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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, September 28, 2015

जाने-माने कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल का बरेली में निधन


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वीरेन डंगवाल के निधन पर शोक संदेशों का तांता लगा हुआ है. उनके जानने वाले स्तब्ध हैं. वीरेन डंगवाल की सर्वप्रिय शख्सियत के कायल लोग उनके अचानक चले जाने पर मर्माहत हैं. जाने-माने कवि और पत्रकार Vishnu Nagar ने सोशल साइट पर अपनी संवेदना यूं व्यक्त की है: ''हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि और बेहद जिंदादिल इनसान वीरेंद्र डंगवाल कैंसर से जूझते-जूझते अंततः आज चार बजे इस दुनिया से विदा हो गए। वह अपनी कर्मभूमि बरेली गए थे, जहाँ जाते ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा,ऐसीसूचना उनके घनिष्ठ मित्र मंगलेश डबराल ने आज अभी-अभी दी है। इतने खरे और इतने सच्चे कवि हमारे बीच कम ही हैं, जैसे वे थे। अभी इतना ही।''

वीरेन डंगवाल बरेली कालेज में प्रोफेसर रहे. इसके अलावा वह समय-समय पर अमर उजाला, बरेली और अमर उजाला, कानपुर के संपादक भी रहे. करीब तीन दशकों से वह अमर उजाला के ग्रुप सलाहकार, संपादक और अभिभावक के तौर पर जुड़े रहे.  मनुष्यता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में अटूट आस्था रखने वाले वीरेन डंगवाल ने इन आदर्शों-सरोकारों को पत्रकारिता और अखबारी जीवन से कभी अलग नहीं माना. वे उन दुर्लभ संपादकों में से रहे हैं जो सिद्धांत और व्यवहार को अलग-अलग नहीं जीते थे. 

5 अगस्त सन 1947 को कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में जन्मे वीरेन डंगवाल साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि रहे. वे अपने चाहने जानने वालों में वीरेन दा नाम से लोकप्रिय रहे. उनकी शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में एमए फिर डीफिल करने वाले वीरेन डंगवाल 1971 में बरेली कालेज के हिंदी विभाग से जुड़े. उनके निर्देशन में कई (अब जाने-माने हो चुके) लोगों ने हिंदी पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर मौलिक शोध कार्य किया. इमरजेंसी से पहले निकलने वाली जार्ज फर्नांडिज की मैग्जीन प्रतिपक्ष से लेखन कार्य शुरू करन वाले वीरेन डंगवाल को बाद में मंगलेश डबराल ने वर्ष 1978 में इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार अमृत प्रभात से जोड़ा. अमृत प्रभात में वीरेन डंगवाल 'घूमता आइना' नामक स्तंभ लिखते थे जो बहुत मशहूर हुआ. घुमक्कड़ और फक्कड़ स्वभाव के वीरेन डंगवाल ने इस कालम में जो कुछ लिखा, वह आज हिंदी पत्रकारिता के लिए दुर्लभ व विशिष्ट सामग्री है. वीरेन डंगवाल पीटीआई, टाइम्स आफ इंडिया, पायनियर जैसे मीडिया माध्यमों में भी जमकर लिखते रहे. वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला,  कानपुर की यूनिट को वर्ष 97 से 99 तक सजाया-संवारा और स्थापित किया. वे बाद के वर्षों में अमर उजाला, बरेली के संपादक रहे.

वीरेन का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया. 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को 'रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार' (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया. दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृष्टा' 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया. दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया. वीरेन डंगवाल हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि माने गए. उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी व बौद्धिकता एक साथ मौजूद है. वीरेन डंगवाल पेशे से रुहेलखंड विश्वविद्यालय के बरेली कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर, शौक से पत्रकार और आत्मा से कवि रहे. सबसे बड़ी बात, बुनियादी तौर पर एक अच्छे-सच्चे इंसान. विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए. उनकी खुद की कविताएं बांग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में छपी हैं. कुछ वर्षों पहले वीरेन डंगवाल के मुंह के कैंसर का दिल्ली के राकलैंड अस्पताल में इलाज हुआ. उन्हीं दिनों में उन्होंने 'राकलैंड डायरी' शीर्षक से कई कविताएं लिखी. वीरेन डंगवाल ने पत्रकारिता को काफी करीब से देखा और बूझा है. जब वे अमर उजाला, कानुपर के एडिटर थे, तब उन्होंने 'पत्रकार महोदय' शीर्षक से एक कविता लिखी थी, जो इस प्रकार है-

पत्रकार महोदय

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार!


वरिष्ठ पत्रकार Om Thanvi ने फेसबुक पर वीरेन दा के निधन की सूचना के बाद यह लिखा है: 

"हस्ती की इस पिपहरी को
यों ही बजाते रहियो मौला!
आवाज़
बनी रहे आख़िर तक साफ-सुथरी-निष्कंप"

अनूठे कवि वीरेन डंगवाल लम्बे अरसे से रोगशैया पर थे। उन्हें अब जाना था। चले गए। पर सुबह उनके न रहने की टीस बार-बार कहती है कि उन्हें अभी नहीं जाना था।

विदा, बंधु, विदा!

 
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