THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, August 28, 2012

शरणार्थी समस्या पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और हिंदू बंगाली शरणार्थियों कका कांग्रेस और वाम दलों से मोहभंग

शरणार्थी समस्या पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और हिंदू बंगाली शरणार्थियों कका कांग्रेस और वाम दलों से मोहभंग

पलाश विश्वास

२९ अगस्त को नई दिल्ली में अखिल भारतीय बंगाली उद्वास्तु समिति की ओर से मालव्यंकर हाल, कांस्टीट्यूशन क्लब एरिया रफी मार्ग में बंगाली हिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थियों की समस्याओं प एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। समिति के अध्यक्ष सुबोध विश्वास, महासचिव ​​परमानंदघरामी और अन्यतम आयोजक सुप्रीम कोर्ट में वकील एटवोकेट अंबिका राय ने यह जानकारी दी है।​

इस सिलसिले में खास बात यह है कि शरणार्थी नेता अब अपने हिंदुत्व पर जोर देकर संगोष्ठी में आने का वायदा करने वाले भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरी हिंदुत्ववादी ताकतों से समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं। जबकि असम दंगों के बहाने संघ परिवार की ओर से नई दिल्ली, मुंबई , उत्तराखंड, हिमाचल और देश के दूसरे हिस्सों में बसाये गये बंगाली हिंदू शरणार्थियों को कदेड़ने की मुहिम इन्हीं हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर से चलायी जा रही है। चूंकि घोषित तौर पर धरम निरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकते इन हिंदू बंगाली शरणार्थियों के नागरिक और मानव अधिकारों के मामले में मूक दर्शक बने हुए है, तो अब इस संगोष्ठी के जरिये शरणार्थियों के हिंदुत्व की पैदल सेना में बदल जाने की आशंका हो गयी है। वैसे भी बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में शरणार्थी समस्या के बारे में हिंदुत्ववादी नजरिया ही हावी है। इनके सामने उत्पन्न विकट परिस्थितियों के मद्देनजर कोई दूसरा विकल्प भी नहीं दीखता। सुबोध विश्वास के मुताबिक गडकरी समेत करीब दो दर्जन सांसदों ने संगोष्टी में शामिल होने के लिए सहमति दी है। बांग्लादेशियों के खिलाफ अथक अभियान चलाने वाले मीडिया को इस संगोष्टी के बारे में बताते हुए समिति का दस्तावेज व्यापक पैमाने पर भेजा गया है। सोशल मीडिया के अलाव न प्रिंट और न इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इनकी समस्या को कोई स्थान देना जरूरी समझा। जाहिर है कि अब शरणार्थियों के सामने हिंदुत्व का ही एकमात्र विकलप नजर आ रहा है। इस नजरिये से अब तक कांग्रेस और वामदलों के प्रभाव में रहने वाले शरणार्थी आंदोलन के भगवा ब्रिगेड में  शामिल होने की पूरी संभावना है और हम इसे रोकने में असमर्थ हैं।

हम शुरु से शरणार्थी समस्या को विभाजन और सत्ता हस्तांतरण के दौरान वरचस्ववादी राजनीति और जनसंख्यो समायोजन का परिणाम मानते​​ रहे हैं। शरणार्थी नेताओं के दस्तावेज से भी साफ जाहिर है कि असम और देश के दूसरे हिस्से में फैल रही सांप्रदायिक हिंसा और धर्म के नाम पर सांप्रदायिक ध्रूवीकरण उसी वर्चस्ववादी राजनीति और अर्थ व्यवस्था की निरंतराता का परिणाम है। समिति के दसतावेज में भी इसका खुलासा हुआ है।हम बार बार आगाह करते रहे हैं कि जहां संघ परिवार हिंदुत्व राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिक ध्रूवीकरण से हिंदी वोट बैंक बनाते हए चुनावी समीकरण अपने हक में करने की कवायद में लगी है, वहीं अल्पसंख्योकों का संकट और घना करके खांग्रेस और र दूसरे दल, जो खुद को दरमनिरपेक्ष बतान में थकते नहीं, अल्पसंख्यकों को बंधुआ वोट बैंक बनाये रखना चाहते हैं।इसीलिए असम की आग रोकने में किसी पक्ष का कोई हित नहीं है, राजनीति चाहती है कि देश को सांप्रदायिक आग के हवाले कर दिया जाये। हम असहाययह सब देख रहे हैं और कोई प्रतिकार नहीं कर रहे हैं। विभाजन के तुरंत बाद से हिंदू ​​बंगाली शरणार्थियों की समस्या की जो अनदेखी हुई है और आदिवासियों के साथ उन्ही की तरह उनका जो अलगाव और बहिश्कार हुआ है, देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी अगर ये असहाय लोग अंततः अपनी जान माल बचाने की गरज से हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील हो जाये।

कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति के तहत धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों को पिछले दशकों में जिसतरह बंधुआ बनैये रखा असुरक्षा बोध और भयादोहन के जरिये, वामदलों ने जैसे दंडकारण्य के शरणार्थियों को मरीचझांपी बुलाकर उनका नरसंहार किया, तो घटनाकरम की तार्किक परिणति यही हो सकती है, जबकि देश के सचेत नागरिकों और सुशील समाज की भी हिंदू बंगाली शरणार्थियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। उत्तराखंड के एक भाजपा विधायक किरण मंडल के कांग्रेस में दलबदल, उनकी खाली सीट पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की एकतरफा जीत और फिर किरण मंडल को कुमांयूं विकास मंडल का अध्यक्ष बनाये जाने के बाद १९५२ से उधमसिंह नगर जिले में बसाये गये शरणार्थियों के खिलाफ शक्तिफार्म के कुछेक हजार परिवारों को भूमिधारी पट्टा दिये जाने के बहाने जो अभूतपूर्व घृणा अभियान चला , वह अब बांग्लादेशी भगाओ जिहाद में बदल चुका है। ऐसे में परंपरा मुताबिक शरणार्थी अपनी सुरक्षा के लिए उसी राजनीति का इसतेमाल करेंगे, जो उनकी बेदखली की वजह है, इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है?
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​समिति की ओर से मूलतः तीन मांगों पर फोकस किया गया है।​​
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​एकः  पंडित जवाहर लाल नेहरु  ने वायदा किया था,  `इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें भारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​' हकीकत में कानून तो बदल गया लेकिन बंगाली विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए नहीं। तत्कालीन भारत सरकार ने सीमा पार करके भारत आने वाले पूर्वी पाकिस्तान के धार्मिक सामाजिक आर्थिक उत्पीड़न के शिकार शरणार्थियों को विबाजन पीड़ित नहीं माना और उन्हें पश्चिम पाकिस्तान से आये शरणार्थियों की तरह शरणार्थी पंजीकरण के साथ साथ नागरक बतौर पंजीकृत नहीं किया और न ही जनसंख्या स्थानांतरण और दो राष्ट्र के सिद्धांत के मुताबिक उन्हें कोई मुआवजा दिया। देशभर में उन्हें छितरा दिया गया। नागरिकता संसोधन कानून के जरिए विभाजन के तुरंत बाद आये पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के खिलाफ जिन्हें भारत सरकार ने ही विभिन्न परियोजनाओं के तहत पुनर्वास दिया, अब छह - सात दशक बाद विदेशी बांग्लादेशी घुसपैठिया करार देकर उनके खिलाफ देश निकाला अभियान चालू किया गया है।​

समिति ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को लिखे आवेदन में मांग की है कि  कानून में समुचित संशोधन करके पूर्वी पाकिस्तन बांग्लादेश से भारत आये वहां से विस्थापित अल्पसंखयक समुदायों को भारत की नागरिकता दी जाये। यही समिति की सबसे बड़ी मांग है।आवेदन पत्र में लिखा है,`हम पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से वहां के करोड़ों अल्पसंख्यक हिंदू बंगाली शरणार्थियों जो किंन्हीं विशिष्ट परिस्थितयों में भारत में शरण लेने को विवश हुए, की नागरिकता के बारे में आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।हमारी स्थिति उन लोगों से कतई भिन्न है जो आर्थिक कारणों से या फिर आजीविका के प्रयोजन से भारत में आ गये।

हम आपको यह स्मरण कराना चाहते हैं कि ३ दिसंबर, २००३ में पेश नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ पेश करते समय इसके प्रभाव में आने वाले समाज के विभिन्न वर्गों, समुदायों के बीच कोई फर्क नहीं किया गया।लेकिन यह आप ही थे जिन्होंने कहा था कि `... हमारे देश के विभाजन के बाद शरणार्थियों के मामले में यह स्पष्ट है कि बांग्लादेश जैसे देशों में अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा,​​और हमारा यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि अगर परिस्थितियां ऐसे अभागा लोगों को भारत में शरण लेने को विवश करती हों तो उन्हें नागरिकता देने के मामले में हमारा दृष्टिकोण अवश्य ही उदार होना चाहिए।..'और आपकी इस अपील के बाद ततकालीन उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि विपक्ष के नेता ने जो कहा है, मैं उस दृष्टिकोम से पूरी तरह सहमत हूं।'

