाजपा के राज में प्रौन्नति में आरक्षण, निजी क्षैत्र में आरक्षण जैसे कई वरदान दलितों को दिलाने में सक्षम हो जायेंगे, कोई तो उनके इस कदम की आलोचना करने वालों से यह भी कह रहा है कि उदितराज की पहली पंसद तो बसपा थी, वे एक साल से अपनी पंसद का इजहार कुमारी मायावती तक पंहुचाने में लगे थे लेकिन उसने सुनी नहीं, बसपा ने महान अवसर खो दिया वर्ना ऐसा महान दलित नेता भाजपा जैसी पार्टी में भला क्यों जाता ? एक ने तो यहाँ तक कहा कि आज भी मायावती से सतीश मिश्रा वाली जगह दिलवा दो, नियुक्ति पत्र ला दो, कहीं नहीं जायेंगे उदित राज ! अरे भाई, सत्ता की इतनी ही भूख है तो कहीं भी जाये, हमारी बला से भाड़ में जाये उदित राज! क्या फरक पड़ेगा अम्बेडकरी मिशन को ? बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार तथा अम्बेडकर का मिशन तो एक विचार है, एक दर्शन है, एक कारवां हैं, अविरल धारा है, लोग आयेंगे, जायेंगे, नेता लूटेंगे, टूंटेंगे, बिकेंगे, पद और प्रतिष्ठा के लिये अपने अपने जुगाड़ बिठायेंगे, परेशानी सिर्फ इतनी सी है कि रामराज से उदितराज बने इस भगौड़े दलित लीडर को क्या नाम दे , उदित राज या राम राज्य की ओर बढ़ता रामराज अथवा भाजपाई उदित राम ! एक प्रश्न यह भी है कि बहन मायावती के धुरविरोधी रहे उदित राज और रामविलास पासवान सरीखे नेता भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन कर रहे हैं अगर चुनाव बाद गठबंधन में बहनजी भी इधर आ गई तो एक ही घाट पर पानी पियोगे प्यारों या फिर भाग छूटोगे ?


इतिहास गवाह है कि बाबा साहब की विचारधारा से विश्वासघात करने वाले मिशनद्रोही तथा कौम के गद्दारों को कभी भी दलित बहुजन मूल निवासी समुदाय ने माफ नहीं किया। दया पंवार हो या नामदेव ढसाल, संघप्रिय गौतम, बुद्धप्रिय मौर्य अथवा अब रामदास अठावले, रामविलास पासवान तथा उदित राज जैसे नेता, इस चमचायुग में ये चाहे कुर्सी के खातिर संघम् (आरएसएस) शरणम् हो जाये, हिन्दुत्व की विषमकारी और आक्रान्त राजनीति के तलुवे चाटे मगर दलित बहुजन समाज बिना निराश हुये अपने आदर्श बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में आगे बढ़ेगा, उसे अपने समाज के बिकाऊ नेताओं के 'भगवा' धारण करने का कोई अफसोस नहीं होगा, अफसोस तो इन्हीं को करना है, रोना तो इन्ही नेताओं को है। हाँ, यह दलित समाज के साथ धोखा जरूर है, मगर काला दिन नहीं, दोस्तों वैसे भी मोदी की गोदी में जा बैठे गद्दार और भड़वे नेताओं के बूते कभी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन सफलता नहीं प्राप्त करता, ये लोग अन्दर ही अन्दर हमारे मिशन को खत्म कर रहे थे, अच्छा हुआ कि अब ये खुलकर हमारे वर्ग शत्रुओं के साथ जा मिलें। हमें सिर्फ ऐसे छद्म मनुवादियों से बचना है ताकि बाबा साहब का कारवां निरन्तर आगे बढ़ सके और बढ़ता ही रहे ..... !


-भँवर मेघवंशी

(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नो पर राजस्थान में सक्रिय है तथा स्वतंत्र पत्रकार है)

Anita Bharti

जिनका हम लगातार वैचारिक रुप से विरोध करते है उनके साथ हम कैसे शामिल होते है?

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Satya Narayan

हर मार्मिक घटना पर कविता लिखने वाला कवि

दुनिया का सबसे हृदयहीन व्यक्ति होता है।

कभी-कभी कविताएं न लिखना

पाखंडी और वाचाल होने से बचाता है।

कविताएं न लिखना कभी-कभी

दुश्चरित्र होने से रोकता है।

कभी-कभी संपादक की मांग पर कविता लिखने

और सुपारी लेने के बीच कोई बुनियादी फर्क

नहीं रह जाता।

कविताएं न लिखने का निर्णय

कभी-कभी भाड़े के हत्यारों, दरबारियों,

भड़ुओं और मीरासियों के झुंड में

शामिल होने से बचने का निर्णय होता है।

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बंगाल में सामाजिक न्याय की स्थापना अहमद हसन इमरान की पहली प्राथमिकता होगी


नूरुल्लाह  जावेद


पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत से भी अधिक है , लेकिन यहां के मुसलमान आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर दलित से भी अधिक पिछड़े हैं . पश्चिम बंगाल के मुसलमानों की सबसे बड़ी बदनसीबी यह रही है कि आज तक कोई भी ईमानदार राजनीतिक नेता नहीं मिला   .ऐसे तो बंगाल की सभी राजनीतिक पार्टियों में मुस्लिम नेताओं की कमी नहीं है लेकिन वे सभी नेता अपनी पार्टी सुप्रीमो के सामने हक़ की आवाज़ बुलंद करने में असमर्थ हैं. इसका शिकवा खुद बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने भी किया था कि उनकी पार्टी के मुस्लिम नेता मुसलमानों के मुद्दों प्रदान नहीं करते हैं. इसकी वजह से उनके सामने सही स्थिति सामने नहीं आपा ती है. बंगाल की राजनीति में पहली बार कोई भी राजनीतिक दल किसी बंगाली मुस्लिम पत्रकार को राज्यसभा के लिए चयन किया है. तृणमूल कांग्रेस ने  प्रसिद्ध पत्रकार अहमद हसन इमरान को राजया सभा के लिए चुने कराकर मसलमानों दिल जीतने की कोशिश की है.


27 प्रतिशत आबादी वाले बंगाली मुसलमानों के पास अपना कोई अखबार और मीडिया नहीं था मगर अहमद हसन इमरान ने 1981 में इस कमी को भरने की कोशिश की पहले मासिक पत्रिका 'कलम' और फिर 1993 में 'कलम' वीकली अखबार के रूप में बंगाली मुसलमानों व्याख्या कर रहे हैं. अब यह अखबार 2012 से दैनि  है   और बंगाली व असम मुसलमानों में सबसे पढ़ा जाने वाला अखबार है-अहमद हसन इमरान के राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद अब यह उम्मीद लगाई जा रही है कि राजनीतिक स्तर पर जो नेतृत्व की जो कमी थी वह खत्म होगा और वह बंगाल के मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आवाज़ बुलंद करते रहेंगे और सरकार को उनकी समस्याओं से अवगत कराएंगे. अहमद हसन इमरान ने एक विशेष बैठक में कई मुद्दों और विषय पर बात करते हुए कहा कि बतौर सांसद उनकी पहली प्राथमिकता यह होगी कि बंगाल में सामाजिक न्याय क़ायम हो- आज़ादी के बाद बंगाली मुसलमानों के साथ बड़े पैमाने पर ना इ नसाफयाँ गईं, किसानों लोगों से जमीनें छीनकर बड़ी कंपनियों के सुपुर्द कर दिया गया और उन्हें उचित मुआवजा से वंचित कर दिया गया. उत्तर बंगाल के रहने वाले अब तक लोकतंत्र के फयूज़ से वंचित हैं. बंगाल में परिवर्तन की लहर है. ममता बनर्जी के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की कोशिश की जा रही है-


ममता बनर्जी ने उन्हें मौका दिया है इसलिए वे इस अभियान में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेंगे और सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त करेंगे- राज्यसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के सामने अपने संकल्प व्यक्त इस प्रकार दिया है कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अरब में जो समाज का गठन किया था उसका सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत था कि समाज के दबे और कुचले लोगों शक्ति और शक्ति प्रदान किया जाए और समाज के शक्ति वाले लोग को नीचे पायदान पर पहुंचाया जाए. इसी विचार को बाद में स्वामी वीकाननद भी फैलाया कि समाज के दबे कुचले लोगों के साथ न्याय स्थापित किए बिना सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती है. इसलिए सामाजिक न्याय के लिए जरूरी है कि इस वर्ग को पूरा रूप राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित हो-


सच्चर कमेटी और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के पिछड़ेपन के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि वाम मोर्चा के 34 वर्षीय शासनकाल में मुसलमानों के साथ ना इ नसाफयों की हद कर दी गई. खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले वामपंथियों पूरी तरह मुसलमानों नज़रअंदाज कर दिया इसकी वजह से यहां के मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गई- हम लोग पिछले 20 सालों से आवाज बुलंद कर रहे थे मगर कोई कान धरने को तैयार नहीं था लेकिन सच्चर समिति ने जब इस तथ्य पर मुहर लगा दिया तो लोगों को विश्वास हुआ. अहमद हसन इमरान के अनुसार ममता बनर्जी मुसलमानों के पिछड़ेपन को समाप्त करने के लिए बेहद गंभीर और प्रतिबद्ध हैं. उन्होंने नौकरी के साथ उच्च शिक्षा में मुसलमानों को आरक्षण देने का फैसला किया है. इसके अलावा दर्जनों योजनाओं की शुरुआत है लेकिन अभी इन योजनाओं का लाभ मिलने कुछ समय लगेगा .2015 के बाद इसके प्रभाव दिखने लगेंगे. बंगाली मुसलमानों के पिछड़ेपन के मूल कारण उच्च शिक्षा से दूरी को बताते हुए अहमद हसन इमरान ने कहा कि मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करने होंगे. इसलिए उनकी कोशिश होगी कि मालदा, मुर्शिदाबाद, नदिया, दक्षिण 24 परगना जैसे मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में उच्च शिक्षा संस्थान के स्थापना के लिए रास्ता हमवार किया जा ये- एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि वो उत्तरी बंगाल के जलपाईगुड़ी से जहां अधिकांश लोगों का रोज़गार चाय बगान में मजदूरी है. खुद उनका संबंध भी उसी वर्ग से है. इस वर्ग ने आज तक नहीं सोचा था कि उनके ही एक व्यक्ति सांसद चयन भी हो सकता है. यही कारण है कि वहाँ के हिंदू और मुसलमान दोनों ने जश्न मनाया और विजय जुलूस निकाला. अल्पसंख्यकों के लिए आबंटित केंद्रीय योजनाओं के कार्यान्वयन में तसाहली के सवाल पर उन्होंने कहा कि वह निश्चित बहैसियत सांसद इस मसले पर विशेष ध्यान देंगे।


लेखक युवा पत्रकार हैं और विभिन्न पत्र पत्रिकाओ के लिए लिखते हैं

http://www.azadexpress.com/article.php?id=4911#.UwsLIuOSzp8

अस्पृश्यता के बजाय बड़ा मुद्दा है नस्ली भेदभाव

आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरू से…

आरक्षण बचाओ आंदोलन बनकर रह गया अंबेडकर आंदोलन…

बुनियादी मुद्दों पर वंचितों को सम्बोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झण्डावरदार और आरक्षण-समृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं…

पलाश विश्वास

बहुजन राजनीति अब तक कुल मिलाकर आरक्षण बचाओ राजनीति रही है। वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कॉरपोरेट राज, निजीकरण, ग्लोबीकरण और विनिवेश, ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है। आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है। आरक्षण की यह राजनीति अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजेंडे को हाशिये पर रखकर अपनी-अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है। अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो, ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता। संथाल औऱ भील जैसी अति पिरचित आजिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता। अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है। इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियाँ आरक्षण से बाहर हैं। जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिये भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिये बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया, उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला। मुलायम सिंह यादव ने उन्हें उत्तर प्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा। उत्तराखण्ड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहाँ राजनीति आरक्षण मिला है।

जिन जातियों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुयी वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहतीं। मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है, जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती। इसलिए बुनियादी मुद्दों पर वंचितों को सम्बोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झण्डावरदार और आरक्षण-समृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं। लेकिन बहुजन समाज उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा है। हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में सम्बोधित करने का निरन्तर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है, लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्याल रखना पड़ा है।

वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर  बाकी मुद्दों पर उन्हें अब तक किसी ने स‌म्बोधित ही नहीं किया है। जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी, उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कॉरपोरेट जायनवादी, धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है। बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहाँ तक कि कॉरपोरेट एजेंट तक कहकर आपका सामाजिक बहिष्कार कर देंगे।

बहुजनों की हालत देशभर में स‌मान भी नहीं है। मसलन अस्पृश्यता का रूप देश भर में स‌मान है नहीं। जैसे बंगाल में अस्पृश्यता उस रूप में कभी नहीं रही है जैसे उत्तर भारत, महाराष्ट्र, मध्य भारत और दक्षिण भारत में। इसके अलावा बंगाल और पूर्वी भारत में आदिवासी, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के स‌ारे किसान स‌मुदाय बदलते उत्पादन स‌म्बंधों के मद्देनजर जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई में स‌दियों स‌े स‌ाथ-स‌ाथ लड़ते रहे हैं।

मूल में है नस्ली भेदभाव, जिसकी वजह स‌े भौगोलिक अस्पृश्यता भी है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह बाकी देश में जाति पहचान स‌ीमाबद्ध मुद्दों पर बहुजनों को स‌म्बोधित किया ही नहीं जा स‌कता। आदिवासी जाति स‌े बाहर हैं तो मध्य भारत, हिमालय और पूर्वोत्तर में जाति व्यवस्था के बावजूद अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव के तहत दमन और उत्पीड़न है।

उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने, कृषि को खत्म करने की जो कॉरपोरेट-जायनवादी-धर्मोन्मादी राष्ट्र व्यवस्था है, उसे महज अंबेडकरी आन्दोलन और अंबेडकर के विचारों के तहत स‌म्बोधित करना एकदम असम्भव है। फिरभारतीय यथार्थ को सम्बोधित किये बिना साम्यवादी आंदोलन के जरिये भी सामाजिक शक्तियों की राज्यतंत्र को बदलने के लिये गोलबन्द करना भी असम्भव है।

ध्यान देने की बात है कि अंबेडकर को महाराष्ट्र और बंगाल के अलावा कहीं कोई उल्लेखनीय स‌मर्थन नहीं मिला। पंजाब में जो बाल्मीकियों ने स‌मर्थन किया, वे लोग भी कांग्रेस के स‌ाथ चले गये बंगाल स‌े अंबेडकर को स‌मर्थन के पीछे बंगाल में तब दलित-मुस्लिम गठबंधन की राजनीति रही है, भारत विभाजन के स‌ाथ जिसका पटाक्षेप हो गया। अब बंगाल में विभाजनपूर्व दलित आंदोलन का कोई चिन्ह नहीं है। बल्कि अंबेडकरी आंदोलन का बंगाल में कोई असर ही नहीं हुआ है। अंबेडकर आंदोलन जो है, वह आरक्षण बचाओ आंदोलन के सिवाय कुछ है नहीं। बंगाल में नस्ली वर्चस्व का वैज्ञानिक रूप अति निर्मम है, जो अस्पृश्यता के किसी भी रूप को लज्जित कर दें। यहाँ शासक जातियों के अलावा जीवन के किसी भी प्रारूप में अन्य सवर्ण असवर्ण दोनों ही वर्ग की जातियों का कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं। अब बंगाल के जो दलित और मुसलमान हैं, वे शासक जातियों की राजनीति करते हैं और किन्हीं किन्हीं घरों में अंबेडकर की तस्वीर टाँग लेते हैं। अंबेडकर को जिताने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल या मुकुंद बिहारी मल्लिक की याद भी उन्हें नहीं है।

इसी वस्तु स्थिति के मुखातिब हमारे लिये अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव बड़ा मुद्दा है जिसके तहत हिमालय और पूर्वोत्तर तबाह है तो मध्य भारत में युद्ध परिस्थितियाँ हैं। जन्मजात हिमालयी समाज से जुड़े होने के कारण हम वहाँ की समस्याओं से अपने को किसी कीमत पर अलग रख नहीं सकते और वे समस्याएं अंबेडकरी आंदोलन के मौजूदा प्रारुप में किसी भी स्तर पर सम्बोधित की ही नहीं जा सकती जैसे आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरू से।

ऐसे में अंबेडकर का मूल्याँकन नये सन्दर्भों में किया जाना जरूरी ही नहीं, मुक्तिकामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अनिवार्य है।

हमारी पूरी चिंता उन वंचितों को सम्बोधित करने की है, जिनके बिना इस मृत्युउपत्यका के हालात बदले नहीं जा सकते। किसी खास भूगोल या खास समुदाय की बात हम नहीं कर रहे हैं, पूरे देश को जोड़ने की वैचारिक हथियार से देशवासियों के बदलाव के लिये राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने की चुनौती हमारे सामने है, क्योंकि बदलाव के तमाम भ्रामक सब्जबाग सन् सैंतालीस से आम जनता के सामने पेश होते रहे हैं और उन सुनामियों ने विध्वंस के नये-नये आयाम ही खोले हैं।

"आप" का उत्थान कॉरपोरेट राजनीति का कायकल्प है जो सामाजिक शक्तियों की गोलबन्दी और अस्मिताओं की टूटन का भ्रम तैयार करने का ही पूँजी का तकनीक समृद्ध प्रायोजिक आयोजन है। इसका मकसद जनसंहार अश्वमेध को और ज्यादा अबाध बनाने के लिये है। लेकिन वे संवाद और लोकतंत्र का एक विराट भ्रम पैदा कर रहे हैं और नये तिलिस्म गढ़ रहे हैं। उस तिलिस्म को ढहाना भी मुक्तिकामी जनता के हित में अनिवार्य है।

