THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Saturday, September 28, 2013

ग्राम विकास अपना कुछ नहीं बस,भरपेट खाने का सपना केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने केंद्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13 जारी की सारे गांव शहर में हो जायेंगे तब्दील या शामिल होंगे डूब में अनंत या सारे गांवों में होगा औद्योगीकरण हर आदमी के पिछवाड़े पर होगी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छाप हर छिद्र की माप के बराबर तौल दिया जायेगा विकास

ग्राम विकास अपना कुछ नहीं

बस,भरपेट खाने का सपना

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने केंद्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13 जारी की

सारे गांव शहर में हो जायेंगे तब्दील

या शामिल होंगे डूब में अनंत

या सारे गांवों में होगा औद्योगीकरण

हर आदमी के पिछवाड़े पर होगी

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छाप

हर छिद्र की माप के बराबर

तौल दिया जायेगा विकास



पलाश विश्वास


ग्राम विकास अपना कुछ नहीं

बस,भरपेट खाने का सपना

भरपेट भूख है गांवों में इन दिनों

खाना अब गरीबों का सपना है

उस सपने का उड़ा रहा मखौल


रघुराम राम  राजन का

विकास का नया फार्मूला

अस्पृश्यता का नया बूगोल बनाने का

चाकचौबंद इंतजाम


खुले बाजार का सत्ता वर्चस्व

गरीबी की थाली में पेश है अमीरी

गरीबी उम्मूलन की राजनीति है

नरसंहार अश्वमेध अभियान


गरीबी की परिभाषा जब चाहे

तब बदल दी जाती है

फिर हमारे आगे कुछ टुकड़े

फेंक दिये जाते हैं भीख के


हमारी कृषि की हो गयी हत्या

हमारा संविधान कहीं भी

हुआ नहीं लागू,हर गांव में

मगर मूर्तियां अनेक बना दी

और जारी महिषासुर वध


किसी को नहीं मालूम कि

उत्सव में जिस महिषासुर

वध का बाजारु आयोजन है

वह महिषासुर और कोई नहीं


हत्या और निरंतर बेदखली,

प्राकृतिक संसाधनों की लूट

के लिए अभिशप्त इस देश

का हर गांव है महिषासुर


अब यूनेस्को से आयातित है

ग्रामीण विकास का नया इनडेक्स

ग्रामीण नरसंहार का नया फंडा


सत्ता वर्चस्व,बहिस्कार और

अश्वेत नस्ली बहिस्कृत भारत

पर एकाधिकार हमले का नया डंडा


जैसे डिजिटल बायोमेट्रिक भारत

का धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का झंडा


जिसका एक ही एजंडा कि विकास

का लालीपाप देकर इस देश को

खुले बाजार की नीलामी में बेच दो

जो भी कुछ इस देश में है

उसे विदेशी पूंजी के कर दो हवाले


नित नये अर्थसंकट करो उत्पन्न

धर्मोन्माद को हवा लगने दो

नमोमय है भारत

राष्ट्रवाद का डियोड्रेन्ट महकने दो

कारपोरेट और राजनीति

मीडिया और मिशन

का आईपीएल है सेक्सी

रोज सेनसेक्स को बहकने दो


रोज जारी करो विकास दर

रोज बताओ राष्ट्रीय संकट

रोज गरीबी हटाओ बताओ

रोज गरीबों का सफाया कर दो


अबाध कालेधन, एफडीआई और

संस्थागत विदेशी निवेशकों के

विकास का माडल है भारत देश अब

हिटलर का गैस चैंबर भारत देश अब



जयराम बाबू बहुत क्रांतिकारी हैं

पर्यावरण की हरी झंडी को लेकर

मैराथन दौड़ाक भूतपूर्व जयराम बाबू


सारंडा में खनन रोकने को कहते हैं

आदिवासियों के इलाकों में अक्सर

विकासका परचम लहराते हैं


और उन्हीं ने विकास के ताजे

आंकड़े दिये हैं नये इंडेक्स के मुताबिक

जैसा रघु बाबू का प्लान है यानी


अगड़े राज्यों को पिछड़ा,अतिपिछड़ा

साबित करके केंद्रीय योजना की

हिस्सेदारी कब्जाने का नया खेल


यह आईपीएल नया,जिसके

चियर लीडर बने हैं जयराम बाबू

कमिश्नर लेकिल रघुराम राजन

रिंग लीडर अनेक हैं

मसलन मोंटेक सिंह से लेकर

नागरिकता हत्यारा नंदन निलेकणि


राजनीति की टीम वही है

जो इंडिया इंक की टीम है

दिखावे को नूरानी कुश्ती है

संसद में धींगामुश्ती है

मीडिया में सनसनीखेज बयान


मुलाहिजा फरमायें कि बिजली

की ग्रिड से जोड़ दी गयी है

गांवों की सेहत भइया


जबकि लंबित परियोजनाओं

में ज्यादातर बिजली की

परियोजनाएं हैं निजी कंपनियों की


जिन्हें हरी झंडी देने के आंकड़े

अब विकास के आंकड़े हैं निर्देशक वही

रिजर्व बैंक के मोर्चे से

जो कारपोरेट हित साध रहे

रघराम राजन,हाट बेड पार्टनर


जापान से लेकर अमेरिकी तक

सारे यूरोप में जब परमाणु ऊर्जा

होने लगा प्रतिबंधित,तब


हमारे सीने पर भारतभर में

कु़ड़नकुलम से लेकर

जैतापुर परमामु संकुल तक

परमाणु बम सजा दिये


ऊर्जा प्रदेश नहीं अब सिर्फ उत्ताराखंड

का आत्मघाती विकास मार्ग


मंदाकिनी केदार भागीरथी

व्यास दरमा घाटियों और

तमाम पिघल रहे ग्लेशियरों का

जल प्रलय अब देश का नक्शा है


पूरे देश को ऊर्जा प्रदेश बनाने के

लिए आयातित यह इनडेक्स है

और बहका बहका सेनसेक्स है


सूचक में ध्यान दें अनिवार्य शर्त है

सड़कों का विकास,जो सड़कें

विकास के नहीं विनाश के पर्याय


हिमालय में हम औपनिवेशिक

काल से अब तक देखते रहे हैं

कि सड़कों का जाल जनता के लिए

हर्गिज नहीं है कहीं भी,कच्चा माल


और बंधुआ गुलाम,जिंदा गोश्त

और मरने खपने को रंगरुट

बटोरने के लिए बने पहाड़

के तमाम रास्ते वर्टिकल


स्वर्णिम राजमार्गों और एक्सप्रेस वे

के जरिये भट्टा परसौल बन गये

हजारों हजार गांव,हुए खेत तबाह


किसी के माथे गिरा नहीं कोई वज्र

राजनीति की मशालें जलती रहीं

गावों में विनाश की आग सुलगती रही


इन सड़कों पर सजे हैं टोल प्लाजा तमाम

पीपीपी माडल का सड़क निर्माण से

ग्रामीण विकास का कोई संबंध है नहीं


इन सड़कों पर गांवों की गाड़ियां

कहीं दौड़ती नहीं हैं और भुखमरी,

बेरोजगारी और कुपोषण के शिकार लोग

गाड़ी बाजार में नहीं हैं कहीं


न इन गांवों की चीरने वाली सड़कों

के आर पार कोई पुल है कहीं

न उनपर मारे जाने वालों

के लिए कोई मुआवजा है



विकास का पैमाना सड़क निर्माण है

हम बूझ रहे हैं अच्छी तरह जयराम बाबू

आपका आशय क्या है,इतना बुरबक भी

मत समझिये हमें कि सेज के खिलाफ


होने लगा महाविद्रोह तो आपने पांसा

कैसे पलट दिया नये सिरे से जैसे

भूमि सुधार की मांग को माओवादी

हिंसा में निष्णात करके आपके

सैन्य राष्ट्र ने हमारे खिलाफ

छेड़ दिया पारमाणविक युद्ध


आंतरिक सुरक्षा भी कर दी नाटो,

पेंटागन,सीआईए, मोसाद और

वैश्विक युद्धतंत्र के हवाले


दिल्ली मुंबई महासत्यानास

शैतानी गलियारा के लिए जमीन दखल

का काम पूरा होते न होते घोषणा कर दी

नकली अर्थ संकट की आड़ में


नया विकास कार्यक्रम नया

अमृतसर कोलकाता गलियारा

चेन्नै, तिरुअनंतपुरम, कन्याकुमारी,

गुवाहाटी से लेकर बंगलूर तक

होंगे अब ऐसे गलियारे जहां


सारे गांव शहर में हो जायेंगे तब्दील

या शामिल होंगे डूब में अनंत

या सारे गांवों में होगा औद्योगीकरण


हर आदमी के पिछवाड़े पर होगी

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छाप

हर छिद्र की माप के बराबर

तौल दिया जायेगा विकास




मध्यप्रदेश, असम और छत्तीसगढ़ समेत देश के सात राज्यों में पिछले 17 सालों में गरीबी बढ़ी है और इन राज्यों में 20 फीसदी आबादी को पेयजल, शौचालय तथा बिजली की सुविधाएं भी बिल्कुल उपलब्ध नहीं है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश द्वारा जारी ग्रामीण विकास रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया है। इन्फ्रास्टकचर डेवलपमेंट फाइनेंस कंपनी द्वारा यहां जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1993-94 में सात राज्यों झारखंड, बिहार, उड़ीसा, असम, छत्तीसगढ़. मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में 50 फीसदी गरीब थे, लेकिन 2011-12 में इनकी संख्या 65 फीसदी हो गई । हालांकि 2009 -10  के बाद बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में गरीबी घटी है। रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में केवल 18 फीसदी ग्रामीण परिवारों को ही पेयजल, शौचालय और बिजली की पूरी सुविधा उपलब्ध है । इनकी 20 फीसदी आबादी को तो ये सुविधाएं बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के साथ ये राज्य अब तक शिक्षा, बाल और मातृत्व स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सेवाओं के क्षेत्र में भी सबसे पिछड़े हुए है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुसूचित जाति, एवं जन जातियों के वर्ग में सर्वाधिक गरीबी व्याप्त है और वर्ष 2009-10 में ग्रामीण गरीबी में 44 फीसदी संख्या इन्हीं वर्गों की हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों, बिजली और दूरसंचार के साधनों से गांवों में आपसी संपर्क बढ़ा है । हालांकि इन सुविधाओं की गुणवत्ता तथा रखरखाव की स्थिति बुरी है । देश भर के गांवों को हालांकि विद्युत ग्रिड से जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी 45 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास बिजली के कनेक्शन नहीं है। जलापूर्ति का अभाव है या दूषित पानी उपलब्ध होता है।


मुलाहिजा फरमायें जरा


भुवनेश्वर | केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बुधवार को कहा कि नया भूमि अधिग्रहण कानून जब लागू हो जाएगा तो वह देश में जबरन भूमि अधिग्रहण को रोकेगा और किसानों तथा जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करेगा। रमेश ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "इस विधेयक के लागू होने के बाद देश में पहली बार कोई जबरन भूमि अधिग्रहण नहीं होगा। कहीं भी कोई पुलिस गोलीबारी नहीं होगी।"


भूमि अधिग्रहण विधेयक को ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताते हुए रमेश ने कहा कि लोगों को अधिक मुआवजा दिलाने के लिए प्रावधान किया गया है। इस विधेयक को संसद ने मानसून सत्र में पारित किया था।  ग्रामीण इलाकों में भूमि अधिग्रहण पर बाजार मूल्य का चारगुना और शहरी इलाकों में भूमि अधिग्रहण पर दो गुना मुआवजा मिलेगा। स्थानीय लोगों द्वारा कुछ समय पहले खारिज की गई ओडिशा में नियामगिरी खनन परियोजना का उदाहरण देते हुए रमेश ने कहा कि सभी अनुसूचित इलाकों में जमीन अधिग्रहण के लिए ग्रामसभा की अनुमति जरूरी है।




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Raghuram Rajan panel report: Mamata Banerjee flays Centre for discrimination

IANS  KOLKATA, SEPTEMBER 28, 2013 | UPDATED 12:44 IST

Expressing "deep shock" and "anguish" over the Raghuram Rajan Committee recommending end of "special category" criteria for providing additional assistance to poorer states, West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee on Friday accused the Central government of discriminating against her state.


"I am deeply shocked and anguished by the outright and discriminatory approach of the Central government towards Bengal in entertaining the Raghuram Rajan Committee Report. The state will lose more than Rs.4,000 crore of central funds due to this," Banerjee said on her official Facebook page.


The allocation of Central funds for Bengal will be reduced hugely from 6.93 per cent to 5.50 per cent, thus directly hitting lots of developmental projects in the state targeted to the poor and the needy, she observed.


The committee, headed by the then chief economic advisor Raghuram Rajan, who is now the Reserve Bank of India Governor, suggested a new methodology for devolving funds on states based on a "Multi Dimensional Index (MDI)".


"Bengal will stand to suffer significantly in spite of being a No. 1 debt-stressed state," said Banerjee. Bengal has been categorised as one of the eleven less developed states by the panel.


"No one ever thought about more than rupees two lakh crore of debt thrust upon us by the previous government. No one ever thought that we will have to pay nearly Rs.28,000 Crore this year towards loan repayment and interest liability.


"Where is the money to do development work? It is clear that the Central government is acting on political lines and partisan machinations. We strongly protest against this discriminatory attitude," added Banerjee.



Read more at: http://indiatoday.intoday.in/story/raghuram-rajan-panel-report-irks-mamata-flays-centre-for-discrimination/1/312159.html

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जनज्वार डॉटकॉम
रघुराम राजन कमिटी के सिफारिश मात्र से झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिल जाएगा, ऐसा नहीं है. इसके लिए झारखंड के लोगों और छोटे-बड़े सभी राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक ताकत के साथ-साथ आर्थिक ताकत को भी आंदोलन का हिस्सा बनाना होगा...http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-00-20/25-politics/4373-kendra-kee-raajneetik-bisat-ka-mohra-raghuram-raajan-comiti-by-rajiv-for-janjwar — with Ashok Kumar Pandey and 47 others.
  1. Education for All Development Index - Unesco

  2. www.unesco.org/new/en/education/themes/.../efa-development-index/

  3. Education for All Development Index. The EFA Development Index (EDI) is a composite index using four of the six EFA goals, selected on the basis of data ...

  4. [PDF]

  5. The Education for All Development Index - Unesco

  6. www.unesco.org/new/fileadmin/.../gmr2011-efa-development-index.pdf

  7. 1. 1. 0. 2. Education for All Global Monitoring Report. ANNEX. 262. 1. Additional information on the EDI is available on the Report's website. 2. The remaining ...

  8. [PDF]

  9. The Education for All Development Index - Unesco

  10. www.unesco.org/new/fileadmin/.../HQ/.../gmr2010-annex-01-edi.pdf

  11. 0. 1. 0. 2. Education for All Global Monitoring Report. ANNEX. 278. While each of the six Education for All goals adopted in 2000 matters in its own right, the ...

  12. [PDF]

  13. The Education for All Development Index - Unesco

  14. www.unesco.org/new/fileadmin/.../HQ/ED/pdf/gmr2012-report-edi.pdf

  15. 1. Education for All Global Monitoring Report. 2. ANNEX. 306. 2. 0. The EFADevelopment Index (EDI) is a composite index that provides a snapshot of overall ...