इसका तार्किक नतीजा यह होना चाहिए था कि नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ के Clause 2(i) (b) में पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से आये वहां के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के संदर्भ में समुचित संशोधन के जरिये नागरिकता हेतु प्रावधान किया जाता।विडंबना यह है कि सदन की सहमति के बावजूद ऐसा किया नहीं गया।लगभग एक दशक से यह प्रकरण लंबित है।इस बीच इन लाखों उत्पीड़ित विभाजन पीड़ितों में असुरक्षा की भावना प्रबल होती गयी क्योंकि उन्हें न केवल अवैध घुसपैठिया बताया जा रहा​ ​ है , बल्कि कई राज्यों से उनके देश निकाले की कार्रवाई भी हो गयी।हम लज्जित हैं कि ऐतिहासिक परिस्थितियों के शिकार के बजाय हमसे अपराधियों जैसा सलूक किया जा रहा है।हमारे लोग बांग्लादेश में उत्पीड़न का शिकार होकर अपने मूल मातृभूमि में शरण लेने के लिए पलायन करने को बाध्य हुए, लेकिन कैसी विडंबना है कि यहां भी उन्हें हजारों की तादाद में फिर नये सिरे से उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है।क्योंकि उन्हें अपनी मूल मातृभूमि में भी विदेशी घुसपैठिया बताया जा रहा है,फिर ढोर डंगरों की तरह हिरासत में लेकर देश से बाहर निकाला जा रहा है। यानी उत्पीड़न का वही दुश्चक्र यहां भी।हम लोग भारत में दशकों से रह रहे हैं और हमारी कई पीढ़ियों ने भारत भूमि पर ही जनम ग्रहण किया है, फिरभी हमें बारतीय नागरिक नहीं माना जाता।कब तक यह अन्याय होता रहेगा?

इस विमर्श के आधार पर हमारा आपसे सविनय निवेदन है कि नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ के Clause 2(i) (b) में समुचित संसोधन हेतु आप हस्तक्षेप करें और पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से आये वहां के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के संदर्भ में संबंधित कानून और तमाम दूसरे कानूनों में जरूरी बदलाव करें।ताकि लाखों की तादाद में ये उत्पीड़ित करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी और उनके बच्चे भारत में गरिमा के साथ नागरिक जीवन निर्वाह कर सकें।'

दो:पुनर्वास योजनाओं में बसाये गये शरणार्थियों को कृषि भूमि और आवासीय प्लाट लीज पर मिले। अनेक पुनर्वास योजनाओं में लीज की अव​​खत्म हो गयी है।महाराष्ट्र के चंद्रपुर शरणार्थी शिविर जैसे अनेक जगह इस कारण लीज की अवधि खत्म होने के बाद पुनर्वासित शरणार्थियों की​ ​ बेदखली शुरु हो गयी है। उधम सिंह नगर के दिनेशपुर इलाका और दंडकारण्य के कुछ इलाकों को छोड़कर ज्यादातर जगह इन्हें कृषि भूमि और आवासीय प्चाट का मालिकाना हक छह सात दशक के बाद भी नहीं मिला है। दबंग इकी जमीन दबाते जा रहे हैं और कारपोरेट विकास के कारण इनकी ​​जमीन जाने वाली है।

समिति ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को लिखे आवेदन में मांग की है कि  भारत में विभिन्न पुनर्वास परियोजनाओं के तहत बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को एलाट कृषि भूमि और आवासीय प्लाट का मालिकाना हक उन्हे दिये जाये।आवेदन पत्र में लिखा है,`भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों बंगालियों ने अपने जीवन का बलिदान इस आशा के साथ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में कम से कम उनकी अगली पीढ़ियां सुख से रह सकेंगी। किसे मालूम था कि लाखों जिंदगियों( हमारे माता पिता, भाई- बहनों और रिश्तेदारों की) की कुर्बानी की बदौलत हासिल स्वतंत्रता हमारी मातृभूमि का विभाजन करके हमसे हमारी ​पुश्तैनी संपत्ति से हमें बेदखल करके हमें अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर कर देगी! आपको विदित होगा कि पचास के दशक से नब्वे के दशक  तक  पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहां के अल्पसंख्यक ​​करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी सीमा के इस पार चले आये।                                                                
                                    
