THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Wednesday, November 26, 2014

क्या संविधान में अंबेडकर का अवदान का मतलब सिर्फ रिजर्वेशन और कोटा है? जब तक इस देश के नागरिक नागरिकता,संविधान और लोकतंत्र के साथ बाबासाहेब के अवदान का वस्तुगत मूल्यांकन करने लायक नहीं होंगे,कयामत की यह फिजां बदलेगी नहीं। कोलकाता में,जो लोग आने बतौर सं

क्या संविधान में अंबेडकर का अवदान का मतलब सिर्फ रिजर्वेशन और कोटा है?

जब तक इस देश के नागरिक  नागरिकता,संविधान और लोकतंत्र के साथ बाबासाहेब के अवदान का वस्तुगत मूल्यांकन करने लायक नहीं होंगे,कयामत की यह फिजां बदलेगी नहीं।



कोलकाता में,जो लोग आने बतौर संगठन आने का वायदा कर चुके थे,वे ममता बनर्जी को नाराज करने का जोखिम भी न उठा सकें।हमें उनसे सहानुभूति हैं।


आज हमने तय किया है कि बंद कमरों में भाषण प्रतियोगिता अब और नहीं।


आज हमने तय किया है कि भविष्य में सारे संवाद और विमर्श इसी तरह खुल्ले आसमान के नीचे,गांव गांव,गली गली होंगे और हम अब किसी की इजाजत नहीं लेंगे।


काफिले की शुरुआत हो चुकी है और यह कोई कम भी नहीं है।

पलाश विश्वास

शब्दों का मोल अनमोल है।


शब्द का मतलब अभिव्यक्ति है तो उसकी बुनियादी आवश्यकता संवाद है क्योंकि संवाद सामाजिक प्रयोजन है और मनुष्य सामाजिक प्राणी है।सभ्यता का मतलब भी यही सामाजिकता है,जिसका आधार संवाद है।निरंतर विमर्श है।


संवाद और विमर्श ही दरअसल हमारा इतिहास है,घटनाओं और रटने वाली तारीखों का घटाटोप मनुष्यता का इतिहास नहीं है,वह शासकों का इतिहास है।


मुक्त बाजार ने हमें अपनी मातृभाषाओं और बोलियों से बेदखल कर दिया है और भारत जो गांवों का देश है,कृषिजीवी प्रकृति से अपने अस्त्व को जोड़कर जीने वालों का देश है,इसे हम भूलते जा रहे हैं और इसीके साथ भूलते जा रहे हैं साझा चूल्हे की हजारों सालों की विरासत जो शासन किसी का भी रहो हो, अनार्यों, आर्यों, द्रविड़ों, शकों, हुणों, कुषाणों, पठानों, मुगलों या पुर्तगालियों,फ्रासिंसियों या अंग्रेजों का,जब तक कृषि निर्भर अर्थ व्यवस्था रही है,जबत देशज उत्पादन प्रणाली रही है और अटूट अक्षत रहे हैं तमाम तरह के उत्पादन संबंध,वह साझा चूल्हा किसी न किसी तरह जारी रहा।


मुक्त बाजार ने उस साझा चूल्हे को तहस नहस कर दिया है और मातृभाषाओं और बलियों से बेदखल हम लोग संवाद और विमर्श की भाषा से भी बेदखल हो गये हैं।बाजार,साहित्य,कला ,संस्कृति में अकेले व्यक्ति के भोग का कार्निवाल है।


उस साझे चूल्हे के बिना न यह समाज सभ्य समाज बने रह सकता है और न आदिम बर्बर मूल्यों के आधार पर किसी राष्ट्र या राष्ट्रीयता का कोई अस्तित्व है।


संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद लेकिन वही साझे चूल्हे की विरासत है।


संवाद और विमर्श जो प्राचीन काल में शास्त्रार्थ की परंपरा भी है,को जीवित किये बिना न संविधान बच सकता है और न लोकतंत्र।


संविधान दिवस मनाने का प्रयोजन उस संवाद और विमर्श के लिये है जो मनुष्य और प्रकृति के नैसर्गिक रिश्ते से ही संभव है ,बाजार की दखलंदाजी और राजनीतिक शासकीय वर्चस्व के इस परिवेश में जो सिरे से असंभव है।


हम अमूमन भूल जाते हैं कि इस देश में जैसे हिमालय,विंध्य,अरावली,सतपुड़ा के पहाड़ है,जैसे हिंद महासागर,अरब सागर और बंगाल की खाड़ी है,जैसे गंगा यमुना कृष्णा गोदावरी झेलम ब्रह्मपुत्र नर्मदा नदियां है,जैसे सुंदरवन और पेरियार के अरण्य हैं,जैसे मरुस्थल और रण है,वैसे विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में अलग अलग नस्ल ,अलग अस्मिता और औलग अलग पहचाने के लोग हैं।


जैसे किसी प्राकृतिक अंश को छोड़ दें या तोड़ दें तो देश का भूगोल नहीं बनता ,वैसे ही राष्ट्र के जीवन की मुख्यधारा से किन्ही जनसमुदाय को बहिष्कृत करने से भी राष्ट्र नहीं बनता।खंड खंड नस्ली भेदभाव की प्रजा अस्मिताओं का नाम राष्ट्र नहीं होता।


मुक्त बाजार में दरअसल वही हो रहा है।मोदी सरकार के 6 महीने के कामकाज से बाजार और इंडस्ट्री तो बहुत खुश हैं,लोकिन धनाढ्य नवधनाढ्य संपन्न तबके के अलावा जैसे इस देश में किसी अवसर,किसी अधिकार,किसी संसाधन पर किसी का हक नहीं है ।


मुक्त बाजार में दरअसल वही हो रहा है।यह वंचित जनता देश की बहुसंख्य आबादी है,जिनका नस्ली सफाया ही मुक्तबाजार में राजकाज है।


इसीलिए बुनियादी समस्य़ाएं तब तक सुलझ ही नहीं सकती जबतक कि भारतीय नागरिक की नागरिकता के साथ देश में लोकतंत्र को बहाल नहीं किया जा सकता और जबतक न कि प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण नहीं होता।


मनुष्यता और प्रकृति के विध्वंस से कोई राष्ट्र फिर राष्ट्र नहीं रह जाता वह सुपरपावर भले ही मान लिया जाय,उस राष्ट्र की कोई आत्मा नहीं होती।न उसकी कोई देह है।


हम मौलिक अधिकारों,नीति निर्देशक सिद्धांतों,संविधान,संवैधानिक रक्षाकवच ,प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दे उठाकर बार बार आपकी नींद में खलल डालने की बदतमीजी क्योंकर कर रहे हैं,इसकों थोड़ा दिमाग लगाकर समझें।


इन्ही तमाम प्रसंगों में अंबेडकर के अवदानों की चर्चा होनी चाहिए न कि रिजर्वेशन और कोटा के लिए अंबेडकर जुगाली का अभ्यास।


अबाध विदेशी पूंजी,निजीकरण,आटोमेशन,विनिवेश,निविदा अनुबंध आजीविका नौकरियों के जमाने में रिजर्वेशन औक कोट अब सिर्फ जनप्रतिनिधियों को अरबपति करोड़पति बनाने का खेल है,उसका वजूद है नहीं,जो है उसे मुक्त बाजार खत्म करने वाला है।


तो क्या सिरे से गैर प्रासंगिक हो जाएंगे अंबेडकर,प्रश्न यही है।


जो आरक्षण और कोटा के लाभार्थी नहीं रहे कभी,जैसे मेहनतकश तबके और देश की आधी आबादी महिलाएं,उनके लिए अंबेडकर की क्या प्रासंगिकता रही है न उन्हें मालूम है और न अंबेडकरी दुकानदारों और अंध अनुयायियों को।जिन्हें मालूम है,वे बतायेंगे भी नहीं।क्योंकि अंध विश्वास और धर्मांध उन्माद राष्ट्रीयता उनका कारोबार है।


अंबेडकर अछूतों के मसीहा हैं जिन्हें संघ परिवार अब विष्णु का अवतार बनाकर उनके मंदिर खोलकर वैदिकी कर्मकांड बजरिये बहुजन वोटबैंक साध लेगा,महज इस कारण से हम अंबेडकर की भूमिका की चर्चा नहीं कर रहे हैं।


धर्म अधर्म धर्मनिरपेध अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना,उसके तहत इस देश के संसद में भी संविॆधान और संविधान दिवस पर किसी चर्चा होने के आसार नहीं हैं।


धर्म अधर्म धर्मनिरपेध अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना,उसके तहत केसरिया कारपोरेट नरेंद्र मोदी सरकार के 6 महीने पूरे हो गए हैं। बाजार बल्ले बल्ले है क्योंकि इस सरकार से बाजार, इंडस्ट्री को काफी उम्मीदें हैं।