अगर बहुजन राजनीति का अभिमुख बदलने की मंशा हमारी है तो आनंद तेलतुंबड़े, कांचा इलेय्या, एचएल दुसाध, उर्मिलेश, गद्दर, आनंद स्वरुप वर्मा जैसे तमाम चिंतकों और सामाजिक तौर पर प्रतिबद्ध तमाम लोगों से हमें संवाद की स्थिति बनानी पड़ेगी। ये लोग बहुजन राजनीति नहीं कर रहे हैं। अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन अगर होना है तो संवाद और विमर्श से ऐसे लोगों के बहिष्कार से हम बहुजन मसीहा और दूल्हा संप्रदायों के लिये खुला मैदान छोड़ देंगे, जो बहुजनों का कॉरपोरेट वधस्थल पर वध की एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं।



रणभूमि में भाषा

विभूति नारायण राय


अनुक्रम

1857 का दलित विमर्श

पीछे   



1857 के विद्रोह को शीघ्र ही 150 वर्ष पूरे हो जायेंगे .2007 में इस अवसर पर पूरे देश भर में बडे पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारियां चल रहीं हैं .फिल्म उद्योग, टेलीविजन और पत्र पत्रिकायें इसके लिये अभी से जुट गयीं हैं आरेन् केतन मेहता की फिल्म मंगल पाण्डे इस विशाल आयोजन के लिये एक ट्रेलर के तौर पर देखी जा सकती है .पर इस पूरे ताम झाम और राष्ट्र प्रेम से लबरेज उत्सवधर्मिता के बीच कुछ ऐसे प्रश्न उठाये जा रहें हैं जो शायद 1857 को भारत राष्ट्र का पहला स्वतंत्रता संग्राम मानने वालों को बहुत अच्छे न लगें . ऐसा नहीं है कि ये सवाल 1907 में जब इस संघर्ष को 50 वर्ष हुये थे या 100 वर्ष होने पर 1957 में नहीं उठाये गये थे पर उस समय इन प्रश्नों के उठने पर इतनी बेचैनी नहीं पैदा हुयी थी .उस समय इन प्रश्नों को पूछने वाली दलित दृष्टि बहुत गंभीरता से नहीं ली जाती थी.उसे बडी आसानी से साम्राज्यवाद की पिट्ठू और मुख्यधारा से अलग थलग किसी व्यक्तिवादी सोच के खाते में डालकर उपेक्षित किया जा सकता था. चाहे कितनी भी कमजोर मुखालिफत रही हो पर यह सच है कि 1859 के बाद से लगातार एक ऐसा शूद्र पक्ष रहा है जिसने 1857 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम मानने का विरोध किया है और इस बात पर खुशी जाहिर की है कि इस संग्राम को कुचल दिया गया और इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को भारत छोडने की नौबत नहीं आयी .इसमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण स्वर ज्योतिबा फुले का था जिन्होंने उन महार सैनिकों का अभिनन्दन किया था जिन्होंने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की थी. फुले ने वायसराय को एक पत्र भी लिखा और इस बात पर खुशी जाहिर की कि अंग्रेज देश से नहीं गए और उन्होंने करोडॉं पिछडों और दलितों को ब्राह्यणों की घृणित और अमानवीय सामाजिक व्यवस्था की दया पर नहीं छोड दिया.


ज्योतिबा फुले के बाद की दलित परम्परा ने भी समय समय पर अंग्रेजी राज के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं जिनमें उनकी पक्षधरता बहुत स्पस्ष्ट है .उन्हें अगर अंग्रेजों की गुलामी, जिसने पहली बार शिक्षा, सैनिक तथा असैनिक नौकरियों और कानून के सामने बराबरी के द्वार उनके उनके लिये खोले थे ,और एक ऐसी आजादी जिसमें शास्त्रों तथा स्मृतियों पर आधारित वर्णाश्रमी राज्य स्थापित होता, के बीच चुनना था तो वे बेहिचक अंग्रेजों की गुलामी चुनते. इस गुलामी ने पहली बार उन्हें मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार दिया था.डा. अम्बेदकर के इन्हीं विचारों को कई बार सही और कई बार गलत परिप्रेक्ष्य में उध्दृत कर अरूण शौरी ने 'वरशिपिंग फाल्स गाड्स' में उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू सिद्ध करने की कोशिश की है. डा. अम्बेदकर के ज्यादातर दलित भक्तों में भी इतना साहस नहीं था कि वे शौरी का मुकाबला सैद्धान्तिक धरातल पर करते इसलिये उन्होंने कभी शौरी के मुंह पर कालिख पोतने की कोशिश की आरेन् कभी यह सिद्ध करने के लिये अम्बेदकर के उद्धरण पेश करते रहे कि वे भी उसी अर्थ में देश भक्त थे जिस अर्थ में तिलक, श्रद्धानन्द या गांधी जैसे सवर्ण . बहरहाल एक बात तो स्पष्ट रूप से कही ही जा सकती है कि आज जब 1857 की 150वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी की जा रही है , दलित विमर्श इतना प्रौढ हो चुका है कि वह इस घोषित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपना स्पेस तलाशने लगा है और अब गैर दलित विमर्श के लिये उसकी उपेक्षा उस तरह संभव नहीं है जैसी 1907 या 1957 में थी.


1857 को लेकर कई तरह के मिथक हैं जिन्हें समझना आवश्यक है.आम तौर से स्वीकृत दो धारणायें इस प्रकार हैंः_


1. यह एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था जिसके पीछे देशी राजाओं और सैनिकों की अंग्रेजी दासता से मुक्ति की अदम्य लालसा छिपी हुयी थी.


2. 1857 को भारतीय खास तौर से हिन्दी क्षेत्रों के नवजागरण काल के रूप में देखना चाहिए.


इन सभी धारणाओं को दलित खाने में खडे होकर जाँचने की जरूरत है तभी हम किसी तर्कसंगत विमर्श का निर्माण कर सकतें हैं .


सबसे पहले देखें कि यह पूरा विद्रोह किस हद तक राष्ट्रीय था? इसे समझने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि क्या 1857 में भारत एक राष्ट्र था? यहाँ राष्ट्र का मतलब सिर्फ एक नेशन स्टेट या राष्ट्र राज्य से नहीं है . आज जिस भूभाग को काश्मीर से कन्याकुमारी कहतें हैं और जिसमें 1947 के पहले वे हिस्से भी सम्मिलित थे जिन्हें अब पाकिस्तान और बांग्लादेश कहतें हैं , उसे एक राजनैतिक इकाई के रूप में राष्ट् राज्य बनाने की सही शुरूआत तो अँग्रेजों ने ही की थी , भले ही उसके पीछे उनकी विस्तारवादी नीति और दोहन की लिप्सा रही हो .आधुनिक अर्थों में राष्ट्र राज्य की अवधारणा और उससे उत्पन्न राष्ट्रीयता की भावना 17-18 वीं शताब्दी में योरोप में हुयी औद्योगिक क्रांति और उसके फलस्वरूप पैदा हुये उत्पादों को दुनियां में खपाने के लिये नये नये उपनिवेश तलाशने के लिये चली जद्दोजहद के चलते फली फूली और परवान चढी .भारत में ऐसी औद्योगिक क्रान्ति हुयी ही नहीं जिसमें अतिरिक्त उत्पाद बाहर खपानें की जरूरत पडी हो.


ईस्ट इन्डिया कम्पनी के भारत आगमन और 1857 में उनके खिलाफ विद्रोह तक स्थिति यह थी कि जिस भूभाग को आज भारत कहतें हैं वह असंख्यों छोटे बडे स्वतंत्र, प्रभुता सम्पन्न, राज्यों का समूह था.इनके शासक राजे महाराजे आपस में लडते रहते थे , बाहरी हमलों में एक दूसरे की न सिर्फ मदद नहीं करते थे बल्कि बाहरी हमलावरों की अपनी जरूरत और स्वार्थ के मुताबिक मदद करते थे .सबकी अपनी मुद्रा थी , अपने झण्डे थे और अपनी कर पद्धति थी .ऐसा नहीं था कि इस विशाल भूखण्ड में ऐसे तत्व नहीं थे जो इसे एक राष्ट्र राज्य बना सकते .पृथ्वी का यह टुकडा चारों तरफ से समुद्र और पहाडों से घिरा था और ये रूकावटें इसमें रहने वालों को शेष विश्व से अधिक आपस में घुलने मिलने में मदद करती थी . इस भौगोलिक चौहद्दी ने यहां रहने वालों को एक ढीला ढाला सा धर्म विकसित करने में मदद की जिसे बाहर से आने वालों ने हिन्दू नाम से पुकारा .इस धर्म में एक पैगम्बर और एक आसमानी किताब की बाध्यता नहीं थी.इस संज्ञा के तले एकेश्वरवादी थे, बहुदेववादी थे, वनस्पतियों और शिलाओं को पूजने वाले थे तो संशयवादी और नास्तिक भी थे .इसकी आस्था के केन्द्र उस पूरे भूभाग में फैले थे जिसे 1947 तक अंग्रेजों ने एक राष्ट्र राज्य में तब्दील कर दिया. धार्मिक और व्यापारिक मेलों , तीर्थों और साझी जातीय स्मृतियों में यह क्षमता थी कि वे अंग्रेजों की सहायता के बिना भी एक राष्ट्र राज्य का निर्माण कर सकते थे .पर वे ऐसा नहीं कर पाये? अंग्रेजों के पहले कभी भी यह स्थिति नहीं आ पायी कि यह विशाल भूभाग एक केन्द्रीय सत्ता जिसके पास एक केन्द्रीय सेना और एक केन्द्रीय मुद्रा हो, के अन्तर्गत एक राष्ट्र राज्य बन सका हो .


स्टालिन ने राष्ट्रीयता के प्रश्न पर विचार करते हुये लिखा था कि , '' एक राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से समान भाषा, भौगोलिक क्ष्रेत्र, आर्थिक जीवन और समान संस्कृति में अभिव्यक्त मनोवैज्ञानिक निर्मिति के रूप में लोगों के समूह द्वारा बनता है.''


गैर मार्क्सवादी विचारकों ने भी राष्ट्र के निर्माण के लिये एक भौगोलिक क्षेत्र के अतिरिक्त धर्म , भाषा,संस्कृति और आर्थिक हितों की समानता को उस भूभाग में रहने वाली जनता के लिये आवश्यक माना है .


सावरकर ने भारत राष्ट्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि ''आर्य पुरूष इतिहास के अरूणोदय में ही भारत में बस गये थे और तभी एक राष्ट्र का जन्म हुआ था जो अब मात्र हिन्दुओं में ही निहित है.'' एक दूसरे जगह उन्होंने लिखा -'' हिन्दुस्तान में हिन्दू स्वयं ही एक राष्ट्र है.''


सावरकर यह भूल गये थे कि राष्ट्र सिर्फ एक भूगोल का टुकडा नहीं होता .राष्ट्र उसमें रहने वाले लाखों करोडों लोगों के साझे सपने , साझी स्मृतियों और साझे भूत और भविष्य से निर्मित होता है .यहां तो कुछ भी साझा नहीं था.वे यह भी भूल गये थे कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण तो हो सकता है पर हिन्दू धर्म में निहित अन्तर्विरोध उसे एक राष्ट्र बनने के लिये आवश्यक भूमिका निभाने से रोकतें हैं . यह तो संभव है कि अलग अलग वेश भूषा, खान पान, भाषा और धार्मिक परम्परा वाले मिलकर एक राष्ट्र बना लें और दुनियाँ में इसके उदाहरण मौजूद हैं लकिन एक ऐसे जीवन दर्शन में जीने वाले, जिसमें एक अल्पसंख्यक समुदाय सत्ता पर काबिज हो और बहुसंख्यकों को जानवर से भी जलील समझता हो और जिस राष्ट्र राज्य में पशुवत् जीने वाले बहुसंख्यकों का कोई स्टेक न हो एक राष्ट्र नहीं बना सकते.भारत में शिक्षा और सैनिक कर्तव्यों जैसे क्षेत्र तो नब्बे प्रतिशत के लिये वर्जित थे . राज्य में शूद्रों के स्टेक के इस अभाव की तुलना सिर्फ गुलामों की किसी राज्य में स्थिति से की जा सकती है पर उनकी हैसियत शूद्रों से कई अर्थों में भिन्न थी .प्रथम तो दुनियां के इतिहास में कोई ऐसा राष्ट्र राज्य नहीं हुआ जिसमें गुलाम अपने मालिकों से कई गुना ज्यादा हो. दूसरे गुलामी प्रथा में मुक्ति के द्वार पूरी तरह बंद नहीं थे .एक निश्चित धनराशि चुका कर या युद्ध के मैदान में अपनी बहादुरी से मालिक को प्रभावित कर एक गुलाम अपनी बेडियों से छुटकारा पा सकता था पर शूद्र के लिये छुटकारे का कोई रास्ता नहीं था. एक बार शूद्र के रूप में पैदा होने के बाद फिर उसे जीवन भर सिर्फ वंचना ही मिल सकती है .यह वंचना उसे राज्य से पूरी तरह निस्पृह बना देती है .इस राज्य का कोई भी राजा हो उसे फर्क नहीं पडता .यही निस्पृहता उसे अपने शोषकों के साथ मिलकर एक राष्ट्र बनने से रोकती है . गुलामों के मालिक उन्हें सैनिक के तौर पर भी इस्तेमाल करते थे .कई युद्ध गुलामों ने अपनी बहादुरी से जीते हैं और यह भी बहुत बार हुआ है कि कोई गुलाम अपनी सेना का ऊंचा ओहदेदार बना हो .भारत में शूद्र भी गुलाम ही थे पर उनके मालिक युद्ध के मैदान में हारने के लिये तैयार थे लेकिन उन्हें युद्ध में लडने की इजाजत देने के लिये तैयार नहीं थे . उनके मन में डर समाया हुआ था कि यदि एक बार शूद्रों के हाथ में हथियार उठाने की ताकत आ गयी तो फिर उन्हें गुलाम बनाये रखना मुश्किल हो जायेगा .भारत को अगर अंग्रेजों के आने के पहले एक राष्ट्र मान लिया जाय तो सम्भवतः यह दुनियां का अकेला राष्ट्र होगा जिसने विदेशी आक्रांताओं के विरूद्ध एक भी उल्लेखनीय विजय नहीं हासिल की .कुछ सौ मुसलमान या योरोपीय हमलावर आते थे और अपने से कई गुना बडी राजपूत सेना को बुरी तरह पराजित कर देते थे . यदि राजपूतों की जगह चमारों , दुसाधों, महारों, मजहबी सिखों या दूसरी शूद्र जातियों को लडने का अधिकार मिला होता तो शायद हमारी हार का इतिहास दूसरा होता और हमें एक राष्ट्र बनने में मदद मिलती. भारतीय उपमहाद्वीप में सिर्फ 1971 की लडाई ऐसी है जिसे एक राष्ट्र के रूप में हमने जीता है पर यह तब सम्भव हुआ जब सैनिकों में बडी संख्या में दलित और पिछडे शरीक थे.युद्ध के मैदान में दलितों को अपने बगल में खडे होकर लडने का अधिकार देने से एक दूसरा संकट भी खडा हो सकता था. यह संकट पावर शेयरिंग यानि सत्ता में भागीदारी का था. अगर दलित राजपूत के साथ लडता तो अपने बहाये हुये खून की कीमत भी मांगता .गुलाम के मालिक के मुकाबले वर्णाश्रमी यहाँ ज्यादा अनुदार था.गुलाम का मालिक उसे उसकी बहादुरी की एवज में सेना में ओहदे और कई मौकों पर उसको नेतृत्व सौंपने के लिये भी तैयार था लेकिन हिन्दू सामंत के लिये हार स्वीकार करना मंजूर था किन्तु शूद्र को युद्ध के मैदान में बराबरी का दर्जा देने के लिये वह कत्तई तैयार नहीं था.हाल के दिनो में दलितों की एक धारा ने अंग्रेजों के खिलाफ लडाई में अपने लिये स्पेस तलाशने के लिये ऐसे नायकों को तलाशना शुरू कर दिया है जिन्होंने साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष में छोटी बडी भूमिकायें निभायीं हैं .यह कुछ उसी तरह का दयनीय प्रयास है जो पिछडी और दलित जातियों ने 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी की शुरूआता में गोरक्षा आंदोलनो के माध्यम से किया था. इस आंदोलन और इसके जैसे दूसरे आंदोलनो के माध्यम से दलित जातियों ने सवर्णों की पाँत में बैठने की कोशिश की थी .अपनी एक खास राष्ट्रीय पहचान निर्मित करने के लिये इन जातियों ने जनेऊ पहन कर और अपने नाम के साथ उच्च वर्ण की जाति सूचक संज्ञायें लगाकर सोचा था कि वे अपने को कुछ सीढियां ऊँची कर लेंगे .ऐसा हुआ नहीं .कुछ दूर तक तो ऊँची जातियों ने इन्हें अपने साथ चलने दिया पर जैसे ही उनका मकसद पूरा हुआ उन्होंने दलितों को उनकी सामाजिक हैसियत का एहसास कराना शुरू कर दिया.


