थाली में अमीरी
पलाश विश्वास
गरीबों की थाली की कीमत अब 1 रुपये लगाई गई है। यूपीए सरकार में मंत्री फारुख अबदुल्ला ने एक वक्त के खाने की कीमत 1 रुपये बताई है।
इससे पहले कांग्रेस नेता राज बब्बर ने मुंबई में 12 रुपये और राशिद मासूद ने दिल्ली में 5 रुपये में पेट भर खाना मिलने की दलील दी थी। योजना आयोग के 33 रुपये आय वालों को गरीब नहीं मानने के आंकड़े को सही साबित करने में लगातार ऐसी बयानबाजी हो रही है।
योजना आयोग के आंकड़े गलत हो ही नहीं सकते
इन्हीं आंकड़ों से बनता है भारत लोक गणराज्य
इसी से चलता है लोककल्याणकारी राजकाज
और इसी के आधार पर ही तो
राजसूय अश्वमेध यज्ञ
जिसकी जजमानी इंद्रधनुषी
थाली का क्या हिसाब लगाते हो
क्यों बेपर्दा बहुओं को बुलवाते हो
फिर पूछोगे
अवतारों की थाली का हिसाब
कारपोरेट थाली से पेट भरा नहीं तो क्यों बौखलाते हो
पगला गये होंगे
तीन दशक तक
खेतों में झखमारी करते पी साईनाथ
जो कहते हैं हर रोज
दो हजार किसान
आत्महत्या करते हैं
अब लीजिये,
पूरा खेत हुआ जिसका
पूरा आसमान हुआ जिसका
और तमाम ग्लेशयर जिसके नाम
नदियां सरपट भागतीं
हिमालयकी गोद तोड़कर
समुंदर के लिए
जिसके लिए
वह करें खुदकशी
और आप लगाओ थाली का हिसाब
वैश्विक पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मेहरबानी है
कि खुदकशी कर नहीं रहे अभीतक हम
विदेशी निवेशकों की आस्था है कि
अर्थव्यवस्था एकदम ठीकठाक
कारपोरेट सरोकार है और कारपोरेट
प्रतिबद्धता है बहुत
राजनेताओं को सुनते सुनते
कान हो गये क्या बहरे कि
ठीक से सुनते नहीं चिदंबरम
मोंटेक और सुब्बाराव को
जो हमारी किस्मत बना रहे हैं
आर्थिक नीतियों की निरंतरता बनाये हुए हैं
खंडित अल्पमत जनादेश के बावजूद
कोलकाता की बरसाती शाम को
कालेजस्ट्रीट पर विश्वविद्यालय के शताब्दी हाल में खूब बोले
साईनाथ और वंदना शिवा
हम तो साईनाथ के रूबरू भी हुए
कुछ चलासेक मिनट के लिए
खूब बातें हुईं
इतिहास और भूगोल नाप लिये
हो गयी चर्चा तमाम किसान विद्रोह की
चर्चा हुई तेलंगाना,ढिमरी ब्लाक से लेकर नकल्सबाड़ी और दंडकारण्य तक की
मरीचझांपी भी नहीं छूटा
बौले साईनाथ
राजनीति गैरप्रासंगिक है
असली मुद्दे तो आर्थिक है
राजनीति में और सत्ता में भागेदारी से क्या करोगे
मोदी हो या राहुल
फर्क क्या पड़ता है
जब खेत हुए बेदखल
जल जंगल जमीन और नागरिकता से बेदखल लोगों का
कोई विकल्प नहीं होता
और
राहुल का विकसल्प मोदी नहीं
मनमोहन का विकल्प है मोदी
और
मोदी का विकल्प
सिर्फ मोदी
और कोई नहीं
सारा खेल राजनीति का हो गया मोदी बनाम मोदी
साईनाथ ने बताया कि
कैसे डां. अमर्त्य सेन बोलते रहे
आर्थिक मुद्दों पर लगातार
जिस पर कोई बहस हुई नही
सामाजिक योजनाओं में खर्च
बढाने की बात करके पहले ही छांट दी गयी
अरुणा राय, उसके बाद पर काटे दिये उन्हीं की ईजाद
आरटीआई के भी
कि राजनीति का हिसाब किताब मांगने का हक हकूक नहीं है
जनता को किसी कीमत पर
अब अमर्त्य की बारी है
जिन्होंने दरअसल एकमेव विकल्प
इस भारत देश के मोदीकरण को
कर दिया खारिज
क्योंकि साईनाथ की तरह
और हमारी तरह भी
इस राजनीतिक विकल्प से मसले हल नहीं होते
किसी भी तरह को
मीडिया की कारीगरी कमाल कि
अर्थव्यवस्था का सवाल
को पहले राजनीतिक बना दिया
फिर हुई भारत रत्न लौटाने कीं मांग
और अब उनकी बेटी की फिल्मी तस्वीरें
फ्लैश करके मांग रहे हैं राजनीति का हिसाब
साईनाथ से मुलाकात से पहले
लंदन से गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने
किया था फोन पिछली रात
और पूछा था कि
क्या भारत का पर्याय है मोदी
क्या मोदी के अलावा कोई मुद्दा नहीं
जीआईसी नैनीताल के गुरुजी हुए वे हमारे
वे साईनाथ की तरह विश्वविख्यात पत्रकार नहीं
न ही हैं वे कोई अर्थशास्त्री
और वे हमें साहित्य पढ़ाते थे
गनीमत है कि भारत रत्न नहीं वेवरना उनसे भी वापस मांग लेते
गनीमत है कि फिल्म अभिनेत्रियां नहीं हैं उनकी बेटियां
अपने गुरुजी को सार्वजनिक करने के नतीजे से
फिलहाल बचा हुआ हूं
इसीलिए
2
अब थाली की बात चली तो बात निकलती ही जा रही है
बात उस थाली की भी चली है
जिसकी कीमत सात हजार रुपए से कुछ
ज्यादा है और जो थाली इकलौती परोसी नहीं जाती कभी
उस थाली के साथ लगती है परिजनों के अलावा नीति निर्धारकों
की तमाम थालियां भी
और संपादकों की थालियां भी उन्हीं में शामिल हैं, जाहिर है
वे चूंती हुई अर्थ व्यवस्था के जनक हैं
खुले बाजार के प्रजनक हैं
तमाम गोटालों के कर्णधार भी वे
भारत निर्माण का बोझ भी उन्ही पर
उनके एक वक्त के भोजन का क्या
हिसाब रखेगा योजना आयोग
भूल गये इतिहास के कमजोर छात्र
कि इंदिरा जी ने समाजवादी रास्ते पर चलते चलते
हटाते हटाते गरीबी
कैसे नसबंदी कर दी थी देश की
और अब भी बधिया है यह महादेश
उस आरपात काल के बाद भी
सरोगेट मातृत्व के बिना
अब भूमिष्ठ नहीं होंगी संतानें यहां
नागरियों का सारा पुरुषत्व
अब घर बाहर स्त्री उत्पीड़न तक सीमित है
जलसंख्या नियंत्रण ही समस्या हैसो हो गयी नसबंदी
खाद्य संकट सुलझाने हरित क्रांति से लेकर
दूसरी हरित क्रांति की यात्रा तक
भारतीय कृषि की शव यात्रा निकली
देश बेच दिये
फिर भा बेच रहे हैं देश रोज रोज
रोज रोज विदेश यात्राएं
जनसुनवाई कहीं नहीं
न कोई जनसंवाद
जनप्रतिनिधित्व
या तो बाहुबल है
या अकूत कालाधन
या चटख रंगों का उन्मादी सैलाब
जिसे बह निकलती खून की नदियां तमाम
संसदीय समितियां हैं
है संसद भी
कहते हैं कि कानून का राज भी है
लेकिन उससे ज्यादा है युद्ध अपनी ही जनता के विरुद्ध खेतों के खिलाफ
प्रकृति के खिलाफ
पर्यावरणविरोधी
अरण्य बन गये रिसार्ट
हमारे घर हुए शापिंग माल
गांवो के चीरते स्वर्मिम राजपथ
उन्हीं को रौंदने के लिए
जिसपर दौड़तीं बेशकीमती गाड़ियां
जिसका ईंधन जाता हमारी ही जेबों से
और हमारे लिए कोई पैदल पथ भी नहीं छोड़ा
हत्या कर दी मेढ़ों की
पगडंडियां भी मार दी गयीं
बांध दी गयीं नदियां कि
हम ऊर्जा प्रदेश के वाशिंदा है
ग्लेशियरों को उबलने के लिए छोड़ दिया
झीलें हो गयीं मलबे से लबालब
घाटियां डूब में शामिल
जल प्रलय हुआ कारोबार बड़ा
सुनामी का भी करते वे व्यापार
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उनकी थाली और हमारी थाली कैसे हो सकती है बराबर
सातहजार की तो कोई थाली किसी नागरिक की नहीं हो सकतीफिरबा क्यों चिल्लाते हो
देवताओं देवियों के चरणों में टनों सोना समर्पण
की परंपरा क्यों भूलते हो
तमाम तानाशाहों ने बना दिये धर्मस्थल
अनवरत आस्था उन्माद भययंकर
गगनभेदी प्रवचन और योगाभ्यास चप्पा चप्पा
अपने अपने ईश्वर का नाम लेते रहो
पैदल सेनाओं में नाम लिखा दो
धर्मयुद्ध में आहुति दे दो प्राणों की
अस्पृश्यता है तो रहने दो
असमता ही अलंकार है
अन्यायपूर्ण हैं सौंदर्यशास्त्र
और व्याकरण
भाषा में कहीं नहीं है
वर्चस्व का विरोध
