THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, April 30, 2013

झारखंडी किशमिश – महुआ

में तो महुआ को स्थान दिला दिया परंतु बहुताय में पाया जाने वाला महुआ का झारखंड़ में वो स्थान प्राप्त नहीं हुआ जबकि आदिवासी और दलित बहुल राज्य झारखंड़ के ग्रामीण इलाकों में कई महीने चुल्हा महुआ बेच कर भी जलता है. चिंताजनक बात यह है कि राज्य में महुआ के फल से गैरकानूनी ढ़ंग से शराब बनाने का धंधा ग्रामीण इलाकों में घर-घर में पाया जाता है जिससे ग्रामीणों का दाल-रोटी की व्यवस्था तो हो जाती है परंतु वैसे घरों के किशोर व युवकों का भविष्य खतरे में पड़ गया है. कम उम्र से ही महुआ के शराब की लत नवयुवकों को लग जाती है जो नशे की अवस्था में कई अन्य अपराधिक प्रवृतियों को जन्म देती है.
महुआ की पैदावार ज्यादा होने के कारण ग्रामीणों द्वारा इसे पड़ोसी राज्यों यथा ओडि़शा, छतीसगढ़ और पश्चिम बंगाल को औनेपौने दाम में बेच दिया जाता है. महाराष्द्र सरकार के लिए जो महत्व अंगूर का है, गोवा सरकार के लिए जो महत्व काजू का है वहीं महत्व झारखंड़ सरकार के लिए महुआ का हो सकता है परंतु महुआ आधारित शराब उद्योग झारखंड़ में नहीं है जबकि महाराष्द्र सरकार अंगूर से शराब बनाने का तथा गोवा में काजू से फेनी नामक शराब बनाने का वकायदा उद्योग है जिससे संबंधित सरकारों को राजस्व की प्राप्ति होती है. झारखंड़ सरकार को भी महुआ आधारित शराब उद्योग लगाने की दिशा की ओर पहल करना चाहिए जिससे राज्य के ग्रामीण इलाकों में आज घर-घर में शराब बनाने का धंधा चल रहा है वो बंद हो सके और ग्रामीण युवकों को शराब के नशे से बाहर निकाला जा सके, इसके अतिरिक्त सरकार को राजस्व की प्राप्ति होगी सो अलग.
उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों के जमाने में ब्रिटिश सरकार के मदद से राय बहादुर ठाकुर दास ने महुआ के फल और फूल के जांच के बाद इससे शराब बनाने का पहला डिस्टेलेरी रांची में सन् 1875 ई. में रांची डिस्टेलेरी के नाम से लगाया था. रांची डिस्टेलेरी के सभी मशीन और उसके कल-पूर्जे स्काटलैंड, बरबिंघम और मैनचेस्टर से मंगावाये गये थे. वर्तमान में रांची डिस्टेलेरी में महुआ से शराब नहीं बनाया जाता क्योंकि यह गैरकानूनी करार दिया गया है. महुआ से बेहतरीन शराब बनायी जा सकती है अगर इसे सही ढ़ंग से डिस्टेलेरी में बनाया जाए परंतु ऐसा नहीं होने के कारण राज्य के ग्रामीण इलाकों में चोरी-छिपे घरों में यूरिया, नौशादर और कई सस्ते रसायनों को मिलाकर जानलेवा शराब या 'हूच' बनाया जाता है तथा जिसके सेवन से कई बार ग्रामीण मौत के शिकार तक हो जाते है.
प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के वंशज फेलिक्स पैडल, जो मानवशास्त्री और इंस्टीच्यिूट आॅफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद के विजिटिंग प्रोफेसर है, अपने झारखंड़ प्रवास के दौरान महुआ के स्वाद को चखने के बाद आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि राज्य सरकार क्यों नहीं महुआ आधारित उद्योग को अब तक विकसित किया और उन्होंने यह भी कहा था कि भारतीय क्यों फ्रेंच और इंग्लिश स्कोच लेते है जबकि उनके पास महुआ जैसे बेहतरीन फल मौजूद है.
झारखंड़ में प्राय सभी 24 जिलों में महुआ ही एकमात्र फल है जो बहुताय में पाया जाता है. वनों में निवास करने वाले आदिवासी व गैर आदिवासी परिवार चैत-वैशाख महीने में महुआ के फल को चुन-चुन कर इकटठा करते है और गांव के सप्ताहिक हाट में पड़ोसी राज्य यथा ओडि़शा, छतीसगढ़, पश्चिम बंगाल से आए व्यापारियों द्वारा निर्धारित मूल्यों पर बेचने के लिए मजबूर देखे जा सकते है. गिरिडीह के ग्रामीण इलाकों में फलची-परदहा गांव निवासी धनेश्वर तूरी कहते है कि जब वो छोटे थे तो उनका परिवार महुआ चून कर अच्छे मूल्य पर बेच देता था और उनका पूरा परिवार खूशी-खूशी सिर्फ महुआ चून कर सालभर खा लेता था परंतु आजकल तो पूरे महीने महुआ चुनकर और उसे बेचकर एक महीने का भी राशन जुटाना मुश्किल है. नाम नहीं बताने के शर्त पर चतरो गांव के निवासी ने बताया कि महुआ के फलों को चुनने के लिए उसका पांच सदस्यों का परिवार सूबह चार बजे से दस बजे दिन तक लगा रहता है, चालीस-पचास किलो महुआ चुनने के बाद उसे धोना पड़ता है फिर सूखाना पड़ता है तब हाट ले जाया जाता है जहां तीस रूपए मन से ज्यादा नहीं मिल पाता है इसलिए घर पर ही शराब बनाने लगे और बेचने लगे. पुलिस जब आती है तो एक-दो बोतल दारू और एक-डेढ़ सौ रूपया दे दिया करता हॅंूं. इस तरह गुजारा हो जाता है. गांवों में दलित, आदिवासियों के ऐसे कितने ही घर है जो गैरकानूनी ढ़ंग से महुआ का शराब बनाते है. गिरिडीह जिला अंतगर्त मंझलाडीह गांव के प्राय सभी आदिवासी घरों में महुआ से शराब बनाने की परम्परा चली आ रही है. शराब बनाने के बाद उसे बीयर के बोतलों में भरकर थैली में लेकर दूर-दूर तक लोग बेचने चले जाते है. दूर-दराज गांवों में समृद्ध परिवार वाले जैसे रोज दूध लेते है उसी तरह महुआ का शराब भी रोज लेते है.

राज्य सरकार को गंभीरता से इस ओर ध्यान देना होगा कि झारखंड़ के गांवों में घर-घर में देशी डिस्टेलेरी होने से वैसे लाखों परिवारों का भविष्य क्या होगा जो शराब बनाते है जिसे ग्रामीण चुआना कहते है, तथा जिसमें बच्चे और महिलाएं भी शमिल रहते हैं.

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