ब्राह्यणीकरण के इस पूरे प्रयास का एक मजेदार रूप हाल के वर्षों में देखने को मिला है .दलित उभार की प्रतिनिधि बहुजन समाज पार्टी ने कुछ वर्षों पूर्व तय किया कि शूद्र और अतिशूद्र जातियों को उनके नायक मिलने चाहिये.ऊदा देवी, बिजली पासी और अवंती बाई जैसे नायक झाड पोंछ कर निकाले गये. ये सभी सामान्यजन थे .किसी चारण कवि ने उनकी विरूदावलियां नहीं रचीं थीं, कोई दरबारी चित्रकार नहीं था जो उनके चित्र छोड ज़ाता , केवल लोक मे एक श्रुति की परम्परा थी जो उनके कारनामे बखान करती थी पर यह किसी मूर्त कल्पना के लिये अपर्याप्त थी . पिछले दशक में जब दलित उभार की इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में हाशिये पर स्थित जातियों को उनके नायक प्रदान करने और इन नायकों की गौरव गाथायें सुनाकर उन्हें अपने पीछे गोलबन्द करने की योजना बनाई तो एक बडी समस्या उनके सामने यह थी कि कैसे उनकी मूर्तियां कैसे तैयार की जायं? हल निकाला इस पार्टी के पंजाबी सुप्रीमों ने. उसने दसों गुरूओं का कैलेण्डर अपने सामने रखा और मूर्तिकारों को बताया कि किस मूर्ति में किस गुरू की नाक, किसकी आँख , किसका माथा या किसका वक्ष फिट किया जाय. इस प्रकार तैयार हो गये दलित जातियों के नायक. कुछ कुछ राजा रवि वर्मा वाला मामला था.उनके कैलेण्डरों ने पहली बार बीसवीं शताब्दी में हिन्दू देवी देवताओं के मूर्त स्वरूप हमारी कल्पना के अंग बनाये थे .या फिर जैसे आँख मूँद कर अकबर के चेहरे को याद करने पर मुगले आजम की पृथ्वी राज कपूर का चेहरा हमारी स्मृति में कौंधता है उसी तरह इन मूतियों को चौराहे पर देखकर हम उन दलित नायकों की छवि अपने दिलोदिमाग में बैठाने की कोशिश करतें हैं जिन्हें उनकी जातियों के लोग अँग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के रूप में याद करना चाहतें हैं. ये अति उत्साही लोग भूल जातें हैं कि वर्ण व्यवस्था से ग्रस्त एक सामंती समाज में इनकी भूमिका किसी टहलुये लठैत से अधिक कुछ नहीं हो सकती थी.यदि विद्रोह सफल हुआ होता तो ब्राह्यण इतिहासकार उन्हें छोटा सा स्पेस भी नहीं देते और लडाई खत्म होने के बाद राजपूत उनसे हथियार वापस रखवा लेते.विद्रोह में सफलता प्राप्त होते ही मनुवादी वर्णव्यवस्था उनसे शिक्षा और सैनिक सेवाओं में भर्ती के वे सारे अधिकार छीन लेती जो छोटे से अँग्रेजी राज नें उन्हें दी थी.


यह आश्चर्यजनक लग सकता है पर सच यही है कि राजनैतिक रूप से राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया भारत में पहले शुरू हुयी और फिर वृहत्तर अर्थों में यह एक राष्ट्र बना.जैसे जैसे वर्णव्यवस्था की चूलें हिल रहीं हैं राष्ट्र निर्माण तेज हो रहा है.अलग अलग त्यौहारों रीति रिवाजों ,वेश भूषा, खानपान और भाषा में बंटा देश जिस तेजी से एक हो रहा है वह चमत्कृत करता है.अगर वर्णव्यवस्था न होती तो शायद यह प्रक्रिया बहुत पहले ही पूरी हो गयी होती .


अब देंखें कि इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले किस हद तक राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत थे .पूरा संघर्ष मुख्य रूप से दो खम्बों पर टिका था.एक तो देशी राजे महराजे थे और दूसरे स्तंभ के रूप में कम्पनी की सेना के सिपाही थे.


यह कोई रहस्योद्धाटन नहीं है कि जिन राजाओं ने विद्रोह में भाग लिया वे सभी अपने अपने राज्यों को कम्पनी द्वारा हडपे जाने के विरूद्ध लड रहे थे .उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसे छल छद्म से कम्पनी ने अपने राज्य से च्युत न किया हो. जिन जिन को कम्पनी ने बक्श दिया वे विद्रोह में शरीक नहीं हुये और जिन्हें कोई वजह दिखाकर कम्पनी ने गद्दी से हटाया उन्होंने विद्रोह के पहले अंग्रेजों से सारे संभव उपायों से मिन्नतें की कि उन्हें उनका राज पाट वापस दे दिया जाय. यह अलग बात है कि किसी की गद्दी वापस नहीं हुयी .इस संदर्भ में रानी लक्ष्मी बाई का यह कथन बडा महत्वपूर्ण है जो उन्होंने अंग्रेज रेजिडेन्ट के सामने कहा था _''मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.''अगर झांसी नहीं देनी पडती तो किसे पता है रानी लक्ष्मी बाई इस महासंग्राम में कहां होती? बगल में सिंधिया का उदाहरण मौजूद है जिसके सामने ऐसा कोई संकट नहीं था और वह अंग्रेजों के पक्ष में खडा था.


यहां भी एक बात बहुत स्पष्ट है कि अंग्रेजों से पीडित ज्यादातर राजाओं ने भी शुरू में विद्रोह में भाग लेने में हिचक दिखायी और उन्हें विद्रोही सिपाहियों नें विद्रोह में भाग लेने के लिये मजबूर कर दिया .जिस बादशाह को ढीला ढाला ही सही पर विद्रोह सफल होने पर दिल्ली पर हुकूमत करनी थी उस बहादुर शाह जफ़र को भी सिपाहियों ने ही मजबूर किया कि वे उनका नेतृत्व करें .उनके समय पहाडग़ंज थाने के दारोगा मोईनुद्दीन हसन ने उन दिनों का आंखों देखा हाल लिखा है कि किस तरह मेरठ से विद्रोही सिपाहियों के दिल्ली पहुंचने के दो दिन बाद तक बहादुर शाह जफर के मन में हिचक बनी रही और उनके द्वारा मजबूर किये जाने के बाद ही आधे अधूरे मन से बहादुरशाह जफर नें अंग्रेंजों के खिलाफ बगावत में भाग लेना स्वीकार किया . यह सही है कि दारोगा मोईनुद्दीन हसन अंग्रेजों का नमक हलाल सेवक था और उसका वर्णन बिना किसी सपोर्टिंग साक्ष्य के स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि बहादुर शाह जफर के किसी दरबारी लेखक ने भी ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि बादशाह ने अपनी तरफ से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया हो .वह सिर्फ मलका विक्टोरिया के दरबार में अर्जियां ही भेजता रहा.यही दृश्य झांसी का भी था जहां रानी को विद्रोही सिपाहियों नें एक तरह से मजबूर कर दिया कि वे उनका नेतृत्व करें.


1857 के विद्रोह में भाग लेने वाले राजाओं का लगभग हर जगह यही हाल था.सफल होने और अंग्रेजों को भगाने के बाद अपने अपने छोटे छोटे राज्यों के लिये लडने वाले ये राजे किस हद तक बहादुर शाह जफर या किसी केन्द्रीय नेतृत्व के अधीन एक राष्ट्र राज्य बनाते, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है .


इस विद्रोह में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी कम्पनी के सिपाहियों ने .ये वे सिपाही थे जिन्होंने भारत में पहली बार सही अर्थों में पेशेवर सैनिकों के युग की शुरूआत की थी .आधुनिक अर्थों में पेशेवर इस रूप में कि उन्हें कुल के आधार पर नहीं बल्कि अपनी कद काठी के आधार पर चुना गया था,उन्हें पलटन के सदस्य के रूप में एक साथ रहना पडता था, वे सम्मिलित रूप से फौजी ट्रेनिंग पाते थे ,उन्हें नियमित वेतन मिलता था, यह वेतन किसी की व्यक्तिगत कृपा या दया पर निर्भर न होकर एक निर्धारित वेतनमान के रूप में था और वे लौकिक लक्ष्यों के लिये युद्ध लडते थे .यद्यपि अँग्रेजों के नेतृत्व वाली फौज में वे बहुत ऊपर नहीं जा सकते थे पर सूबेदार तक के ओहदे वे अपनी वरिष्ठता और बहादुरी से हासिल कर सकते थे .उनके सरदार भी अपनी काबिलियत के बल पर सेना में आये थे . यह सच है कि ब्रितानी समाज की सामन्त प्रियता के कारण उनमें से बहुत से सामंतों के बेटे थे पर एक बडी संख्या उन वर्गों से भी आती थी जिन्हें कामनर्स कहतें हैं .इस तरह के सिपाही अँग्रेजों के ठीक पहले न मुसलमान शासकों के पास थे और न ही उनके पहले हिन्दू राजाओं के पास.संगठित, प्रशिक्षित और अनुशासित सिपाहियों का ही बूता था कि क्लाइव नें पलासी में 3000 (2200 देशी और 800 योरोपियन) सिपाही लेकर सिराजुद्दौला की 30,000 की पलटन को पीट डाला.सिराजुद्दौला के सिपाहियों को नियमित वेतन नहीं मिलता था और वे युद्ध के समय विभिन्न सामंतों से माँग जाँच कर इकट्ठी की गयी फौज के अंग थे.


इस तरह की संगठित और एक कैन्टोनमेंट में रहने वाली फौज के कुछ खतरे भी थे .एक साथ रहने के कारण उनमें असंतोष भडक़ाना आसान था और एक बार बागी हो जाने के बाद कुचलना बहुत मुश्किल.मई 1857 में अँग्रेजों ने ऐसी ही एक स्थिति का सामना किया जब एक के बाद एक छावनियों में विद्रोह की ज्वाला भडक़ी और उसे कुचलने में अँग्रेजों को एक वर्ष से अधिक का समय लग गया.


सिपाहियों के विद्रोह को समझने के पहले हमें कम्पनी की फौज के आंतरिक चरित्र को समझना होगा. ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज मुख्य रूप से उनके भारतीय साम्राज्य के तीन प्रमुख भौगोलिक विभाजनों के आधार पर संगठित की गयी थी .ये विभाजन थे कलकत्ता, बम्बई और मद्रास प्रेसिडेन्सी .कम्पनी के पूर्वी,पश्चिमी और दक्षिणी भूभागों में रहने वाले लोगों से भर्ती की गयी ये पलटने एक दूसरे से भाषा, खानपान, पहनावा या सामाजिक मान्यताओं में उसी तरह भिन्न थीं जिस तरह भारत के इन हिस्सों में रहने वाले लोग.इनके वेतनमान और सिखलाई के तरीकों में भी कई बार भिन्नता नजर आती है .प्रदीप सक्सेना ने अपनी किताब '1857 और नवजागरण के प्रश्न' में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि कम्पनी की फौज सिर्फ तीन पलटनों में नहीं बंटी थी बल्कि इन तीन के अतिरिक्त हैदराबाद और पंजाब की पलटने भी थी .उन्होंने अपनी किताब काफी मेहनत से लिखी है और दुर्लभ मौलिकता का परिचय दिया है जो हिन्दी में समाज शास्त्रीय लेखन में कम दिखायाी देता है पर यहाँ अतिरिक्त उत्साह में उनके लेखन में कुछ अन्तर्विरोध भी दिखायी देतें हैं .वे जिन दो पलटनों का जिक्र यह सिद्ध करने के लिये करतें हैं कि भारतीय इतिहासकारों नें 1857 तक सिर्फ तीन पलटनों की बात करके इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है , उन्हीं के बारे में उन्हें स्वीकार करना पडता है कि 1857 में हैदराबाद और पंजाब की पलटने न सिर्फ बहुत नयी थी बल्कि काफी हद तक अप्रशिक्षित और अनियमित भी. इसलिये 1857 में उनके लिये किसी बडे रोल की कल्पना करना मुश्किल है.


1857 मुख्य रूप से बंगाल आर्मी या जिसे कलकतिया पलटन कहा जा सकता है , का विद्रोह था.मद्रास और बम्बई की पलटनों ने न सिर्फ विद्रोह में भाग नहीं लिया बल्कि इसे कुचलने में योगदान दिया. सिक्खों , जाटों ,गूजरों और गोरखों ने भी काफी हद तक अँग्रेजों की मदद की .बंगाल आर्मी ने विद्रोह क्यों किया इसे समझना जरूरी है .यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिससे 1857 के दलित विमर्श की शुरूआत हो सकती है .


विद्रोह कुचलने के बाद कम्पनी का राज्य समाप्त कर भारत की सीधे ब्रिटिश ताज के अन्तर्गत लाने के बाद अँग्रेजो ने विद्रोह को समझने और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिये कई अध्ययन कराये.इनमें से एक हेनरी मीड नामक पत्रकार का है जो 1858_59 में भारत भर की छावनियों में घूमा और जिसने 'द सिपाय रिवोल्ट' नामक पुस्तक में सिपाहियों की मनःस्थिति , व्यवहार ,अनुशासन , सिखलाई तथा वेतन भत्ते जैसे कारकों का अध्ययन किया .बंगाल आर्मी के बारे में उसका अध्ययन बडा दिलचस्प है.


बंगाल आर्मी की एक छावनी में दोपहर तीन -चार बजे जाने पर मीड को लगा कि वह आग से घिरे किसी भू-प्रांतर में पहुंच गया है. बडे से मैदान में सैकडों जगह आग सुलग रही थी और धुयें से पूरा आकाश भरा हुआ था.यह समझने में उसे थोडा समय लगा कि ये अलग अलग चूल्हे थे जिनपर सिपाही खाना पका रहे थे . ये सिपाही मुख्य रूप से बंगाल, आज के बिहार ,उडीसा और उत्तर प्रदेश के थे . बुरी तरह जातियों और उपजातियों में विभक्त इन सिपाहियों के लिये किसी एक लंगर में खाना बनाने और साथ बैठकर खाने की कल्पना भी असंभव थी .वे एक बैरक में रह भी नहीं सकते थे .इसलिये छावनी के उस हिस्से में जहां सिपाही रहते थे ,सैकडों झोपडियां बनी हुयीं थीं .उनमे ये अपनी अपनी जातियों के अनुसार रहते थे .ये वे सिपाही थे जिनकी 1757 से 1825 के बीच में अंग्रेजों ने 74 रेजिमेंटें खडीं क़ी थीं.मुख्य रूप से ये अवध और बिहार जिसमें उ.प्र. के भोजपुरी प्रांत को भी जोडा जा सकता है ,से भर्ती की गयी थी और इनमें बडी संख्या में ब्राह्यण शरीक थे. भर्ती करने के कुछ सालों में ही अंग्रेजों को अपनी गलती का अहसास हो गया.1850 में बंगाल आर्मी के कमाण्डर सर चार्ल्स नेपियर ने लिखा था कि ''यदि उच्चवर्ण के हिन्दू को फौजी अनुशासन और अपनी जाति में से चुनना हो तो वे जाति को चुनेंगे.'' इसके पहले 1826 में ही लार्ड विलियम बेन्टिक ने बंगाल पलटन को एकदम नाकारा और लडाई के लिये अयोग्य घोषित कर दिया था. अपनी जाति से च्युत होने के भय से ये सिपाही विदेश यात्राओं के लिये तैयार नहीं थे, वे रणभूमि में मरे अपने साथियों को गाड नहीं सकते थे और नीची जाति के लांगरियों द्वारा बनाया खाना नहीं खा सकते थे .कम्पनी की फौज में ज्यादातर लांगरी नीची जातियों के थे क्यों उन्हें गोमांस या सूअर पकाने में कोई एतराज नहीं था.रीड क़ो यह देखकर बडा आश्चर्य हुआ था .बंगाल पलटन के सिपाही प्रशिक्षण के लिये तैयार होने में बहुत समय लगाते थे.उनकी दिनचर्या का एक बडा समय नहाने धोने, पूजा पाठ और कर्मकाण्डों में बीतता था.उनकी सारी आदतें एक पेशेवर और दक्ष सैनिक बनने से उन्हें रोकती थी .


अंग्रेजों को जैसे ही अपनी गलती का अहसास हुआ उन्होंने पंजाबियों की कुछ इन्फ्रन्टरी पलटने खडीं क़रने का फैसला किया और 1846 से 1857 के बीच 24 इन्फ्रन्टरी रेजीमेंटें खडीं भी कर लीं .यही वह पंजाबी फौज है जिसका जिक्र प्रदीप सक्सेना ने किया है .इस फौज में दो ही प्रमुख तत्व थे_ जट सिक्ख और मजहबी सिक्ख.दलित होने के कारण यह स्वाभाविक था कि मजहबी सिक्खों के मन में देशी राज्यों के महाराजाओं के लिये लडने का कोई उत्साह नहीं था. जट सिक्ख भी एक शताब्दी से अधिक पुराने खालसा पन्थ के उदय के कारण ब्राह्यण कर्मकाण्डों से काफी हद मुक्त हो चुके थे.इन पंजाबी पलटनों ने न सिर्फ 1857 के विद्रोह में भाग नहीं लिया बल्कि उसे कुचलने में कम्पनी के सिपाहियों के कन्धे से कन्धा मिलाकर लडे भी .


बंगाल पलटन के विपरीत बम्बई और मद्रास पलटनें मुख्य रूप से शूद्रों और अतिशूद्रों की फौजें थीं. बम्बई आर्मी में महार और मद्रास आर्मी में परिया तथा माला जैसी जैसी शूद्र जातियों का बोलबाला था. अम्बेदकर के पिता खुद एक महार पलटन में थे .हाल में टाइम्स आफ इन्डिया में एक दलित नौकरशाह राजा शेखर वुन्दरूं ने 1930 में डा. अम्बेदकर का वह प्रसिद्ध वक्तव्य उध्दृत किया है जिसमें उन्होने कहा था कि भारत में अंग्रेज सत्ता दलित सैनिकों के बल पर स्थापित हुयी है .पलासी की लडाई अंग्रेजों के लिये दुसाध सैनिकों ने जीती थी .पश्चिमी भारत में अंग्रेजों का पैर जमाने के लिये आंग्ल मराठा युद्ध, मुख्यतः बम्बई आर्मी के महार सैनिकों की मदद से जीता गया. टीपू सुल्तान को हराने वाली मद्रास आर्मी भी अछूत परिया और माला सैनिकों से भरी थी.