न प्रतिरोध है सड़कों पर
नस्लीभेदभाव जहां पैमाना है
जनसंहार के लिए जहां रोज जारी होते आंकड़े
निवेशकों की आस्था मुताबिक
बनती है रोज नीतियां
संसदीय अनुमोदन के बिना रोज
जारी होते अध्यादेश
और बदल जाते कानून
सुधारों का नरमेध चलता अबाध
परिभाषाओं बदल दी जातीं रोज
अस्पृश्यता, बहिस्कार और नस्ली भेदभाव का पैमाना बदलने के लिए
वहां,उस कंबंधों के अनंत जुलूस में
क्यों मचा रहे हो शोर
मनोरंजन का यह शगूफा भी अनोखा कि
रोज थाली का हिसाब लगाते लोग
एक रुपया, पांच रुपये, बारह रुपये से लेकर बहुओं की थाली अस्सी की
गरीबों को भरपेट भोजन के सिवाय क्या चाहिए आखिर
गरीबों का परिजन होता नहीं क्योंकि
जीने के लिए हर परिजन उनका
श्रम से जुड़ा है किसी न किसी तरह
उनके क्या आश्रित होंगे
खाद्य सुरक्षा है उनके लिए
चूंती हुए अर्थव्यवस्था उन्हीके लिए
यह सैन्य राष्ट्र भी है उन्हींके लिए
परमाणु ऊर्जा से लेकर परमाणु ऊर्जा भी उन्हींके लिए
उनके बच्चों के लिए मिड डे मिल
जहर है तो हुआ करें,मरते हैं तो मरने दे
कब किसने चाहा कि वे जिया करें, जीकर आरक्षण की मांग किया करें
सवर्ण देश के अछूतों के क्या नागरिक अधिकार
जीने की इजाजत है,क्या यह काफी नहीं
भूल गये अरावल,जहानाबाद
भूल गये खैरांजलि
जिनकी आस्था नहीं वे भी जीकर क्या करें
इसीलिए बाबरी विध्वंस
सिखों का संहार इसीलिए
गुजरात नरसंहार का विकास माडल भी इसी खातिर
और सबसे बड़ा आयोजन यह खुला बाजार
लोककल्याणकारी राज्य का हुआ अवसान
तो विधायकों, सांसदो, मंत्रियों और सलाहकारों की थाली पर
नजर गढ़ाना पाप है
अपने अपने ईश्वर का स्मरण करके प्रभु का गुण गाओ और
ऐश करो
जो जीता वही सिकंदर
हारे हुए लोगों को जीने का क्या हक
4
सही है कि एक रुपया में भी थाली मिलती है
एक रुपये का छत्तू खाकर भी जीते हैं लोग
एक रुपए का परवल सहारे पूरा दिन बिताते हैं लोग
पांच रुपये बहुत हैं उनके लिएट
बहुत है बारह रुपये भी
महानगर कोलकाता की आधी आबादी
की आय अभी पांच सौ रुपये से कम है
जापानी तेल और शीतला माता की कृपा से परिजन भी उनके कुछ न कुछ होते हैं
फिरभी वे जीते हैं, मरमरकर जीते हैं लोग जो उनकी थाली का हिसाब लगाना उतना ही मुश्किल है,जश्न और भोज की थाली का हिसाब लगाना आसान
जिनके बच्चे बंधुआ मजदूर
वे भी अमीर होंगे, क्योंकि बच्चों की मजूरी से मिल जाता भरपेट भोजन
जिनकी बेटियां बिक गयीं बाजार में
उन्हें भी क्या गरीब कहिए
या जो बंजारा है,आदिवासी हैं, विस्थापित हैं
वे तो भरपेट भोचन जुटा ही लेते हैं
खानों में खपकर
पहाड़ों में भूकंप,भूस्खलन और जलप्रलय जैसे
गरीबी दूर करती रहती है हरसाल
उसी तरह आपदाओं का सालाना आयोजन
गरीबी खत्म करने के लिए ही तो
जो किसान करते हैं खुदकशी
उनके लिए भी मुआवजा है
गरीबों के बच्चे पढ़ते नहीं लाखों की फीस वाले स्कूलों में
खैरात में जैसे वे जीते हैं ,उसीतरह खैरात में शिक्षा सर्वशिक्षा है
अस्पताल में दाखिल होते हैं वे तो
अपने ही अंग प्रत्यंग बेचने के लिए
प्रसूति के लिए भी अस्पताल क्या जरुरी है
उनके लिए जो मेढ़ों पर,पगडंडियों और
गंदी नालियों में जीने के अभ्यस्त हैं
और कोख बेचने पर जिन्हें भरपेट
अमीरों के बराबर मिल सकती है थाली
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पूरा देश अब जख्मी हिमालय है
या फिर
बेच दी गयी नदियां, या बेदखल महा्रण्य है यह देश
या धारावी में देखले अपना भूगोल
अबूझ लगे तो अपनी राजधानी देख लें
देख ले सेज से बेदखल खेत
बांधों में समायी डूब
और लावारिश लाशों का अंबार जहां तहां
पूरा देश सशस्त्र सैन्य बल अधिनियम है या फिर कामदुनी
या भुला दिया गया मरीचझांपी द्वीप
या तेलंगना या ढिमरी ब्लाक
या लालगढ़
या दंतेवाड़ा
या पूरा दंडकारण्य
या गोलियों से छलनी मानवाधिकार यह देश है
इतिहास जानना है तो
बनारस की दाल मंडी है
या फिर कोलकाता की महामंडी सोनागाछी
या सामावर्ती इलाकों का गांव एक एक
खैरात बांटने के लिए पात्र अपात्र छांटने की कवायद है
थाली की यह कसरत
इससे भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई मतलब नहीं
क्योंकि इस अर्थसशास्त्र में गरीब कहीं हैं ही नहीं
दरअसल गरीबी सिर्फ राजनीति में है
क्योंकि गराबों का सबसे बड़ा वोट बैंक है
वोट जिनका है,
नोट भी उन्हींका
यही संसदीय लोकतंत्र है
और सही मायने में गरीबी रेखा
महज एक हवाई किला है
जिसे जीत लेने से ही मिल जाता है सिंहासन
6
परिशिष्ट
यूपीए सरकार ने अध्यादेश के जरिये फूड सिक्योरिटी बिल का रास्ता साफ कर दिया है। सरकार का दावा है कि इसके जरिये देश की तकरीबन दो तिहाई गरीब लोगों का पेट रियायती दरों पर भर सकेगा। उम्मीद की जा रही है कि अगस्त से इस योजना पर काम शुरू हो जाएगा, जब राज्य सरकारें इसके दायरे में आने वाले लोगों की लिस्ट तैयार करेंगी। एक अनुमान के मुताबिक, अगले छह महीनों में यह योजना पूरे देश लागू हो जाएगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में बुधवार को हुई कैबिनेट मीटिंग में फूड सिक्योरिटी बिल से जुड़े अध्यादेश को मंजूरी दे दी गई। जब राष्ट्रपति इस पर दस्तखत करेंगे, यह बिल तत्काल प्रभाव से देश में लागू हो जाएगा। लेकिन इसे छह हफ्ते के अंदर संसद से मंजूर कराना होगा। अनुमान है कि इस बिल का प्रभाव देश की 67 फीसदी आबादी पर पड़ेगा। जहां 75 फीसदी ग्रामीण आबादी को सस्ती दरों पर अनाज मिलेगा, वहीं देश की तकरीबन 50 फीसदी शहरी आबादी भी इसके दायरे में आएगी।
आगामी आम चुनावों के मद्देनजर मॉनसून सेशन से पहले सरकार ने यह टं्रप कार्ड चला है। माना जा रहा है कि यूपीए सरकार और कांग्रेस के लिए यह बिल उसी तरह से गेम चेंजर साबित हो सकता है, जैसे यूपीए वन में मनरेगा, किसानों की कर्ज माफी और आरटीआई कानून साबित हुआ था।
फूड सिक्यूरिटी अध्यादेश के तहत राजधानी में लोगों को राशन मुहैया कराने की शुरुआत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथों होगी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मंगलवार को उन्हें निमंत्रण देने पहुंचीं। अब यह तय माना जा रहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के जन्मदिन पर 20 अगस्त से दिल्ली में फूड सिक्यूरिटी अध्यादेश लागू कर दिया जाएगा।
मंगलवार को मुख्यमंत्री की अगुवाई में टास्क फोर्स की एक मीटिंग हुई। टास्क फोर्स का चेयरमैन दिल्ली के फूड ऐंड सप्लाई मिनिस्टर हारुन यूसुफ को बनाया गया है, जबकि इसके सदस्य सांसद संदीप दीक्षित, सांसद महाबल मिश्रा, विधायक कुंवर करण सिंह, सुभाष चोपड़ा और मतीन अहमद बनाए गए हैं। टास्क फोर्स में हेल्थ सेक्रेटरी, एजुकेशन सेक्रेटरी और विमिन ऐंड चाइल्ड डिवेलपमेंट सेक्रेटरी भी सदस्य बनाए गए हैं। टास्क फोर्स के मेंबर सेक्रेटरी फूड ऐंड सिविल सप्लाई कमिश्नर एस. एस. यादव को बनाया गया है।
