THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Saturday, November 28, 2015

https://youtu.be/YkgDFsVMp-0 जिंदाबान..दीवारें जिंदाबान! दीवारें जो गिरायें,वो उल्लू दा पट्ठा! इसीलिए इतिहास लहूलुहान,पन्ना दर पन्ना खून का सैलाब! लहुलुहान फिजां है लहुलुहान स्वतंत्रता लहुलुहान संप्रभुता लहूलुहान इनडिविजुअल लहुलूहान ट्राडिशन लहूलुहान यह कायनात और यह कयामत का मंजर फासीवाद की कुंडली भी बांच लीजिये! गांधी की प्रार्थना सभा में हत्या! Murder in the Cathedral! Rising Fascism and the Burnt Norton! कैंटरबुरी कैथेड्राल में आर्कविशप की जो हत्या हुई और फासीवाद के शिशुकाल में जो इलियट ने इसे गीति नाट्य बना दिया,उसे समझने के लिए प्रार्थना सभा में राम नाम जाप रहे असल हिंदू धर्म के सबसे बड़े धार्मिक नेता की हत्या और आज भी हत्यारे के भव्य राममंदिर की कथा समझने के लिए कैथेड्राल में आर्कविशप की हत्या की इस क्लासिक कथा पर चर्चा बेहद जरुरी है। थीम सांगःसूफी संगीत और बाउल गीत हमने टुवेल्फ्थ नाइट के जरिये लोक धर्म पर्व टुवेल्फ्थ नाइट की प्रासंगिकता पर चर्चा की दो कारणों से।पहला तो यह कि अमेरिका की भावभूमि में जो नई दुनिया बनी और बन रही है,महारानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल के आगे पीछे सबकुछ सु

https://youtu.be/YkgDFsVMp-0


जिंदाबान..दीवारें जिंदाबान!

दीवारें जो गिरायें,वो उल्लू दा पट्ठा!

इसीलिए इतिहास लहूलुहान,पन्ना दर पन्ना खून का सैलाब!

लहुलुहान फिजां है

लहुलुहान स्वतंत्रता

लहुलुहान संप्रभुता

लहूलुहान इनडिविजुअल

लहुलूहान ट्राडिशन

लहूलुहान यह कायनात

और यह कयामत का मंजर


फासीवाद की कुंडली भी बांच लीजिये!

गांधी की प्रार्थना सभा में हत्या! Murder in the Cathedral! Rising Fascism and the Burnt Norton!


कैंटरबुरी कैथेड्राल में आर्कविशप की जो हत्या हुई और फासीवाद के शिशुकाल में जो इलियट ने इसे गीति नाट्य बना दिया,उसे समझने के लिए प्रार्थना सभा में राम नाम जाप रहे असल हिंदू धर्म के सबसे बड़े धार्मिक नेता की हत्या और आज भी हत्यारे के भव्य राममंदिर की कथा समझने के लिए कैथेड्राल में आर्कविशप की हत्या की इस क्लासिक कथा पर चर्चा बेहद  जरुरी है।

थीम सांगःसूफी संगीत और बाउल गीत


हमने टुवेल्फ्थ नाइट के जरिये लोक धर्म पर्व टुवेल्फ्थ नाइट की प्रासंगिकता पर चर्चा की दो कारणों से।पहला तो यह कि अमेरिका की भावभूमि में जो नई दुनिया बनी और बन रही है,महारानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल के आगे पीछे सबकुछ सुधारो अभियान के तहत चले प्यूरिटन उसकी वास्तविक कोख है।इसीकी अगली कड़ी मर्डर इन द कैथेड्रल है और हमारे अत्यंत प्रिय कवि टीएस इलियट ने अपना गीति नाट्य 1170 में कैंटरबरी कैथेड्राल में हुई आर्क विशप थामस बैकेट की कथा पर लिखी तो असहिष्णुता के तूफान से वे भी नहीं बचे।



Twelfth Night 

https://www.youtube.com/watch?v=3Ncc1fomGuY


Hay O Rabba Nai Laghda Dil Mera - Reshma - Dailymotion

www.dailymotion.com/.../xw4crj_hay-o-rabba-nai-laghda-dil-mera-resh..

अकादमिक चर्चा जो शायद छात्रों के लिए बेहद काम की चीज हो और इसके साथ ही इस हत्या के समांतर गांधी हत्या का आंखों देखा हाल और नाटक का मंचन भी मूल टेक्स्ट के साथ शामिल करेंगे।


सुनते रहे हमारे प्रवचन मोक्ष के लिए और मुक्ति मार्ग पर कदम मजबूती के साथ बिना इधर उधर भटके,तेज तेज चलें इसके लिए पढ़ते रहें हस्तक्षेप।


इस प्रस्तावना के साथ मूल चर्चा विजुअल ही होगी।

संदर्भ मूल अंग्रेजी में इस आलेख के साथ नत्थी होंगे।


पलाश विश्वास

नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन के अन्दर वह स्थान (गान्धी-स्मृति) जहाँ 30 जनवरी 1948 को गान्धी को गोली मार दी गयी थी।


"अगर मुझे किसी पागल आदमी की गोली से भी मरना हो तो मुझे मुस्कराते हुए मरना चाहिये। मेरे दिलो-जुबान पर सिर्फ़ भगवान का ही नाम होना चाहिये। और अगर ऐसा कुछ होता है तो तुम लोगों को आँसू का एक कतरा भी नहीं बहाना।" (अंग्रेजी: If I'm to die by the bullet of a mad man, I must do so smiling. God must be in my heart and on my lips. And if anything happens, you are not to shed a single tear.)

– मोहनदास करमचन्द गान्धी 28 जनवरी 1948

विकीपीडिया के मुताबिकः

Murder in the Cathedral is a verse drama by T. S. Eliot that portrays the assassination of Archbishop Thomas Becket in Canterbury Cathedral in 1170, first performed in 1935. Eliot drew heavily on the writing of Edward Grim, a clerk who was an eyewitness to the event[citation needed].

The play, dealing with an individual's opposition to authority, was written at the time of rising fascism in Central Europe.

Some material that the producer asked Eliot to remove or replace during the writing was transformed into the poem "Burnt Norton".[1]

जाहिर है कि हम सारे संदर्भ और प्रसंग भी खंगालेगे।

RESHMAN - HAYE O RABBA NAIYON LAGDA DIL MERA ...

Aug 18, 2012 - Uploaded by GRKsweetsongs58

RESHMAN - HAYE O RABBA NAIYON LAGDA DIL MERA .... Have no word to describe my feelings


"Murder in the Cathedral" at St Bartholomew the Great ...

▶ 1:37

https://www.youtube.com/watch?v=6y_F2Absv_0

29/09/2014 - Cecilia Istria-Dorland द्वारा अपलोड किया गया

Little Spaniel Theatre presents: Murder in the Cathedral By T.S. Eliot 8-22 ... Introduction to Theatre and Drama ..

  1. Assassination of Mahatma Gandhi - Wikipedia, the free ...

  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Assassination_of_Mahatma_Gandhi

  3. Mohandas Karamchand Gandhi, better known as Mahatma Gandhi, was assassinated at the Birla House (now Gandhi Smriti) in New Delhi on 30 January 1948.

  4. Assassination - ‎Trial and justice - ‎Aftermath - ‎Previous attempts

  5. Nathuram Godse - Wikipedia, the free encyclopedia

  6. https://en.wikipedia.org/wiki/Nathuram_Godse

  7. Nathuram Godse at his trial for the murder of Mahatma Gandhi. Born, (1910-05-19)19 May ... Criminal charge, Assassination of Mohandas Karamchand Gandhi ...

