THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Monday, August 20, 2012

फिर इस याचिका की आड़ में क्यों केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है ?

फिर इस याचिका की आड़ में क्यों केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है ?

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

मानवाधिकार जननिगरानी समिति का महासचिव/अधिशासी निदेशक  डा0 लेनिन रघुवंशी  चंदौली जिले के नौगांव तहसील के अंतर्गत विशेसरपुर (भरदुआ) गाँव में गरीबों, दलितों एवं आदिवासियों  की बेदखली के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर इस सिलसिले में भूमाफिया की ओर से दायर जनहित याचिका के औचित्य पर सवाल खड़े करते हुए पूछा है कि इस याचिका की आड़ में क्यों केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है ? डा0 लेनिन रघुवंशी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उनके मानवाधिकार के क्षेत्र में किये गये कार्य को देखते हुए दक्षिण कोरिया से 2007 ग्वान्जू एवार्ड, ह्यूमन राइट्स 2008 आचा पीस स्टार अवार्ड (यू0ए0ए0) व 2010 वाइमर अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार पुरस्कार (जर्मनी) जनमित्र गाँव की परिकल्पना के लिए वांशिगटन स्थित अशोका फाउण्डेशन ने ''अशोका फेलोशिप'' प्रदान किया।


तुम मुझे कैद कर सकते हो,जुल्म ढा सकते हो मुझ पर बेइंतहा, खत्म कर सकते हो मेरे शरीर को , पर तुम मेरे दिमाग को कैद नहीं कर सकते, हरगिज नहीं!



नवदलित आंदोलन के तहत अस्पृश्यता खत्म करने, मानवाधिकार बहाल करने और जुल्मोसितम के खिलाफ प्रतिरोध के तहत इस महीने के १२ और १३ तारीख को पीवीसीआर के राष्ट्रीय विमर्श के दौरान लिये गये इस संकल्प की गूंज अभी देश विदेश में पैलने लगी है। डा. लेनिन रघुवंशी और मानवाधिकार जननिगरानी समिति के उनके  जुझारु साथियों की पहल पर नई दिल्ली में आयोजित  दो दिवसीय विमर्श को सामाजिक समता की दिशा में सामाजिक अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध व्यापक गोलबंदी की कारगर पहल के रुप में देखा जा रहा है।


मानवाधिकार जन निगरानी समिति भी आदिवासियों,दलितों की बेदखली के खिलाफ लड़ाई में लामबंद! वनाधिकार अधिनियम २००६ के तहत जल जंगल और जमीन के हक हकूक की हिफाजत का दावा किया जाता है, लेकिन हो इसका उलट रहा है। देश को आज़ादी मिलने के साठ साल बाद 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक क़ानून पारित किया गया, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत निवासी (वनाधिकारों को मान्यता) क़ानून। यह क़ानून केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का क़ानून है। जंगलात महकमा हमेशा की तरह जंगल से जुड़े जनसमूह के खिलाफ दमनकारी रवैया अपनाता है और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बेदखली का ​​सिलसिला जारी है।सरकार वनक्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के अरण्य पर अधिकार को अस्वीकार नहीं करती और वनों से उनके आजीविका कमाने के धिकार को स्वीकार करने के सबूत बतौर वनाधिकार अधिनियम लागू करने का हवाला देती है। लेकिन आदिवासियों के लिए संविधान में प्रदत्त पांचवी​​ और छठीं अनुसूचियों के खुला उल्लंघन की पृष्ठभूमि में वानाधिकार का मसला मखौल बन गया है।देशभर में यही किस्सा चालू है। वनों के विनाश के विरुद्ध पर्यावरण आंदोलन और वनों व प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के आंदोलन की वजह से उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ, पर वहां आजतक वनाधिकार अधिनियम लागू नहीं हुआ। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों की .ही कथा है। वनों से बेदखली के लिए छत्तीसगढ़ में बारकायदा सलवा जुड़ुम चल रहा है, तो बाकी राज्यों के ादिवासीबहुल इलाकों में भी घोषित तौर पर नामांतर से सलवा जुड़ुम जारी है। पूर्वोत्तर और ​​कश्मीर में तो विशेष सैन्य अधिकार कानून के तहत आम जनता के नागरिक और मानवाधिकार तक निलंबित है। पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी ​आदिवासियों के खिलाफ पुलिस प्रशासन का रवैया विशेष सैन्य अधिकार कानून जैसा ही है। चंदौली जिले के नौगढ़ के वनक्षेत्र में रहने वाले ​​आदिवासियों की बेदखली इसका जीता जागता सबूत है।सरकार की करनी और कथनी में जमीन आसमान का पर्क नजर आ रहा है।वन विभाग वनाधिकार कानून की धज्जियां उड़ाते हुए आदिवासियों की बेदखली कर रहा है। ६५ वीं स्वतंत्रता जयंती की पूर्व संध्या पर नौगढ़ में इसके खिलाफ मजदूर किसान मोरचा ने दरना दिया, जिसमें दूसरे सामाजिक संगठनों की भागेदारी बी रही। खास बात यह है कि नवदलित आंदोलन चला रही मानवाधिकार जन निगरानी समिति, पीवीसीआर आदिवासियों के जल जंगल जमीन के हक हकूक की इस लड़ाई में लामबंद है।धरने के जरिये इन संगठनों ने चेतावनी दी है कि आदिवासियों की बेदखली की हर कोशिश का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।धरने में आसपास के गांवों के हजारों लोग शामिल हुए।


