THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, April 29, 2013

दलित के वर्चुअल होने का अर्थ है दलित का लोप

दलित के वर्चुअल होने का अर्थ है दलित का लोप


जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था भारत का अतीत

विज्ञानसम्मत चेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा

अस्मिता,आंबेडकर और रामविलास शर्मा भाग-3


जगदीश्वर चतुर्वेदी

http://hastakshep.com/hindi-literature/criticism/2013/04/29/virtual-dalit-absence-dalit#.UX551qKBlA0


आधुनिक काल आने के बाद पहली बार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहली बार मनुष्य झाँकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परम्परायें, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिक काल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्य काल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुयी या पद्य में इससे भी दुख के सम्प्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्य काल में मनुष्य अपने दुख और पिछड़ेपन के लिये भाग्य को दोष देता था, पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था, ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किन्तु आधुनिक युग में मनुष्य को पहली बार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता, उन्नति के मन्त्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहली बार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीक मात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।

सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरम्भ करके कितना बड़ा क्रान्तिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिये शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सब कुछ अच्छा नहीं होता रहा है।भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था।जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिये स्वतन्त्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह सम्प्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछड़े थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परम्परा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिक भेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिये शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गयी तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।

डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार, विचारक और मीडिया समालोचक हैं। इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर।

आधुनिक काल में पहली बार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिये शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिये था। शूद्रों के लिये शिक्षा अस्तित्व रक्षा, स्वाभिमान, आत्म निर्भरता और आत्मोद्धार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है।

ज्योतिबा फुले- आंबेडकर के द्वारा शुरू की गयी अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गयी चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना।

आम्बेडकर ने अछूत के रूप में जिन जातियों को रखा उनका चयन अंग्रेजों ने किया था। सन् 1935 के कानून में उन जातियों की सूची बना दी गयी जिनको अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है। इस तरह के वर्गीकरण पर रामविलास शर्मा ने लिखा है "अछूत हमेसा अचूत बने रहें, यह स्थिति अँग्रेज पक्की कर रहे थे।"  [13] अछूत प्रथा से हिन्दुओं को आर्थिक लाभ था और यह धर्म पर आधारित थी। आम्बेडकर का मानना था कि हिन्दू सामाजिक गठन की विशेषता है और वह अन्य सभी जन समुदायों से हिन्दुओं को अलग करती है।[14]

अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किन्तु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आन्दोलन नहीं हुये। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रान्ति नहीं हुयी क्या अछूत समस्या को खत्म किये बगैर क्रान्ति सम्भव है ? क्या वजह है कि आधुनिककाल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आन्दोलन सम्भव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जातिभेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा सम्बंध है।

भारत में जातिव्यवस्था के खिलाफ क्रान्ति अथवा सामाजिक क्रान्ति न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं, पहला, अंधविश्वासों में आस्था, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा, कर्मफल के सिद्दान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रान्ति नहीं हो पायी। अंध विश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जातिभेद क्यों है? गरीब, गरीब क्यों है और अमीर, अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियाँ चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिये है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किये थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिये अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है।

अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किये थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नये किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुयी। इससे जातिभेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिद्धान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिद्धान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधान दर्जा दिया था। गीता आज भी मध्य वर्ग की आदर्श किताब है।

उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति प्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकाल कर पेश किया। सम्भवत: बाबा साहेब अकेले बड़े स्वाधीनता सेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिद्दान्त, पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना सम्भव ही न होता। कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिये, जातिप्रथा से मुक्ति के लिये चार प्रमुख कार्य किये जाने चाहिये।

पहला – अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।

दूसरा – पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।

तीसरा – कर्मफल के सिद्धान्त के खिलाफ सचेतनता।

चौथा – अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के सम्बंध और पक्की दोस्ती।

ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना सम्भव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा, नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिये आम लोगों में खासकर दलितों में विज्ञान सम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञानसम्मत चेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलित चेतना से मुक्ति नहीं होगी। जाति भेद कभी खत्म नहीं होगा। हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिये कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूप मण्डूकता कूट-कूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूप मण्डूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाये हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जातिप्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जाति प्रथा को आज नष्ट करने के लिये सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैंकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नये युग की विशेषता मानने लगे हैं। नये आधुनिक जीवन सम्बंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जातिभेद और जाति घृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जाति घृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूँजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जाति घृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जाति घृणा, जाति संघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं।

सामाजिक अलगाव पूँजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है, इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिये। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ता भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत, सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी।

हमें सोचना चाहिये आरक्षण किया, संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाये, सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबद्ध हैं, इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं ले रहा। एससी, एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहूँगा। यहाँ पर जातियाँ हैं। जातिभेद भी है। किन्तु निचले स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठनों का तन्त्र इस कदर फैला हुआ है कि आप उसकी परिधि के बाहर जा नहीं सकते। यह तन्त्र सामाजिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बंध और आपसी भाईचारा बनाये रखने और विनिमय का काम करता है। इसका सुफल यह निकला है कि आम लोगों में अभी शिरकत और सहयोग का भाव बचा हुआ है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहयोग करते हैं। यही वजह है पश्चिम बंगाल में जातिगत तनाव और जाति संघर्ष नहीं हैं।

