THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, October 29, 2011

महिला दिवस और मुस्लिम महिलाएं

http://www.samayantar.com/2011/04/20/mahila-diwas-aur-muslim-mahilayen/

महिला दिवस और मुस्लिम महिलाएं

April 20th, 2011

असग़र अली इंजीनियर

आठ मार्च को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस साल (2011) सौवां महिला दिवस मनाया गया, इसलिए इस दिन का महत्व और बढ़ गया। मुस्लिम देशों में महिला दिवस उत्साहपूर्वक नहीं मनाया जाता। कुछ मुस्लिम देशों में मु_ी भर महिलाएं प्रदर्शन करती हैं परंतु न तो समाज और न ही सरकार महिला दिवस के आयोजन में कोई रुचि लेते हैं। इस साल महिला दिवस पर हजारों महिलाएं काहिरा के तहरीर चौक पर महिला दिवस मनाने के लिए एकत्रित हुईं। उनके उत्साह पर तब पानी फिर गया जब उन्हें न केवल कहीं से सहयोग या समर्थन मिला वरन् उन पर हमला भी हुआ। यह सचमुच बहुत दु:खद व दुर्भाग्यपूर्ण था।

हमेशा की तरह, इस बार भी मीडिया इस घटना के लिए इस्लाम को दोषी ठहराएगा। और हमेशा की तरह, मैं एक बार फिर जोर देकर कहना चाहूंगा कि इस्लाम का इस तरह की शर्मनाक हरकतों से कोई लेना-देना नहीं है। इस्लाम बिना किसी हीले-हवाले के महिलाओं और पुरुषों को बराबर अधिकार देता है। इस्लाम के प्रादुर्भाव के समय, यह एक क्रांतिकारी विचार था और तत्कालीन पितृसत्तात्मक समाज इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था। परंतु साथ ही, खुलेआम कुरान की शिक्षाओं के विरुद्ध आचरण करने की हिम्मत भी तत्कालीन समाज में नहीं थी। इस समस्या से निजात पाने के लिए हदीस की रचना की गई। ये हदीस लगभग हर मुद्दे पर कुरान के ठीक विपरीत मत प्रकट करते हैं। इसके साथ ही यह सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया कि हदीस, दरअसल, कुरान का हिस्सा हैं और मुसलमानों के लिए उनका पालन करना उतना ही आवश्यक है जितना कि कुरान का।

इस तरह, बिना कुरान का खुलेआम उल्लंघन करे, पितृसत्तात्मक समाज के पुरुषों ने अपनी मनमानी करने का रास्ता निकाल लिया। यह मानव स्वभाव है कि भले ही किसी चीज को सैद्धांतिक तौर पर आप ईश्वरीय आदेश ही क्यों न मानते हों, यदि वह आपकी प्राचीन सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं के विरुद्ध है या आपके हितों पर चोट करता है तो आप उसे न मानने के लिए कोई न कोई रास्ता, कोई न कोई बहाना जरूर ढूंढ़ लेंगे। अगर नव-मुसलमानों ने अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक रीतियों को त्यागकर कुरान के आदेशों का पालन किया होता तो इस्लाम के प्रादुर्भाव के बाद एक बिल्कुल नई दुनिया उभरती।

अफसोस ऐसा न हो सका। जिन कई मुद्दों पर मुसलमानों ने कुरान से अधिक तरजीह अपनी प्राचीन परंपराओं को दी, उनमें महिलाओं से जुड़े मुद्दे शामिल थे। किसी भी पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष कभी नहीं चाहता कि महिलाओं को समान अधिकार मिलें और वे पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दे सके। पश्चिमी देशों में-कम से कम कागज पर-महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार हैं परंतु महिलाओं ने ये अधिकार एक दिन में हासिल नहीं किए हैं। पश्चिमी देशों की महिलाओं ने इसके लिए लंबा और कठिन संघर्ष किया है। 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' इस संघर्ष का प्रतीक व परिणाम दोनों है।

सन् 1930 के दशक तक, पश्चिमी देशों में महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। यद्यपि साम्यवादी विचारधारा का लैंगिक समानता में दृृढ़ विश्वास है तथापि सोवियत संघ जैसे कम्यूनिस्ट देशों में भी महिलाओं व पुरुषों को बराबरी का दर्जा प्राप्त नहीं था। महिलाओं को घर के अंदर व घर के बाहर, दोनों क्षेत्रों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। सन् 1990 में सोवियत संघ की अपनी यात्रा के दौरान जब मेरी बातचीत कुछ महिला कार्यकर्ताओं से हुई तब मुझे यह अहसास हुआ कि वहां महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है और कार्यस्थलों पर निचली श्रेणी के कामों से संतुष्ट रहना पड़ता है।

