THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, July 29, 2013

नई पंचायतों का कामकाज चलाने के लिए विभाग के पास पर्याप्त कोष ही नहीं है। केंद्रीय अनुदान और केंद्रीय पैसे के भरोसे है बंगाल का यह रक्त रंजित पंचायती राज!

नई पंचायतों का कामकाज चलाने के लिए विभाग के पास पर्याप्त कोष ही नहीं है। केंद्रीय अनुदान और केंद्रीय पैसे के भरोसे है बंगाल का यह रक्त रंजित पंचायती राज!


और तो और,राज्य सरकार के बजट में पंचायत मंत्रालय को जो 2990 करोड़ दिये जाने की गोषणा हुई है, उसका दस फीसदी रकम भी अभी पंचायत मंत्रालय को नहीं मिला। अब बूझ लीजिये सुब्रत मुखर्जी के पंचायत मंत्रालय से बैराग्य की अनबूझ पहेली!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


बंगाल में पंचायत चुनावों के नतीजे जैसे निकलने की उम्मीद थी,वैसे ही निकले।कहीं कहीं माकपा और कांग्रेस ने लड़ाई की है और कुछ इलाकों में उनके पक्ष में आये नतीजे।हिंसा की खबरों के बीच जो मुद्दा अचर्चित ही रहा वह यह है कि इस पंचायती राज के लिए पैसा कहां से आयेगा। दीदी के मंत्रिमंडल में सबसे अनुभवी मंत्री सुब्रत मुखर्जी पंचायत मंत्री है और राज्य चुनाव आयोग के साथ राज्यसरकार की रस्साकशी में उनकी खास भूमिका रही है। वही सुब्रत मुखर्जी पंचायत मंत्रालय से हटने के लिए बोताब हैं। वजह यह है कि नई पंचायतों का कामकाज चलाने के लिए विभाग के पास पर्याप्त कोष ही नहीं है। केंद्रीयअनुदान और केंद्रीय पैसे के बरोसे है बंगाल का यह रक्त रंजित पंचायती राज।और तो और,राज्य सरकार के बजट में पंचायत मंत्रालय को जो 2990 करोड़ दिये जाने की गोषणा हुई है, उसका दस फीसदी रकम भी अभी पंचायत मंत्रालय को नहीं मिला। अब बूझ लीजिये सुब्रत मुखर्जी के पंचायत मंत्रालय से बैराग्य की अनबूझ पहेली।


सत्ता परिवर्तन के बाद ग्राम बांग्ला के दखल के लिए लड़ाई के हिंसक हो जाने का मामला स्वाभाविक ही है। पिछले पंचायत चुनावों में तत्कालीन सत्तदलों का वर्चस्व रहा है। वह वर्चस्व टूटा है। इसके लिए राजनीतिक संघर्ष होने ही थे। लेकिन ग्राम बांग्ला बिना प्रतिरोध जीत लेने के बाद इन पंचायतों का कामकाज चलाने के लिए दीदी पैसे कहां से लायेगी


मतगणना के बाद भी राजनीतिक संघर्ष जारी रहने की आशंका है। पंचायतों के सत्ता हस्तांतरण के बाद हिसाब किताब का खुलासा होगा। तब नई पंचायतों के कर्णधारों को मालूम होगा कि वे असल में कितने पानी में हैं। पंचायतों का दखल एक बात है और पंचायतों को चलाना दूसरी बात। बाकी लोगों को खेल अभी समझ में नहीं आ रहा है। जीत के जश्न का गुबार और हिंसा की लहर थमते ही पंचायतों के रोजमर्रे के कामकाज के लिए पैसों की जरुरत होगी।प्रचार अभियान के दौरान जो व्यापक पैमाने पर कायाकल्प के वायदे हुए, उनको अमली जामा पहनाने की चुनौती होगी। राजनीति के धुरंदर खिलाड़ी सुब्रत मुखर्जी को अपने लंबे अनुभवों के चलते इस भारी संकट का अंदेशा हो गया है। अब देखना है कि पंचायती राज के सबसे बुजुर्ग और भरोसामंद सिपाहसालार को दीदी मैदान छोड़कर भागने की इजाजत देगी या नहीं।


मतगणना के बाद बीडीओ आफिस से पंचायत कार्यालय का कार्यभार संभालने के बीच बिन पैसे क्या क्या पापड़ बेलने पड़ेंगे, नये मातबरों को उसका कतई अंदाजा नहीं है। हालांकि परिवर्तन के बाद सत्ता हासिल करने के बाद दीदी को िसा अच्छा खास अनुभव हो चुका है। अर्थ व्यवस्था की जो विरासत राज्यसरकार को मिली है, पंचायतों की बदहाल अर्थव्यवस्था उससे कम भयंकर नहीं होने वाली है।


हाल यह है किचालू वित्तीय वर्ष के दौरान पंचायत मंत्रालय को बजट में घोषित पैसा अभीतक नहीं मिला है। पुरानी योजनाएं और परियोजनाएं पहले से खटाई में हैं।अब पार्टी नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान राज्यभर में विकास संबंधी जो सब्जबाग दिखाये हैं, उसके लिए पैसे कहां से आयेंगे,इस फिक्र में मंत्रालय. के ्फसरान अपने बाल नोंच रहे हैं।बताया जाता है कि राज्य सरकार की आर्थिक बदहाली इस कदर भयानक है कि पंचायत चुनाव टल जाने की वजह से पिछले चार महीने के दौरान पंचायत मंत्रालय के लिए नियत धन दूसरे कामों में लगा दिया गया है। अब मंत्रालय के सामने भारी नकदी संकट है।जबकि राज्. सरकार के सामने अनबूझी पहेली यह है कि पूरे साल का बजट बाकी आठ महीनों में कैसे दिया जाये मंत्रालय को।


आशंका है कि जिस जोश खरोश के साथ नये चुने हुए जनप्रतिनिधि पंचायतों का कामकाज संबालेंगे, उसके मद्देनजर पैसों की कमी हो जाने पर उनके लिए भारी दिक्कतें आनी ही आनी है।जिन्होंने जिता दिया,उनकी प्रत्याशा पूरी नहीं हुई तो ग्राम बंग्ला की इस दखलदारी के दूसरे नतीजे आगामी लोकसभा चुनाव में नजर आ सकते हैं।


हाल यह है कि इस वित्त वर्ष में मनरेगा और इंदिरा आवास योजना जैसे केंद्रीय आयोजन के लिए मंत्रालय को अभी राज्य का हिस्सा नहीं मिला है।जिसका असर सौ दिनों के काम पर पड़ ही सकता है।इसके लिए केंद्र नें ढाई हजार करोड़ मंजूर किये हैं। लेकिन यह रकम उठाने के लिए राज्य सरकार को अपना हिस्सा ढाई सौ करोड़ जमा करने में ही आटे दाल का भाव मालूम हो रहा है। इंदिरा आवास योजना और राष्ट्रीय आजीविका परियोजना के लिए भी राज्य का हिस्सा अभी जमा नहीं हुआ है।





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