मीटिंग में टास्क फोर्स के सदस्यों ने चर्चा की कि दिल्ली में कितने लोगों को इस स्कीम के दायरे में लाया जाए। केंद्र सरकार से जो डाटा भेजा गया है, उसमें 73 लाख 51 हजार लोगों को इस दायरे में लाने की बात कही गई है, लेकिन दिल्ली का जो डाटा है, वह 94 लाख के आसपास है। फूड ऐंड सिविल सप्लाई के अधिकारी बुधवार को डॉटा निकालकर टास्क फोर्स को देंगे।
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निर्धनता रेखा
http://hi.wikipedia.org/s/4mn
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
गरीबी रेखा या निर्धनता रेखा (poverty line) आय के उस स्तर को कहते है जिससे कम आमदनी होने पे इंसान अपनी भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने मे असमर्थ होता है । गरीबी रेखा अलग अलग देशों मे अलग अलग होती है । उदहारण के लिये अमरीका मे निर्धनता रेखा भारत मे मान्य निर्धनता रेखा से काफी ऊपर है ।
यूरोपीय तरीके के रूप में परिभाषित वैकल्पिक व्यवस्था का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसमें गरीबों का आकलन 'सापेक्षिक' गरीबी के आधार पर किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति की आय राष्ट्रीय औसत आय के 60 फीसदी से कम है, तो उस व्यक्ति को गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वाला माना जा सकता है। औसत आय का आकलन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए माध्य निकालने का तरीका। यानी 101 लोगों में 51वां व्यक्ति यानी एक अरब लोगों में 50 करोड़वें क्रम वाले व्यक्ति की आय को औसत आय माना जा सकता है। ये पारिभाषिक बदलाव न केवल गरीबों की अधिक सटीक तरीके से पहचान में मददगार साबित होंगे बल्कि यह भी सुनिश्चित करेंगे कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो गरीब नहीं है उसे गरीबों के लिए निर्धारित सब्सिडी का लाभ न मिले। परिभाषा के आधार पर देखें तो माध्य के आधार पर तय गरीबी रेखा के आधार पर जो गरीब आबादी निकलेगी वह कुल आबादी के 50 फीसदी से कम रहेगी।
योजना आयोग ने 2004-05 में 27.5 प्रतिशत गरीबी मानते हुए योजनाएं बनाई थी। फिर इसी आयोग ने इसी अवधि में गरीबी की तादाद आंकने की विधि की पुनर्समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया था, जिसने पाया कि गरीबी तो इससे कहीं ज्यादा 37.2 प्रतिशत थी। इसका मतलब यह हुआ कि मात्र आंकड़ों के दायें-बायें करने मात्र से ही 100 मिलियन लोग गरीबी रेखा में शुमार हो गए।
अगर हम गरीबी की पैमाइश के अंतरराष्ट्रीय पैमानों की बात करें, जिसके तहत रोजना 1.25 अमेरिकी डॉलर (लगभग 60 रुपये) खर्च कर सकने वाला व्यक्ति गरीब है तो अपने देश में 456 मिलियन (लगभग 45 करोड़ 60 लाख) से ज्यादा लोग गरीब हैं।
भारत में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले शख्स को गरीब नहीं माना जा सकता है। गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला शख्स बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे के तौर पर दी। इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री ने हस्ताक्षर किए थे। आयोग ने गरीबी रेखा पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहा कि दिल्ली, मुंबई, बंगलोर और चेन्नई में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता।
बाद में जब इस बयान की आलोचना हुई तो योजना आयोग ने फिर से गरीबी रेखा के लिये सर्वे की बात कही।
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
अमीरी रेखा की जरूरत (जनसत्ता)
गरीबी की अवधारणा
Author:
सचिन कुमार जैन
Source:
मीडिया फॉर राईट्स
इस व्यवस्था में महिला सरपंचों को ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है और जहां वे सक्षम है उन पंचायतों में सबसे बेहतर परिणाम सामने आये हैं। पंचायती राज और ग्राम स्वराज के संबंध में सबसे बड़ी कमजोरी ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन न हो पाने के रूप में सामने आई है। सामाजिक न्याय समितियों का या तो गठन नहीं हो पाया है या फिर समितियां सक्रिय नहीं है।
गरीबी भूख है और उस अवस्था में जुड़ी हुई है निरन्तरता। यानी सतत् भूख की स्थिति का बने रहना। गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना और पढ़ न पाना। गरीबी है आजीविका के साधनों का अभाव और दिन में दोनों समय भोजन न मिल पाना। छोटे-बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का वीभत्स प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना और अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का आधार तैयार करते हैं। मूलत: सामाजिक और राजनैतिक असमानता, आर्थिक असमता का कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब तक वह शनै:-शनै: विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है, क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्पों के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है, उसके आजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।
शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलायें और बच्चे कचरा बीनने और कबाड़े का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है बल्कि इस क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है। विकलांग और शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के समक्ष सदैव दोहरा संकट रहा है। जहां एक ओर वे स्वयं आय अर्जन कर पाने में सक्षम नहीं होते हैं वहीं दूसरी ओर परिवार और समाज में उन्हें उपेक्षित रखा जाता है। कई लोग गरीबी के उस चरम स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं जहां उन्हें खाने में धान का भूसा, रेशम अथवा कपास के फल से बनी रोटी, पेंज, तेन्दुफल, जंगली कंद, पतला दलिया और जंगली वनस्पतियों का उपयोग करना पड़ रहा है।
गरीबी को स्वीकारने की जरूरत
वर्तमान संदर्भों में गरीबी को आंकना भी एक नई चुनौती है क्योंकि लोक नियंत्रण आधारित संसाधन लगातार कम हो रहे हैं और राज्य व्यवस्था इस विषय को तकनीकी परिभाषा के आधार पर समझना चाहती है। संसाधनों के मामले में उसका विश्वास केन्द्रीकृत व्यवस्था मंच ज्यादा है इसीलिए उनकी नीतियाँ मशीनीकृत आधुनिक विकास को बढ़ावा देती हैं, औद्योगिकीकरण उनका प्राथमिक लक्ष्य है, बजट में वे जीवनरक्षक दवाओं के दाम बढ़ा कर विलासिता की वस्तुओं के दाम कम करने में विश्वास रखते हैं, किसी गरीब के पास आंखें रहें न रहें परन्तु घर में रंगीन टीवी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में सरकार पूरी तरह से जुटी हुई है। हमारे सामने हर वर्ष नित नये आंकड़े और सूचीबद्ध लक्ष्य रखे जाते हैं, व्यवस्था में हर चीज को, हर अवस्था को आंकड़ों में मापा जा सकता है, हर जरूरत को प्रतिशत में पूरा किया जा सकता है और इसी के आधार पर गरीबी को भी मापने के मापदण्ड तय किये गये हैं। ऐसा नहीं है कि गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परन्तु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम बात यह है कि वह एक मुद्दा है। प्रो.एम.रीन का उल्लेख करते हुये अमर्त्य सेन लिखते हैं कि ''लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिये कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचानें लगें। इस नजरिये में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हो, उन्हें भी समस्यायें भुगतनी पड़ती है।''