  8. Narayan Apte - ‎Vinayak Damodar Savarkar - ‎Me Nathuram Godse Boltoy

  9. Assassination of Mahatma Gandhi : The Facts Behind

  10. www.mkgandhi.org/assassin.htm

  11. The killer of Gandhiji and his apologists sought to justify the assassination on the following arguments: Gandhiji supported the idea of a separate State for ...

Why did Nathuram Godse kill Mahatma Gandhi? - Quartz

qz.com/318647/why-did-nathuram-godse-kill-mahatma-gandhi/

Dec 29, 2014 - Godse thought Gandhi was emasculating Hindus. ... the Hindus and turning them effeminate, he killed the man who propagated them.

Mahatma gandhi death video - YouTube

▶ 0:21

https://www.youtube.com/watch?v=vLtvFirHT14

Apr 17, 2012 - Uploaded by CK Entertainment

Mohandas karmchand gandhi death. ... He was killed by dirty fellow very sad news i want to kill that dirty ...

why i killed gandhi!!! - nathuram godse 's address in court

creative.sulekha.com/why-i-killed-gandhi-nathuram-godse-s-address-in-...

Gandhiji Assassin: Nathuram Godse's Final Address to the Court. Nathuram Godse was .... Thus, the Mahatma became the judge and jury in his own cause.


Murder in the Cathedral (1951) - IMDb


The tape version, if one exists, may be 114 minutes but the film, on original release, ran the same 140 minutes in the USA as it did in England.


  1. टीएस एलियट "कैथेड्रल में मर्डर" (भाग 1) - यूट्यूब

  2. 22/10/2009 - randombells द्वारा अपलोड किया गया

  3. "कैथेड्रल में मर्डर" चित्रण है कि टीएस एलियट के द्वारा एक काव्य नाटक है1170 में कैंटरबरी कैथेड्रल में आर्कबिशप थॉमस Becket की हत्यापहले ...

मर्डर इन द कैथेड्रल गीति नाट्य विधा में लिखी गयी अंग्रेज कवि और आलोचक नोबेल पुरस्कार विजेता टीएस इलियट की अत्यंत प्रासंगिक कृति है।


रवीन्द नाथ टैगोर ने भी चंडालिका,श्यामा,रक्तकरबी,शाप मोचन जैसे गीति नाट्य लिखे हैं और उनका मंचन भी बेहद लोकप्रिय हैं।लेकिन गीतांजलि के मुकाबले रवींद्र की दूसरी रचनाओं की तरह उनके गीति नाट्य पर बंगाल में चर्चा जरुर हुई है किंतु बाकी देश में यह चर्चा कभी प्रासंगिक नहीं बन सकी।


कल हमने टुवेल्फ्थ नाइट के जरिये लोक धर्म पर्व टुवेल्फ्थ नाइट की प्रासंगिकता पर चर्चा की दो कारणों से।पहला तो यह कि अमेरिका की भावभूमि में जो नई दुनिया बनी और बन रही है,महारानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल के आगे पीछे सबकुछ सुधारो अभियान के तहत चले प्यूरिटन उसकी वास्तविक कोख है।


यह आंदोलन लेकिन चर्च के दैविकी धर्म सत्ता के खिलाफ कैथेलिक धर्म को बदलने की मुहिम थी,जिसमें इंग्लेंड में भारी रक्तपात हुए।


इसीकी अगली कड़ी मर्डर इन द कैथेड्रल है और हमारे अत्यंत प्रिय कवि टीएस इलियट ने अपना गीति नाट्य 1170 में कैंटरबरी कैथेड्राल में हुई आर्क विशप थामस बैकेट की कथा पर लिखी तो असहिष्णुता के तूफान से वे भी नहीं बचे।


उन्हें भी सत्ता की इच्छा मुताबिक इस बेहद प्रासंगिक गीति नाट्य में काटछांट करनी पड़ी तो इलियट भी कोई कच्चे खिलाड़ी न थे,उनने उस छांटे गये अंश पर जला हुआ वतन,बर्न्ट नार्टन लिख दे मारा।


कैंटरबुरी कैथेड्राल में आर्कविशप की जो हत्या हुई और फासीवाद के शिशुकाल में जो इलियट ने इसे गीति नाट्य बना दिया,उसे समझने के लिए प्रार्थना सभा में राम नाम जाप रहे असल हिंदू धर्म के सबसे बड़े धार्मिक नेता की हत्या और आज भी हत्यारे के भव्य राममंदिर की कथा समझने के लिए कैथेड्राल में आर्कविशप की हत्या की इस क्लासिक कथा पर चर्चा बेहद  जरुरी है।


अकादमिक चर्चा जो शायद छात्रों के लिए बेहद काम की चीज हो और इसके साथ ही इस हत्या के समांतर गांधी हत्या का आंखों देखा हाल और नाटक का मंचन भी मूल टेक्स्ट के साथ शामिल करेंगे।


सुनते रहे हमारे प्रवचन मोक्ष के लिए और मुक्ति मार्ग पर कदम मजबूती के साथ बिना इधर उधर भटके,तेज तेज चलें इसके लिए पढ़ते रहें हस्तक्षेप।


इस प्रस्तावना के साथ मूल चर्चा विजुअल ही होगी।

संदर्भ मूल अंग्रेजी में इस आलेख के साथ नत्थी होंगे।


टुवेल्फ्थ नाइट में शेक्सपीअर के  ड्रेजेडी नाटकों में मानवीय त्रासदी और उसके कारकों की निर्मम चीरफाड़ और सामाजिक यथार्थ का जो सटीक सौंदर्यबोध है,उसके मुकाबले में उनके कामेडी नाटकों में त्रासदी और कामेडी का प्रचंड समन्वय है जो चेतना को हिलाकर रख देता है और हमेशा मनुष्यता,सत्य और विवेक की जयजयकार होती है।शेक्सपीअर के चार ग्रेट ट्रेजेडी नाटकों में कार्ल मार्क्स और ऐंजेल्स के वर्ग संघर्ष के प्रतिपादित होने से काफी पहले रानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल में भी वर्गचेतना का मुख्य स्वर है।जैसे हैमलेट में नायिका ओफेलिया के भाई लेयरटिस की मुखर वर्गचेतना।कामेडी टेंपेस्ट में गुलाम कैलिबान के माध्यम से वह धुंआदार बवंडर है।हम इन पर चर्चा करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।


यूं समझ लें कि टुवेल्थ नाइट होली जैसा त्योहार है जो एक ओर लोकपर्व  है तो दूसरी ओर धर्म भी है।इस मौके पर प्रैक्टिकल जोक की जो छूट भारतीय महादेश की लोक देशज परंपरा है,वहीं इस पर्व की खासियत है।शेक्सपीअर ने इसकी खुली छूट लेकर प्यूरिटन सुनामी का मुकाबला करने की हिम्मत दिखा दी और असहिष्णुता की जो शिकायत अब हम कर रहे हैं,वहा शेक्सपीअर की हत्या नहीं हुई जबकि वे कैथलिक धर्म के पुजारियों की चुन चुनकर निर्मम हत्या कर रहे थे।


प्यूरिटन आंदोलन पर प्रहार शेक्सपीअर ने नायिका काउंटेस के सेवक मेलवोलियो के विचित्रचरित्र के मार्फत किया है जो सब कुछ बदल देने का दिवास्वप्न देखता है और खुद को शुद्धता वादी घोषित करता है और उसकी खुशफहमी यह कि उसकी मालकिन को उसीसे प्रेम है।