यह सब कहकर मैं इस्लामिक देशों में महिलाओं की स्थिति का बचाव नहीं कर रहा हूं। मेरा उद्देश्य सिर्फ यह समझाने की कोशिश करना है कि इस्लामिक देशों में ऐसा क्यों हो रहा है। वहां भी हालात बदल रहे हैं परंतु इन देशों की महिलाओं के सामने कठिन चुनौतियां हैं। उन्हें बहुत कड़ा संघर्ष करना होगा। मेरी राय में इस्लामिक देशों में महिला के सशक्तिकरण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है गरीबी। इसके बाद नंबर आता है अशिक्षा व जागृति के अभाव का। और अंतिम बाधा है धर्म-आधारित राज्य। ये सब साधारण चुनौतियां नहीं हैं।

इस्लामिक देशों में व्याप्त गरीबी व अशिक्षा के पीछे वहां के शासकों की पूंजीवाद-समर्थक और बाजारवादी नीतियां हैं व हम यहां पर उनकी चर्चा नहीं करना चाहेंगे। इन समस्याओं से निपटने के तरीके एकदम अलग हैं।

यहां मैं केवल उन चुनौतियों की चर्चा करना चाहूंगा जिनकी प्रकृति धार्मिक या सामाजिक-सांस्कृतिक है। ये चुनौतियां कम कठिन नहीं हैं। दुर्भाग्यवश, धर्मशास्त्रियों ने आम मुसलमानों के मन में यह भर दिया है कि शरीयत कानून दैवीय हैं, जिनका कामा-फुलस्टाप भी नहीं बदला जा सकता। ये धर्मशास्त्री स्वयं यह विश्वास नहीं करते कि शरीयत कानून अकाट्य व अपरिवर्तनीय हैं। वे श्रद्धालु मुसलमानों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ऐसा कहते हैं। वे स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं और किसी भी प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के विरोधी हैं।

हर मुल्ला-मौलवी को यह डर सताता रहता है कि अगर वह किसी परिवर्तन या सुधार की बात करेगा तो अलग-थलग पड़ जायेगा और उसके प्रतिद्वंदी उस पर हावी हो जाएंगे। एक बार मेरी सहारनपुर (जो भारत में इस्लामिक शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र है) के बड़े मुफ्ती से मुंह-जुबानी तलाक की वैधता के विषय पर लंबी चर्चा हुई थी। उन्होंने स्वीकार किया कि मुंह-जुबानी तलाक गैर-इस्लामिक है व उस पर प्रतिबंध लगना चाहिए। परंतु यही बात वह सार्वजनिक मंच से कहने को तैयार नहीं थे। उन्हें डर था कि वह अकेले पड़ जायेंगे और उलेमा उनका साथ नहीं देंगे।

कई उलेमा परिवर्तन के हामी भी हैं। इनमें मुख्यत: वे उलेमा शामिल हैं जो युवा हैं और जिन्होंने अपनी धार्मिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षण संस्थाओं से डिग्रियां हासिल की हैं। परंतु ऐसे उलेमाओं की संख्या बहुत ही कम है। अधिकांश उलेमा अत्यंत दकियानूसी हैं, उनकी मानसिकता बहुत पिछड़ी हुई है और वे किसी भी प्रकार के परिवर्तन के कट्टर विरोधी हैं। उनमें से कुछ यह कहते हैं कि शरीयत कानून अपरिवर्तनीय हैं। कुछ अन्य यह तो स्वीकार करते हैं कि शरीयत कानूनों में परिवर्तन किया जा सकता है परंतु साथ ही यह भी दावा करते हैं कि वर्तमान समय में इन कानूनों की पुनव्र्याख्या या इन पर पुनर्विचार करने की योग्यता रखने वाला कोई व्यक्ति नहीं है।

समस्या का एक कारण यह भी है कि सभी धर्मशास्त्री पुरुष हैं। इस्लाम में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। इस्लाम महिलाओं और पुरुषों को धर्मशास्त्र का अध्ययन करने का बराबर अधिकार देता है। दोनों को विभिन्न मुद्दों पर शरीयत कानूनों की व्याख्या करने का हक भी है। पुरुषों ने महिलाओं को कभी धर्मशास्त्री नहीं बनने दिया। विडंबना यह है कि अधिकतर हदीस का वाचन, पैगंबर साहब की पत्नी हजरत आयशा ने किया था। इस्लाम के इतिहास में ऐसी कई महिलाएं हुई हैं जो विद्वान धर्मशास्त्री थीं परंतु उनमें से एक ने भी किसी नए शरीयत पंथ की स्थापना नहीं की।

एक अन्य समस्या यह है कि इस्लामिक देशों में आधुनिकता, समाज के निचले तबकों को छू तक नहीं गई है। शासक वर्ग और धनी व शक्तिशाली तबके ने स्वयं तो आधुनिकता को अपना लिया है परंतु निचले तबके तक यह आधुनिक सोच, विचारधारा या जीवनशैली पहुंचाने के कोई प्रयास नहीं किए हैं। कुछ मामलों में आधुनिकता को गरीब व अपढ़ जनता पर थोप दिया गया। चूंकि जनता इसके लिए तैयार नहीं थी इसलिए उसने इसे स्वीकार नहीं किया। आमजन अपनी सदियों पुरानी परंपराओं पर ही चलते रहे।

