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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, February 1, 2013

सरहद पर रहने का श्रॉप By ख्वाजा यूसुफ जमील

सरहद पर रहने का श्रॉप



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http://visfot.com/index.php/current-affairs/8392-indo-pak-border-story-13131.html

पिछले 65 सालों में कई अवसर आएं हैं जब भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश कभी फौजी तो कभी राजनीतिक स्तर पर बयानबाज़ी कर संबंध में तनाव पैदा करते रहे हैं। परंतु रिश्ते की इस कड़वाहट का मूल्य सीमा पर बसने वालों को ही चुकाना पड़ा है। सरहद पर रहनेवाले लोगों की दशा देखकर यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि दोनों देशों के बीच लगातार तनाव की वजह से सीमा पर रहने वाले दो पाटों के बीच पिसकर रह गए हैं।

हाल ही में जम्मू स्थित पुंछ जिला से लगने वाले भारतीय सीमा के अंदर घुसकर पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा वीभत्स कारवाई के बाद दोनों देशों के बीच उपजा तनाव वक्त के साथ ठहर तो गया है लेकिन यह कहना कि अब शांत हो गया है शायद जल्दबाजी होगी। दोनों ओर से बस सर्विस शुरू तो अवश्य हो गई है परंतु पाकिस्तान कभी फौजी कारवाई तो कभी शाहरूख खान पर विवादित बयान देकर जानबूझकर मामले को गरमाए रखने की कोशिश कर शांति के पहल को धक्का पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। सरहद पर फौजियों के साथ अमानवीय कारवाई का असर न सिर्फ सीमा तक सीमित था बल्कि समूचे देश में गुस्से की लहर के रूप में देखा गया।

एक पल के लिए ऐसा लग रहा था कि दोनों देशों के बीच बातचीत के दरवाज़े बंद हो चुके हैं और युद्ध ही आखिरी विकल्प है। परंतु हमेशा की तरह भारत ने संयमता का परिचय देते हुए एक बार फिर से युद्ध को टालकर विश्व को शांतिप्रिय देश होने का सबूत दिया है। इस हालात में भारतीय मीडिया ने भी बखूबी अपना रोल अदा किया। इलैक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टरों ने सरहद से लाइव टेलीकास्ट कर देशवासियों को भारतीय सैनिकों के हालात से रू-ब-रू करवाया। परंतु इस दौरान किसी को भी सरहद पर बसे नागरिकों की याद नहीं आई। किसी ने भी यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि आखिर सरहद पर बसे भारतीय गांव के हालात क्या हैं? सरकारी योजनाओं का यहां क्या हाल है? शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की कैसी स्थिती है? 
 
वास्तव में भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का असर समूचे दक्षिण एशिया महाद्वीप पर नजर आता है। परंतु इसका सबसे अधिक प्रभाव यदि किसी पर पड़ता है तो वह सीमा के करीब रहने वाले हमारे जैसे निवासी हैं। क्योंकि जब जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान आपस में अपनी मर्दानगी आज़माते हैं तो ऐसा लगता है कि किस पल कहां से एक गोली या बारूद गांव वालों के लिए बर्बादी का पैगाम लेकर हाजिर हो जाए। जैसे जैसे यह दोनों देश एक दूसरे पर संघर्ष विराम के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं वैसे वैसे सीमा पर बसे निवासियों के दिल की धड़कनें तेज़ होती जाती हैं। कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो पिछले कुछ वर्षों से सीमा पर लगभग शांति थी। समय समय पर किए गए फौजी कारवाई का मूल्य सरहद पर बसे नागरिकों को शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से चुकाना पड़ता रहा है। उन्हें मालूम है कि गोली और जवाब में चलने वाली गोली एक फौजी और आम नागरिक में अंतर को नहीं जानती है। यही कारण है कि सीमा से सटे गांवों के प्रत्येक घर में तकरीबन ऐसे लोग मिल जाएंगे जिन्होंने अपना भाई, पिता या पति खोया है। 

