जनता को मूकदर्शक वोट बैंक में तब्दील करने वाला तंत्र : संसदीय जनतंत्र!!
पूँजीवादी "जनतंत्र" और संसदीय"चुनावतंत्र"??
[हर समस्या अपने समाधान के साथ उत्पन्न होती है – कार्ल मार्क्स]
राजकुमार
हमारे देश के ज़्यादातर लोग गर्व के साथ ख़ुद को ग़ैर-राजनीतिक कहते हैं, और यह समझदार लोग राजनीति को सही नहीं मानते. कुछ लोग इससे थोड़े अलग विचार रखने वाले भी हैं, जो राजनीति को गलत तो नहीं मानते लेकिन इनकी समस्या दूसरी है कि यह लोग राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को जनता के मसीहा के रूप में देखते हैं. लेकिन "आम लोगों" के "आम जीवन" पर "खास लोगों" द्वारा नियन्त्रित राजनीति का क्या प्रभाव पड़ता है? इस सवाल पर देश के हर नागरिक को थोड़ा ज़रूर सोचना चाहिए.
आज-कल पूरे देश में सभी चुनावी पार्टियों के बीच चुनावी जोड़-तोड़ का दौर चल रहा है. सभी पार्टियाँ जनता को लुभाने के लिये अपने-अपने प्रतिनिधियों का प्रदर्शन कर रही हैं. ऐसे चहरों को जनता के सामने लाया जा रहा है जो सबसे ज्यादा वोटों का रास्ता साफ कर दें. करोंड़ों रुपया खर्च करके टीवी चैनलों पर बहसों और विज्ञापनों के ज़रिये काँग्रेस, भाजपा औरसंसदीय वामपंथियों सहित अनेक क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की चुनावी पार्टियाँ जनता को रिझाने में लगी हैं. हर पार्टी यह समझाने की कोशिश कर रही है कि जनता के दुखों से मुक्ति दिलानें का वही एकमात्र विकल्प हैं!
जो सत्ता में है वे कुपोषण समाप्त करने के लिये सस्ते दामों में गेहूँ-चावल या स्कूलों में मिड-डे-खाना बाँटने जैसी "कल्याणकारी" (पूँजीवाद के कल्याण के लिये!!) योजनाएँ लागू कर रहे है (जबकि पिछले साल के आँकड़ों को देखें तो देश में औसतन हर मिनट पाँच साल से कम उम्र के तीन बच्चों की मौत हो जाती है, जो स्कूल में दाखिल भी नहीं हो पाते, बीबीसी, 7 मई, 2013), लैपटाप या टीवी बाँट रहे हैं, ग्रामीण रोजगार के नाम पर बेरोज़गारों को सिक्के दे रहे हैं (जिससे कि भूखों मरने की कगार पर खड़े लोगों को शान्त रखा जा सके), और भी कई प्रकार के प्रदर्शन हो रहे हैं जिन्हें रोज-व-रोज टीवी अख़बारों में देखा जा सकता है. दूसरी ओर जो सत्ता में नहीं है वह भी चुनावी प्रचार में ख़ैरात बाँटने की कोई "नई-कल्याणकारी" योजना लागू करने का दिलासा जनता को दे रहे हैं. भुखमरी की कगार पर जीने वाले समाज के एक बड़े एक हिस्से को यह योजनायें थोड़ी रहत पहुँचाकर उन्हें शान्त रखती हैं, लेकिन उनसे अधिक फायदा बीच के दलालों और सरकारी अफ़सरों को होता हैं, जो पूँजीवादी व्यवस्था का एक मज़बूत खंभा हैं. इस बीच कुछ पार्टियाँ ''आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध'' या ''मन्दिर-मस्जिद के निर्माण'' के नाम पर भी जनता से वोट माँग रही हैं, तो कुछ ''जातीय मुक्ति के लिये'' या ''तेज आर्थिक विकास दर'' जैसी माँगों को पूरा करने के लिये ख़ुद को जनता के सामने मसीहा के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं.
इस तरह पूरे चुनावी प्रचार में जनता की समस्याओं को लेकर पार्टियों के बीच कोई मुकाबला नहीं होता, बल्कि इस बात पर होता है कि शोषण-उत्पीणन की शिकार देश की जनता को कौन ज़्यादा सस्ती खैरात बाँटकर पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा कर सकता है.