एक बार सिपाहियों का वर्णीय चरित्र समझने के बाद उनके विद्रोह में कूदने या अंग्रेजों का साथ देने की परिघटना को समझना आसान हो जाता है . अगर एनफील्ड राइफलों में गाय और सूअर की चर्बी कारतूसों के साथ इस्तेमाल हो रही थी तो यह कम्पनी की सभी पलटनों में विद्रोह का कारण क्यों नहीं बनी? विद्रोह के तीन महीने पहले 11 फरवरी 1857 को बंगाल आर्मी के कमाण्डर मेजर जनरल जे. बी. हियरसे ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मिलिट्री सेक्रेटरी कर्नल बिर्च को बैरकपुर छावनी की एक घटना के बारे में लिखा कि कैसे जब एक ब्राह्यण सिपाही को फौज के एक अछूत खलासी ने रोककर पीने के लिये पानी माँगा तो ब्राह्यण ने अपने लोटे से उसे इस डर से पानी पिलाने से मना कर दिया कि इससे उसका लोटा अपवित्र हो जाएगा. इसपर अछूत खलासी ने ताना कसा कि वह अपनी जात पर इतरा रहा है पर जल्दी ही साहब लोग उससे गाय और सूअर की चर्बी अपने दाँतों से काटने के लिये कहेंगे तब उसकी जाति कहाँ जायेगी? शीघ्र ही यह अफवाह दूसरी छावनियों में भी फैल गयी और यह अस्वाभाविक नहीं था कि अपनी जाति या धर्म को सैनिक अनुशासन के ऊपर तरजीह देने वाले सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया.


यह एक विचारणीय मुद्दा है कि वर्णाश्रमी व्यवस्था में गहरी आस्था रखने वाले इन सिपाहियों और अपने अपने राज्यों को छिनने से बचाने के लिये लड रहे उनके नायक उनके राजाओं की यह टीम अगर अँग्रेजों को देश से भगाने में समर्थ हो गयी होती तो 1857-58 में भारत का कैसा चेहरा होता? क्या ये राजे महाराजे एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन होकर सही अर्थों में भारत को एक राष्ट्र राज्य बनाते या फिर आपस में छोटे मोटे स्वार्थों के लिये लडते कटते और फिर किसी बाहरी ताकत के लिये आकर्षण का केन्द्र बनते? वर्णाश्रमी अहंकार में डूबे ये सिपाही क्या देश की विशाल दलित जनता को एक बार फिर से शिक्षा और सैनिक-असैनिक सेवाओं से वंचित करने के औजार नहीं बनते?


क्या 1857 को हिन्दी प्रदेश में नवजागरण के रूप में देखा जा सकता हैO? नवजागरण किसी भी क्षेत्र में वैज्ञानिक और विवेक चेतना के प्रसार से ही आ सकता है . हिन्दी भाषी क्षेत्रों की जडता अगर 1857 में टूटती दिखायी दे रही थी तो क्या उसके लिये विद्रोह और विद्रोही जिम्मेदार थे? कहीं ये विद्रोही उन सब मूल्यों को नष्ट करने पर तो नहीं तुले थे जो हिन्दी समाज में विवेक और तर्क की प्रतिष्ठा कर सकते थे ? हमें यह याद रखना चाहिये कि इस महासंग्राम के दो शताब्दियों पहले हिन्दी प्रदेश से भक्ति आंदोलन के रूप में एक बडा झंझावात गुजरा था जिसने वर्ण व्यवस्था , सामाजिक असमानता, भाग्यवाद और कर्मकाण्ड जैसे ब्राह्यण मूल्यों को बुरी तरह झिंझोड दिया था. इस आंदोलन की दो प्रमुख विशेषतायें थीं. यह पूरा आंदोलन मुख्य रूप से दलित और पिछडे वर्गों से आने वाले कवियों की अभिव्यक्ति थी और इसने अभिजात्य की भाषा संस्कृत को लोक भाषाओं के माध्यम से चुनौती दी .छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के बाद यह ब्राह्यण विश्व दृष्टि को सबसे बडी चुनौती थी .ब्राह्यण जीवन दर्शन का सबसे बडा स्तम्भ वर्णव्यवस्था है .जन्म के आधार पर जातियाँ और जातियों के आधार पर मनुष्यों का वर्गीकरण और इस पूरी व्यवस्था की धर्मग्रन्थों द्वारा प्रमाणित ईश्वरीय स्वीकृति - यही तर्क हैं जो ब्राह्यण विश्व दृष्टि को विश्व के सबसे अवैज्ञानिक , मनुष्य विरोधी और पिछडे दर्शन के रूप स्थापित करतें हैं . इस मूर्खतापूर्ण दर्शन को छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में गंभीर चुनौती मिली.बुद्ध ने लगभग इसे नष्ट ही कर डाला था पर यह शीघ्र ही फिर से पुराने स्वरूप में लौट आया, बल्कि ज्यादा क्रूर और अनुदार रूप में. इसके अंदर जो आत्मरक्षा की अद्भुत क्षमता है उसने इसे न सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने में मदद की बल्कि इसे बौद्ध प्रतीकों , जिनमें गौतम बुद्व भी सम्मिलित हैं, को आत्मसात् करने में भी कोई कठिनाई नहीं हुयी.इस दर्शन की सबसे बडी शक्ति है इसका लचीलापन . यह लचीलापन इसे अपनी एक खास विशिष्टता से हासिल होता है .यह अकेला धार्मिक दर्शन है जिसके पास कोई आसमानी किताब नहीं है और न ही यहाँ अंतिम पैगम्बर की अवधारणा है. यह बहुत बडी ताकत है .कुछ भी जो ईश्वर सम्बिन्धित है, इसका अंग बन सकता है. हाल के सालों में साईं बाबा , संतोषी माता और यहाँ तक कि अमिताभ बच्चन के भी मंदिर बनें हैं और किसी हिन्दू धर्म गुरू ने इन मन्दिरों के निर्माताओं को धर्म से बाहर नहीं किया और न ही उनके मौत के फरमान निकाले . सिर्फ आस्तिक ही नहीं नास्तिक दर्शन भी आसानी से हिन्दू धर्म का अंग बन सकतें हैं .इसी शक्ति के बल पर इस परम्परा ने कम से कम भारत में तो बौद्ध धर्म को निगल ही लिया. भारत के बाहर भले ही बौद्ध धर्म किसी रूप में फला फूला पर भारत में जो कुछ स्वरूप बचा है वह भी जात -पात , भाग्यवाद और कर्मकाण्डों से मुक्त नहीं है .


भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और ब्राह्यण कर्मकाण्डों पर जबरदस्त प्रहार किया था. लोक-भाषाओं में देवचरित गाते ही वे सारे तिलिस्म नष्ट हो गये जो संस्कृत ने देवताओं के इर्द-गिर्द बुन रखे थे . लोक ने अपनी भाषा में जिन देवताओं के गीत गाये वे काफी हद तक हाड-मांस के पुतले मनुष्यों जैसे हो गये . उसी तरह अच्छाइयों और बुराइयों के घालमेल.भक्ति आंदोलन ने श्रम को भी प्रतिष्ठित किया और बिना काम किये सामाजिक सम्मान हासिल करने वाले ब्राह्यणों का मजाक उडाया. कर्मकाण्ड भी इस आन्दोलन में उपहास के पात्र बन गये. भक्ति आन्दोलन एक आंधी की तरह था जिसने काफी हद तक ब्राह्यण परम्पराओं की जडें हिला दीं.ब्राह्यण अभी इस आघात से उबरे ही थे कि इस्लाम और उसके बाद अंग्रेजों ने उसकी बुनियाद पर आघात करना शुरू कर दिया. इस्लाम ने जन्मांधारित स्तरीकरण को नकारते हुये समानता का विकल्प दलितों के सामने रखा तो अंग्रेजों ने एक ऐसा काम किया जो इस्लाम भी भारत में नहीं कर सका . उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा का ऐसा मॉडल भारत में रखा जिससे अभी तक भारतीय समाज अपरिचित था. पहली बार शिक्षा के दरवाजे सभी वर्गों के लिये खुले, शिक्षा की परिधि में धार्मिक स्पेस लौकिक विषयों को मिला और शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का निवेश निर्णायक बना.मुहावरे की भाषा में यह ऊंट की पीठ पर अन्तिम प्रहार था. शूद्रों को शिक्षा का अधिकार मिलने से यह संभव नहीं रहा कि उन्हें जन्माधारित श्रेष्ठता और इसके फलस्वरूप उत्पन्न असमानता के बारे में प्रश्न पूछने से रोका जा सके .


भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों का धर्मों में आस्था रखने वाले भद्रलोक के लिर शूद्रों को शिक्षा को पचाना सम्भव नहीं था. राजा राममोहन राय और सर सैयद अहमद खां के अलग अलग समयों पर वायसराय को लिखे गये पत्र इस बारे में बडे दिलचस्प उदाहरण हैं. राजा राममोहन राय ने अंग्रेज सरकार द्वारा बजट में दलितों के लिए शिक्षा हेतु अलग से प्राविधान करने पर आपत्ति जतायी और लिखा था कि यह हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप है. दूसरी तरफ सर सैयद अहमद खां ने लाट साहब से यह शिकायत की थी कि सरकार असराफ को जुलाहों के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए मजबूर कर रही थी.


शिक्षा के अतिरिक्त सैनिक सेवाओं के द्वार दलितों के लिए खोलना भी कम्पनी को वर्णाश्रमी तबकों में अलोकप्रिय बनाने के लिए काफी बडा कारण था. शिक्षा और सैन्य सेवाओं में प्रवेश का मतलब दलितों को पूरे सामाजिक ढांचे में पावर शेयरिंग का मौका देना था और ब्राह्यण कभी इसके लिए तैयार नहीं हो सकते थे.1857 के विद्रोह के कारणों को खोजते समय हमें इस पहलू को भी ध्यान में रखना चाहिए.


1857 को हिन्दी प्रदेश में नवजागरण की शुरूआत इसलिए भी नहीं कहा जा सकता कि यह इस प्रदेश की समूची जनता की मुक्ति का संग्राम नहीं था. यदि यह सफल हो गया होता तो भक्ति आन्दोलन के दौरान जिस वर्ण व्यवस्था की चूलें हिलीं थीं, वह और मजबूत होकर उभरतीं .दलितों की जो कुछ थोडा बहुत हासिल हुआ था वह भी नष्ट हो जाता और एक बार फिर वही अन्धकार युग अवतरित होता जो बौद्ध आन्दोलन के कमजोर पड ज़ाने के बाद इस महाद्वीप पर छा गया था.


भारतीय समाज का गहाराई से अध्ययन करने वालों में बहुतों का मानना है कि अंग्रेज न भी होते तो भी प्रगति का चक्र इसी तरह चलता और दुनियां के दूसरे भागों की तरह यहां भी मुक्ति गाथायें लिखी जातीं , फर्क सिर्फ यह होता कि उत्प्रेरक शक्तियां दूसरी होतीं. मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है .निश्चित है कि वर्ण व्यवस्था जैसी गलीज संस्था समय के साथ नष्ट अवश्य हो गई होती पर इसमें न जाने कितना और समय लगता . हो सकता है हम आज भी उस लडाई को लड रहे होते . इस मान्यता के पीछे दो प्रमुख कारण हैं.


अंग्रेजों के आने के पहले भारत मुख्य रूप से कृषि और दस्तकारी आधारित समाज था.इस समाज के बारे में कार्ल मार्क्स ने 1853 में लिखा था कि यह समाज चुनौती न देने वाला समाज था.इसके साथ ही यह काफी हद तक आत्म निर्भर था. एक गाँव अपने आप में सम्पूर्ण इकाई थी. अपनी जरूरत का कपडा, अनाज, छोटे मोटे औजार और रोजमर्रा की चीजें यह खुद पैदा करता था.इसका असर यह हुआ कि दूसरे गाँवों या कस्बों से इसका संवाद कम से कम था. यही कारण था कि तकनीक के स्तर पर कोई परिवर्तन बहुत देरी से या धीमी गति से होता था. ग्रामीण स्वावलम्बन के यूटोपिया को चुनौती देते हुये मर्ाक्स ने इसे जड या स्थिर (स्टैग्नेन्ट) समाज कहा .बाद में अम्बेदकर ने भी गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को चुनौती देते हुये लिखा कि यह स्थिति उत्पादन बढाने में सहायक नहीं हो सकती और इससे वर्णव्यवस्था को बल मिलता है. यह समाज अपने में संतुष्ट था और वर्णव्यवस्था इसे और जड तथा गतिहीन बनाने में मदद करती थी . बिना औद्योगीकरण के इस समाज की किसी बुनियादी परिवर्तन के लिये तैयार करना लगभग असंभव था.अँग्रेजों के साथ आई तकनीक ने इस समाज में बडी अौद्योगिक क्रान्ति को संभव बनाया और तभी यह हो सका कि गांवों से बाहर निकलकर आबादी का बडा हिस्सा कस्बों और शहरों में बसा. शहरीकरण की प्रक्रिया ने वर्णव्यवस्था पर सबसे निर्णायक चोट पहुंचाई .आज भी गांवों में वर्णव्यवस्था काफी हद तक अपने पुराने घृणित स्वरूप में मौजूद है. उसमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है.जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था कि महात्मा गांधी के सारे अछूतोध्दार कार्यक्रमों के मुकाबले भारतीय रेलों ने अस्पृश्यता निवारण में ज्यादा बडा योगदान किया है.औद्योगीकरण, शहरीकरण और रेलवे संभव है अंग्रेजों के सहयोग के बिना भी भारतीय परिदृश्य में आते पर निश्चित ही इसमें और भी समय लगता. वर्णव्यवस्था अपनी ताकत भर इसका विरोध करती.


हममें से बहुत से लोग यह मानतें हैं कि वर्णव्यवस्था जैसे हिन्दू समाज के अन्तर्विरोध उस उदार और शिक्षित नेतृत्व के जरिये, अंग्रेजों की उपस्थिति के बिना भी हल किये जा सकते थे , जो स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय जनता का नेतृत्व कर रहा था.1857 खत्म होने के बाद अंग्रेजी शिक्षा संस्थानों से पढ क़र निकले इस नेतृत्व का ऊपरी चेहरा तो निश्चित रूप से काफी लुभावना था. यह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में ग्राम स्वराज, सुराज और स्वराज्य जैसे मुहावरों के जरिये भारतीय जनता के एक बहुत बडे तबके में स्वाधीनता की चेतना पैदा करने में सफल हुआ.काँग्रेस के रूप में एक ढीला ढाला प्लेटफार्म था जिसमें हिन्दू महासभाई थे , कट्टर और अनुदार मुस्लिम थे, मार्क्सवादी और समाजवादी थे और इन सबसे अलग सिर्फ आजादी की चाह मन में दबाये बहुत सारे ऐसे लोग थे जिन के मन में यह विश्वास था कि सिर्फ आजादी मिलते ही भविष्य में भारतीय समाज की सारी समस्यायें हल हो जायेंगीं .कांग्रेस का नेतृत्व स्त्रियों और शूद्रों के प्रश्न पर किस तरह से सोचता था इसे समझने के लिये कांग्रेस के दो महत्वपूर्ण नेताओं से जुडी घटनाओं को दोहराना दिलचस्प होगा.ये दो नेता थे -तिलक और गांधी .


तिलक अपनी सारी सीमाओं और संभावनाओं के अंदर गांधी के मुकाबले ज्यादा पिछडे और दकियानूस दिखायी देतें हैं. वालपार्ट ने तिलक पर लिखी अपनी किताब में बहुत सी उन घटनाओं का उल्लेख किया है जिनसे तिलक की जीवन दृष्टि स्पष्ट होती है. तिलक के समय अंग्रेज सरकार ने लडक़ियों के विवाह की न्यूनतम उम्र निर्धारित करने का प्रयास किया.आज यह सुनकर भी हंसी आयेगी कि यह न्यूनतम उम्र आठ वर्ष थी. तिलक ने सरकार के इस प्रयास का भरपूर विरोध किया , अखबारों में टिप्पणियां लिखीं, सभायें कीं और इसे हिन्दू धर्म में सरकार का सीधा हस्तक्षेप किया.


23-24 मार्च 1918 को बम्बई में पहला अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ और इसमें बडी संख्या में न सिर्फ दलितों ने भाग लिया बल्कि उस समय कांग्रेस के मंच पर एकत्रित होने वाले सवर्ण हिन्दुओं के भी बडे नेता इसमें शरीक हुये . इनमें विपिन चन्द्र पाल, रवीन्द्र नाथ टैगोर, पटेल और तिलक भी थे .कार्यक्रम के दौरान तिलक ने कहा कि यदि अस्पृश्यता समाप्त नहीं होती तो उनका ईश्वर से विश्वास उठ जायेगा .कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब अश्पृश्यता के खिलाफ एक प्रस्ताव रखा गया तो तिलक ने उस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया.