धर्म अधर्म धर्मनिरपेध अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना,उसके तहत  कारपोरेट मनुस्मृति राजकाज इस सरकार को संविधान और लोकतंत्र,जल जंगल जमीन और आजीविका,प्रकृति और प्रयावरण,नागरिक और मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं है और अबाध पूंजी के लिए जनसंहारी सुधार कयामत उसकी सर्वोच्चा प्राथमिकता है क्योंकि  बाजार में पिछले 6 महीने की तेजी नई सरकार बनने के चलते ही हुई है।


जाहिर है कि  बाजार को नई सरकार से बड़े फैसलों की उम्मीद है।इतनी बड़ी उम्मीद कि अगले 3 सालों में बाजार में 20-25 फीसदी के सालाना रिटर्न आने की उम्मीद है। 20 फीसदी सालाना रिटर्न के हिसाब से अगले 3 सालों में सेंसेक्स में 50000 तक के स्तर आने मुमकिन हैं।


मोदी सरकार ने 6 महीनों में 6 बड़े आर्थिक फैसले लिए हैं। औरयूपीए सरकार की पॉलिसी पैरालिसिस दूर हुई है। रेलवे में एफडीआई निवेश सीमा 100 फीसदी कर दी गई। डिफेंस में अब 49 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे दी गई है। इस के साथ ही मोदी सरकारने रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन में भी एफडीआई को आसान  कर दिया है। डीजल डीकंट्रोल  कर दिया गया है और गैस की कीमत 4.2 डॉलर से बढ़ाकर 5.61 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी गई है।


समझ जाइये कि किसका न्यारा किसका वारा होना है और बहुसंख्य बहुजनों का हाल क्या होते जाना है।


समझ जाइये विनिवेश और निजीकरण से सफेद पोशों का रंग रोगन कैसे उतर जाना है और आम जनत का कैसे कैसे कारपोरेटमुनाफा का बवलि बन जाना है।


सरकार ने भी अब तक बाजार को निराश नहीं किया है। अगले 1 साल में ब्याज दरों में 2 फीसदी तक की कमी आने का अनुमान है। ब्याज दरों में कमी से कैपिटल गुड्स, इंफ्रा सेक्टर को काफी फायदा होगा। बजट के ऐलानो के मुकाबले जीएसटी, श्रम कानून, जमीन अधिग्रहण कानून से जुड़े रिफॉर्म ज्यादा अहम हैं।


सरकार ने डीजल डीकंट्रोल, मेक इन इंडिया और डिफेंस के ऑर्डर जैसे कुछ बड़े और अहम कदम उठाए हैं।जीएसटी, श्रम कानून, जमीन अधिग्रहण कानून से जुड़े रिफॉर्म देश की ग्रोथ में सुधार के नजरिए से बेहद अहम हैं। सरकार ने कोल ब्लॉक के ई-ऑक्शन से जुड़े ड्राफ्ट नियम काफी सोच-समझकर बनाए हैं। वो कोल ब्लॉक के ई-ऑक्शन से जुड़े ड्राफ्ट नियमों से संतुष्ट हैं। उनके मुताबिक मार्च 2015 तक कोल ब्लॉक की नीलामी की प्रक्रिया पूरा होने का भरोसा है।


डीजल डीकंट्रोल जैसे बड़े कदमों से बाजार को आगे भी सरकार से बड़े आर्थिक सुधार की उम्मीद है।इसी वजह से सेंसेक्स 28500 के पार जाने में कामयाब हुआ है, निफ्टी ने पहली बार 8500 का स्तर छूआ। बाजार में आई इस दमदार तेजी के बाद भी क्या आगे बढ़त की गुंजाइश बनती है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश की जीडीपी ग्रोथ 6 फीसदी पर पहुंचने का भरोसा जताया है।


अलीबाबा का आगमन हो चुका है।वालमार्ट,फ्लिपकार्ट.अमेजन ,स्नैप डील के बाद खुदरा कारोबार का बिना एफडीआई काम तमाम करने के लिए अलीबाबा जिंदाबाद।


गौरतलब है कि  ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा के फाउंडर और चीन के सबसे धनी व्यक्ति जैक मा ने अपने पहले भारत दौरे पर एलान किया है कि वे यहां और ज्यादा निवेश करने के इच्छुक हैं। साथ ही उन्होंने तकनीकी उद्यमियों को मदद देने का भी भरोसा दिया। जैक मा ने पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सराहना भी की। यह सबसे बेहतरीन समय है कि दोनों देश (भारत और चीन) मिलकर काम करें। मैंने पीएम नरेंद्र मोदी के भाषण सुने। उनके भाषण बहुत ही जुनूनी और प्रेरणादायी हैं। एक बिजनेसमैन होने के नाते मैं यही कहूंगा कि दोनों देशों को मिलकर साझा व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए। मा फिक्की के एक कार्यक्रम में मौजूद थे। उन्होंने कहा, 'मैं भारत में अधिक निवेश करने और भारतीय उद्यमियों के साथ काम करना चाहता हूं। भारतीय तकनीकी में विकास दोनों देशों के बीच रिश्तों को और मजबूती देगा। साथ ही लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आएगा।'


किसानों,खेतों,खलिहानों,घाटियों,अरण्यों,ग्लेशियरों,समुद्रतटों का जो हुआ सो हुआ,इस देश के चायबागानों,कपड़ा मिलों,जूट उद्योग,कपास और गन्ने की तरह खुदरा कारोबार से जुड़े मंझौले और छोटे कारोबारियों का हाल करने वाली बै कारोबार बंधु सरकार जिसकी ईटेलिंग से बहुराष्यीटकंपनियों को भी चूना लगने लगा है  और वे त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही हैं।


गौरतलब है कि बैंकों के डूबते कर्ज और रसूखदार डिफॉल्टरों के खिलाफ सख्ती न होने के कारण पूरे बैंकिंग सिस्टम पर सवाल उठने लगे हैं। यहां तक की आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन का भी दर्द बीते मंगलवार को बैंकिंग सिस्टम को लेकर निकल गया। उनके अनुसार  देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) के 1.25 फीसदी के बराबर पूंजी बैंकों की कर्ज वसूली न होने से फंसी हुई है।

राजन का कहना है मौजूदा सिस्टम ऐसा है जिससे कंपनियां तो दिवालिया हो जाती हैं, लेकिन प्रमोटर अमीर बने रहते हैं। बड़ी कंपनियों के डिफॉल्ट और उसके प्रमोटरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई न होने से पूरे बैंकिंग सिस्ट्म को धक्का लगा है।

वित्त मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक उसके पास करीब 400 बड़े विलफुल डिफॉल्टरों की सूची हैं। जिन्होंने जानबूझ कर बैंकों के कर्ज नहीं चुकाए हैं। इसके अलावा बैंक संगठनों ने भी में देश के 50 बड़े डिफॉल्टर की सूची वित्त मंत्रालय को सौंपी है। जिन पर करीब 40 हजार करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है।



सरकार को कारोबार के लिए मंजूरियों की अवधि में कमी और जमीन खरीदने की प्रक्रिया को आसान करने जैसे कदम उठाने होंगे।


कोई भी नया कारोबार शुरू होने के बाद सरकार को उसके लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रांसपोर्टेशन जैसे सुविधाएं मुहैया कराने की ओर ध्यान देने की जरूरत है।


बाजार विशेषज्ञों के अनुसार बुलरन जारी रहना है और लंबी अवधि के लिए तेजी का नजरिया बरकरार है। महंगाई, वित्तीय घाटे और आईआईपी में धीरे-धीरे हो रहे सुधार से इकोनॉमी की स्थिति में काफी सुधार हुआ है।कच्चे तेल की कीमत में करीब 30 डॉलर प्रति बैरल की गिरावट इकोनॉमी के लिए बहुत बड़ा पॉजिटिव है। कच्चे तेल की कीमत में कमी से भारत को 25-30 अरब डॉलर की फॉरेक्स बचत होगी। कच्चे तेल की कीमत में कमी से करेंट अकाउंट घाटे और महंगाई के मोर्चे पर भी बड़ी राहत संभव है।


बाजार बम बम है और संविधान लोकतंत्र डमडम है।डमडमाडम डमडम।


वैश्विक वित्तीय सेवा कंपनी एचएसबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार विदेशी संस्थागत निवेशकों ने नवंबर में एशियाई इक्विटी बाजार के प्रति भरोसा जताते हुए इस क्षेत्र में अब तक 5.3 अरब डॉलर का निवेश किया, जिसमें से भारत में 1.4 अरब डॉलर का निवेश किया गया। वित्तीय सेवा क्षेत्र की प्रमुख कंपनी एचएसबीसी के मुताबिक लगातार दो महीने की बिकवाली के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों ने एशियाई शेयर बाजारों के प्रति अपना भरोसा जताया और सभी बाजारों में नवंबर के दौरान पूंजी प्रवाह हुआ। एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में चीन सबसे लोकप्रिय बाजार के तौर पर शीर्ष पर रहा और भारत दूसरे