भारत के पढ़े-लिखे मध्यवर्ग में इस चुनावी प्रचार का असर स्पष्ट दिख रहा है. आज कोई मोदी, कोई राहुल गाँधी, तो कोई केजरीवाल को देश के होनहार नेता के रूप में देख रहा है. देश का खाया-अघाया यह तबका किसी का समर्थन इसलिये नहीं करता कि वह जनवाद का हिमायती है या उसे व्यवस्था की कोई सटीक जानकारी है, बल्कि यह वर्ग नेताओं में "एक नायक की छवि देख कर उनका समर्थन करता है". इस बीच पूँजीवादी पैसों से संचालित होने वाले ज़्यादातर टीवी चैनल, अख़बार और पत्र-पत्रिकाएँ लोगों के सामने उनके मसीहाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने में लगे हैं और लोगों को आराधना करने वाली एक भीड़ में तब्दील करने के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं.
पूँजीवाद जनतन्त्र का पूरा ढाँचा ही इस भ्रामक प्रचार पर टिका है कि एक पार्टी ठीक नहीं है तो दूसरी पार्टी की सरकार बनाने से जनता का भला हो जायेगा. इससे यह भ्रम भी पैदा किया जाता है कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की मेहनत से पैदा होने वाली सम्पत्ति का कुछ लोगों के हाथों में संचित होते जाना अपने आप में कोई गलत बात नहीं है, जबकि कमरतोड़ मेहनत करने वाले मज़दूर चाहे भूखों मरने की कगार पर ही क्यों न जी रहे हों. इसके साथ यह प्रचार भी किया जाता है कि सिर्फ भ्रष्टाचारी नेता गलत हैं, और निजी सम्पत्ति की रक्षा के लिये काम कर रही पूरी पूँजीवादी राज्य सत्ता जो सम्पत्तिधारियों, इजारेदार देशी-विदेशी पूँजीपतियो, ट्रस्टों-बैंकों के मुनाफ़े को सुचारू बनाने के लिये काम कर रही हैं उसमें कुछ भी गलत नहीं है (यह दार्शनिक, जो पूँजीपतियों के दलाल की भूमिका अदा करते हैं, पूरे समाज में यह आम धारणा निर्मित करते हैं कि यदि कुछ लोग ग़रीबी-बेरोज़गारी-बदहाली में जीते हुये मेहनत करें और उनकी मेहनत से पैदा होने वाला आराम का सब सामान कुछ ऐसे लोग इस्तेमाल करते रहें जो कोई चीज़ पैदा करने के लिये खुद काम नहीं करते ते इसमे गलत क्या है??).
यह है देश में चुनावी प्रचार की एक हल्की सी झलक है. अब, यदि पूरी दुनिया के पूँजीवादी देशों की स्थिति पर नज़र डालें तो बेरोज़गारी आसमान छू रही है, जगह-जगह लोगों का गुस्सा सड़कों पर आ रहा है और जनता अपनी मेहनत की खुली लूट पर पलने वाले कुछ मुठ्ठीभर लोगों की अय्याशी का विरोध कर रही है. इस बीच भारत का पूँजीवाद जो पहले से ही रोजगार पैदा करने में असमर्थ है, जहाँ जनता को भुखमरी की कगार पर धकेल कर कुछ लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं ऐसी स्थिति में कोई भी संसदीय राजनीतिक पार्टी जनता की किसी ठोस माँग को उठाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहती. क्योंकि उन्हें डर है कि यदि एक बार जनता अपनी वास्तविक माँगों के लिये सड़कों पर आयेगी तो उसे भ्रम में रखना शासक वर्ग के लिये मुश्किल हो सकता है.