​स्वतंत्रता संग्राम में हमारे अमूल्य योगदान का ध्यान रखते हुए भारत सरकार ने देश विबाजन के वक्त पीड़ित हिंदू बंगालियों से भारत चले आने का खुला निमंत्रण दिया और उन्हें भारत में समुचित सामाजिक आर्थिक सुरक्षा देने का आश्वासन दिया।इसी के मद्देनजर,देश के विभिन्न कोनों में इन करोड़ों विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास के लिए अनेक पुनर्वास परियोजनाएं शुरू की गयीं।हमने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो खोया और विभाजन के कारण सीमापार जो संपत्ति छोड़ आने को मजबूर हुए, उसके एवज में हर शरणार्थी परिवार को कृषि भूमि और आवासीय प्लाट दिये गये।यह हमारे सम्मानपूर्वक जीने के लिए पर्याप्त कतई नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों बंगालियों ने अपने जीवन का बलिदान इस आशा के साथ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में कम से कम उनकी अगली पीढ़ियां सुख से रह सकेंगी। किसे मालूम था कि लाखों जिंदगियों( हमारे माता पिता, भाई- बहनों और रिश्तेदारों की) की कुर्बानी की बदौलत हासिल स्वतंत्रता हमारी मातृभूमि का विभाजन करके हमसे हमारी ​पुश्तैनी संपत्ति से हमें बेदखल करके हमें अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर कर देगी! आपको विदित होगा कि पचास के दशक से नब्वे के दशक  तक  पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहां के अल्पसंख्यक ​​करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी सीमा के इस पार चले आये।                                                                
                                    
​स्वतंत्रता संग्राम में हमारे अमूल्य योगदान का ध्यान रखते हुए भारत सरकार ने देश विबाजन के वक्त पीड़ित हिंदू बंगालियों से भारत चले आने का खुला निमंत्रण दिया और उन्हें भारत में समुचित सामाजिक आर्थिक सुरक्षा देने का आश्वासन दिया।इसी के मद्देनजर,देश के विभिन्न कोनों में इन करोड़ों विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास के लिए अनेक पुनर्वास परियोजनाएं शुरू की गयीं।हमने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो खोया और विभाजन के कारण सीमापार जो संपत्ति छोड़ आने को मजबूर हुए, उसके एवज में हर शरणार्थी परिवार को कृषि भूमि और आवासीय प्लाट दिये गये।यह हमारे सम्मानपूर्वक जीने के लिए पर्याप्त कतई नहीं था। पर छह - सात धशकों से हम बिना देश या भारत सरकार से कुछ और मांगे उसी पर अपना गुजर बसर करते आ रहे हैं।यही नहीं, इस दौरान हमने पुनर्वास में दिये गये अनुर्वर जमीन को खेती योग्य बनाने का भरसक प्रयत्न किया।जिसके तहत हमने देश के आर्थिक विकास में अपनी भागेदारी सुनिश्चित की।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें अत्यंत दुःख के साथ आपसे निवेदन करना पड़ रहा है कि ६५ साल बीत जाने के बाद भी पुनर्वास योजना के तहत हमें​ ​ प्राप्त कृषि भूमि और आवासीय प्लाट के हम मालिकाना हक हासिल नहीं है। नतीजतन, इस जमीन पर न हम कोई कारोबार शुरू कर सकते हैं ​​और न आजीविका चलाने के लिए बैंकों से कोई कर्ज ले सकते हैं।इसके विपरीत पश्चिम पाकिस्तान से भारत आये शरणार्थियों को ये अधिकार मिले हुए हैं, जिसका हम स्वागत करते हैं।इसीके तहत हम उम्मीद करते हैं कि महोदय लाखों पुनर्वासित बंगाली शरणार्थियों को कृषि और आवासीय भूमि का मालिकाना हक दिलाने के लिए समुचित कार्रवाई करेंगे।ताकि इनकी भावी पीढ़ियां भारत में गरिमा के साथ आजीविका निर्वाह कर सकें।। पर छह - सात दशकों से हम बिना देश या भारत सरकार से कुछ और मांगे उसी पर अपना गुजर बसर करते आ रहे हैं।यही नहीं, इस दौरान हमने पुनर्वास में दिये गये अनुर्वर जमीन को खेती योग्य बनाने का भरसक प्रयत्न किया।जिसके तहत हमने देश के आर्थिक विकास में अपनी भागेदारी सुनिश्चित की।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें अत्यंत दुःख के साथ आपसे निवेदन करना पड़ रहा है कि ६५ साल बीत जाने के बाद भी पुनर्वास योजना के तहत हमें​ ​ प्राप्त कृषि भूमि और आवासीय प्लाट के हम मालिकाना हक हासिल नहीं है। नतीजतन, इस जमीन पर न हम कोई कारोबार शुरू कर सकते हैं ​​और न आजीविका चलाने के लिए बैंकों से कोई कर्ज ले सकते हैं।इसके विपरीत पश्चिम पाकिस्तान से भारत आये शरणार्थियों को ये अधिकार मिले हुए हैं, जिसका हम स्वागत करते हैं।इसीके तहत हम उम्मीद करते हैं कि महोदय लाखों पुनर्वासित बंगाली शरणार्थियों को कृषि और आवासीय भूमि का मालिकाना हक दिलाने के लिए समुचित कार्रवाई करेंगे।ताकि इनकी भावी पीढ़ियां भारत में गरिमा के साथ आजीविका निर्वाह कर सकें।'
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​तीन: करोड़ों शरणार्थियों को धार्मिक उत्पीड़न और सांप्रदायिक दंगों की वजह से सीमा पार करके अपने मूल गहदेश में ही शरण लेनी पड़ी।पहले पहल इन शरणार्थियों को बंगाल, ओड़ीशा, असम  और ऐसे ही निकटवर्ती राज्यों में पुनर्वास दिया गया। बाद में इन्हें देश के दूसरे हिस्सों में भी पुनर्वासित होने के लिए बाध्य किया गया।मालूम हो कि ये विस्थापित भारत सरकार की योजना और पहल के तहत विभिन्न राज्यों में बसाये गये और उनके सामने विकल्प चुनने का कोई अवसर नहीं था। हालांकि  वे सभी पश्चम बंगाल में ही बसना चाहते थे, लेकिन उन्होंने अंततः भारत सरकार की पुनर्वास नीति का अनिच्छा के बावजूद निष्ठापूर्वक अनुपालन किया।पुनर्वासित इन शरणार्थियों में अधिकांश नमोशूद्र, पोद/पौण्ड्र, राजवंशी जातियों के हैं, जिन्हें बंगाल, असम, त्रिपुरा, मणिपुर,मिजोरम, ओड़ीशा( देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में) अनुसूचित जाति के रुप में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में उन्हें और इन जातियों को अनुसूचित की मान्यता नहीं है।जाति के आधार पर आरक्षण का मामला है और किसी जाति को आरक्षण सामाजिक नस्ली परिस्थतियों के मद्देनजर दिये जाने की विवेचना होती है।लेकिन बंगाली हिंदू विस्थापितों के मामले में जातीय नस्ली पहचान उन्हें जिन राज्यों में बसाया गया, वहां अप्रासंगिक हो जाने से उनकी अनुसूचित पहचान ही खत्म हो गयी।पूर्वी भारत के लिहाज से जातीय और नस्ली तौर पर वे अनुसूचित तो हैं, लेकिन बाकी भारत में यह पहचान स्थापित ही नहीं हो सकी।नतीजतन एक ही माता पिता की संतानों को, जिन्हें पूर्वी राज्यों में पुनर्वास मिला , उन्हें तोसंवैधानिक सामाजिक न्याय के अधिकार मिल गये, लेकिन बाकी भारत में बसे दूसरों को नहीं।ये लोग सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकार से वंचित हैं तो यह किसकी भूल है?जाहिर है कि अगर हमारे सारे लोग पूर्वी राज्यों में बसाये गये होते तो आज हम सभी को अपनै दूसरे भाई बहनों की तरह आरक्षण मिल गया होता।हम भी समान अवसरों के लाब से वंचित नहीं रहते।