नंबर पर।


जबकि सरकार उचित मूल्य प्राप्त करने के लिए कोल इंडिया और ओएनजीसी में अपनी हिस्सेदारी का विनिवेश दो किस्तों में करने की तैयारी कर रही है। आधिकारिक सूत्रों ने यह जानकारी दी। सूत्रों ने बताया कि कोल इंडिया और ओएनजीसी में हिस्सेदारी बिक्री की तारीख का फैसला बाजार स्थिति का अध्ययन करने के बाद किया जाएगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ओएनजीसी में पांच प्रतिशत विनिवेश को मंजूरी दी है। इससे सरकार को 11,477 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। वहीं कोल इंडिया की 10 फीसद हिस्सेदारी बिक्री से 15,740 करोड़ रुपये प्राप्त होने की उम्मीद है।


सबकुछ बेच डाला ।सबकुछ बिकने चला ।लाइफ झिंगालाला ।


26 नवंबर,1949 में हमारे पुरखों ने भारतीय संविधान के जरिये लोकगणराज्यभारत का निर्माण किया है,जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का खुलासा है तो राष्ट्र के लिए नीति निर्देशक सिद्धांत भी हैं।इस संविधान में प्राकतिक संसाधनों पर राष्ट्र के अधिकार और जनता के हक हकूक के ब्योरे भी हैं।नागरिकों के लिए संवैधानिक रक्षाकवच भी हैं।संविधान दिवस मनाने का मतलब मुक्त बाजार में खतरे में फंसी नागरिकता और लोकतंत्र के साथ संविधान का प्रासंगिकता को बनाये रखने का जन जागरण अभियान है।


हामरे मित्र डा.आनंद तेलतुंबड़े खरी खरी बाते करने के लिए बेहद बदनाम हैं।वे अंबेडकर परिवार के दामाद तो हैं ही,दलितों के मध्य उनकी जो विद्वता है और जो उनका स्टेटस है,उसके मद्देनजर अलग एक अंबेडकरी दुकान के मालिक तो वे हो ही सकते हैं,लेकिन मजा तो यह है कि अंबेडकर अनुयायियों को तेलतुंबड़े का लिखा बिच्छू का डंक जैसा लगता है क्योंकि वे अंबेडकर का अवदान सिर्फ आरक्षण और कोटा को नहीं मानते।


हमसे बिजनौर में एक अत्याधुनिक मेधावी छात्र ने कहा कि अंबेडकर बेहद घटिया हैं।हमने कारण पूछा तो उसने कहा कि अंबेडकर के कारण आरक्षण और कोटा है।उसके मुताबिक अंबेडकर ने ही वोट बैंक की राजनीति को जन्म दिया और आगे उसका कहना है कि जनसंख्या ही भारत की मूल समस्या है।उसके मुताबिक गैरजरुरी जनसंख्या से निजात पाये बिना भारत का विकास असंभव है।ऐसा बहुत सारे विद्वतजन मनते हैं कि आदिवासी ही विकास के लिए अनिवार्यजल जंगल जमीन पर अपना दावा नहगीं चोड़ते तो उनके सफाये के बिना विकास असंभव है।इंदिरा गांधी ने तो गरीबी उन्मूलन का नूस्खा ही नसबंदी ईजाद कर लिया था और संजोग से नवनाजी जो कारपोरेट शासक तबका है इस देश का ,देश बेचो ब्रिगेड जो है,उसकी भी सर्वोच्च प्राथमिकता गैर जरुरी जनसंख्या का सफाया है।


जैसा तेलतुंबड़े बार बार कहते हैं कि इस संविधान का निर्माण और उपयोग शासक तबके के हितों में हैं,इसमें असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है।लेकिन जनता के लिए जो संवैधानिक रक्षा कवच हैं,जो मौलिक अधिकार हैं नागरिकों के,जो नीति निर्देशक सिद्धांत हैं,वे ही मौजूदा राज्यतंत्र के बदलाव के सबसे तेज हथियार हैं,इसे समझने की जरुरत है।मुक्तबाजारी कारपोरेट राजकाज नागरिकता,मानवाधिकार,नागरिक अधिकार, प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता के विरुद्ध हैं,तो उसके प्रतिरोद की जमीन हमें लोकतंत्र और संविधान में ही बनानी होगी।


वोटबैंक का खेल तो पुणे समझौते के साथ शुरु हुआ,जिसपर मोहनदास कर्मचंद गांधी के दवाव में अंबेडकर ने हस्ताक्षर किये थे और आरक्षण और कोटा की बुनियाद वहीं है,ऐसा बाकी लोग नहीं जानते तो अंबेडकर अनुयायी भी अंबेडकर की आराधना सिर्फ इसीविए करते हैं।


क्या संविधान में अंबेडकर का अवदान का मतलब सिर्फ रिजर्वेशन और कोटा है?


जब तक इस देश के नागरिक  नागरिकता,संविधान और लोकतंत्र के साथ बाबासाहेब के अवदान का वस्तुगत मूल्यांकन करने लायक नहीं होंगे,कयामत की यह फिजां बदलेगी नहीं।


जैसा तेलतुंबड़े का कहना है कि अलग अलगद समयएक ही मुद्दे पर अंबेडकर के विचार और अवस्थान बदलते रहे हैं,किसी उद्धरण के आधार पर अंबेडकरी आंदोलन चलाया जा नहीं सकता।



हमें अंबेडकर का भी मूल्यांकन करना चाहिए और उस संविधान का भी,जिसका निर्माता उन्हें बनाया गया है।संविधान के जिन प्रावधानों के तहत सैन्यशासन और आपातकाल की संभावना का यथार्थ है,उसे सही ठहराना लोकतांत्रिक होना नहीं है।


लेकिन कुल मिलाकर जो बाते सकारात्मक हैं संविधान में,उन्हें बदलकर उसके बदले मनुस्मृति शासन लागू करने की कारपोरेटकवायद का हम विरोद नकरें तो यह हमारे वजूद के लिए विध्वंसकारी होगा।


इस देश में चूंकि नागरिकों को पुलिस सेना राजनीति और बाजार की इजाजत के लिए सांस लेने की भी इजाजत नहीं है,विशुद्ध भारतीयनागरिक की हैसियत से अस्मिता के आरपार मानवबंधन संविधान दिवस के मार्फत बनाना असंभव ही है।हम न कोई राजनीतिक संगठन है और न अस्मिता के कारोबारी हैं हम और न कारपोरेटट ताकतें,बाजार और मीडिया के वरदहस्ते हैं हम पर,आम नागरिक की हैसियत से राष्ठ्रव्यापी जनजागरण बतौर संविधान दिवस को लोक उत्सव बना देने का ख्याली पुलाव हम यकीनन नहीं बना रहे थे और न हम इसके लिए किसी कामयाबी या श्रेय का दावा कर रहे हैं।


लेकिन यह बेहद सकारात्मक है कि राजनीति और पररंपरागत अंबेडकरी संगठनों के समर्थन के बिना देश भर में छिटपुट तरीके से हो लोगों ने संविधान दिवस को लोक उत्सव मनानेन की कोशिश की और इस अपील का तात्पर्य वाम प्रगतिवादियों, धर्मनिरपेक्ष,समाजवादियों,बहुजन राजनीति संगठनों के झंडेवरदारों को भले समझ में न आया हो,भारतीय संविॆधान और भारतीय लोकतंत्र,बहुसंक्यभारतीयों के सफाये पर उतारु शंगपरिवार इस जनजागरण मुहिम का मतलब जरुर समझ गया और बाबासाहेब की कर्मभूमि महाराष्ट्र में  संघ परिवार की सरकार नें संविधान दिवस को गणतंत्र दिवसे के राजकीयआयोजन से दो महाने पहले शासकीय आयोजन बना डाला जबकि जिन्हें व्यापक पैमाने पर सड़कों पर उतर आना था वे आये ही नहीं।


इसका आशयइससे समझें कि महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की ओर से राजकीय संविधान दिवस आयोजन की तीखी आलोचना करते हुए माननीय  श्रीमण सुदत्त वानखेड़े ने 15 अगस्त और 26 जनवरी के शासकीय आयोजनों का हवाला देते हुए लिखा हैः


प्रतिक्रियावादी व् भावनाप्रधान चलवलीत अडकलेल्या बहुतांश महाराष्ट्रियन एबीनी (आजचे बौद्ध) तर दोन महीनेपुर्वीच म्हणजे 26 नोव्हेंबर ला संविधान दिवस साजरा केला असतो. त्यामुले तेहि आपल्या राष्ट्रिय (की विभूतिय) कर्तव्यपुर्तितुन मुक्त झालेले असतात.