जबकि सच यह है आरक्षण यहाँ कम लागू हुआ है। राजनीति में दलितों का नहीं सवर्णों का बोलवाला है। इसके बावजूद जाति संघर्ष नहीं हैं। यथासम्भव निचली जातियों को जमीन का हिस्सा भी मिला है। संगठन के कारण उनकी आवाज सुनी भी जाती है। इसके कारण उत्पीडन करने की हिम्मत नहीं होती। आंबेडकर ने स्वयं संगठन को महत्ता दी थी, संगठन के तौर पर आदर्श सांगठनिक संरचना कम्युनिस्टों के पास है। मुश्किल यहाँ से शुरू होती है। कम्युनिस्ट कतारें अभी भी उपरोक्त तीन विचारधारात्मक बाधाओं को नष्ट नहीं कर पायी हैं। अभी भी कम्युनिस्ट कतारों में अंधविश्वासों में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले, कर्मफल के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले बचे हुये हैं। किन्तु इनकी संख्या में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी है।

किन्तु एक चीज जरूर हुयी है कि जातिभेद का जितना प्रत्यक्ष ताण्डव देश के अन्य इलाकों में नजर आता है वैसा यहाँ नजर नहीं आता। इसका प्रधान कारण है सामाजिक रूप से कम्युनिस्ट संगठनों का सामाजिक संरचनाओं में घुला मिला रहना। आंबेडकर के इस विचार को कि जातिप्रथा को नष्ट करने के लिये जरूरी है कि शूद्रों और गैर शूद्रों में रोटी-बेटी के सम्बंध हों। यही चीज कमोबेश पश्चिम बंगाल में लागू करने में वामपंथियों को सफलता मिली है। इस अर्थ में वे इस राज्य में सामाजिक क्रान्ति में एक कदम आगे जा पाये हैं। दूसरी बात यह है कि दलितों पर उत्पीडन की घटनाएं इस राज्य में कम से कम होती हैं। यदि कभी दलित उत्पीड़न की कोई घटना प्रकाश में आती है तो प्रशासन से लेकर राजनीतिक स्तर तक,यहाँ तक कि मध्यवर्गीय कतारों में भी उसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया होती है। यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक संवेदनशीलता अभी बची हुयी है। अन्य राज्यों में स्थिति बेहद खराब है।

जिस राज्य में दलित मुख्यमन्त्री हो, दलित पार्टी का शासन हो, वहाँ दलित उत्पीड़न की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं। इन घटनाओं के प्रति आम जनता में संवेदनशीलता कहीं पर भी नजर नहीं आती। क्योंकि उन राज्यों में सामाजिक अलगाव को कम करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक दल नहीं करते। बल्कि राजनीतिक लाभ और क्षुद्र सांगठनिक लाभ हेतु सामाजिक अलगाव का इस्तेमाल करते हैं।

एक वाक्य में कहें तो उत्तरप्रदेश, बिहार आदि राज्यों में जातीय दलों ने सामाजिक अलगाव को अपनी राजनीतिक पूँजी में तब्दील कर दिया है। वे सामाजिक अलगाव का निहित स्वार्थी लक्ष्यों को अर्जित करने के लिये दुरूपयोग कर रहे हैं। इससे जाति संघर्ष बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। अछूत समस्या बढ़ी है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिये सामाजिक अलगाव को खत्म करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव का राजनीतिक दुरूपयोग बन्द करना जरूरी है।

दलित का राजनीतिक दुरूपयोग सामाजिक टकराव और तनावों को बनाये रखता है और विगत साठ सालों में हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समस्या के समाधान के नाम पर यही किया है। उनके लिये दलित मनुष्य नहीं है बल्कि वोट है। एक अमूर्त पहचान है। बेजान चीज है। सत्ता का स्रोत है। यही दलित की आयरनी भी है। अब हम दलित को मनुष्य के तौर पर नहीं वोट बैंक के तौर पर जानते हैं। आरक्षण के नाम से जानते हैं। वोट बैंक और आरक्षण में दलित की पहचान का रूपान्तरण दलित को वर्चुअल बना देता है। दलित का वर्चुअल बनना मूलत: मध्यकाल में लौटना है। वर्चुअल बनने के बाद दलित और भी दुर्लभ हो गया है। हमें दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल बनने का अर्थ है वह है भी और नहीं भी। वर्चुअल दलित मायावती जैसे नेताओं की पूँजी है। ये दोनों एक-दूसरे के चौखटे में फिट बैठते हैं। मायावती के यहाँ दलित वर्चुअल है। ठोस हाड़ माँस का इन्सान नहीं है। यही वजह है दलित की किसी भी समस्या को ठोस रूप में मायावती अपने चुनावी घोषणापत्र में व्यक्त नहीं करती। बल्कि यह कहना सही होगा कि मायावती स्वयं वर्चुअल है। उसने कोई भी ठोस चुनावी घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। यही हाल दलितों के मसीहा लालू-मुलायम का है। ये दलितों के हैं और दलितों के नहीं भी हैं। दलित इनके यहाँ वर्चुअल है और दलित के लिये ये वर्चुअल हैं। कहने का तात्पर्य यह है दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल होने का अर्थ है दलित का लोप । यह एक तरह से बेहद त्रासद और भयावह है।

[13] .उपरोक्त,पृ.567

[14] .उपरोक्त.पृ.567

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