समिति ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को लिखे आवेदन में मांग की है कि  `हम आपका ध्यान इस ओर खींचने के लिए बाध्य हो रहे हैं कि या तो हमें भारत के सभी राज्यों में अपने पूर्वी राज्यों में बसे भाई बहनों की तरह आरक्षण हेतु अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाये  या फिर हमें भी उन्हीं की तरह दुबारा पूर्वी राज्यों में ही बसाया जाये। इसके लिए आपसे​ ​ निवेदन है कि आप संबंधित राज्यों को निरदेश आदेश दें  ताकि हमें अनुसूचित जाति बतौर सर्वत्र मान्यता पूर्वी राज्यों की तरह मिले।ताकि  भारतभर में पुनर्वासित ये करोड़ों विस्थापित गरिमा के साथ आजीविका निर्वाह कर सकें।'


समिति के दस्तावेज `क्या यही स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों की नियति है?'में शरणार्थी समस्या पर केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों के अंतर्विरोध का खुलासा हुआ है। उसी वक्त विभाजनपीड़ितों को नागरिकता दे दी​ ​ गयी होती तो ाज विदेशी घुसपैठियों को पहचाना जा सकता था। उस चूक के कारण अपंजीकरण की इस ऐतिहासिक भूल से निपटने के लिए जो कानून में संसोधन किया गाय, उससे विदेशी नागरिकों की पहचान हो न हो, पुनर्वास परियोजनाओं में छह सात दशकों से बसे बसाये शरणार्तियों के एक दफा फिर शरणार्थी बन जाने का खतरा पैदा हो गया है।