जाहिर है कि इस आयोजन का कोई मीडिया कवरेज होना नहीं है और उसकी जरुरत बी नहीं है।हमें जो जानकारी उपलब्ध होती रहेगी,समय समयपर वह आपके सथ साझा जरुर करेंगे।


कोलकाता में धर्मनिरपेक्ष मतुआ दलित मुस्लिम वोटबैंक की मां माटी मानुष की सरकार ने हमें इस आयोजन के लिए पुलिस अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया,लेकिन आज दिनभर रेड रोड पर स्त्री पुरुषों,छात्रों युवाओं कर्मचारियों और मजदूरों के साथ आम लोगों का आना जाना रहा,जो राजनीतिक दलों की तर्ज पर हमारे शक्ति परीक्षण का अभ्यास नहीं है।


तमाम लोगों ने दिनभर भारतीय संविधान,लोकंतंत्र और मुक्तबाजार के अंतर्संबंधों से जुड़े मुद्दों पर दिनभर संवाद किया।


न कोई शामियाना टंगा,न मंच सजा न भाषण हुए।


न वक्ता और न कोई नेता।सारे के सारे कार्यकर्ता।


घोषित संगठनों के नेता कोई नही आये और न उनने अन्यत्र कोई आयोजन करने की हिम्मत दिखायी।


कोलकाता में,जो लोग आने बतौर संगठन आने का वायदा कर चुके थे,वे ममता बनर्जी को नाराज करने का जोखिम भी न उठा सकें।


हमें उनसे सहानुभूति हैं।


आज हमने तय किया है कि बंद कमरों में भाषण प्रतियोगिता अब और नहीं।


आज हमने तय किया है कि भविष्य में सारे संवाद और विमर्श इसी तरह खुल्ले आसमान के नीचे,गांव गांव,गली गली होंगे और हम अब किसी की इजाजत नहीं लेंगे।


काफिले की शुरुआत हो चुकी है और यह कोई कम भी नहीं है।




किसी नेहा दीक्षित ने फेसबुक पर यह पोस्टडाली है,हमें मालूम नहीं कि यह प्रोफाइस असली है या नकली।लेकिन इसकी भाषा टिपिकल बहुजन राजनीति की है।हेमंत करकरे की हत्या संविधान दिवस के दिन हुई और बाबरी विध्ंवस का अपराध बाबासाहेब के परानिर्वाण दिवस 6 दिसंबर को हुई,इन मुद्दों को जो उन्होंने उठाया वह गौर तलब है।बेहतर हो कि जो भी कहना हो ,अपने ही नाम से लिखें तो उसकी प्रामाणिकता बनी रहती है।

2:57pm Nov 26

आज भारत के संविधान का दिन है ! और आज ही के दिन शहीद हेमंत करकरे की हत्या की गई थी ! पढ़ने में आया था की शहीद हेमंत करकरे के पास ऐसे सबूत लगे थे की उससे कई सो कॉल्ड हाई सोसाइटी का परचा खोल देती ! पर इसके पहले की वोह सबूत हेमंत जी दुनिया के सामने लाते उनकी हत्या की गई ! उनके पश्चात् उनकी पत्नी ने भी बहोत बार पोलिस से कहा की उनकी हत्या किसी भारतीय लोगो ने की ही है ! क्यूंकि कुछ दिनों से उन्हें (हेमंत जी को) धमकी भरे फोन भी आते थे ! उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया ! खून को शहीद का नाम दिया गया !


कसाब पकड़ा गया ! उसे पुणे के येरवडा जेल में कुछ इस कदर फासी दी जैसे की किसी को डर हो कसाब उनकी पोल न खोल दे ! पुणे के लोगो को भी इस बात की कोई खबर नहीं थी ! पूना में वैसे दंगे होते नहीं है ! तो फिर अगर यह बात अगर पता हो जाती तो लोग क्यूँ दंगे करते ? उल्टा खुश ही होते न ? की एक खुनी , आतंकवादी को फासी दी जा रही है करके ? तो फिर सरकार ने उसे क्यूँ दबाये रखा ? कही सरकार की ही तो पोल नहीं खोलने वाले थे हेमंत जी ? सुनने में तो यह भी आ रहा है की कसाब अब तक जिन्दा है और वोह नेपाल में स्थाईक है !


डॉक्टर आंबेडकर जी से सबसे ज्यादा जेलस आर आर एस है , और मनुवादी लोग ! क्या आप को नहीं लगता जैसा आर आर एस ने बाबरी मस्जिद ६ दिसम्बर को याने के बाबासाहब के महापरिनिवार्ण दिन को गिरवाई थी ! वैसेही डॉक्टर आंबेडकर जी की लिखी राज्यघटना / संविधान को २६ नवम्बर १९४९ के दिन डॉक्टर आंबेडकर जी ने भारत को सुपुर्द किया था ! उसी दिन कसाब के थ्रू हेमंत करकरे का खून करके और उसे लोगो के सामने शहीद कहकर दुगनी ख़ुशी मनुवादी लोग मना रहे है ?

१. हेमंत करकरे जी का खून

२. लोगो को २६ नवम्बर १९४९ का संविधान दिन याद नहीं आना चाहिए या दुःख मनना चाहिए , जब की इसी दिन देखा जाये तो यह हमारी दूसरी आजादी थी ! हमे अधिकार मिले जो हमारे ही देश में रहकर इन विदेशी मनुवादी ने हमे लेने नहीं दिए !


अब हमे तीसरी आझादी का इंतजार है , जब हम इन विदेशी आर्य ब्राहमण को देश से खदेड़ देंगे !

तो श्रीमण सुदत्त वानखेड़े ने फेसबुक पर ही अपनी मराठी भाषा की टिप्पणा मार्फते प्रतिक्रियावादी हिंदुत्ववादियों की ओर से संविधान दिवसे के महाराष्ट्र में राजीय आयोजन की कड़ी आलोचना की है।देखेः

15 आगस्ट छाप 26 जानेवारी


आक्रमण तर परक्यावर केले जाते. मात्र भारतात तर आपलेच आपल्यावर आक्रमण असल्यागत स्थिति आहे. परंतु त्याबाबत अनभींज्ञ असल्यामुले दरवर्षी 26 जानेवारीला गणतंत्र दिनाच्या समरोहावर स्वतंत्र दिनाचे सावट का असते? यावर अंतर्मुख होवून आपण विचार करीत नाही.26 जानेवारी व् 15 आगस्ट हे वर्षातील दोन दिवस शासकीय कार्यालय व् शाला महाविद्यालय येथेच प्रामुख्याने पारम्परिक रितीने साजरे केले जतात. आणि आपला बहुसंख्य भारतीय समाज हा तर परम्पराचे मुळ प्रयोजन लक्षात घेण्याएवजी त्यांचे नुसतेच पालन करण्यात समाधान शोधणारा आहे परिनामता झेंडावंदन करुण त्या दिवसाच्या सुट्टीचा आनंद कुटुंबासोबत घेणे यापलिकडे अधिक विचार करण्याची आवश्यकता नोकरपेशा सुशिक्षिताना ही अस्त नाही.


प्रतिक्रियावादी व् भावनाप्रधान चलवलीत अडकलेल्या बहुतांश महाराष्ट्रियन एबीनी (आजचे बौद्ध) तर दोन महीनेपुर्वीच म्हणजे 26 नोव्हेंबर ला संविधान दिवस साजरा केला असतो. त्यामुले तेहि आपल्या राष्ट्रिय (की विभूतिय) कर्तव्यपुर्तितुन मुक्त झालेले असतात. केबी (कालचा बौद्ध मौर्य कालीन) हा तर तसाही बिनधास्त असतो कारन त्याला तो केबी असण्याचीच जाणीव नाही. मात्र हिंदू असण्याच्या अस्मिता त्यांच्यात नदी दूथडी ओसंडून वाहत असण्या सारखीच स्थिति असते. अर्थात यातही त्याचा फार दोष नाही. कारन वर्णव्यवस्थेनुसार त्याचे कार्य हे त्रिवर्नियाच्या अदेशचे निमूटपने पालन करने हेच आहे. त्यामुलेच चतुवर्ण व्यावसथेतिल शुद्र असूनही चौथ्या क्रमांकाच्या जाणीवेएवजी हिंदूस्थानातिल हिंदू असण्याचा त्याला गर्व आहे. मुस्लिम हा तर भारता एवजी हिंदूस्थानची फिकिर करण्यात आपली रूचि देतो. हिंदूस्थान मधील मुसलमान म्हणुन मिरवन्यासाठी सदासर्वदा उतावील आहे. त्यामुले तोसुधा 26 जानेवारी ला हिंदूस्थानातिल गणतंत्रदिन नावाआड़ स्वतंत्र दिवस(?) साजरा करण्यात आपले योगदान देतो.अर्थात सर्वसामान्य एबी सारखा तो समाज सुधा भावनिक वलयत घुटमलत राहुन सत्ताधारी वर्गाकडे याचना करीत त्यांचे आधीन जगण्यात मानवर्था शोधणारा समाज आहे.