  16. Education for All Development Index - Wikiprogress.org

  17. www.wikiprogress.org/index.../Education_for_All_Development_Index

  18. ২৮ জুন, ২০১১ - Unesco (20110 "The Education for All Development Index 2011", Statistical Annex of the Education for All Global Monitoring Report 2001, ...

  19. Education For All - Wikipedia, the free encyclopedia

  20. en.wikipedia.org/wiki/Education_For_All

  21. Education For All is a global movement led by UNESCO, aiming to meet the learning ...UNESCO has developed the Education for All Development Index (EDI).

  22. Indices & Data | Getting and Using Data | 2011 HDI Data | Human ...

  23. hdr.undp.org/en/statistics/data/2011/

  24. Since the first report, four new composite indices for human development have ... TheUNESCO Institute for Statistics estimates education attainment also from ...

  25. (HDI) value - International Human Development Indicators - UNDP

  26. hdrstats.undp.org/en/indicators/103106.html

  27. Since the first report, four new composite indices for human development have ...UNESCO Institute for Statistics (2012), World Bank (2012) and IMF (2012).

  28. Indices & Data | Getting and Using Data | Human Development ...

  29. hdr.undp.org/en/statistics/data/

  30. The Human Development Report (HDR) was first launched in 1990 with the single goal of putting people back at the center of the development process in terms ...

  31. [PDF]

  32. The UNESCO Youth Development Index - CCIVS

  33. ccivs.org/New-SiteCCSVI/.../5.../UNESCO/YDI-UNESCO-Brazil1.pdf

  34. The UNESCO Youth Development Index. 1. The UNESCO Youth Development Index. By Julio Jacobo1. I . BACKGROUND OF THE BRAZILIAN CONTEXT.

  35. India ranked at 105 in the Education for All Development Index ...

  36. www.norrag.org/...development.../india-ranked-at-105-in-the-education-...

  37. Keywords: India; EDI (Education Development Index) ... Similarly, according to the EFA Global Monitoring Report 2010 (UNESCO), India's rank was 105 among ...

  38. Inside Classrooms in India - Education for Sustainable Development ...

  39. www.unesco.org › ... › Document details

  40. ১৫ ডিসেম্বর, ২০১২

  41. Education for sustainable development (ESD) is supposed to be implemented in locally relevant and ...

  42. Education for All Development Index - Unesco

  43. www.unesco.org/new/en/education/themes/.../efa-development-index/

  44. Education for All Development Index. The EFA Development Index (EDI) is a composite index using four of the six EFA goals, selected on the basis of data ...

  45. (HDI) value - International Human Development Indicators - UNDP

  46. hdrstats.undp.org/en/indicators/103106.html

  47. Since the first report, four new composite indices for human development ... UNESCOInstitute for Statistics (2012), World Bank (2012) and IMF (2012). ..... 136, India, 0.345, 0.410, 0.463, 0.507, 0.515, 0.525, 0.533, 0.540, 0.547, 0.551, 0.554.

  48. Education For All - Wikipedia, the free encyclopedia

  49. en.wikipedia.org/wiki/Education_For_All

  50. Education For All is a global movement led by UNESCO, aiming to meet the learning ...UNESCO has developed the Education for All Development Index (EDI).

  51. India ranks 105 out of 127 countries in Unesco education report ...

  52. www.infochangeindia.orgEducationNews

  53. The bad news is that India ranks a lowly 105 out of 127 nations in Unesco's Education For All Development Index (EDI) for 2004, despite its much-touted Sarva ...

  54. Education | Data

  55. data.worldbank.orgTopics

  56. ... Scientific, and Cultural Organization (UNESCO) Institute for Statistics from ...Featured indicators ... Least developed countries: UN classification, 106% 2011.

  57. India rubbishes Unesco's global report on education - Economic Times

  58. articles.economictimes.indiatimes.comCollectionsPrimary Education

  59. ১০ নভেম্বর, ২০০৫ - DELHI: UNESCO's Education for All Global Monitoring Report '06 may ...The EFA development index calculated by the '06 report takes into ...

  60. Democratic India In The Development Index 2004 By Sarbeswar ...

  61. www.countercurrents.org/sahoo170707.htm

  62. ১৭ জুলাই, ২০০৭ - India is such a contradiction with high scoring on the board. ... The HumanDevelopment Index is a composite index that measures life .... Boutros (2002) The Interaction Between Democracy and Development, Paris: UNESCO.

  63. UNICEF India - Child protection - Child Protection

  64. www.unicef.org/india/child_protection.html

  65. UNICEF India's programmatic approach to child protection aims to build a protective environment in which children can live and develop in the full respect of …

अमीरों की मितव्ययिता                   

मई 29, 2012 – 6:04 पूर्वाह्न

–पी. साईनाथ

          

योजना आयोग के अनुसार अगर एक ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन २२ रुपये ५० पैसे खर्च करता है तो वह गरीब नहीं माना जायेगा, जबकि पिछले साल मई और अक्टूबर के बीच इसी योजना आयोग के उपाध्यक्ष की विदेश यात्राओं पर २.०२ लाख रुपये रोजाना औसत खर्च आया है.


खर्चों में कटौती के प्रणव मुखर्जी के भावनात्मक आह्वान ने देश को भावुक कर दिया था. इससे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसकी वकालत कर चुके थे और उन्होंने अपनी जमात के लोगों को रचनात्मक तरीकों से इसे अपनाते देखा. यहाँ तक कि विदेश मंत्रालय को २००९ में किये गये इस आह्वान पर काम करते देखते (किफायती दर्जे में हवाईयात्रा, खर्चों में कटौती), हम इस महान खोज के चौथे साल में प्रवेश कर चुके हैं.     


निश्चय ही, हमारे यहाँ कई प्रकार की मितव्ययितायें हैं. इन अनेकों आजमायी गयी विविधताओं में से  योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया वाली किस्म को लेते है. खर्चों में कटौती के लिये डा. अहलूवालिया की वचनबद्धता को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता. देखिये वह किस तरह गरीबी की रेखा के बारे में उस लोकलुभावन मांग के खिलाफ अडिग खड़े रहे हैं जो मानीखेज है. जनता की कतई खुशामद नहीं की गयी. शहरी भारत में २९ रूपये या ग्रामीण भारत में २३ रूपये रोज खर्च करें तो आप गरीब नहीं हैं. यहां तक कि  उन्होंने उच्चतम न्यायालय से भी  अपने लाखों-करोंडों  देशवासियों के प्रति  इस कठोरता को बनाये रखने का अनुरोध किया है. योजना आयोग द्वारा दायर एक हलफनामे में ३२ रूपये (शहरी) और २६ रूपये (ग्रामीण) प्रतिदिन की रेखा की वकालत की गयी  है. उसके बाद से, इस पदम विभूषण विजेता और इसके कुछ सहयोगियों ने इस रेखा को और कम करने के लिये बेहिचक अपनी राय पेश की है.


आरटीआई पूछताछ


डा. अहलूवालिया मितव्ययिता को खुद पर लागू करते हैं इस बात की पुष्टि दो आरटीआई प्रश्नों से हो जाती है. दोनों ही आरटीआई-आधारित पत्रकारिता के बेहतरीन उदाहरण हैं, परन्तु उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिल पायी जिसके वे हकदार हैं. उनमे से एक श्यामलाल यादव द्वारा दी गयी इंडिया टुडे(जिसमें जून २००४ से जनवरी २०११ के बीच डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है) की खबर है. यह पत्रकार (जो अब इंडियन एक्सप्रेस में काम करते हैं) पहले भी आरटीआई-आधारित बेहतरीन ख़बरें दे चुके हैं.


दूसरी खबर, इस साल फ़रवरी में, द स्टेट्समेन न्यूज़ सर्विस में प्रकाशित हुई (पत्रकार का नाम नहीं दिया गया है). इसमें मई और अक्टूबर २०११ के बीच में डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है. एसएनएस की रिपोर्ट कहती है कि "इस अवधि में, १८ रातों के दौरान चार यात्राओं के लिये राजकोष को कुल ३६,४०,१४० रुपये कीमत चुकानी पड़ी, जो औसतन २.०२ लाख रुपये प्रतिदिन बैठती है."


जिस दौरान यह सब हुआ, उस समय के हिसाब से २.०२ लाख रुपये ४,००० डॉलर प्रतिदिन के बराबर बैठते हैं. (अहा! हमारी खुशकिस्मती है कि मोंटेक मितव्ययी हैं. अन्यथा कल्पना करें कि उनके खर्चे कितने अधिक होते). प्रतिदिन का यह खर्चा उस ४५ सेंट की अधिकतम सीमा से ९,००० गुना ज्यादा है जितने पर उनके अनुसार एक ग्रामीण भारतीय ठीक-ठाक जी ले रहा है, या उस शहरी भारतीय के लिये ५५ सेंट की अधिकतम सीमा से ७,००० गुना ज्यादा है जिसे डा. अहलूवालिया "सामान्य तौर पर पर्याप्त" मानते हैं.


यहां हो सकता है कि १८ दिनों में खर्च किये गये ३६ लाख रूपये (या ७२,००० डॉलर) उस साल विश्व पर्यटन के लिये दिया गया उनका निजी प्रोत्साहन हो. आख़िरकार, २०१० में पर्यटन उद्योग अभी भी २००८-०९ के विनाश से उभर ही रहा था, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन ध्यान दिलाता है. दूसरी तरफ, यू.एन. संस्था ने पाया कि २०१० में वैश्विक यात्राओं पर वार्षिक आय 1,000 अरब  डॉलर तक पहुँच गयी. वार्षिक आय में सबसे ज्यादा बढ़त अमेरिका और यूरोप में देखी गयी (जहाँ उन १८ दिनों में से ज्यादातर दिन व्यतीत किये गये). भारतीय जनता इस बात पर खुशी मना सकती है कि उन देशों के स्वास्थ्य लाभ में उन्होंने भी एक सादगीपूर्ण भूमिका निभायी, तब भी जबकि वे घर पर खर्चों में कटौती की मार झेल रहे थे.


श्यामलाल यादव की आरटीआई में दिये गये आकड़े बेहद दिलचस्प हैं. शुरुआत के लिये, उनकी जाँच दिखाती है कि अपने सात साल के कार्यकाल में डा. अहलूवालिया ने ४२ आधिकारिक विदेश यात्रायें की और विदेशों में २७४ दिन बिताये. इस तरह यह "हर नौ में से एक दिन" विदेश में पड़ता है. और इसमें यात्रा करने में लगे दिन शामिल नहीं हैं. इंडिया टुडे की खबर ने पाया कि उनके इस भ्रमण के लिये राजकोष से २.३४ करोड़ रूपये खर्च किये गये, यह बताया गया है कि उनकी यात्राओं के संबंध में उन्हें तीन अलग- अलग अनुमान प्राप्त हुए थे और उदारतापूर्वक उन्होंने अपनी खबर के लिये सबसे कम खर्च वाले अनुमान को चुना. साथ ही, इंडिया टुडे की खबर कहती है, "यह स्पष्ट नहीं है कि इन आकड़ों में भारतीय दूतावास के द्वारा विदेश में किये गये अतिरिक्त खर्चे, जैसे-  लिमोसिन को किराये पर लेना शामिल हैं या नहीं. वास्तविक खर्चे काफी ज्यादा हो सकते हैं."


चूँकि जिस पद पर वह हैं उसके लिये ज्यादा विदेश यात्राओं की आवश्यकता नहीं है – हालाँकि, यह सब "प्रधानमंत्री की इजाजत" से किया गया है– यह काफी दुविधा में डाल देने वाला है. ४२ यात्राओं में से २३ अमेरिका के लिये थी, जो योजना में विश्वास नहीं करता ( योजना में तो, शायद डॉ. अहलूवालिया भी विश्वास नहीं करते), तब यह और भी ज्यादा दुविधा में डाल देने वाली बात है. ये यात्रायें किस बारे में थी? मितव्ययिता के बारे में वैश्विक जागरूकता का प्रसार करने के लिये? यदि ऐसा है तो, हमें उनकी यात्राओं पर ओर ज्यादा खर्च करना होगा: एथेन्स की सड़कों पर इस ध्येय का क़त्ल करते हुए विद्रोही ग्रीसवासियों पर ध्यान दें. और उससे भी ज्यादा उनकी अमरीका यात्राओं पर जहाँ अमीरों की मितव्ययिता असाधारण है. यहाँ तक उस देश के मैनेजरों ने २००८ में भी करोड़ों रूपये बोनस लिये, जिस साल वाल स्ट्रीट ने विश्व अर्थव्यवस्था का भट्टा बिठा दिया था. इस साल, अमरीका में बेहद-अमीर मीडिया अखबार भी लिख रहे हैं कि ये मैनेजर ही कम्पनियों, नौकरियों और तमाम चीजों का विनाश कर रहे हैं– और इस सबसे व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं. लाखों अमरीकावासी, जिनमे वे भी शामिल है जो बंधक घरों की नीलामी का शिकार हुए हैं, वे अलग तरह की मितव्ययिता भुगत रहे हैं. उस तरह की, जिससे फ्रांसीसी घबराये हुए थे और जिसके खिलाफ उन्होंने वोट दिया.


२००९ में जब डा. सिंह ने खर्चों में कटौती का अनुरोध किया, तब उनके मंत्रिमंडल ने इस आह्वान का शानदार जवाब दिया. अगले २७  महीनों के दौरान, हर सदस्य ने औसतन, कुछ लाख रूपये प्रति महीने अपनी सम्पति में जोड़े. यह सब उस दौरान, जब वे मंत्रियों के तौर पर कठिन मेहनत कर रहे थे. प्रफुल पटेल इनमे सबसे आगे रहे, जिन्होंने इस दौरान अपनी सम्पति में हर २४ घंटे में, औसतन पांच लाख रुपये जोड़े. तब जब एयर इंडिया के कर्मचारी, जिस मंत्रालय का ज्यादातर समय वह मन्त्री थे, हफ़्तों तक अपनी तनख्वाह पाने के लिये संघर्ष कर रहे थे. अब जबकि प्रणव अपना कोड़ा फटकार रहे हैं, तब ओर भी ज्यादा मितव्ययिता देखने को मिलेगी.


अब इस मितव्ययिता के द्विदलीय भाईचारे को देखें: प्रफुल पटेल (यूपीए–एनसीपी) और नितिन गडकरी (एनडीए–बीजेपी) ने अभी तक की दो सबसे महंगी शादियों का आयोजन किया, जिसमे किसी आईपीएल फ़ाइनल से भी ज्यादा मेहमान शामिल थे. लिंग-संतुलन का कठोर अनुशासन, भी. ये आयोजन, मि. पटेल की बेटी के लिये और मि. गडकरी के बेटे के लिये थे.


