THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, February 25, 2012

'समयांतर' के फरवरी 2012 विशेषांक का मूल अतिथि संपादकीय

'समयांतर' के फरवरी 2012 विशेषांक का मूल अतिथि संपादकीय

हिंदी की वैचारिक पत्रिका 'समयांतर' का फरवरी विशेषांक 'विकास बनाम अस्तित्‍व' निकालने की जि़म्‍मेदारी इस बार मुझे दी गई थी। अंक अब बाज़ार में आ चुका है और उसमें अतिथि संपादक की जगह मेरा नाम किसी रामाज्ञा शशिधर के साथ डाला गया है। इसकी सूचना मुझे अंक के प्रेस में जाने से एक दिन पहले दे दी गई थी, इसलिए संपादक / स्‍वामी की स्‍वतंत्रता के लिहाज़ से इस पर सवाल उठाने का कोई अर्थ नहीं, हालांकि जनवरी अंक में अतिथि संपादक के तौर पर मेरे नाम की ही लिखित घोषणा की गई थी। बहरहाल, इस अंक के लिए मैंने जो संपादकीय लिख था, उसे संपादक पंकज बिष्‍ट ने लौटा दिया था और सीधे विषय प्रवर्तन करने वाला एक संपादकीय लिखने को कहा था। बदला हुआ संपादकीय तो आप पत्रिका में पढ़ ही सकते हैं जो मूलत: अंक की विषयवस्‍तु के परिचय से ज्‍यादा कुछ नहीं। मूल संपादकीय मैं नीचे डाल रहा हूं जिसे लिखने में मुझे काफी वक्‍त लगा था। चूंकि अंक बाज़ार में आ चुका है, लिहाज़ा इस संपादकीय को सार्वजनिक करने में मुझे कोई नैतिक दिक्‍कत नज़र नहीं आती, दूसरे किसी न किसी रूप में तो इसका उपयोग होना ही चाहिए। 


इस साल की शुरुआत हर साल से कुछ अलग हुई। पिछले साल शुरू हुआ 'ऑक्‍युपाई वॉल स्‍ट्रीट' अब 'ऑक्‍युपाई द माइंड' की शक्‍ल ले चुका था, तो वर्चुअल दुनिया सोपा और पीपा के निशाने पर आ गई थे। इस शोरशराबे के बीच हमारे यहां कुछ पढ़े-लिखे लोग जयपुर साहित्‍य मेले में तो कुछ वर्धा के हिंदी विश्‍वविद्यालय निकल लिए। इधर पंकज पचौरी ने पीएमओ में अपनी जगह बना ली। इस बीच इंडियन एक्‍सप्रेस ने जेपी और मोंसेंटो के पैसे से साहस की पत्रकारिता को नवाज़ा तो उधर सरकार ने गणतंत्र दिवस पर दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग को गैलेंट्री अवॉर्ड दे डाला, जिस पर एक आदिवासी महिला को नग्‍न कर के प्रताडि़त करने का आरोप है। मौसम लगातार 'अल निनो' फैक्‍टर से जूझते हुए रंग बदलता रहा, जबकि पार्टियों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में लोकतंत्र का मौसम बदलने के लाखों वादे कर डाले, बगैर इस बात की परवाह किए कि वादों को ज़मीन पर उतारने के लिए इतना पैसा कहां से आएगा।   
ताज़ा अंक
दरअसल, पैसा अब समस्‍या रह नहीं गया है। सवाल सिर्फ इतना है कि आप चाहते क्‍या हैं। नेता, नौकरशाह, पत्रकार, अखबार, जज-वकील सब जानते हैं कि पैसा कहां है। बंगाल के एक गरीब मास्‍टर के बैंक खाते से अचानक हजारों करोड़ रुपए बरामद होना बानगी भर है। जिस समाज के लिए पैसा दिक्‍कत न रह जाए, उस समाज को चलाने के लिए ईमान की भी ज़रूरत कम ही पडती है। इसे इस तरह समझा जाए कि अगर अन्‍ना हजारे भ्रष्‍टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाते हैं, उसमें लाखों लोग जुड़ते हैं, तो इस बात का बहुत मतलब नहीं रह जाता कि आंदोलन चलाने के लिए पैसा कैसे और कहां से आए। जाहिर है, पैसे के प्रति आश्‍वस्‍त होने के बाद ही आंदोलन छेड़ा गया था। यानी पैसे की चांदनी में ईमान का सवाल नहीं उठता, जबकि तलछट के लिए ईमान अफोर्डेबल नहीं है। कुल मिला कर ये संकट ईमान का है जो ऊपर से दिखता है।
लेकिन पत्रकारिता के पुराने फॉर्मूले 'फॉलो द मनी' पर चलें, तो समझ में आता है कि आखिर ईमान बिना बताए कैसे बिगड़ जाता है। हम उपराष्‍ट्रपति हामिद अंसारी के व्‍यक्तिगत ईमान पर सवाल नहीं उठा रहे जिन्‍होंने करोड़ों लोगो को उजाड़ने वाले जेपी ग्रुप और किसानों को मारने वाले मोंसेंटो के पैसे से पत्रकारों को नवाज़ा। हमें राष्‍ट्रपति के व्‍यक्तिगत ईमान पर भी शक नहीं जिन्‍होंने ऐसे एसपी को नवाज़ा जिसने एस्‍सार को जंगल में पाइपलाइन बिछाने दिया और उससे रिश्‍वत लेने का आरोप आदिवासियों पर लगा दिया। जयपुर गए लेखकों की साहित्यिक समझ पर भी हमें शक नहीं, जिन्‍होंने केन सारो विवा की हत्‍यारी डच शेल कंपनी के पैसे पर एक हफ्ते ऐय्याशी की। वैसे तो हमें पंकज पचौरी से भी शिकायत क्‍यों हो, उन्‍होंने कब कहा कि वे सरकारी दलाल नहीं हैं? दरअसल, जिस महीन तरीके से अस्तित्‍व के हर कोने में लुटेरी कंपनियों-निगमों का पैसा रेंग कर पैठ चुका है, जिसे हम ईमान का बिगड़ना कहते हैं, वो आज बहुत 'स्‍वाभाविक' लगता है। धीरे-धीरे इसी 'स्‍वाभाविक' ने हमारी भाषा, लोकाचार, हंसी-मज़ाक, पसंद-नापसंद, प्रतिबद्धता, विरोध सबकी केंचुल में अपनी जगह बना ली है। हमारी हां और ना दोनों से ही धरती लुटती है, और हम सिर हिलाए जाते हैं। 

