THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, August 30, 2012

अमेरिका की ओर से मध्यस्थ बने हैं मनमोहन, ईरान को मुख्यधारा में लाना मकसद नही प्रधानमंत्री मंत्री तेहरान में हैं और डालर वर्चस्व के प्रति वफादारी जताने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव न्यूयार्क में!

अमेरिका की ओर से मध्यस्थ बने हैं मनमोहन, ईरान को मुख्यधारा में लाना मकसद नही प्रधानमंत्री मंत्री तेहरान में हैं और डालर वर्चस्व के प्रति वफादारी जताने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव न्यूयार्क में!

​​एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

"आर्थिक गतिविधियाँ जी-77 देशों का अधिकारक्षेत्र है जिसे विकासशील देशों का 'ट्रेड-यूनियन' कहा जाता है, जबकि नैम एक राजनीतिक गुट है"
शशि थरूर

ईरान की राजधानी तेहरान में गुरुवार को गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) का 16वां शिखर सम्मेलन शुरू हो गया। इस अवसर पर ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामनेई ने कहा कि उनका देश परमाणु हथियार बनाने के प्रयास नहीं कर रहा है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार खामनेई ने कहा, ईरान का नारा है कि सबके लिए परमाणु ऊर्जा, परमाणु हथियार किसी के लिए नहीं।अमेरिका की ओर से मध्यस्थ बने हैं मनमोहन, ईरान को मुख्यधारा में लाना मकसद नहीं!सरकारी रजनयिक संतुलन का करिश्मा यह है कि प्रधानमंत्री तेहरान में हैं और डालर वर्चस्व के प्रति वफादारी जताने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव न्यूयार्क में! सद्दाम हुसैन ने तो सिर्फ डालर को खारिज करने की धमकी दी थी और तेल का कारोबार यूरो में चलाने की तैयारी की थी। अमेरिका के लिए यही जनसंहार का असली हथियार था। वैश्विक अर्थ व्यवस्था पर डालर का वर्चस्व अगर खत्म हो जाये तो तीसरी दुनिया के किसी भी देश से ​​बदतर हालत हो जायेगी अमेरिका की। अब ईरान की घेराबंदी के लिए जो परमाणु कार्यक्रम का हौआ बनाया जा रहा है, वह भी बेवजह है। दुनिया और अंतरिक्ष तक का पारमाणविकीकरण में अमेरिका की भूमिका जगजाहिर है। इजराइल को भी परमाणु आतंक से आतंकित होने की जरुरत ​​नहीं है। पर ईरान ने जो उपभोक्ता बाजार डालर को खारिज करके बना लिया है, उससे न सिर्फ अमेरिका और इजराइल बल्कि तथाकथित तमाम विकसित देशों की डालर आधारित अर्थव्यवस्था तबाह होने का अंदेशा है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का भविष्य भी मध्यपूर्व नीति पर निर्भर​ ​ है। ओबामा के मुकाबले रिपब्लिकन उम्मीदवार रोमनी की चिनावी रणनीति विदेश नीति और खासकर मध्यपूर्व के सवाल पर ओबामा की घेराबंदी करने की है। वरना वाशिंगटन की हरी झंडी के बिना निर्गुट सम्मेलन में ईरान जाने की क्या जुर्रत करते डा.मनमोहन सिंह, जिनका चेहरा घोटालों की कालिख से इतना पुत चुका है कि मजबूत जनादेश के बावजूद संसदीय घेराबंदी तोड़ने में नाकाम है।बहरहाल घरेलू जनता को आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के प्रति प्रतिबद्धता का यकी न दिलाते हुए ईरान में गुट निरपेक्ष सम्मेलन से इतर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बीच गुरुवार को मुलाकात हुई। दोनों देशों के नेताओं के बीच यह बैठक 26/11 हमलों में शामिल आतंकी अजमल आमिर कसाब की फांसी की सजा बरकरार रखे जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक दिन बाद हुई। मनमोहन और जरदारी की बातचीत के एजेंडे में आतंकवाद सबसे अहम मुद्दा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी इस बात पर सहमत हुए कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सुधारने के लिए कदम दर कदम आगे बढ़ना बेहतर होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण सहयोग की भारत की इच्छा दोहराई।