आईएएनएस की चुनिंदा भाषणों की श्रृंखला की आठवीं और अंतिम कड़ी में आज पेश है भीमराव अंबेडकर का भाषण। यह भाषण उन्होंने नवंबर 1949 में नई दिल्ली में दिया था। 300 से अधिक सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर 1946 को हुई थी।

भारतीय संविधान की प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर ने यह भाषण औपचारिक रूप से अपना कार्य समाप्त करने से एक दिन पहले दिया था। उन्होंने जो चेतावनियां दीं- एक प्रजातंत्र में जन आंदोलनों का स्थान, करिश्माई नेताओं का अंधानुकरण और मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र की सीमाएं- वे आज भी प्रासंगिक हैं। पेश है भीमराव अंबेडकर का भाषण-

महोदय, संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर,1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन हो जाएंगे। इस अवधि के दौरान संविधान सभा की कुल मिलाकर 11 बैंठकें हुई हैं। इन 11 सत्रों में से छह उद्देश्य प्रस्ताव पास करने तथा मूलभूत अधिकारों पर, संघीय संविधान पर, संघ की शक्तियों पर, राज्यों के संविधान पर, अल्पसंख्यकों पर,अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों पर बनी समितियों की रिपोर्टों पर विचार करने में व्यतीत हुए। सातवें, आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें सत्र प्रारूप संविधान पर विचार करने के लिए उपयोग किए गए। संविधान सभा के इन 11 सत्रों में 165 दिन कार्य हुआ। इनमें से 114 दिन प्रारूप संविधान के विचारार्थ लगाए गए।

प्रारूप समिति की बात करें तो वह 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा चुनी गई थी। उसकी पहली बैठक 30 अगस्त को हुई थी। 30 अगस्त से 141 दिनों तक वह प्रारूप संविधान तैयार करने में जुटी रही। प्रारूप समिति द्वारा आधार रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए संवैधानिक सलाहकार द्वारा बनाए गए प्रारूप संविधान में 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियां थीं। प्रारूप समिति द्वारा संविधान सभा को पेश किए गए पहले प्रारूप संविधान में 315 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां थीं। उस पर विचार किए जाने की अवधि के अंत तक प्रारूप संविधान में अनुच्छेदों की संख्या बढ़कर 386 हो गई थी। अपने अंतिम स्वरूप में प्रारूप संविधान में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां हैं। प्रारूप संविधान में कुल मिलाकर लगभग 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए थे। इनमें से कुल मिलाकर 2,473 संशोधन वास्तव में सदन के विचारार्थ प्रस्तुत किए गए।

मैं इन तथ्यों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि एक समय यह कहा जा रहा था कि अपना काम पूरा करने के लिए सभा ने बहुत लंबा समय लिया है और यह कि वह आराम से कार्य करते हुए सार्वजनिक धन का अपव्यय कर रही है। उसकी तुलना नीरो से की जा रही थी, जो रोम के जलने के समय वंशी बजा रहा था। क्या इस शिकायत का कोई औचित्य है? जरा देखें कि अन्य देशों की संविधान सभाओं ने, जिन्हें उनका संविधान बनाने के लिए नियुक्त किया गया था, कितना समय लिया।

कुछ उदाहरण लें तो अमेरिकन कन्वेंशन ने 25 मई, 1787 को पहली बैठक की और अपना कार्य 17 सितंबर, 1787 अर्थात् चार महीनों के भीतर पूरा कर लिया। कनाडा की संविधान सभा की पहली बैठक 10 अक्टूबर, 1864 को हुई और दो वर्ष पांच महीने का समय लेकर मार्च 1867 में संविधान कानून बनकर तैयार हो गया। आस्ट्रेलिया की संविधान सभा मार्च 1891 में बैठी और नौ वर्ष लगाने के बाद नौ जुलाई, 1900 को संविधान कानून बन गया। दक्षिण अफ्रीका की सभा की बैठक अक्टूबर 1908 में हुई और एक वर्ष के श्रम के बाद 20 सितंबर, 1909 को संविधान कानून बन गया।

यह सच है कि हमने अमेरिकन या दक्षिण अफ्रीकी सभाओं की तुलना में अधिक समय लिया। परंतु हमने कनाडियन सभा से अधिक समय नहीं लिया और आस्ट्रेलियन सभा से तो बहुत ही कम। संविधान-निर्माण में समयावधियों की तुलना करते समय दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। एक तो यह कि अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के संविधान हमारे संविधान के मुकाबले बहुत छोटे आकार के हैं। जैसा मैंने बताया, हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिकी संविधान में केवल 7 अनुच्छेद हैं, जिनमें से पहले चार सब मिलकर 21 धाराओं में विभाजित हैं। कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलियाई में 128 और दक्षिण अफ्रीकी में 153 धाराएं हैं।

याद रखने लायक दूसरी बात यह है कि अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के संविधान निर्माताओं को संशोधनों की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। वे जिस रूप में प्रस्तुत किए गए, वैसे ही पास हो गए। इसकी तुलना में इस संविधान सभा को 2,473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विलंब के आरोप मुझे बिलकुल निराधार लगते हैं और इतने दुर्गम कार्य को इतने कम समय में पूरा करने के लिए यह सभा स्वयं को बधाई तक दे सकती है।

प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की गुणवत्ता की बात करें तो नजीरुद्दीन अहमद ने उसकी निंदा करने को अपना फर्ज समझा। उनकी राय में प्रारूप समिति द्वारा किया गया कार्य न तो तारीफ के काबिल है, बल्कि निश्चित रूप से औसत से कम दर्जे का है। प्रारूप समिति के कार्य पर सभी को अपनी राय रखने का अधिकार है और अपनी राय व्यक्त करने के लिए नजीरुद्दीन अहमद का ख्याल है कि प्रारूप समिति के किसी भी सदस्य के मुकाबले उनमें ज्यादा प्रतिभा है। प्रारूप समिति उनके इस दावे की चुनौती नहीं देना चाहती।

इस बात का दूसरा पहलू यह है कि यदि सभा ने उन्हें इस समिति में नियुक्त करने के काबिल समझा होता तो समिति अपने बीच उनकी उपस्थिति का स्वागत करती। यदि संविधान-निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं थी तो निश्चित रूप से इसमें प्रारूप समिति का कोई दोष नहीं है।

प्रारूप समिति के प्रति अपनी नफरत जताने के लिए नजीरुद्दीन ने उसे एक नया नाम दिया। वे उसे 'ड्रिलिंग कमेटी' कहते हैं। निस्संदेह नजीरुद्दीन अपने व्यंग्य पर खुश होंगे। परंतु यह साफ है कि वह नहीं जानते कि बिना कुशलता के बहने और कुशलता के साथ बहने में अंतर है। यदि प्रारूप समिति ड्रिल कर रही थी तो ऐसा कभी नहीं था कि स्थिति पर उसकी पकड़ मजबूत न हो। वह केवल यह सोचकर पानी में कांटा नहीं डाल रही थी कि संयोग से मछली फंस जाए। उसे जाने-पहचाने पानी में लक्षित मछली की तलाश थी। किसी बेहतर चीज की तलाश में रहना प्रवाह में बहना नहीं है।

यद्यपि नजीरुद्दीन ऐसा कहकर प्रारूप समिति की तारीफ करना नहीं चाहते थे, मैं इसे तारीफ के रूप में ही लेता हूं। समिति को जो संशोधन दोषपूर्ण लगे, उन्हें वापस लेने और उनके स्थान पर बेहतर संशोधन प्रस्तावित करने की ईमानदारी और साहस न दिखाया होता तो वह अपना कर्तव्य-पालन न करने और मिथ्याभिमान की दोषी होती। यदि यह एक गलती थी तो मुझे खुशी है कि प्रारूप समिति ने ऐसी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं किया और उन्हें ठीक करने के लिए कदम उठाए।

यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की प्रशंसा करने में एक अकेले सदस्य को छोड़कर संविधान सभा के सभी सदस्य एकमत थे। मुझे विश्वास है कि अपने श्रम की इतनी सहज और उदार प्रशंसा से प्रारूप समिति को प्रसन्नता होगी। सभा के सदस्यों और प्रारूप समिति के मेरे सहयोगियों द्वारा मुक्त कंठ से मेरी जो प्रशंसा की गई है, उससे मैं इतना अभिभूत हो गया हूं कि अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं। संविधान सभा में आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था।

मुझे दूर तक यह कल्पना नहीं थी कि मुझे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जाएगा। इसीलिए, उस समय मुझे घोर आश्चर्य हुआ, जब सभा ने मुझे प्रारूप समिति के लिए चुन लिया। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। प्रारूप समिति में मेरे मित्र सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे मुझसे भी बड़े, श्रेष्ठतर और अधिक कुशल व्यक्ति थे। मुझ पर इतना विश्वास रखने, मुझे अपना माध्यम बनाने एवं देश की सेवा का अवसर देने के लिए मैं संविधान सभा और प्रारूप समिति का अनुगृहीत हूं। (करतल-ध्वनि)