उत्तर प्रदेश सरकार एक ओर वनाधिकार क़ानून के क्रियान्वयन को अपना राजनीतिक एजेंडा मानकर तरह-तरह के आदेश-निर्देश जारी कर रही है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन, पुलिस और वन विभाग सरकार की मंशा पर पलीता लगाने पर तुले हुए हैं. उत्तराखंड में भी इस क़ानून के क्रियान्वयन की प्रक्रिया बाधित की जा रही है।वनाधिकार कानून, 2005 को पारित करते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माना था कि आजादी के बाद के छह दशकों तक आदिवासियों के साथ अन्याय होता रहा है और इस कानून के बाद उन्हें न्याय मिल पाएगा। गौरतलब है कि आजादी के 65 वर्ष बाद चन्दौली जिले का नौगढ़ ब्लाक आज भी गुलाम है संविधान में सभी नागरिकों को समान रुप से जीने का अधिकार दिया गया है लेकिन नौगढ़ में आज भी दोयम दर्जे की स्थिति बरकरार है। वनाधिकार कानून को लागू करते हुए सरकार ने कहा था कि जंगल पर निर्भर लोगों के साथ लम्बे समय से नाइंसाफी हो रही हैं जिसकों कम करने के लिए वनाधिकार अधिनियम 2006 को लागू किया गया परन्तु वनाधिकार अधिनियम 2006, लम्बे संघर्ष के बाद 2009 में चन्दौली जिले में लागू किया गया।


चन्दौली जिला में उन्हीं लोगों को जमीन से बेदखल किया जा रहा हैं, जिनके पास वन भूमि के अलावा जीने व रहने के लिए कोई घर नहीं है, कोई आधार नहीं हैं, जो पूरी तरह वन पर आश्रित है।वनविभाग द्वारा लगातार उनके घरों को उजाड़ने की प्रक्रिया चल रही हैं। दूसरी तरफ बड़े कस्तकार या भू माफिया हैं, जिनके पास 400 से लेकर 500 एकड़ तक की जमीन हैं और वह भी वन भूमि में काबिज है। उनके घरों को या फसलों को उजाड़ने के लिए वन विभाग द्वारा कोई अभियान या पहल नहीं किया जा रहा है। वहीं वन विभाग लगातार दलितों व आदिवासियों को उजाड़ने हेतु पुलिस फोर्स का सहारा लेता हैं तथा घर की बहू बेटियों के उपर शारीरिक व मानसिक अत्याचार किया जाता हैं।


चन्दौंली जिले के नौगढ़ विकास खण्ड में 29 जून को जयमोहनी रेन्ज के अधिकारियों, पुलिस व वनकर्मीयों द्वारा ग्राम -भरदुआ, पोस्ट-समसेरपुर के दलितों की बस्तियों को दिन के 12 बजे उजाडा गया। वन विभाग के अधिकारीयों व कर्मचारियों ने (वनवासी) दलितों के घर जे.सी.बी. लगाकर गिरा दिये। जिस समय यह घर गिराने का कार्य चल रहा था, उस समय अधिकांश पुरुष मजदूरी करने के लिए बाहर गये हुए थे। गॉव में केवल कुछ महिलाएं ही थी। घर गिराने के साथ-साथ ही घरों में रखे हुए अनाज के बर्तनों को तोड दिया गया, जिसके कारण अनाज मिटी में मिल गया, विरोध करने वाले लोगों को गन्दी-गन्दी गालिया दी गयी, साथ ही उनको मारा पीटा गया। इनमें 35 लोग घायल हुये है।