इनके कारपोरेट प्रतिरूपों ने इसे ओर आगे बढ़ाया. समकालीन स्मृति में मुकेश अंबानी का सबसे महंगा २७ मंजिल (पर उसकी ऊंचाई ५० मंजिल तक है) का घर. और विजय माल्या ने– किंगफिशर में जिनके कर्मचारी अपनी तनख्वाहों के लिये संघर्ष कर रहे हैं–  ५ मई को ट्वीट किया: "दुबई में बुर्ज खलीफा के १२३वें माले पर एटमोसफियर में रात्रिभोज कर रहा हूँ. मैं अपने जीवन में कभी इतनी ऊंचाई पर नहीं आया. शानदार दृश्य." यह शायद उससे ज्यादा ऊंचाई पर है जहाँ अभी किंगफिशर उड़ान भर रही है. दोनों की आईपीएल में खुद की टीमें हैं. एक ऐसी संस्था जिसे सार्वजनिक आर्थिक सहायता मिली है (उदाहरण के लिये, मनोरंजन कर में छूट). यह तब तक, जब तक मामला बम्बई उच्च न्यायालय में नहीं गया. आईपीएल से जुड़ी  जनता के पैसे से चलने वाली अन्य मितव्ययितायें भी हैं – इन खबरों का इंतज़ार करें.


वाल स्ट्रीट मॉडल   


कारपोरेट जगत आम तौर पर वाल स्ट्रीट के मॉडल का अनुसरण करता है. वहाँ, नौ बैंकों, जिसमे सिटीग्रुप और मेर्रिल लिंच शामिल हैं, ने "२००८ में ३२.६ बिलियन डॉलर बोनस के तोर पर दिये, उस समय जब उन्होंने करदाताओं द्वारा जमा धन से १७५ बिलियन डॉलर प्राप्त किये," ब्लूमबर्ग ने २००९ में रिपोर्ट दी. उसने इस विषय पर न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल एंडरयू कयूओमो की रिपोर्ट से उद्धृत किया: "जब बैंक बेहतर कर रहे थे, तब उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रही थी. जब बैंक खराब प्रदर्शन कर रहे थे तब भी उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रहती थी. जब बैंकों ने बेहद खराब प्रदर्शन किया तो करदाताओं ने उनकी जमानत ली और उनके कर्मचारियों को तब भी अच्छी तनख्वाह दी गयी. जैसे-जैसे मुनाफा कम होता गया, उनके बोनस और दूसरे पारितोषिकों में कोई कमी नहीं आयी."


ध्यान दें  कि  पिछले सप्ताह प्रणव की मितव्ययिताओं की प्रार्थना ने बेहद-अमीरों के प्रवक्ताओं को टीवी पर बहुत जोरशोर से यह कहते हुए देखा कि घाटा पूरी तरह से "एक के बाद एक होने वाली लोकलुभावन कार्यवाहियों" की वजह से है, जिसमे  ऐसे मूर्खतापूर्ण काम शामिल हैं,- जैसे लोगों को काम देना, भुखमरी को कम करना, बच्चों को स्कूल भेजना. इसमें धनाड्य वर्ग के लिये किये गये लुभावने कामों का कोई जिक्र नहीं है जिसमें  इन्ही प्रणव के बजट के माध्यम से कारपोरेट टैक्स, उत्पाद और सीमा शुल्क में रियायत देकर लगभग ५ लाख करोड़ रुपये (उस समय लगभग १०० बिलियन डॉलर) मुख्य रूप से अमीर और कारपोरेट वर्ग को तोहफे में दे दिये गये. सीताराम येचुरी ने इस बात की ओर संसद का ध्यान दिलाया है कि बेहद-अमीरों के लिये बट्टे खाते में डाले गये इन पैसों की वजह से राजकोषीय घाटा ८,००० करोड़ रुपये ज्यादा बढ़ गया है. परन्तु वह गरीबों के लिये किये जाने वाले "लोकलुभावन काम" हैं जिन्हें आलोचना झेलनी पड़ती है.


अमर्त्य सेन खेदपूर्वक पूछते हैं कि "राजस्व से सम्बंधित समस्याओं पर मिडिया में किसी भी तरह की बहस क्यों नहीं होती है, जैसे कि सोने और चांदी को सीमा शुल्क में छूट, वित्त मंत्रालय के अनुसार, इसमें राजस्व को उससे ज्यादा राशि का नुकसान शामिल है (प्रति वर्ष ५०,००० करोड़ रूपये) जितनी खाद्य सुरक्षा बिल के लिये जरूरी अतिरिक्त राशि (२७,००० करोड़ रूपये) है."


इस सर्वगुण संपन्न सम्मोहक दायरे के बाहर रहने वाले भारतीय एक अलग तरह की मितव्ययिता जानते हैं. खाद्य मुद्रास्फीति दो अंको में है. एक साल में सब्जियों के दाम ६० प्रतिशत बढ़ चुके हैं. बच्चों में कुपोषण सब-सहारा अफ्रीका से दोगुना है. परिवार दूध और दूसरी जरुरी चीजों का उपयोग तेजी से कम कर रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में भारी वृद्धि लाखों लोगों को कंगाल कर रही है. किसान निवेश करने में और कर्ज हासिल करने में असमर्थ हैं. बहुत से लोगों को पीने के पानी की कमी है, जैसे- जैसे इस जीवनदायिनी वस्तु को दूसरे कामों के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है. उच्च वर्ग के लिये मितव्ययिता का अभ्यास करना कितना बेहतर होगा.  

(द हिन्दू में प्रकाशित पी. साईनाथ के लेख की आभार सहित प्रस्तुति. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)  


SUNDAY, APRIL 20, 2008

सबसे बड़े कृषि संकट का दौर - पी. साईनाथ

वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ ने इस दौर में पत्रकारिता की प्रासंगिकता का सवाल खड़ा करते हुए गत 17 अप्रैल को दिल्ली में आयोजित एक व्याख्यान में कहा कि हम इस वक्त सबसे बड़े कृषि संकट से गुजर रहे हैं। 80 लाख लोगों ने पिछले 10 वर्षों में खेती-किसानी छोड़ी है। ये लोग आखिर कहां गए, इस पर हमने कोई खबर की? विस्थापन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इस शहर दिल्ली में एक से दो लाख आदिवासी लड़कियां आई हैं घरेलू नौकरानी का काम करने के लिए। पिछले छह महीनों में जो खाद्य संकट खड़ा हुआ है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। नौ साल में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। साईनाथ यहां चिन्मय मिशन के सभागार में मीडिया एंड एग्रेरियन क्राईसेस विषय यपर एडिटस्र गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से आयोजित राजेन्द्र माथुर स्मृति व्याख्यान दे रहे थे। साईनाथ ने कहा कि इस वक्त असमानता सबसे तेजी से बढ़ी है। पिछले 15 साल म4ें अमीर और गरीब की खाई नाटकीय तौर पर चौड़ी हुई है। देश में कुपोषण के शिकार बच्चें की स्थिति को भी उन्होंने गंभीर बताते हुए कहा कि इस मामले में हमाराा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है। कई और मामलों में देश में असमानता का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि इस मामले में जिन देशों में आर्थिक विकास दर नौ प्रतिशत नहीं है और जो आईटी क्षेत्र में महाशक्ति होने का दावा नहीं कर रहे हैं उनकी स्थिति हमसे बेहतर है। मोटे तौर पर मीडिया के रवैये का उल्लेख करते ेहुए उन्होंने कहा कि आज मीडिया का कारपोरेट अपहरण हो गया है। इस दौर में मीडिया की नैतिक दुनिया काफी बदल गई है। इन सारी स्थितियों के बीच पत्रकारों की बीट को लेकर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि एक अखबार में दस-पन्द्रह लोग मार्केट कवर कर रहे हैं, फैशन डिजाइन और ग्लैमर संवाददाता हैं, लेकिन ग्रामीण या शहरी गरीबी को कवर करने वाला कोई पूर्णकालिक संवाददाता नहीं है। श्रमिकों और उनकी समस्याओं की कवरेज के लिए कोई संवाददाता नहीं है। इसका मतलब है कि जो 75 प्रतिशत जनता खबर नहीं उसके बारे में बात करने में हमारी कोई रुचि नहीं है। सामाजिक क्षेत्र की समस्याएं जिस अनुपात में बढ़ रही हैं, इस क्षेत्र को कवर करने वाले संवाददाताओं की बीट उस अनुपात में घट रही है। उन्होंने गरीबी और ग्रामीण क्ष्ज्ञेत्र में खबरों की अपार संभावनाएं बताते हुए कहा कि उस वास्तविकता को कवर करना स्टॉक मार्केट से ज्यादा प्रासंगिक है। उन्होंने कहा पत्रकारिता दो तरह की होती है एक पत्रकारिता पत्रकारिता होती और दूसरी स्टेनोग्राफी होती हैं आज हम सामर्थ्यवानों की स्टेनोग्राफी कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ग्रामीण भारत में खबर ढूंढने की जरूरत नहीं है, खबर आपको ढूंढती है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे केन्द्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कहा कि मीडिया ने जिस एक और चीज की अनदेखी की है वह पंचायती राज संस्थाओं की है। हमारे पास वेसे विकल्प नहीं हैं जैसे विकसित लोकतंत्र वाले देशों में हैं, यह बताते हुए उन्होंने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं की मजबूती से समूचे भारतीय समाज में बदलाव आएगा। कार्यक्रम की शुरुआत में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष आलोक मेहता ने राजेन्द्र माथुर की पत्रकारिता का स्मरण करते हुए कहा कि उनके लेखन की छाप समूची नई पीढ़ी पर रही है। खेती के संकट की चर्चा करते हुए उन्होंने माना कि किसानों का और कृषि का संकट हमारे पूरे समाज का संकट है।

आप कितने सही हैं, डॉ सिंह?- पी साईनाथ( अनुवाद-मनीष शांडिल्य)

प्रिय प्रधानमंत्री जी,

मुझे यह जानकर खुशी हुई कि सुप्रीम कोर्ट को ''सम्मानपूर्वक'' फटकारते हुए आप ने कहा है कि अनाज, सड़ते हुए खाद्यान्न का निपटारा जैसे सभी सवाल नीतिगत मामले हैं. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं और बहुत दिनों बाद ऐसा किसी ने कहा है. ऐसा कर आप संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सार्वजनिक बयानबाजी में ईमानदारी लाने की एक छोटी-सी कोशिश कर रहे हैं, जिसकी बहुत कमी महसूस की जा रही थी. बेशक यह आपकी सरकार को तय करना है कि वर्तमान में लाखों टन सड़ते अनाज का क्या करना है, कोर्ट को नहीं. अगर नीति यह कहती है कि भूखे लोगों का भोजन बनने से बेहतर है कि अनाज सड़ जाए, तो अदालत को इससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए. जैसा कि आप कहते भी हैं कि ''नीति निर्माण का अधिकार क्षेत्र'' आपका है. यह जानकर अच्छा लगता है कि देश का नेतृत्व एक सीमा तक ही सही, यह स्वीकार करता है कि बढ़ती भूख, गिरते पोषण-स्तर, सड़ते अनाज, अनाज भंडारण के लिए गोदामों की कमी, ये सभी समस्याएं नीतियों के कारण उत्पन्न होती हैं. (मुझे पता है कि ये निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले की वजह से पैदा नहीं हुई हैं.)


एक आम आदमी शायद हालात को स्वीकार करते हुए इस सबके लिए विपक्ष, मौसम या रहस्यमय (लेकिन अंततः फायदे में ही रहने वाले) बाजार के उठा-पटक को दोषी ठहराता. लेकिन आप ऐसा नहीं करते. आप साफ तौर पर ऐसा होने की वजहों को नीतियों में खोजते हैं. और नीतियां बाजारों की तुलना में कहीं अधिक सुविचारित और बहुत कम गूढ़ हैं.

अनाज भंडारण का मामला

अंततः यह तो एक नीतिगत फैसला ही था कि पिछले कुछ वर्षों में अनाज के भंडारण के लिए नये गोदाम बनाने के लिए न के बराबर राशि खर्च की गयी. सरकारों के पास नए शहरों में बन रहे इमारतों, मॉल और देश भर में बन रहे मल्टीप्लेक्सों पर छूट देने के लिए पैसा है. ऐसा निजी बिल्डरों और डेवलपर्स को ''प्रोत्साहित'' करते हुए किया जा रहा है. लेकिन देश के अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने के लिए पैसा नहीं है.

इसकी जगह 'नया' विचार यह है कि नये गोदाम बनाने की बजाय निजी भवनों को किराए पर लिया जाए. यह फैसला सवाल खड़े करता है क्योंकि आपकी सरकार ने 2004 और 2006 के बीच किराये के गोदामों को खाली करने का नीतिगत फैसला लिया था, इनमें दसियों लाख मीट्रिक टन अनाज भंडारण की क्षमता थी. यह सब किया गया एक महंगी बहुराष्ट्रीय परामर्शदात्री फर्म की सलाह पर और यह सलाह देने के लिए उसे एक बड़ी राशि का भुगतान भी किया गया. नये गोदामों को किराये पर लेने का एक मतलब निश्चित रूप से यह होगा कि बढ़े हुए दर पर किराये का भुगतान करना. ऐसा करना तो सिर्फ किरायाखोरों के चेहरे पर ख़ुशी ही लायेगा. (शायद आप ऐसी सलाह देने के लिए वापस फिर से उसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मोटी रकम का भुगतान करें जिसने पिछली बार ठीक इसके उलट फैसला करने की सलाह सरकार को दी थी.)

और हां, आपकी नवीनतम नीतियां किराए पर गोदाम देने वालों को ही ''प्रोत्साहित'' करती है। प्रणब दा के बजट भाषण (बिंदु 49) ने किराए के गोदामों की गारंटी अवधि को बढ़ाकर पांच से सात साल कर दिया. दरअसल, तब से इसे बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है. (एक शुभचिंतक की चेतावनी: मोटी फीस लेने वाली उस बहुराष्ट्रीय परामर्श फर्म की रिपोर्ट पर कार्रवाई करना किसी भी सरकार के लिए कितना आत्मघाती है यह आंध्र प्रदेश के श्री नायडू से पूछिए.) सरकारी जमीन पर अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने का विकल्प हमेशा से मौजूद था. छत्तीसगढ़ में अब ऐसा किया जा रहा है. लंबे समय में इसकी लागत बहुत कम पड़ती है और ऐसा करना भूख से निपटने के लिए किये जा रहे उपायों से मुनाफाखोरी को कम करता है. ये होते हैं नीतिगत मामले, यह सिर्फ एक सुझाव है, आदेश नहीं.

जैसा कि आपका संदेश सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट कर देता है कि सड़ते अनाज का मामला उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. मुझे यकीन है कि देश के सबसे महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री के रूप में, आपके पास खुली जगहों और जर्जर गोदामों में पड़े अनाज, सड़ रहे या सड़ने वाले अनाज के बारे में सुविचारित नीतियां होंगी. मैं सिर्फ इतना भर चाहता हूं कि आप जैसा कोई विद्वान आक्रामक चूहों की तेजी से बढ़ती आबादी को इन नीतियों के बारे में समझाये, ये चूहे यह सोचते हैं कि वो अनाज के साथ मनमाफिक व्यवहार कर सकते हैं और ऐसा करते हुए अदालत की उपेक्षा भी कर सकते हैं. (शायद हमें चूहों को इसके लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत पड़े कि वे अनाज बर्बाद न करें.)

इस बीच, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक प्रवक्ता ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने भी इस मुद्दे पर बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी. उसे 2004 के आम चुनावों में जबरदस्त हार का मुंह देखना पड़ा. क्या कमाल की आम सहमति है इन सभी नीतिगत मामलों पर. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले में सहमत लगता है.