पार्टियों द्वारा प्रस्तुत किये जा रहे जनता की मुक्ति के नारों का विश्लेषण करने से पहले हम समाज के अलग-अलग लोगों की परिस्थितियों पर एक नज़र डाल लेते हैं. देश के एक छोर पर बड़ी तादात में ग़रीब मज़दूर, किसान और बेरोज़गार नौजवान हैं. इस हिस्से के पास ज़िन्दा रहने के लिये काम करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. दूसरे छोर पर एक छोटा सा सम्पत्तिधारी वर्ग है, जो देश की सारी प्राकृतिक सम्पदा, उत्पादन मशीनरी और बैंकों का मालिक है. यह सम्पत्तिधारी वर्ग ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिये सरकार की मदद से अलग-अलग उद्योग-धन्धों में अपनी पूँजी का निवेश करता आ रहा है. समाज का जिस सबसे बड़े हिस्से के पास अपनी निजी पूँजी नहीं है उनकी मज़बूरी है कि वे सभी सम्पत्तिधारियों के मुनाफ़े के लिये काम करें. पूँजी निवेश करने वाला हर पूँजीपति ऐसे उद्योग धन्धों में निवेश करता है जहाँ से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सके. ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिये सस्ते मज़दूर मिलना भी ज़रूरी है. सस्ते मज़दूर वहीं मिल सकते हैं जहाँ मज़दूरों से काम करवाने के लिये कम से कम कानूनी बन्दिशें लागू होती हों.
अब यदि काँग्रेस या भाजपा की नीतियों को ध्यान से देखें तो इन दोनों का मानना हैं कि "विकास" के लिये आवश्यक है कि निवेशकों के लिये "अनुकूल महौल" बनाना जाये. इसके चलते काँग्रेस के शासन काल में 1990 में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियाँ लागू की गई थी जिन्हें भाजपा ने अपने कार्यकाल में और मज़बूती प्रदान की. ऐसे में "अनुकूल महौल" की जो बात की जाती है उसका अर्थ है पूँजी निवेश को "प्रोत्साहित" करने के लिये श्रम कानूनों में कटौती, उद्योगपतियों को मज़दूरों की भर्ती और उन्हें निकालने की छूट, कहीं भी कारखाने लगाने और बन्द करने की छूट, वेतन निर्धारित करने के लिये बने कानूनों को ढीला बनाना, आदि. इस "अनुकूल महौल" से पूँजीपतियों का मुनाफ़ा और बढ़ जाता है और दूसरे छोर पर प्रतिक्रिया के रूप में काम करने वाले मजदूरों की बर्बादी भी बढ़ जाती है. और यह सारी नीतियाँ "जनता की भलाई" के लिये लागू की जाती हैं!! इसपर व्यंग करते हुए मार्क्स ने लिखा है, "मुक्त व्यापार : मज़दूर वर्ग की भलाई के लिये. संरक्षण शुल्क : मज़दूर वर्ग की भलाई के लिये. जेल सुधार : मज़दूर वर्ग की भलाई के लिये. . . . बस यही एक हर्फ़ है जिसे वह संजीदगी से मानता है. उसका लुब्बे-लुबाब इस मुहावरे में है बुर्जुआ – बुर्जुआ है मज़दूर वर्ग की भलाई के लिये!"
चूँकी पूँजीवादी व्यवस्था विकास के साथ-साथ स्वयं अपनी कब्र खोदती जाती है, तो "अनुकूल महौल" से मिली छूट की अन्तिम परिणति यह होती है कि मुनाफ़े के लिये होने वाले उत्पादन में सारे पूँजीपति उस क्षेत्र में निवेश के लिये दौड़ पड़ते हैं, जहाँ सबसे अधिक मुनाफ़ा कमा सकें. ज़्यादा मुनाफ़े की इस होड़ से पैदा होने वाली अराजकता से असंतुलित उत्पादन की पुनरावृत्ति और तेज हो जाती है और अर्थव्यवस्था में लगातार मन्दी की स्थिति बनी रहती है. अति-उत्पादन और फिर मन्दी के हर चक्र में बाद छोटे-छोटे अनेक उत्पादक या तो तबाह हो जाते हैं या बड़े पूँजीपतियों के नियन्त्रण में चले जाते हैं. इस तरह देशी-विदेशी एकाधिकारी पूँजीपतियों के पास और अधिक पूँजी केन्द्रीकृत हो जाती है. इस पूँजीवादी सत्यानाश का सबसे अधिक प्रभाव समाज के मेहनतकश वर्ग पर पड़ता है, क्योंकि अनेक मज़दूरों को काम से निकाल कर बेरोजगारी में सड़कों पर धकेल दिया जाता है. सड़कों पर धकेले गये यह अतिरिक्त मज़दूरों अपनी आजीविका के लिये किसी भी शर्त पर काम करने के लिये तैयार होते हैं. समाज की सारी सम्पदा का उत्पादन करने वाले मज़दूर खुद कंगाली में जीने के लिये मज़बूर हो जाते है और इनकी बर्बादी और काम करने की मज़बूरी से पूँजीपतियों और ठेकेदारों के बारे न्यारे होते हैं. मुनाफ़े की इस होड़ में प्रकृति के असंतुलित दोहन से होने वाली बर्बादी भी अपने आप में अलग से विस्तृत विश्लेशण का विषय है. लेकिन यह एक छोटी सी झलक है कि समाज के मेहनत करने वाले तबके की निजी ज़िन्दगी किस प्रकार पूँजीतन्त्र और राजनीति से प्रभावित होती है और कैसे एक की (मज़दूरों और मेहनत करने वालों की) बर्बादी पर दूसरा (पूँजीपति) फलता-फूलता है.