ऊपर जिन दो घटनाओं का उल्लेख किया गया है उनसे मिलती जुलती बहुत सी घटनायें तिलक के जीवनचरित में भरीं हुयीं हैं.स्थानाभाव के कारण यहां उनका उल्लेख नहीं किया जा सकता किन्तु एक और घटना का उल्लेख मैं करना चाहूंगा जिससे वर्ण व्यवस्था के बरक्स तिलक की सोच स्पष्ट हो सकेगी .यह बहुत परिचित तथ्य है कि उन्नींसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में पूना और उसके आस-पास के इलाकों में प्लेग की महामारी कई बार फैली.अंग्रेज कमिश्नर नें प्रयास किया कि इसे रोकने के लिये लोगों के घरों में घुसकर सफाई की जाय.स्वाभाविक था कि सफाई का काम दलित जातियों के लोग करते. सवणों के लिये यह असह्य था कि वे दलितों को अपने घरों के अंदर घुसने देते.उनके लिये अपने परिवार के सदस्यों या पडोसियों की जीवन हानि से ज्यादा महत्वपूर्ण था उस मूर्खतापूर्ण शुचिता की रक्षा जिसे वर्णव्यवस्था ने उत्पन्न किया था.तिलक जो पूना और उसके आसपास के इलाकों के महत्वपूर्ण नेता थे, जनता को शिक्षित कर सकते थे और सफाई के अभियान में प्रशासन की मदद कर सकते थे .उन्होंने न सिर्फ सवर्ण तर्कों का समर्थन किया बल्कि जब सफाई पर तुले एक अंग्रेज प्रशासक की हत्या कर दी गई तो हत्या में शामिल युवकों का अभिनन्दन भी किया.तिलक की इस तर्क से मदद नहीं की जा सकती कि वे अपने समय के मूल्यों के शिकार थे.उन्हीं के समय गोखले भी थे जिन्होंने समाज से जुडे मुद्दों पर तिलक के मुकाबले काफी क्रान्तिकारी पोजीशन ली जबकि तिलक को उग्रपन्थी और गोखले को नरमपन्थी माना जाता है.


स्त्रियों को लेकर गांधी का दृष्टिकोण थोडा ही बेहतर था .उनके ऊपर लिखे गये गुजराती उपन्यास में और उनके जीवन पर उपलब्ध दूसरी सामग्री में ऐसी बहुत सी घटनायें उल्लिखित हैं जो स्त्रियों को लेकर गांधी के सोच को हमारे सामने रखतीं हैं और यह कहा जा सकता है कि गांधी अपने समय के ही बहुत सारे उदार राजनेताओं के मुकाबले ज्यादा दकियानूस थे .यहां हम उनकी दलितों के सम्बन्ध में सोच तक सीमित रखेंगे .


गांधी के सम्बन्ध में थोडा विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि काफी हद तक कांग्रेस पार्टी की सोच, उसके कार्यक्रम और दलितों से उसके रिश्तों को गांधी ने ही दिशा दी थी. 1930 में गांधी ने दलितों को हरिजन कहना शुरू किया. हरिजन शब्द अपमानजनक था , न सिर्फ इसलिये कि दक्षिण भारत में मन्दिरों की देवदासियों के पुजारियों से उत्पन्न सामाजिक रूप से अवैध सन्तानो को हरिजन कहा जाता था, बल्कि इसलिये भी इस शब्द से दलितों को एक भिन्न पहचान मिलती थी और वे हिन्दू समाज की मुख्य धारा से अलग थलग दिखायी पडते थे .अम्बेदकर जैसे दलित विचारक ने हमेशा हरिजन शब्द से परहेज किया.आजादी के बाद कांग्रेसी सरकारों ने पाठय पुस्तकों में यही शब्द इस्तेमाल किया और जब उत्तर भारत में दलित उभार आया तथा राजनीति में दलितों ने पावर शेयरिंग शुरू की तभी उन्हें इस शब्द से मुक्ति मिली .अम्बेदकर और उनके अनुयायी इससे कितना चिढते थे इसका पता सिर्फ इस बात से चलता है कि कई बार जल भुनकर उन्होंने कहा कि यदि दलित हरिजन अर्थात ईश्वर की संतान हैं तो क्या सवर्ण हिन्दू शैतान की औलाद हैं ? बी. के. रॉय बर्मन नें सेमिनार(अंक 177 ,मई 1974 ) में सही कहा है कि हरिजन शब्द का इस्तेमाल असमानता को बढावा देने वाली व्यवस्था को नष्ट करने के लिये नहीं बल्कि उसे थोडा सहनीय बनाने के लिये किया गया.


यह दृष्टिकोण दलितों में भी सबसे निचले खाने पर खडे भंगियों के लिए और भी दया से भरा है.गांधी से पहले भंगी अंग्रेजों के हाथों भी मुक्त होने से वंचित रह गये थे. अगर हम लन्दन की नगर व्यवस्था का इतिहास देखें तो यह बडा मजेदार तथ्य सामने आता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य के जड ज़माने तक वहां सीवर पड चुका था और घरों में फ्लश पाखाने बनने लगे थे. 19वीं शताब्दी खत्म होते होते ब्रिटेन के ज्यादातर कस्बों और नगरों में यह सुविधा उपलब्ध हो गयी थी .भारत में अंग्रेजों ने बडे बडे मकान रहने के लिए बनाये, सिविल लाइन्स और कैन्टूनमेन्ट बसाये पर सीवर की तरफ बहुत बाद में ध्यान क्यों दिया ? उत्तर ढूंढने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी प्दैग़ी .भारत में अभागे इन्सानों की बडी फ़ौज थी जो दूसरों का पाखाना अपने सरों पर ढोने के लिए अभिशप्त थे.ये बहुत सस्ते मजदूर थे और व्यापारी अंग्रेजों के लिए सीवर पर धन खर्च करने की जरूरत ही नहीं थी. उनका काम मजे से इन भंगियों के सहारे चल सकता था. अगर सीवर भी रेलवे लाइनों या सामुद्रिक पोतों की तरह व्यापार के लिए जरूरी होता तो वे उसके बारे में भी सोचते . इस अभागी श्रम शक्ति के लिए गांधी के मन में यह भावना नहीं थी कि वे उनके अमानवीय पेशे को नष्ट करने का प्रयास करें , वे केवल उनकी कठिनाइयों को थोडा कम करने और अभागों के मन में अपने पेश के लिए गर्व महसूस कराने की कोशिश करते रहे.एक बार जब पाखाना उठाने वालों ने भंगी शब्द को खत्म करने की बात की क्योंकि उससे उन्हें अपमान का बोध होता था जो गांधी ने हरिजन (12 मई 1946) में लिखा कि भंगी शब्द का प्रयोग होना या न होना अप्रासंगिक है . यह वास्तव में सबसे ऊंचा पेशा है क्योंकि लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है. इसलिए दलितों को इसे छोडने की बात नहीं सोचनी चाहिए. एक दूसरी जगह पर गांधी ने भंगी की तुलना मां से की है और बताया कि जिस तरह मां अपने बच्चों की सफाई करती है उसी प्रकार भंगी दूसरों को साफ रखने में में मदद करता है. यह बात अलग है कि एक अवसर पर उनके भंगी श्रोताओं में से किसी ने चिढक़र उनसे पूछा कि अगर दूसरों का मैला ढोना इतना ही पवित्र और ऊंचा काम है तो गांधी जी इस पेशे को अपनाने की सलाह सवर्णों को क्यों नहीं देते? गांधी के भंगियों से रिश्ते में एक दिलचस्प मोड तब आया जब गांधी ने 1946 में भंगी कालोनी में रहने का निर्णय किया . यह अलग बात है कि दिल्ली के आज के मन्दिर मार्ग पर स्थित जिस भंगी कालोनी में गांधी ने रहने का फैसला किया उसे घनश्याम दास बिडला, दिल्ली काटन मिल्स, कांग्रेस स्वयंसेवक दल तथा दिल्ली म्ुयूनिसिपल कार्पोरेशन के पैसों और श्रम से चमकाया गया तथा गांधी के लिए अलग एक साफ सुथरा कैम्प बनाया गया. विजय प्रसाद ने अपनी पुस्तक अनटचेबुल फ्रीडम में इस कैम्प में गांधी के प्रवास के दौरान घटी एक घटना का जिक्र किया है जिससे गांधी के मन और वर्णव्यवस्था के प्रति उनके नजरिये को समझने में मदद मिलेगी.


3 अप्रैल 1946 को कुछ बाल्मीकि युवकों ने गांधी को अपने साथ खाने के लिए आमन्त्रित किया. गांधी पशोपेश में पड ग़ये .साफ मना कर देने पर वैचारिकता का संकट उत्पन्न हो सकता था. उन्होंने कहा कि उनके खाने पर खर्च होने वाला पैसा किसी हरिजन बच्चे की शिक्षा पर खर्च कर दिया जाए.युवकों के हठ करने पर उन्होंने कहा कि वे उन्हें बकरी का दूध दे सकतें हैं लेकिन उसका मूल्य लेना पडेग़ा.और दबाव पडने पर उनकी तरफ से यह पेशकश हुई कि दलित युवक उनके घर पर खाना बनाकर उन्हें खिला दें. यह खास तरह का द्वैध था जो गांधी के मरने के सालों बाद भी उनके चेलों के व्यवहार में दिखाई देता रहा है .वे हरिजन उद्धार के नाम पर सामूहिक भोज का आयोजन करतें हैं पर हमेशा सवर्ण भोजन बनाकर हरिजनो को खिलातें हैं.शायद ही कभी इससे उल्टा दिखा हो .


यहां यह याद रखना चाहिए कि गांधी जन्माधारित वर्णव्यवस्था में विश्वास रखते थे और अपनी मृत्यु के कुछ महीनों पहले तक उन्होंने इस व्यवस्था के पक्ष में लिखा है और उसे महिमामण्डित करने का प्रयास किया है . उनका एक बहुपठित वाक्य बार बार उध्दृत किया जाता है जिसमें उन्होंने यह घोषित किया है कि वे एक सनातनी हिन्दू हैं और वर्णव्यवस्था के बिना इसकी कल्पना नहीं की जा सकती . उन्होंने यहां तक लिखा ,''हर व्यक्ति को अपना पेशा (वर्णव्यवस्था द्वारा निर्धारित) अपनाना चाहिये यह उसका अपना धर्म है . जो व्यक्ति अपना पेशा छोड देता है, अपनी जाति से च्युत होता है , वह स्वयं को तथा अपनी आत्मा को नष्ट कर लेता है.'' यह स्वाभाविक था कि इस तरह के विचार रखने वाला भंगियों को अपना काम पूरी श्रध्दा से करने का ही सलाह देता है . यह अलग बात है कि दलितों के बीच तब तक एक शिक्षित समाज पैदा हो गया था जो गांधी की इस इच्छा पर कि वे अगले जन्म में भंगी के घर में पैदा होना चाहतें हैं चुपचाप सिर नहीं झुका लेता था बल्कि उनमें से सनजना जैसे लोग तमक कर कह उठते थे कि गांधी चाहें तो इसी जन्म में भंगी बन सकतें हैं, उन्हें सिर्फ वह पेशा अपनाना पडेग़ा जिसे वे बडा महान घोषित करतें हैं. भंगियों को उन्हें अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी . अगला जन्म किसने देखा है ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह करने की शक्ति भंगियों को आधुनिक शिक्षा ने ही दी थी जिसके द्वार अंग्रेजों ने उनके लिए खोले थे.


पूना पैक्ट के बाद अम्बेदकर ने हमेशा इस बात की शिकायत की कि गांधी को दलित तभी याद आतें हैं जब उनके हिन्दू धर्म से अलग होने की सम्भावना दिखायी देने लगती है .दरअसल गांधी की चिन्ता चुनावी राजनीति के सन्दर्भ में बडे हिन्दू समाज की चिन्ता थी. 19 वीं शताब्दी का अन्त होते होते स्थानीय निकायों के चुनाव होने लगे थे और धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा था कि हर व्यक्ति को बराबर का मताधिकार मिलने का मतलब है कि अब तलवार के बल पर नहीं संख्या के बल शासक का चुनाव होगा. देश की साम्प्रदायिक राजनीति के चलते यह जरूरी था कि दलित हिन्दुओं के साथ रहें, मुसलमानों के साथ न जाएं या स्वतंत्र समूह न बन सकें . 1901 के बाद की जनगणना में हिन्दुओं की यह जिद धीरे धीरे आक्रामक होती गयी कि दलितों को उनके साथ रखा जाए. अपने सामाजिक जीवन में वे दलितों को हिन्दू पहचान देने के लिए तैयार नहीं थे पर राजनैतिक परिदृश्य पर दलितों का साथ उनके लिए जरूरी था. भारत में इस्लाम भी जाति प्रथा से मुक्त नहीं था अतः उनके लिए भी दलित अपनी संख्या बढाने के औजार से अधिक कुछ नहीं थे .कांग्रेसी नेता मोहम्मद अली ने एक बार यह सुझाव दिया ही था कि अछूतों की समस्या का सबसे आसान हल यह है कि उन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बराबर बराबर बाँट दिया जाय.


गांधी की सोच मुख्य रूप से कांग्रेस की सोच बन गयी थी. हमें सैकडो ऐसे लिखित उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें कांग्रेसी नेतृत्व और दलितों के बीच इस बात को लेकर बहसें हुईं हैं कि स्वतंत्रता और दलित मुक्ति में से किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए. गांधी और कांग्रेस का मानना था कि आजादी की लडाई खत्म होने तक यह प्रश्न नहीं उठाना चाहिए. यही दृष्टिकोण उनका किसानों और मजदूरों के संघर्ष के लिए भी था. दलित चाहते थे कि उनकी मुक्ति का सवाल पहले हल हो जाए. एक बार आजाद होने के बाद सवर्ण नेतृत्व उनके साथ न्याय करेगा इस पर उन्हें विश्वास नहीं था . इस अविश्वास के लिए उनके पास ऐतिहासिक रूप से मजबूत तर्क भी थे .


1857 के दलित पक्ष को समझने के लिए मैं मानता हूं कि दलितों के इस अविश्वास को ध्यान में रखना चाहिए .


इसी सिलसिले में प्रियबाई दिलीप मंडल के मोहल्ला लाइव पर टंगे इस आलेख पर भी गौर करना जरुरी है।

भद्रलोक कम्युनिस्ट और मुसलमानों की दुर्गति

दिलीप मंडल

पश्चिम बंगाल में मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं, ड्रॉपआउट रेट राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है, सरकारी नौकरियां उन्हें अमूमन मिलती नहीं हैं, राज्य में ओबीसी आरक्षण इतना कम है कि उन्हें उसमें हिस्सा मुश्किल से मिलता है और निजी रोजगार करने के लिए बैंक लोन मिलना आसान नहीं है। इसे किसी समुदाय के खिलाफ हिंसा की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता? आश्चर्य इस बात का कि ये सब उस शासन में हुआ और हो रहा है, जो निहायत ही "सेकुलर" है! ऐसे सेकुलरवाद से देश के हर वंचित समुदाय को खतरा है।

अपने नाम में कम्युनिस्ट लगाने वाली पार्टियों का आग्रह होता है कि उन पर कोई और आरोप लगाइए, लेकिन कम से कम उन्हें सांप्रदायिक मत कहिए। ये आरोप भारत में कम्युनिस्ट नाम से चल रही पार्टियों पर लगाने में उनके विरोधी भी परहेज करते हैं। लेकिन पहले ज्योति बसु और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल सरकार का मॉडल लगातार इस धारणा को तोड़ रहा है कि वामपंथी हैं तो अल्पसंख्यक विरोधी नहीं हो सकते। बल्कि पश्चिम बंगाल का पिछले 30 साल से भी ज्यादा समय का अनुभव बताता है कि वामपंथी होने की आड़ में और मुसलमानों को सुरक्षा देने के नाम पर उन्हें ज्यादा सहजता से दबाकर रखा जा सकता है। उन्हें हर तरह के अवसरों से वंचित रखा जा सकता है। इतनी सहजता से कि जिसे मारा जा रहा हो, उसे दशकों तक मारे जाने के दर्द का एहसास भी न हो। ये एक अलग तरह की हिंसा है, जिसका एहसास पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को अब जाकर हुआ है। इसलिए सीपीएम मुसलमानों के वोट को लेकर इन दिनों इतनी चिंतित है। तस्लीमा नसरीन को राज्य के बाहर खदेड़ देने जैसे टोटके अब अचानक बेअसर दिखने लगे हैं। देखें, इस विषय पर मेरा एक पुराना छोटा-सा आलेख : थैक यू, मिस तस्लीमा, नाउ स्माइल प्लीज!

पश्चिम बंगाल में एक चौथाई आबादी मुसलमान है। कहते हैं कि वाममोर्चा सरकार मुसलमानों की रक्षक है। वो मुसलमानों की पिछले 33 साल से रक्षा कर रही है। 23 साल तक उनकी रक्षा ज्योति बसु ने की और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में दंगे नहीं होते। दंगे बिहार में भी नहीं होते। मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक हालत दोनों राज्यों में बेहद खराब है। दंगे न होने को वाम मोर्चा के नेता और लालू प्रसाद यादव मेडल की तरह पहनते रहे। सवाल ये है कि क्या मुसलमानों को इसलिए खुश रहना चाहिए कि वो सुरक्षित हैं और इस नाते क्या वो ये भूल जाएं कि विकास और जीवन के तमाम मानदंडों पर वो पिछड़ रहे हैं? क्या सुरक्षा और विकास में से किसी समुदाय को एक ही चीज मिल सकती है?