डॉ. सिंह, लगभग नौ साल पहले (20 अगस्त, 2001) इसी भोजन का अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था, ''न्यायालय की चिंता यह है कि गरीब और बेसहारा व कमजोर वर्गों को भूख और भुखमरी का सामना नहीं करना पड़े. ऐसे हालात की रोकथाम सरकार की प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है, चाहे वो केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार. यह कैसे सुनिश्चित किया जाए, यह एक नीतिगत मामला है और सबसे बेहतर है कि इसे सरकार पर छोड़ दिया जाए. अदालत को बस इतना भर यकीन दिलाने की जरूरत है कि...खाद्यान्न... बर्बाद न हों...या चूहों का आहार न बनें... सबसे जरूरी यह है कि अनाज भूखी जनता तक पहुंचना चाहिए''.


लाखों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसान भी आप से पूरी तरह सहमत हैं, प्रधानमंत्री जी. वे जानते हैं कि यह नीतियां ही हैं, अदालतें नहीं, जो उन्हें अपनी जान देने के लिए मजबूर कर रही हैं. इसी कारण से उनमें से कई लोगों ने अपने सुसाइड नोट में आपको, वित्त मंत्री या अपने प्रिय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संबोधित किया. (जब मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं वो एक टीवी स्टूडियो में बाघों को बचाने में व्यस्त हैं). कभी भी आपने इन पत्रों में से किसी को भी पढ़ा है, डॉ. सिंह? क्या आपकी अपनी पार्टी की महाराष्ट्र सरकार ने कभी भी आपको उनमें से एक भी दिया है? उनमें ऋण, कर्ज, बढ़ती लागत और गिरते कीमतों का जिक्र होता है. ये ऐसी सरकारों के बारे में है जो उनकी आंसुओं को देख नहीं पा रही है. ये उनके परिवारों को भी संबोधित नहीं हैं, लेकिन आपको और आपके साथियों को हैं डा. सिंह. हां, उन्होंने अपनी दयनीय स्थिति में नीतियों की भूमिका को समझा- और इसलिए अपने सुसाइड नोट में उन नीतियों को बनाने वालों को संबोधित किया.


किसानों का असंतोष

2006 में आपके ऐतिहासिक विदर्भ यात्रा के बाद वर्धा के रामकृष्ण लोंकार ने अपने सुसाइड नोट में अपनी पीड़ा को बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त किया था. उसने लिखा ''प्रधानमंत्री की यात्रा और फसल ऋण संबंधी हालिया घोषणाओं के बाद मुझे लगा मैं फिर से जिंदगी जी सकता हूं. लेकिन मेरे प्रति बैंक ने कोई सम्मान नहीं दिखाया, वहां कुछ भी नहीं बदला था.' वासिम का रामचंद्र राउत चाहता था कि उसकी बात पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाए. इस कारण उसने अपने सुसाउड नोट में न केवल आपको बल्कि राष्ट्रपति और आपके सहयोगियों को भी संबोधित किया और साथ ही उसने अपने सुसाइड नोट को 100 रुपये के ननजुडिसियल स्टांप पेपर पर दर्ज भी करवाया. वह अपनी समझदारी के अनुसार अपने विरोध को ''कानूनी वैधता'' देने की कोशिश कर रहा था. यवतमाल में रामेश्वर कुचानकर के सुसाइड नोट ने किसानों के संकट के लिए कपास के खरीद मूल्य को दोषी ठहराया. यहां तक जो पत्र आपको संबोधित नहीं भी थे, उनमें भी नीतियों पर ही सवाल खड़ा किया गया है. जैसे कि साहेबराव अधाओ का सुसाइड नोट, जो अकोला-अमरावती क्षेत्र में सूदखोरी का दयनीय चित्रण करता है.


सभी नीतियों की ओर ही इशारा करती हैं. और वो कहां तक सटीक थीं! हाल ही में यह खुलासा हुआ है कि 2008 में महाराष्ट्र में वितरित कुल ''कृषि ऋण'' में लगभग आधे का वितरण ग्रामीण बैंकों द्वारा नहीं, लेकिन शहरी और महानगरीय बैंक शाखाओं द्वारा किया गया था. (इस संबंध में एक रपट 13 अगस्त, 2010 को द हिंदु में प्रकाशित भी हुई थी). इसका 42 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सिर्फ वितीय  राजधानी मुंबई में बांटा गया. (बेशक, शहर में बड़े पैमाने पर खेती होती है, लेकिन एक अलग तरह की - यहां ठेकों की खेती होती है). ऐसा लगता है कि बड़े निगमों की एक मुट्ठी भर जमात इस ''कृषि ऋण'' के एक बहुत बड़े हिस्से को कुतर जाते हैं. ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्यों लोंकार राउत और उनके जैसे दूसरे सभी लोगों के लिए ''कृषि ऋण'' पाना इतना मुश्किल हो गया. अगर आपके पसंदीदा मुहावरों में से एक के शब्दों में कहूं तो अरबपतियों के होते हुए सबके लिए नियम एक जैसे नहीं हो सकते.


जबकि ये समस्याएं इन नीतियों के कारण ही उमड़ रही हैं, जो पूरी तरह से आपकी सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. मैं यह कबूल करता हूं कि ऐसा कहते हुए मैं थोड़ा असमंजस में हूं. कई वर्षों की ''अद्भुत'' मूल्य वृद्धि निश्चित रूप से सरकार की अच्छी और दूरदर्शी नीतियों का ही नतीजा हैं ? इस वर्ष जैसे ही आपने टोरंटो में समावेशी विकास पर विश्व के नेताओं को संबोधित किया, आपकी सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को पूरी तरह और डीजल को आंशिक रूप से नियंत्रित मुक्त कर दिया. इतना ही नहीं मिट्टी के तेल की कीमतें भी बढ़ा दी गयीं.


जब नीतियां करोड़ों लोगों को भोजन, जो पहले भी भरपेट नहीं मिलता था, में कटौती करने के लिए मजबूर करती हैं, ऐसे में क्या उन पर चर्चा हो सकती है? जब नीतियां लोगों के अधिकारों को रौंदती हैं, और लोग अपने अधिकारों की बहाली के लिए अदालतों की शरण में जाते हैं, तब अदालतें क्या करें, प्रधानमंत्री? आप सही हैं कि सुप्रीम कोर्ट को नीति नहीं बनानी चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट क्या करे जब उसका सामना आपकी नीतियों के दुश्परिणामों से होता है? नीतियां जनता बनाती है, यह आप मुझसे बेहतर जानते हैं. आपके मामले में ऐसा कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जाता है, इनमें वो भी शामिल हैं जिन्होंने बाल श्रम प्रतिबंधित करने के लिए किये जा रहे संघर्षों का विरोध किया था. इन्हीं में से एक ने न्यूयॉर्क टाइम्स में 29 नवंबर, 1994 को ''बाल श्रम-गरीबों की जरूरत'' शीर्षक से एक लेख लिखा था. जिसमें उन्होंने कबूल किया था कि उनके घर में एक 13 साल का बच्चा काम करता था. (इतना ही नहीं इसी अर्थशास्त्री ने मूल्य वृद्धि से निपटने के लिए ईंधन की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का समर्थन किया था. और शायद बाल श्रम का भी?)


इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय क्या करता जब सरकार का वह वादा पूरा ही नहीं हुआ जिसमें उसने 2006 में ग्यारहवीं योजना के शुरू होने से पहले एक नया बीपीएल सर्वेक्षण पूरा करने की बात कही थी? उच्चतम न्यायालय या कोई और भी क्या करता जब केंद्र सरकार 1991 की जनगणना के आधारित वर्ष 2000 के गरीबी अनुमानों के आधार पर राज्यों को अनाज आवंटित करती है. ऐसे में तो मामला यह होना चाहिए है कि बीस वर्ष पुराने आंकड़ों के कारण लगभग 7 करोड़ लोग क्यों बीपीएल/अन्त्योदय अन्न योजना के तहत मिलने वाले अनाज से भी वंचित हैं.


मेरा विनम्र सुझाव है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट उपरोक्त दुविधाओं के साथ तालमेल बिठाता है, हम अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें. साथ ही मैं आपका बहुत आभारी रहूंगा यदि आप इस पत्र की एक प्रति अपने खाद्य और कृषि मंत्री को भी भेज दें. हां, अगर आपको याद हो कि वे कौन हैं और कहां है.


आपका

पी साइनाथ


द हिन्दू में प्रकाशित अनुवाद - मनीष शांडिल्य  

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    The index of backwardness constructed by a panel chaired by Raghuram Rajan to rank India's states cannot be faulted on technical grounds, taking into account, as it does, 10 indicators, such as monthly per-capita consumption expenditure, education, health, poverty rate, female literacy, urbanisation rate, financial inclusion and physical connectivity. It must be pure coincidence, of course, that it also suits the political interests of the ruling UPA — vindicating Nitish Kumar's pleas on Bihar's backwardness and demolishing Narendra Modi's halo as a worker of development miracle, by showing up Gujarat as a relatively underdeveloped state.


    Odisha ranks as India's most backward state, followed by Bihar. However, showering central funds to least developed states could become a perverse incentive for them to stay backward.


    So, states that strive to shed backwardness must be rewarded more. The report recommends that each state get a fixed basic allocation of 0.3% of overall central funds. Of the balance, three-fourths will be allocated based on need and one-fourth based on the state's improvements on its performance. A review, once in five years, is welcome. A larger proportion of the allocation should go towards improvement in the states' performance. The recommendation to scrap the term special category status, introduced in 1969, is logical as states will find their needs met through the new methodology.


    As per the panel's recommendations, Bihar, Madhya Pradesh, Odisha, Rajasthan and Uttar Pradesh will get a larger share than their current share of total central assistance to state plans and centrally-sponsored schemes. Kerala, Tamil Nadu and Maharashtra are expected to lose substantially. States will have an incentive to better their governance.

    http://economictimes.indiatimes.com/opinion/editorial/a-comprehensive-development-index/articleshow/23187229.cms

    Never has securing land rights for the world's poorest people been more important

    In an era defined by concerns over food security, environmental sustainability, stubborn cycles of poverty, and a global rush for farmland, secure rights to land for the world's small farmers is critical.

    For more than four decades, Landesa has championed the power of land ownership and secure land rights for farming families as the key to a safer and more prosperous future.

    We are making progress.

    Across the globe, from China's rice paddies to Rwanda's cassava fields, the world's poorest people are climbing out of poverty by gaining legal control of their land. With the help of Landesa's global team of land tenure experts, and in partnership with governments around the world, more than 109 million families in 40 countries have obtained secure land rights.

    But more can be done. Most of the poorest people on the planet share three traits: they live in rural areas, rely on agricultural labor to survive, and don't own the land they till. Landlessness remains one of the best predictors of extreme poverty around the world.

    Structural problems deserve structural solutions

    Landesa partners with governments to create laws, policies, and programs that provide secure land rights for the poorest.

    We've learned that when a family has land of their own, they have opportunity and the means to improve nutrition, income, shelter. We've seen that when land rights are secure, the cycle of poverty is broken – for an individual, a family, a village, a community and entire countries.

    Broadly distributed land rights, especially for women, provide structural systemic change that is enduring and multi-generational.

    Founded in 1967 by former University of Washington Law Professor Roy Prosterman, and originally named the Rural Development Institute, we continue to be guided by the radically simple notion that secure property rights bring opportunity. While we recognize that land rights are not a panacea to poverty, we believe that they provide quite possibly the best first step. They are the foundation required for other development tools – education, public health, microfinance, sanitation, nutrition, among others – to take root. And they are necessary for us to address some of the most important issues of our time from food security to conservation.

    We envision a world free of extreme poverty. We see a future in which all who depend on land for their well-being have secure land rights – one of the most basic and powerful tools for lifting themselves and their families out of poverty.

    http://www.landesa.org/?gclid=CJODn9_H7bkCFfGG4godUmMAhQ


    FROM OUR BLOG

    Why land should be part of the post-2015 development agenda

    Posted on September 26, 2013 by Landesa

    This blog was originally posted on Devex as part of their Land Matters campaign. By Tim Hanstad, D. Hien Tran and Matt Bannick Capable and hardworking women and men can be found throughout the world. Equal opportunity and rights to …

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    Fighting Poverty with Land

    Posted on September 23, 2013 by Tim Hanstad Ashok Sircar

    This post originally appeared on the Council on Foreign Relations Development Channel. In 2005, our non-profit, Landesa, partnered with the government of West Bengal, a state in eastern India, to develop a micro-plot program. The goal was to provide hundreds of …

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    How to manage African land conflicts through informal justice systems

    Posted on September 22, 2013 by Deborah Espinosa

    This post originally appeared on Devex as part of their Land Matters campaign. Conflicts and disputes are a natural and legitimate part of everyday life, present in all human relationships and societies. When people are voicing their opinions, asserting their …

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    http://www.landesa.org/?gclid=CJODn9_H7bkCFfGG4godUmMAhQ


    Hillary Clinton spotlights land rights and Landesa at CGI 2013

    September, 25, 2013 — At the 2013 Clinton Global Initiative Annual Meeting, Hilary Clinton brought Landesa President and CEO Tim Hanstad onto the main stage recognized Landesa's commitment and impact on securing land rights around the world, particularly for women …

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    2013 Visiting Professionals Program Begins

    Landesa welcomes its new class of eight Women's Land Rights Visiting Professionals to our Seattle office. While in Seattle from September 9 to October 18, they will share their experiences working with women's land rights as well as strengthen their …

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    UN Secretary General's MDG and Post-2015 report released

    August 16, 2013 — The UN Secretary General's Millennium Development Goals and Post-2015 report "A life of dignity for all: accelerating progress towards the Millennium Development Goals and advancing the United Nations development agenda beyond 2015″ was publicly released this week.

    → Read Morehttp://www.landesa.org/?gclid=CJODn9_H7bkCFfGG4godUmMAhQ



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    1. InterAksyon

  • United States' business growth environment dips

  • MarketWatch (press release)-16-Sep-2013

  • The United States, down one spot from 10th in last year's index, sits ahead of Japan, Germany and France. ... 14 as the result of increased research and development spending. ... India and Brazil have fallen away and face significant challenges. ... the EIU, the World Bank, Thomson Financial and UNESCO.

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  • Gozo News

  • Literacy helps combat poverty, improve people's lives: UN

  • Associated Press of Pakistan-08-Sep-2013

  • To mark the Day, an international colloquium will be held at UNESCO's ...development and culture from Pakistan, Afghanistan, India, Benin, Chad and Senegal, ...

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  • Nollywood comes of age

  • Oman Tribune-14-Sep-2013

  • ... only to India's 1,178 movies, according to the Unesco Institute for Statistics. ...according to Adi Nduka-Agwu, head of Africa business development for iROKO.

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  • PH up 6 places in global competitiveness

  • Inquirer.net-04-Sep-2013

  • The Philippines has also overtaken India, which took the 60th spot. ... up 15 places to 79th; and financial market development, up 10 spots to 48th place. ... indicator were derived by the WEF from Unesco," Del Rosario said.

  • Dying and dead languages

  • Financial Express Bangladesh-08-Sep-2013

  • The Indian instance is illuminating because the loss of language diversity ... After all, two languages have developed side by side to get ready ...

