THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, November 30, 2015

साजिशों की दास्तान “आपरेशन अक्षरधाम” समीक्षा - अवनीश कुमार


साजिशों की दास्तान "आपरेशन अक्षरधाम"

समीक्षा - अवनीश कुमार

c-2, Peepal wala Mohalla,
Badli Ext. Delhi-42
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

"आपरेशन अक्षरधाम" हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल
चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक
विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।

24 सितंबर 2002 को  हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को अब करीब 13
साल बीत चुके हैं। गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में
शाम को हुए एक 'आतंकी' हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे। दिल्ली
से आई एनएसजी की टीम ने वज्रशक्ति नाम से आपरेशन चलाकर दो फिदाईनो को
मारने का दावा किया था। मारे गए लोगों से उर्दू में लिखे दो पत्र भी
बरामद होने का दावा किया गया जिसमें गुजरात में 2002 में राज्य प्रायोजित
दंगों में मुसलमानों की जान-माल की हानि का बदला लेने की बात की गई थी।
बताया गया कि दोनो पत्रों पर तहरीक-ए-किसास नाम के संगठन का नाम लिखा था।

इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियों में जो बदलाव आए और जिन लोगों को उसका
फायदा मिला यह सबके सामने है और एक अलग बहस का विषय हो सकता है। इस मामले
में जांच एजेंसियों ने 6 लोगों को आतंकियों के सहयोगी के रूप में
गिरफ्तार किया था जो अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह
निर्दोष छूट गए। यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है
उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली
अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र
का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को
हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।

आपरेशन अक्षरधाम' मुख्य रूप से उन सारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण और
विश्लेषण है जो एक सामान्य पाठक के सामने उन घटनाओं से जुड़ी कड़ियों को
खोलकर रख देता है। यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को
रेशा-रेशा करती है। मसलन इस 'आतंकी' हमले के अगले दिन केंद्रीय
गृहमंत्रालय ने दावा किया कि मारे गए दोन फिदाईन का नाम और पता मुहम्मद
अमजद भाई, लाहौर, पाकिस्तान और हाफिज यासिर, अटक पाकिस्तान है। जबकि
गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के दावे
से अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी
नहीं है।

इसी तरह पुलिस के बाकी दावों जैसे फिदाईन मंदिर में कहां से घुसे, वे किस
गाड़ी से आए और उन्होने क्या पहना था, के बारे में भी अंतर्विरोध बना
रहा। पुलिस का दावा और चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर
आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे
रखी।

चूंकि यह एक आतंकी हमला था इसलिए इसकी जांच ऐसे मामलों की जांच के लिए
विशेष तौर पर गठित आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई। लेकिन
इसमें तब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई जब तक कि एक मामूली चेन स्नेचर समीर
खान पठान को पुलिस कस्टडी से निकालकर उस्मानपुर गार्डेन में एक फर्जी
मुठभेड़ में मार नहीं दिया गया। अब इस मामले में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
जेल में हैं। इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट में लिखा गया – "कि पठान
मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को मारना चाहता था। उसे पाकिस्तान में आतंकवाद
फैलाने का प्रशिक्षण देने के बाद भारत भेजा गया था। यह ठीक उसके बाद हुआ
जब पेशावर में प्रशिक्षित दो पाकिस्तानी आतंकवादी अक्षरधाम मंदिर पर हमला
कर चुके थे।" मजे की बात ये थी इसके पहले अक्षरधाम हमले के सिलसिले में
25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में
मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!

28 अगस्त 2003 की शाम को साढ़े 6 बजे एसीपी क्राइम ब्रांच  अहमदाबाद के
दफ्तर पर  डीजीपी कार्यालय से फैक्स  आया जिसमें निर्देशित  किया गया था
कि अक्षरधाम  मामले की जांच क्राइम  ब्रांच को तत्काल प्रभाव  से एटीएस
से अपने हाथ  में लेनी है। इस फैक्स के मिलने के बाद एसीपी जीएल सिंघल
तुरंत एटीएस आफिस चले गए जहां से उन्होने रात आठ बजे तक इस मामले से
जुड़ी कुल 14 फाइलें लीं। इसके बाद शिकायतकर्ता से खुद ब खुद वे
जांचकर्ता भी बन गए और अगले कुछ ही घंटों में उन्होने अक्षरधाम मामले को
हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया। इस
संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – "एटीएस की
जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए
सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।" और इस तरह अगले ही दिन यानी 29
अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात
भी कोई हैरानी नहीं हुई।