जो श्रेय मुझे दिया गया है, वास्तव में उसका हकदार मैं नहीं हूं। वह श्रेय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी.एन. राव को जाता है, जिन्होंने प्रारूप समिति के विचारार्थ संविधान का एक सच्चा प्रारूप तैयार किया। श्रेय का कुछ भाग प्रारूप समिति के सदस्यों को भी जाना चाहिए जिन्होंने, जैसे मैंने कहा, 141 बैठकों में भाग लिया और नए फॉर्मूले बनाने में जिनकी दक्षता तथा विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करके उन्हें समाहित करने की सामथ्र्य के बिना संविधान-निर्माण का कार्य सफलता की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था।

श्रेय का एक बड़ा भाग संविधान के मुख्य ड्राफ्ट्समैन एस.एन. मुखर्जी को जाना चाहिए। जटिलतम प्रस्तावों को सरलतम व स्पष्टतम कानूनी भाषा में रखने की उनकी सामथ्र्य और उनकी कड़ी मेहनत का जोड़ मिलना मुश्किल है। वह सभा के लिए एक संपदा रहे हैं। उनकी सहायता के बिना संविधान को अंतिम रूप देने में सभा को कई वर्ष और लग जाते। मुझे मुखर्जी के अधीन कार्यरत कर्मचारियों का उल्लेख करना नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि उन्होंने कितनी बड़ी मेहनत की है और कितना समय, कभी-कभी तो आधी रात से भी अधिक समय दिया है। मैं उन सभी के प्रयासों और सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूं। (करतल-ध्वनि)

यदि यह संविधान सभा 'भानुमति का कुनबा' होती, एक बिना सीमेंट वाला कच्चा फुटपाथ, जिसमें एक काला पत्थर यहां और एक सफेद पत्थर वहां लगा होता और उसमें प्रत्येक सदस्य या गुट अपनी मनमानी करता तो प्रारूप समिति का कार्य बहुत कठिन हो जाता। तब अव्यवस्था के सिवाय कुछ न होता। अव्यवस्था की संभावना सभा के भीतर कांग्रेस पार्टी की उपस्थिति से शून्य हो गई, जिसने उसकी कार्रवाईयों में व्यवस्था और अनुशासन पैदा कर दिया। यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन का ही परिणाम था कि प्रारूप समिति के प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन की नियति के प्रति आश्वस्त होकर उसे सभा में प्रस्तुत कर सकी। इसीलिए सभा में प्रारूप संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।

यदि इस संविधान सभा के सभी सदस्य पार्टी अनुशासन के आगे घुटने टेक देते तो उसकी कार्रवाइयां बहुत फीकी होतीं। अपनी संपूर्ण कठोरता में पार्टी अनुशासन सभा को जीहुजूरियों के जमावड़े में बदल देता। सौभाग्यवश, उसमें विद्रोही थे। वे थे कामत, डा. पी.एस. देशमुख, सिधवा, प्रो. सक्सेना और पं. ठाकुरदास भार्गव। इनके साथ मुझे प्रो. के.टी. शाह और पं. हृदयनाथ कुंजरू का भी उल्लेख करना चाहिए। उन्होंने जो बिंदु उठाए, उनमें से अधिकांश विचारात्मक थे।

यह बात कि मैं उनके सुझावों को मानने के लिए तैयार नहीं था, उनके सुझावों की महत्ता को कम नहीं करती और न सभा की कार्रवाइयों को जानदार बनाने में उनके योगदान को कम आंकती है। मैं उनका कृतज्ञ हूं। उनके बिना मुझे संविधान के मूल सिद्धांतों की व्याख्या करने का अवसर न मिला होता, जो संविधान को यंत्रवत् पारित करा लेने से अधिक महत्वपूर्ण था।

और अंत में, राष्ट्रपति महोदय, जिस तरह आपने सभा की कार्रवाई का संचालन किया है, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं। आपने जो सौजन्य और समझ सभा के सदस्यों के प्रति दर्शाई है वे उन लोगों द्वारा कभी भुलाई नहीं जा सकती, जिन्होंने इस सभा की कार्रवाईयों में भाग लिया है। ऐसे अवसर आए थे, जब प्रारूप समिति के संशोधन ऐसे आधारों पर अस्वीकृत किए जाने थे, जो विशुद्ध रूप से तकनीकी प्रकृति के थे। मेरे लिए वे क्षण बहुत आकुलता से भरे थे, इसलिए मैं विशेष रूप से आपका आभारी हूं कि आपने संविधान-निर्माण के कार्य में यांत्रिक विधिवादी रवैया अपनाने की अनुमति नहीं दी।

संविधान का जितना बचाव किया जा सकता था, वह मेरे मित्रों सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर और टी.टी. कृष्णमाचारी द्वारा किया जा चुका है, इसलिए मैं संविधान की खूबियों पर बात नहीं करूंगा। क्योंकि मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों।

एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों - जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।

यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उनके दल किस तरह का आचरण करेंगे? अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या वे संवैधानिक तरीके इस्तेमाल करेंगे या उनके लिए क्रांतिकारी तरीके अपनाएंगे? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल रहेगा। इसलिए जनता और उनके राजनीतिक दलों की संभावित भूमिका को ध्यान में रखे बिना संविधान पर कोई राय व्यक्त करना उपयोगी नहीं है।

संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दलों द्वारा की जा रही है - कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह वास्तव में एक बुरा संविधान है? मैं कहूंगा, नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। सोशलिस्ट दो बातें चाहते हैं। पहली तो वे चाहते हैं कि संविधान यह व्यवस्था करे कि जब वे सत्ता में आएं तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे मुआवजे का भुगतान किए बिना समस्त निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजिकरण कर सकें। सोशलिस्ट जो दूसरी चीज चाहते हैं, वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभत अधिकार असीमित होने चाहिए, ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में असफल रहती है तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे न केवल राज्य की निंदा कर सकें, बल्कि उसे उखाड़ फेंकें।

मुख्य रूप से ये ही वे आधार हैं, जिन पर संविधान की निंदा की जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श स्वरूप है। मैं यह नहीं कहता कि मुआवजे का भुगतान किए बिना निजी संपत्ति अधिगृहीत न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। मैं यह भी नहीं कहता कि मौलिक अधिकार कभी असीमित नहीं हो सकते और उन पर लगाई गई सीमाएं कभी हटाई नहीं जा सकतीं। मैं जो कहता हूं, वह यह है कि संविधान में अंतनिर्हित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं। यदि आप इसे अत्युक्ति समझें तो मैं कहूंगा कि वे संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं। उन्हें संविधान में शामिल करने के लिए प्रारूप समिति को क्यों दोष दिया जाए? मैं तो कहता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों को भी क्यों दोष दिया जाए? इस संबंध में महान अमेरिकी राजनेता जेफरसन ने बहुत सारगर्भित विचार व्यक्त किए हैं, कोई भी संविधान-निर्माता जिनकी अनदेखी नहीं कर सकते। एक स्थान पर उन्होंने कहा है -

हम प्रत्येक पीढ़ी को एक निश्चित राष्ट्र मान सकते हैं, जिसे बहुमत की मंशा के द्वारा स्वयं को प्रतिबंधित करने का अधिकार है; परंतु जिस तरह उसे किसी अन्य देश के नागरिकों को प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है, ठीक उसी तरह भावी पीढ़ियों को बांधने का अधिकार भी नहीं है।

एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा है - "राष्ट्र के उपयोग के लिए जिन संस्थाओं की स्थापना की गई, उन्हें अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए भी उनके संचालन के लिए नियुक्त लोगों के अधिकारों के बारे में भ्रांत धारणाओं के अधीन यह विचार कि उन्हें छेड़ा या बदला नहीं जा सकता, एक निरंकुश राजा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ एक सराहनीय प्रावधान हो सकता है, परंतु राष्ट्र के लिए वह बिल्कुल बेतुका है। फिर भी हमारे अधिवक्ता और धर्मगुरु यह मानकर इस सिद्धांत को लोगों के गले उतारते हैं कि पिछली पीढ़ियों की समझ हमसे कहीं अच्छी थी। उन्हें वे कानून हम पर थोपने का अधिकार था, जिन्हें हम बदल नहीं सकते थे और उसी प्रकार हम भी ऐसे कानून बनाकर उन्हें भावी पीढ़ियों पर थोप सकते हैं, जिन्हें बदलने का उन्हें भी अधिकार नहीं होगा। सारांश यह कि धरती पर मृत व्यक्तियों का हक है, जीवित व्यक्तियों का नहीं।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि जो कुछ जेफरसन ने कहा, वह केवल सच ही नहीं, परम सत्य है। इस संबंध में कोई संदेह हो ही नहीं सकता। यदि संविधान सभा ने जेफरसन के उस सिद्धांत से भिन्न रुख अपनाया होता तो वह निश्चित रूप से दोष बल्कि निंदा की भागी होती। परंतु मैं पूछता हूं कि क्या उसने सचमुच ऐसा किया है? इससे बिल्कुल विपरीत। कोई केवल संविधान के संशोधन संबंधी प्रावधान की जांच करें। सभा न केवल कनाडा की तरह संविधान संशोधन संबंधी जनता के अधिकार को नकारने के जरिए या आस्ट्रेलिया की तरह संविधान संशोधन को असाधारण शर्तो की पूर्ति के अधीन बनाकर उस पर अंतिमता और अमोघता की मुहर लगाने से बची है, बल्कि उसने संविधान संशोधन की प्रक्रिया को सरलतम बनाने के प्रावधान भी किए हैं।