  • Water Scarcity Could Drive Conflict or Cooperation

  • The Guatemala Times-03-Sep-2013Share

  • The 2015 deadline for the U.N. Millennium Development Goals ... SustainableDevelopment Goals (SDGs) currently under discussion as part of ...




  • केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने केंद्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13 जारी की

    केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने 26 सितंबर 2013 को केंद्रीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13 जारी की. इस अवसर पर योजना आयोग के सदस्य डॉ. मिहिर शाह और आईडीएफसी फाउंडेशन के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. राजीव लाल मौजूद थे. बाद में ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने पर विचार-विमर्श भी हुआ.

    रिपोर्ट में ग्रामीण जन-जीवन के विभिन्न पहलुओं की विस्तृत समीक्षा की गयी है. इनमें क्षेत्रीय विषमताएं और अभाव, आजीविकाओं की बदलती प्रवृत्तियॉ प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति, राज्य और स्थानीय निकायों की बदलती भूमिकाएं शामिल हैं. इसके साथ-साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) सहित ग्रामीण विकास से जुड़े सभी मुख्य केंद्रीय कार्यक्रमों और योजनाओं की समीक्षा भी इस रिपोर्ट में शामिल है. इस रिपोर्ट को नीति निर्माताओं, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों, अनुसंधानकर्ताओं और निजी क्षेत्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संसाधन माना जा सकता है.


    ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित आजीविकाओं के लिए नई रणनीतियां बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि:

    • ग्रामीण जनता, विशेष रूप से लघु और सीमांत किसान केवल कृषि आधारित आय से अपना जीवनयापन नहीं कर सकते. देश में 85 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान ही हैं. इसके अलावा कुल कृषि भूमि में से 50 प्रतिशत से अधिक भूमि गैर-सिंचित भूमि होने के कारण वहां के किसानों को अपनी आजीविका की व्यवस्था करने में और अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है.

    • गैर-सिंचित कृषि भूमि पर मक्का जैसी परम्परागत फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इसके लिए मक्का की विभिन्न पोषक किस्मों की खेती को बढ़ावा देना होगा तथा उसकी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बिक्री को प्रोत्साहित करना होगा.

    • अकेले लघु अथवा सीमांत किसान को फसलों में निवेश, उनके भंडारण, ऋण और बिक्री को लेकर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है इसलिए ऐसे किसानों द्वारा सामूहिक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

    • आंध्र प्रदेश में लगभग 20 लाख किसानों ने सामूहिक रूप से प्रबंधित खेती अपनाकर इस दिशा में अच्छा काम किया है. इससे उनकी खेती की लागत घटी है और उत्पादन बढ़ा है.

    • कृषि क्षेत्र‍ में जल उपादेयता भी संकट में है क्योंकि‍ 80 फीसदी जल का प्रयोग कृषि‍ कार्यों में होता है. जल को सामुदायि‍क संसाधन के रूप में लेना चाहि‍ए और भूजल और सतही जल दोनों के प्रबंधन को जल के विभिन्न प्रकार के उपयोगों का एक समग्र दृष्‍टि‍कोण अपनाया जाना चाहि‍ए.


    गैर कृषि‍ आय स्रोत का तेजी से बढ़ता महत्व

    • 43 फीसदी ग्रामीण परि‍वार अपने महत्‍वपूर्ण आय स्रोत के रूप में गैर-कृषि‍ रोजगार पर भरोसा करते हैं.

    • भारतीय ग्रामीण परि‍वार बहुआयामी प्रकृति‍ का होता है, जो अपने खेतों में काम करते हैं, दूसरों के खेतों में काम करते हैं, पशुपालन का कार्य करते हैं और गांवों एवं शहरों में गैर-कृषि‍ कार्यों के लि‍ए आते-जाते हैं.

    • गैर-कृषि‍ रोजगारों में अच्छी मजदूरी मि‍लती है और इससे नि‍म्‍न जाति‍ के लोगों को कृषि‍ श्रम से बाहर नि‍कलकर सामाजि‍क रूप से उपर उठने का मौका मि‍लता है. इस बात के भी सबूत हैं कि‍ उच्च गैर-कृषि‍ मजदूरी की वजह से कृषि‍ मजदूरी में भी बढ़ोत्तरी हुई है.

    • नि‍र्माण एवं व्‍यापार जैसे गैर-कृषि‍ कार्यों की प्रकृति‍ आकस्मिक होती है. वि‍नि‍र्माण क्षेत्र से जुड़े रोजगार भी कई बार अनौपचारि‍क रूप से बढ़े हैं. इससे कामगारों को रोजगार सुरक्षा और औपचारि‍क रोजगार के फायदे नहीं मि‍लते हैं.

    • गैर-कृषि‍ आजीवि‍का में कर्ज मि‍लने में असुवि‍धा, वि‍पणन एवं क्षमता जैसे महत्वपूर्ण बाधाओं से नि‍पटना जरूरी है. वि‍त्तीय क्षमता प्रशि‍क्षण कठि‍न है. प्रशि‍क्षुओं को नौकरी या अच्छे वेतन का भरोसा नहीं मि‍लता और नियोक्ता ऐसे प्रशि‍क्षण को उपयुक्त नहीं मानते. जबकि‍, कुछ परि‍योजनाओं ने इसके लि‍ए उच्च स्तर के समाधान की जरूरत दर्शायी है.

    • हाल ही में सरकार ने आजीवि‍का नाम से एक कार्यक्रम को आरंभ कि‍या है, जि‍सका उद्देश्य कौशल वि‍कास, छोटा व्यवसाय शुरू करने में गरीबों की मदद करना और स्वयं सहायता समूहों के जरि‍ए गरीबों की पूंजी तक पहुच बढ़ाना है.


    गरीबी हालांकि घट रही है लेकिन फिर भी कुछ क्षेत्रों और सामाजिक समूहों में यह निरंतर बढ़ रही है-

    • वर्ष 1993-94 में सात राज्यों झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में 50 प्रतिशत गरीब थे जबकि 2011-12 में इनकी संख्या 65 प्रतिशत हो गयी. हालांकि 2009-10 के बाद बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में गरीबी काफी घटी है.

    • राजस्थान के साथ ये राज्य अब तक शिक्षा, बाल और मातृत्व स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सेवाओं के क्षेत्र में भी सबसे पिछड़े हुए हैं.

    • इन राज्यों में केवल 18 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को ही तीन आधारभूत सेवाएं - अपने परिसरों में पेयजल, शौचालय और बिजली की सुविधा उपलब्ध है. इनकी 20 प्रतिशत आबादी को तो यह सुविधाएं बिलकुल भी उपलब्ध नहीं हैं.

    • इन तीनों सुविधाओं से सर्वाधिक वंचित 200 जिले राजस्थान और असम को छोड़कर उक्त सात राज्यों में ही हैं.

    • अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के वर्ग में सर्वाधिक गरीबी व्याप्त है. वर्ष 2009-10 में ग्रामीण गरीबों में 44 प्रतिशत संख्या इन्हीं वर्गों की थी.


    गरीबी निवारण में उत्पादकता को बढ़ाने वाली आधारभूत संरचना, सब्सिडी (राजकीय सहायता) से अधिक कारगर-

    • पिछले कुछ वर्षों में सड़कों, बिजली और दूरसंचार के साधनों से गांवों में आपसी संपर्क बढ़ा है. हालांकि इन सुविधाओं की गुणवत्ता और रखरखाव की स्थिति बुरी है.

    • देशभर के गांवों को हालांकि विद्युत ग्रिड से जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास बिजली के कनेक्शन नहीं हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत आपूर्ति भी विश्वनीय नहीं है. जलापूर्ति का अभाव है अथवा प्रदूषित पानी उपलब्ध होता है. 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है.

    • शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति भी बहुत खराब है, जिसका मुख्य कारण सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों और अध्यापकों का अनुपस्थित रहना होता है.


    सरकार की बदलती हुए नीतियों में निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं-

    • ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी परिसंपत्तियों के सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. अनेक स्थानों पर सामुदायिक निगरानी व्यवस्था के अच्छे परिणाम सामने आए हैं.

    • प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अंतर्गत जो 12 मासी सड़कें बनाई जा रही हैं उनके ठेकों में रखरखाव भी शामिल होता है. राज्यों को इन सड़कों के रखरखाव के लिए अलग से धन की व्यवस्था रखनी चाहिए.

    • वर्ष 2011 की सामाजिक‍-आर्थिक और जातीय गणना में अनेक अभावों की बात सामने आई है, जिनकी ग्राम सभाओं ने भी पुष्टि की है. राज्य सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए.

    • राज्य सरकारों और पंचायत राज संस्थानों के लिए स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप केंद्रीय योजनाओं में पर्याप्त लचीलापन रखा जाना चाहिए.

    • योजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन की दृष्टि से विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकार तथा स्थानीय निकायों के बीच जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए.

    • ग्रामसभाओं द्वारा विभिन्न सेवाओं की लेखा परीक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. ग्रामसभाओं को उनके कार्यनिष्पादन के आधार पर अधिक धनराशि दिया जाना भी ठीक रहेगा.


    भागीदारी और जवाबदेही के आधार पर स्थानीय प्रशासन को और अधिक पारदर्शी और कुशल बनाने में असफल-

    • राज्य सरकारों को और अधिक धनराशि तथा आवश्यक स्टाफ उपलब्ध कराकर पंचायत राज संस्थाओं को मजबूती प्रदान करनी चाहिए.

    • ग्रामसभाओं की भागीदारी के अधिकार और सामाजिक लेखा-परीक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाकर ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार और बड़े लोगों के हस्तक्षेप पर प्रभावी ढंग से अंकुश लगाया जा सकता है.


    मनरेगा देश के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा कार्यक्रम-

    महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत लगभग 25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को 40-50 दिन का रोजगार उपलब्ध हुआ है जिससे यह देश के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा कार्यक्रम बन गया है.

    • इस योजना से गरीबों, वंचित परिवारों, महिलाओं तथा अजा/अजजा के वर्गों का खासतौर से भला हुआ है.

    • इस योजना के अंतर्गत सृजित कुल कार्य-दिवसों में 50 प्रतिशत कार्य-दिवस महिलाओं को उपलब्ध हुए हैं.

    • इस योजना से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गरीबी निवारण में काफी मदद मिली है और इसके कारण कृषि मजदूरों का पारिश्रमिक भी बढ़ने का दबाव पैदा हुआ है.

    • सर्वाधिक गरीबी से पीडि़त उक्त राज्यों में काम की मांग के बावजूद इस योजना का समुचित कार्यान्वयन नहीं हो पाया है. इसका मुख्य कारण उक्त राज्यों में कमजोर प्रशासन ही दिखाई देता है.

    • कार्य उपलब्ध कराने और मजदूरी के भुगतान में विलम्ब तथा इंजीनियरिंग स्टाफ की कमी इस योजना की अन्य खामियों में शामिल हैं. इन्हें दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

    • अच्छी गुणवत्ता वाली परिसंपत्तियों के निर्माण तथा ग्रामसभाओं की अधिकाधिक भागीदारी की इस योजना को और बेहतर बनाने में कारगर भूमिका हो सकती है.



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    2. भूमि अधिग्रहण कानून से रुकेगा नक्सलवाद : रमेश

    3. देशबन्धु-17-Sep-2013

    4. भोपाल| केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि नया भूमि अधिग्रहण कानून गरीब, किसान, दलित और जनजातीय वर्ग को हक दिलाने के साथ ही बढ़ते नक्सलवाद पर भी अंकुश लगाने में मददगार बनेगा। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रवास ...

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    8. देशबन्धु

    9. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने दी ...

    10. दैनिक भास्कर-15-Sep-2013

    11. जयपुर-!-नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू होने के बाद उन किसानों को भी मुआवजे की राशि में से 40 फीसदी हिस्सा मिलेगा, जिनसे बिचौलिये भूमि खरीद चुके हैं। कोई भी सरकार जमीन से जुड़े आंदोलनों की अनदेखी नहीं कर सकती। साथ ही इस ...

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    14. ग्रामीण विकास का प्लान तैयार

    15. दैनिक जागरण-07-Sep-2013

    16. मुरादाबाद। विकास कार्यों को रफ्तार देने के लिए जिला पंचायत ने कवायद शुरू कर दी है। तीन दर्जन से अधिक निर्माण परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार किए गए हैं। जिन्हें 12 सितंबर को आयोजित संचालन बोर्ड की बैठक में स्वीकृति देने के ...

    17. *
    18. राजस्थान में हर तरफ विकास ही विकास - केबीनेट ...

    19. Pressnote.in-3 hours ago

    20. बांसवाडा, जनजाति क्षेत्राीय विकास, ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री महेन्द्रजीतसिंह मालवीया ने कहा कि पंचायती राज के सशक्तीकरण और ग्रामीण विकास ने राजस्थान के गांवों व गरीबों के उत्थान का ऐतिहासिक कीर्तिमान ...

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    22. ग्रामीण विकास मंत्री का स्वागत

    23. दैनिक जागरण-04-Sep-2013

    24. जागरण संवाददाता, बोकारो : राज्य के श्रम, ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज मंत्री चंद्रशेखर दुबे के बोकारो पहुंचने पर उनका जगह-जगह स्वागत किया गया। पेटरवार में चैंबर के अध्यक्ष ब्रजेश मिश्रा के आवास पर भी वे गए। कसमार प्रखंड के ...

    25. ग्रामीण विकास पर खर्च होंगे 540 करोड़ : रखड़ा

    26. दैनिक जागरण-01-Sep-2013

    27. ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री सुरजीत ¨सह रखड़ा ने कहा है कि राज्य में नई पंचायतों का गठन होने के बाद गावों के विकास के लिए शिअद-भाजपा सरकार 540 करोड़ रुपये की ग्राट जारी करेगी, ताकि ग्रामीणों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध ...

    28. *
    29. ग्रामीण विकास के बिना विकास की कल्पना अधूरी

    30. दैनिक जागरण-06-Sep-2013

    31. इटावा : ग्रामीण विकास के बिना संपूर्ण विकास की कल्पना संभव नहीं है। सहकारिता का ग्रामीण विकास में विशेष योगदान है। यह बात ब्लाक प्रमुख बढ़पुरा प्रदीप सिंह चौहान ने कही। वे साधन सहकारी समिति चांदनपुर की नवनिर्मित ...

    32. *
    33. ' भूमि अधिग्रहण कानून उद्योग विरोधी नहीं'

    34. देशबन्धु-08-Sep-2013

    35. केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इन आशंकाओं को निराधार बताया है कि नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम औद्योगीकरण और शहरीकरण के खिलाफ है। श्री रमेश ने आज यहां संवाददाताओं से कहा कि इस अधिनियम में निजी जमीन खरीदने पर कोई रोक ...

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    38. एक्सएलआरआइ छात्रों ने खींचा ग्रामीण विकास का ...

    39. दैनिक जागरण-31-Aug-2013

    40. जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : यह उनके अध्ययन का हिस्सा भी था और समाज के लिए सरोकार भी जेवियर लेबर रिलेशंस इंस्टीट्यूट (एक्सएलआरआइ) के पीजीडीएम सत्र 2013-16 के छात्रों ने पटमदा प्रखंड के तीन गांवों में जाकर विस्तृत अध्ययन ...