परिस्थितियों को देखने के बाद ये साफ था कि पूरा मामला पहले से तय कहानी
के आधार पर चल रहा था। जिन लोगों को 29 अगस्त को गिरफ्तार दिखाया गया
उन्हें महीनों पहले से क्राइम ब्रांच ने अवैध हिरासत में रखा था, जिसके
बारे में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था। जिन लोगों को "गायकवाड़
हवेली" में रखा गया था वे अब भी उसकी याद करके दहशत से घिर जाते हैं।
उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं, जलील किया गया और झूठे हलफनामें लिखवाए गए।
उन झूठे हलफनामों के आधार पर ही उन्हें मामले में आरोपी बनाया गया और
मामले को हल कर लेने का दावा किया गया।

किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार
पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव
पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे। लेकिन फिर भी अगर
पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी ने बचाव पक्ष की दलीलों को अनसुना कर
दिया तो उसकी वजह समझने के लिए सिर्फ एक वाकए को जान लेना काफी होगा।
--"मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को लगभग डेढ़ महीने के ना काबिल-ए-बर्दाश्त
शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले 25
सितंबर को पुरानी हाईकोर्ट नवरंगपुरा में पेश किया गया जहां पेशी से पहले
इंस्पेक्टर वनार ने उन्हें अपनी आफिस में बुलाया और कहा कि वह जानते हैं
कि वह बेकसूर हैं लेकिन उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए, वे उन्हें बचा
लेंगे। वनार ने उनसे कहा कि उन्हें किसी अफसर के सामने पेश किया जाएगा जो
उनसे कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने को कहेंगे जिस पर उन्हें खामोशी से
अमल करना होगा। अगर उन्होने ऐसा करने से इंकार किया या हिचकिचाए तो
उन्हें उससे कोई नहीं बचा पाएगा क्योंकि पुलिस वकील जज सरकार अदालत सभी
उसके हैं।"

दरअसल सच तो ये था कि बाकी सभी लोगों के साथ ऐसे ही अमानवीय पिटाई और
अत्याचार के बाद कबूलनामें लिखवाए गए थे और उनको धमकियां दी गईं कि अगर
उन्होने मुंह खोला तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा। लेकिन क्राइम ब्रांच की
तरफ से पोटा अदालत में इन इकबालिया बयानों के आधार पर जो मामला तैयार
किया गया था, अगर अदालत उसपर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों
को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के विरोधाभाषों के कारण ही मामला
साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था।
किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार
जिक्र किया गया है।

इस मामले में हाइकोर्ट का फैसला भी कल्पनाओं से परे था। चांद खान, जिसकी
गिरफ्तारी जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने अक्षरधाम मामले में की थी, के सामने
आने के बाद गुजरात पुलिस के दावे को गहरा धक्का लगा था। जम्मू एवं कश्मीर
पुलिस के अनुसार अक्षरधाम पर हमले का षडयंत्र जम्मू एवं कश्मीर में रचा
गया था जो कि गुजरात पुलिस की पूरी थ्योरी से कहीं मेल नहीं खाता था।
लेकिन फिर भी पोटा अदालत ने चांद खान को उसके इकबालिया बयान के आधार पर
ही फांसी की सजा सुनाई थी।

लेकिन इस मामले में हाइकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा – "वे अहमदाबाद,
कश्मीर से बरेली होते हुए आए। उन्हें राइफलें, हथगोले, बारूद और दूसरे
हथियार दिए गए। आरोपियों ने उनके रुकने, शहर में घुमाने और हमले के स्थान
चिन्हित करने में मदद की।" जबकि अदालत ने आरोपियों का जिक्र नहीं किया।
शायद इसलिए कि आरोपियों के इकबालियाय बयानों में भी इस कहानी का कोई
जिक्र नहीं था। जबकि पोटा अदालत में इस मामले के जांचकर्ता जीएल सिंघल
बयान दे चुके थे कि उनकी जांच के दौरान उन्हें चांद खान की कहीं कोई
भूमिका नहीं मिली थी। लेकिन फिर भी हाइकोर्ट ने असंभव सी लगने वाली इन
दोनो कहानियों को जोड़ दिया था और इस आधार पर फैसला भी सुना दिया।

इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती
है जब कोर्ट ये लिखती है कि "27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने
की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला
दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ
युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।" जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड
बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी
बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने
अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी। इसी तरह हाइकोर्ट
ने बहुत सी ऐसी बातें अपने फैसले में अपनी तरफ से जोड़ दीं, जो न तो
आरोपियों के इकबालिया बयानों का हिस्सा थी और न ही जांचकर्ताओं ने पाईं।
और इस तरह पोटा अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए मुफ्ती अब्दुल कय्यूम,
आदम अजमेरी, और चांद खान को फांसी, सलीम को उम्र कैद, मौलवी अब्दुल्लाह
को दस साल और अल्ताफ हुसैन को पांच की सजा सुनाई।

इसी तरह हाइकोर्ट ने इन आरोपों को कि ये षडयंत्र सउदी अरब में रचा गया और
आरोपियों ने गुजरात दंगों की सीडी देखी थी और आरोपियों ने इससे संबंधित
पर्चे और सीडी बांटीं जिसमें दंगों के फुटेज थे, को जिहादी साहित्य माना।
सवाल ये उठता है कि अगर कोई ऐसी सीडी या पर्चा बांटा भी गया जिसमें
गुजरात दंगों के बारे में कुछ था तो उसे जिहादी साहित्य कैसे माना जा
सकता है। हालांकि अदालतें अपने फैसलों में अपराध की परिभाषा भी देती हैं
उसके आधार पर किसी कृत्य को आपराधिक घोषित करती हैं पर इस फैसले में सउदी
अरब में रह रहे आरोपियों को जिहादी साहित्य बांटने का आरोपी तो बताया गया
है पर जिहादी साहित्य क्या है इसके बारे में कोई परिभाषा नहीं दी गई है।

आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए
सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने माना कि इस मामले में
जांच के लिए अनुमोदन पोटा के अनुच्छेद 50 के अनुरूप नहीं था। सर्वोच्च
न्यायलय ने यह भी कहा कि आरोपियों द्वारा लिए गए इकबालिया बयानों को दर्ज
करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय नियमों की अनदेखी की गई। जिन दो
उर्दू में लिखे पत्रों को क्राइम ब्रांच ने अहम सबूत के तौर पर पेश किया
था उन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। फिदाईन की पोस्टमार्टम
रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा – "जब फिदाईन के सारे कपड़े खून
और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब
पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना
अस्वाभाविक और असंभ्व है।" इस तरह सिर्फ इकबालिया बयानों के आधार पर किसी
को आरोपी मानने और सिर्फ एक आरोपी को छोड़कर सभी के अपने बयान से मुकर
जाने के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने सारे आरोपियों
को बरी कर दिया।

हालांकि ये सवाल अब भी बाकी है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमले का जिम्मेदार
कौन है। इसलिए लेखकद्वय ने इन संभावनाओं पर भी चर्चा की है और खुफिया
विभाग के आला अधिकारियों के हवाले से वे ये संभावना जताते हैं कि इस हमले
की राज्य सरकार को पहले से जानकारी थी। फिदाईन हमलों के जानकार लोगों के
अनुभवों का हवाला देते हुए लेखकों ने यह शंका भी जाहिर की है क्या मारे
गए दोनो शख्स सचमुच फिदाईन थे? इसके साथ ही इस हमले से मिलने वाले
राजनीतिक फायदे और समीकरण की चर्चा भी की गई है।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किताब में कहीं भी कोरी कल्पनाओं का सहारा
नहीं लिया गया है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में
लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में
पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है
और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह
किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक
महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।

"आपरेशन अक्षरधाम"
(उर्दू हिंदी  में एक साथ प्रकाशित)
लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक – फरोश मीडिया
डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव
जामिया नगर, नई दिल्ली-110025

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