THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, April 27, 2013

आगे तीतर ,पीछे तीतर, कुल कितने तीतर? चिटफंड कारोबार में लगे लाखों युवाओं का भविष्य अंधेरे में। मुआवजा मिले न मिले , इनके रोजगार का क्या होगा?

आगे तीतर ,पीछे तीतर, कुल कितने तीतर? चिटफंड कारोबार में लगे लाखों युवाओं का भविष्य अंधेरे में। मुआवजा मिले न मिले , इनके रोजगार का क्या होगा?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


चिटफंड कारोबार में लगे लाखों युवाओं का भविष्य अंधेरे में। मुआवजा मिले न मिले , इनके रोजगार का क्या होगा?चिटफंड गोरखधंधे का  नतीजा इस राज्य के लिए ही नहीं, बाकी देश के की सेहत के लिए पोटासियम सायोनाइड की तरह असर करने  लगा है। जिसकी परिणति अनिवार्य मृत्यु के अलावा कुछ नहीं है। अभी थोड़ा अपने दिमाग पर जोर लगाइये। कोलकाता महानगर में सिर्फ शारदा समूह के मीडिया समीह के दस टीवी चैनल व अखबारों से एक हजार से ज्यादा पत्रकार बेरोजगार हो गये। बंगाल तो क्या पूरे भारत में यह बेनजीर है। मीडिया पर दूसरी चिटफंड कंपनियों का पैसा भी लगा है। कोलकाता के अलावा सिलिगुड़ी, लखनऊ, दिल्ली , रांची. गुवाहाटी और अन्यत्र भी। दिल्ली में तो ज्यादातर अखबार अब चिटफंड कंपनियों, बिल्डरों और प्रोमोटरों के पैसे से निकलते हैं।बंगाल में एक हजार पत्रकार बेरोजगार हुए तो देशभर में कितने पत्रकार अभी इस गोरखधंधे में फंसे होंगे? गैर पत्रकारों की संख्या चार पांच गुणा से कम न होगी!


शारदा समूह के करीब साढ़े तीन लाख एजंट बेरोजगार हो गये हैं। बंगाल में  सौ से ज्यादा चिटफंड कंपनियां हैं। महाराष्ट्र में बीस से ज्यादा। अब यह पहेली बूझिये कि आगे तीतर ,पीछे तीतर, कुल कितने तीतर?


पूरे देश में तमाम चिटफंड कंपनियों के नेटवर्क को देखते हुए यह तादाद करोड़ों तक पहुंचती है। फिर ज्यादातर चिटफंड कंपनियां निर्माण और प्रोमोटरी, होटल, रिसार्ट और   फिल्म  उद्योग से जुड़े हैं, जहां असंगठित श्रमिकों की संख्य सबसे ज्यादा है। कुशल और अकुशल, शिक्षित, कम शिक्षित और अपढ़ युवाओं को बेरोजगारी ​​के आलम में चिटफंड कंपनियों से जुड़ने का विकल्प सबसे आसान लगता है।कुशल कारीगरों को तो इसमें भी बहुत माल उड़ा लेने की दक्षता है।​​सरकार पहले ही रोजगार दिलाने की जिम्मेवारी बाजार पर छोड़ चुकी है। जिस बीपीओ उद्योग में सबसे ज्यादा युवाओं की खपत है, वहां भी चिटफंट की पहुंच है।


अभी बंगाल में ब्रांड एंबेसैडर शाहरुख खान की मदद से जो फिल्म सिटी बनी है, वह भी एक चिटपंड कंपनी की है। बांग्ला फिल्म उद्योग के ​​लिए जीना मुशकिल है चिटफंड के आक्सीजन के सिवाय। इसीलिए फिल्मी स्टार और ग्लेमर की दुनिया की बड़ी बड़ी हस्तियों से इन कंपनियों का चोली दामन का साथ है। इसके अलावा मैदानों पर भी चिटफंड का वर्चस्व है।


मान लिया कि सुदीप्त सेन की खासमखास देवयानी मुखोपाध्याय सरकारी गवाह बन जायेंगी। पर सुदीप्त के बचाव में जो तीन दर्जन से ज्यादा वकील खड़े हुए, उससे नहीं लगता यह कानूनी लड़ाई कोई केकयात्रा होने जा रही है। सबूत जुटाने और मुकदमे के नतीजे आने में सालों क्या दशक लग सकते हैं।


उदाहरण के लिए १९८८ में सैय्यद मोदी की हत्या हुई और २००९ में एक अपराधी को, जो मुख्य अभियुक्त नहीं है, को सजा के साथ बाकी अभियुक्तों के खलाफ साक्ष्य न मिलने की वजह से यह मामला बंद कर दिया गया। इस मामले में भी मंत्री से लेकर संतरी तक लिप्त थे और कुछ नहीं हुआ।