नया संपादकीय जो छपा है
 नतीजाहम अपनी धरती से अब कट गए हैं। हम अपने जैसों से कट गए हैं। मार्क्‍स के शब्‍दों में कहें तो, हम खुद से 'एलिनेट' हो गए हैं। इसीलिए लुटेरी कंपनियों का पैसा हमें अखरता नहीं। खुद को उससे दूर दिखाने के हमारे पास सौ तर्क होते हैं। और अगर हम हिंदी के कवि, कहानीकार या कुछ हैं, तब तो कहना ही क्‍या। अपनी कविता में गांव की रूमानियत को याद करना, तुलसी के चौरे को बचा ले जाना, या ऐसी ही 'एग्‍जॉटिक' छवियों में अतीत की शवसाधना हमारा धर्म होता है। हम बाज़ार से डरते हैं, उसी में रहते हैं और उसे समझे बगैर लगातार गाली भी देते हैं। हमारा 'एलिनेशन' हमें 'हिपोक्रिट' बनाता है। 
'एलिनेशन' और 'हिपोक्रिसी' के इस दौर में धरती की चिंता कैसे की जाए, ये बड़ा सवाल है। धरती की चिंता करना अपनी हवा, पानी, जंगल, जमीन, उस पर रहने वाले लोगों, आने वाली पीढि़यों और समूची इंसानियत की चिंता करना है। इतनी बड़ी चिंता साहित्‍य में करना ठगकर्म है। बड़ा संकट यह है कि ऐसी तमाम चिंताएं अंग्रेज़ी में पर्याप्‍त की जा रही हैं, लेकिन हिंदी वाले कायदे से उल्‍था भी नहीं कर पा रहे। समयांतर का ये विशेषांक धरती को लेकर हमारी इसी चिंता से उपजा है। विषय की व्‍यापकता और हिंदी में मूल लेखन के दोहरे संकट के बीच हमने ये अंक निकाला है। विशेषांक का एक उद्देश्‍य हिंदी के लेखक-पाठक जगत में ये समझ रोपना है कि धरती की बात करना अनिवार्यत: पर्यावरण या पारिस्थितिकी जैसा कोई विशिष्‍ट विज्ञान नहीं। एक ही राजनीति और एक ही आर्थिकी है, जो हमें और इस धरती के दूसरे छोर पर बैठे हमारे जैसों को प्रभावित कर रही है। अरुंधती राय के शब्‍दों में, धरती को लूटने की विचारधारा अब आस्‍था का रूप ले चुकी है।
लूट जब आस्‍था बन कर समूची धरती को अपनी आगोश में ले रही हो, तो बाकी सारी आस्‍थाएं सान पर आ जाती हैं। लूट की इस आस्‍था को समझे बगैर हम चाहे कुछ कर लें, खुद को बचा नहीं पाएंगे, धरती तो दूर की चीज़ है। बहरहाल, अंक आपके हाथ में है। फैसला आपका।

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