उपर जिस व्यवस्था की एक झलक हमने देखी है उस पूरे पूँजीवादी तन्त्र को मैनेज करने के लिये सरकारें चुनी जाती हैं. सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों को लागू करने तथा सुचारू रूप से संचालित करने के लिये राज्य का पूरा तंत्र अस्तित्व में आता है.
अब भारत में पूँजीवाद की बात करें तो 1990 में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू करने के बाद जो 9-10 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर का ढोल पीटा जा रहा था वह भी अब फट चुका है और आँकड़ों में होने वाले विकास का ग्राफ भी खिसक कर नीचे आ रहा है. सभी पूँजीवादी अर्थशास्त्री-राजनीतिज्ञ इससे उबरने की जोड़-तोड़ में लगे हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों को आश्वासन देते हुये एक बयान में कहा, "आज जब (अर्थव्यवस्था की) स्थिति खराब है, तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सक्रिय हो" (द हिन्दू, 19 जुलाई 2013). इस सक्रियता का अर्थ है निवेशकों के लिये और अधिक अनुकूल "माहौल बनाया" जाये जैसा कि अभी हाल ही में विदेशी निवेश के लिये दोश को खुला करने की घोषणा की गई है.
समय-समय पर अर्थव्यवस्था को बचाने के लिये सरकार की इस सक्रियता का यह परिणाम होता है कि जनता की मेहनत से खड़े किये गये बचे-कुचे सामाजिक उद्यमों को भी निजी पूँजीपतियों को सौंप दिया जाता है. जबकि दूसरी तरफ़ बेरोज़ग़ारों की संख्या लगातार बढ़ रही है और करोड़ों नौजवानों के सामने भविष्य का कोई विकल्प नहीं है, देश के लाखों बच्चे हर साल कुपोषण या चिकित्सा के अभाव में मर जाते हैं, खुले ठेकाकरण के चलते करोड़ों मज़दूर अमानवीय स्थितियों में 12 से 16 घण्टे काम करने के लिये मजबूर हैं और हज़ारों किसान हर साल ग़रीबी के कारण आत्महत्या कर रहे हैं, और आलम यह है कि देश की 77 प्रतिशत (84 करोड़) आबादी प्रति दिन 20 रुपये से कम पर गुज़ारा कर रही है. दूसरी ओर "विकासशील भारत" ग़रीबों और अमीरों के बीच असमानता के मामले में पूरी दुनिया को पीछे छोड़ रहा है. जनता की इस बदहाली को सुधारने के लिये ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को रोजगार मिले और ऐसे उद्योग धन्धे लगाएये जाएँ जिनमें समाज की आवश्यकता के लिये उत्पादन हो. लेकिन वर्तमान मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था में यह कभी सम्भव नहीं हैं.
आज जिस तरह पूरे देश में जनता को काँग्रेस या भाजपा के समर्थकों में ध्रुवीकृत किया जा रहा है ऐसे में यह याद दिलाना अवश्यक है कि दोनों पार्टियाँ पूरी शिद्दत के साथ पूँजीवादी व्यवस्था को संचालित करती आ रही हैं, और इसके लिये दोनो ही समान आर्थिक नीतियाँ लागू करने के साथ ही आम-जनता के विरिद्ध खुले फासीवादी तरीके अपने में भी एक समान हैं. आम जनता के बीच सांप्रदायिक माहौल बनाकर उन्हें आपस में लड़ानें के मामले में भी दोनो के इतिहाश में कोई खास भेद नहीं है. जहाँ आपातकाल, 1984 के दंगे, काँग्रेस की देन रहे हैं वही राम-मंदिर ध्वंस और गुजरात दंगे भाजपा के.
धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा की नीतियों पर ध्यान दें तो यह जनता की समस्याओं के मूल कारण को छोड़कर कभी धर्म के नाम पर तो कभी राम मंदिर के नाम पर वोटों के लिये आम जनता को एक दूसरे के खिलाफ़ ध्रुवीकृत करती है, और पूँजीवादी अराजकता के कारण पैदा होने वाली जनता की बर्बादी के असली कारण पर पर्दा डालने की कोशिश करती हैं. आजकल भाजपा के नेता मोदी को जिस तरह देश के भावी मसीहा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और जिस तरह के बयान आ रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि हिन्दुयों की सभी समस्याओं का मुख्य कारण पूँजीवादी आर्थिक नीतियाँ नहीं हैं और इसका समाधान कहीं हिन्दुत्व और हिन्दूवाद में निहित है, और दूसरे धर्मों के अल्पसंख्य लोगों को भी यही अपनाना चाहिये. लेकिन इन बयानों से हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद का क्या अर्थ लगाया जाये यह स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि यदि किसी जनजाति (race) के सन्दर्भ में हिन्दुत्व को देखा जाये तो हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जिसके कारण सदियों से पूरा हिन्दू समाज जातियों में बँटा रहा है. हिन्दू धर्म में तो 75 फीसदी दलित जातियों को इंसान होने का भी हक नहीं दिया गया है, जिन्हे छूने भर से उच्च जातियों के लोग अपवित्र हो जोते हैं (अब तो खैर यह अमानवीय धारणा टूट रही है), और पूरा हिन्दू समाज आज तक छुआ-छूत, ऊँच-नीच, महिलाओं को पर्दे में कैद कर घरों में गुलाम बनाकर रखने जैसी निक्रष्ट अमानवीय प्रथाओं से ग्रस्त हैं. खैर, मोदी और भाजपा के इस हिन्दुत्व की जाँच परख के लिये पाठक को उसके विवेक पर छोड़ देते हैं.
सम्प्रदायिकता पर आधारित राजनीति का मूल मन्त्र होता है पूँजीवाद की सुरक्षा के लिये लोगों को आपस में बाँटना. भूखे-नंगे और मूलभूत संसाधनों से वंचित किसी धर्म या सम्प्रदाय के लोगों को यह विश्वास दिला दीजिए कि वह बाकी सारी दुनिया के लोगों से श्रेष्ट हैं और उनकी समस्याओं का कारण आर्थिक नहीं बल्कि दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के लोग हैं, तो वे अपनी बर्बादी को कुछ देर के लिये भूल जाएँगे और फिर उन्हें एक भीड़ में तब्दील कर किसी भी दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध भेड़ों की तरह हाँका जा सकता है. हिन्दू या मुसलमान के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले संगठन, पण्डे-पुजारी और मुल्ला यही काम करते हैं, और आम जनता को उसकी वास्तविक माँगों से भटकाकर पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं. आर्य जाति की "पवित्रता" के नाम पर जर्मनी में हिटलर का उभार इस फासीवादी विचारधारा का सबसे बहशी उदाहरण है.
देश में कुछ राष्ट्रीय वामपंथी संसदीय पार्टियाँ भी हैं जो अपनी ट्रेड-यूनियनों के माध्यम से और अपने झण्डों का लाल रंग दिखाकर संसदीय राजनीति के माध्यम से सतत बदलाव का बहाना बनाकर मेहनतकश जनता के एक हिस्से को गुमराह कर रही हैं और पूँजीवाद की एक सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभा रही हैं.
वास्तव में सभी संसदीय राजनीति चुनावी पार्टियों की कोशिश होती है कि जिन लोगों को सम्माननीय रोजगार, रोटी, कपड़ा, शिक्षा, चिकित्सा और मकान जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिये भी संघर्ष करना पड़ रहा है उनका ध्यान जीवन के लिये आवश्यक इन बुनियादी ज़रूरतों से भटकाया जाये और पूँजीवादी मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था की सच्चाई को उनके द्वारा तैयार किये गये शब्दजाल के पर्दे के पीछे छुपा दिया जाये ताकि कुछ इजारेदार जनता की मेहनत के दम पर अपना मुनाफ़ा कमाना बदस्तूर जारी रख सकें.
