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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, February 1, 2013

दुधवा की दुर्दशा के तीन दशक By देवेंद्र प्रकाश मिश्र

दुधवा की दुर्दशा के तीन दशक



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दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना दो फरवरी सन् 1977 में वन प्रबन्धन, वन्यजीवों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये की गई थी। इसके लिये बताए गए नियम तथा कानून यथार्थ में खरे नही उतर रहें हैं। सन् 2000-01 से लागू किये गये दस वर्षीय मैनेजमेंट प्लान के अनुसार चल रहे कार्यो के आशातीत् सफल परिणाम नहीं निकले हैं। वरन वन्यजीवों की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। तमाम वन्यजीवों के साथ ही आमरूप से वनराज बाघ के होने वाले दर्शन अब धीरे-धीरे दुर्लभ हो चले हैं। जिससे लग रहा है कि वन्यजीवों तथा बाघों से भरपूर रहने वाला दुधवा पार्क का लगभग दो दशकपूर्व वाला स्वर्णकाल लोगों के लिये भविष्य में यादगार बनकर रह जायेगा। उधर जंगल के समीपवर्ती गांवों के नागरिक जो वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा में आगे रहकर सहभागिता करते थे वही अब पार्क कानून की पाबंदियों से उनके दुश्मन बन गए हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है कि नागरिकों के हितों को अनदेखी किए बगैर वनजीवन तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए तभी सार्थक व दूरगामी परिणाम निकल सकते हैं।

सन् 1861 में अंगे्रजी हुकूमत में काष्ठ उत्पादन के लिये खैरीगढ़ परगना क्षेत्र के 303 वर्ग किमी जंगल को संरक्षित किया गया। तत्पश्चात सन 1886 में मिस्टर ब्राउन द्वारा बनाए गए वैज्ञानिक प्लान के अनुसार यहां वन प्रबंधन की  शुरूआत की गई। सन् 1905 में वन विभाग का नियंत्रण हो जाने के बाद विलुप्त प्रजाति बारहसिंघा के संरक्षण के लिये 15.7 वर्ग किमी वनक्षेत्र को सोनारीपुर सेंक्चुरी के नाम से संरक्षित किया गया। कालांतर में वन्यजीवों के संरक्षण को ध्यान में रखकर सरकार ने इस क्षेत्रफल को बढ़ाकर 212 वर्ग किमी क्षेत्रफल को दुधवा सेंक्चुरी के रूप में संरक्षित कर दिया। सन् 1977 दो फरवरी को सरकार ने वन, वन्यजीवों के साथ ही जैव-विविधता को संरक्षण देने के लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर दी। 634 वर्ग किमी दुधवा के वन क्षेत्रफल में किशनपुर वन्यजीव बिहार का 204 वर्ग किमी वनक्षेत्र शामिल करके 1987 में दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई। सन् 1994 में 66 वर्ग किमी आरक्षित वनक्षेत्र दक्षिणी बफर के रूप में जोड़ने के साथ ही कतर्नियाघाट वंयजीव प्रभाग को भी इसमें शामिल कर दिए जाने के बाद कुल 1000 वर्ग किमी  वन क्षेत्रफल दुधवा टाइगर रिजर्व के तहत संरक्षित हो गया है।

गौरतलब है कि वन तथा वन्यजीवों को संरक्षण व सुरक्षा देने के उद्देश्य से वनपक्षी एवं पशु संरक्षण अधिनियम 1912, भारतीय वन अधिनियम 1927 के बाद वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम 1972 बनाया गया। इनके लगभग बेअसर रहने पर सन् 1991 एवं 2000 और इससे पूर्व भी अधिनियम में किये गये तमाम महत्वपूर्ण संशोधनों के बाद भी उत्तर प्रदेश में वन माफिया एवं वन्यजीवों तस्करों और शिकारियों की कारगुजारियां बेखौफ जारी हैं। इसके अतिरिक्त वन्यजीवों तथा वन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यान के भी नियम कानून बने हुए हैं। जो बदलते परिवेश में अब बेमानी हो गए हैं और दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की प्रगति में बाधक बन गए हैं।

राष्ट्रीय उद्यान के कानून एवं नियमों में वन्यजीवों का जीवनचक्र प्रभावित न हो इसलिए उनके वासस्थल क्षेत्र में मानव प्रवेश निषिद्ध करके उनको प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराने की इसमें परिकल्पना की गई है। साथ ही जैव विविधता को संरक्षण देने के उद्देश्य से जंगल में जो जैसा है वैसा ही रहेगा उसमें परिवर्तन न किए जाने का कानून भी बनाया गया है। किताब में तो यह कानून अच्छा है लेकिन यथार्थ के आइने में यह नियम-कानून खरे नहीं उतर रहें हैं। इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ विषम हैं और ग्रामीणजन राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व जंगल से वन उपज का लाभ लेते रहे जिस पर अब पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके कारण वन तथा वन्यजीवों के संरक्षण में संवेदनशील हो भावात्मक रूप से जुड़े ग्रामीणों का स्वभाव इनके प्रति क्रूर हो गया है तथा वन उपज की चोरी को बढ़ावा भी मिला है। 

इसके अलावा अब बनाधिकार कानून 2007 लागू हो जाने के बाद बन उपज पर अपना  अधिकार हासिल करने की मांग भी बढ़ रही है साथ ही इस कानून को ढाल बनाकर  ग्रामीण जंगल से जबरन जलौनी लकड़ी, खागर, घास-फूस लाने में जुट गए हैं इससे  वन विभाग और ग्रामीणों के बीच टकराव के नए अध्याय जुड़ने लगे हैं, यह संघर्ष न वंयजीवों के हित में ठीक है और न ही मानव जाति के लिये। ऐसी स्थिति में जरूरी है कि इस तरह के कुछ ऐसे रास्ते निकाले जाएं जिनसे बन विभाग और ग्रामीणों के बीच चैड़ी हो रही खाई भी पट जाए और वंयजीव भी शांति से जंगल में रह सके।