'नाम' की स्थापना अप्रैल 1955 में हुई थी। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। दुनिया के 118 देश इसके सदस्य हैं तथा यह विश्व की 55 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।सन् १९५४ में शीत युद्ध के दौर से गुजर रहे विश्व के समक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे बाद में यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो, इंडोनेशिया के सुकर्णो और मिस्त्र के गमाल अब्दुल नासिर ने अंगीकार करते हुए गुटनिरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया।जब पूरे विश्व में शीतयुद्ध चल रहा था, उस वक्त इंदिरा गांधी ने बेहद संतुलन और राजनैतिक कौशल के साथ अमेरिका और रूस के खेमों से अलग हटकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन को मजबूती देकर विश्व नेता के तौर पर अपनी छवि मजबूत की।नेहरु और इंदिरा की तरह निर्गुट आंदोलन के जरिये मनमोहन सिंह के विश्व नेता बनकर उभरने की संभावना नही है। इस समय जबकि संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई 7 दिनों से ठप्प पड़ी है, प्रधानमंत्री स. मनमोहन सिंह पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ईरान की राजधानी तेहरान में 29-30-31 अगस्त को हो रहे गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन 'नाम' के राष्ट्रराध्यक्षों के 16वें शिखर सम्मेलन में भाग लेने 28 अगस्त शाम 4 बजे दिल्ली से चल कर 7 बजे (भारतीय समय के अनुसार 8 बजे) तेहरान पहुंच गए। भारत इस अवसर पर ईरान के नेताओं से सीरिया और मध्यपूर्व की समस्याओं, विशेष रूप से सीरिया और बहरीन में चल रहे संघर्ष का समाधान ढूंढने के लिए काम करने को कहेगा।उल्लेखनीय है कि सीरिया में ईरान वहां की असद सरकार का साथ दे रहा है जबकि ईरान के अपने परमाणु कार्यक्रम के परिणामस्वरूप वहां राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है और इस सम्मेलन के माध्यम से ईरान अपनी नीतियों के प्रति विश्व समुदाय के समर्थन का दावा पेश करने की कोशिश करेगा।इस बीच तेहरान में सम्मेलन के दौरान सड़कों पर भीड़ घटाने के लिए पांच दिनों का अवकाश घोषित कर दिया गया है तथा वहां के विदेश मंत्री अली अकबर सलेही ने आशा व्यक्त की है कि पाश्चात्य देशों द्वारा उस पर अपने परमाणु कार्यक्रम के दंड स्वरूप लगाए गए प्रतिबंधों के विरुद्ध विश्व समुदाय उसे अपना समर्थन प्रदान करेगा।

गौरतलब है कि बान की मून के गुरनिरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने की खबर सार्वजनिक होने के बाद अमरीका और इजराइन आदि देशों ने तुरंत ही इस का विरोध कर दिया , लेकिन बान की मून फिर भी ईरान गये हुए हैं । 29 अगस्त की सुबह तेहरान पहुंचने के बाद बान की मून ने थकावट की परवाह न कर क्रमशः ईरान के संसद अध्यक्ष लारिजानी , राष्ट्रपति अहमेदीनेजाद और सर्वोच्च नेता हामेनेई के साथ वार्ता की ।अहमेदी नेजाद के साथ वार्ता में बान की मून ने कहा कि इस क्षेत्र का बड़ा देश होने के नाते ईरान सीरिया सवाल के शांतिपूर्ण समाधान के लिये यथासंभव प्रयास कर सकता है । उन्होंने कहा कि ईरान को न्यूक्लीयर ऊर्जा का शांति पूर्ण रुप से प्रयोग करने का अधिकार है । वर्तमान में मौजूद मामलों के समाधान के लिये शीघ्र ही आपसी विश्वास पुनः स्थापित करना ही होगा । इस के अलावा ईरानी विदेश मंत्री सालेही ने उसी दिन संवाददाता सम्मेलन में कहा कि यदि बान की मून की इच्छा हो , तो ईरान उन्हें अपने न्यूक्लीयर संस्थापनों को देखने पर आमंत्रित कर देगा ।