मैं संविधान के किसी भी आलोचक को यह साबित करने की चुनौती देता हूं कि भारत में आज बनी हुई स्थितियों जैसी स्थितियों में दुनिया की किसी संविधान सभा ने संविधान संशोधन की इतनी सुगम प्रक्रिया के प्रावधान किए हैं! जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता।

संवैधानिक महत्व का केवल एक बिंदु ऐसा है, जिस पर मैं बात करना चाहूंगा। इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि संविधान में केंद्रीयकरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है और राज्यों की भूमिका नगरपालिकाओं से अधिक नहीं रह गई है। यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण है बल्कि संविधान के अभिप्रायों के प्रति भ्रांत धारणाओं पर आधारित है। जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का सवाल है, उसके मूल सिद्धांत पर ध्यान देना आवश्यक है। संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का विभाजन केंद्र द्वारा बनाए गए किसी कानून के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं संविधान द्वारा किया जाता है। संविधान की व्यवस्था इस प्रकार है। हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शक्तियों के लिए राज्य किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है। इस विषय में केंद्र और राज्य समानाधिकारी हैं।

यह समस्या कठिन है कि ऐसे संविधान को केंद्रवादी कैसे कहा जा सकता है। यह संभव है कि संविधान किसी अन्य संघीय संविधान के मुकाबले विधायी और कार्यपालक प्राधिकार के उपयोग के विषय में केंद्र के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र निर्धारित करता हो। यह भी संभव है कि अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी गई हो, राज्यों को नहीं। परंतु ये व्यवस्थाएं संघवाद का मर्म नहीं है। जैसा मैंने कहा, संघवाद का प्रमुख लक्षण केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का संविधान द्वारा किया गया विभाजन है। यह सिद्धांत हमारे संविधान में सन्निहित है। इस संबंध में कोई भूल नहीं हो सकती। इसलिए, यह कल्पना गलत होगा कि राज्यों को केंद्र के अधीन रखा गया है। केंद्र अपनी ओर से इस विभाजन की सीमा-रेखा को परिवर्तित नहीं कर सकता और न न्यायपालिका ऐसा कर सकती है। क्योंकि, जैसा बहुत सटीक रूप से कहा गया है-

"अदालतें मामूली हेर-फेर कर सकती हैं, प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं। वे पूर्व व्याख्याओं को नए तर्को का स्वरूप दे सकती हैं, नए दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकती हैं, वे सीमांत मामलों में विभाजक रेखा को थोड़ा खिसका सकती हैं, परंतु ऐसे अवरोध हैं, जिन्हें वे पार नहीं कर सकती, शक्तियों का सुनिश्चित निर्धारण है, जिन्हें वे पुनरावंटित नहीं कर सकतीं। वे वर्तमान शक्तियों का क्षेत्र बढ़ा सकती हैं, परंतु एक प्राधिकारी को स्पष्ट रूप से प्रदान की गई शक्तियों को किसी अन्य प्राधिकारी को हस्तांतरित नहीं कर सकतीं।"

इसलिए, संघवाद को कमजोर बनाने का पहला आरोप स्वीकार्य नहीं है।

दूसरा आरोप यह है कि केंद्र को ऐसी शक्तियां प्रदान की गई हैं, जो राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण करती हैं। यह आरोप स्वीकार किया जाना चाहिए। परंतु केंद्र की शक्तियों को राज्य की शक्तियों से ऊपर रखने वाले प्रावधानों के लिए संविधान की निंदा करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। पहली यह कि इस तरह की अभिभावी शक्तियां संविधान के सामान्य स्वरूप का अंग नहीं हैं। उनका उपयोग और प्रचालन स्पष्ट रूप से आपातकालीन स्थितियों तक सीमित किया गया है।

ध्यान में रखने योग्य दूसरी बात है- आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए क्या हम केंद्र को अभिभावी शक्तियां देने से बच सकते हैं? जो लोग आपातकालीन स्थितियों में भी केंद्र को ऐसी अभिभावी शक्तियां दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं वे इस विषय के मूल में छिपी समस्या से ठीक से अवगत प्रतीत नहीं होते। इस समस्या का सुविख्यात पत्रिका 'द राउंड टेबल' के दिसंबर 1935 के अंक में एक लेखक द्वारा इतनी स्पष्टता से बचाव किया गया है कि मैं उसमें से यह उद्धरण देने के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हूं। लेखक कहते हैं-

"राजनीतिक प्रणालियां इस प्रश्न पर अवलंबित अधिकारों और कर्तव्यों का एक मिश्रण हैं कि एक नागरिक किस व्यक्ति या किस प्राधिकारी के प्रति निष्ठावान् रहे। सामान्य क्रियाकलापों में यह प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि सुचारु रूप से अपना कार्य करता है और एक व्यक्ति अमुक मामलों में एक प्राधिकारी और अन्य मामलों में किसी अन्य प्राधिकारी के आदेश का पालन करता हुआ अपने काम निपटाता है। परंतु एक आपातकालीन स्थिति में प्रतिद्वंद्वी दावे पेश किए जा सकते हैं और ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अंतिम प्राधिकारी के प्रति निष्ठा अविभाज्य है। निष्ठा का मुद्दा अंतत: संविधियों की न्यायिक व्याख्याओं से निर्णीत नहीं किया जा सकता। कानून को तथ्यों से समीचीन होना चाहिए, अन्यथा वह प्रभावी नहीं होगा। यदि सारी प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं को एक तरफ कर दिया जाए तो निरा प्रश्न यह होगा कि कौन सा प्राधिकारी एक नागरिक की अवशिष्ट निष्ठा का हकदार है। वह केंद्र है या संविधान राज्य?"

इस समस्या का समाधान इस सवाल, जो कि समस्या का मर्म है, के उत्तर पर निर्भर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकांश लोगों की राय में एक आपातकालीन स्थिति में नागरिक को अवशिष्ट निष्ठा अंगभूत राज्यों के बजाय केंद्र को निर्देशित होनी चाहिए, क्योंकि वह केंद्र ही है, जो सामूहिक उद्देश्य और संपूर्ण देश के सामान्य हितों के लिए कार्य कर सकता है।

एक आपातकालीन स्थिति में केंद्र की अभिभावी शक्तियां प्रदान करने का यही औचित्य है। वैसे भी, इन आपातकालीन शक्तियों से अंगभूत राज्यों पर कौन सा दायित्व थोपा गया है कि एक आपातकालीन स्थिति में उन्हें अपने स्थानीय हितों के साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र के हितों और मतों का भी ध्यान रखना चाहिए- इससे अधिक कुछ नहीं। केवल वही लोग, जो इस समस्या को समझे नहीं हैं, उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं।

यहां पर मैं अपनी बात समाप्त कर देता, परंतु हमारे देश के भविष्य के बारे में मेरा मन इतना परिपूर्ण है कि मैं महसूस करता हूं, उस पर अपने कुछ विचारों को आपके सामने रखने के लिए इस अवसर का उपयोग करूं। 26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। (करतल ध्वनि) उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है।

यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है, बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण ऐसा हुआ है।

सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैन्य अधिकारियों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के दलालों से रिश्वत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कोई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे।

जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। सन् 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातं˜य युद्ध की घोषणा की गई थी तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे।

क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह वह विचार है, जो मुझे चिंता से भर देता है। इस तथ्य का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे? मैं नहीं जानता। परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। (करतल ध्वनि)

26 जनवरी, 1950 को भारत इस अर्थ में एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। यही विचार मेरे मन में आता है। उसके प्रजातांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है।

यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- क्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित है।

सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा।

भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।

प्रजातंत्र को केवल बाह्य स्वरूप में ही नहीं बल्कि वास्तव में बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मेरी समझ से, हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए। इसका अर्थ है, हमें क्रांति का खूनी रास्ता छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग और सत्याग्रह के तरीके छोड़ने होंगे। जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का कोई संवैधानिक उपाय न बचा हो, तब असंवैधानिक उपाय उचित जान पड़ते हैं। परंतु जहां संवैधानिक उपाय खुले हों, वहां इन असंवैधानिक उपायों का कोई औचित्य नहीं है। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही अच्छा है।

दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात् "अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।"

उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, "कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।" यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।

तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है ? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के इन सिद्धांतों को एक त्रयी के भिन्न घटकों के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। वे इस अर्थ में एक एकात्मक त्रयी बनते हैं कि एक से विमुख होकर दूसरे के पालन करने से प्रजातंत्र का लक्ष्य ही प्राप्त नहीं होगा।

स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और न समानता को स्वतंत्रता से। इसी तरह, स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता। समानता के बिना स्वतंत्रता बहुजन पर कुछ लोगों का दबदबा बना देगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत उपक्रम को समाप्त कर देगी। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता सहज नहीं लगेंगी। उन्हें लागू करने के लिए हमेशा एक कांस्टेबल की जरूरत होगी। हमें इस तथ्य की स्वीकृति से आरंभ करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का नितांत अभाव है। उनमें से एक है समानता। सामाजिक धरातल पर भारत में बहुस्तरीय असमानता है- अर्थात् कुछ को विकास के अवसर और अन्य को पतन के। आर्थिक धरातल पर हमारे समाज में कुछ लोग हैं, जिनके पास अकूत संपत्ति है और बहुत लोग घोर दरिद्रता में जीवन बिता रहे हैं।

26 जनवरी, 1950 को हम एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमारे सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभासी जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीतिक प्रजातंत्र को संकट में डाल रहे होंगे। हमें जितनी जल्दी हो सके, इस विरोधाभास को समाप्त करना होगा, अन्यथा जो लोग इस असमानता से पीड़ित हैं, वे उस राजनीतिक प्रजातंत्र को उखाड़ फेंकेंगे, जिसे इस सभा ने इतने परिश्रम से खड़ा किया है।

दूसरी चीज जो हम चाहते हैं, वह है बंधुत्व के सिद्धांत पर चलना। बंधुत्व का अर्थ क्या है? बंधुत्व का अर्थ है- सभी भारतीयों के बीच एक सामान्य भाईचारे का अहसास। यह एक ऐसा सिद्धांत है, जो हमारे सामाजिक जीवन को एकजुटता प्रदान करता है। इसे हासिल करना एक कठिन कार्य है। यह कितना कठिन कार्य है, इसे जेम्स ब्रायस द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका से संबंधित अमेरिकन राष्ट्रमंडल पर लिखी पुस्तक में दी गई कहानी से समझा जा सकता है।

कहानी है-मैं इसे स्वयं ब्रायस के शब्दों में ही उसे सुनाना चाहूंगा- कुछ साल पहले अमेरिकन प्रोटेस्टेंट एपिस्कोपल चर्च अपने त्रैवार्षिक सम्मेलन में अपनी उपासना पद्धति संशोधित कर रहा था। छोटी पंक्तियों वाली प्रार्थनाओं में समस्त नागरिकों के लिए एक प्रार्थना को शामिल करना वांछनीय समझा गया और एक प्रतिष्ठित मॉर्डन इंग्लैंड के एक धर्मगुरु ने ये शब्द सुझाए- 'हे ईश्वर! हमारे राष्ट्र पर कृपा कर।' दोपहर को तत्क्षण स्वीकार किया गया यह वाक्य अगले दिन पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत किया गया तो जनसाधारण द्वारा 'राष्ट्र' शब्द पर इस आधार पर इतनी आपत्तियां उठाई गई कि यह शब्द राष्ट्रीय एकता पर जरूरत से ज्यादा जोर देता है कि उसे त्यागना पड़ा और उसके स्थान पर ये शब्द स्वीकृत किए गए, 'हे ईश्वर! इन संयुक्त राज्यों पर कृपा कर।'

जब यह घटना हुई तब यूएसए में इतनी कम एकता थी कि अमेरिका की जनता यह नहीं मानती थी कि वे एक राष्ट्र हैं। यदि अमेरिका की जनता यह महसूस नहीं करती थी कि वे एक राष्ट्र हैं तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना कठिन है कि वे एक राष्ट्र हैं। मुझे उन दिनों की याद है, जब राजनीतिक रूप से जागरूक भारतीय 'भारत की जनता'- इस अभिव्यक्ति पर अप्रसन्नता व्यक्त करते थे। उन्हें 'भारतीय राष्ट्र' कहना अधिक पसंद था। मेरे विचार से, यह सोचना कि हम एक राष्ट्र हैं, एक बहुत बड़ा भ्रम है।

हजारों जातियों में विभाजित लोग कैसे एक राष्ट्र हो सकते हैं, जितनी जल्दी हम यह समझ लें कि इस शब्द के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में हम अब तक एक राष्ट्र नहीं बन पाए हैं, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता को ठीक से समझ सकेंगे और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधन जुटा सकेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत कठिन साबित होने वाली है- उससे कहीं अधिक जितनी वह अमेरिका में रही है।

अमेरिका में जाति की समस्या नहीं है। भारत में जातियां हैं। जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं। पहली बात तो यह कि वे सामाजिक जीवन में विभाजन लाती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी हैं कि वे जाति एवं जाति के बीच विद्वेष और वैर-भाव पैदा करती हैं। परंतु यदि हमें वास्तव में एक राष्ट्र बनना है तो इन कठिनाइयों पर विजय पानी होगी। क्योंकि बंधुत्व तभी स्थापित हो सकता है जब हमारा एक राष्ट्र हो। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता रंग की एक परत से अधिक गहरी नहीं होगी।

जो कार्य हमारे सामने खड़े हैं, उन पर ये मेरे विचार हैं। कई लोगों को वे बहुत सुखद नहीं लगेंगे, परंतु इस बात का कोई खंडन नहीं कर सकता कि इस देश में राजनीतिक सत्ता कुछ लोगों का एकाधिकार रही है और बहुजन न केवल बोझ उठाने वाले बल्कि शिकार किए जाने वाले जानवरों के समान हैं। इस एकाधिकार ने न केवल उनसे विकास के अवसर छीन लिए हैं, बल्कि उन्हें जीवन के किसी भी अर्थ या रस से वंचित कर दिया है।

ये पददलित वर्ग शासित रहते-रहते अब थक गए हैं। अब वे स्वयं शासन करने के लिए बेचैन हैं। इन कुचले हुए वर्गो में आत्म-साक्षात्कार की इस ललक को वर्ग-संघर्ष या वर्ग-युद्ध का रूप ले लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। यह हमारे घर को विभाजित कर देगा। वह एक अनर्थकारी दिन होगा। क्योंकि जैसा अब्राहम लिंकन ने बहुत अच्छे ढंग से कहा है, "अंदर से विभाजित एक घर ज्यादा दिनों तक खड़ा नहीं रह सकता।" इसलिए, उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जितनी जल्दी उपयुक्त स्थितियां बना दी जाएं अल्पसंख्यक शासक वर्ग के लिए, देश के लिए, उसकी स्वतंत्रता और प्रजातांत्रिक ढांचे को बनाए रखने के लिए उतना ही अच्छा होगा। जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और बंधुत्व स्थापित करके ही ऐसा किया जा सकता है। इसीलिए, मैंने इन पर इतना जोर दिया है।

मैं सदन को और अधिक उकताना नहीं चाहता। निस्संदेह, स्वतंत्रता एक आनंद का विषय है। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बहुत जिम्मेदारियां डाल दी हैं। स्वतंत्रता के बाद कोई भी चीज गलत होने पर ब्रिटिश लोगों को दोष देने का बहाना समाप्त हो गया है। अब यदि कुछ गलत होता है तो हम किसी और को नहीं, स्वयं को ही दोषी ठहरा सकेंगे। हमसे गलतियां होने का खतरा बहुत बड़ा है। समय तेजी से बदल रहा है। हमारे लोगों सहित दुनिया के लोग नई विचारधाराओं से प्रेरित हो रहे हैं। लोग जनता 'द्वारा' बनाई सरकार से ऊबने लगे हैं। वे जनता के 'लिए' सरकार बनाने की तैयारी कर रहे हैं और इस बात से उदासीन हैं कि वह सरकार जनता 'द्वारा' बनाई हुई जनता 'की' सरकार है।

यदि हम संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिसमें जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार का सिद्धांत प्रतिष्ठापित किया गया है तो हमें यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि 'हम हमारे रास्ते खड़ी बुराइयों, जिनके कारण लोग जनता 'द्वारा' बनाई गई सरकार के बजाय जनता के लिए बनी सरकार को प्राथमिकता देते हैं, की पहचान करने और उन्हें मिटाने में ढिलाई नहीं करेंगे। ' देश की सेवा करने का यही एक रास्ता है। मैं इससे बेहतर रास्ता नहीं जानता।

(प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित और रुद्रांक्षु मुखर्जी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारत के महान भाषण' से साभार।)


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