दुधवा में सफलता पूर्वक चल रही गैण्डा पुनर्वासन परियोजना के तहत विचरण करने वाले 32 सदस्यीय गैण्डा परिवार के सदस्य और हाथी समेत तमाम वनपशु अक्सर जंगल के बाहर आकर कृषि फसलों को भारी क्षति पहुचाते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि प्रदेश सरकार द्वारा गैण्डों सहित अन्य वनपशुओं द्वारा की जाने वाली फसल क्षति का उचित मुआवजा का निर्धारण नही किया गया है साथ ही वनपशुओं से होने वाली जानमाल की क्षति की वाजिब भरपाई न होने से ग्रामीणजन हमेशा वन्यजीवों को दुश्मन की निगाह से देखते हैं।

दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना हो जाने के बाद सन् 1983 से 1993 तक वन विशेषज्ञ विश्वभूषण गौड़ द्वारा बनायी गई वन प्रबंधन कार्य योजना पर यहां कार्य किया गया। इसमें वन एवं वंयजीव संरक्षण जैव विविधता की सुरक्षा के साथ ही काष्ठ उत्पादन को भी प्रमुखता दी गई थी। तत्पश्चात सन् 1993-94 से 2000-01 तक डॉ आरएल सिंह की कार्य योजना के तहत वन प्रंबधन किया गया। वर्तमान में यहां तैनात रहे तत्कालीन फील्ड निदेशक व अब सूबे के प्रमुख वन संरक्षक रूपक डे द्वारा तैयार की गई कार्ययोजना पर पूर्णतया वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रबंधन किया जा रहा है। इस प्लान में वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन, वन्यजीवों की प्रगति आधारित अनुश्रवण, आद्र क्षेत्रों का विकास, फायर कंट्रोल एवं प्राकृतवास पर प्रतिकूल कारकों को चिन्हिृत कर उनके नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है। दस साल का समय व्यतीत हो गया है लेकिन इस कार्य योजना के भी अनुकूल परिणाम नही निकले हैं। अलबत्ता अति संरक्षण के चलते मानव एवं वन्यजीवों के बीच की खाई चैड़ी ही होती जा रही है और इससे जंगल में वन्यजीवों की संख्या में भी गिरावट दर्ज हो रही है। जबकि वन विभाग लगातार कागजों में वन्यजीवों की संख्या को बढ़ाकर दर्शित करता आ रहा है। वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा के लिये विश्व प्रकृति निधि-भारत द्वारा नई कार्ययोजना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है। लेकिन इससे पूर्व यह भी जरूरी है कि अब तक जिन कार्ययोजनाओं पर काम किया है उनके लाभ हानि का भी अवलोकन और  समीक्षा की जाए ताकि परिणामों का भी पता चल सके। बदलते समय के साथ  कार्ययोजना को तैयार करने वालों ने अगर वन्यजीवों के साथ में मानव के हितों को भी ध्यान में रखकर कार्ययोजना तैयार नही की तो शायद इसका हस्र भी पूर्ववर्ती कार्ययोजनाओं की तरह ही होगा। इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है।

दुधवा राष्ट्रीय उद्यान को स्थापित हुए पैंतिस साल व्यतीत हो गए हैं। इसके लाभ-हांनि का यदि आंकलन मोटे तौर पर किया जाए तो बचे-खुचे वन तथा वन्यजीवों की सुरक्षा व संरक्षण की दृष्टि से आवश्यकता के अनुरूप किया जा रहा वन प्रबंधन समय की मांग है और इसमें सभी को सहयोग भी देना चाहिए। लेकिन संरक्षण की अधिकता में मानवहित को नजरंदाज किया जा रहा है इससे आशातीत परिणाम नहीं निकल रहें हैं। वन विभाग तथा आमजनता के बीच बढ़ी दूरियां वन प्रबंधन के लिये हितकर नहीं कही जा सकती हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम है पिछले पांच साल में वन्यजीवों की लगातार घटती संख्या है। पार्क स्थापना से पूर्व जब जंगल में मानव प्रवेश निषेध नहीं था तब घास-फूस, जलौनी लकड़ी आदि वन उपज का लाभ ग्रामीणों को दिया जाता था अब इसे ग्रासलैण्ड मैनेजमेन्ट के तहत जलाया जाता है। इससे जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतु जलकर मर जाते हैं तथा कीमती लकड़ी जिसे बेंचकर राजस्व प्राप्त किया जा सकता है वह भी कोयला बन जाती है। वन विभाग संरक्षित वन क्षेत्र को पूर्णतया निषिद्ध बनाने के प्रयास में लगा हुआ है। इससे प्राकृतिक परिस्थितियां तो उत्पन्न हो जाएगीं। किंतु जो परिणाम अब तक नही निकल पाए हैं इससे सार्थक दूरगामी परिणाम क्या निकल पाएगें। इस पर सवालिया निशन पूर्ववत् लगा हुआ है। बढ़ती जनसंख्या, बदलते परिवेश एवं विषम परिस्थितियों में यह आवश्यक हो गया है कि अब वन एवं वन्यजीवों तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए जिससे मानव का भावात्मक लगाव वन्यजीवों के प्रति पैदा हो सके। इसको नजरदंाज करके उठाए गए कदम फलदायक कदापि नहीं होगें।

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