इसके आलावा संसदीय सरकार चुनने की प्रक्रिया भी अपने आप में गैर-जनतान्त्रिक है. क्योंकि जनता के एक छोटे से हिस्से का समर्थन पाकर ही पार्टियाँ बहुमत हासिल कर सरकार बना लेती हैं. जैसे 2009 के लोकसभा चुनाव में सत्ता में आई काँग्रेस को कुल 28.6 प्रतिशत वोट ही मिले थे, और बाकी 72.4 प्रतिशत जनता ने उसका समर्थन नहीं किया था. यही राज्य सरकारों के चुनाव में भी होता है. ऐसे में सिर्फ़ 28 फीसदी जनता के समर्थन से बनी सरकार पूरी जनता की माँगों का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है.
इसी के साथ नेताओं की सम्पत्ति और उनके द्वारा खर्च किये जाने वाले धन और देशी-विदेशी उद्योगपतियों द्वारा पार्टियों को दिये जाने वाले करोड़ों के चंदों से यह और भी ठोस रूप में सामने आता है कि वर्तमान पूँजीवादी जनतन्त्र जनता का नहीं, बल्कि पूँजीपतियों और पैसेवालों का पैसा-तन्त्र है. वर्तमान संसद में ज़्यादातर नेता करोड़पति, उद्योगपति, बिल्डर या शेयर-ब्रोकर जैसी पृष्ठभूमि के हैं. यही कारण है कि सभी पार्टियाँ नीतियाँ देशी-विदेशी बैंकरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों और ठेकेदारों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये खुली छूट देती हैं, और वर्तमान आर्थिक ढाँचे को बरकरार रखने के लिये उसे मैनेज करने की अपनी भूमिका बखूबी अदा करती हैं. (अंत में आँकड़े देखें..)
इतना स्पष्ट इसके बावजूद भी अन्ना हज़ारे और केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवादी जनतन्त्र के इस भ्रम को और मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. जो कह रहे हैं कि यदि जनता "ईमानदार" लोगों को संसद में पहुँचा दे तो सब कुछ ठीक हो जायेगा. पिछले साल भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन करके जनता को मूर्ख बनाते रहे रामदेव ने भी अब अपना बहरूपिया चोला उतार फेंका है और अपने असली रूप में सामने आ गए हैं और यह घोषणा कर दी है कि वे खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे, बल्कि मोदी (भाजपा) का समर्थन करेंगे.
यह विचार करने का विषय है कि जनपक्ष का समर्थन करने वाले लोगों को चुनावों के प्रति क्या स्थिति अपनानी चाहिये. जनतंत्र के हिमायती हर व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह वर्तमान चुनावी पार्टियों की सच्चाई का पूरी जनता के सामने भाण्डाफोड़ करे और चुनावी नारों के पीछे छुपे जनद्रोही मन्सूबों को लोगों के सामने बेपर्दा करे. आज जब पूरा पूँजीवादी तन्त्र जनता की बदहाली और तबही का कारण बना हुआ है, लोगों को रोजगार देने में असमर्थ है, देश की बड़ी मेहनतकश आबादी के जीने का अधिकार भी छिन चुका है, और सारे संसाधनों के कुछ लोगों की मुठ्ठी में केन्द्रित किया जा रहा है ऐसे हालात में समाज के बुनियादी ढाँचे में आमूलगामी बदलाव के बिना मानवता को पूँजी की गुलामी से मुक्त नहीं किया जा सकता. पूरे ढांचे को नीचे से ऊपर तक बदले बिना एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी को संसद में पहुँचाने की माँग करने से आम जनता के जीवन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा ! !