मान लीजिये, सुदीप्त को सजा हो गयी। इसमे दसियों साल लगेंगे। फिर सुदीप्त का पैसा कहां गया, उसकी कानूनी फौज की मौजूदगी में हो रही गहन पूछताछ से यह मामला खुलने के आसार नहीं लगते। छह अप्रैल को सीबीआई को चिट्ठी लिखकर १० अप्रैल को फरार हुए सुदीप्त के खिलाफ १६ को एफआईआर हुआ और सुविधा मुताबिक उसे गिरफ्तार कर लिया गया।जाहिर है कि पैसा और सबूत गायब करने में काफी वक्त मिल गया। जैसे संचयिनी के मामले में हुआ कि एक मालिक मारा गया तो दूसरे को अदालत ने दिवालिया घोषित कर दिया, ऐसा ही इस मामले में नहीं होगा. यकीनन कहा नहीं जा सकता।


अब मुआवजे की बात आती है। चिस कंपनी के साढ़े तीन लाख एजंट हों तो उसमें निवेश करने वालों की संक्या का अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जबकि राज्य में ग्रामीम बैंकिंग फेल हो गयी है और अल्प बचत मरणासण्ण है। सिर्फ शारदा समूह नहीं,ऐसी सौ से ज्यादा कंपनियां है। जिनके दरवाजे से लेकर खिड़कियां तक देर सवेर बंद होने वाली हैं।


पांच सौ करोड़ रुपए तो ऊंट के मुंह में जीरा से कम है। अगर सिगरेटों और कैनी से यह पैसा निकालना है तो किलो किलो​ खैनी,गुटका और हजारों सिगारेट रोजाना खपाकर भी हम राज्य सरकार को मुआवजे को रकम जुटाने में कामयाब नहीं बना सकते।


दीदी को लगता है कि यह समस्या समझ में आने लगी है और दीदी ने इसके लिए गेंद केंद्र के पाले में डाल दिया है। केंद्र और राज्य का यह लफड़ा हमने वामशासन में लगातार ३५ साल तक देखा है। फिर वही अखंड कीर्तन चालू है।


आखिर केंद्र क्यों मदद करेगा? मदद कर दें तो बाकी राज्य जब वहीं मांग दोहरायेंगे तो केद्र क्या करेगा?ऐसी मदद का कोई कानूनी और संवैधानिक आधार तो है नहीं! यह तो सीधे तौर पर लालीपाप मामला है।सौदेबाजी है। सौदेबाजी में नतीजे धमकियों,रैली और धरने  से नहीं निकलते , दिग्गज क्षत्रपों को भी यह समझने की दरकार हैं।इस मामले में नीतीस कुमार, मुलायम, मायावती और करुणानिधि या जयललिता को क्लास लेनी चाहिए।तो शायद बेरोजगारों को कुछ उम्मीद मिलें।


अब मुआवजा मिलेगा तो किन्हें मिलेगा और कितना मिलेगा, न इसका परिमाम और न पद्धति के बारे में कोई पैमाना बना है। निवेशकों को मुआवजा मिल भी जाये मानवीय आधार पर ही सही, लेकिन एजंटों और कर्मचारियों को कुछ मिलने की फिलहाल उम्मीद नहीं है। फिर जो पत्रकार हैं, खिलाड़ी हैं, फिल्म उदोग, खेलों, निर्माण और बीपीओ से जुड़े असंगठित कर्मचारी और श्रमिक हैं, गैर पत्रकार है, तरह तरह के महिला ब्रिगेड में शामिल अनगिनत सुंदरियां हैं, उनको कुछ मिलने की आशा करना असंभव है। न केंद्र सरकार और न राज्य सरकार इनके लिए वैकल्पिक रोजगार के बारे में सोच रही है। जिनकी सबसे बड़ी जरुरत मुावजा नहीं, तत्काल रोजगार है क्योंकि उनके घरों में चूल्हा जल नहीं रहा है। बच्चों का स्कूल जाना बंद है। शादी व्याह अटक गये हैं। बीमारों का इलाज तो हो नही रहा, मर जाये या आत्महत्या कर लें तो कपन का भी इंतजाम नहीं है। सरकारों को अपनी अपनी राजनीति, वोट बैंक और छवि के  अलावा इस मामले में कोई परवाह है, अभीतक तो सबूत नहीं मिला है।​

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​विशेष विधानसभा अधिवेशन में नया बिल आने वाला है। जो बिल २००३ में पेश हुआ, वह २०१३ में भी कानून नहीं बन सका तो २०१३ में जो बिल आएगा, वह कब तक कानून बनेगा, इस सवाल पर एक फोन पर एक लाख या दस लाख का पुरस्कार नहीं है और न ही इसका जवाब देने को​​ कोई तैयार है।कानून बन गया और लागू हो गया तो बाकी बची कंपनियां भी गणेश जी को अलविदा कह देंगी और ऐसी हालत में बेरोजगारी ​​और बढ़ेगी।तब क्या होगा?इस सांप सीढ़ी के खेल में बेरोजगार युवा कब तक जी पायेंगे, इस पर तनिक गौर करें।


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