कहने को पश्चिम बंगाल सरकार गरीबों और मजदूरों का ध्यान रखती है, वैसे ही वो मुसलमानों का ध्यान रखती है। लेकिन अब मुसलमानों का मिजाज थोड़ा उखड़ा-उखड़ा सा है। ये तब से शुरू हुआ है, जब पश्चिम बंगाल सरकार ने बताया है कि एक चौथाई आबादी मुसलमानों की होने के बावजूद राज्य की नौकरियों में सिर्फ 2.1 फीसदी मुसलमान हैं। और पश्चिम बंगाल सरकार के अपने उपक्रमों यानी स्टेट पीएसयू में तो उच्च पदों पर सिर्फ 1.2 फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने ये आंकड़ा सच्चर कमेटी को दिया और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये सब छप कर आ गया। पश्चिम बंगाल सरकार ये भी नहीं कह सकती कि राज्य सरकार की नौकरियों और स्टेट पीएसयू में मुसलमान इसलिए नहीं हैं क्योंकि केंद्र सरकार का उसे सहयोग नहीं मिलता। न ही वो ये कह सकती है कि उसे पूंजीवादी ढांचे में ही काम करना होता है और उसमें कई मजबूरियां होती हैं। जबकि केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। दंगा प्रदेश गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में 5.4 फीसदी मुसलमान हैं जबकि गुजरात में 9.1 फीसदी मुसलमान हैं।

समस्या पश्चिम बंगाल की सामाजिक बनावट में हो सकती है, लेकिन कॉमरेड इसे 33 साल में भी क्यों नहीं बदल पाये। कॉमरेडों के पास कांग्रेस के इस आरोप का भी जवाब नहीं है कि वामपंथियों की सरकार बनने से पहले राज्य की नौकरियों में अब के मुकाबले ज्यादा मुसलमान थे।

अब बात सिर्फ सरकारी नौकरियों की होती, तो कई सफाई दी जा सकती थी। लेकिन शिक्षा, बैंको से दिया गया कर्ज, बैंकों में जमा धन, हर मानदंडों पर पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का हाल बदहाल है। शिक्षा की बात करें, तो पूरे देश में 40 फीसदी मुसलमान मीडिल पास करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल में ये संख्या 26 फीसदी है। पूरे देश में 24 फीसदी मुसलमान मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में सिर्फ 12 फीसदी मुसलमान ही मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। पश्चिम बंगाल सरकार का ये कहना काफी नहीं है कि मदरसों को वो काफी धन देती है, क्योंकि मदरसा शिक्षा रोजगार नहीं दिला सकती।

पश्चिम बंगाल में मुसलमान बैंकों में खाता तो खूब खुलवाते हैं (राज्य के 29 फासदी बैंक खाते मुसलमानों के हैं) लेकिन प्रायोरिटी सेक्टर लैंडिंग यानी सरकार के कहने पर जिन क्षेत्रों को अपेक्षाकृत सस्ता कर्ज मिलता है, उसमें मुसलमानों का हिस्सा सिर्फ 9.2 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में औसतन एक बैंक खाते में 30,000 रुपये जमा हैं, जबकि औसत मुसलमान के खाते में सिर्फ 14,000 रुपये जमा हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये आंकड़े विस्तार से मिल जाएंगे। ये रिपोर्ट ऑनलाइन भी उपलब्ध है और केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक विभाग के मंत्रालय की साइट से आप इसे डाउनलोड कर सकते हैं। मुश्किल ये है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं। ड्रॉपआउट रेट बहुत ज्यादा है। सरकारी नौकरियां उन्हें मिलती नहीं हैं और निजी रोजगार करने के लिए बैंक लोन मिलना आसान नहीं है। इसे किसी समुदाय के खिलाफ हिंसा की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता?

साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है। तमिलनाडु में ओबीसी कोटा 50 फीसदी, केरल में 40 फीसदी और कर्नाटक में 32 फीसदी है। इसलिए इन राज्यों में उन मुसलमानों के लिए रोजगार और शिक्षा के बेहतर मौके हैं, जो ओबीसी लिस्ट में शामिल हैं। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में मुसलमानों की लगभग पूरी आबादी (95 फीसदी) ही ओबीसी कटेगरी में आती है। आप समझ सकते हैं कि अगर बंगाल में ओबीसी को सिर्फ सात फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो ये किस तरह मुसलमानों के हितों के भी खिलाफ है। ओबीसी आरक्षण लागू करने वाले बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल आखिरी था।

काफी समय तक वहां कॉमरेड ये बोलते रहे कि पश्चिम बंगाल में वर्ग है, जाति तो है ही नहीं। कोलकाता के अखबारों के मेट्रोमोनियल पेज इस झूठ का हर दिन, हर हफ्ते, हर साल और साल दर साल पर्दाफाश करते रहते हैं। पश्चिम बंगाल में नौकरियों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में चंद जातियों का वर्चस्व क्या किसी से छिपा है। राज्य में सीपीएम की सत्ता संरचना में भी मुसलमानों की निर्णायक पदों पर गैरमौजूदगी है। कहा जाता है कि प बंगाल के जिलों में जिला कलेक्टर से ज्यादा असरदार सीपीएम का डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरी होता है। इस महत्वपूर्ण पद पर आपको मुसलमान बिरले ही दिखेंगे। इस बारे में विस्तार से अध्ययन करने की जरूरत है कि ऐसा पार्टी में किन स्तरों पर है और ये समस्या कितनी गंभीर है।

बहरहाल एक रोचक घटना अक्टूबर, 2007 में हुई, जब राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलायी। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा-ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर, 2007 के अंक में छपी है, उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा, "ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे।"

सवाल ये उठता है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का अगर ऐसा बुरा हाल था, तो देश-दुनिया में पश्चिम बंगाल सरकार की मुस्लिमपरस्त छवि कैसे बनी। बीजेपी को आखिर तक समझ में नहीं आया कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम एक हिंदू पार्टी है और हिंदू सवर्ण वर्चस्व वाली पार्टी है। पश्‍िचम बंगाल के हर तीन में से दो मंत्री या तो ब्राह्मण हैं या कायस्थ या वैद्य। योगेंद्र यादव ने नंदीग्राम मामले पर लिखते हुए इस तथ्य की विस्तार से चर्चा की है। शायद ये भी एक वजह है कि बीजेपी का हिंदूवाद पश्चिम बंगाल में नहीं चला क्य़ोंकि वह सीपीएम के सवर्ण हिंदूवाद का मुकाबला नहीं कर पाया।

दरअसल पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में मध्यम वर्ग लगभग नदारद है। इसलिए नौकरियों से लेकर शिक्षा और बैंक लोन तक मिलने में हो रहे भेदभाव को लेकर उनमें आंदोलन का तेवर नहीं रहा। फिलस्तीन पर इजरायली हमले, डेनमार्क में कार्टून विवाद, इराक पर अमेरिकी हमले, तस्लीमा नसरीन के लेखन जैसे मुद्दों पर ही उनकी गोलबंदी वामपंथी पार्टियां करती रही हैं। ये सच है कि सीपीएम ने मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित करके उन्हें फौरी समस्या से बचा लिया। साथ ही मुसलमानों के हित में बोलने में सीपीएम की बराबरी इस समय मुख्यधारा की कोई भी पार्टी शायद ही कर सकती है। सच्चर कमेटी ने बेशक पश्चिम बंगाल सरकार को नंगा कर दिया, लेकिन रिपोर्ट आते ही सीपीएम ने मांग की कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए। देखिए 5 मार्च 2007 को जारी सीपीएम का मुसलमानों के विकास का घोषणापत्र

इसके बाद लोकसभा चुनाव से पहले जारी घोषणापत्र में भी सीपीएम ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग से एक हिस्सा रखा, जिसमें इक्वल अपॉर्चुनिटी कमीशन बनाने, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू करने और मुस्लिम बहुल जिलों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशेष पहल करने की बात की। तो आप देख सकते हैं कि हकीकत और छवि का निर्माण किस तरह दो अलग अलग बातें हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम का सिर्फ एक मुसलमान सांसद पश्चिम बंगाल से चुनाव जीत सका। मुस्लिम बहुल इलाकों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में बीजेपी का एक सक्षम चुनौती के रूप में मौजूद न होना अब सीपीएम के लिए मुसीबत है। भय और सुरक्षा की राजनीति की सीमाएं अब साफ नजर आने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की भी ऐसी ही मुश्किल है। इन जगहों में मुसलमान अब भय और सुरक्षा के अलग दूसरे चुनावी गणित के आधार पर वोट देने की हालत में हैं। कॉमरेड सचमुच मुसीबत में हैं। विधानसभा चुनाव से पहले अब इतना समय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के साथ न्याय किया जा सके। न ही पश्चिम बंगाल और सीपीएम का सामाजिक ढांचा इस तरह अवसरों को मुसलमानों पर लुटाने की इजाजत देगा।

किस राज्य में कितना कोटा

स्रोत: सच्चर कमेटी रिपोर्ट

नोट : ओबीसी कोटे में ही मुसलमानों की पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिलता है। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की सिर्फ 9 जातियों को ओबीसी कटेगरी में रखा गया है। जबकि कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में लगभग पूरी मुस्लिम आबादी ही ओबीसी है।(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट। अख़बारों में नियमित स्‍तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों भारतीय जनसंचार संस्‍थान, नयी दिल्‍ली में रेगुलर क्‍लासेज़ ले रहे हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)



রেজ্জাকের নেতৃত্বে শুরু সংখ্যালঘু আর দলিতদের রাজনৈতিক ক্ষমতায়ন

এই সময়: যার যেমন সংখ্যাভারী, তার তেমন ভাগীদারি!


এই স্লোগানকে সামনে রেখেই পশ্চিমবঙ্গে দলিত ও সংখ্যালঘু শ্রেণির সামাজিক এবং রাজনৈতিক ক্ষমতায়নের আন্দোলন শুরু হল প্রবীণ সিপিএম নেতা রেজ্জাক মোল্লার নেতৃত্বে৷ তাঁরই গড়া সংগঠন সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চের প্রথম সম্মেলনে রাজনৈতিক 'ব্রাহ্মণ্যবাদের' বিরুদ্ধে জেহাদ ঘোষণা করা হল৷ প্রকৃত শ্রেণিসংগ্রামের তাগিদে, অনুশাসন-সর্বস্ব প্রথাগত বামপন্থার খোলস ছেড়ে বেরিয়ে এসে 'ওপেন ডেমোক্র্যাসি' গড়ে তোলার ডাক দিয়েছেন রেজ্জাক৷ এ দেশের মোট জনসংখ্যায় নিম্নবর্গীয়দের মিলিত অনুপাত উচ্চবর্ণের চেয়ে অনেক বেশি৷ তাই, রাষ্ট্রব্যবস্থায় 'বামুন-কায়েত-বদ্যি'দের একনায়কত্ব ভেঙে দলিত শ্রেণির প্রতিনিধিকে মুখ্যমন্ত্রীর পদে দেখতে চান এই আন্দোলনের কুশীলবরা৷


ঠিক তেমনই ভবিষ্যতে পশ্চিমবঙ্গের উপমুখ্যমন্ত্রী পদে সংখ্যালঘু মুসলমান সম্প্রদায়ের কোনও প্রতিনিধিকে বসানোর পরিকল্পনাও ঘোষণা করেছে সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চ৷ সেই উপমুখ্যমন্ত্রীর হাতেই থাকতে হবে রাজ্যের স্বরাষ্ট্রদপ্তরের ভারও৷ তবে এই স্বপ্নের ইস্তাহারে বলা হয়েছে, মন্ত্রিসভায় উচ্চবর্ণের প্রতিনিধিদেরও রাখা হবে 'যথাযোগ্য' মর্যাদায়৷


রেজ্জাকের ডাকে সাড়া দিয়ে রবিবার রবীন্দ্রসদনে এই সম্মেলনে এসেছিলেন আর এক বিদ্রোহী সিপিএম নেতা, তপশিলি জাতির প্রতিনিধি লক্ষ্মণ শেঠ৷ তিনিও নৈতিক ভাবে এই আন্দোলনের শরিক হতে চান৷ মঞ্চে না-উঠলেও লক্ষণের আক্ষেপ, তাঁর দল সিপিএমও দলিত, অনগ্রসর, মুসলমানদের পার্টি বা প্রশাসনের সর্বোচ্চ স্তরে তুলে আনতে পারেনি৷


আপাতত সামাজিক সংগঠন হিসেবে যাত্রা শুরু করলেও অচিরেই এই মঞ্চকে স্বীকৃত রাজনৈতিক দলে পরিণত করতে চান রেজ্জাক৷ সেই দল ২০১৬ সালের বিধানসভা নির্বাচনে লড়বে বলেও জানিয়েছেন তিনি৷ উত্‍স এ রাজ্যে হলেও বিহার-ঝাড়খণ্ডের আদিবাসী, নিম্নবর্গীয় মুসলমান এবং অন্যান্য অনগ্রসর শ্রেণির কিছু বিশিষ্ট ব্যক্তিকেও পাশে পেয়েছেন রেজ্জাক৷ রাজবংশী সমাজের প্রতিনিধি, প্রাক্তন আইএএস এবং কংগ্রেসের বিধায়ক সুখবিলাস বর্মা আব্বাসউদ্দিনের গান গেয়ে সমবেত জনতাকে উদ্বুদ্ধ করেন৷ আইপিএস নজরুল ইসলাম এই আন্দোলনে থাকলেও এদিন অবশ্য আসেনি৷ বিহারের পিছিয়ে থাকা মুসলিম সমাজের প্রতিনিধি সাংসদ আলি আকবর আনসারি এবং অল ঝাড়খণ্ড স্টুডেন্টস ইউনিয়নের প্রতিষ্ঠাতা তথা লালুপ্রসাদ যাদবের মন্ত্রিসভার প্রাক্তন আদিবাসী বিধায়ক সুরজ সিং বেসরাও জ্বালাময়ী বক্তৃতা দেন৷


গোড়া থেকেই এই আন্দোলন নিয়ে সমস্ত রকম ভুল বোঝাবুঝি এড়াতে সংগঠনের সভাপতি রেজ্জাক মোল্লা ঘোষণা করেছেন, 'এটা কিন্ত্ত জাতপাতের লড়াই নয়৷ আমরা ব্রাহ্মণ, কায়স্থ, বৈদ্যদের বিরুদ্ধে নই, ব্রাহ্মণ্যবাদের বিরুদ্ধে৷' সম্প্রতি অর্থনীতিবিদ অমর্ত্য সেন নিম্নবর্গীয়দের ক্ষমতায়নের পক্ষে জোরদার সওয়াল করার তাঁকেও সাধুবাদ দিয়েছেন রেজ্জাক৷


এই সম্মেলনের বহর দেখে রাজনৈতিক বিশ্লেষকরা মনে করছেন, দলিত এবং সংখ্যালঘুদের এই আন্দোলনের প্রভাব রাজ্য রাজনীতিতে সুদূরপ্রসারী হতে পারে৷ কোন প্রেক্ষিতে এমন আন্দোলন গড়ে তুলতে হচ্ছে, তার ব্যাখ্যা দিয়ে রেজ্জাক বলেন, 'একদিকে আছে রেজিমেন্টেড বামফ্রন্ট৷ অন্যদিকে ক্লাব-লাইক টিএমসি৷ আমাদের ভোটের মেরুকরণের মাধ্যমেই এগোতে হবে৷'


৭২ বছর বয়সে সমাজবদলের স্বপ্ন দেখা রেজ্জাক মোল্লা মনে করছেন, বাংলার বামপন্থীরা ব্যর্থ হয়েছেন৷ তাঁর মতে, এর কারণ দু'টি৷ প্রথমত এখানে উচ্চবর্গীয় বামপন্থী নেতারা নিম্নবর্গীয়দের সঙ্গে একাত্ম হয়ে আন্দোলন করতে পারেননি৷ দ্বিতীয়ত, শিল্পবিপ্লব না-হওয়ায় বাংলার সামন্ততান্ত্রিক ব্যবস্থায় জাতি-দ্বন্দ্বের অবসান হয়নি৷ রয়ে গিয়েছে 'জাতি-দাসত্ব'৷ এই কারণেই বিত্তবান এবং জাতিগত ভাবে উচ্চবর্গীয়দের বিরুদ্ধে ঐক্যবদ্ধ আন্দোলনই গড়ে তুলতে পারেনি বঞ্চিত নিম্নবর্গীয়রা৷ বামপন্থী দলেও যে উচ্চবর্ণের মানুষের নেতৃত্বে দলিতের ক্ষমতায়ন হতে পারে তার উদাহরণ দিতে গিয়ে কেরালার প্রসঙ্গ টেনে আনেন তিনি৷ রেজ্জাকের যুক্তি, 'ইএমএএস নাম্বুরিদিপাদ সবার সঙ্গে (নিচু জাত) মিশে আন্দোলন গড়ে তুলেছিলেন বলেই সেখানে অচ্যুতানন্দন (দলিত শ্রেণির প্রতিনিধি) মুখ্যমন্ত্রী হয়েছেন৷' ঠিক এই কারণেই শিক্ষা ও সমাজ চেতনায় কেরালা বাংলার তুলনায় অনেক এগিয়ে গিয়েছে বলে তাঁর অভিমত৷


দলিত ও সংখ্যালঘুদের এই আন্দোলনকে মজবুত করতে ফুরফুরা শরিফের পিরজাদা হজরত কাশেম সিদ্দিকি এবং বসিরহাটের পিরজাদা সভামঞ্চে হাজির হয়ে অকুণ্ঠ সমর্থন জানিয়েছেন৷ মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের বিরুদ্ধে ফুরফুরা শরিফ সংক্রান্ত কয়েকটি প্রতিশ্রুতি 'ভুলে যাওয়ার' অভিযোগ তোলেন তিনি৷ দুই পিরজাদাই ইমামভাতার কয়েকটি নেতিবাচক দিক উল্লেখ করেন৷ তাঁদের মতে, ইমামদের ভাতা না-দিয়ে যদি ৫০০০ টাকা মাসিক বেতনে শিক্ষক পদে নিয়োগ করা হত, তা হলে বরং কাজের কাজ হত৷



দলিত, মুসলিমের ভাগ চেয়ে নতুন ইনিংস রেজ্জাকের

নিজস্ব সংবাদদাতা • কলকাতা

চ্চ বর্ণের শাসনের অবসান ঘটিয়ে দলিত ও সংখ্যালঘুদের মাথায় বসিয়ে সরকার গড়ার স্বপ্ন। এই লক্ষ্য সামনে রেখে নতুন পথ চলা শুরু করলেন আব্দুর রেজ্জাক মোল্লা। আপাতত সিপিএমেই থাকছেন। তবে নবগঠিত 'সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চে'র হয়ে ২০১৬ সালের বিধানসভা ভোটে প্রার্থী দেবেন। অনগ্রসরদের ক্ষমতায়নের জন্য এই সংগ্রামে দল থেকে বাধা এলেও থামবেন না, জানিয়ে রাখলেন সে কথাও।

রাজনৈতিক সত্তার বাইরে সংখ্যালঘু ও দলিতদের জন্য বেসরকারি সংগঠন গড়ে ইতিমধ্যেই কাজ শুরু করেছেন সিপিএমের বর্ষীয়ান বিধায়ক রেজ্জাক। রবীন্দ্র সদনে রবিবার গণ কনভেনশন করে এ বার যাত্রা শুরু হল সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চেরও। সিপিএমের রাজ্য কমিটির সদস্য রেজ্জাকই ওই মঞ্চের সভাপতি। যে মঞ্চের লক্ষ্য ভবিষ্যতে এমন এক সরকার গড়া, যার মুখ্যমন্ত্রী হবেন দলিত সম্প্রদায়ের কোনও প্রতিনিধি। স্বরাষ্ট্র দফতর-সহ উপমুখ্যমন্ত্রীর দায়িত্ব থাকবে মুসলিম কারও হাতে। কনভেনশনের মঞ্চ থেকেই রেজ্জাক এ দিন বলেছেন, "এক দিকে সুসংগঠিত বামফ্রন্ট। অন্য দিকে ক্লাবের মতো তৃণমূল। এর মধ্যে থেকে ফুঁড়ে বেরিয়ে আমাদের এগোতে হবে!" পরের বার আর ভোটে দাঁড়াতে চান না, সে কথা আগেই বলেছেন রেজ্জাক। সেই ঘোষণা করে এ দিনও বলেছেন, "৭২ বছর বয়স হয়েছে। আমার হাতে মেলা সময় নেই! যতটা সময় আছে, এই কাজেই দেব। তার জন্য কেউ ব্যবস্থা নিলে নেবে!"