गरीबी के आधार
खेतों से जुड़ती गरीबी - पारम्परिक रूप से मध्यप्रदेश का समाज प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि को ही जीवन व्यवस्था का आधार बनाता रहा है। इसी कृषि व्यवस्था के कारण वह विपरीत परिस्थितियों जैसे बाढ़, सूखा या आपातकालीन घटनाओं से जूझने की क्षमता रखता था। खेती में भी उसका पूरा विश्वास ऐसी फसलों में था जो उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती थीं जैसे- ज्वार, बाजरा, कौंदो-कुटकी। यही कारण था कि वे अपने पेट की जरूरत को पूरा कर पाने में सदैव सक्षम रहे। ये ऐसी फसलें थीं जिनसे कभी जल संकट पैदा नहीं हुआ, न ही जल संकट ने उन फसलों को प्रभावित किया। परन्तु विकास की तेज गति के फलस्वरूप कृषि में जो बदलाव आये वे भी गरीबी को विकराल रूप देने में जुटे हुयें हैं। किसान के जरिये उद्योगों को पोषित करने की नीति के तहत नकदी फसलों पर जोर दिया जाने लगा। ये फसलें ज्यादा पानी की मांग करती हैं, इसी कारण रासायनिक पद्धतियों का उपयोग भी लगातार बढ़ा है और किसान की जमीन अनुत्पादक होती गई है। कृषि का आधुनिकीकरण होने के कारण अब बुआई में ट्रेक्टरों और कटाई में हारवेस्टरों का खूब उपयोग होने लगा है इसके कारण कृषि मजदूरी के अवसरों में भारी कमी आई है। ऐसी स्थिति में जीवन यापन करने और प्रतिस्पर्धा से जूझने के लिये गरीब लोग कम से कम मजदूरी में भी श्रम करने के लिये तैयार हो जाते हैं।
विकास से बढ़ता अभाव - विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाओं को शासकीय स्तर पर बड़ी ही तत्परता से लागू किया जा रहा है। इन परियोजनाओं में बांध, ताप विद्युत परियोजनायें, वन्य जीव अभ्यारण्य शामिल हैं जिनके कारण हजारों गांवों को विस्थापन की त्रासदी भोगनी पड़ी और उन्हें अपनी जमीन, घर के साथ-साथ परम्परागत व्यवसाय छोड़ कर नये विकल्पों की तलाश में निकलना पड़ा। नई नीतियों के अन्तर्गत लघु और कुटीर उद्योग लगातार खत्म होते गये हैं। जिसके कारण गांव और कस्बों के स्तर पर रोजगार की संभावनायें तेजी से घट रही हैं। कई उद्योग और मिलें बहुत तेजी से बंद हो रहे हैं और वहां के श्रमिक संगठित या पंजीकृत नहीं है, ऐसी स्थिति में उनके संकट ज्यादा गंभीर हो जाते हैं।
इन योजनाओं में विस्थापन को लाभकारी बता कर क्रियान्वित किया गया किन्तु भ्रष्टाचार और अनियोजित क्रियान्वयन के कारण लोगों के एक बड़े समुदाय के अस्तित्व पर ही संकट आ गया। अब सरकार स्वयं स्वीकार करती है कि वह विस्थापितों की जरूरतें पूरी करने की क्षमता खो चुकी है, परन्तु फिर भी निरन्तर ऐसी योजनायें बढ़ती जा रही हैं जिनका क्रियान्वयन ही विस्थापन और गरीबों की भूमि के अधिग्रहण पर आधारित है। सागर की पेयजल समस्या को हल करने के लिये राजघाट बांध बनाया गया। इसके लिए किसानों से जमीनें ले ली गई ; इसके बदले सरकार ने उन्हें जमीन तो दे दी, पर किसानों को जमीन पर कब्जा नहीं मिल पाया। इसी मामले में मूड़रा गांव के अमान अहिरवार को अपना परिवार चलाने के लिये पत्नी का मंगलसूत्र बेचना पड़ा। अमान स्वयं हाथ पैरों से विकलांग है, उनकी एक बेटी है पर नेत्रहीन और एक समय उनके पास चार एकड़ जमीन थी।
सामाजिक व्यवस्था और गरीबी - मध्यप्रदेश के चंबल और विंध्य क्षेत्र ऐसे हैं जहां सामाजिक भेदभाव अपने चरम पर है। यहां ऊँची और नीची जाति के बीच चिंतनीय भेद नजर आता है। इन क्षेत्रों में नीची जाति के लोगों के साथ खान-पान संबंधी व्यवहार नहीं रखा जाता है, न ही उन्हें धार्मिक और सामाजिक समारोह में शामिल होने या स्थलों में जाने की इजाजत होती है। इन्हीं क्षेत्रों में कई समुदाय गरीबी और सामाजिक उपेक्षा के कारण निम्नस्तरीय पारम्परिक पेशों में संलग्न हैं। यहां जातिगत देह व्यापार, जानवरों की खाल उतारना, सिर पर मैला ढोना जैसे पेशे आज भी न केवल किये जा रहे है बल्कि इन समुदाय के लोगों को सम्मानित पेशों में शामिल होने से रोका जा रहा है।
गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा के मायने
भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहकर अपना जीवन गुजारते हैं। अपने आप में यह जानना भी जरूरी है कि कौन गरीबी की रेखा के नीचे माना जायेगा। भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का दायित्व योजना आयोग को सौंपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये न्यूनतम रूप से दो वस्तुयें उपलब्ध होनी चाहिए :-
1.संतोषजनक पौष्टिक आहार, सामान्य स्तर का कपड़ा, एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियां, जो किसी भी परिवार के लिए जरूरी है।
2.न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिये स्वच्छ पानी और साफ पर्यावरण।
3.गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानी पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है। अभी यह माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने शरीर को औसत रूप से स्वस्थ रखने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी की न्यूनतम आवश्यकता होती है। इतनी कैलोरी हासिल करने के लिये गांव में एक व्यक्ति पर 324.90 रुपए और शहर में 380.70 रुपए का न्यूनतम व्यय होगा।
गरीबी की रेखा और गरीबी
योजना आयोग ने गरीबी की रेखा को गरीबी मापने का एक सूचक माना है और इस सूचक को दो कसौटियों पर परखा जाता है। पहली कैलोरी का उपयोग और दूसरी कैलोरी पर खर्च होने वाली न्यूनतम आय। इसे दो अवधारणों में प्रस्तुत किया जाता है -
गरीबी की रेखा - आय का वह स्तर जिससे लोग अपने पोषण स्तर को पूरा कर सकें, वह गरीबी की रेखा है।
गरीबी की रेखा के नीचे - वे लोग जो जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, गरीबी की रेखा के नीचे माने जाते हैं। भारत में 4.62 लाख उचित मूल्य की राशन दुकानों के जरिये हर वर्ष 35000 करोड़ रुपए मूल्य का अनाज 16 करोड़ परिवारों को वितरित किया जाता है। भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी वितरण प्रणाली है।