डा. लेनिन का पत्र इस प्रकार है:


सेवा में,

श्री खाजा ए0 हफीज,

सहायक निबंधक,

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग,

नई दिल्ली।

विषय: वाद संख्या 28923/24/19/2011/ MI के सम्बन्ध में।

महोदय,

        मेरे शिकायत पत्र दिनांकित 13 जुलाई, 2011 पर विशेष सचिव, उत्तर प्रदेश शासन की आख्या पर मेरा कथन निम्नवत् है:-



माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद में जनहित याचिक संख्या 2722/2002-बलिराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार दाखिल करके उसकी आड़ में कई पीढि़यों से बसे आदिवासियों व दलितों को उजाड़ा जा रहा हैं। विदित है कि श्री बलिराम सिंह उर्फ श्री गोविन्द सिंह एक दबंग व्यक्ति है और वन विभाग की जमीन कब्जा करके बोझ गाँव में श्री लालता बियार के द्वारा खेती करा रहे हैं। श्री गोविन्द सिंह के कारण ही अन्र्तविरोध बढ़ने से इस इलाके में माओवादियों का पहल बढ़ा। कानून का राज स्थापित होने इंटिजेन्स एजेन्सी व राज्य सरकार के उत्कृष्ट कार्य से हिंसा पर आधारित माओवादी आंदोलन को समाप्त किया जा सका हैं। अब पुनः वन विभाग व श्री गोविन्द सिंह अन्र्तविरोधों को बढ़ाकर ''कानून के राज'' को चुनौती खड़ाकर रहे हैं। अभी हाल में 29 जून, 2012 को नौगढ़, चंदौली, 0प्र0 के विशेसरपुर (भरदुआ) गाँव में गरीबों, दलितों एवं आदिवासियों के घरों को वन विभाग ने पुलिस की मदद से तोड़ दिया। महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार किया।

वही भूमाफिया या बड़े लोगों के जो पक्के घरों या जमीनों के बड़े हिस्सों पर काबिज है, उन्हें छुआ तक नही जाता हैं।

वही दूसरी तरफ वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा निम्नवत वन भूमि पर कब्जा किया गया है:-

क्रमांक         नाम                   पद                   स्थान

1.            मोबिन खाँ (रिटायर)   डिप्टी रेंजर विजयपुर,                भरहुआ

2.            गोकुल रेंजर (रिटायर)       जनकपुर                   तिवारीपुर

3.            शिव नरेश मिण्डा (रिटायर)   वन अमीन - विजयपुर        भरदुआ

4.            बचाऊ यादव (कार्यरत)      फारेस्ट गार्ड-चकरघट्टा         परसिया

5.            विसमिल्ला (कार्यरत)    फारेस्ट गार्ड-भसौड़ा            गोवरा बहेर, भैसोड़ा

6.            रामनरेश यादव (कार्यरत)     फारेस्ट गार्ड-चकरघट्टा        परसिया

7.            भोला यादव (रिटायर)   फारेस्ट गार्ड-लालतापुर      बसौली

8.            लालता यादव (कार्यरत)      फारेस्टर (वन दरोगा),             मझगाई

9.            धीरज यादव (रिटायर)      फारेस्ट गार्ड-             जय मोहनी (मुर्तिया)

10           रामनाथ (रिटायर)          फारेस्ट गार्ड - भठवाँ       लछिमनपुर

सन् 1993 में मंत्री श्री दीनानाथ भास्कर द्वारा विधान सभा में निम्नवत् भूमाफियों द्वारा वन विभाग की जमीन कब्जा करने का सवाल खड़ा किया गया था।

बड़े माफियाओं की सूची:-

क्रमांक        नाम              ग्राम        कब्जा ग्राम

1.            मोहन सिंह यादव       नवेदापुर      अमरापुर (बरहाँ)

2.            शिवनायक यादव       नौबादी, देवदत्तपुर    गरबरी पहरी (देवदत्तपुर)

3.            भोला यादव           गढ़वा         अमरापुर (मरहाँ)

4.            राम बली यादव        देऊरा         देऊरा - मझगाई

5.            बलदाऊ यादव         देऊरा         देऊरा

6.            शिवमुरत यादव        भरदुआ           भरदुआ

उपरोक्त लोगों पर कार्यवाही क्यों नही की गयी ?  दूसरी बात उत्तर प्रदेश सरकार व वन विभाग ने नौगढ़ के ही सफेद पोश दबंग श्री बलिराम सिंह उर्फ श्री गोविन्द सिंह के जनहित याचिका पर जवाब क्यों दाखिल नही किया ?  फिर इस याचिका की आड़ में क्यों केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है ?