इस दस्तावेज के मुताबिक खास बात यह है कि उन समुदायों, जो भारत में आर्थिक प्रयोजन या आजीविका कमाने की गरज से आये और जो धर्म, जीवन और संपत्ति पर हमला होने की परिस्थितियों में इनकी रक्षा के लिए, में बुनियादी फर्क हैं।हालांकि विभाजन के बाद सारे लोग पूर्वी बंगाल से आते रहे और ये तमाम लोग बांग्ला में ही बात करते हैं, लेकिन हम बंगाली हिंदू शरणार्थी विभाजनपीड़ित धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हैं, अन्य नहीं।विभिन्न राज्यों में बसाये गये शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान से ही आये हैं।इसलिए सभी बंगाली शरणार्थियों और सभी बंगालियों को घुसपैठिया बतौर चिन्हित करना सरासर गलत है। हम मीडिया और आम जनता से अपील करते हैं कि पूर्वी बंगाल से आये वहां के अल्पसंख्यक विभाजन पीड़ित और धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हिंदू बंगाली शरणार्थियों को कतई घुसपैठिया न कहें।

यह विडंबना ही है कि हम लोग धर्म आधारित दो राष्ट्र सिद्धांत के बलि हो गये।जिसके कारण विभाजन के वक्त व्यापक पैमाने पर दंगा, मारकाट और आगजनी की घटनाएं घटीं।भरत केस्वतंत्रतासेनानियों के दूसरे वंशजों के मुकाबले स्वतंत्रता हमारे लिए भारी दुःखों और मुश्किलों का सबब बन गयी।पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से भी धार्मिक उत्पीड़ने के चलते विताड़ित , अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर हमारे लोगों को सीमा पार करते हुए अपनी नागरिकता, पहचान, संपत्ति के साथ साथ अपने सगे संबंधियों को भी खोना पड़ा।विभाजन के वक्त राष्ट्रीय नेताओं महात्मा गांधी,डा. राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरु, सरदार बल्लभ भाई पटेल के दिये गये आश्वासन हवा में गायब हो गये।जिन्हें विस्तापन का अभिशाप झेलना पड़ा, वे घुसपैठिया और शरणार्थी नाम से बदनाम हो गये।क्या यह देश राष्ट्र नेताओं के तब कहे गये शब्द भूल गया है,`हिंदी, ईसाई, बौद्ध समुदायों के अल्पसंख्यक जो लोग भारत आने को इच्छुक हैं, उनका स्वागत है और उनके सामाजिक आर्थिक हक हकूक की हिफाजत करना हमारी जिम्मेवारी है'?इन्हीं नेताओं ने तब अविभाजित भारत की २६ फीसदी जमीन २४ प्रतिशत आवादी वाले एक समुदाय को दो दिया, जिसपर पूर्वी पाकिस्तान बना, जो बाद में बांग्लादेश हो गया।दुर्भाग्य से वह हमारी पुश्तैनी जमीन थी, जो हमारी सहमति के बिना हमारी कीमत पर एक नया देश बनाने के लिए दे दी गयी।

    क्या सरकार की यह नैतिक जिम्मेवारी नहीं थी कि हमें हुई क्षति का समुचित मुआवजा दिया जाता?जो कुछ हमें अपने विस्थापन इलाके में छोड़कर आना पड़ा उसके लिए?

             इसके बजाय सरकार नागरिकता संशोधन कानून, २००३ पास करके एक दफा फिर हमें शरणार्थी बनाने में लगी है।ऐसा भेदभाव केवल हिंदू बंगाली शरर्थियों के साथ हो रहा है। क्यों?
          
         अगर भारतीय संस्कृति पिता के वचन निभाने की परंपरा निभाते आ रही है तो क्यों राष्ट्रपिता के आश्वासन का उल्लघंन हो रहा है?

दस्तावेज के मुताबिक  विभाजन के बंदोबस्त के तौर पर २६ फीसद जमीन पाकिस्तान में मुसलमानों के लिए दे दी गयी और जनसंख्या स्थानांतरण का फैसला हुआ। चूंकि विभाजन की शर्त के मुताबिक पाकिस्तान को जमीन मुसलमानों के लिए दे दी गयी और बाकी बची जमीन दूसरे समुदायों के लिए चिन्हित​ ​ हो गयी, तदनुसार डा. भीम राव अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने जनसंख्या स्थानांतरण की मांग की।लेकिन तब यह देखा गया कि अगर सारे हिंदू एक मुश्त भारत चले आयें तो उन्हें पुनर्वास देना मुश्किल हो जायेगा।तब नेहरू ने अपने दो मंत्रियों को  पूर्वी पाकिस्तान भेजा कि वे पूर्वी बंगाल के बंगाली हिंदुओं को आश्वस्त करें कि वे जब चाहें भारत आते रह सकते हैं बशर्ते कि एक मुश्त कतई न आयें।इसीलिए पश्चिम पाकिस्तान के विपरीत पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू देरी से चरणबद्ध ढंग से आते रहे और भारत सरकार उन्हें विभिन्न पुनर्वास परियोजनाओं में बसाती रही।