गरीबों की संख्या | न्यूनतम जरूरत | उपलब्धता |
35 करोड़ | 2400 कैलोरी | 1460 कैलोरी |
भारत में गरीबों का स्तर | |
वर्ष 1993-94 | वर्ष 1999-2000 |
35.97 प्रतिशत | 26.10 प्रतिशत |
यह है सच्चाई
• जिन आधारों पर व्यक्ति को गरीब माना जाता है यदि उन्हीं पर नजर डालें तो स्थिति दुखदायी है।
• देश में हो रहे विकास का लाभ समाज के गरीब और वंचित वर्गों तक सीधे नहीं पहुंच रहा है स्वाभाविक है कि गरीबों की परिस्थितियों में भी सुधार नहीं हो रहा है परन्तु वहीं दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव और राजनैतिक कारणों से सरकार गरीबों की संख्या में लगातार कमी करती जा रही है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अब कई पहचान से वंचित गरीबों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पायेगा। आज के दौर में गरीबी के संदर्भ में जो सबसे आम प्रवृत्ति का पालन किया जा रहा है वह है गरीबी को नकारना।
वास्तव में गरीबी की रेखा वह सीमा है जिसके नीचे जाने का मतलब है जीवन जीने के लिये सबसे जरूरी सुविधाओं, सेवाओं और अवसरों का अभाव। यही वह अवस्था है जिसमें आकर जीवन पर संकट और दुखों की संभाव्यता सौ फीसदी हो जाती है। जिस सीमा को हम गरीबी की रेखा कहते हैं उसे परिभाषित करने के लिये सरकार की ओर से कुछ मानदण्ड तय किये गये हैं। इन्हीं मानदण्डों के आधार पर यह तय होता है कि किसका जीवन संकटमय अभाव में बीत रहा है। गरीबी की रेखा के निर्धारण के संदर्भ में यही आर्थिक मापदण्ड सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। किसी भी परिवार की आय मापने के लिये उसके पास उपलब्ध सुविधाओं और सेवाओं का मूल्यांकन किया जाता है जैसे- परिवार के पास रेडियो, सीलिंग पंखा, साईकिल, स्कूटर, कार, ट्रैक्टर या टीवी है अथवा नहीं। साथ ही मकान कैसा है- कच्चा, अर्धकच्चा, किराये का या किसी अन्य प्रकार का। परिवार के लोग क्या और कितना खाते हैं- दाल, सब्जी, मांस, दूध और फल।
ग्रामीण समाज के संदर्भ में गरीबी की अवस्था के मापने की प्रक्रिया में भूमि संबंधी मापदण्ड बहुत मायने रखते हैं। मध्यप्रदेश के लगभग 22 लाख उन परिवारों को इसी गरीबी की रेखा की श्रेणी में रखा गया है जिनके पास आधा हेक्टेयर से कम अथवा बिल्कुल भूमि न हो। इसी तरह एक हेक्टेयर से कम 9.54 लाख भूमिधारियों को सीमान्त कृषक की श्रेणी में रखा गया है, परन्तु वे अति गरीब नहीं माने जाते हैं, चाहे सालों से उनके खेत पर पानी ही न बरसा हो। गरीबों की पहचान करने में पशुधन को भी एक अहम सूचक माना गया है पशु धन में गाय, बकरे, मुर्गे, बतख और बैल को चिन्हित किया गया है।
गरीबी के प्रभाव
गरीबों के लिये शासन के स्तर पर कई कल्याणकारी योजनायें संचालित की जा रही हैं। शासन गरीबों की पहचान करने के लिये पांच वर्ष में एक बार गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का सर्वेक्षण करवाता है। पिछली बार यह सर्वेक्षण वर्ष 1997-98 में हुआ था। हाल के आकलनों और प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर पता चलता है कि विगत् अवसरों पर वास्तविक गरीबों की पहचान नहीं की गई और उनके नाम बीपीएल सूची में नही आ पाये जिसके कारण उन्हें अन्य योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाया। बाद में कई अवसरों पर इस प्रश्न को उठाया भी गया, तब इस प्रावधान के बारे में बताया गया कि यदि अब किसी व्यक्ति का नाम बीपीएल में जुड़वाना है तो सूची में पहले से दर्ज किसी व्यक्ति का नाम ग्राम सभा में निर्णय लेकर कटवाना पड़ेगा। तभी किसी गरीब का नाम सूची में दर्ज किया जा सकेगा। इस प्रावधान का प्रयोग पंचायत स्तर पर बहुत कठिन प्रतीत होता है क्योंकि इससे वहां टकराव का वातावरण निर्मित होगा। नई शासन व्यवस्था में मध्यप्रदेश में पहले पंचायतों को और फिर ग्राम सभाओं को ज्यादा अधिकार सम्पन्न बनाया गया। यहां गरीब व्यक्ति के चयन, उसे कल्याणकारी योजना का लाभ देने का प्रस्ताव बनाने और विकास में गरीबों की सहभागिता सुनिश्चित करने के अधिकार दिये गये हैं किन्तु अनुभव बताते हैं कि गरीबों के लिये यह प्रक्रिया अभी तक तो कोई बहुत सार्थक सिद्ध नहीं हुई है। इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में भी सत्ता या तो किसी प्रभावशाली व्यक्ति के हाथ में है, या फिर सरपंच के या सचिव के नियंत्रण में। इस व्यवस्था में महिला सरपंचों को ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है और जहां वे सक्षम है उन पंचायतों में सबसे बेहतर परिणाम सामने आये हैं। पंचायती राज और ग्राम स्वराज के संबंध में सबसे बड़ी कमजोरी ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन न हो पाने के रूप में सामने आई है। सामाजिक न्याय समितियों का या तो गठन नहीं हो पाया है या फिर समितियां सक्रिय नहीं है। यह महत्वपूर्ण मसला है क्योंकि गरीबी को दूर करने में अब ग्रामसभा और स्थाई समितियों की अहम भूमिका है।
व्यवस्था का कहर भी मूलत: गरीबों पर ही टूटता है। ज्यादातर कानूनों जैसे वन कानून या फिर श्रम कानून का नकारात्मक प्रभाव आमतौर पर गरीबी से जूझ रहे समुदाय पर ही नजर आता है। एक ओर तो वैसे ही जंगल कम हो जाने के कारण ग्रामीणों की दैनिक आजीविका के साधन कम हो गये हैं वहीं दूसरी ओर कानून भी अपना जाल फेंकने से नहीं चूकता है। इसी तरह पुलिस की प्रताड़ना भी गरीबों को सबसे ज्यादा सहनी पड़ती है। खास करके कचरा बीनने वालों पर चोरी का आरोप लग जाना सामान्य घटना है वहीं बांछड़ा-बेड़िया समुदाय की महिलाओं पर भी इनका गहरा प्रभाव रहता है। हम वास्तव में यदि यह महसूस करते हैं कि समाज का एक वर्ग भीषण अभाव में जीवनयापन कर रहा है और उसके पास बुनियादी जरूरतें पूरी करने के भी अवसर उपलब्ध नहीं है तो निश्चित रूप से अब याचना का नहीं-दबाव का रास्ता अख्तियार करने की जरूरत है। हर गांव, हर परिवार की गरीबी के कारण अलग-अलग हो सकते हैं पर उनके समाधान का मूल आधार एक समानता आधारित समाज की स्थापना है।
भारत में उपेक्षित और पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में सहरिया आदिवासियों का नाम भी दर्ज है। इन्हें पिछड़ी हुई आदिम कहने के सरकार ने चार सूचक तय किये हैं -
1.कृषि में पूर्व प्रौद्यौगिकी स्तर।
2.साक्षरता का न्यूनतम स्तर।
3.अत्यंत पिछड़े एवं दूर दराज के क्षेत्रों में निवास करना।
4.स्थिर या घटती हुई जनसंख्या।