इसी बीच अमेरिका को खुश करने का इंतजाम भी पुख्ता हुआ है, जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े साजो-सामान में सुधारों के बारे में सुझाव देने के लिये गठित नरेश चंद्र समिति ने रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मौजूदा 26 प्रतिशत की सीमा बढ़ाने की वकालत की है।समिति का कहना है कि इससे विदेशी कंपनियां(पढ़ें, अमेरिकी कंपनियां) सैन्य उपकरण बनाने को लेकर नई प्रौद्योगिकी देने के लिये आकर्षित होंगी। प्रधानमंत्री कार्यालय ने हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा साजो-सामान में सुधारों के बारे में सुझाव देने के लिये नरेश चंद्र समिति का गठन किया था।फिलहाल रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 26 प्रतिशत है। रक्षा मंत्रालय इसमें और किसी प्रकार की वद्धि किये जाने का विरोध कर रहा है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है, उच्च एफडीआई का समर्थन करने की जरूरत है, ताकि विदेशी कंपनियों द्वारा रक्षा क्षेत्र में विकसित अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी भारत आ सके।वैश्विक तथा भारतीय कंपनियां रक्षा क्षेत्र में एफडीआई सीमा बढ़ाये जाने की मांग करती रही हैं। उनका कहना है कि इस क्षेत्र में एफडीआई सीमा बढ़ाकर कम-से-कम 49 प्रतिशत की जानी चाहिए।हाल ही में अमेरिकी उप रक्षा मंत्री एसटोन कार्टर ने भी कहा था कि अगर भारत एफडीआई सीमा बढ़ाता है तो इससे वैश्विक कंपनियां निवेश के लिये प्रोत्साहित होंगी।

सबसे मजेदार बात तो यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि महंगाई से निपटने के लिए गुट निरपेक्ष देशों को मिलकर काम करना होगा!मंहगाई और मुद्रास्पीति वित्तीय और मौद्रक नीतियों और वित्तीय प्रबंधन पर निर्भर है, न कि राजनय पर।इसके विपरीत रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने कहा है कि मुद्रास्फीति को स्वीकार्य स्तर तक नीचे लाने के प्रयासों के चलते आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर कुछ बलिदान तो करना ही होगा। उन्होंने कहा कि आर्थिक वृद्धि को नुकसान पहुंचाये बिना मुद्रास्फीति को काबू में लाया जाये, रिजर्व बैंक के सामने यह बड़ी चुनौती है।न्यूयार्क में  वैश्वीकरण के दौर में भारत: कुछ नीतिगत दुविधा विषय पर एशिया सोसायटी को दिये अपने भाषण में कहा कि आने वाले कुछ समय में, भारत की आर्थिक वृद्धि की बेहतर संभावनाओं को बनाये रखने के लिये निम्न और स्थायी मुद्रास्फीति आवश्यक है।सुब्बाराव ने कहा कि कई बार केन्द्रीय बैंक की इस बात के लिये आलोचना की जाती है कि ब्याज दरों में वृद्धि और सख्त मौद्रिक नीति के बावजूद, मुद्रास्फीति की दर अभी भी ऊंची बनी हुई है और लगातार इसका दबाव बना हुआ है, जिससे आर्थिक वृद्धि को नुकसान पहुंच रहा है।रिजर्व बैंक गवर्नर ने कहा कि इस आलोचना का यही जवाब है कि आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर कुछ बलिदान तो अवश्यंभावी है, मुद्रास्फीति को नीचे लाने के लिये हमें कुछ तो कीमत चुकानी होगी। हालांकि, आर्थिक वृद्धि का यह नुकसान कुछ समय के लिये ही होगा।थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति जुलाई माह में 6.87 प्रतिशत रही। एक महीना पहले जून में यह 7.25 प्रतिशत पर थी। रिजर्व बैंक के 5 से 6 प्रतिशत के संतोषजनक स्तर से यह अभी भी काफी ऊंची बनी हुई है।सुब्बाराव ने कहा कि यदि रिजर्व बेंक ने सख्त मौद्रिक नीति नहीं अपनाई होती तो मुद्रास्फीति और ऊंची होती। उन्होंने कहा कि मुद्रास्फीति की दर वर्ष 2010 में 11 प्रतिशत की ऊंचाई छूने के बाद जुलाई 2012 में सात प्रतिशत से नीचे आ गई है।

