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Tuesday, August 28, 2012

हंगल का निधन: इतना ‘सन्नाटा’ क्यों है, भाई

हंगल का निधन: इतना 'सन्नाटा' क्यों है, भाई

Sunday, 26 August 2012 12:32

मुंबई, 26 अगस्त (एजेंसी) एक समय थियेटर की दुनिया के बेताज बादशाह ए के हंगल को फिल्मों में अभिनय करना कुछ खास पसंद नहीं था, लेकिन धीरे धीरे रूपहले पर्दे की यह दिलफरेब दुनिया उन्हें इतनी रास आई कि वह बहुत सी फिल्मों में कभी पिता, कभी दादा तो कभी नौकर का किरदार निभाते नजर आए।
रंगमंच से जुड़े होने के कारण हंगल के अभिनय में एक सहजता थी, जिसकी वजह से वह हर किरदार में ढल जाया करते थे। शोले फिल्म के एक डायलॉग ''इतना सन्नाटा क्यों है भाई'' से हंगल को नयी पीढ़ी भी बखूबी पहचानती है। हालांकि उन्होंने नयी पुरानी दर्जनों फिल्मों में छोटे बड़े किरदार निभाए।
उनकी कुछ खास फिल्मों की बात करें तो उनमें ''शौकीन'', ''नमक हराम'', ''आइना'', ''अवतार'', ''अर्जुन'', ''आंधी'', ''कोरा कागज'', ''बावर्ची'', ''चितचोर'', ''गुड्डी'', ''अभिमान'' और ''परिचय'' जैसी सदाबहार फिल्में शामिल हैं।
राजेश खन्ना की सफल फिल्मों की कतार में भी हंगल ने अपने सशक्त अभिनय की छाप छोड़ी। इनमें ''आप की कसम'', ''अमरदीप'', ''नौकरी'', ''थोड़ी सी बेवफाई'' और ''फिर वही रात'' का नाम लिया जा सकता है।
रहीम चाचा के किरदार में फिल्म शोले में हंगल की भूमिका हालांकि बहुत लंबी नहीं थी, लेकिन नेत्रहीन बूढ़े के रूप में अपने पोते को खोने की आशंका से उनकी लरजती आवाज और बेचारगी के एहसास में बोला गया एक संवाद ''इतना सन्नाटा क्यों है, भाई'' जैसे उन्हें एक नयी पहचान दे गया।
अपनी आत्मकथा, ''द लाइफ एंड टाइम आफ ए के हंगल'' में उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि किस तरह वह न चाहते हुए भी फिल्मी दुनिया में चले आए और लगातार ''भले आदमी'' के किरदार से निजात पाने की कोशिश करते रहे, जिसमें उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई।
हंगल ने लिखा है, ''मेरी फिल्मों में करियर बनाने की कोई इच्छा नहीं थी और मैं अपने थियेटर के काम से खुश था....हालात कुछ ऐसे बने जिन्होंने मुझे फिल्मों में धकेल दिया हालांकि इसे लेकर मुझे कोई अफसोस भी नहीं है। मैं उस अनजान सी दुनिया में पूरी तरह घुलमिल गया, जिसे लोग ''शो बिजनेस'' कहते हैं हालांकि यहां कई साल गुजारने के बावजूद मुझे लगता है कि मैं यहां के लिए बेगाना हूं।''
पेशावर में एक कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे अवतार विनीत किशन हंगल कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता रहे। उन्होंने यूनियन गतिविधियों में खूब भाग लिया और गिरफ्तार भी हुए।

पाकिस्तान की जेल में दो साल गुजारने के बाद 1949 में वह बम्बई चले आए। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 21 बरस थी और जेब में जमा पूंजी के नाम पर 20 रूपए थे।
हंगल इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन से जुड़ गए और शुरू में बलराज साहनी और कैफी आजमी जैसे अभिनेताओं के साथ मंच साझा किया।
वर्ष 1966 में फिल्म ''तीसरी कसम'' में हंगल को राजकपूर के बड़े भाई की भूमिका निभाने का मौका मिला। बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित इस फिल्म में कुछ कारणों से हंगल के दृश्यों को फिल्म से निकाल दिया गया।
इसके बाद हंगल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और 200 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने ज्यादातर फिल्मों में पिता, चाचा, दादा, नौकर आदि की भूमिकाएं निभाईं। उन्हें आम तौर पर बेबस और लाचार व्यक्ति की भूमिकाओं के लिए चुना गया और अपनी इस छवि से वह कभी निजात नहीं पा सके। वैसे उनकी कद काठी और चेहरे मोहरे के कारण उनपर इसी तरह की सहज सरल भूमिकाएं फबती भी थीं।
फिल्मी दुनिया के इस बुजुर्ग अभिनेता को 1993 में राजनीतिक विवाद का कारण भी बनना पड़ा। दरअसल उन्होंने अपने जन्मस्थल की यात्रा करने के लिए पाकिस्तान का वीजा मांगा। उन्हें मुंबई स्थित पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास से पाकिस्तानी दिवस समारोहों में भाग लेने का निमंत्रण मिला और उन्होंने इसमें भाग लेकर शिव सेना के गुस्से को निमंत्रण दे डाला।
शिवसेना प्रमुख ने उन्हें देशद्रोही तक कह डाला। इनमें पुतले फूंके गए और इनकी फिल्मों के बहिष्कार की बात कही गई। हालात ऐसे बने कि फिल्मों से उनके दृश्य काट डाले गए।
दो वर्ष बाद वह अमिताभ बच्चन की कंपनी द्वारा बनाई गई फिल्म ''तेरे मेरे सपने'' और आमिर खान की ''लगान'' से दोबारा रूपहले पर्दे पर उतरे। शाहरूख खान की 2005 में आई फिल्म ''पहेली'' उनकी अंतिम फिल्म थी।
उन्हें वर्ष 2006 में हिंदी सिनेमा में उनके योगदान के लिए पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
हालांकि अंतिम दिनों में हंगल ने मुफलिसी में दिन गुजारे और उनके पुत्र विजय ने उनके इलाज के लिए मदद मांगी। अमिताभ बच्चन, विपुल शाह, मिथुन चक्रवर्ती, आमिर खान और सलमान खान जैसी बॉलीवुड की कई हस्तियों ने उनके इलाज के योगदान दिया।
करीब सात वर्ष के अंतराल के बाद उन्होंने टेलीविजन धारावाहिक ''मधुबाला'' के लिए एक बार फिर कैमरे का सामना किया, जो उनके जीवन की अंतिम कड़ी साबित हुआ।

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