आगे शायद व्याख्या की जरुरत नहीं है कि प्रसंग क्या है और संदर्भ क्या है।अमेरिका मार्फत नई दुनिया की रचना इ्न्हीं सुधारों,संशोधन आंदोलन के मार्फत हुआ  तो हमने अपने वीडियो टाक में थीमसांग पिया गये रंगून ही चुना और संसद में संविधान अतंरसत्र,संविधान दिवस और भारतीय परिदृश्य में सुधार कार्यक्रम के नजारे के साथ लाइव संसद और अंबेडकर की स्मृति चर्चा के क्लीपिंग भी दिये हैं।


कल वीडियो टाक में हमने प्यूरिटन गिफ्ट के जरिये अमेरिका की रचना पर फोकस भी किया है और असहिष्णुता के मौजूदा माहौल और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर फोकस भी किया है।मैलेवियो हमारे आसोपास नेतृत्व और सत्ता में हैं वे शुद्धता वादी भी हैं लेकिन वे धर्म की सत्ता,राजनीतिक वंशवर्चस्व के मनुस्मृति शासन और आर्थिक सत्ता के खिलाफ खामोश ही नहीं हैं,बल्कि उन्हें बहाल रखने के लिए किसी की भी हत्या करने को तैयार हैं।


इस वीडियो में हमने मैलेवियो के ओकुपाई ग्लोबल आर्डर अभियान और एजंडा का भी खुलासा किया है।नाटक का मंचन शामिल किया है और हर चीज,हर व्यक्ति  से घृणा करने वाले मैलेवियो के दिवास्वप्न और आत्मरति से संबंधित नाटक के पूरे दो दृश्य भी डाले हैं।


भारत में असहिष्णुता कोई नई चीज नहीं है जो इंग्लैंड के स्वर्णकाल के 16 वीं सदी और सत्रहवीं सदी में घटित हुई ,वह अब घनघटा है और यह हमारी औपनिवेश विरासत है,फिर हम उसी अमेरिका के उपनिवेश बने हुए हैं, जिसकी रचना शुद्धतावादी सुधार कार्यक्रम प्यूरिटन आंदोलन की कोख से हुआ।


खास बात यह है कि इलियट के पहले 19वीं शती में अंग्रेजी में जिस रोमैंटिक समीक्षा का प्रचलन था वह कवि की वैयक्तिकता और कल्पनाशीलता को विशेष महत्त्व देता थी। 19वीं शती केे अंतिम चरण में वाल्टरपेटर और ऑस्कर वाइल्ड ने 'कलावाद' को अत्यधिक महत्त्व दिया। अर्थात् 19वीं शती की अंग्रेजी समीक्षा कृति के स्थान पर कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्त्व देती थी।


गौरतलब है कि  स्वछंदतावादी विद्वान कवि की प्रतिभा और अंतःप्रेरणा को ही काव्य-सृजन का मूल मानकर प्रतिभा को दैवी गुण स्वीकार करते थे। इसे ही 'वैयक्तिक काव्य सिद्धांत' कहा गया।


इस मान्यता को इलियट ने अपने निबंध 'परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा' में स्वीकार किया और कहा ''परंपरा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।'' उनके अनुसार, ''परंपरा अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण वस्तु है, परंपरा को छोड़ देने से हम वर्तमान को भी छोड़ बैठेंगे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि परंपरा के भीतर ही कवि की वैयक्तिक प्रज्ञा की सार्थकता मान्य होनी चाहिए।


मर्डर इन द कैथेड्रल में उसी परंपरा की गूंज अनुगूंज है।

नाटक जो लिखा इलियट ने वह काल्पनिक नहीं है,इतिहास है।

वह इतिहास यह हैः

In 1163, a quarrel began between the British King Henry II and the Archbishop of Canterbury, Thomas Becket. The men had been good friends, but each felt that his interests should be of primary concern to the nation and that the other should acquiesce to his demands. Becket fled to France in 1164 in order to rally support from the Catholic French for his cause and also sought an audience with the Pope. After being officially (although not personally) reconciled with the King, Becket returned to England in 1170, only to be murdered as he prayed in Canterbury Cathedral by four of Henry's Knights. Three years later, he was canonized and pilgrims—Henry among them—have made their way to his tomb ever since.


It was not so easy to deal with.As it involved religion not to mention the History and Politics also.But Eliot did it. In 1935, T. S. Eliot answered this "calling" to compose a play for that year's Canterbury Festival; the result was a work that revitalized verse drama—a form that had not been widely employed for almost three hundred years. Critics praised Eliot's use of verse and ability to invest a past historical event with modern issues and themes, such as the ways in which lay persons react to the intrusion of the supernatural in their daily lives. In part because it is a religious drama which appeared long after such plays were popular, Murder in the Cathedral is still performed, studied, and regarded as one of Eliot's major works, a testament to his skill as a poet and dramatist.


यह उनका इतिहास बोध है तो अर्जित परंपरा से बनी दृष्टि भी है।


यह समझने वाली बात है और बुनियादी अवधारणा के तौर पर इसे समझ भी लेना चाहिए कि  परंपरा को पारिभाषित करते हुए टीएस इलियट ने कह दिया  कि '' परंपरा के अंतर्गत उन सभी स्वाभाविक कार्यों,आदतों, रीति-रिवाजों का समावेश होता है जो स्थान विशेष पर रहने वाले लोगों के सह-संबंध काप्र तिनिधित्व करते हैं। परंपरा के भीतर विशिष्ट धार्मिक आचारों से लेकर आगंतुक के स्वागत की पद्धति और उसको संबोधित करने का ढंग, सब कुछ समाहित है।''


इसके साथ ही  इलियट का यह मानना रहा  है कि परंपरा उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होती। यह अर्जित की जाती है। वस्तुतः इलियट के लिए परंपरा एक अविच्छिन्न प्रवाह है जो अतीत के सांस्कृतिक-साहित्यिक दाय के उत्तमांश से वर्तमान को समृद्ध करता है। यह अतीत की जीवंत शक्ति है जिससे वर्तमान का निर्माण होता है और भविष्य का अंकुर फूटता है।


भारत में जाति धर्म की सत्ता के तहत मेधा और परंपरा दोनों उत्तराधिकार हैं।इसी वजह से परंपरा अर्जित करने का कोई सौंदर्यबोध सत्ता वर्ग के पास उसीतरह नहीं है जैसे सामाजिक यथार्थ के प्रति प्रतिबद्धता भी नहीं है और रचनाकर्म आत्म मैथुन में तब्दील है तो विचार भी उत्तराधिकार है और उस उत्तराधिकार को भंग करने के लिए परंपरा का इतिहास बोध नहीं है बल्कि इतिहास संशोधन का केसरिया कार्यक्रम है।


यही फासीवाद है.यही नाथू राम गोडसे का पुनरूत्थान है,फिर फिर गांधी की हत्या है।


जहां व्यक्ति की रचनात्मकता और उसकी प्रतिभा का निषेध है और भाषा बेमतलब प्राणहीन लोक जड़ों से कटे आंखर का अनंत जुलूस और विशुद्धता का व्याकरण है।


भारत में साहित्य संस्कृति का वर्तमान परिदृश्य पिछवाड़े पर ठप्पा लगा लेने की अंधी दौड़ है ताकि लोग पहचान लें कि अमुक लेखक कवि कालजयी है।इसके विपरीत  परंपरा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए इलियट ने इस बात पर बल दिया कि कवियों कामूल्यांकन परंपरा की सापेक्षता में किया जाय। उसके अनुसार कोई भी रचनाकार स्वयं में महत्त्वपूर्णनहीं होता। वह अपने पूर्ववर्ती कवियों की तुलना में ही अपनी महत्ता सिद्ध कर सकता है।