इस समुदाय की कुछ अपनी पारम्परिक विशेषतायें हैं सहरिया आदिवासी जंगलों पर निर्भर हैं, बहुत शांत और अप्रतिक्रियावादी हैं। ज्यादा आकांक्षी नहीं है और यही विशेषताएं अब उसके लिये अभिशाप बन गई। कारण बहुत रोचक है। अतीत में वह गांव की राजनैतिक सीमाओं का हिस्सा रहा किन्तु सामाजिक वर्गवाद ने उसे सामंतवादी क्षत्रिय या ठाकुर समुदाय के अधीन कर दिया। व्यवस्था यह बनी कि वह किसी ठाकुर परिवार की हवेली के सामने से जूते पहनकर या साईकल पर बैठकर या सिर उठाकर नहीं गुजरेगा। यदि वह ऐसा करेगा तो उसे हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। सहरिया ने प्रतिक्रिया नहीं की वह सहता रहा। अन्तत: दिन-प्रतिदिन के शोषण से तंग आकर उन्होंने गांव की सीमा से बाहर एक बस्ती बना ली जिसे 'सहराना' कहा जाने लगा। शोषण से बचने के लिये उसे गांव की राजनैतिक-सामाजिक सीमा से बाहर निकल जाना पड़ा और परिणाम स्वरूप वह विकास और परिवर्तन के प्रभावों से भी महरूम रह गया। आखिरकार एकाकीपन इन समुदाय का चरित्र बन गया। न तो उनमें राजनैतिक नेतृत्व का विकास हुआ न ही सामाजिक शक्तियों का। जंगलों पर सरकार का नियंत्रण हो गया और सहरिया भूख से मरने लगे। भुखमरी की स्थिति में उनके नाम पर विकास कार्यक्रम चले पर क्षमता और नेतृत्व के अभाव में सबकुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। वे अपनी इच्छा से अपना 'मत' भी नहीं दे सकते हैं और तब उन्हें व्यापक समाज में अपनी पहचान को समाहित कर देना होता है।
गरीबी का अभिशाप केवल सहरिया नहीं भोग रहे हैं बल्कि भारत के 35 करोड़ लोग आज भांति-भांति के संकटों और शोषण से जूझ रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनके पास सिर ढंकने के लिए छत, तन ढंकने के लिए वस्त्र, पेट भरने के लिए आजीविका के साधन और अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्रता नहीं है। इनका केवल आने वाले कल ही नहीं बल्कि बचा हुआ आज भी असुरक्षित है।' गरीबी की व्यवस्था से जूझने वाला समुदाय भ्रष्टाचार, हिंसा और शोषण, राजनैतिक, सामाजिक शक्ति के अभाव और असुरक्षित आजीविका के संकट का सामना करता है। कई ऐसी परम्परायें हैं जो बदलते परिवेश में गरीबी के चक्र को चलायमान रखने में अहम भूमिका निभाती हैं जैसे - मृत्यु भोज और वधु मूल्य। झाबुआ और धार जिले में अब से तीन दशक पहले पचास से दौ सौ रुपए में नुक्ते का आयोजन कर लिया जाता था परन्तु अब इस परम्परा को निभाने के लिये कम से कम दस हजार से तीस हजार रुपए व्यय करने पड़ते हैं।
भ्रष्टाचार, हिंसा और शोषण, राजनैतिक, सामाजिक शक्ति के अभाव और असुरक्षित आजीविका का संकट
भ्रष्टाचार
वह केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार का हर रोज सामना करता है। यह एक कटु सत्य है कि जब भी उनके लिये कोई अवसर तलाशा जाता उसे अमीर या साधन सम्पन्न लोग छीन लेते हैं। हम भारत में गरीबी की रेखा के सर्वेक्षण का उदाहरण ही लेते हैं। 1997-98 के सर्वेक्षण में 30 से 40 फीसदी ऐसे लोगों को गरीबी की रेखा के नीचे मान लिया गया जो अपनी पचास एकड़ की भूमि में खेती के लिए ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। हमारे गांवों में अक्सर यह कहा जाता है कि अपने विकास की दिशा हमें अपनी ग्रामसभा में ही बैठकर तय करना है परन्तु अनुभव यह है कि संसाधनों पर नियंत्रण तो अफसरशाही का ही है। इसी देश में हर दूसरे व्यक्ति के गरीब होने का एक बड़ा कारण क्षमतामूलक न्याय व्यवस्था का अभाव है। लोग छोटे-छोटे मामलों में फंसे रहते हैं और मृत्यु उनके जीवन का फैसला कर देती है। वे भूख से न मर जायें इसके लिये सरकार कम मूल्य का अनाज गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये भेजती है। परन्तु 56 प्रतिशत अनाज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े 100 फीसदी टीकाकारण का दावा करते हैं और गांव में बच्चे उन्हीं बीमारियों से मर जाते हैं।
हिंसा एवं शोषण
गरीबी का प्रकोप एक आयामी नहीं है बल्कि उसका आक्रमण बहुआयामी होता है। जब हमारे यहां राजनीति की रोटी पकाने के लिए साम्प्रदायिक दंगों की आग जलाई जाती है तो गरीबों की बस्तियां ही जलती हैं और फुटपाथ पर रहने वाले लोग मारे जाते हैं क्योंकि कानून व्यवस्था तो नेताओं और साधन सम्पन्नों की सुरक्षा में लगी रहती है।
राजनैतिक-सामाजिक शक्ति का अभाव
लोगों के जीवन में अपनी भूख का सवाल इतना गंभीर होता है कि वे उसके अलावा कुछ सोच पाने की स्थिति में ही नहीं रहते हैं। आमतौर पर यही देखा गया है कि प्रभावशाली राजनैतिक वर्ग अपने स्वार्थ साधने के लिये इन समुदायों का उपयोग करते हैं। होशंगाबाद जिले में जिला पंचायत के अध्यक्ष का पद हरिजन महिला के लिये आरक्षित कर दिया गया। इससे प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के अहं को ठेस तो लगी पर उन्होंने रास्ता खोज ही लिया। एक स्थानीय उच्च वर्गीय नेता ने अपने घर में काम करने वाली दलित महिला अध्यक्ष को अध्यक्ष का चुनाव लड़वा दिया और स्वयं उपाध्यक्ष बन गया। चुनाव जीत जाने के बाद अध्यक्ष की मुहर, दस्तावेज, वाहन से लेकर अध्यक्ष के आसन तक सब कुछ ठाकुर साहब के नियंत्रण में था। सहभागिता और लोगों की आवाज आज के दौर में विकास की प्रक्रिया का हिस्सा बन गई है। लोग केवल योजनाओं का लाभ ही नहीं चाहते हैं बल्कि उनकी अपेक्षा है कि उनकी बात सुनी जाये और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी हो। वे दूसरों की शर्तों पर इस प्रक्रिया में शामिल नहीं होना चाहते हैं बल्कि उसका स्वाभाविक हिस्सा होना चाहते हैं। चूंकि उनकी उपस्थिति को किसी मंच पर महसूस नहीं किया जाता है इसलिये उन्हें कहीं महत्व भी नहीं मिलता है। यह एक विचारणीय बिन्दु है कि उनकी पहुंच अपने हितों से जुड़ी सूचना तक भी नहीं है और प्रभावशाली न होने के कारण वे अपारदर्शिता से जीवन भर जूझते रहते हैं।
असुरक्षित आजीविका का संकट
कभी उनके बारे में मानवीय ढंग से नहीं सोचा गया। वे हमेशा उन पर निर्भर बने रहे जो अविश्वसनीय, गैर-जिम्मेदार और भ्रष्ट हैं। परिणाम यह हुआ कि उनकी दरिद्रता का स्तर बढ़ता गया। 6 करोड़ आदिवासी आज भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों से मिलने वाले खाद्य उत्पादों पर जीते हैं पर नीति, न्याय प्रक्रिया और राजनैतिक व्यवस्था उनके इस साधन को छीन लेने को तत्पर है। नि:संदेह उन्हें जीवनयापन के लिये कोई विकल्प भी नहीं दिया जाने वाला है। अब भी लाखों बल्मिकी और हैला समुदाय की महिलायें मानव मल साफ करने (मैला ढोने) का गरिमा हीन काम करती हैं। सरकार ने अब इस काम को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बना दिया है। उनसे यह काम छुड़वा दिया जायेगा; ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि वे ऋण लेकर कोई दूसरा रोजगार करें। सब्जी बेचें, गाय-भैंस पालें या कपड़े की दुकान खोल लें यह संभव तो है परन्तु क्या समाज अस्पृश्यता की भावना से ऊपर उठकर उन्हें स्वीकार कर लेगा। अनुभव यह है कि देवास की सुमित्राबाई ने यह काम छोड़कर जब कपड़े बेचने का काम शुरू किया तो तीन माह तक उनकी दुकान से एक कपड़ा भी नहीं बिका। अन्तत: उन्हें अपनी दुकान बन्द कर देनी पड़ी। हमारे आस-पास 93 प्रतिशत ऐसे मजदूर हैं जो असंगठित हैं और इनके लिये न तो आजीविका सुनिश्चित करने वाला कानून है न कोई नीति। इतना ही नहीं व्यवस्था ने कभी उनके नेतृत्व को भी पनपने नहीं दिया। आजीविका के अभाव में ही लोग साहूकारों के कर्जे में फंसते हैं और सरकार उनके साथ छलावा करती है।