संयुक्त राष्ट्र महा सचिव बान की मून , भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह , सीरियाई प्रधान मंत्री हेलजी , जनवादी कोरिया की सर्वोच्च जन असेम्बली के स्थायी अध्यक्ष किम युंग नाम, फिलिस्तीनी राष्ट्रीय सत्ताधारी संस्था के अध्यक्ष अबास और अफगानीस्तान के राष्ट्रपति करजाई आदि नेता तेहरान पहुंच चुके हैं । मिश्र के राष्ट्रपति मोर्सी भी स्थानीय समय के अनुसार तीस अगस्त को तेहरान पहुंचने ही वाले हैं ।शिखर सम्मेलन के प्रवक्ता मेहमानपारास्ट ने परिचय देते हुए कहा कि कुल 125 देशों के अधिकारी या प्रतिनिधि , जिन में 24 राष्ट्रपति , 7 प्रधान मंत्री , दो संसद अध्यक्ष और 8 उप राष्ट्रपति शामिल हैं , इस शिखर सम्मेलन में भाग ले रहे हैं । हिस्सेदार देशों की संख्या से वर्तमान तेहरान शिखर सम्मेलन अभूतपूर्व है ।गुटनिरपेक्ष आंदोलन का मौजूदा शिखर सम्मेलन बेहद ध्यानाकर्षक है , मेजबान देश ईरान को छोड़कर लोकमत का ध्यान कुछ हिस्सेदार नेताओं , खासकर संयुक्त राष्ट्र महा सचिव पान की मून , मिश्र के राष्ट्रपति मोर्सी और भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर भी केंद्रित हुआ है ।भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने 28 अगस्त की रात को सौ से ज्यादा सदस्यों वाला प्रतिनिधि मंडल लेकर तेहरान पहुंचे , वे गुटनिरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के अलावा ईरान की चार दिवसीय राजकीय यात्रा भी करेंगे । यह पिछले दस सालों में किसी भारतीय प्रधान मंत्री की प्रथम ईरान यात्रा ही है ।