                     अब इसी अल्पसंख्यक समुदाय को नागरिकता संशोधन कानून के तहत कैसे विदेशी घुसपैठिया कहा जा सकता है?जबकि पाकिस्तान को दे दी गयी अविभाजित भारत की २४ प्रतिशत जमीन सिर्फ मुसलमान भाइयों के लिए तय कर दी गयी?
                   क्या बाकी बची भारत की जमीन पर हमारा हिस्सा नहीं है?
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                 क्या हमारी जमीन पाकिस्तान को नहीं दे दी गयी?   यदि हमारे हिस्से की जमीन भारत सरकार के हवाले कर दी गयी, तो हमें घुसपैठिया कैसे कहा जा सकता है?
कैसे कोई आधार वर्ष तय करके आगे पीछे भारत आये तमाम हिंदू बंगाली शरणार्थियों को घुसपैठिया करार दिया जा सकता है?
    दस्तावेज के मुताबिक  पंडित नेहरु ने तब कहा था,`इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें बारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​'(Refugees and other Problems, Jawaharlal Nehru speeches. Vol. 2, P.8 (P 10) published in June 1967). वे विस्थापित यानी हम आज भी कानून बदलने का इंतजार कर रहे हैं।क्योंकि आज भी देश का कानून अपर्याप्त है और राष्ट्र नेताओं के वे वायद पूरे नहीं हो सकें।हम अपने देश में निर्भय जीवन निर्वाह करना चाहते हैं।मामला यहीं खतम नहीं होता। कानून बदलते जरूर रहे , पर एलमं इस सच को नजरअंदाज कर दिया गया कि किस भयावह दुःस्वप्न जैसे माहौल में रातोंरात अपने घर से बेदखल होकर सीमा पार करके हमें अपने ही गृहदेश में शरमार्थी बनना पड़ा।अविभाजित भारत के मूलनिवासी अब अपने ही देश में विदेशी हो गये।सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि विभाजन के वक्त कोई समयसीमा जनसंख्या स्थानांतरण के लिए तय नहीं की गयी।जिससे विभाजन पीड़ित अल्पसंख्यकों को बेहद सांप्रदायिक धार्मिक उन्माद के माहौल में निरंतर और ज्यादा उत्पीड़न, दमन का शिकार होना पड़ा।बाद में हुए कानून में सुधार के तहत तो हमें विदेशी घुसपैठिया करार देकर हमारे खिलाफ देश निकाले का फतवा जारी हो गया जैसे कि बांग्लादेश हमें अपने नागरि बतौर पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करने को तैयार बैठा हो!

                        क्या पंडित नेहरु के कथन कि अपर्याप्त कानून विभाजनपीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए बदल दिया जाना चाहिए, का आशय यही था?

                           अगर भारत सरकार हमें देश से निकालती है तो हम करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

                       क्या ६४ वर्ष बाद बांग्लादेश हमें अपने नागरिक बतौर स्वीकर कर लेगा अगर आधार वर्ष १९४८ मान लिया जाये?

                  जब कोई इस देश में किसी भिखारी की नागरिकता पर सवाल उठा नहीं सकता, तब ऐसा हमारे साथ ही क्यों हो रहा है?