जीवन में गरीबी से मुक्ति के मायने
संसाधन
अपने जीवन की सकारात्मक परिभाषा तय कर पाने की स्थिति में होना। अच्छा जीवन जीने का मतलब है अपने बच्चे की भूख मिटा पाने, उसे स्कूल भेज पाने, मनोरंजन, शारीरिक और मानसिक विकास की राह को आसान कर पाने की स्थिति में होना। सुनिश्चित आजीविका के संसाधन हों। हम इस चिंता से मुक्त हों कि हमारे परिवार को कल खाने के लिए पौष्टिक भोजन मिलेगा या नहीं। हमारी मानसिक अवस्था शांतिपूर्ण और मददगार हो और समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण बना पाने में सक्षम हों। प्रसन्न होना और एक दूसरे की भावनाओं को समझना भी समन्वित जीवन का एक हिस्सा है।
स्वतंत्रता
हमें अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने की स्वतंत्रता हो। शक्ति और अधिकारों का उपयोग किसी भी तरह के शोषण में न हो और हम जो व्यवहार करें उसके प्रति स्वयं जवाबदेय भी हों। हमें ऐसे अवसर चुनने की स्वतंत्रता मिले जिनसे कौशल का विकास किया जा सके ताकि जीवन और समाज को गलत दिशा में न जाने दिया जा सके।
सामाजिक जीवन
अपने परिवार और समाज के प्रति अच्छा होना। यदि कोई विकलांग है या अभाव में है तो उसके प्रति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाना। इसका जुड़ाव सकारात्मक सामाजिक सम्बन्धों से है।
सुरक्षा
सुरक्षा से आशय है हमारा अपने जीवन पर नियंत्रण और हमें यह पता होना कि आने वाला कल हमारे लिये क्या लेकर आयेगा। सुरक्षा का अर्थ केवल आजीविका के साधनों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि इसमें व्यक्ति की राजनैतिक हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा, भ्रष्टाचार, अपराध से सुरक्षा भी शामिल है। हर व्यक्ति की कानून तक पहुँच हो और न्याय प्रक्रिया समता मूलक न्याय प्रदान करती हो भय से मुक्ति भी इसका एक हिस्सा है।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/33302
उदारीकरण
http://hi.wikipedia.org/s/gd0
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
उदारीकरन का अर्थ है विश्व के साथ व्यापार की शर्तो को उदार बनाना,इस् से ना केवल अर्थव्यवस्था का विकास सुनिस्च्हित होता है बल्कि देश का व्यापक विकास तथा बहुमुखि उन्नति होति है, द्वारा-प्रतीक झाझरिया
उदारीकरण का अर्थ ऐसे नियंत्रण में ढील देना या उन्हें हटा लेना है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले । उदारीकरण में वे सारी क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिसके द्वारा किसी देश के आर्थिक विकास में बाधा पहुँचाने वाली आर्थिक नीतियों, नियमों, प्रशासनिक नियंत्रणों, प्रक्रियाओं आदि को समाप्त किया जाता है या उनमे शिथिलता दी जाती है ।
भारतीय अर्थव्यवस्था
http://hi.wikipedia.org/s/7aw
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
भारतीय अर्थव्यवस्था की एक झलक 1 | ||
मुद्रा | ||
वित्तीय वर्ष | १ अप्रैल - ३१ मार्च | |
व्यापार संगठन (सदस्य) | ||
आँकड़े | | |
सकल घरेलू उत्पाद में स्थान | चौथा | |
स्कल घरेलू उत्पाद | ३.०३३ खरब डॉलर | |
सकल घरेलू उत्पाद वास्तविक वृद्धि दर | ८.३% | |
सकल घरेलू उत्पाद प्रति वयक्ति | २,९००$ | |
सकल घरेलू उत्पाद विभिन्न क्षेत्रों में | कृषि (२३.६%), उद्योग (२८.४%), सेवा क्षेत्र (४८.०%) | |
मुद्रास्फिती दर | ३.८% | |
गरीबी रेखा से नीचे की आबादी | २५% | |
श्रमिक क्षमता | ४७.२ करोड़ | |
व्यवसाय द्वार श्रमिक क्षमता (१९९९) | ||
बेरोजगारी दर | ९.५% | |
कृषि उत्पाद | चावल, गेहूँ, तिलहन, कपास, जूट, चाय, गन्ना,आलू; पशु, भैंस, भेंड़, बकरी, मुर्गी; मत्सय | |
मुख्य उद्योग | वस्त्र उद्योग, रसायन, खाद्य प्रसंस्करण, इस्पात,यातायात के उपकरण, सीमेंट, खनन,पेट्रोलियम, भारी मशीनें, साफ्टवेयर | |
बाहरी व्यापार | | |
आयात (२००३) | ७४.१५ अरब डॉलर | |
मुख्य आयातित सामग्री | ||
मुख्य व्यापरिक सहयोगी (२००३) | संराअमेरिका ६.४%, बेल्जियम ५.६%, ब्रिटेन४.८%, चीन ४.३%, सिंगापुर ४% | |
निर्यात | ५७.२४ अरब डॉलर | |
निर्यात के मुख्य सामान | ||
मुख्य सहयोगी (२००१) | संराअमेरिका २०.६%, चीन ६.४%, ब्रिटेन५.३%, हांगकांग ४.८%, जर्मनी ४.४% | |
सार्वजनिक वाणिज्य | | |
ऋण | १.८१०७०१ अरब डॉलर (सकल घरेलू उत्पाद का ५९.७%) | |
बाहरी ऋण | १०१.७ अरब डॉलर | |
आय | ८६.६९ अरब डॉलर | |
व्यय | १०१.१ अरब डॉलर | |
पूँजी व्यय | १३.५ अरब डॉलर | |
वित्तीय सहायता ग्रहण (१९९८/९९) | २.९ अरब डॉलर |
भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पन्द्रह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। १९९१ से भारत में बहुत तेज आर्थिक प्रगति हुई है जब से उदारीकरण और आर्थिक सुधार की नीति लागू की गयी है और भारत विश्व की एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में उभरकर आया है। सुधारों से पूर्व मुख्य रुप से भारतीय उद्योगों और व्यापार पर सरकारी नियंत्रण का बोलबाला था और सुधार लागू करने से पूर्व इसका जोरदार विरोध भी हुआ परंतु आर्थिक सुधारों के अच्छे परिणाम सामने आने से विरोध काफी हद तक कम हुआ है। हलाकि मूलभूत ढाँचे में तेज प्रगति न होने से एक बड़ा तबका अब भी नाखुश है और एक बड़ा हिस्सा इन सुधारों से अभी भी लाभान्वित नहीं हुये हैं।
लगभग ५६८ अरब डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ इस समय भारत विश्व अर्थव्यवस्था में १२ वें स्थान पर है। लेकिन प्रति व्यक्ति आय कम होने की वजह से इस प्रगति के कोई मायने नही रहते । सन२००३ में प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से विश्व बैंक के अनुसार भारत का १४३ वाँ स्थान था। पिछ्ले वर्शोँ मे भारत मे वित्तीय संस्थानो ने विकास मे बडी भूमिका निभायी है।
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परिचय[संपादित करें]
भारत का क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर है, जनसंख्या में इसका दूसरा स्थान है, और केवल २.४% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की जनसंख्या के १७% भाग को शरण प्रदान करता है ।