तेहरान में स्थानीय लोकमत का मानना है कि ईरान ने गुट निरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन के सफल आयोजन से अपनी शक्ति प्रदर्शित की , साथ ही इस बात का द्योतक भी है कि ईरान के खिलाफ प्रतिबंध लगाने और अलगाव में डालने की पश्चिमी नीति विफल रह गयी है । ईरान में 16वें गुट निरपेक्ष सम्मेलन के पहले दिन परमाणु संव‌र्द्धन, वैश्विक आतंकवाद और सीरिया संकट छाया रहा। गुरुवार को बैठक की शुरुआत ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामनेई ने की। सम्मेलन में शिरकत करने गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने निर्गुट राष्ट्रों से पश्चिम एशिया व उत्तरी अफ्रीका में तनाव कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने को कहा।प्रधानमंत्री ने सीरिया में विदेशी हस्तक्षेप पर भी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई। उन्होंने कहा कि वैश्विक व्यवस्था के अभाव में अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा कायम रख पाना कठिन हो गया है। इस स्थिति को बदलने में गुट निरपेक्ष आंदोलन अहम भूमिका निभा सकता है। उन्होंने निर्गुट राष्ट्रों से सीरिया पर अपना रुख स्पष्ट करने की बात भी कही।मनमोहन ने तेहरान के मंच से पश्चिमी देशों के प्रभाव वाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं में सुधार का आह्वान किया। उन्होंने निर्गुट देशों से कहा कि वे इन वैश्विक संस्थाओं में बदलाव पर सहमत हों और आगे बढ़ें। उन्होंने कहा, 'विश्व व्यापार, वित्त और निवेश के मुद्दे पर जब तक विकासशील देश मिलकर आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक मौजूदा सममस्याओं का प्रभावकारी हल नहीं निकल सकता।'पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका की स्थिति पर प्रधानमंत्री ने कहा, भारत लोकतांत्रिक और बहुलतावादी आकांक्षाओं का समर्थन करता है, इसलिए इस तरह के रूपांतरण में बाहरी हस्तक्षेप को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इससे आम नागरिकों की दशा और बिगड़ सकती है।

मनमोहन ने तेहरान के मंच से पश्चिमी देशों के प्रभाव वाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं में सुधार का आह्वान किया। उन्होंने निर्गुट देशों से कहा कि वे इन वैश्विक संस्थाओं में बदलाव पर सहमत हों और आगे बढ़ें। उन्होंने कहा, 'विश्व व्यापार, वित्त और निवेश के मुद्दे पर जब तक विकासशील देश मिलकर आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक मौजूदा समम

अमेरिका ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए कृत संकल्प है और वह कोई विकल्प भी नहीं छोड़ रहा है। बहरहाल, अमेरिका का यह भी मानना है कि यह समय कूटनीति अपनाने का है और इसकी गुंजाइश भी है।ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामनेई ने कहा कि ईरान परमाणु बम बनाने की कोशिश कभी नहीं करेगा, लेकिन परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल से भी वह पीछे नहीं हटेगा। निर्गुट सम्मेलन की शुरुआत करते हुए खामनेई ने अमेरिका और उसके देशों को भी आड़े हाथों लिया।ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने भी निर्गुट सम्मेलन के मंच पश्चिमी देशों को खुली चुनौती दी और अमेरिका पर ईरान, अफगानिस्तान व पाकिस्तान में निर्दोष लोगों की हत्या का आरोप लगाया। उन्होंने निर्गुट आंदोलन में शामिल 120 राष्ट्रों से अपने लक्ष्य फिर से निर्धारित करने की अपील भी की। ईरानी राष्ट्रपति ने कहा कि शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु कार्यक्रम चलाने का प्रत्येक राष्ट्र को हक है और इस मुद्दे पर वैश्विक बहस की जरूरत है।

विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम के मुद्दे पर दुनिया के प्रमुख देशों के साथ बगदाद में होने वाली वार्ता से ठीक पहले ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इस बात पर जोर दिया कि इस्लाम परमाणु हथियार एवं अन्य जनसंहारक हथियारों की इजाजत नहीं देता।अहमदीनेजाद ने कहा कि इस्लाम की तालीम और सर्वोच्च नेता की ओर से जारी फतवे के मुताबिक जनसंहारक हथियारों का निर्माण और इस्तेमाल हराम है। ईरान के रक्षा तंत्र में इसकी कोई जरूरत नहीं है।सरकारी समाचार एजेंसी इरना के मुताबिक अहमदीनेजाद का संदेश पश्चिमी शहर बोरुजर्द में 1980 से 1988 तक इराक के साथ युद्ध के दौरान रसायनिक हथियारों के इस्तेमाल में मारे गए लोगों की अकीदत पेश करने के दौरान पढ़ा गया। बगदाद में आज ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर वार्ता होगी।