जबकि संलग्न पीडि़त शोभनाथ के स्व0 व्यथा कथा के कथन में दर्शित है कि विवादित आराजी नं0में ही गाँव के बड़े व अमीर लोगों को भी उसी समय पट्टा हुआ था उन लोगों का पट्टा निरस्त नही हुआ।


यह स्पष्ट रूप से अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधि0 1989 की धारा 3(2)iiiका उल्लंघन है। इसके साथ अधि0 की धारा 3(1)ix, धारा 3(1)x, व धारा 3(1)xv का भी उल्लंघन हुआ है।


सबसे महत्वपूर्ण बात है कि the scheduled Tribes & other traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Right) Act 2006 संसद में 2 जनवरी, 2007 को पारित हुआ एवं 1जनवरी 2008 को गजट हुआ। ससंद से पारित इस अधिनियम को नौगढ़ में क्यो लागू नही किया जा रहा है ? उल्टा कई पीढि़यों से बसें आदिवासी व दलितों को उजाड़ा जा रहा है। माननीय उच्च न्यायालय का फैसला 2005 का है और संसद का पारित कानून 2007 का/राज्य सरकार ने माननीय उच्च न्यायालय में अधिनियम के बारे में जानकारी क्यों नही दी ?

अतः निम्नवत्  निवेदन है:-

1.            राज्य सरकार याचिका संख्या 2722/2002 श्री बलिराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार में हस्तक्षेप करके दलित व आदिवासियों के  अधिकारों का संरक्षण करें। माननीय उच्च न्यायालय में अपील कर कमीशन का गठन कर मामलों का निस्तारण किया जाय।

2.            वन विभाग के कर्मचारियों एवं दबंगों द्वारा कब्जा की गयी जमीन पर जाँच कर न्यायोचित कार्यवाही की जाय।

3.            राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग अपनी जाँच टीम भेजकर तथ्यों की जाँचकर विश्लेषण कर हस्तक्षेप करें।

4.           इंटीजेन्स एजेन्सी (आई0बी0) की रपट को देखा जाय एवं श्री बलिराम सिंह उर्फ श्री गोविन्द सिंह की 'कानून के राज' को चुनौती पैदा करने की जाँच सी0बी0आई0 से करायी जाय।

5.            राज्य सरकार संसद की गरिमा व संविधान को संरक्षित करें।

6.            वन विभाग व दबंगों पर अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत् कार्यवाही की जाय।

विदित हो कि बलिराम सिंह क्षेत्र में काफी दबंग और मनबढ़ किस्म के व्यक्ति है, जिनका अपने क्षेत्र में काफी प्रभाव व भय व्याप्त है व शासन-प्रशासन में भी काफी पकड़ है तथा अवांछनीय तत्वों का बरद्धहस्त प्राप्त है। प्रार्थी दबंगों के विरूद्ध आये दिन मजलूमों के मामलों को लेकर लिखा-पढ़ी व पैरवी करता रहता है। जिससे प्रार्थी को प्रबल आशंका है कि बलिराम सिंह द्वारा प्रार्थी के साथ भविष्य में कोई अप्रिय घटना कारित की जा सकती है या करायी जा सकती है। ऐसी स्थिति में प्रार्थी के जान-माल की सुरक्षा हेतु त्वरित न्यायोचित कानूनी कार्यवाही करते हुए प्रार्थी के जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित की जाय।

संलग्नक:-

1.            राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का पत्र व राज्य सरकार का जवाब की छायाप्रति।

2.            पीडि़त के स्व0 व्यथा कथा (टेस्टीमनी) की छायाप्रति।

3.            अधिनियम की छायाप्रति।

4.            अधिनियम का गजट की छायाप्रति।

भवदीय

(डा0 लेनिन)