स्रोत–
पूँजीवाद और सम्पत्ति के केन्द्रीकरण:
1. Two parties, one vision [Frontline, February 22, 2013 by C.P. CHANDRASEKHAR]
http://www.frontline.in/cover-story/two-parties-one-vision/article4372088.ece
2. Social Policy in Indian Development [Jayati Ghosh, November 2002 Geneva]
[The central government provided domestic capitalists with a large once-for-all market for manufactures by widening and intensifying import protection and encouraging import substituting industrialisation. It then sought to expand that market through its own current and capital expenditures. 4 Simultaneously it supported the domestic capitalist class by investing in crucial infrastructure sectors. Like many other Asian newly industrializing countries, control of financial intermediation was seen as key to the process of development, and therefore the Indian government also concerned itself with channelising household savings to finance private investment through the creation of a number of industrial development banks. 5 ]
3. Neoliberalism and Rural Poverty in India [Vol - XLII No. 30, July 28, 2007 | Utsa Patnaik]
http://www.epw.in/aspects-poverty-and-employment/neoliberalism-and-rural-poverty-india.html
4. The dirty picture of neoliberalism: India's New Economic Policy [By Raju J. Das, April 11, 2012]
मन्दी:
1. The Endless Crisis – The Ambiguity of Global Competition [John Bellamy Foster and Robert W. McChesney, 2012, Volume 64, Issue 01 (May)]
http://monthlyreview.org/2012/05/01/the-endless-crisis
[The total annual revenue of the five hundred largest corporations in the world (known as the Global 500) was equal in 2004–08 to around 40 percent of world income, with sharp increases since the 1990s.]
2. Contradictions of Finance Capitalism [2011, Volume 63, Issue 07 (December)]
http://monthlyreview.org/2011/12/01/contradictions-of-finance-capitalism
3. The Internationalization of Monopoly Capital [2011, Volume 63, Issue 02 (June)]
http://monthlyreview.org/2011/06/01/the-internationalization-of-monopoly-capital
4. Global Economic Crisis: Europe Slides Deeper into Recession [By Stefan Steinberg Global Research, January 17, 2013]
http://www.globalresearch.ca/global-economic-crisis-europe-slides-deeper-into-recession/5319352
प्रकृति की बर्बादी:
1. Capitalism, the Absurd System: A View from the United States, [2010, Volume 62, Issue 02 (June)] http://monthlyreview.org/2010/06/01/capitalism-the-absurd-system-a-view-from-the-united-states
हिन्दुत्व और कट्टारवाद:
1. India After Gandhi: The History of the World's Largest Democracy. [Guha, Ramachandra(2008), Pan Macmillan]
2. Encyclopedia of modern worldwide extremists and extremist groups. [Atkins, Stephen E. (2004), Greenwood Publishing Group. pp. 264a265. ISBN 9780313324857. Retrieved 11 June 2010]
3. What is Fascism and How to Fight it – Abhinav, Janchetana
4. Anti dalit, Bhraminvadi Contents, पुरुषसूक्त ऋग्वेद अष्टक 8,मण्डल 10,अध्याय 4, वर्ग 17,अनुवाक 7, सूक्त 90,
5. भारत में राज्य की उत्पत्ति – प्रो. आर.एस. शर्मा.
6. जर्मनी में यातना शिविरों की एक झलक, http://www.youtube.com/watch?v=PH98iTYLrv4
नेताओं और पार्टियों की अमीरी:
1. (Data from ANALYSIS OF INCOME TAX RETURNS by NEWADR / The Hindu, September 11, 2012 / India Today, September 10, 2012)
2. ( http://infochangeindia.org/ इंडिया टुडे, 22 दिसंबर 2010 / टीओआई, 12 जुलाई, 2012)
3. टाइम्स आफ इण्डिया, 3 मई 2013
a. यहाँ 2004 से अब तक काँग्रेस ने कुल 2,008 करोड़ तथा भाजपा ने 994 करोड़ चंदा अलग-अलग औद्योगिक घरानों से प्राप्त किया है. इसी तरह 484 करोड़ बीएसपी तथा 160 करोड़ एनसीपी को मिले. 2004 से 05 के बीच ब्रिटेन के वेदान्ता ग्रुप से काँग्रेस ने 6 करोड़ और भाजपा ने 13 करोड़ रूपये दान में लिये. आदित्य बिड़ला ग्रुप और टोरेण्ट पावर लि. आदि भाजपा और काँग्रेस दोनों को चंदा देते हैं और भाजपा की पिछले सात साल की कुल इनकम का 81.47 प्रतिशत हिस्सा बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों से मिले दान से आया है.
b. यहाँ की वर्तमान संसद में चुने गये 543 संसद सदस्यों में से 315 (60 फ़ीसदी) करोड़पति हैं, जो उद्योगपति-बिल्डर या शेयर-ब्रोकर जैसी पृष्ठभूमि के हैं.
c. यहाँ की संसद और सारी विधान सभाओं के कुल सदस्यों में से एक तिहाई आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं.
No comments:
Post a Comment