THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, April 29, 2013

आधुनिक युग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है अछूत की खोज

आधुनिक युग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है अछूत की खोज

अस्मिता,आंबेडकर और रामविलास शर्मा भाग-1

जगदीश्वर चतुर्वेदी

रामविलास शर्मा के लेखन में अस्मिता विमर्श को मार्क्सवादी नजरिये से देखा गया है। वे वर्गीय नजरिये से जातिप्रथा पर विचार करते हैं। आम तौर पर अस्मिता साहित्य पर जब भी बात होती है तो उस पर हमें बार-बार बाबा साहेब के विचारों का स्मरण आता है। दलित लेखक अपने तरीके से दलित अस्मिता की रक्षा के नाम बाबा साहेब के विचारों का प्रयोग करते हैं। दलित लेखकों ने जिन सवालों को उठाया है उन पर बड़ी ही शिद्दत के साथ विचार करने की आवश्यकता है। आम्बेडकर-ज्योतिबा फुले का महान योगदान है कि उन्होंने दलित को सामाजिक विमर्श और सामाजिक मुक्ति का प्रधान विषय बनाया।

अस्मिता विमर्श का एक छोर महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और उसकी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है, दूसरा छोर यू.पी-बिहार की दलित राजनीति और सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ा है। अस्मिता विमर्श का तीसरा आयाम मासमीडिया और मासकल्चर के राष्ट्रव्यापी उभार से जुड़ा है। इन तीनों आयामों को मद्देनजर रखते हुये अस्मिता की राजनीति और अस्मिता साहित्य पर बहस करने की जरूरत है।

अस्मिता के सवाल आधुनिकयुग की देन हैं। आधुनिक युग के पहले अस्मिता की धारणा का जन्म नहीं होता। आधुनिककाल आने के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक करने और अपने अतीत को जानने-खोजने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ उसने अस्मिता विमर्श को सम्भव बनाया।

विगत 150 सालों में अस्मिता राजनीति में व्यापक परिवर्तन हुये हैं। खासकर नव्य आर्थिक उदारीकरण और उपग्रह मीडिया प्रसारण आने बाद परिवर्तनों का सिलसिला तेज हुआ है। खासकर उत्तर आधुनिकतावाद आने के साथ सारी दुनिया में उत्तर आधुनिक अस्मिता की धारणा का तो बवंडर ही चल निकला। मसलन् अस्मिता निर्माण के उपरकरणों के रूप में मोबाइल, आयी पोड, मर्दानगी आदि पर जमकर चर्चाएं हुयी हैं।

डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार, विचारक और मीडिया समालोचक हैं। इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर।

उत्तर आधुनिकता के साथ आयी अस्मिता ने सेल्फ (निज ) केतरलविखण्डित, विश्रृंखलित,अ-केन्द्रित, अवसादमय,वर्णशंकर, रूपों को जन्म दिया। उत्तर आधुनिक अस्मिता का अर्थ है तर्क,सत्य,प्रगति और सार्वभौम स्वतन्त्रता वाले आधुनिक आख्यान का अन्त। इन दिनों अस्मिता के छोटे छोटे आख्यान केन्द्र में आ गये हैं। स्त्री से लेकर दलित तक, भाषा से लेकर संस्कृति तक, साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद, राष्ट्रवाद आदि तक अस्मिता की राजनीति का विमर्श फैला हुआ है।

आखिरकार आधुनिक युग में अछूत कैसे जीयेंगे हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे,रैदास को जानते थे। ये हमारे लिये कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किन्तु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था यह सब हम नहीं जानते थे। अछूत की खोज आधुनिक युग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।

अछूत के उद्धाटन के बाद पहली बार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढँक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है,एक प्रधानमन्त्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है। आंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिये से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में आंबेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है।

भारत एक खोज से सभ्यता विमर्श सामने आया, अछूत खोज ने परम्परा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोला।  आंबेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबासाहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया।