इतना ही नहीं बल्कि आज भी पुंछ में विकलांगों की एक बड़ी संख्या मौजूद है जो भारत और पाकिस्तान की गोलाबारी में अपने शरीर का महत्वपूर्ण अंग खोकर सारी जिंदगी अपाहिज के रूप में जीने को मजबूर है। सीमा से सटे कई गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। न तो यहां बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था है और न ही रोजगार का कोई साधन उपलब्ध है। शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार से भी गांव के बच्चे वंचित हैं। पुंछ जिला हेडक्वाटर्र से महज़ 14 किमी दूर पाक अधिकृत कश्मीर की सीमा से लगा गांव बांडी चेंचिया इसका एक उदाहरण है जहां शिक्षा के मौलिक अधिकार की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े इस गांव में दस वार्ड हैं और करीब 6,000 हजार की आबादी है। यहां के निवासी 54 वर्षीय मुहम्मदीन के अनुसार वार्ड नंबर 3 में आठ वर्ष पूर्व एक प्राइमरी स्कूल का निर्माण किया गया था। तब से लेकर आज तक महज़ एक कमरा में यह स्कूल अपना काम कर रहा है। 

कमरे की कमी के कारण बच्चे साल भर खुले आसमान के नीचे पढ़ाई करने को मजबूर हैं। देशभर में बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाली केंद्र की महत्वपूर्ण मिड डे मील योजना यहां नाकाम ही नजर आता है। इस स्कूल की एक छात्रा आफरीन (9 वर्ष) के अनुसार उन्हें मिड डे मील कभी मिलता है तो कभी नहीं। गांव की एक महिला शमशादा कौसर (38 वर्षीय) कहती हैं कि हमारे बच्चों को स्कूल में शिक्षा की बात तो दूर की बात है उन्हें सरकार द्वारा दिया जाने वाला मिड डे मील और यहां तक कि साफ पानी भी उपलब्ध नहीं होता है। हम इसकी शिकायत कहां कराएं? गांव के एक बुजुर्ग मुहम्मद बशीर (58 वर्षीय) के अनुसार हमारे गांव के बच्चे पुंछ जाकर प्राइवेट एकेडमी में शिक्षा ग्रहण करने को मजबूर है। क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बेहद कमी है। उन्होंने बताया कि प्राइमरी स्कूल में तीन अध्यापकों की डयूटी है परंतु कोई भी रोजाना नहीं आता है। ऐसे में केवल एक शिक्षक से सभी विषयों की पढ़ाई करवाने की आशा करना बेमानी होगा। यह स्थिति सीमा पर बसे केवल एक गांव के शिक्षा व्यवस्था की है। कुछ ऐसे ही हालात स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी है। जहां न तो स्वास्थ्य केंद्र सेवा देने लायक है और न ही जनवितरण प्रणाली से गांव वालों को कोई विषेश लाभ मिल पाता है। कमोबेश ऐसी परिस्थिती लगभग उन सभी गांवों में है जो सीमा के बिल्कुल करीब हैं। लेकिन इसके बावजूद यह देश के दूसरे हिस्सों की तरह मीडीया की सुर्खियां नहीं बन पाती हैं। 

इसमें कोई शक नहीं कि हाल में ही भारतीय फौजी के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया गया उसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है क्योंकि इस तरह की हरकतें किसी भी सभ्य समाज यहां तक कि फौजी कानून से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि इस तरह का बुजदिलाना हरकत करने वाला फौजी हो ही नहीं सकता है। फौजियों के साथ किसी भी प्रकार का अमानवीय हरकत एक फौजी के साथ साथ सीमा पर बसे सभी नागरिकों को चिंतित करता है। इस प्रकार के उपजे तनाव से उनकी रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित हो जाती है जो पहले से ही तंगहाली और सरकारी योजनाओं के अभाव में जी रहे हैं। (चरखा फीचर्स)

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