विज्ञान,इतिहास और विवेक के निषेध के इस फासीवादी परिदृश्य में फासीवाद के उद्बव के गहरे अध्येता टीएस इलियट का यह मत खास गौरतलब है कि परंपरा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व इतिहास-बोध है। परंपरा से उनका तात्पर्यप्राचीन रूढ़ियों का मूक अनुमोदन अथवा अंधानुकरण कदापि नहीं है, अपितु परंपरा वस्तुतः प्राचीनकाल के साहित्य तथा धारणाओं का सम्यक् बोध है। वह परंपरा से प्राप्त ज्ञान का अर्जन और उसकेविकास का पक्षधर है। यही परंपरा का गत्यात्मक रूपरूप है।


भारतीय महादेश में परंपरा वैदिकी है और वैदिकी भी नहीं,मिथकीय है जिसमें न विज्ञान और न इतिहास के लिए कोी गुंजाइश बनती है और इसीलिए राष्ट्र के विवेक के विरुद्ध फतवा है और यह सिलसिला गांधी की प्रार्थना सभा में हत्या के साथ शुरु हुआ है।जिसका नतीजा फिर धर्म के नाम यह आवारा निरंकुश बर्बर जनसंहार संस्कृति है।इसके विपरीत इलियच केमुताबिक परंपरा गतिशाील चेतना, चिरगतिशील सर्जनात्क संभावनाओं की समष्टि है। परंपरा जहां हमें नवीन को मूल्यांकन करने का निकष प्रदान करती है, वहीं प्राचीनता के विकास के साथ-साथ मौलिकता का सृजन भी करती है। इस कारण वे सर्जनात्मक विकास के लिए अतीत में विद्यमान श्रेष्ठतत्त्वों का बोध अनिवार्य मानते हैं।


अब उनके इस सवाल पर भी गौर करें,परंपरा ज्ञान के अभाव में हम यह कैसे जान सकेंगे कि मौलिकताक्या है, कहां है ? वस्तुतः अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़िवादिता नहीं, मौलिकता है। वर्तमान कलाका यथार्थ मूल्यांकन तभी संभव है, जब उन्हें विगत कला -रूपों के परिप्रेक्ष्य में परखा जाएगा अन्यथा उसकी मौलिकता और श्रेष्ठता का आकलन नहीं हो सकेगा।


In 1935, T.S. Eliot, famed poet of modernist despair and convert to the Anglican Church, was commissioned to write a play for Kent's annual Canterbury Festival. There were few explicit restrictions on subject matter.

That Eliot chose to dramatize the death of Thomas Becket in his play Murder in the Cathedral was therefore both totally appropriate and somewhat unexpected. Considering that Eliot was such an innovative writer, his decision to tread the familiar ground of Canterbury's death posed an interesting question about what he would bring to the story.

What Eliot created in the play was a mixture of theology and tragedy. The play is set solely around Canterbury in the days after Thomas returned from seven years of exile in France. Though based around historical record, the play eschews psychology and political interpretations in favor of a more serene and spiritual consideration of the sacrifice of martyrdom. Written to be performed in the actual Canterbury Cathedral, the play is sculpted to mirror the experience of a Catholic mass; Eliot even gives the actor playing Thomas a sermon during the Interlude that he would have preached alone at the pulpit.

The play was a great success at the festival, and soon enough opened in London, after which it toured England. Since that time, Murder in the Cathedral has remained Eliot's arguably best known and most produced play. It has spawned several film and theatrical interpretations and remains an important part of the Thomas Becket myth in the Western world.


Murder in the Cathedral

One of the most notorious episodes in medieval English history took place at Canterbury Cathedral on 29 December 1170. During evening vespers, Thomas Becket, the Archbishop of Canterbury and erstwhile friend of King Henry II, was murdered by four of the king's knights, William de Tracy, Reginald Fitzurse, Hugh de Morville and Richard Brito. They are said to have been incited to action by Henry's exasperated words, 'What miserable drones and traitors have I nurtured and promoted in my household who let their lord be treated with such shameful contempt by a low-born clerk!'

The earliest known miniature of the martyrdom of Thomas Becket (London, British Library, MS Cotton Claudius B II, f. 341r)

Becket's martyrdom was the subject of T. S. Eliot's verse drama Murder in the Cathedral, first performed on 15 June 1935 in the Chapter House of Canterbury Cathedral before it moved to a run at the Mercury Theatre in London. Eliot's play drew on the work of an eyewitness to the event, a clerk named Edward Grim who had attempted to defend Becket from William de Tracy's blow. Henry had actually hoped that the appointment of his chancellor, Thomas Becket, as Archbishop of Canterbury, would help him to reassert royal authority over the Church. But the king had not anticipated that Becket would resign as chancellor shortly after he was elevated to the see of Canterbury. The conflict between Henry II and Becket centred on the perennial issue of the balance between royal and papal authority and the rights of the church in England.

Becket's murder sent shockwaves across Western Christendom. The four knights were excommunicated by Pope Alexander III, who ordered them to serve in the Holy Land for 14 years while they sought his forgiveness. Becket himself was canonised in February 1173, less than 3 years after his death, and Canterbury Cathedral became a major site of pilgrimage – Geoffrey Chaucer's Canterbury Tales, from the late 14th century, are testament to the continued popularity of pilgrimage to the shrine of St Thomas. Henry II, meanwhile, undertook a public act of penance on 12 July 1174. Confessing to indirect responsibility for the murder, he entered Canterbury in sackcloth, both barefoot and mute, and made a pilgrimage to the crypt of St Thomas where he was whipped by the monks while he lay prostrate and naked by the tomb.

Our new exhibition, Magna Carta: Law Liberty, Legacy, includes three items that relate to the legacy of Becket's martyrdom. One is a 12th-century English manuscript of the Letters of Thomas Becket, collected by Alan of Tewkesbury, which contains the earliest known manuscript miniature of Becket's martyrdom, shown above. The second is a beautiful enamelled Champlevé reliquary from Limoges, on loan from the British Museum. On one compartment is an image of Becket being struck with a sword; above, he rises from his tomb to ascend to heaven. Reliquaries such as this would have been used to store relics of the saint.

The third item relating to Becket's martyrdom is the seal of his successor, Stephen Langton, Archbishop of Canterbury (1207-28). Langton's seal shows the murder of Thomas Becket on its reverse, as a permanent reminder of the suffering endured by the Church. It should occasion no surprise, therefore, that the first clause of Magna Carta, perhaps inserted at Langton's insistence (and still valid in English law today), confirms the liberties of the church in England.

Magna Carta: Law Liberty, Legacy is on at the British Library until 1 September 2015 (#MagnaCarta)


Katherine Har

Posted by Ancient, Medieval, and Early Modern Manuscripts at 12:01 AM


Mahatma gandhi death video - YouTube

Apr 17, 2012 - Uploaded by CK Entertainment

Mohandas karmchand gandhi death. ... from British and u think its funny "HahahhahaH" Mahatma Gandhi was ...


T S Eliot reads Four Quartets: Burnt Norton part I - YouTube

▶ 2:55

https://www.youtube.com/watch?v=uQsowkvhFns

Dec 28, 2014 - Uploaded by Icim

Burnt Norton I Time present and time past Are both perhaps present in time future And time future contained in ...

T.S. Eliot - Burnt Norton (Reading by C. Ember) - YouTube

▶ 19:35

https://www.youtube.com/watch?v=bq0dH8uOWnI

Mar 5, 2014 - Uploaded by TheConsortiumMember

This video is actually for a project I recently made for my English III Teacher, Mrs. Gibson. Got a lot of flak for not ...

