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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, October 29, 2011

न्यायपालिका और बहुसंख्यक

http://www.samayantar.com/2011/04/20/nyaypalika-aur-bahusankhyak/

न्यायपालिका और बहुसंख्यक

April 20th, 2011

पिछले दिनों एक के बाद एक ऐसे फैसले आए हैं जो हमारी न्यायपालिका के बहुसंख्यकों के प्रति अनावश्यक झुकाव या अल्पसंख्यकों के प्रति बेबुनियाद पूर्वाग्रहों की ओर इशारा करते हैं। बाबरी मस्जिद पर गत वर्ष आये इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के फैसले की आलोचना से अभी न्यायपालिका पूरी तरह उबर भी नहीं पाई थी की इसी वर्ष 21 जनवरी के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दारा सिंह को उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा की पुष्टि करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की बेंच द्वारा की गई टिप्पणी ने हंगामा खड़ा कर दिया। बेंच ने कहा कि स्टेन्स और उसके बेटों के जिंदा जलाए जाने के पीछे मंशा स्टेन्स को अपनी धार्मिक गतिविधियों, यानी गरीब आदिवासियों को ईसाई बनाने के कारण सबक सिखाने की थी। अंतत: न्यायालय ने 25 जनवरी को स्वयं ही इस अमानवीय और असंवैधानिक टिप्पणी को निकाल दिया था।

इसी साल 8 फरवरी के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की एक और बेंच ने राष्ट्रीय महिला आयोग के एक मामले पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की कि सरकार हिंदुओं के निजी कानूनों के अलावा और किसी के निजी कानूनों में बदलाव नहीं करती क्योंकि हिंदू ज्यादा सहिष्णु हैं। पहली बात तो यह है कि न्यायालय को एक से नागरिक कानूनों यूनीफार्म सिविल कोड के संदर्भ में किसी एक धर्म की बात नहीं करनी चाहिए थी। इस समस्या के कई गंभीर सामाजिक आयाम हैं। दूसरा, यही कारण है कि संविधान ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को अलग अधिकार दे रखे हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात इस संदर्भ में यह है कि पिछले कुछ दशकों में लगातार अल्पसंख्यक समुदायों में भी इस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं कि वह ज्यादा आधुनिक तौर-तरीकों व कानूनों को अपना रहे हैं। न्यायालय के आदेश को अगर यथावत मान लिया जाए तो इसके जो सामाजिक परिणाम होंगे उनकी कल्पना की जा सकती है।

पर यह सिलसिला और भी रूपों में जारी रहा। दो दिन बाद ही 10 फरवरी को गुजरात उच्च न्यायालय ने मई, 2010 के एक मामले में फैसला देते हुए सरकारी (उच्च न्यायालय के ही) भवन के निर्माण की शुरूआत पर भूमिपूजा करने की प्रथा को चुनौती देनेवाली एक याचिका पर फैसला देते हुए इसे सही ही नहीं ठहराया बल्कि याचिकाकर्ता राजेश सोलंकी पर 20 हजार का जुर्माना भी ठोक दिया। हम एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं और किसी धर्म विशेष के रीति-रिवाजों को सरकारी कार्यों का हिस्सा बनाना किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता। यह किसी से छिपा नहीं है कि भूमि पूजन और वह भी पुरोहितों द्वारा, बहुसंख्यक हिंदुओं की एक रस्म है।

अगर यह दशा शीर्ष पर है तो जिला व नीचे के स्तर की न्यायपालिका की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। इस पर भी यह कहना सही नहीं होगा कि यह न्यायपालिका के पूरी तरह सांप्रदायिक हो जाने का ही संकेत है। पर यह इस बात का तो प्रमाण है ही कि हमारे अधिकांश न्यायाधीश संविधान की मूल आत्मा और उसकी बारीकियों को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाते। इसके अलावा वे सामाजिक स्थिति के प्रति भी उस तरह से संवेदनशील नहीं नजर आते जैसे कि हमारे जैसे जटिल और बहुआयामी समाज में होना चाहिए। जो भी हो यह देखना चिंता का विषय है कि अगर हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका ही इस तरह से संविधान की मूल आत्मा को समझने और उसे कानूनों के द्वारा व्याख्यायित और प्रसारित करने में अक्षम हो जाएगी तो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारे भविष्य का क्या होगा? इस दिशा में क्या होना चाहिए, इसे न्यायपालिका ही बेहतर समझ सकती है।

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