महासचिव

प्रेषित प्रतिलिपि:-

1.            माननीय मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद।

2.            माननीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली।

3.            माननीय गृह सचिव, भारत सरकार, नई दिल्ली।

4.            माननीय मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ।

5.            श्री संजय सिंह, विशेष सचिव, उ0प्र0 शासन, लखनऊ।

भवदीय

(डा0 लेनिन)

महासचिव


29 जून 2012 को जनपद चन्दौली के ग्राम भरदुआ तहसील चकिया में वनविभाग मय पुलिस फोर्स व कुछ बी0एस0एफ के जवानों के साथ बुलडोज़र लेकर इस गांव में पहुंचे और लगभग 50 झोपड़ीयों को बिना किसी नोटिस दिए ढहा दिया। यह सभी झोपड़ीयां गोंड़ आदिवासीयों, मुसहर जाति, दलित व अन्य ग़रीब समुदाय की थी। उनमें कुछ लोगों के नाम रामवृक्ष गोंड़, सीताराम पु़त्र रामेशर, बलीराम पुत्र सुकालु अहीर, सुखदेव पुत्र रामवृक्ष गोंड़, रामसूरत गोंड, कालीदास पुत्र मोतीलाल गोंड, मनोज पुत्र रामजीयावन गोंड, सुखराम पुत्र शिववरत गोंड, शिवकुमारी पत्नि रामदेव गोंड, माधो पुत्र टेगर मुसहर, विद्याप्रसाद पुत्र सुखई गडेरी, हीरालाल पुत्र गोवरधन मुसहर, बबुन्दर पुत्र मोती मुसहर, पुनवासी पत्नि टेगर मुसहर, कलावती पत्नि विक्रम मुसहर, राधेश्याम पुत्र रामप्यारे मुसहर, अंगद पुत्र रामप्यारे मुसहर, महरी पत्नि स्व0 रामवृक्ष मुसहर, राजेन्द्र पुत्र मोती मुसहर, कलावती पत्नि रामअवध अनु0 जाति, गंगा पुत्र सुखई गड़ेरी,कालीप्रसाद पुत्र तिवारी कोल, रामप्यारे पुत्र कतवारू मुसहर हैं।


वनविभाग द्वारा यह कहा जा रहा है कि यह लोग अतिक्रमणकारी है जिसके लिए उन्हें जिलाधिकारी द्वारा र्निदेश दिए गए है इन अतिक्रमण को हटाने के लिए। जब  जिलाधिकारी से बात की गई तो उन्होंने इस तरह के किसी भी आदेश को देने से इंकार किया है। यह कार्यवाही उन परिवारों पर की गई है जो कि प्रदेश में लागू वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अपने अधिकारो को पाने के लिए हकदार है। और यह परिवार 15 दिसम्बर 2006 के पूर्व से यहां बसे हुए हैं। रा0 वनजन श्रमजीवी मंच से जुड़े कायकर्ता इस क्षेत्र में कई वर्षो से वनाधिकारों के मामले में सघन अनुसंधान कर रह हैं जिसके कारण हम इन परिवारों से पिछले दस वर्षो से जुड़े हुए है। इन परिवारों को सन् 2003 में में भी वनविभाग द्वारा इस भूमि से बेदखल किया गया था, इनकी फसलें उजाड़ दी गई थी और इन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर आदिवासीयों की ही भूमि पर वनविभाग द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया था।  यह परिवार वनविभाग से लगातार संघर्ष करते रहे व फिर 2005 में इन परिवारों ने अपनी भूमि को वापिस हासिल किया। वनाधिकार कानून आने के बाद उनका उक्त भूमि पर दावा और भी मजबूत हुआ लेकिन चन्दौली जनपद के आदिवासीयों के साथ जनपद के बंटवारे के चलते एक बार फिर धोखाधड़ी हुई। सन २००२ में प्रदेश के तेरह आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया था. उस समय चन्दौली जनपद वाराणसी में ही शामिल था। सन् 2004 में चन्दौली को पुन एक अलग जनपद बनाया गया, अलग जनपद बनते ही चन्दौली जनपद में रहने वाले तमाम अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त दर्जा भी उनसे छीन लिया गया। जबकि अगर वे वाराणसी में अनु0 जनजाति में शामिल थे तो राज्य सरकार द्वारा उन्हें वहीं दर्जा जनपद चन्दौली में दिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया जिसके कारण आज भी जनपद चन्दौली के निवासी अपनी पहचान से महरूम हैं। यह भी एक विडम्बना ही है कि इस जनपद के आदिवासीयों को एक सरकार ने अनु0 जनजाति का दर्जा और दूसरी सरकार ने इस दर्जे को छीन लिया। इस से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि अभी तक यहां के आदिवासीयों को कोई भी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को बहाल नहीं कर पाई है।


