THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, March 24, 2013

लियाकत नहीं, लानत कहिए हुज़ूर !

लियाकत नहीं, लानत कहिए हुज़ूर !


जगमोहन फुटेला

 

 

 

 

'गंगाजल' देखी होगी आपने। वो सीन याद है जब साधू यादव ज़मानत के लिए आता है कोर्ट और पुलिस उस को उठाने के लिए चप्पे चप्पे पे मौजूद होती है।

 

उठा उठाई का ये खेल प्रकाश झा के फिल्मकार होने के भी पहले से चल रहा है इस देश में। कहीं की भी पुलिस किसी को भी कहीं से भी उठा के टपका देती रही है। शुकर करो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अभी भी जारी है इस देश में और लियाकत अभी भी ज़िंदा है। शुक्रिया किसी को अदा करना है तो 'इंडियन एक्सप्रेस' का करे। वही न होता तो देर सबेर एक और 'आतंकवादी' ढेर हो गया होता किसी न किसी खेत में।

 

लेकिन ये जम्मू कश्मीर की सरकार क्यों बोली। वो मुंह क्यों खोली अपनी सहयोगी कांग्रेस की पुलिस के खिलाफ? वो भी अंदरखाने नहीं, खुल्लमखुल्ला। गला फाड़ के। इतना कि दिल्ली पुलिस को सफाई देनी पड़ी- सॉरी, लियाकत आतंकवादी नहीं था। भूल हुई उसे पहचानने में! भला हो दिल्ली पुलिस का कि भूल भी उस ने तब मानी कि जब लियाकत अभी ज़िंदा था। एक चीज़ और तय हो गई इस कबूलनामे से कि लियाकत अब कभी किसी दूसरे प्रदेश की पुलिस के हाथों भी मारा नहीं जाएगा। अब ये कोई छुपी हुई सच्चाई तो है नहीं कि जैसे गांवों में सब्जी वाली कटोरी चलती है एक से दूसरे घर। वैसे ही एक राज्य से दूसरे राज्य की पुलिस में अपराधी चलते हैं। बहन बेटियां साझी होती थीं कभी इस देश में। अब आतंकवादी होते हैं। मैंने ही बताया था आप को कभी कि कैसे एक ही किताब पे तीन अलग राज्यों में नौ अलग अलग लोगों को पुलिसों ने आतंकवादी घोषित कर दिया था। अदालत ने सब को छोड़ दिया।

 

पुलिस में आतंकवादी पकड़ना यों एक फैशन रहा है कि जैसे किशोरावस्था में किसी का किसी के साथ दोस्ती करना। अभी एक मुस्कान आई नहीं होती कि दोस्तों में दावत का सिलसिला शुरू हो जाता है। फिर प्लैनिंग होने लगती है देखने, दिखाने की। ये देखना दिखाना पुलिस की तरह हो तो तमगा मिलता है। तरक्की होती है। यकीन न हो तो पंडित सीताराम को देख लो। चंडीगढ़ पुलिस में थानेदार था। जुगाड़ लगा के पंजाब चला गया। आतंकवादी टपकाने के हिसाब से प्रमोशन मिलता था वहां। वो एसपी हो कर वापिस लौटा तो उस के साथ के थानेदार तब भी थानेदारी ही कर रहे थे चंडीगढ़ में। डीएसपी तो उन में से कोई रिटायर होने तक भी नहीं हो पाया।

 

अब लियाकत के बच जाने से प्रमोशन भले ही एक रुक गई हो किसी की। लेकिन जम्मू में आतंकवाद पे खात्मा पाने की वो कोशिश ज़रूर मर गई है जो दुनिया और देश की पुलिस करती ही आई है स्काटलैंड से लेकर जूलियस एफ रिबेरो तक। रिबेरो जब पंजाब में डीजीपी थे तो उन्होंने स्काटलैंड यार्ड का आज़माया हुआ फार्मूला लागू किया था। फार्मूला वो इस सोच पे आधारित है कि प्लानिंग और तरीके को लेकर मतभेद आतंकवादी संगठनों में भी होते हैं और उन के भीतर (फिल्म कंपनी जैसी) हिंसा, प्रतिहिंसा भी। रिबेरो ने आतंकवादियों में उन असंतुष्टों को धन, अस्त्र दे के उन्हीं से उन के साथी मरवाए। जम्मू कश्मीर पुलिस भी वही करने चली थी। लेकिन लियाकत को जम्मू पंहुचने से पहले पकड़ और फिर एक्सपोज़ भी कर के दिल्ली पुलिस ने जम्मू कश्मीर को नंगा, उस की योजना को बेनकाब और सरकार के बाड़े में आ सकने वाले आतंकवादियों को पाला न बदलने पे मजबूर कर दिया है। हालत ये कर दी है कि दिल्ली पुलिस में किसी एक की इस कुछ ज्यादा ही चतुर सयानप ने कि लियाकत तो बच गया है लेकिन आतंकवादियों को आतंकवादियों से ही मरवाने की योजना मर गई है। जम्मू कश्मीर की सरकार इसी लिए तड़फी है। इसी लिए बोली है।

 

इस पर रही सही कसर मीडिया के महारथियों ने पूरी कर दी है। मीडिया में अधिकांश को इस से कोई मतलब नहीं है कि लियाकत कौन है, हिजबुल से उसका कोई संबंध है भी या नहीं। ये ठीक है कि हिजबुल मुजाहिदीन की कोई सूची नहीं छपती फोन नंबरों और पते के साथ सरकारों पब्लिक रिलेशन की डायरेक्टरियों में पत्रकारों की तरह। लेकिन 'इंडियन एक्सप्रेस' को भी पता कैसे चला? डायरेक्टरी तो उस के भी पास नहीं थी। मैं समझता हूँ कि थोडा सा कामनसेंस इस्तेमाल किया होगा उस की टीम में किसी ने। हो सकता है जम्मू कश्मीर में किसी पुलिस वाले को इस तस्दीक के लिए ही फोन लगा लिया हो कि लियाकत नाम का कोई आदमी कभी किसी जांच में हिजबुल के साथ पाया, सुना भी गया है कभी या दिल्ली पुलिस वैसे ही डींग मार रही है? ऐसा कोई फोन अगर किसी सीनियर पुलिस अफसर को गया हो तो उसे ज़रूर फ़िक्र हुई होगी कि अब जम्मू कश्मीर पुलिस की आतंकवादियों को आतंकवादियों से मरवाने की योजना का क्या होगा। उस ने सरकार को बताया होगा और सरकार चौकन्नी हो गई होगी। जो विशवास कायम करने में लगी रही होगी वो असंतुष्ट आतंकवादियों में, उस को बहाल करने में उस ने ही ये सुनिश्चित किया होगा कि लियाकत मरने न पाए। मीडिया को लियाकत की अहमियत के बारे में उसी ने बताया होगा। मगर उसे टीआरपी की खातिर टीवी पे दिखा और अपना ही पिछवाड़ा बजा बजा कर दिन भर नाचने वालों को शर्म नहीं आई। तस्दीक क्या, स्टोरी डेवलप करना भी जिन्हें आता नहीं उन्हें ये शर्म भी नहीं है कि आतंकवाद से निपटने की उस पूरी योजना का बेड़ा गर्क कर देने के लिए माफ़ी ही मांग लें। जस्टिस काटजू जब कुछ बेसिक योग्यता की बात करते हैं तो सब से ज्यादा पीड़ा भी उन्हीं को है। लानत तो है। मगर किस पे?

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