Burnt Norton from Four Quartets by T S Eliot (read by Tom O ...

▶ 9:43

https://www.youtube.com/watch?v=TvXznmKHTnc

Jul 20, 2011 - Uploaded by SpokenVerse

A reading of TS Eliot's poem. Erhebung means elevated, appetency means a craving or desire, eructation ...

Burnt Norton From Four Quartets Poem by T. S. Eliot - Poem ...

www.poemhunter.com › Poems

Burnt Norton From Four Quartets - Poem by T. S. Eliot. Autoplay next video ... This is only the first movement of ...

T. S. Eliot "Burnt Norton" Part One Poem animation - YouTube

▶ 2:48

https://www.youtube.com/watch?v=FUuF1mBZe-w

Jan 30, 2012 - Uploaded by poetryreincarnations

Heres a virtual movie of the great reading part one of his beautiful intriguing poem" Burnt Norton"Burnt Norton ...

T.S. Eliot's "Four Quartets" - I - "Burnt Norton" (Poetry ...

▶ 13:24

https://www.youtube.com/watch?v=3eD5Z2AM5_0

Jul 15, 2012 - Uploaded by Tom Vaughan-Johnston

This is the first of a set of four great poems by Eliot, entitled the 'Four Quartets'. This is number one, Burnt ...

T. S. Eliot - Burnt Norton - Ted Hughes - Video Dailymotion

▶ 10:48

www.dailymotion.com/.../xjl5nn_t-s-eliot-burnt-norto...

Jun 29, 2011

Ted Hughes reads T. S. Eliot's Four Quartets - Burnt Norton For Video+Text go here: https://www.facebook ...

Four Quartets I - Burnt Norton by TS Eliot - YouTube

▶ 10:06

www.youtube.com/watch?v=PWCIY6j2mWg

May 7, 2014 - Uploaded by Vorhandenheit Zuhandenheit

Four Quartets I - Burnt Norton by TS Eliot. Vorhandenheit Zuhandenheit. SubscribeSubscribedUnsubscribe 3 ...

T. S. Eliot - Burnt Norton - Video Dailymotion

▶ 10:50

www.dailymotion.com/video/x2uf1ys

T. S. Eliot reads Burnt Norton - Part 1 of his long poem Four Quartets. more. Publication date : 06/18/2015 ...


TS Eliot's Murder in the Cathedral - Study.com

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study.com/.../ts-eliots-murder-in-the-cathedral-sum...

This lesson will explore T. S. Eliot's Murder in the Cathedral. In addition to looking at the plot of the play, we ...

T. S. Eliot "Murder in the Cathedral" (part 1) - YouTube

▶ 8:53

https://www.youtube.com/watch?v=MxA_3qyN1lk

Oct 22, 2009 - Uploaded by randombells

"Murder in the Cathedral" is a poetic drama by T. S. Eliot that portrays the assassination of Archbishop Thomas ...

Murder in the Cathedral - YouTube

▶ 1:51

https://www.youtube.com/watch?v=xSW1kP_F6zU

Feb 22, 2010 - Uploaded by Keith Chanter

Murder in the Cathedral .... Eurythmy Performance-Last scene from Murder in the Cathedral - The ...

Murder In the Cathedral - YouTube

▶ 1:34:52

https://www.youtube.com/watch?v=T0hCBo_ZPv0

Feb 8, 2014 - Uploaded by Anglican Radio

Radio play "Murder in the Cathedral" by T.S. Eliot Cast: Priest1 - Fr. Richard Sutter, Priest2 - David Catter ...

Plot Summary 68: Murder in the Cathedral - YouTube

▶ 17:02

https://www.youtube.com/watch?v=ArohcYloa3Y

Apr 16, 2014 - Uploaded by Raja Sharma

Plot Summary 68: Murder in the Cathedral. ... Eurythmy Performance-Last scene from Murder in the Cathedral ...

Literature Book Review: Murder in the Cathedral by TS Eliot

▶ 0:51

https://www.youtube.com/watch?v=KfwG1UCZMcs

Jan 19, 2013 - Uploaded by LiteratureBookReview

http://www.LiteratureBookMix.com This is the summary of Murder in the Cathedral by T. S. Eliot.

Eurythmy Performance-Last scene from Murder in the ...

▶ 10:57

https://www.youtube.com/watch?v=Cuw-u95qke0

Jun 21, 2011 - Uploaded by eurythmy2011

The graduating (fourth year) class of 2011 performs Last scene from Murder in the Cathedral - The Temptation ...

T.S. Eliot "Murder in the Cathedral" (part 2) - YouTube

▶ 7:53

https://www.youtube.com/watch?v=nkte0eQHUgI

Oct 22, 2009 - Uploaded by randombells

This is a vinyl rip of the two-disc recording on Caedmon Records [TRS-330; LC R68-3173] PAUL SCOFIELD ...

Murder In The Cathedral Film (Parody) - YouTube

▶ 4:40

https://www.youtube.com/watch?v=yw2DaGVn2No

Jan 14, 2014 - Uploaded by TheMusicman120

A spoof film of the book Murder In The Cathedral written by T. S. Eliot.

Murder In The Cathedral Teaser Trailer - YouTube

▶ 3:01

https://www.youtube.com/watch?v=BX4-o00Uz20

Nov 18, 2013 - Uploaded by timhortonsjunky

Murder In The Cathedral Teaser Trailer .... Eurythmy Performance-Last scene from Murder in the Cathedral ...


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महात्मा गांधी की हत्या

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या

सबसे छोटी बैरेटा पिस्तौल का चित्र

स्थान

तिथि

30 जनवरी 1948

लक्ष्य

हथियार

मृत्यु

1 (गान्धी)

घायल

कोई नहीं

अपराधी

मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में गोली मारकर की गयी थी। वे रोज शाम को प्रार्थना किया करते थे। 30 जनवरी 1948 की शाम को जब वे संध्याकालीन प्रार्थना के लिए जा रहे थे तभी नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने पहले उनके पैर छुए और फिर सामने से उन पर बैरेटा पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं। उस समय गान्धी अपने अनुचरों से घिरे हुए थे।

इस मुकदमे में नाथूराम गोडसे सहित आठ लोगों को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया था। इन आठ लोगों में से तीन आरोपियों शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, वीर सावरकर, में सेदिगम्बर बड़गे को सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया। शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय में अपील करने पर माफ कर दिया गया। वीर सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने जुर्म से मुक्त कर दिया। बाद में सावरकर के निधन पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।

सावरकर पर सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

और अन्त में बचे पाँच अभियुक्तों में से तीन - गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास हुआ तथा दो- नाथूराम गोडसेनारायण आप्टे को फाँसी दे दी गयी।


बिड़ला भवन में शाम पाँच बजे प्रार्थना होती थी लेकिन गान्धीजी सरदार पटेल के साथ मीटिंग में व्‍यस्‍त थे। तभी सवा पाँच बजे उन्‍हें याद आया कि प्रार्थना के लिए देर हो रही है। 30 जनवरी 1948 की शाम जब बापू आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर मंच की तरफ बढ़े कि उनके सामने नाथूराम गोडसे आ गया। उसने हाथ जोड़कर कहा - "नमस्‍ते बापू!" गान्धी के साथ चल रही मनु ने कहा - "भैया! सामने से हट जाओ, बापू को जाने दो। बापू को पहले ही देर हो चुकी है।" लेकिन गोडसे ने मनु को धक्‍का दे दिया और अपने हाथों में छुपा रखी छोटी बैरेटा पिस्टल से गान्धी के सीने पर एक के बाद एक तीन गोलियाँ दाग दीं। दो गोली बापू के शरीर से होती हुई निकल गयीं जबकि एक गोली उनके शरीर में ही फँसी रह गयी। 78 साल के महात्‍मा गान्धी की हत्‍या हो चुकी थी। बिड़ला हाउस में गान्धी के शरीर को ढँककर रखा गया था। लेकिन जब उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गान्धी वहाँ पहुँचे तो उन्‍होंने बापू के शरीर से कपड़ा हटा दिया ताकि दुनिया शान्ति और अहिंसा के पुजारी के साथ हुई हिंसा को देख सके।[1]