सरकारों द्वारा यहां के आदिवासीयों की संवैधानिक अधिकारों की बहाली न करने का खामियाजा आज भी यहां के आदिवासी चुका रहे हैं जिन्हें वनाधिकार कानून 2006 से वंिचत किया जा रहा है । वहीं वनविभाग द्वारा इस स्थिति का फायदा उठा कर मनमानी कार्यवाही की जा रही है व यहां पर रहने वाले आदिवासीयों का उत्पीड़न किया जा रहा है, उनके घरों से उन्हें बेदखल किया जा रहा है, उनके उपर झूठे मुकदमें लादे जा रहे हैं व उन्हें जेल भेजा जा रहा है। जबकि 2010 में ग्राम बिसेसरपुर में तत्कालीन जिलाधिकारी रिगजिन सैंफल के साथ एक संयुक्त बैठक हुई थी जिसमें मंच के प्रतिनिधि भी शामिल थे जहां पर वनाधिकार कानून की प्रक्रिया उनके द्वारा शुरू कराई गई थी। लेकिन यह प्रक्रिया इसलिए अभी तक अधरा में अटकी हुई है क्योंकि यहां के आदिवासीयों के दावे यह कह कर खारिज किए गए कि वे 75 वर्ष का प्रमाण नहीं पेश कर पा रहे हैं। उनके दावों को स्वीकार ही नहीं किया गया व इस स्तर पर भी वनविभाग द्वारा अंड़गा लगा कर तमाम दावों को उपखंड़ स्तरीय समिति द्वारा ही खारिज कर दिया गया है। जबकि दावों को खारिज करने का अधिकार उपखंड स्तरीय समिति को कानूनी रूप से नहीं है। यहां तो यह कहावत चरित्रार्थ है कि ' उल्टा चोर कोतवाल को डांटे'। 75 वर्ष का रिर्काड तो यहां का वनविभाग ही नहीं दे सकता जो कि यहां पर चिरकाल से रहने वाले आदिवासीयों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं। आदिवासीयों कैमूर की इन पहाड़ीयों में कब से रह रहे है इसका जीता जागता प्रमाण आज भी यहां की भृतिकाए ' राक पेंन्टिंग' हैं जो कि कई स्थानों पर पाई गई हैं।


29 जून को वनविभाग द्वारा बुलडोजर चला कर आदिवासीयों व दलितों के घर गिराने की कार्यवाही पूर्ण रूप से गैरसंवैधानिक है व अपराधिक है व संसद व संविधान की अवमानना है। वैसे भी मानसून के मौसम में किसी भी प्रकार से घर तोड़ने की कार्यवाही अपराधिक है लेकिन वनविभाग, पुलिस व प्रशासन ने यह जो आपराधिक कार्यवाही की है व दण्डनीय है। वनाधिकार कानून 2006 के की धारा 4 (5) के तहत जब तक दावों की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती तब तक किसी भी प्रकार की बेदखली की कार्यवाही नहीं हो सकती। लेकिन वनविभाग व प्रशासन ने कानून को अपने हाथ में लेकर उन्हीं लोगों के अधिकारों का हनन किया है जिनकी उन्हें सुरक्षा करनी चाहिए थी। अधिकारीगण वनाधिकार कानून से अवगत ही नहीं हैं जिलाधिकारी को यह भी नहीं मालूम कि इस कानून के तहत जिला स्तरीय समिति के वे अध्यक्ष है। यह बेहद ही गंभीर घटना है, इस बरसात के मौसम में महिलाए व बच्चे खुले में रहने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं। इस घटना के संदर्भ में मंच व ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री से पत्र के माध्यम से उच्च स्तरीय कार्यवाही की मांग की है व दोषी आधिकारीयों को वनाधिकार कानून की अवमानना व आदिवासीयों के जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए प्राथमिकी दर्ज करने व जेल भेजने की मांग की है।


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