    41. *
    42. पार्टी लाइन के खिलाफ गए सिद्धू, राजनाथ के मना ...

    43. आज तक-3 hours ago

    44. वहीं चंडीगढ़ पहुंचे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि सिद्धू पहले कांग्रेस में शामिल होने वाले थे, फिर बीजेपी में शामिल होकर उन्होंने पीठ में छुरा घोंप दिया. रमेश ने पत्रकारों से कहा, 'मैंने बार-बार उनसे ...

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    47. लोन के लिए छमाही किश्त का प्रस्ताव

    48. दैनिक भास्कर-57 minutes ago

    49. मध्य प्रदेश के ग्रामीण विकास विभाग ने अपने प्रस्ताव में मांग की है कि सीएआरएचएम के अंतर्गत जिन लोगों ने लोन लिया है, उनके लोन को फसल चक्र खत्म होने के बाद ही एनपीए माना जाये। अभी मासिक किस्त नियमित न चुकाने पर ही उनका ...

    50. स्वाई को गृह, राजौरा को प्रमुख सचिव कृषि बनाया

    51. दैनिक भास्कर-8 hours ago

    52. रवींद्र कुमार पस्तोर : रोजगार गारंटी परिषद के सचिव के साथ-साथ पंचायत एवं ग्रामीण विकासविभाग के पदेन सचिव होंगे। शिवशेखर शुक्ला : वेयरहाउसिंग कापरेरेशन के एमडी के साथ-साथ अतिरिक्त कार्यभार के रूप में सहकारी विपणन संघ के ...

    53. राज्य सरकार ने किया गांवों का विकास- शिक्षा ...

    54. Ajmernama-11 hours ago

    55. ग्रामीण क्षेत्रों में दर्जनों विकास योजनाएं लागू की गई है। मुख्यमंत्री वृद्घावस्था पेंशन योजना, मुख्यमंत्री नि:शुल्क दवा व जाँच योजना, मुख्यमंत्री आवास योजना, ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, पानी और बिजली की योजनाओं के ...

    56. +

    57. Show more

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    59. प्रभात खबर

    60. राष्ट्रपति ने दी भूमि अधिग्रहण विधेयक को मंजूरी

    61. Zee News हिन्दी-15 hours ago

    62. इस बीच, ग्रामीण विकास मंत्रालय नये कानून के लिए नियम तय करने की प्रक्रिया में है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि नियमों को दो माह में अधिसूचित कर दिया जायेगा। उक्त नियमों के बारे में विभिन्न पक्षों से विचार ...

    63. +

    64. Show more

    65. रियल्टी में आएगी मॉल की बहार

    66. Business Standard Hindi-14 hours ago

    67. रिटेल फोरम में डेवलपर्स को ग्रामीण इलाके में मॉल बनाने की सलाह देते हुए ग्रामीण विकास मंत्री कमलनाथ ने कहा कि लोग मॉल में जाना चाह रहे हैं, छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों के लोग मॉल में खरीदारी के लिए आने लगे हैं इसीलिए ...

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    69. मंत्री ने किया सिद्धू के बारे में एक चौंकाने ...

    70. अमर उजाला-6 hours agoShare

    71. अमृतसर से भाजपा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू को वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कांग्रेस में शामिल करने की तैयारी की थी। इसके लिए पूरा ताना-बाना बुन लिया गया था। कांग्रेस के ...

    1. सभी पंचायतों में नियुक्त होंगे कंप्यूटर ऑपरेटर ...

    2. दैनिक जागरण-16 hours ago

    3. यह जानकारी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास मंत्री अनिल शर्मा ने मंडी में जिला परिषद सदस्यों की बैठक की अध्यक्षता करते हुए दी। उन्होंने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं को सुदृढ़ करने के लिए राजीव गांधी पंचायती राज सशक्तीकरण ...

    4. कल से सिद्धू आमरण अनशन पर

    5. प्रभात खबर-15 hours ago

    6. दूसरी ओर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने चंडीगढ़ में कहा कि उन्होंने सिद्धू को भाजपा में शामिल होने के संबंध में चेतावनी दी थी. रमेश ने आज यहां संवाददाताओं से कहा, ''मैंने बार-बार उनसे (सिद्धू) से पूछा था कि आप ...

    7. एकीकृत जलागम परियोजना के कार्यान्वयन में अपनाएं ...

    8. दैनिक जागरण-16 hours ago

    9. उन्होंने कहा कि यदि इस प्रकार उत्पादित होने वाले उत्पादों की ब्राडिंग की जाए तो इससे ग्रामीण क्षेत्रों की... इसकी सफलता को देखते हुए केंद्र सरकार ने एकीकृत जलागम प्रबंधन परियोजना को प्रदेश मेंग्रामीण विकास एजेंसी के ...

    10. ध्वस्त हो चुकी जिंदगी भी पैरों पर खड़ी हो सकती है

    11. दैनिक भास्कर-39 minutes ago

    12. करीब 50 गांवों के 25,000 ग्रामीणों को इस ट्रस्ट की ओर से मुफ्त में स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग दी जा चुकी है। ... इसके ट्रेनिंग सेंटरों में वेब डिजाइन, गोताखोरी, तैराकी, कंप्यूटर, इंग्लिश एजुकेशन, आध्यात्मिक विकास, सामाजिक ...

    13. *
    14. लापरवाह अफसरों को एक माह का अल्टीमेटम

    15. दैनिक जागरण-3 hours ago

    16. उक्त बातें शुक्रवार को प्रदेश में चीनी उद्योग एवं गन्ना विकास विभाग के प्रमुख सचिव तथा प्रदेश शासन द्वारा बस्ती जनपद के ... भटनागर ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना से बन रहे भवनों के निर्माण व अपर निदेशक स्वास्थ्य ...

    17. *
    18. ग्रामीणों ने डीएम की मेज पर बजाई ईट

    19. दैनिक जागरण-10 hours agoShare

    20. शिकायतें सुनने के दौरान ही टोडरपुर विकास खंड के ग्राम रायपुर से आए ग्रामीणों ने झोले से ईट व अन्य निर्माण सामग्री निकाल कर डीएम की मेज पर रख दी। यह देख कर वहां मौजूद लोग सकते में आ गए। पूछने पर ग्रामीणों राकेश, रामसरन, ...


    परिभाषा और राज्यवार सूची

    भारत सरकार अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए प्रयासरत है जो कि देश की आबादी का आठ प्रतिशत हिस्सा हैं। इनमें से 18 लाख आदिम जनजाति समूह के हैं।

    दसवीं पंचवर्षीय योजना और 2006-07 की वार्षिक योजना का उद्देश्य अनुसूचित जनजाति के सामाजिक, आर्थिक सशक्तीकरण और सामाजिक न्याय की त्रिस्तरीय व्यवस्था द्वारा इन्हें मजबूत बनाना है। दसवीं योजना के तहत 5,754 करोड़ रुपए योजना के लिए स्वीकृत किए गए जबकि 2006-07 की अवधि के लिए 1,760.19 करोड़ रुपए प्रस्तावित किए गए हैं।

    पांचवी पंचवर्षीय योजना के दौरान अपनाई गई जनजातीय उपयोजना का विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी अनुपालन कर रही हैं। जनजातीय उपयोजना को दी जा रही विशेष केंद्रीय सहायता के अतिरिक्त जनजातीय कल्याण और विकास के लिए चलाई जा रही विशेष योजनाओं के लिए राज्य सरकारों को अनुदान भी प्रदान किया जाता है।

    राष्ट्रीय जनजाति वित्त विकास निगम की स्थापना जनजातियों के आर्थिक विकास पर ध्यान देने के लिए किया गया है। वर्ष 2006-07 की अवधि के लिए इस मद में 30 करोड़ आवंटित किए गए हैं।

    जनजातीय विकास परियोजना, योजना और नीतियां

    जनजाति विकास सहकारिता निगम


    आजीविका

    राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन - ग्रामीण विकास मंत्रालय का उददेश्य ग्रामीण गरीब परिवारों को देश की मुख्यधारा से जोड़ना और विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये उनकी गरीबी दूर करना है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने जून, 2011 में आजीविका-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) की शुरूआत की थी। आजीविका-एनआरएलएम का मुख्य उददेश्य गरीब ग्रामीणों को सक्षम और प्रभावशाली संस्थागत मंच प्रदान कर उनकी आजीविका में निरंतर वद्धि करना, वित्तीय सेवाओं तक उनकी बेहतर और सरल तरीके से पहुंच बनाना और उनकी पारिवारिक आय को बढ़ाना है। इसके लिए मंत्रालय को विश्व बैंक से आर्थिक सहायता मिलती है।

    आजीविका-एनआरएलएम ने स्व-सहायता समूहों तथा संघीय संस्थानों के माध्यम से देश के 600 जिलों, 6000 प्रखंडों, 2.5 लाख ग्राम पंचायतों और छह लाख गांवों के 7 करोड़ ग्रामीण गरीब परिवारों (बीपीएल) को दायरे में लाने का और 8 से 10 साल की अवधि में उन्हें आजीविका के लिए आवश्यक साधन जुटाने में सहयोग देने का संकल्प किया है, जो एक कार्यक्रम के माध्यम से पूरा होगा। इसके अतिरिक्त गरीब जनता को अपने अधिकारों और जनसेवाओं का लाभ उठाने में, तरह तरह के जोखिम उठाने में और सशकितकरण के बेहतर सामाजिक संकेतकों को समझने में मदद मिलेगी। आजीविका-एनआरएलएम इस बात में विश्वास रखता है कि गरीबों की सहज क्षमताओं का सदुपयोग हो और देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था में उनका योगदान हो, जिसके लिए उनकी सूचना, ज्ञान, कौशल, संसाधन, वित्त तथा सामूहिकीकरण से जुड. क्षमताएं विकसित की जाएं।


    Major and Medium Irrigation Projects

    Irrigation projects with a Culturable Command Area (CCA) between 2,000 and 10,000 hectares are classified as medium projects and those with CCA of more than 10,000 hectares as major projects. The expenditure incurred on major and medium projects and the irrigation potential created during various plan periods is indicated below:

    * Provisional and are subject to change.

    Period

    Outlay/expenditure (Rs. in crore)

    Potential created (million hectares)

    Cumulative (million hectares)

    Pre-Plan period

    Not available

    9.70

    9.70

    First Plan (1951-56)

    376

    2.50

    12.20

    Second Plan (1956-61)

    380

    2.13

    14.33

    Third Plan (1961-66)

    576

    2.24

    16.57

    Annual Plans (1966-69)

    430

    1.53

    18.10

    Fourth Plan (1969-74)

    1,242

    2.60

    20.70

    Fifth Plan (1974-78)

    2,516

    4.02

    24.72

    Annual Plans (1978-80)

    2,079

    1.89

    26.61

    Sixth Plan (1980-85)

    7,369

    1.09

    27.70

    Seventh Plan (1985-90)

    11,107

    2.22

    29.92

    Annual Plans (1990-92)

    5,459

    0.82

    30.74

    Eighth Plan (1992-97)

    21,669

    2.22

    32.96

    Ninth Plan (1997-2002)

    42,968

    4.10

    37.06

    Tenth Plan outlay (2002-2007)

    71,213

    6.50 (Target)*

    43.56

    Source: National Portal Content Management Team, Reviewed on: 17-02-2011

    Essential Commodities Act, 1955

    The Essential Commodities Act, 1955 was enacted to ensure the easy availability of essential commodities to consumers and to protect them from exploitation by unscrupulous traders. The Act provides for the regulation and control of production, distribution and pricing of commodities which are declared as essential for maintaining or increasing supplies or for securing their equitable distribution and availability at fair prices. Exercising powers under the Act, various Ministries/Departments of the Central Government and under the delegated powers, the State Governments/UT Administrations have issued orders for regulating production, distribution, pricing and other aspects of trading in respect of the commodities declared as essential. The enforcement/ implementation of the provisions of the Essential Commodies Act, 1955 lies with the State Governments and UT Administrations.

    As per the decisions of the Conference of Chief Ministers held on 21 May 2001, a Group of Ministers and Chief Ministers had been constituted which recommended that the regulatory mechanism under the Essential Commodities Act, 1955 should be phased out. Accordingly, the restrictions like licensing requirement, stock limits and movement restrictions have been removed from almost all agricultural commodities. Wheat, pulses and edible oils, edible oilseeds and rice being exceptions, where States have been permitted to impose some temporary restrictions in order to contain price increase of these commodities.

    The list of essential commodities has been reviewed from time to time with reference to the production and supply of these commodities and in the light of economic liberalisation in consultation with the concerned Ministries/Departments administering these commodities. The Central Government is consistently following the policy of removing all unnecessary restrictions on movement of goods across the State boundaries as part of the process of globalisation simultaneously with the pruning of the list of essential commodities under the said Act to promote consumer interest and free trade. The number of essential commodities which stood at 70 in the year 1989 has been brought down to 7 at present through such periodic reviews.

    In conformity with the policy of the Government towards economic liberalisation, Department of Consumer Affairs is committed to the development of agriculture and trade by removing unnecessary controls and restrictions to achieve a single Indian Common Market across the country for both manufactured and agricultural produce and to encourage linkage between agriculture and industry. With this object in view, this Department introduced the Essential Commodities (Amendment) Bill, 2005 in the Parliament in the winter session of 2005 to enable the Central Government to prune the list of essential commodities to the minimum by deleting all such commodities which have no relevance in the context of present improved demand and supply position and to facilitate free trade and commerce. Only those commodities considered essential to protect the interest of the farmers and the large section of the people "below the poverty line" are proposed to be retained under the Essential Commodities Act, 1955.

    The Prevention of Black-marketing and Maintenance of Supplies of Essential Commodities Act, 1980 is being implemented by the State Governments/UT Administrations for the prevention of unethical trade practices like hoarding and black-marketing. The Act empowers the Central and State Governments to detain persons whose activities are found to be prejudicial to the maintenance of supplies of commodities essential to the community. Detentions are made by the States/UTs in selective cases to prevent hoarding and black-marketing of the essential commodities. As per reports received from the State Governments, 119 detention orders were issued under the Act during the year 2007. The Central Government and the State Governments also have the power to modify or revoke the detention orders. The representations made by or on behalf of the persons ordered for detention are considered and decided by the Central Government.

    In the context of unprecedented rise in prices of some essential commodities in the mid 2006, there had been wide spread concern from various corners for taking immediate steps to mitigate the rising trend of prices of essential commodities. Representations from the Chief Ministers of Punjab and Delhi and also from the Governments of Andhra Pradesh, Rajasthan and Maharashtra were received for restoration of powers under the Essential Commodities Act, 1955 for undertaking dehoarding operations in view of the assumption that there is speculative holding back of stocks particularly of wheat and pulses in anticipation of further rise in prices. Central Government has already taken a number of steps to control the price rise in essential commodities by trying to augment supply including through imports by reducing the duty level on import of both wheat and pulses to zero.