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সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চের গণকনভেনশনে রেজ্জাক মোল্লা। রবীন্দ্র সদনে। ছবি: সুমন বল্লভ।

রেজ্জাক ও তাঁর সহযোগীরা অবশ্য মনে করছেন, অনগ্রসরদের উন্নতির জন্য তাঁরা যে কাজে ব্রতী হয়েছেন, তাতে কমিউনিস্ট পার্টির আপত্তির কিছু নেই। রেজ্জাকের আমন্ত্রণে কনভেনশন শুনতে এসে প্রশ্নের জবাবে সিপিএমের প্রাক্তন সাংসদ লক্ষ্মণ শেঠ যেমন বলেছেন, "আমাদের পার্টি কংগ্রেসে আলোচনা হয়েছে এ ব্যাপারে। প্রশিক্ষণ শিবিরে প্রকাশ কারাটের (সাধারণ সম্পাদক) নোটেও বলা আছে, দলিত, অন্যান্য অনগ্রসর, মুসলিম, জনজাতির কাছে পৌঁছনোর জন্য আমাদের মঞ্চ গড়ে কাজ করতে হবে। নেতা-কর্মীরা তা থেকে উঠে আসবেন। কিন্তু দুর্ভাগ্যজনক ভাবে, আলোচনা করলেও দল সেই ধরনের মঞ্চ গড়ে তুলছে না।" এই জন্যই রেজ্জাকের আহ্বানকে তিনি সমর্থন করছেন বলে জানিয়েছেন লক্ষ্মণবাবু। মঞ্চ থেকে রেজ্জাক এবং দর্শকাসনে লক্ষ্মণ, দু'জনেই সামাজিক ন্যায়ের দাবি জোরালো করতে হাতিয়ার করেছেন অর্থনীতিবিদ অমর্ত্য সেনের তত্ত্বকে।

জাতপাতের রাজনীতির সঙ্গে এঁটে উঠতে না-পেরেই হিন্দি বলয়ে কোণঠাসা হয়ে রয়েছে বামেরা। বিভিন্ন রাজ্যে নানা জনগোষ্ঠীর আশা-আকাঙ্খার উপরে ভর করে গড়ে-ওঠা নানা দলের উদাহরণ দিয়েই রেজ্জাক নতুন তত্ত্বের অবতারণা করেছেন। যে তত্ত্ব বলছে, শ্রেণি সংগ্রামের আগে জাত-বর্ণের সংগ্রাম। তাঁর যুক্তি, শিল্প বিপ্লব হয়নি বলে পুঁজিবাদের তত্ত্ব মেনে মালিক-শ্রমিকের ধ্রুপদী সম্পর্কের দ্বন্দ্ব ভারতীয় সমাজে অনুপস্থিত। সামন্ততন্ত্রের নানা চিহ্নই এই সমাজে ছড়িয়ে আছে। তাই জাত-বর্ণের সমস্যাকে মোকাবিলা না-করলে বামেদের পক্ষে এগোনো মুশকিল। রেজ্জাকের মঞ্চের স্লোগান, 'যার যত সংখ্যা ভারী, তার তত ভাগীদারী'। তফসিলি জাতি, উপজাতি, ওবিসি ও সংখ্যালঘু মিলে মোট জনসংখ্যার ৯৪%-ই বঞ্চিত বলে দাবি করে উচ্চ বর্ণের আধিপত্য থেকে সরকার ও রাজনৈতিক দলকে মুক্ত করার ডাক দিয়েছেন তাঁরা।

তবে রেজ্জাক এ দিন স্পষ্ট করে দিয়েছেন, "বামপন্থীদের বিরোধিতা এবং তৃণমূলকে সাহায্য করার জন্য এই মঞ্চ নয়। বরং আমরা ঘোরতর ভাবে তৃণমূল বিরোধী! এই রকম একটা হিংস্র শক্তিকে মানুষ ক্ষমতায় এনেছেন বামপন্থীদের ত্রুটির জন্যই, এটা বলতে চাইছি।" কনভেনশন থেকে কংগ্রেস বিধায়ক সুখবিলাস বর্মা, বিহারের সাংসদ আনোয়ার আনসারি, ফুরফুরা শরিফ ও বসিরহাটের দুই পীরজাদা হজরত কাশেম সিদ্দিকি ও হুমায়েত আমিন-সহ একাধিক বক্তাই রেজ্জাকের সুরে তৃণমূলের বিরুদ্ধে সংখ্যালঘুদের ভাঁওতা দেওয়ার অভিযোগ এনেছেন। ঘটনাচক্রে, এ দিনই প্রদেশ কংগ্রেস দফতরে এক বৈঠকের পরে দলের সংখ্যালঘু সংগঠনের সর্বভারতীয় চেয়ারম্যান খুরশিদ আহমেদ সৈয়দ অভিযোগ করেছেন, সংখ্যালঘুদের জন্য কেন্দ্রীয় প্রকল্পের অর্থ এ রাজ্যে ঠিকমতো ব্যবহার হচ্ছে না। খুরশিদের অভিযোগ, "সাম্প্রদায়িক হিংসা রোধে কেন্দ্রীয় সরকার যে বিল আনার চেষ্টা করেছিল, পশ্চিমবঙ্গের তৃণমূল সরকার আর উত্তরপ্রদেশ তাতে বাধা দিয়েছিল। নিজেদের ধর্মনিরপেক্ষ বলে দাবি করে এই সরকার সংখ্যালঘুদের আশ্বাস দেয়, অথচ সংসদে গিয়ে এই ধরনের বিলের বিরোধিতা করে।" গুজরাতে সংখ্যালঘুদের সঙ্গে তুলনা করে মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় ও নরেন্দ্র মোদীকে 'ভাই-বোন' বলে খোঁচাও দিয়েছেন খুরশিদ! তৃণমূল নেতৃত্ব অবশ্য এ সবে গুরুত্ব দিতে নারাজ। দলের মহাসচিব পার্থ চট্টোপাধ্যায়ের পাল্টা আক্রমণ, "কংগ্রেস এখন সাইনবোর্ড। সিপিএমও বিলুপ্তপ্রায়। তাই বেনামে মাথাচাড়া দিয়ে নানা কথা বলছে! মানুষ সবই দেখছেন।"

http://www.anandabazar.com/24raj7.html


শাস্তির তোয়াক্কা না করেই বুদ্ধদেবকে বিঁধলেন লক্ষ্মণ


রাজা চট্টোপাধ্যায়


রেজ্জাক মোল্লার যে কনভেনশনে উচ্চবর্ণ ও বিত্তশালী শ্রেণীর একক ক্ষমতায়নের বিরুদ্ধে জেহাদ ঘোষণা হল, সেই 'মঞ্চ' হাতিয়ার করে নিজের দলের উচ্চস্তরের নেতাদের বিরুদ্ধে নতুন 'শ্রেণি সংগ্রামে' নেমে পড়লেন বিতর্কিত সিপিএম নেতা লক্ষ্মণ শেঠ। নাম না-করে প্রাক্তন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যকে প্রকাশ্যেই 'স্বৈরাচারী রাজা কিং লিয়র' বলে আক্রমণ করলেন বিতর্কিত সিপিএম নেতা লক্ষ্মণ শেঠ৷ সেই বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য, যাঁর চাপে লক্ষ্মণকে দলের রাজ্য কমিটি থেকে ছেঁটে ফেলেছিল সিপিএম৷ এমনকি, লোকসভা ভোটে দলের প্রার্থী তালিকায় লক্ষ্মণের নাম পর্যন্ত উচ্চারিত হয়নি বুদ্ধবাবুর ঘোর আপত্তিতেই৷ বাংলার সিপিএমে সেই বুদ্ধদেবের নেতৃত্ব লক্ষ্মণের ভাষায় 'ব্যক্তিতান্ত্রিকতা' এবং 'অতিকেন্দ্রিকতা'৷ রবিবার তাঁর তোপ থেকেই স্পষ্ট, একদা হলদিয়ার একচ্ছত্র অধিপতি লক্ষ্মণ এখন আর বহিষ্কারের ভ্রূকুটিকেও পাত্তা দিচ্ছেন না৷ ঘটনা হল, লোকসভা ভোটের আগে তাঁকে সাসপেন্ড বা বহিষ্কার করলে লক্ষ্মণ আরও বেফাঁস কিছু বলে বসতে পারেন, এই আশঙ্কায় তাঁর বিরুদ্ধে এখনও কোনও শাস্তিমূলক ব্যবস্থা নেওয়ার পথে হাঁটেনি সিপিএম৷


বুদ্ধ এবং আলিমুদ্দিনের বিরুদ্ধে আক্রমণ শানানোর জন্য লক্ষ্মণ যে মঞ্চকে বেছেছেন, তা-ও তাত্‍পর্যপূর্ণ৷ সিপিএমে প্রবল বুদ্ধ-বিরোধী বলে পরিচিত রেজ্জাক মোল্লার নতুন সংগঠন সামাজিক ন্যায় বিচার মঞ্চের সম্মেলন দেখতে এসেই বুদ্ধবাবুকে আক্রমণের নিশানা করেন তিনি৷ বলেছেন, 'কোনও পার্টিতে যদি গণতন্ত্র না-থাকে, স্বৈরতান্ত্রিক শক্তি যদি নেতৃত্ব দেয়, তা হলে তাঁকে ঘিরে ভাঁড়েদের সমাবেশ ঘটে৷' এর পর শেক্সপিয়রের কালজয়ী নাটক 'কিং লিয়র'-এর প্রসঙ্গ টেনে তিনি বলেন, 'রাজা এত স্বৈরাচারী ছিলেন যে, তাঁর পাশে প্রচুর তাঁবেদার ও মোসাহেবের ভিড় ছিল৷ কিন্ত্ত কিং লিয়র বাঁচেনি৷ তাঁকে মরতে হয়েছিল৷' সিপিএমের কিং লিয়র কে? লক্ষ্মণের সপাট জবাব, 'আপনারা ভালোই বুঝতে পারছেন৷'


লক্ষ্মণ এদিন ঘুরিয়ে বাম-রাজনীতিতে বুদ্ধবাবুর পতন কামনাও করেছেন৷ স্তালিনীয় নীতির জেরে যে ভাবে সাবেক সোভিয়েত রাশিয়ায় পরবর্তীকালে কমিউনিস্ট শাসনে ঘুণ ধরেছিল, ঠিক সেই একই ভাবে বাংলার সিপিএমকেও 'ব্যক্তিতন্ত্র'-এর মাসুল গুনতে হবে বলে তাঁর হুঁশিয়ারি৷ প্রাক্তন রুশ প্রেসিডেন্ট মিখাইল গর্বাচেভের পতনের ইতিহাস দলকে স্মরণ করিয়ে দিয়ে বুদ্ধ-বিরোধীদের ইন্ধন জোগানোর চেষ্টাও করেছেন লক্ষণ৷


ঘটনা হল, তাঁর এই বিদ্রোহর প্রেক্ষিতে দল কিন্ত্ত কোনও প্রতিক্রিয়া জানাতে রাজি হয়নি৷ লক্ষ্মণের বিরুদ্ধে সিপিএম রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর গড়া তদন্তকারী দলের অন্যতম সদস্য রবীন দেবের কাছে প্রতিক্রিয়া জানতে চাওয়া হলে তিনি বলেছেন, 'আমি কোনও মন্তব্যই করব না৷' রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর একাধিক সদস্যের অবশ্য ইঙ্গিত, দল চাইছে, বিদ্রোহী লক্ষ্মণ আরও কিছু অপ্রিয় মন্তব্য করে নিজের বহিষ্কারের পথ নিজেই আরও প্রশস্ত করুন৷


রবিবার রেজ্জাক মোল্লার সংগঠনের সমাবেশে দর্শকের ভূমিকাতেই ছিলেন লক্ষ্মণ৷ সংবাদমাধ্যম তাঁকে দফায় দফায় ছেঁকে ধরলে তিনিও বাছাই করা উপমা-সহ সিপিএমের মুখ বুদ্ধবাবুকে আক্রমণের নিশানা করেন৷ আর্থিক বেনিয়ম সংক্রান্ত বিষয়ে তিনি দলেই ষড়যন্ত্রের শিকার হয়েছেন কি না জানতে চাইলে লক্ষ্মণের জবাব, 'বলা হয়েছে, এটা সম্পাদকমণ্ডলীর সিদ্ধান্ত৷ পার্টিতে যদি গণতন্ত্র না-থাকে, তা হলে আমলাতান্ত্রিকতা, অতিকেন্দ্রিকতা এবং ব্যক্তিতান্ত্রিকতার জন্ম হয়৷' নিজের অভিযোগের সাপেক্ষে প্রমাণ দিতে তাঁর মন্তব্য, 'কেন্দ্রীয় কমিটি ও রাজ্য কমিটিতে বলা হয়েছে, কাউকে যদি মিথ্যা মামলায় ফাঁসানো হয় বা কেউ যদি কোনও বিশেষ কারণে আত্মগোপন করেন, তা হলে তাঁকে দলে তাঁর জায়গা থেকে সরানো যাবে না৷ সুতরাং, আমাকে যে ভাবে রাজ্য কমিটি থেকে বাদ দেওয়া হয়েছে, তা অগণতান্ত্রিক৷ এটা নিকৃষ্টতম উদাহরণ৷'


লক্ষণ শেঠ ও তাঁর অনুগামীদের বিরুদ্ধে আর্থিক অনিয়ম সংক্রান্ত অভিযোগের তদন্ত করতে গিয়ে হলদিয়ায় নিগৃহীত হতে হয়েছে পার্টির তদন্তকারী দলকে৷ জরুরি বৈঠক ডেকেও তাঁকে বহিষ্কারের চূড়ান্ত সিদ্ধান্ত নিতে পারেনি আলিমুদ্দিন৷ এই অবস্থায় রবিবার কিছুটা অপ্রত্যাশিত ভাবেই তিনি বুদ্ধবাবুর বিরুদ্ধে গর্জে উঠেছেন৷ সেই নন্দীগ্রাম পর্ব থেকেই লক্ষ্মণ শেঠের সঙ্গে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের মন কষাকষির সূত্রপাত৷ ২০০৭ সালে নন্দীগ্রামের দায় দলের রাজ্য নেতৃত্বের উপর চাপিয়ে লক্ষ্মণবাবু বলেছিলেন, 'আমি কি নন্দীগ্রামের সিদ্ধান্ত নিজে নিয়েছিলাম?' পরে তত্‍কালীন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য দলে এবং দলের বাইরে 'দায়' স্বীকার করলেও তাঁকে কেন খেসারত দিতে হল, সেই প্রশ্নও এদিনও তুলেছেন লক্ষ্ণণ৷


তৃণমূল সরকারের আমলে তাঁকে প্রথমে অজ্ঞাতবাস এবং তার পর কারাবাসও করতে হয়েছে৷ নিজের রাজনৈতিক জীবনের চরম অনিশ্চিত বাঁকের মুখে দাঁড়িয়েও দলে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্যের বিরুদ্ধে অসম লড়াই লড়তে প্রস্ত্তত তিনি৷ তাই বিদ্রোহী রেজ্জাক মোল্লা যে সময়ে নতুন দল গড়ার জমি প্রস্ত্তত করছেন, ঠিক তখনই তাঁর সম্ভাব্য শরিক হওয়ার ইঙ্গিত দিয়ে রাখলেন লক্ষণ৷ দল ছেড়ে রেজ্জাক সাহেবের সংগঠনে আনুষ্ঠানিক ভাবে যোগ দেবেন কি না জানতে চাওয়া হলে তাঁর জবাব, 'দেখি, এখনও তো সিদ্ধান্ত নিইনি৷'

http://eisamay.indiatimes.com/city/kolkata/protest-of-laxman-seth/articleshow/30932158.cms

Uday Prakash

सुना है कि 'हिंदी' साहित्य के डाक्टर बुलबुल पांडेय जी ने स्वयं को सेक्युलर और मार्क्सवादी साबित करने के लिए दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में राम को अनैतिक और अत्याचारी सिद्ध करने के उद्देश्य से उदाहरण प्रस्तुत किया कि राम ने बालि की हत्या उसके इस अपराध का दंड देने के लिए की कि उसने सुग्रीव की पत्नी तारा को अपनी पत्नी बना लिया था.( तुलसीदास की चौपाई इस प्रसंग पर याद करें : 'अनुज वधू, भगिनी, सुत-नारी, सुन सठ कन्या सम ये चारी । इनहिं कुदृस्टि बिलोकय जोई, ताहि बधे कुछ पाप न होई॥") लेकिन उन्हीं राम ने रावण का वध करने बाद उसकी पत्नी मंदोदरी को रावण के भाई विभीषण की पत्नी बना दिया. यह दोहरा मापदंड (डाक्टर बुलबुल जी के अनुसार) राम के दोहरे चरित्र को दिखाता है.