न्यायालय में नाथूराम गोडसे द्वारा दिये गये बयान के अनुसार जिस पिस्तौल से गान्धी जी को निशाना बनाया गया वह उसने दिल्ली में एक शरणार्थी से खरीदी थी।

बिड़ला भवन में प्रार्थना सभा के दौरान गान्धी पर 10 दिन पहले भी हमला हुआ था। मदनलाल पाहवानाम के एक पंजाबी शरणार्थी ने गान्धी को निशाना बनाकर बम फेंका था लेकिन उस वक्‍त गान्धी बाल-बाल बच गये। बम सामने की दीवार पर फटा जिससे दीवार टूट गयी। गान्धी ने कभी नहीं सोचा होगा कि कोई उन्‍हें जान से मारना चाहता है। गान्धी ने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन शुरू किया था जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 50 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिये कहा गया था। गान्धी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जायेगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जायेगी। गान्धी की जिद को देखते हुए सरकार ने इस रकम का भुगतान कर दिया लेकिन हिन्दू संगठनों को लगा कि गान्धी जी मुसलमानों को खुश करने के लिये चाल चल रहे हैं। बम ब्‍लास्‍ट की इस घटना को गान्धी के इस फैसले से जोड़कर देखा गया।[3]नाथूराम इससे पहले भी बापू के हत्या की तीन बार (मई 1934 और सितम्बर 1944 में) कोशिश कर चुका था, लेकिन असफल होने पर वह अपने दोस्त नारायण आप्टे के साथ वापस बम्बई चला गया। इन दोनों ने दत्तात्रय परचुरे और गंगाधर दंडवते के साथ मिलकर बैरेटा (Beretta) नामक पिस्टल खरीदी। असलहे के साथ ये दोनों 29 जनवरी 1948 को वापस दिल्ली पहुँचे और दिल्ली स्टेशन के रिटायरिंग रूम नम्बर 6 में ठहरे।[1]

सरदार पटेल से आखिरी मुलाकात


देश को आजाद हुए अभी महज पाँच महीने ही बीते थे कि मीडिया में पण्डित नेहरू और सरदार पटेल के बीच मतभेदों की खबर आने लगी थी। गान्धी ऐसी खबरें सामने आने से बेहद दुखी थे और वे इसका जवाब देना चाहते थे। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि वे स्वयं सरदार पटेल को इस्‍तीफा देने को कह दें ताकि नेहरू ही सरकार का पूरा कामकाज देखें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उन्‍होंने 30 जनवरी 1948 को पटेल को बातचीत के लिये चार बजे शाम को बुलाया और प्रार्थना खत्‍म होने के बाद इस मसले पर बातचीत करने को कहा। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं था। पटेल अपनी बेटी मणिबेन के साथ तय समय पर गांन्धी के पास पहुँच गये थे। पटेल के साथ मीटिंग के बाद प्रार्थना के लिये जाते समय गान्धी गोडसे की गोलियों का शिकार हो गये।[3

सुरक्षा


गान्धी कहा करते थे कि उनकी जिन्दगी ईश्‍वर के हाथ में है और यदि उन्‍हें मरना हुआ तो कोई बचा नहीं सकता है। उन्‍होंने एक बार कहा था-"जो आज़ादी के बजाय सुरक्षा चाहते हैं उन्‍हें जीने का कोई हक नहीं है।" हालांकि बिड़ला भवन के गेट पर एक पहरेदार जरूर रहता था। तत्‍कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने एहतियात के तौर पर बिड़ला हाउस पर एक हेड कांस्‍टेबल और चार कांस्‍टेबलों की तैनाती के आदेश दिये थे। गान्धी की प्रार्थना के वक्‍त बिड़ला भवन में सादे कपड़ों में पुलिस तैनात रहती थी जो हर संदिग्‍ध व्यक्ति पर नजर रखती थी। हालांकि पुलिस ने सोचा कि एहतियात के तौर पर यदि प्रार्थना सभा में हिस्‍सा लेने के लिए आने वाले लोगों की तलाशी लेकर उन्‍हें बिड़ला भवन के परिसर में घुसने की इजाजत दी जाये तो बेहतर रहेगा। लेकिन गान्धी जी को पुलिस का यह आइडिया पसन्द नहीं आया। पुलिस के डीआईजी लेवल के एक अफसर ने भी गान्धी से इस बारे में बात की और कहा कि उनकी जान को खतरा हो सकता है लेकिन गान्धी नहीं माने।

बापू की हत्या के बाद नन्दलाल मेहता द्वारा दर्ज़ एफआईआर के मुताबिक़ उनके मुख से निकला अन्तिम शब्द 'हे राम' था। लेकिन स्वतन्त्रता सेनानी और गान्धी के निजी सचिव के तौर पर काम कर चुके वी० कल्याणम् का दावा है कि यह बात सच नहीं है।[3] उस घटना के वक़्त गान्धी के ठीक पीछे खड़े कल्‍याणम् ने कहा कि गोली लगने के बाद गान्धी के मुँह से एक भी शब्‍द निकलने का सवाल ही नहीं था। हालांकि गान्धी अक्‍सर कहा जरूर करते थे कि जब वह मरेंगे तो उनके होठों पर राम का नाम ही होगा। यदि वह बीमार होते या बिस्‍तर पर पड़े होते तो उनके मुँह से जरूर 'राम' निकलता। गान्धी की हत्‍या की जाँच के लिये गठित आयोग ने उस दिन राष्‍ट्रपिता के सबसे करीब रहे लोगों से पूछताछ करने की जहमत भी नहीं उठायी। फिर भी यह दुनिया भर में मशहूर हो गया कि गान्धी के मुँह से निकले आखिरी शब्‍द 'हे राम' थे। लेकिन इसे कभी साबित नहीं किया जा सका।[3] इस बात की भी कोई जानकारी नहीं मिलती कि गोली लगने के बावजूद उन्हें अस्पताल ले जाने के बजाय बिरला हाउस में ही वापस क्यों ले जाया गया?[1]

यह भी माना जाता है कि महात्मा गान्धी के एक पारिवारिक मित्र ने उनकी अस्थियाँ लगभग 62 साल तक गोपनीय जगह पर रखीं जिसे 30 जनवरी 2010 को डरबन के समुद्र में प्रवाहित किया गया।[1]


अधूरी रह गयी आइंस्‍टीन की ख्‍वाहिश


दुनिया को परमाणु क्षमता से रू-ब-रू कराने के बाद इसकी विध्वंसक शक्ति के दुरुपयोग की आशंका से परेशान अल्बर्ट आइंस्टीन अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से मिलने को बेताब थे। परन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। अल्बानो मुलर के संकलन के अनुसार 1931 में बापू को लिखे एक पत्र में आइंस्टीन ने उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। आइंस्टीन ने पत्र में लिखा था-"आपने अपने काम से यह साबित कर दिया है कि ऐसे लोगों के साथ भी अहिंसा के जरिये जीत हासिल की जा सकती है जो हिंसा के मार्ग को खारिज नहीं करते। मैं उम्मीद करता हूँ कि आपका उदाहरण देश की सीमाओं में बँधा नहीं रहेगा बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मैं आपसे मुलाकात कर पाऊँगा।"[3]

