THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, April 3, 2015

हिंदी पत्रकारिता या हिंदू पत्रकारिता?

(17-23 जून 1984 शान-ए-सहारालखनऊ)
हिंदी पत्रकारिता या हिंदू पत्रकारिता?
आनंद स्वरूप वर्मा
स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश पर हिन्दी के समाचार पत्रों का रुख अजीबो-गरीब रहा है। कल तक जो अखबार पंजाब समस्या के समाधान के लिए द्विपक्षीयत्रिपक्षीय या सर्वदलीय बैठकों की बातें करते थेउन्होंने भी सैनिक समाधान पर अचानक सारी उम्मीदें टिका दीं। इंका की कोशिशों,अकाली दल की गलतियों और उग्रवादियों की साजिशों से पंजाब में उन दिनों सांप्रदायिक आधार पर जो ध्रुवीकरण हो रहा था उसका प्रतिबिंब बहुत स्पष्ट रूप में हिन्दी के अखबारों में देखने को मिला। यह पहला मौका था जब किसी राष्ट्रीय समस्या पर हिन्दी के अखबारों ने इतने जोश के साथ संपादकीय लिखे। नयी दिल्ली से प्रकाशित दो प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक पत्रों 'नवभारत टाइम्स'और 'जनसत्ताके संपादकों में तो मानों होड़ लग गई थी कि कौन कितनी मुश्तैदी से श्रीमती गांधी के लिए नये-नये विशेषणों की खोज कर सकता है। इन संपादकीय अग्रलेखों को देखने से लगता है कि दोनों डर रहे थे कि कहीं सेना स्वर्ण मंदिर में घुसे बगैर वापस न आ जाए इसलिए दोनों शाबाशी देने की मुद्रा में होश हवास खोकर 'बक अपकरने में लगे थे।
'नवभारत टाइम्सके संपादक राजेन्द्र माथुर तो इतने उत्तेजित थे कि भाषा पर ही नियंत्रण खो बैठे और अश्लील हो गए। उन्होंने लिखा -'हत्यारों, सिरफिरों और बैंक लूटने वालों के अलावा देश में शायद ही ऐसा कोई वर्ग होगाजो इस कार्रवाई (अर्थात सेना भेजने का) का विरोध करेगा।'माथुर साहब की इस कसौटी पर रख कर देखा जाए तो चन्द्रशेखरसुब्रमण्यम स्वामीजार्ज फर्नाण्डीजखुशवंत सिंह या इन पंक्तियों का लेखक 'सिरफिरा' 'हत्याराया 'बैंक लूटने वालाहोना चाहिए। दूसरी तरफ 'जनसत्ताके संपादक प्रभाष जोशी ने श्रीमती गांधी के गुणगान में लिखा-'गनीमत है कि इतनी देर तक पार्टी के पीलिया से पीली पड़ी प्रधानमंत्री की आंखों और डण्डा उठाने से पहले कांपते हाथों ने कुछ देखा और किया।'
मजे की बात है कि इन महान संपादकों के हस्ताक्षर से एक दिन पहले प्रकाशित अपील में कहीं यह मांग नहीं की गयी थी कि पंजाब में सेना भेजी जाए फिर अचानक रातों रात इनके अंदर यह शौर्य कहां से आ गयाक्या नम्बर 1,सफरदजंग से कोई ऐसा टॉनिक मिल गया था जिसने किसी को अश्लीलता की सीमा तक जाने और किसी को अनुप्रास से युक्त भाषा की छटा बिखेरने के लिए बाध्य कर लिया? 'देश के शरीर में पके आतंकवाद के फोड़े पर चीरा लगाकर पस निकालना जरूरी हैलिखने वाले जोशी महोदय ने अतीत में अगर इतनी ही शिद्दत के साथ वार्ता के जरिये पंजाब समस्या को हल करने पर जोर दिया होता तो आज उनकी ऊर्जा सेना और प्रधानमंत्री के गुणगान की जगह कहीं और लग सकती थी।
इन संपादकों ने प्रेस सेंसरशिप को भी इस तरह स्वीकार किया गोया वह सरकार का पुनीत कर्तव्य है। राजेन्द्र माथुर लिखते हैं, 'अगर आपने मरीज को क्लोरोफॉर्म देकर ऑपरेशन टेबल पर बेहोश लिटा दिया है और सारे रिश्तेदारों को कमरे के बाहर कर दिया है और चीर फाड़ खत्म होने तक खबरों पर पाबन्दी लगा दी है तो आप चाकू लेकर घण्टों चुपचाप खड़े नहीं रह सकते और उसे चम्मच की तरह चूस नहीं सकते।'
सेना की जैसे जैसे कार्रवाई तेज होती गई इनका जोश उबाल खाने लगा। माथुर ने 6 जून को एक 'भारतावतारका दर्शन किया और 'आसमान पर बिजली के अक्षरों से  लिखे' संदेश देखे तो प्रभाष जोशी ने भारतीय सेना द्वारा 'इस्पात के अक्षरों से भारत की धरती पर  लिखे' शब्द पढ़े और महसूस किया कि 'फोड़े को चीरा लगा कर आतंकवाद का पस निकालना जरूरी था।'
इन संपादकों के दायित्वबोध से संबंधित कुछ सवाल पैदा होते हैं। क्या ये दोनों सज्जन हिंदू सांप्रदायिकता की चपेट में आ गये थेआखिर क्या वजह है कि 'ट्रिब्यून' (अंग्रेजी) का संपादक प्रेस सेंसरशिप का विरोध करने का साहस दिखा सकता है पर हिंदी के ये संपादक उसकी वकालत करते रहेआखिर क्या वजह है कि 4 जून का ही 'टाइम्स आफ इंडियाअपने संपादकीय में उस दिन कोजिस दिन सेना ने पंजाब में प्रवेश किया भारतीय इतिहास का 'सबसे दुखददिन कहता है जबकि राजेंद्र माथुर इसे एक गौरवशाली दिन मानते हैंआखिर क्या वजह है कि राजेंद्र माथुर को पंजाब पर सेना की जीत 'समूचे देश की जीत' (7 जून) लगती हैक्या वजह है कि अंग्रेजी के किसी अखबार ने ऐसा नहीं लिखा जिससे यह आभास हो कि भारतीय सेना ने किसी शत्रु देश के खिलाफ कार्रवाई की होक्या भिंडरावाले के धार्मिक उन्माद का यह दूसरा रूप नहीं है जो शब्दों के माध्यम से सामने आ रहा हैआखिर कब तक हिंदी के सम्पादक  मुंह से लार टपकाते हुए सत्ता की तरफ ललचायी नजरों से निहारते रहेंगे?
1975 में जब इमरजेंसी लगी थी उस समय की स्थिति से यदि आज की स्थिति की तुलना करें तो श्रीमती गांधी को काफी संतोष मिलेगा। पंजाब में जो कुछ हुआ वह कल जम्मू कश्मीर में होने जा रहा है। पंजाब ऑपरेशन की सफलता से ज्यादा खुशी उन्हें यह देखकर हो रही होगी कि आज पत्रकारों में माथुरों और जोशियों की एक कतार खड़ी हो गयी है जो 1975 में नहीं थी।



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