व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जे कार्नी ने यहा संवाददाताओं से कहा कि हम ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए कृत संकल्प हैं। इस मुद्दे से निपटने के लिए विचार करते समय हम कोई विकल्प नहीं छोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह समय ईरान पर उसका आचरण बदलने के लिए दबाव बनाने, नए प्रतिबंध लगाने से लेकर कूटनीति पर चलने का है और इसके लिए गुंजाइश भी है।

कार्नी ने कहा कि ईरान के लिए एक और रास्ता यह है कि वह अपनी अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं का सम्मान करे, परमाणु हथियारों की अपनी महत्वाकाक्षा त्यागे और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बाध्यताओं का पालन करते हुए उससे जुड़े। उन्होंने कहा कि हम मानते हैं कि तेहरान पर दबाव बनाने के लिए अपने साझीदारों के साथ हमने जो रणनीति अपनाई है उसका ईरानी अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा है और हम इसे जारी रखेंगे।

कार्नी ने कहा कि अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि ईरान अपनी बाध्यताओं का पालन करने में लगातार नाकाम रहा है, उसका वह आचरण जारी है जिसके चलते उसके परमाणु कार्यक्रम के इरादों पर संदेह जताया जाता रहा है और वह लगातार वही सब कर रहा है जिसने इस प्रक्रिया को ईरान के लिए और जटिल बना दिया है। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया इस तथ्य से अवगत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का बड़ा असर हुआ है।

कार्नी ने कहा कि हम हर दिन, हर सप्ताह दबाव बढ़ाने के लिए अपने सहयोगियों के साथ काम करते हैं। इस्राइल की तरह ही हम भी ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बराक ओबामा के अथक प्रयासों के फलस्वरूप ईरान गहरे आर्थिक दबाव में है।

ईरान का इतिहास शुरू से ही उथल-पुथल से भरपूर रहा है। इसने अनेक राजवंशों का उत्थान और पतन तथा अनेक विदेशी आक्रांताओं का हमला झेला है। यहां सेलजुक तुर्क 11वीं शताब्दी में पहुंचे और उसके बाद चंगेज खान और उसके पोते हलाकू के नेतृत्व में 13वीं शताब्दी में मंगोल यहां आए। 14वीं शताब्दी में यहां तैमूर आया। वहीं 16वीं शताब्दी में इसे साफाविद नामक एक अन्य तुर्की राजवंश की गुलामी झेलनी पड़ी और 18वीं शताब्दी में एक और तुर्की कबीले 'कजार' ने इस पर कब्जा कर लिया।साफाविदों ने ईरान में शिया इस्लाम प्रणाली लागू की और इसे ईरान का सरकारी धर्म बनाकर ईरानी मुसलमानों का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किया। इसी कारण आज भी ईरान की बहुसंख्या शिया मुसलमानों की है जबकि अल्पसंख्यकों में सुन्नी, जोरास्थ्रियन, जूडा, ईसाई, बहाई आदि धर्मों के लोग शामिल हैं। ईरान के 98 प्रतिशत लोग इस क्षेत्र की मूल फारसी भाषा बोलते हैं।18वीं और 19वीं शताब्दी में ईरान अन्य यूरोपीय देशों के दबाव में आ गया और 19वीं शताब्दी में तेल की खोज के बाद यह इंगलैंड और रूस के बीच प्रतिद्वंद्विता का केन्द्र बन गया। 1921 में रजा खान नामक एक सेनाधिकारी ने यहां सैनिक तानाशाही कायम की और पहलवी राजवंश स्थापित किया।1963 में ईरान में अयातुल्ला खुमैनी ने तथाकथित 'गोरी क्रांति' के विरुद्ध देशव्यापी धार्मिक क्रांति का बिगुल बजा दिया। 1979 में इस्लामी क्रांति की सफलता और ईरान के पूर्व शाह मोहम्मद रजा पहलवी के देश निकाले के बाद इसे एक 'धर्म शासित देश'  का दर्जा देकर इसका नाम 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान'  रख दिया गया और उसी वर्ष देश के संविधान ने अयातुल्ला खुमैनी को इस देश का 'सर्वोच्च नीति निर्धारक, मार्गदर्शक एवं निर्णायक' का दर्जा दे दिया।