आइंस्टीन ने बापू के बारे में लिखा है कि महात्मा गान्धी की उपलब्धियाँ राजनीतिक इतिहास में अद्भुत हैं। उन्होंने देश को दासता से मुक्त कराने के लिये संघर्ष का ऐसा नया मार्ग चुना जो मानवीय और अनोखा है। यह एक ऐसा मार्ग है जो पूरी दुनिया के सभ्य समाज को मानवता के बारे में सोचने को मजबूर करता है। उन्होंने लिखा कि हमें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिये कि तकदीर ने हमें अपने समय में एक ऐसा व्यक्ति तोहफे में दिया जो आने वाली पीढ़ियों के लिये पथ प्रदर्शक बनेगा।[3]


Murder in the Cathedral Summary

Eliot wrote his play for an audience expected to know the historical story of Thomas Becket and King Henry II. For that reason, a brief review of that story, contained in the "About Thomas Becket and King Henry II" section of the Note, will greatly aid comprehension of this summary.

Murder in the Cathedral opens in the Archbishop's Hall on December 2nd, 1170. A Chorus, comprising women of Canterbury, has gathered at the cathedral with some premonition of a terrible event to come. In a long speech, they reflect on how their lives are defined by suffering and reflect on their archbishop, Thomas Becket. He has been in exile from England for seven years, after a terrible clash with King Henry II. The women worry that his return could make their lives more difficult by angering the king.

Three priests enter the hall and also lament Thomas's absence and debate the ramifications of his potential return. A Heraldarrives, bringing news that Thomas has indeed returned to England and will soon arrive in Canterbury. The Herald quashes their hopes that Thomas's return indicates reconciliation with Henry and confesses his own concern that violence is soon to follow the archbishop's return.

Once the heralds leave, the priests reflect on Thomas's time as Chancellor of England, when he served as secular administrator under Henry. The Chorus, listening to the priests discuss the matter, confess their disappointment at his return, which they believe will bring them more suffering. They admit their lives are hard but predictable, and they would rather "perish in quiet" than live through the turmoil of new political and spiritual upheaval (180).

The Second Priest insults them and insists they fake happiness to welcome Thomas. However, Thomas enters during this exchange and stresses that the priest is mistaken to chide them, since they have some sense of the difficulty that awaits them. He stresses that all should submit to patience, since none can truly know God's plans or intentions.

A series of tempters enters, one by one, each attempting to compromise Thomas's integrity. The First Tempter reminds Thomas of the libertine ways of his youth and tempts him to relinquish his responsibilities in favor of a more carefree life. The Second Tempter suggests Thomas reclaim the title of Chancellor, since he could do more good for the poor through a powerful political post than he could as a religious figure. The Third Tempter posits a progressive form of government, in which a ruler and barons work together as a "coalition." In effect, he offers Thomas a chance to rule and break new ground in government. Thomas easily rejects all three tempters; after all, they are forms of temptation that he has already rejected in his life.

A Fourth Tempter enters and suggests the idea of martyrdom, which he notes would give Thomas the greatest dominion over his enemies. He would be remembered throughout the ages if he allowed himself to die for the church, while his enemies would be judged and then forgotten by time. Thomas is shaken by this temptation, since it is something he has often entertained in his private moments. He recognizes that to die for pride, which is "the wrong reason," would compromise the integrity of a martyrdom, so he must overcome that impulse if his death is to have meaning.

While he considers the dilemma, all of the characters thus far mentioned (except the Herald) give a long address considering the uncertainty of life. When they finish, Thomas announces that his "way [is] clear" – he will not seek martyrdom from fame, but instead will submit to God's will. He has accepted his fate. Part I ends here.

Between Part I and Part II, Thomas Becket preaches a sermon in an Interlude, in which he restates the lesson he learned at the end of Part I. The Interlude is set in the cathedral on Christmas morning, 1170. In the sermon, Thomas considers the mystery of Christianity, which both mourns and celebrates the fact of Christ's death – Christians mourn the world that made it necessary, while celebrating the sacrifice that enables others to transcend that world. He suggests that the appreciation of martyrs is a smaller version of that mystery, and defines "the true martyr [as] he who has become the instrument of God, who has lost his will in the will of God, not lost it but found it, for he has found freedom in his submission to God" (199). He closes his sermon by admitting he might not preach to this congregation again.

The first scene of Part II is set in the Archbishop's Hall on December 29th, 1170. The terrified Chorus begins with an ominous address, after which four boorish knights enter. They insist they are there on Henry's business from France and demand an audience with Thomas despite attempts by the priests to distract them.

Thomas arrives and is immediately insulted and chided by the knights for what they perceive as disloyalty toward Henry and misuse of the archbishop's position to incite opposition to England. Thomas denies their interpretation of events but also reveals a serenity and readiness to die when necessary. The knights attempt to attack him but are interrupted by the priests. A more specific political argument follows, during which Thomas continues to deny their claims and insults them as overly concerned with petty, political matters. Angry, the knights threaten the priests with death if they let Becket escape, and then the knights leave.

The Chorus gives a brutal, evocative speech, and Thomas comforts them. He acknowledges that by bearing necessary witness to the ritual of his death, their lives will grow more difficult. But he maintains that they can find comfort in recollection on having been here this fateful day.

As the knights approach again, the priests beg Thomas to flee, but he refuses. The knights force him from the hall and into the cathedral, against his protestations. As the scene changes, the women of the Chorus steel themselves for the death soon to follow.

The priests bar the doors, which the knights then begin to besiege. The priests' arguments do not convince Thomas, who accuses them of thinking too much of cause-and-effect, rather than accepting God's plan. Finally, the priests open the door and the knights drunkenly enter. They demand Thomas lift all the excommunications he has put upon English rulers. He refuses, and they murder him. While Thomas is being murdered, the Chorus gives a long, desperate address lamenting the life they will now have to lead in the shadow of Thomas's martyrdom.

After the murder is done, the four knights address the audience directly. They wish to explain themselves and defend their actions. The First Knight admits he has no facility for argument, and so acts as an MC to introduce the other knights. The Second Knight says he understands how the audience and history will hate them, but begs the audience to realize the knights were "disinterested" in the murder; they were merely following orders that were necessary for the good of England (216). The Third Knight presents a long, complex argument suggesting that Becket was guilty of betraying the English people and hence was killed justly. TheFourth Knight suggests that Becket willed his own death by pursing martyrdom for the sake of pride, and hence is guilty of suicide, making the knights not guilty of murder.

Once the knights leave, the priests lament Thomas's death and worry about what the world will become. The Chorus gives the final speech, revealing that they have accepted their duty as Christians. They acknowledge that living up to the sacrifice Thomas made is difficult, but that they will be spiritually richer for undertaking this challenge, and they beg mercy and forgiveness from Thomas and God.


Murder in the Cathedral

From Wikipedia, the free encyclopedia

Thirteenth-century manuscript illumination depicting Becket's assassination

Murder in the Cathedral is a verse drama by T. S. Eliot that portrays the assassination of Archbishop Thomas Becket in Canterbury Cathedral in 1170, first performed in 1935. Eliot drew heavily on the writing of Edward Grim, a clerk who was an eyewitness to the event[citation needed].

The play, dealing with an individual's opposition to authority, was written at the time of rising fascism in Central Europe.