वर्ष २००३-२००४ में भारत विश्व में १२वीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है । इसका सकल घरेलू उत्पादभारतीय रूपयों में २५,२३८ अरब रुपये है, जो संराअमेरीकी डालरों में ५५० अरब के बराबर है । पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर ८.२% थी । पिछले दशक में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि पिछले दशक के दौरान औसतन ६ प्रतिशत प्रतिवर्ष से रही है।
कारक लागत पर घरेलू सकल उत्पाद का संघटन इस प्रकार रहा हैः
विनिर्माण, खनन, निर्माण, विद्युत, गैस और आपूर्ति क्षेत्र - २६.६%
कृषि वानिकी और लांजंग और मछली पकडने के क्षेत्र - २२.२%
सेवा क्षेत्र - ५१.२%
क्रय शक्ति समानता की दृष्टि से, भारत विश्व में चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तथा अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि वर्ष २०३० तक इसका तीसरा स्थान हो जाएगा (चीनी जनवादी गणराज्य और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद)।
भारत बहुत से उत्पादों के सबसे बड़े उत्पादको में से है। इनमें प्राथमिक और विनिर्मित दोनों ही आते हैं । भारत दूध का सबसे बडा उत्पादक है ओर गेह, चावल,चाय चीनी,और मसालों के उत्पादन में अग्रणियों मे से एक है यह लौह अयस्क, वाक्साईट, कोयला और टाईटेनियम के समृद्ध भंडार हैं ।
यहाँ प्रतिभाशाली जनशक्ति का सबसे बडा पूल है । लगभग २ करोड भारतीय विदेशों में काम कर रहे है। और वे विश्व अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहे हैं । भारत विश्व में साफ्टवेयर इंजीनियरों के सबसे बडे आपूर्ति कर्त्ताओं में से एक है और सिलिकॉन वैली में सयुंक्त राज्य अमेरिका में लगभग ३० % उद्यमी पूंजीपति भारतीय मूल के है ।
भारत में सूचीबद्ध कंपनियों की संख्या अमेरिका के पश्चात दूसरे नम्बर पर है । लघु पैमाने का उद्योग क्षेत्र , जोकि प्रसार श्शील भारतीय उद्योग की रीड की हड्डी है, के अन्तर्गत लगभग ९५% औद्योगिक इकाईयां आती है । विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन का ४०% और निर्यात का ३६% ३२ लाख पंजीकृत लघु उद्योग इकाईयों में लगभग एक करोड ८० लाख लोगों को सीधे रोजगार प्रदान करता है।
वर्ष २००३-२००४ में भारत का कुल व्यापार १४०.८६ अरब अमरीकी डालर था जो कि सकल घरेलु उत्पाद का २५.६% है । भारत का निर्यात ६३.६२% अरब अमरीकी डालर था और आयात ७७.२४ अरब डालर । निर्यात के मुख्य घटक थे विनिर्मित सामान (७५.०३%) कृषि उत्पाद (११.६७%) तथा लौह अयस्क एवं खनिज (३.६९%) ।
वर्ष २००३-२००४ में साफ्टवेयर निर्यात, प्रवासी द्वारा भेजी राशि तथा पर्यटन के फलस्वरूप बाह्य अर्जन २२.१ अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया ।
अगस्त २००४ तक भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार १२२ अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया।
आर्थिक सुधार[संपादित करें]
मुख्य लेख देखें - आर्थिक सुधार चुत् आजादी के बाद भारतीय आर्थिक नीति औपनिवेशिक अनुभव है, जो भारतीय नेताओं द्वारा शोषक के रूप में देखा गया था से प्रभावित था, और उन नेताओं के लोकतांत्रिक समाजवाद के लिए जोखिम के रूप में अच्छी तरह से सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था के द्वारा प्राप्त प्रगति से. [40] घरेलू नीति प्रवृत्ति संरक्षणवाद की ओर आयात प्रतिस्थापन औद्योगीकरण, आर्थिक दखलंदाजियों, एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र, व्यापार विनियमन, और केंद्रीय योजना बनाने पर ज्यादा जोर दिया, साथ [44] जबकि व्यापार और विदेशी निवेश नीतियों अपेक्षाकृत उदार थे. भारत की [45] पंचवर्षीय योजनाओं मची सोवियत संघ में केंद्रीय योजना बना. इस्पात, खनन, मशीन टूल्स, दूरसंचार, बीमा और बिजली अन्य उद्योगों के अलावा, प्रभावी रूप से पौधों के मध्य 1950 के दशक में [46] राष्ट्रीयकृत किया गया. जवाहर लाल नेहरू, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री सांख्यिकीविद् प्रशांत चंद्र महालनोबिस के साथ तैयार की और देश के अस्तित्व के प्रारंभिक वर्षों के दौरान आर्थिक नीति oversaw. वे अपनी रणनीति से अनुकूल परिणाम की उम्मीद है, दोनों सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों से भारी उद्योग का तेजी से विकास शामिल है, और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अधिक चरम सोवियत शैली की केंद्रीय कमान प्रणाली के बजाय. [47] [48] राज्य के हस्तक्षेप के आधार पर पूंजी और प्रौद्योगिकी पर आधारित भारी उद्योग और सब्सिडी पुस्तिका पर एक साथ ध्यान केंद्रित कर के नीति, कम कौशल कुटीर उद्योगों अर्थशास्त्री मिल्टन फ्राइडमैन, जो यह पूंजी और श्रम बर्बाद होगा सोचा था, और छोटे निर्माताओं के विकास धीमा. [49] ने आलोचना की थी भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के पहले तीन दशकों में दर के बाद स्वतंत्रता derisively विकास की हिंदू दर के रूप में भेजा गया था अन्य एशियाई देशों, विशेष रूप से पूर्वी एशियाई टाइगर्स. [50] [51] में वृद्धि दर के साथ तुलना की वजह से प्रतिकूल, 1965 के बाद से, बीजों की अधिक उपज वाले किस्में, बढ़ उर्वरक और सिंचाई सुविधाओं में सुधार का उपयोग सामूहिक रूप से भारत में हरित क्रांति, जो फसल उत्पादकता बढ़ाने, फसल पैटर्न में सुधार और आगे और पीछे के बीच संबंधों को मजबूत बनाने के कृषि द्वारा कृषि की हालत में सुधार करने के लिए योगदान और उद्योग. [52] हालांकि, यह भी एक unsustainable प्रयास के रूप में आलोचना की गई है, पूँजीवादी खेती की वृद्धि हो जाती है, संस्थागत सुधारों की अनदेखी और आय असमानता को चौड़ा
उदारवाद की नीति[संपादित करें]
आर्थिक सुधारों की लंबी कवायद के बाद १९९१ में भारत विदेशी पूँजी निवेश का आकर्षण बना और संराअमेरिका, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बना। १९९१ के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुदृढ़ता का दौर आरम्भ हुआ। इसके बाद से भारत ने प्रतिवर्ष लगभग ५% से अधिक की वृद्धि दर्ज की है। अप्रत्याशित रुप से वर्ष २००३ में भारत ने ८.४ प्रतिशत की विकास दर प्राप्त कि जो दुनिया की अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का एक संकेत समझा गया।
कर प्रणाली[संपादित करें]
भारत के केन्द्र सरकार द्वारा अर्जित आय:
आँकड़े करोड़ रुपयों में (अप्रैल-सितंबर २००४) नोट: १ करोड़ = १० मिलियन
एक्साईज: ३६,६२२
कस्टम: २५,२०५
आयकर: २५,१७५
कारपोरेशन कर: २०,३३७
यह भी देखें[संपादित करें]
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http://business.gov.in/hindi/closing_business/exit_policy.php
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