बीबीसी की यह रपट,किस काम का है गुटनिरपेक्ष आंदोलन?लेखक शशि थरूर, इस पूरे प्रसंग को समझने में सहायक हो सकती हैः

ऐसे वक्त जब भारतीय प्रधानमंत्री 16वें गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) में हिस्सा लेने के लिए तेहरान पहुँचे हैं, सवाल पूछे जा रहे हैं कि इस आंदोलन का कितना औचित्य रह गया है और इसकी दिशा क्या होगी?

मनमोहन सिंह के अलावा करीब सौ से ज़्यादा देशों के नेता भी ईरान में हैं.


नैम का जन्म करीब 50 साल पहले हुआ. उस वक्त दुनिया अमरीका और उसके धुर विरोधी, तत्कालीन सोवियत यूनियन, और उनके साथी देशों के बीच बंटी हुई थी.

उस वक्त नैम विकासशील देशों के लिए ऐसा माध्यम था जिससे वो इन दोनों सुपरपावर देशों को दिखा सकते थे कि वो दोनो समूहों से स्वतंत्र हैं.

शीत युद्ध के बाद अब दोनों प्रतिस्पर्द्धी समूह नहीं बचे हैं. इसी कारण कई लोग सवाल पूछ रहे हैं कि अब ऐसे आंदोलन का क्या औचित्य है?

नैम ने अपने आपको ऐसे देशों के आंदोलन के तौर पर पुनर्भाषित किया है जो किसी भी बड़ी शक्ति के साथ नहीं खड़ा है.

नैटो से बाहर के ज़्यादातर देश किसी गठबंधन से नहीं जुड़े हैं, इसलिए उनके लिए नैम से जुड़ने के लिए यही कारण काफी नहीं है. नैम ने अपनी छवि ऐसे संगठन के तौर पर बनाई है जो दुनिया की एकमात्र सुपरपावर अमरीका के अधिपत्य का मुकाबला करे.

साथ ही नैम ने खुद को ऐसे देशों के संगठन के तौर पर पेश किया है जो 'पश्चिमी साम्राज्यवाद' के प्रभुत्व से स्वतंत्र हैं.

नैम में ज़्यादातर ऐसे विकासशील देश हैं जो पूर्व में उपनिवेश रह चुके हैं.

पुराना आंदोलन?

राजनीतिक गुट

पुराने से सुनाई पड़ने वाले नाम से ऐसे आरोप लगते हैं कि नैम आंदोलन पुराना पड़ चुका है.

ये छवि इस बात से मज़बूत होती है कि नैम देशों में संगठन अध्यक्ष ईरान और अगले अध्यक्ष वेनेज्युएला को अमरीका का कटु विरोधी माना जाता है. इससे नैम की पश्चिम-विरोधी छवि को बल मिलता है.

ईरान में हो रहे सम्मेलन से इस बात को भी बल मिलता है कि पश्चिमी देशों की कोशिशों के बावजूद ईरान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग नहीं पड़ा है. इससे नैम की भी ऐसी छवि उभरती है को वो पश्चिमी देशों की नीतियों का विरोध कर रहा है.

लेकिन इस झुकाव के अलावा गौर करने की बात ये भी है कि नैम के दूसरे सदस्यों में भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब, कीनिया, कतर और फ़िलिपींस जैसे देश हैं जो अमरीका के सहयोगी हैं.

इनमें से कुछ देश नैम की राजनीतिक बातों से ज्यादा आर्थिक दलीलों से आश्वस्त होंगे, खासकर ऐसे वक्त जबकि दुनिया भर में पूँजीवाद की नीतियों को चुनौती दी जा रही है. बाकी के देश अमरीकी आर्थिक नीतियों के समर्थक रहे हैं.