Some material that the producer asked Eliot to remove or replace during the writing was transformed into the poem "Burnt Norton".[1]

Contents

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Plot[edit]

The action occurs between 2 and 29 December 1170, chronicling the days leading up to the martyrdom of Thomas Becket following his absence of seven years in France. Becket's internal struggle is the main focus of the play.

The book is divided into two parts. Part one takes place in the Archbishop Thomas Becket's hall on 2 December 1170. The play begins with a Chorus singing, foreshadowing the coming violence. The Chorus is a key part of the drama, with its voice changing and developing during the play, offering comments about the action and providing a link between the audience and the characters and action, as in Greek drama. Three priests are present, and they reflect on the absence of Becket and the rise of temporal power. A herald announces Becket's arrival. Becket is immediately reflective about his coming martyrdom, which he embraces, and which is understood to be a sign of his own selfishness—his fatal weakness. The tempters arrive, three of whom parallel the Temptations of Christ.

The first tempter offers the prospect of physical safety.

Take a friend's advice. Leave well alone,

Or your goose may be cooked and eaten to the bone.

The second offers power, riches and fame in serving the King.

To set down the great, protect the poor,

Beneath the throne of God can man do more?

The third tempter suggests a coalition with the barons and a chance to resist the King.

For us, Church favour would be an advantage,

Blessing of Pope powerful protection

In the fight for liberty. You, my Lord,

In being with us, would fight a good stroke

Finally, a fourth tempter urges him to seek the glory of martyrdom.

You hold the keys of heaven and hell.

Power to bind and loose : bind, Thomas, bind,

King and bishop under your heel.

King, emperor, bishop, baron, king:

Becket responds to all of the tempters and specifically addresses the immoral suggestions of the fourth tempter at the end of the first act:

Now is my way clear, now is the meaning plain:

Temptation shall not come in this kind again.

The last temptation is the greatest treason:

To do the right deed for the wrong reason.

The Interlude of the play is a sermon given by Becket on Christmas morning 1170. It is about the strange contradiction that Christmas is a day both of mourning and rejoicing, which Christians also do for martyrs. He announces at the end of his sermon, "it is possible that in a short time you may have yet another martyr". We see in the sermon something of Becket's ultimate peace of mind, as he elects not to seek sainthood, but to accept his death as inevitable and part of a better whole.

Part II of the play takes place in the Archbishop's Hall and in the Cathedral, 29 December 1170. Four knights arrive with "Urgent business" from the king. These knights had heard the king speak of his frustration with Becket, and had interpreted this as an order to kill Becket. They accuse him of betrayal, and he claims to be loyal. He tells them to accuse him in public, and they make to attack him, but priests intervene. The priests insist that he leave and protect himself, but he refuses. The knights leave and Becket again says he is ready to die. The chorus sings that they knew this conflict was coming, that it had long been in the fabric of their lives, both temporal and spiritual. The chorus again reflects on the coming devastation. Thomas is taken to the Cathedral, where the knights break in and kill him. The chorus laments: "Clean the air! Clean the sky!", and "The land is foul, the water is foul, our beasts and ourselves defiled with blood." At the close of the play, the knights step up, address the audience, and defend their actions. The murder was all right and for the best: it was in the right spirit, sober, and justified so that the church's power would not undermine stability and state power.

Performances[edit]

Movie poster for Murder in the Cathedral

First performance[edit]

George Bell, the Bishop of Chichester, was instrumental in getting Eliot to work as writer with producer E. Martin Browne in producing the pageant play The Rock (1934). Bell then asked Eliot to write another play for the Canterbury Festival in 1935. Eliot agreed to do so if Browne once again produced (he did). The first performance was given on 15 June 1935 in the Chapter House of Canterbury Cathedral. Robert Speaight played the part of Becket. The production then moved to the Mercury Theatre, Notting Hill Gatein London and ran there for several months.

Other notable performances[edit]

Robert Donat played Becket at the Old Vic in 1953 in a production directed by Robert Helpmann.[2]

Jonathan Frid played Becket off-Broadway in a production by Robert Teuscher for two weeks during March 1971 at Central Theatre, Park Ave., NYC, NY.[3]

The RSC staged revivals in 1972 at the Aldwych Theatre, with Richard Pasco as Becket,[4] and at The Swan in 1993[5] transferring to The Pit in 1994[6] with Michael Feast.

Little Spaniel Theatre staged a production in St Bartholomew-the-Great church in Smithfield London in May and June 2014.[7]

Television and film[edit]

The play, starring Robert Speaight, was broadcast live on British television by the BBC in 1936 in its first few months of broadcasting TV.[8]

The play was later made into a black and white film with the same title. It was directed by the Austrian director George Hoellering with music by the Hungarian composer Laszlo Lajtha and won the Grand Prix at the Venice Film Festival in 1951. It was released in the UK in 1952.[9][10] In the film the fourth tempter is not seen. His voice was that of Eliot himself.

Opera[edit]

The play is the basis for the opera Assassinio nella cattedrale by the Italian composer Ildebrando Pizzetti, first performed atLa Scala, Milan, in 1958.

Reception and criticism[edit]

Eliot's own criticism[edit]

In 1951, in the first Theodore Spencer Memorial Lecture at Harvard University, Eliot criticised his own plays in the second half of the lecture, explicitly the plays Murder in the Cathedral, The Family Reunion, and The Cocktail Party. The lecture was published as Poetry and Drama and later included in Eliot's 1957 collection On Poetry and Poets.

Parodies[edit]

In Series 3, episode 2 (1972), Monty Python's Flying Circus used the play as the basis for the weight loss product informercial, Trim-Jeans Theater:

Priest: I am here. No traitor to the King.

First Knight: Absolve all those you have excommunicated.

Second Knight: Resign those powers you have arrogated.

Third Knight: Renew the obedience you have violated.

Fourth Knight: Lose inches off your hips, thighs, buttocks and abdomen.


In 1982, the play was lampooned by the Canadian/US TV comedy show SCTV. In a typically surreal SCTV sketch, the play is presented by NASA and "Buzz Aldrin's Mercury III Players," with space-suited astronauts as the actors, and proceedings narrated by Walter Cronkite as if they were a NASA moon mission. "[Spacesuit transmission from astronaut] Mission control ... I think we've found a body." The mission is aborted when the doors of the cathedral will not open, and not even Becket'sEVA can open them. [1]

Further reading[edit]

  • Browne, E. Martin. The Making of T.S. Eliot's Plays. London: Cambridge University Press, 1969.

  • Browne, E. Martin. "T.S. Eliot in the Theatre: The Director's Memories", T. S. Eliot – The Man and His Work, Tate, Allen(ed), Delta, New York, 1966

  • Hoellering, George. "Filming Murder in the Cathedral." T.S. Eliot: A Symposium for His Seventieth Birthday. Ed. Neville Braybrooke. New York: Books for Libraries, 1968. pp. 81–84

  • Russell Kirk "Eliot and His Age: T. S. Eliot Moral Imagination in the Twentieth Century". Wilmington: ISI Books, 2nd Edition, 2008.

  • Robert Speaight. "With Becket in Murder in the Cathedral", T. S. Eliot – The Man and His Work, Tate, Allen (ed), Delta, New York, 1966

  • Roy, Pinaki. "Murder in the Cathedral: Revisiting the History of Becket's Assassination". T.S. Eliot's 'Murder in the Cathedral': A Critical Spectrum. Eds. Saha, N., and S. Ghosh (Sanyal). Kolkata: Books Way, 2014 (ISBN 978-93-81672-74-7). Pp. 45-52.

Notes[edit]






Early poems


Later poems


Plays


Prose


Adaptations


Publishing


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