               क्या  हमारी हैसियत इस देश में किसी भिखारी से भी कमतर है हमारे बलिदान के मद्देनजर?
जब १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में हुए दंगों में अल्पसंख्यक हिंदुओं की हालत नाजुक हो गयी, स्थितियां बिगड़ती गयी और अत्याचार असहनीय हो गये तब भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने दो मंत्रियों को बुलाया औप पूर्वी पाकिस्तान के हालात का जायजा लेने के बाद वहां के अल्पसंख्यकों को  फिर दोनों मंत्रियों एके चांद और चारु चंद्र विश्वास  के जरिये संदेश भेजा,ताकि हम पूर्वी बंगाल में बने रहे क्योंकि एक मुश्त इतनी भारी तादादा में शरणार्थियों के आने के बाद उनके पुनर्वास का इंतजाम करना मुश्किल हो जाता।उनहोंने यह भरोसा दिलाया कि अगर हम पूर्वी बंगाल में अपनी जान माल और इज्जत की सुरक्षा से मोहताज हो गये, हमारी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाये तो हम भारत में स्वागत हैं और हम कभी भी चरणबद्ध तरीके से भारत आ सकते हैं।नेहरु ने यह वायदा भी किया कि पूर्वी बंगाल से आने वाले विस्थापितों की चाहे वे जब आयें, की सुरक्षा और उनकी आजीविका का बंदोबस्त करना भारत सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होगी।उन्हें भारत के दूसरे नागरिकों की तरह समान अधिकार मिलेंगे।इस वायदे के बाद पूर्वी बंगाल में लगातार धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हो रहे अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोग जो तत्काल भारत आने को तत्पर थे, उन्हें वहीं वापस रुक जाने को मजबूर हो जाना पड़ा।इस उम्मीद के साथ कि भारत सरकार के वायदा मुताबिक वे कभी भी भारत आ सकते हैं।उस वक्त संकटट इतना गहरा था और सीमा पर इतनी अफरा तफरी मची थी कि जो लोग उस वक्त सीमा पार चले आये, वे भी न कोई वीसा या वैध दस्तावेज हासिल कर सकें। बस, जान और इज्जत बचाने की फिराक में अजीब सी जीजिविषा के मारे इस पार चले आये।

                    तो असहनीय परिस्थितियों में पूर्वी पाकिस्तान में देर तक रुके रहने और बाद में सीमा पार करने के लिए कौन जिम्मेवार हैं? और इससे जो परिस्थितियां और बिगड़ती चली गयीं, उसके लिए?

               अब छह सात दशक के बाद कैसे १९४८ को आधार वर्ष घोषित किया जा सकता है , जबकि भारत सरकार के कहे मुताबिक ही शरणार्थी देर तक आते रहे?

दस्तावेज के मुताबिक  इस पर खास तौर पर गौर करना चाहिए कि पूर्वी पाकिस्तान से ज्यादातर शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद १९४७ से लेकर १९५१ के बीच सीमा पार कर चुके थे, जबकि तब शरणार्थियों के लिए देश में कोई कानून नहीं बना था और न ही पूर्वी बंगाल के शरणार्थियो का बतौर भारतीय नागरिक पंजाब के विभाजन पीड़ितों की तरह पंजीकरण करने का कोई बंदोबस्त था। उस वक्त संकट और मानवीय तकाजे के मद्देनजर दुर्बाग्यवश इस महती कार्यभार की अनदेखी कर दी गयी, जिसका खामियाजा आज हम बुगत रहे हैं।तब न  नागरिकों की ओर से और न निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ओर से इन्हें बतौर नागरिक पंजीकृत कराने की कोई मांग करने की आवश्यकता महसूस की गयी और बतौर उनका भारतीय़ नागरिक भूमिपुत्र स्वागत किया गया।लेकिन भारत सरकार को जब यह महसूस हुआ कि इस संकट की आड़ में तमाम तरह के लोग भारत में घुसे चले आयेंगे, तब जाकर कहीं​ ​ नागरिकता कानून १९५५ पास हुआ। १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में दंगों और उसके नतीजतन भारत में  पहुंच चुके शरणार्थी सैलाब के कम से कम चार साल बाद।इसतरह राष्ट्रीय नेतृत्व ने सामाजिक,धार्मिक उत्पीड़न के शिकार विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास की जिम्मेवारी तो बखूबी निभायी, लेकिन इस​ ​ अफरा तफरी में उन्हें नागरिकता का मौलिक संवैधानिक अधिकार देना भूल गये जबकि पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले लोगों की तरह बतौर शरणार्थी पंजीकरण के वक्त ही इन लोगों की नागरिकता का भी पंजीकरण हो जाना चाहिए था।फिर जब नागरिकता कानून में संशोधन की नौबत आयी तो मूल मकसद से हटकर जनप्रतिनिधियों ने पूर्वी बंगाल से आये विभाजनपीड़ित हिंदुओं को उनके जन्मगत और संवैधानिक नागरिकता का अधिकार उनसे छीन लिया।लेकिन हाल ही में इसी कानून के तहत अब भी पश्चिमी सीमा से भारत में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों का बारत में स्वागत हो रहा है, जबकि इसके विपरीत विभाजन के तुरंत बाद आये धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों  की नागरिकता छीनी जा रही है। स्वतंत्रतासेनानियों के वंशजों के साथ यह भेदभाव क्यों?जबकि पश्चिमी सीमा से आये लोगों को इसी कानून की तमाम धाराओं उपधाराओं में छूट दी जा रही है?

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