सभी मुस्लिम देशों में शासक वर्ग, आधुनिकता के सभी लाभ उठा रहा है। इस वर्ग की महिलाओं को उन प्रतिबंधों व भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता जिन्हें भोगना आम महिलाओं की विवशता है। कुछ इस्लामिक देशों जैसे ट्यूनीशिया, मोरक्को, ईरान (शाह रजा पहलवी के शासनकाल में) व तुर्की में जनता पर आधुनिकता ऊपर से थोप दी गई। महिलाओं को हिजाब छोड़कर मिनी स्कर्ट पहनने पर मजबूर किया गया। इससे समाज में व्यापक असंतोष फैला। ईरान जैसे कुछ देशों में आधुनिकता थोपने वाले शासकों को उखाड़ फैंका गया। ट्यूनीशिया जैसे देशों में डंडे के बल पर जनता को आधुनिक, पश्चिमी शैली अपनाने पर मजबूर किया गया। पाकिस्तान और जार्डन जैसे कुछ देश भी हैं जहां पारंपरिक इस्लामिक कानूनों को संहिताबद्ध कर, मुल्ला-मौलवियों की मनमानी पर कुछ हद तक रोक लगाई गई है और इससे मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है।

इस्लामिक देशों में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि सभी नागरिकों को शिक्षित किया जाए और इस शिक्षा में केवल धार्मिक विषय नहीं बल्कि विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान आदि जैसे आधुनिक विषय भी शामिल हों। इससे महिलाओं में जागृति आएगी और उन्हें यह पता चलेगा कि उनके आसपास की दुनिया में क्या हो रहा है। केरल में राष्ट्रीय औसत 35 के विपरीत 64 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं परिवार नियोजन का कोई न कोई उपाय अपनाती हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि केरल में मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर देश में सबसे ज्यादा है।

दूसरे, मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागृत किया जाना आवश्यक है। उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि विभिन्न मुद्दों पर कुरान और शरीयत कानूनों में क्या अंतर है और ऐसा क्यों है। हमारा इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज मुस्लिम महिलाओं के लिए जागृति कार्यशालाएं आयोजित करता रहता है और हमारा अनुभव है कि इन कार्यशालाओं में भाग लेने से महिलाओं की सोच में बहुत परिवर्तन आ जाता है और उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। उनके दिमाग से यह मिथक निकल जाता है कि शरीयत कानून अपरिवर्तनीय हैं। इस तरह की जागृति उन महिलाओं में तो लाई ही जानी चाहिए जो पढ़ी-लिखी हैं परंतु उन महिलाओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए जो कम पढ़ी-लिखी या अपढ़ हैं। हमारा यह अनुभव है कि अन्याय का शिकार हुई महिलाएं (जैसे, तलाकशुदा या वे महिलाएं जिन्हें अपने पति की अन्य पत्नियों के साथ रहना पड़ा हो या वे जिन्हें संपत्ति में उनका जायज हक न मिला हो) को जागृत करना अपेक्षाकृत आसान होता है और वे दूसरी महिलाओं के जीवन में ज्ञान की रोशनी फैलाने के लिए उत्साहपूर्वक तैयार रहती हैं।

मैं यहां जोर देकर यह कहना चाहूंगा कि शरीयत कानूनों का अंधविरोध, परिवर्तन लाने के कार्य में बाधक होगा। तस्लीमा नसरीन और हिरसी अली जैसी महिलाओं ने दकियानूसी ताकतों को और मजबूत ही किया है और मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को बढ़ाया है। जरूरत इस बात की है कि परिवर्तन के रास्ते में आने वाली बाधाओं की पहचान की जाए और उन्हें हटाने के उपाय किए जाएं। केवल शरीयत कानूनों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। असली दोष सामाजिक-सांस्कृतिक सोच व परंपराओं का है।

ये परंपराएं, ये सोच सदियों पुराने हैं और इन्हें रातोंरात नहीं बदला जा सकता। अगर इस सोच को बदलने के लिए आंदोलन लगातार भी चलता रहे तब भी लक्ष्य को पाने में कुछ दशक तो लगेंगे ही। अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि इन सब चुनौतियों, समस्याओं और बाधाओं के बाद भी हमें आशा नहीं छोडऩी चाहिए। परिवर्तन आ रहा है और आकर रहेगा। सऊदी अरब जैसे देशों में, जहां की महिलाएं सबसे अधिक शोषित व पीडि़त हैं, वहां भी लैंगिक समानता का आंदोलन जोर पकड़ रहा है। फि र हमें निराश होने की क्या आवश्यकता है?

अनु.: एल. एस. हरदेनिया

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