    The situation was further reviewed by the Government and it was decided with the approval of the Cabinet to keep in abeyance some provisions in the Central Order dated 15.2.2002 for a period of six months with respect to wheat and pulses (whole and split), so as to tackle the crises on availability and prices of these commodities. Accordingly, the Government order No.1373 (E) dated 29.8.2006 by virtue of which the words or expressions made in respect of purchase, movement, sale, supply, distribution or storage for sale in the "Removal of (Licensing requirements, Stock limits and Movement Restrictions) on Specified Foodstuffs Order, 2002" notified on 15.02.2002 have been kept in abeyance for commodities namely wheat and pulses for a period of six months. The transport, distribution or disposal of wheat and pulses (whole or split) to places outside the State as well as import of these commodities have been kept outside the purview of the aforesaid Order of 29.08.2006. The Order of 29.08.2006 was initially in force for a period of 6 months, which was extended thrice for a period of 6 months each by Central Notifications dated 27.02.2007, 31.8.2007 and 28.02.2006. The Order permitted State/UT Governments to fix stock limits in respect of wheat and pulses.

    To enable the State Governments/UT Administrations to continue to take effective action for undertaking de-hoarding operations under the Essential Commodities Act, 1955, the price situation was further reviewed by the Government and its has been decided with the approval of the Cabinet to further impose similar restrictions by keeping in abeyance some provisions of the Central Order dated 15.02.2002 for a period of one year with respect to edible oils, oilseeds and rice, so as to tackle the rising trend of prices as well as to ensure availability of these commodities to the common people. However, it has also been decided that there shall not be any restriction on the inter-state movement of these items and that imports of these items would also be kept out of the purview of any controls by the State Governments.

    Source: National Portal Content Management Team, Reviewed on: 12-01-2011



    ग्रामीण विकास

    भारत गांवों का देश है और उसमें से लगभग आधे गांवों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है। आजादी के बाद से ग्रामीण जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिए ठोस प्रयास किए गए हैं, इसलिए ग्रामीण विकास विकास की एकीकृत अवधारणा रही है और सभी पंचवर्षीय योजनाओं में गरीबी उन्मूलन की सर्वोपरी चिंता रही है। ग्रामीण विकास कार्यक्रम में निम्नलिखित का समावेश है:

    • ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं जैसे स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाओं, सड़क, पेयजल, विद्युतीकरण आदि का प्रावधान

    • ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता में सुधार

    • सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए सामाजिक सेवाओं जैसे स्वास्थ्य और शिक्षा का प्रावधान

    • कृषि उत्पादकता बढ़ाकर, ग्रामीण रोजगार उपलब्ध कराकर ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए योजनाओं को लागू करना

    • ऋण और सब्सिडी के माध्यम से उत्पादक संसाधन उपलब्ध कराकर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्तिगत परिवारों और स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) के लिए सहायता

    भारत निर्माण

    भारत निर्माण योजना ग्रामीण इलाकों के लिए बनाई गई एक समयबद्ध योजना है। जिसके तहत सिंचाई, ग्रामीण आवास, जल प्रदाय, संचार तथा विद्युतीकरण आदि के क्षेत्र में विकास कार्य किया जाना प्रस्तावित है।

    ग्रामीण सड़कें

    ग्रामीण आधारभूत ढांचे का उन्‍नयन करने के लिए, सरकार ने 1000 से अधिक की जनसंख्‍या वाले 38,484 से अधिक ग्रामों को तथा पहाड़ी और जनजातीय क्षेत्रों में 500 से अधिक की जनसंख्‍या वाली सभी 20,867 आबादियों के लिए सड़क संयोजकता की व्‍यवस्‍था करने के एक प्रस्‍ताव का निरूपण किया है।

    भारत निर्माण के लक्ष्‍यों को हासिल करने के लिए, वर्ष 2007 तक 1,46,185 कि.मी. लंबी सड़क के निर्माण का प्रस्‍ताव है। इससे देश में 66,802 असंयोजित पात्र आबादियों को लाभ होगा। खेतों को बाजार से जोड़ने के लिए, विद्यमान 1,94,132 कि.मी. लंबे मार्गों के उन्‍नयन करने का भी प्रस्‍ताव है। इसे हासिल करने के लिए लगभग 48,000 करोड रुपए के निवेश का प्रस्‍ताव है।

    सड़क क्षेत्र में अनुसंधान और विकास (आर एवं डी) का मुख्‍य उद्देश्य विश्‍वस्तरीय एक सड़क संरचना का विकास करना है। इस कार्यनीति के विभिन्‍न संघटक हैं - अभिकल्‍पन में सुधार, निर्माण तकनीकों का आधुनिकीकरण, नवीनतम रुझानों के अनुरूप परिष्‍कृत सामग्री का प्रयोग, नवीन प्रौद्योगिकियों के विकास तथा प्रयोग को प्रोत्‍साहित करना, मूल्‍यांकन संबंधी अनुसंधान और विकास अध्‍ययन आदि।

    इन विषयों का प्रचार प्रसार नए दिशा निर्देशों के प्रकाशन, आचार संहिता, अनुदेशों/परिपत्रों, आधुनिकतम रिपोर्टों के संकलन तथा संगोष्ठियों/प्रस्‍तुतीकरणों इत्‍यादि के माध्‍यम से किया जाता है। विभाग द्वारा प्रायोजित अनुसंधान योजनाएं सामान्‍यत: "अनुप्रयुक्‍त" स्‍वरूप की होती हैं जिनके एक बार पूरा हो जाने पर प्रयोक्‍ता अभिकरणों/विभागों द्वारा उन्‍हें अपनाना होगा। इसके अंतर्गत शामिल क्षेत्र हैं - सड़क, सड़क परिवहन, पुल, यातायात तथा संवहन तकनीक इत्‍यादि। विभाग योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए विभिन्‍न अनुसंधान संस्‍थाओं, अकादमिक संस्‍थाओं तथा विश्‍वविद्यालयों की सहायता लेता है। वर्ष 2007-08 में अनुसंधान और विकास के लिए 600.00 लाख रुपए के व्‍यय की व्‍यवस्‍था की गई है। चल रही कुछ प्रमुख योजनाएं निम्‍न प्रकार हैं -

    • सड़कें:

      • जी आई एस आधारित राष्‍ट्रीय राजमार्ग सूचना प्रणाली का विकास

      • राजमार्ग इंजीनियरी में मृदा को बांधकर रखने की तकनीकों के लिए दिशानिर्देश

      • सड़क संरचना पर अतिभार के प्रभावों का प्रायोगिक अध्‍ययन

      • परिष्कृत बंधकों के साथ बिटुमिनस मिश्रण के प्रदर्शन की जांच

      • उपकरण और प्रयोगशाला परीक्षणों की सहायता से उच्च यातायात दबाव क्षेत्र के कठोर फुटपाथों के प्रदर्शन का अध्ययन करना

    • उपर्युक्‍त के अतिरिक्त, राजमार्ग प्रणाली के विकास के क्षेत्र में संस्‍थान में मंत्रालय पीठ की स्‍थापना हेतु आईआईटी, रुड़की के प्रस्‍ताव को भी अनुमोदित कर दिया गया है।

    • पुल:

      • पुलों के लिए केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में एक स्वतंत्र और पूर्ण सुविधासंपन्न परीक्षण प्रयोगशाला का निर्माण करना।

    ग्रामीण आवास

    आवास मानव अस्तित्व के लिए बुनियादी आवश्यकताओं में से एक है। आश्रयरहित एक व्यक्ति के लिए घर का का मिलना उसके अस्तित्व में एक महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन लाता है, उसे एक पहचान तो मिलती ही है साथ ही वह सामाजिक परिवेश का एक अंग भी बन जाता है।

    ग्रामीण विकास मंत्रालय इंदिरा आवास योजना की शुरूआत गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को वित्तीय सहायता प्रदान कर पक्‍का मकान बनवाती है। इस योजना से संबंधित और इसके प्रदर्शन की जानकारी नीचे दी गई है :

    इंदिरा आवास योजना (आईएवाय)

    गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और बंधुआ मजदूरों के निवास स्थलों के निर्माण और उन्नयन के लिए वर्ष 1985-86 से भारत सरकार वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए इंदिरा आवास योजना को कार्यान्‍वित कर रही है। वर्ष 1993-94 से इस योजना के दायरे को बढ़ा कर इस योजना के तहत गैर अनुसूचित जाति, जनजाति के गरीब परिवारों को भी शामिल किया गया। लेकिन योजना के तहत कुल आवंटित राशि के 40% से अधिक की सहभागिता इन्हें नहीं प्रदान की जाएगी। इस योजना का विस्‍तार सेवानिवृत्त सेना और अर्द्धसैनिक बल के मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिवारों तक भी किया गया है। योजना के तहत आवंटित किए जाने वाले 3 प्रतिशत मकान शारीरिक और मानसिक विकलांगों के लिए वर्ष 2006-07 आरक्षित किए गए हैं। प्रत्‍येक राज्‍य में गरीबी रेखा के नीचे के अल्‍पसंख्‍यकों को भी इस योजना का लाभ प्रदान के लिए चिह्नित किया जा रहा है।

    योजना के तहत प्रदान की जा रही सहायता में केंद्र और राज्‍य की हिस्सेदारी 75:25 के अनुपात में होगी। चूंकि योजना का उद्देश्य आवासविहीन लोगों की संख्या में कमी लाना है इसलिए योजना आयोग द्वारा राज्यस्तरीय आवंटन में 75% आवासों की कमी को और 25% गरीबी को वरीयता दी गई है। जिलास्तरीय आवंटन में एक बार फिर 75% वरीयता आवासों की कमी को तथा शेष 25% संबंधित राज्य की अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को दी गई है।

    एक बार आवंटन राशि तथा लक्ष्य तय होने के बाद जिला ग्रामीण विकास एजेंसी/जिला परिषद इंदिरा आवास योजना के तहत ग्रामवार बनाए जाने वाले मकानों की संख्या तय करती हैं और इस आशय की जानकारी संबंधित गांवों को प्रेषित कर दी जाती है। इसके बाद ग्राम सभाएं योजना के लाभार्थियों का चयन स्थायी इंदिरा आवास योजना प्रतीक्षा सूची से करती हैं। इसके बाद किसी अन्य उच्च अधिकारी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती।

    इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत दी जाने वाली राशि को 1 अप्रैल, 2008 से मैदानी इलाकों में प्रति गृह निर्माण सहायता को 25,000 रुपए से बढ़ाकर 35000 रुपए और पहाड़ी/पर्वतीय क्षेत्रों में 27,500 रुपए से बढ़ाकर 38,500 रुपए कर दिया गया है। कच्चा मकान को पक्का बनाने के लिए प्रति मकान 12,500 रुपए की राशि को बढ़ाकर 15000 रुपए कर दिया गया है। इसके अलावा वित्त मंत्रालय ने भारतीय रिजर्व बैंक से निवेदन किया है कि इंदिरा आवास योजना के तहत प्रति मकान दिए जाने वाले लिए 20,000 रुपए तक के ऋण को 4% की दर पर जारी करे।

    योजना के तहत आवासीय इकाई परिवार की महिला सदस्य के नाम से ही आवंटित होनी चाहिए। विकल्प के तौर पर मकान को महिला और पुरूष (पति या पत्नी) दोनों के नाम पर भी आवंटित किया जा सकता है। केवल उसी स्थिति में परिवार के पुरूष सदस्य के नाम मकान आवंटित किया जाना चाहिए जबकि परिवार में कोई योग्य महिला सदस्य न हो।

    शौचालय, धुआं रहित चूल्हा, उपयुक्त नाली प्रत्येक इंदिरा आवास योजना के घरों में होने चाहिए। लाभार्थी चाहे तो इंदिरा आवास मकान के लिए अलग से शौचालय का निर्माण कर सकता है।

    मकान का निर्माण करना लाभार्थी की व्यक्तिगत जवाबदेही है। किसी ठेकेदार की सहभागिता को प्रतिबंधित किया गया है।

    इंदिरा आवास योजना के तहत बनाए जाने वाले आवासों के लिए किसी तरह का विशेष डिजाइन निर्धारित नहीं किया गया है। डिजाइन, तकनीक और सामग्री का चयन पूरी तरह लाभार्थी के ऊपर निर्भर करता है।

    इंदिरा गांधी आवास योजना के तहत 31 मई, 2008 तक 181.51 लाख आवासों का निर्माण किया गया तथा इस पर 36900.41 करोड़ रुपए व्यय हुए हैं।

    वर्ष 2007-08 के दौरान प्रदर्शन

    वर्ष 2007-2008 के दौरान केंद्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में आवास के लिए 40322.70 करोड़ रुपए आवंटित किए। इंदिरा आवास योजना के तहत इस दौरान 21.27 लाख मकानों का निर्माण/मरम्मत का लक्ष्य था, जबकि सरकार ने 19.88 लाख मकानों के निर्माण/मरममत के लिए 5458.01 करोड़ रुपए (राज्य सरकार के योगदान सहित) व्यय किए गए।

    वर्ष 2008-09 के दौरान प्रदर्शन

    2008-09 के लिए केंद्र ने 5,645.77 करोड़ रुपए जारी किए, इससे 21.27 लाख मकान इंदिरा आवास योजना के तहत बनाने का लक्ष्य है। इसमें से 1,694.48 करोड़ रुपए पहली किस्त के रूप मे दिए जा चुके हैं और 31 मई 2008 तक 85879 घरों का निर्माण किया गया है।

    सिंचाई

    भारत निर्माण के सिंचाई मद के अंतर्गत चिन्हित किए गए बड़े और मझोले आकार की सिंचाई परियोजना अभियानों को चार वर्षों (2005-06 से 2008-09) के अंदर पूरा कर अतिरिक्त एक करोड़ हेक्टेयर भूमि हेतु सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने क लक्ष्य रखा गया। 42 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई क्षमता का निर्माण चल रहे अभियानों को शीघ्रतापूर्वक पूरा करके किया जाएगा।

    सिंचाई क्षमता के निर्माण और उनके दोहन में एक बड़ी विषमता है। भारत निर्माण के तहत कमान क्षेत्र विकास, जल प्रबंधन के साथ-साथ विस्तार, पुनरोद्धार और नवीनीकरण योजनाओं के द्वारा 10 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता की बहाली करना है।

    देश के ऐसे कई हिस्से हैं जहां भूमिगत जल संसाधन के अच्छे भंडार हैं लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सका है। ऐसे भूमिगत जल भंडारों के विकास द्वारा 28 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता का विकास करना।

    शेष 10 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के लिए सतही प्रवाहशील जल के उपयोग वाली छोटी योजनाओं का सहारा लिया जाएगा। इसके अलावा जल भंडारों के मरम्मत, पुनरोद्धार और बहाली तथा छोटी सिंचाई योजनाओं के विस्तार, नवीनीकरण और पुनरोद्धार द्वारा भी 10 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता विकसित की जाएगी।

    टेलीफोन सेवा

    ग्रामीण बुनियादी ढांचे के सुधार में बेहतर टेलीफोन सेवा की पहुंच का महत्वपूर्ण योगदान होता है। भारत निर्माण योजना के तहत जिन 66,822 राजस्व गांवो में सार्वजनिक फोन नहीं हैं, उन्हें भी शामिल किया जाएगा। इनमें से 14,183 सुदूर एवं दूर-दराज के गांवों में कनेक्टिविटी डिजिटल उपग्रह फोन टर्मिनल के माध्यम से उपलब्ध कराई जाएगी। इन ग्रामीण सार्वजनिक फोनों के लिए लागत और परिचालन व्यय राशि सार्वभौमिक सेवा दायित्व निधि से प्रदान की जाएगी।