आधुनिकाल में किसी के लिये स्वाधीनता,किसी के लिये समाजसुधार, किसी के लिये औद्योगिक विकास , किसी के लिये क्रान्ति और साम्यवादी समाज से जुड़ी समस्याएं प्रधान समस्या थीं किन्तु आंबेडकर ने इन सबसे अलग अछूत समस्या को प्रधान समस्या बनाया।

अछूत समस्या पर बातें करने,पोजीशन लेने का अर्थ था अपने बन्द विचारधारात्मक कैदघरों से बाहर आना। जो कुछ सोचा और समझा था उसे त्यागना। अछूत और उसकी समस्याओं पर संघर्ष का अर्थ है पहले के तयशुदा विचारधारात्मक आधार को त्यागना और अपने को नये रूप में तैयार करना। अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रान्ति के लिये किये गये संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है।आधुनिककाल में क्रान्ति सम्भव है, आधुनिकता सम्भव है, औद्योगिक क्रान्ति सम्भव है किन्तु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही सम्भव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाये।

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के बारे में रामविलास शर्मा ने जिस नजरिये से विचार किया है उसके आधार पर अस्मिता की राजनीति को समझने में हमें मदद मिल सकती है। इस प्रसंग में रामविलास शर्मा की 'गाँधी, आम्बेडकर ,लोहिया और इतिहास की समस्याएँ' (2000) किताब बेहद महत्वपूर्ण है।

सामन्तवाद, साम्राज्यवाद, क्रान्ति, आधुनिकता, औद्योगिक क्रान्ति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौद्धिक वर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्य वर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिये संघर्ष कर सकते हैं किन्तु अछूत समस्या के लिये संघर्ष नहीं कर सकते। अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूँजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत समस्या को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं। अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्ति ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जायेगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहाँ पर अछूत समस्या,बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आयेगी।

रामविलास शर्मा ने लिखा है " भारत में वर्ग हैं, जाति बिरादरी हैं।दोनों यथार्थ हैं। परन्तु वर्ग ऐसा य़थार्थ है जो जीवन्त है,जो आगे बढ़ रहा है और जाति बिरादरी ऐसा यथार्थ है जो मर रहा है और पिछड़ रहा है। आम्बेडकर ने कहा थाः जब परिवर्तन आरम्भ होता है, तब सदा पुराने पुराने और नये के बीच संघर्ष होता है। नये का समर्थन न किया जाये तो यह खतरा बना रहता है कि वह इस संघर्ष में निरस्त कर दिया जायेगा।"[1]

रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर की विश्वदृष्टि की खोज करते हुये रेखांकित किया कि उनके दृष्टिकोण का आधार वर्ग हैं, मजदूरवर्ग है, न कि जाति। उन्होंने लिखा है, " यदि इस समय अभ्युदयशील वर्गों का समर्थन न किया गया, जाति-बिरादरी का समर्थन किया गया, तो यह सम्भव है,जाति-बिरादरी बनी रहे और वर्गों की भूमिका पीछे छूट जाये। जाति-बिरादरी के भेद वर्गों के संगठन और वर्ग संघर्ष द्वारा ही सम्भव किये जा सकते हैं।आम्बेडकर ने कहा था,मजदूरवर्ग को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा थाःमजदूरों को केवल अपने संघ कायम करने से संतोष नहीं करना चाहिए उन्हें घोषित करना चाहिए कि उनका उद्देश्य शासन-तन्त्र पर अधिकार करना है।"[2]

दुखद बात यह है कि आम्बेडकर की वर्गीय दृष्टि की बजाय अस्मिता की राजनीति करने वालों ने जाति और वर्ण के बारे में लिखी बातों को अपना लिया है और बाकी सारी बातों को त्याग दिया है।

[1] .शर्मा,रामविलास. गाँधी,आम्बेडकर,लोहिया और भारतीय साहित्य की समस्याएँ,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, 2000, पृ.637

[2] .उपरोक्त.पृ.638

जारी…….

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