आर्थिक गतिविधियाँ जी-77 देशों का अधिकारक्षेत्र है जिसे विकासशील देशों का 'ट्रेड-यूनियन' कहा जाता है, जबकि नैम एक राजनीतिक गुट है.

नैम उन विकासशील देशों की भावनाओं का आइना है जो चाहते हैं कि उनकी नीतियाँ पश्चिमी देशों से अलग हों, चाहे वो ऊर्जा के क्षेत्र में हों, वातावरण के बदलाव को लेकर, तकनीक के हस्तांतरण को लेकर या फिर कुछ और.

नैम में शामिल कई विकासशील देश चाहते हैं कि दुनिया के मामलों में उनकी सामरिक नीतियाँ स्वायत्त हो और पश्चिमी देशों से स्वतंत्र हों.

मध्य-पूर्व में 'अरब स्प्रिंग' के कारण कई नैम देशों पर सीधे तौर पर प्रभाव पड़ा. इनमें मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया और सीरिया शामिल हैं.

असहमत देश

भारत से दुनिया के संबंध
"भारत के कई देशों से कई अलग-अलग कारणों से संबंध हैं. इसलिए भारत एक साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सदस्य होने के अलावा जी-77 और जी-20 का भी सदस्य है"
शशि थरूर

इसलिए नैम आंदोलन एक ऐसा माध्यम होना चाहिए जिससे किसी क्षेत्र में छाई अशांति के कारणों से निपटने के तरीकों पर विचार हो. लेकिन नैम देश इतने विभाजित हैं कि एक बिंदु पर सहमत होना बहुत मुश्किल है. कई देशों की सोच सीरिया के नेता असद के विरुद्ध है जो कि पश्चिमी देशों की सोच से बहुत अलग नहीं है.

बहरहाल नैम सम्मेलन में अरब देशों में चल रही गतिविधियों पर विचार होने की उम्मीद है ताकि इस क्षेत्र के भविष्य पर संयुक्त समझौते पर पहुँचा जा सके. हालाँकि ये भी देखना होगा कि ऐसे किसी समझौते पर कितना अमल हो पाता है.

भारत जैसे देश में जहाँ पिछले दो दशकों से आर्थिक प्रगति के कारण विश्व के पटल पर उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है, गुटनिरपेक्ष आंदोलन उसे उसकी उपनिवेश-विरोधी कार्रवाईयों की याद दिलाता है. लेकिन नैम भारत की अंतरराष्ट्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए एकमात्र फोरम नहीं है.

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारत तेजी से गुटनिरपेक्ष से आगे बढ़ रहा है. मैने अपनी किताब 'पैक्स इंडिका: इंडिया ऐंड द वर्ल्ड ऑफ द 21स्ट सेंचुरी' में इसे "मल्टी एलाइनमेंट" या विविध एकत्रिकरण कहा है.

इसका मतलब है कि भारत के कई देशों से कई अलग-अलग कारणों से संबंध हैं. इसलिए भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सदस्य होने के अलावा जी-77 और जी-20 का भी सदस्य है.

भारत इब्सा (आईबीएसए) संगठन का सदस्य है जिसके दूसरे सदस्य देश हैं ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका. इसके अलावा भारत रिक (आरआईसीएस) का भी सदस्य है जिसके दूसरे हिस्सेदार हैं रूस और चीन. दूसरे संगठन हैं ब्रिक्स (बीआरआईसीएस) और बेसिक (बीएएसआईसी).

भारत इन सभी संगठनों का सदस्य है और ये सभी संगठन उसके हितों को पूरा करते हैं.

इसी तरह भारत विश्व में अपनी जगह की ओर बढ़ रहा है और गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी इस सफर का हिस्सा है.

(शशि थरूर भारत के पूर्व विदेश राज्य मंत्री रह चुके हैं)
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/08/120829_shashi_tharoor_vk.shtml

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