    ग्रामीण जल प्रदाय

    केंद्र सरकार ने ग्रामीण मूलभूत सुविधाओं को विकास करने के उद्देश्‍य से 2005 में भारत निर्माण कार्यक्रम की शुरूआत की है जो वर्ष 2005-06 से 2008-09 तक की अवधि में लागू किया जा चुका है। ग्रामीण पेयजल भारत निर्माण कार्यक्रम के छ: घटकों में से एक है। भारत निर्माण को लागू की गई इस अवधि में जहां जलापूर्ति बिल्‍कुल नहीं थी ऐसे 55,067 क्षेत्रों और 3.31 लाख ऐसे इलाकों जहां आंशिक रूप से जलापूर्ति की जा रही थी, शामिल करके पेयजल उपलब्‍ध कराया गया। 2.17 लाख ऐसे इलाकों में स्‍वच्‍छ पेयजल उपलब्ध कराया गया जहां गंदे पानी सप्‍लाई की जाती थी।

    पानी की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इसके बाद लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित पानी की समस्या से निपटने का लक्ष्य बनाया गया है। एक बार जिन बस्तियों को पेय जल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित की जा चुकी है उन्हें पुनः ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े इसके लिए जल स्रोतों के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। गांवों और बस्तियों में पेय जल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भू-गर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था करना।

    गांवों में पेय जल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन, कार्यान्वयन और मरम्मत की ग्रामीणस्तर पर विकेंद्रीकृत, मांग आधारित और समुदाय प्रबंधित योजना के स्वजलधारा प्रारंभ की गई है। पेज जल में सामुदायिक भागीदारी को और बढ़ाने तथा मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल गुणवत्ता निगरानी और सतर्कता कार्यक्रम फरवरी, 2006 में प्रारंभ किया गया। इसके तहत हर ग्राम पंचायत से पांच व्यक्तियों को पेय जल गुणवत्ता की नियमित निगरानी के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। इसके लिए शत प्रतिशत आर्थिक सहायता, जिसमें पानी परीक्षण किट भी शामिल है, प्रदान की जाती है।

    ग्रामीण विद्युतीकरण

    ऊर्जा मंत्रालय भारत सरकार ने अप्रैल 2005 में सभी गांवों और बस्तियों का चार वर्षों में विद्युतीकरण करने के लिए राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना लागू की। इसके तहत हर घर तक बिजली पहुंचाया जाएगा। इस योजना को भी भारत निर्माण योजना के अधीन लाया गया है।

    राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के लिए बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी जिसके लिए ग्रामीण विद्युत वितरण रीढ़ (आरईडीबी) स्थापित करने की जरूरत होगी जिसके लिए कम से कम एक 33/11केव्ही उप स्टेशन, ग्रामीण विद्युतीकरण ढांचा जिसके लिए हर गांव में या केंद्र पर कम से कम एक वितरण ट्रांसफॉर्मर और जहां ग्रिड नहीं लगाई जा सकती वहां उत्पादन सुविधा के साथ ही स्वतंत्र ग्रिडों की आवश्यकता होगी।

    गांवों में उपलब्ध कराई जा रही आधारभूत सुविधाएं कृषि और विभिन्न ग्रामीण गतिविधियों जैसे सिंचाई पंप सेट, लघु और मध्यम उद्योग, खादी एवं ग्रामोद्योग, शीत भंडार श्रृंखला, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आईटी आदि की जरूरतों को पूरा करेंगी। इससे संपूर्ण ग्रामीण विकास तो होगा ही साथ ही रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे तथा गरीबी दूर करने में भी मदद मिलेगी।

    योजना के क्रियान्वयन की केंद्रीय एजेंसी ग्रामीण विद्युतीकरण निगम लिमिटेड द्वारा पूंजी लागत में 90 प्रतिशत तक की सब्सिडी प्रदान की जा रही है। गरीबी रेखा से नीचे के घरों के विद्युतीकरण के लिए शत प्रतिशत सब्सिडी, 1500 रुपए प्रति आवास की दर से प्रदान की जा रही है।

    ग्रामीण वितरण प्रबंधन के लिए फ्रेचाइजी की मदद ली जा रही है। ग्रामीण विद्युतीकरण परियोजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उपक्रमों की मदद संबंधित राज्य प्राप्त कर सकते हैं।

    स्रोत: राष्‍ट्रीय पोर्टल विषयवस्‍तु प्रबंधन दल, द्वारा समीक्षित: 18-02-2011


    राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम

    राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा)- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट का क्रियान्‍वयन ग्रामीण विकास मंत्रालय- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट द्वारा किया जाता है जो कि सरकार के सबसे महत्‍वपूर्ण कार्यक्रमों में से एक है। इस योजना के तहत सरकार की गरीबों तक सीधे पहुंच रहेगी और विकास के लिए विशेष रूप से प्रोत्‍साहित किया जाएगा। राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम प्रत्‍येक ग्रामीण परिवार को 100 दिन का गारंटीशुदा अकुशल मजदूरी/रोजगार वित्तीय वर्ष में प्रदान किया जाएगा।

    यह अधिनियम 2 फरवरी, 2006 को लागू किया गया और इसे कई चरणों में लागू किया गया। पहले चरण में 200 सबसे पिछड़े जिलों में लागू किया गया। 2007-08 में दूसरी किस्‍त में 130 जिलों को जोड़ा गया। प्राथमिक लक्ष्‍य के अनुसार राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का शुरुआती पांच सालों में पूरे देश में विस्‍तार किया जाएगा। संपूर्ण राष्‍ट्र को एक सुरक्षित दायरे और मांग की दृष्‍टि से इस योजना का विस्‍तार 274 ग्रामीण जिलों में किया गया। 1 अप्रैल, 2008 में इसका तीसरा चरण आरंभ किया गया।

    राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहला कानून है। इसमें एक बड़े पैमाने पर रोजगार गारंटी प्रदान की जाती है। इस अधिनियम का लक्ष्‍य रोजगार को बढ़ाना है। इसका सीधा लक्ष्‍य है कि प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन द्वारा सही उपयोग और गरीबी के कारणों जैसे सूखा, जंगलों की कटाई, मिट्टी के कटाव आदि को रोकने के प्रयास द्वारा नरेगा को सही तरीके से विकास मे लगाना है। इस प्रक्रिया के द्वारा लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाना भी सरकार की जिम्‍मेदारी है।

    अधिकार आधारित ढांचे और मांग आधारित होने के कारण राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट पहले चलाए गए रोजगार कार्यक्रमों से बिल्कुल अलग है। विकेंद्रीकरण को मजबूत करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती में यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। योजना निर्माण, निगरानी और अनुपालन में पंचायती राज संस्थाओं को यह अधिनियम एक केंद्रीय भूमिका प्रदान करता है। इस अधिनियम की अनोखी बात समय पर रोजगार गारंटी और 15 दिन में मजदूरी का भुगतान किया जाना है। अधिनियम के अनुसार मजदूरी का 90 प्रतिशत केंद्र सरकार देगी या काम के अभाव में दिए जाने वाले बेरोजगारी भत्ते का वहन राज्य सरकार को करना होगा। इसका खर्च केंद्र सरकार द्वारा दिए गए बेरोजगारी भत्ते में से राज्य को स्वत: प्रबंध करना होगा तथा श्रम आधारित कार्यों को बढ़ावा देना तथा मशीनों और ठेकेदारों की भूमिका का न होना इस अधिनियम की अन्य खास बातें हैं। इस योजना में 33 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी को अनिवार्य बनाया गया है। पिछले दो सालों से अनुपालन रुझानों से अधिनियम की आधारभूत वस्तुनिष्ठता प्रमाणित होती है।

    रोजगार के अवसर बढ़ाना: 2007-08 में 330 जिलों के 3.39 करोड़ परिवारों को रोजगार और 143.5 करोड़ लोगों के लिए रोजगार उत्‍पत्ति की गारंटी दी गई। 2008-09 में जुलाई तक 253 करोड़ घरों को रोजगार और 85.92 करोड़ लोगों के लिए रोजगार उत्‍पत्ति की गारंटी प्रदान की गई।

    मजदूरी कमाने के जरिए वृद्धि करना और न्‍यूनतम मजदूरी का असरe: भारत के गरीब ग्रामीण के जीवनयापन स्रोतों को मजबूत कर मजदूरी कमाने के जरिए में वृद्धि कर, 2007-08 में 68 प्रतिशत से अधिक की (फंड) राशि का मजदूरों को मजदूरी देने के लिए उपयोग किया गया। 2008-09 में 73 प्रतिशत फंड (राशि) का उपयोग मजदूरी देने के लिए किया गया।

    गरीबों तक पहुंच में बढ़ोतरी: स्‍वयंलक्षित प्रकृति के इस कार्यक्रम में उच्‍च कार्य में अल्‍पसमूह की भागीदारी जैसे 2007-08 में अनुसूचित जाति/जनजाति (57%), महिलाएं (43%) और जुलाई 2008-09 में अनुसूचित जाति-जनजाति का (53%) और महिलाओं की (49%) भागीदारी रही है।

    ग्रामीण भारत के प्राकृतिक संसाधन को मजबूत करना:2007-08 में 17.88 लाख कार्यों का उत्तरदायित्‍व लिया गया। इनमें 49% जल संरक्षण में निर्मित किए गए हैं। 2008-09 के जुलाई तक 16.88 लाख कार्यों की जिम्‍मेदारी ली गई जिसमें 49% अवसर जल संरक्षण द्वारा उपलब्ध कराए गए।

    गरीबों का वित्तीय समावेश : केंद्र सरकार, राज्‍य सरकारों को मजदूरी का भुगतान बैंक या पोस्‍ट ऑफिस खातों से करने को प्रोत्‍साहित कर रही है। इसी कारण 2.9 करोड़ (जुलाई 2008 तक) नरेगा खाते बैंक और पोस्‍ट ऑफिस में मजदूरी भुगतान के लिए खोले गए हैं। मंत्रालय राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट के कामगारों को जनश्री बीमा योजना के तहत जीवन बीमा करवाने के लिए भी प्रोत्‍साहित कर रहा है।

    स्‍वतंत्र अध्‍ययन से मिल रहे प्रारंभिक साक्ष्यों से यह संकेत मिलता है कि वाटर हार्वेस्‍टिंग, निरीक्षण बांध, भूमिगत पानी के भराव, मिट्टी की नमी को बढ़ाने के प्रयासों, मिट्टी के कटाव को रोकने और लघु सिंचाई परियोजनाओं से खेतों की उत्‍पादकता बढ़ी है। विस्‍थापन पर रोक, बाजारों और सेवाओं तक ग्रामीण संपर्क कार्य द्वारा संपर्क बढ़ाने से परिवारों की आमदनी और आबादी के अनुपात के अनुसार महिलाओं की भी भागीदारी बढ़ी है तथा प्राकृतिक संसाधनों में वृद्धि हुई है।

    ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नरेगा जैसे कार्यक्रमों को लागू करके स्‍थानीय समुदायों को सुदृढ़ बनाया है जिससे उनमें जीवनयापन सुरक्षा में वृद्धि हुई है। मंत्रालय ने इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए विभिन्‍न कदम उठाए हैं। इसके तहत प्रतिभागी प्रबंधन का विकेंद्रीकरण, वितरण की प्रणाली में सुधार और लोगों के प्रति जवाबदेही शामिल है।

    इस योजना के प्रावधानों के प्रति लोगों को जागरूक करने, लोगों के अधिकारों और कार्यान्‍वयन प्रक्रिया के साथ तालमेल सुनिश्‍चित करने के उद्देश्‍य से राज्‍य, जिला, ब्‍लॉक और ग्राम पंचायत स्‍तर पर नागरिक संगठनों के योगदान के लिए रोजगार जागरुकता पुरस्‍कार की शुरूआत की गई है।

    मांग आधारित योजना को लागू करने हेतु क्षमता विस्तार

    मंत्रालय को नरेगा के कामकाज के लिए और योजना के प्रभावी कार्यान्‍वयन और कार्यनिष्‍पादन के लिए निपुण लोगों की आवश्‍यकता है। इसके लिए अब तक 6.2 लाख पंचायती राज अधिकारियों और 4.82 लाख सर्तकता और निगरानी अधिकारियो को जुलाई, 2008 तक प्रशिक्षित किया जा चुका है। केंद्र सरकार योजना के कार्यान्‍वयन के लिए योजना की जानकारी और सूचना देने, प्रशिक्षण, कार्ययोजना, सूचना प्रौद्योगिकी, योजना के लेखे-जोखे और कोष प्रबंधन के लिए राज्‍य सरकारों को हर तरह से तकनीकी सहायता उपलब्‍ध करा रही है।

    सूचना और प्रौद्योगिकी में वृद्धि

    राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट से जुड़ी वेब आधारित प्रबंधन सूचना पद्धति ग्रामीण परिवारों का सबसे बड़ा डाटाबेस है। इस सूचना पद्धति की मदद से ग्रामीण परिवारों का हिसाब रखना संभव हो सका। एमआईएस में सभी आवश्यक मानकों जैसे परियोजना के विभिन्‍न स्‍तरों का कार्य, मजदूरी भुगतान, रोजगार मुहैया करवाने के दिन, कार्य के दिन और कार्य में वृद्धि आदि की जानकारी आम लोगों के लिए उपलब्‍ध हैं। डाटा साफ्टवेयर की सहायता से सभी रिकॉर्डों की जांच की जा सकती है तथा अतिसक्रिय प्रबंधन हेतु रिपोर्ट का निर्माण भी इस प्रणाली से संभव है।

    पारदर्शिता और लोगों के बीच साख बनाने के लिए निगरानी विकसित करना

    निगरानी और मूल्‍यांकन: मंत्रालय ने विस्‍तारपूर्वक निरीक्षण पद्धति की स्‍थापना की है। इस वर्ष 260 राष्‍ट्रीय स्‍तर के निगरानीकर्ता और क्षेत्र अधिकारी प्रथम और द्वितीय चरण के 330 कार्यस्‍थलों का कम से कम एक बार दौरा अवश्‍य कर चुके हैं।

    योजना के प्रभावकारी निगरानी के लिए ब्‍लॉक स्‍तर पर कार्य का सौ प्रतिशत निरीक्षण, 10% जिला स्‍तर पर और 2% राज्‍य स्‍तर पर निरीक्षण किया जाना सुनिश्‍चित किया गया है।

    नरेगा सशक्तीकरण हेतु आगामी योजना

    संयोजन हेतु कार्य दल की स्थापना: राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, भारत निर्माण, जल संग्रहण आदि योजनाओं को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट के साथ जोड़कर योजना की प्रभावकारिता को और बढ़ाने के लिए मंत्रालय ने संभावना की तलाश के लिए कार्य दल गठित किया है। ये संयोजन प्रयास नरेगा, इसके कार्य के मूल्य संवर्धन के साथ स्थाई प्रयासों के निर्माण में सहायता और ग्रामीण क्षेत्रों में सुनियोजित और समन्वित सार्वजनिक निवेश की राह आसान बनाएंगे।

    स्रोत: राष्‍ट्रीय पोर्टल विषयवस्‍तु प्रबंधन दल, द्वारा समीक्षित: 18-02-2011


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