कहते हैं इस पर बवाल हो गया. कुछ लोगों ने, जिन्हें 'हिंदुत्ववादी' कहा गया, उन्होंने हड़्कंप मचा डाला और पुलिस को बुलाना पड़ा.

लगता है कि डाक्टर बुलबुल जी ने नृतत्व और पुरातात्विक पुस्तकों को दूर से भी देखा नहीं है. वाल्मीकि का 'रामायण' भी पढ़ लेते तो पता चलता कि बालि ने राम के वाण से बिंध कर मरने से पहले प्रश्न पूछ कर, उन्हें निरुत्तर किया और पछतावे से भर दिया था. उसने पूछा था कि पांच 'पशु' ऐसे होते हैं, जो 'पंच-नख' हैं (यानी जिनके एक हाथ या पैर में पांच नाखून होते हैं) उनका वध इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि आखेट के नियमों के अनुसार वे अखाद्य (न खाने लायक) होने के कारण, अवध्य हैं. इन 'पशुओं' में मनुष्यों (नागरिकों) के नियम या विधान नहीं लागू होते. (फिर तारा तो पहले भी बालि की ही पत्नी थी. किंवदंती के अनुसार 'समुद्र-मंथन' में बालि ने देवताओं का साथ दिया था और समुद्र मंथन में अमृत तथा विष के साथ अप्सराएं भी निकलीं थीं. विष तो शिव ने को पिला दिया गया और तारा नामक अप्सरा को देवताओं ने बालि की सेवा से प्रसन्न हो कर उसकी पत्नी बना दिया. किसी स्त्री को किसी पुरुष की पत्नी बनाने का यह खेल बदस्तूर ज़ारी है, भले ही इन दिनों इनमें से कुछ 'फ़ेमिनिस्ट' होने के दावे अपने लेखों में करते हों. भले ही इनके 'सजातीय अफ़सर' स्त्रियों को 'छिनाल' कहते हों.)

मैं उस रोज़ वाणी प्रकाशन के स्टाल पर बैठा था, जहां अचानक दिल्ली के एक ब्राह्मणवादी अखबार के ब्राह्मणवादी संवाददाता का आगमन हुआ. उन्होंने बड़े उत्साह से यह सूचना दी. उन्हें लगा कि अब सजातीय डाक्टर बुलबुल जी को ' हिंदी क्रांतिकारी धर्मनिरपेक्ष' सिद्ध करने का अच्छा मसाला मिल गया है.

मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक कुछ पुरातात्विक विद्वानों के मतों का हवाला दिया (हवाला तो डाक्टर रमेश कुंतल मेघ जी की महत्वपूर्ण पुस्तक -'तुलसी आधुनिक वातायन से' का भी दिया जा सकता था. लेकिन लगा कि वे संभवत: डाक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक -'लोकवादी तुलसीदास' के अटूट समर्थक 'हिंदी- वामपंथी' हैं, इसलिए मेघ जी की किताब का संदर्भ नहीं दिया.) बहरहाल, मिथक और नृ-विज्ञान के महत्वपूर्ण विद्वान यह मानते हैं कि बालि, अंगद, सुग्रीव, हनुमान. अतिबल, दधिबल, जामवंत आदि 'भालू' या 'वानर' नहीं, कृषि-सभ्यता से दूर जंगलों में कंद-मूल से पेट भरने वाले आदिवासी थे. ये नाम उनके 'टोटेम' हैं. और बहुत से आदिवासियों में मातृ-सत्तात्मक मूल्य-व्यवस्था है. आज भी. वहां स्त्रियां अधिक महत्वपूर्ण हैं. उत्तर भारत के 'हिंदी-हिंदू' प्रदेश के पितृ-सत्ताक, पुरुषवादी सामाजिक मूल्यों से वे बिल्कुल भिन्न होते हैं. वहां 'बहु-विवाह' अपराध नहीं है. स्त्री अपनी इच्छा से किसी पति के साथ जा सकती है. उनके अनुसार ऐसे आदिवासी समाज 'पोलिगेमस' होते हैं. राम जिस अयोध्या से गये थे (यह माना जाता है) वह उत्तर भारत में था. यहां 'मोनोगेमी' ही वैवाहिक मूल्य और नियम के रूप में प्रचलित है. (आज भी) विधवाएं यहां जीवन भर के लिए या तो विधवा रहने के लिए विवश हैं या पुरुष-पति के साथ 'सती' होकर पूजनीय हो जाती हैं. (जिस हिंदी अखबार से वे महोदय वामपंथी संवाददाता थे, वह अखबार 'सती-प्रथा' समर्थक होने के लिए मशहूर रहा है. अब पैंतरे बदल कर 'आधुनिक और धर्म-जाति निरपेक्ष होने की कसरत करता हुआ अपनी विश्वसनीयता गिराने में 'हिंदी-वामपंथ' से उन्नीस-बीस की होड़ लगा रहा है.) ...तो दोस्तो, विद्वानों के मतों के अनुसार (जिनमें सभी निस्संदेह वैज्ञानिक वामपंथी ही हैं) राम द्वारा बालि का वध दक्षिण भारत के आदिवासी समुदायों में 'मोनोगेमी' की स्थापना के निमित्त किया जाने वाला प्रयत्न था, जिसके लिए दो आदिवासी भाइयों. बालि और सुग्रीव के बीच युद्ध करा दिया गया. परंतु किष्किंधा के अरण्य में आदिवासियों के बीच चौदह वर्ष तक रहने के कारण राम ने वहां के समाज की प्रथाओं को समझा, इसीलिए उन्होंने अपनी पत्नी सीता का बलपूर्वक अपहरण करने वाले सोने की लंका के 'लंकाधीश' रावण को , आदिवासियों के सहयोग से पराजित करने के बाद, उन्हीं पोलिगेमस मूल्यों के अनुसार मंदोदरी का विवाह विभीषण से करने में सहायता की. (यदि वाल्मीकि रचित रामायण देखें, तो इससे पूर्व मंदोदरी से उसकी सहमति भी ली गयी थी.)

डाक्टर बुलबुल जी ही नहीं, कई 'हिंदी-वामपंथी' डाक्टर-विद्वान अपनी-अपनी विवाहिता पत्नियों को त्रासद अवस्था में, गरीबी और गांव में त्याग कर, स्वयं दिल्ली राजधानी महानगर में अन्य, अपने से बहुत कम उम्र की महिलाओं के साथ दांपत्य जीवन बिता रहे हैं और हिंदी विभागों या राष्ट्रीय 'हिंदी' संस्थानों में पति-पत्नी दोनों ही, वाम-राजनीति के समर्थन से , प्रोफ़ेसर या ऐसे ही लाखों के मासिक वेतन के पदों पर फिट होने के बाद, हिंदी सेवा करते हुए, हिंदी साहित्य और हिंदी-वामपंथ दोनों को 'समृद्ध' कर रहे हैं.

इसीलिए आश्चर्य नहीं हुआ कि डाक्टर बुलबुल जी की पांच पुस्तकों के 'लोकार्पण' के साथ ही (इन किताबों की भरपूर सरकारी खरीद होगी, यह बात प्रकाशक भी जानता ही होगा) उन्हें 'क्रांतिकारी' सिद्ध करने वाली खबरें आधे पेज पर छा गयीं और हिंदी वाम-लेखक संगठनों ने इनके समर्थन में, नेताओं-आचार्यों के हस्ताक्षर सहित अपने बयान ज़ारी कर दिये.)

जय हो !

हिंदी-वामपंथ इसी तरह फले और फूले और एक दिन अपने ही भ्रष्टाचार और मीडियाक्रिटी से किसी गुब्बारे की तरह फट जाय !


'हे राम !' यह दुआ क़ुबूल करें ...'हिंदी' भाषा, 'हिंदी' साहित्य, परित्यक्त विवाहिता पत्नियों और 'हिंदी' विभागों में शोधरत मज़बूर शोध-छात्राओं को 'हिंदी-वामपंथी बुलबुल मतावलंबियों' से बचायें !


जय हो !

(यह सब लिखने का आशय मात्र यह है कि राम का कोई 'दोहरा-अनैतिक' चरित्र कदापि नहीं था. वह तो सब 'इन्हीं जैसों' की मोनोपोली है. आर्वेल का '1984' पलट कर देखें. दोहरा पाखंड किसका होता है और 'डबल-स्पीक' का ठगी वाला जाल कौन फैलाता है ?)

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  • You, Girish Pankaj, Srijan Shilpi, Ashutosh Singh and 106 others like this.

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  • राहुल सिंह परमार होगी जय, सिर्फ इस शर्त के साथ कि हर कहानी की त्रासदी हूबहू कायम रहे। ... कांट्रोवर्सी, समकालीन साहित्य के 'साझा विमर्श' की इकलौती शर्त जो है।

  • 12 hours ago · Edited · Like · 2

  • Anjani Chauhan Ye bhool jate hain ki ek shakhsh aisa bhi hai jo in chhadm vampanthiyon ko jinka hindi sahitya se koi lena dena nahin hai aise muddon par inki chaddi utar dega aur ye sarebazar nange ho jayenge. Uday Prakash jee inki chaddi utarne ka Shukriya. Dhanyawad thanks. Aap sachmuch sahitya aur sanskriti ke encyclopedia hain Apko sadar pranam.

  • 12 hours ago · Like · 1

  • Abhishek Chandra अगर अयोध्यामें monogamy थी तो राजा दशरथ की तीन पत्नियाँ क्यों थीं?

  • 11 hours ago · Like · 5

  • Uday Prakash Abhishek Chandra ji ..दो बातें हैं. एक तो यह कि यह प्रश्न विश्वामित्र जी या वशिष्ठ जी से पूछा जाना चाहिये. और दूसरा यह कि दशरथ 'राजा' यानी 'सत्ताधीश' राजा थे. उन पर प्रजा-समाज के मूल्य लागू नहीं होते. ठीक उसी तरह, जैसे 'हिंदी' वामपंथी भी 'सत्ता-समर्थित...See More

  • 10 hours ago · Like · 4

  • Sushil Kumar क़ैद में है बुलबुल!

  • 10 hours ago · Like

  • Ashish Anchinhar ई बाम पंथी कौन है

  • 10 hours ago · Like

  • Sushil Kumar ज़िंदाबाघ ज़िंदाबाघ (रेणु जी के शब्दों में)

  • 10 hours ago · Like

  • Santosh Kr. Pandey आप कुछ ज्यादा सभ्य तरीके से लिखते हैं Uday जी। वास्तविकता ये है कि एक नंबर के जालसाज , नीच प्रवृत्ति के यौनलोलुप और अपने कुकर्मों को वाद की आड़ में छिपाने वाले , नौकरी की तलाश में उम्र गवाने वाले बिचारे युवाओं का शोषण करने वाले , छल से दूसरे की बहिन बिट...See More

  • 10 hours ago · Like · 9

  • DrRajendra Singhvi सटीक विश्लेषण।

  • 10 hours ago · Like

  • Santosh Kr. Pandey और हाँ , कम से कम अपने अनुभव से उत्तर प्रदेश के विश्व विद्यालय और कालेजों के विषय में कह सकता हूँ कि ये जातिवाद और सांप्रदायिक गुंडों के पोषणकर्ता दुर्गंधी शिक्षकों (?) के मठ हैं।

  • 10 hours ago · Like · 6

  • Uday Prakash Sushil Kumar ji ..कैद में बुलबुल जी नहीं, हम सब हैं. वे बस नामधारी 'बुलबुल' हैं, वास्तविकता में वे 'बहेलिये' हैं. आपको यह जान कर मज़ा आयेगा कि यूपीए -(१ और २) में 'हिंदी' और 'विचारधारा' के नाम पर देश को लूटने वाले ये लोग, एनडीए के समय भी फ़ायदा उठाने, अप...See More

  • 10 hours ago · Like · 15

  • Sudhendu Patel aapne khare -khare kaha.parsaiji ka 'aur anat me'ke yyad aa gaye.

  • 10 hours ago · Like

  • Narayan Singh Deval Swanamdhany sabhi alochnaon se pare vampanthi budhdhijivion ko nanga aina dikha hoga. Sadhuvad. Sachcha sahitykar vahi hai jo kisi vichardhara ke bajay apne rachnakar dwara anubhoot saty ke prati imandar ho. Salom.

  • 9 hours ago · Edited · Like

  • Sushil Kumar Uday Prakash महाभारत के अनुशासन पर्व में कृष्ण को पार्वती से एक हज़ार आठ पत्नियाँ प्राप्त होने का वरदान मिलता है जिसे बाद में चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ा कर सोलह हज़ार एक सौ आठ कर दिया गया।

  • 9 hours ago · Like

  • Uday Prakash

  • 9 hours ago · Like

  • Sushil Kumar Uday Prakash मैंने पहली बार इस चुलबुले बुलबुल का नाम आपकी पोस्ट से जाना

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  • Ramji Bali Kya baat uday g.aap ko sadhuwad hum jaison ko roshni dikhane ke liye.

  • 9 hours ago · Like

  • Sushil Kumar वाह प्रभु राम एवं बालि दोनों युगल अवतार में प्रकट भये... साधुवाद

  • 9 hours ago · Like

  • Dheerendra Singh Sir isiliye to mahaan lekhak hain...

  • 8 hours ago · Like

  • राहुल सिंह परमार कांटा कठोर है तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है... 'अज्ञेय'

  • 7 hours ago · Like

  • Vijay Sharma इनलोगो ने एक रोलमाडल बनाया है जिसकी चपेट में पूरा हिन्दी कालेज गोअर है। इस वानाबे की भीड़ ने इस कीचड़ को आटोमेटेड कर दिया है। पिछड़े क्षेत्रोंके गरीब परिवारों के बच्चे इनके आखेट हैं । फिर वे इस चक्र को आगे बढाते चलते हैं ।

  • 7 hours ago · Like

  • Vijay Sharma संतोष पाण्डेय के कथन को सोने में मढवाकर हर कालेज पर लगाईये । इसका खर्च हम साझा करेंगे ।

  • 7 hours ago · Like

  • Vinod Bharadwaj KYA YEH CHULBUL PANDAY KE BHAI HAIN ? CARRECTER TO ' DHEELA' HI LAG RAHA HAI

  • 7 hours ago · Like

  • Ujjwal Bhattacharya मेरी राय में यहां तीन प्रसंग हैं :

  • - मिथक या महाकाव्य का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन,

  • - अकादमिक जगत का भ्रष्टाचार, और...See More

  • 6 hours ago · Like · 4

  • Guddu Yadav आप बवाल के समर्थन में हैं !

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  • Raghvendra Telang Aapki isi saafgoi ke to kaayal hain hum Res Udaiji...!

  • 5 hours ago · Like

  • Daya Sagar सस्ता साहित्य मंडल द्वारा प्रकाशित और शांतिकुमार नानूराम व्यास द्वारा लिखित पुस्तक 'रामायणकालीन संस्कृति' में कहा गया है: 'वन-यात्रा में गंगा और यमुना पार करते समय सीता ने इन नदी-देवताओं से प्रार्थना की थी कि पति के साथ चौदह वर्ष के वनवास से सकुशल लौटन...See More

  • 4 hours ago · Edited · Like

  • Anil Janvijay जय हो !

  • हिंदी-वामपंथ इसी तरह फले और फूले और एक दिन अपने ही भ्रष्टाचार और मीडियाक्रिटी से किसी गुब्बारे की तरह फट जाय !

  • 2 hours ago · Like

  • Vijay Sharma जनविजय जी भ्रष्टाचार में खुद की अनुकृति पैदा करने की (क्लोनिन्ग) और एकम्लेटाईज होने की अचूक क्षमता होती है। शैतानी किस्म की विचारधारा चिरंजीवी होती है। its natural n effortless to be mean. .democracy also lends support. ..

  • about an hour ago · Edited · Like

  • Kunwar Anand Singh हिंदी' साहित्य के डाक्टर chulbul पांडेय जी .

  • about an hour ago · Like

  • Anil Analhatu इतना क्षोभ ,गुस्सा .... और विरोध करने और कहने का यह अपार साहस ....जय हो...इस साहस और जज्बे को सलाम

  • 37 minutes ago · Like


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