THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, March 20, 2013

क्या अमेरिका वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान युद्ध में हुई फजाहत से सबक लेकर गृहयुद्ध और युद्ध का कारोबार बंद कर देगा या फिर सर्वशक्तिमान जायनवादी ताकते ओबामा की ही छुट्टी कर देंगी?

क्या अमेरिका वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान युद्ध में हुई फजाहत से सबक लेकर गृहयुद्ध और युद्ध का कारोबार बंद कर देगा या फिर सर्वशक्तिमान जायनवादी ताकते ओबामा की ही छुट्टी कर देंगी?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि ओबामा अपनी सैन्य कार्रवाइयों पर पुनर्विचार करेंगे और आतंक के खिलाफ अमेरिका के युद्ध से भारत समेत दक्षिण एशिया को मुक्ति मिलेगी?अमेरिका, अफगानिस्तान एवं इराक में युद्ध कर चुका है। कई देशों की मारक क्षमता धरती के दूसरे छोर तक है। पड़ोसी और दूर के देशों के बीच अंतर करना अप्रासंगिक हो गया है। इस नई परिस्थिति में नई नीति बनाने की जिम्मेदारी भारत की है।पर क्या सत्ता के लिए राष्ट्रहित को दांव पर लगानेवाली भारत सरकार से हम यह उम्मीद कर सकते हैं?तमिलनाडु का मामला भयानक राष्ट्रद्रोह का मामला है सत्ता बचाने के खातिर सरकार राष्ट्रहित को भी दांव पर लगा सकती है। श्रीलंका में युद्ध अपराध का यथार्थ अपनी जगह है। पर श्रीलंका पर प्रतिबंध लगाने के चक्कर में कश्मीर, पूर्वोत्तर और मध्य भारत में हो रहे युद्ध अपराध के बहाने वैसे ही प्रतिबंध भारत पर भी लग सकते हैं।



दुनियाभर के लोकतांत्रिक लोगों के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने बराक ओबामा ने उम्मीदें जगायी हैं, इराक युद्ध के फैसले को गलत ठहराकर!अमेरिकी व्यवस्था और विश्वव्यवस्था पर जायनवादी हथियार उद्योग के मजबूत शिकंजे से वाकिफ दुनिया को अभी इस सवाल के जवाब के लिए इंतजार करना होगा कि क्या अमेरिका वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान युद्ध में हुई फजाहत से सबक लेकर गृहयुद्ध और युद्ध का कारोबार बंद कर देगा या फिर सर्वशक्तिमान जायनवादी ताकते ओबामा की ही छुट्टी कर देंगी?भारतीय सत्तावर्ग का टांका अमेरिका से लगा हुआ है और हमारी अर्थव्यवस्था डालर जरिये अमेरिका से जुड़ी है। अमेरिका और इजराइल के ​​नेतृत्व में पारमामविक सैन्य गठबंधन है। युद्ध के बारे में अमेरिकी नीति कारपोरेट साम्राज्यवाद के हितों के विरुद्ध है। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि ओबामा अपनी सैन्य कार्रवाइयों पर पुनर्विचार करेंगे और आतंक के खिलाफ अमेरिका के युद्ध से भारत समेत दक्षिण एशिया को मुक्ति मिलेगी?अमेरिका, अफगानिस्तान एवं इराक में युद्ध कर चुका है। कई देशों की मारक क्षमता धरती के दूसरे छोर तक है। पड़ोसी और दूर के देशों के बीच अंतर करना अप्रासंगिक हो गया है। इस नई परिस्थिति में नई नीति बनाने की जिम्मेदारी भारत की है।पर क्या सत्ता के लिए राष्ट्रहित को दांव पर लगानेवाली भारत सरकार से हम यह उम्मीद कर सकते हैं?


सीएनबीसी टीवी-18 के मैनेजिंग एडिटर उदयन मुखर्जी का कहना है कि कल बाजार में जोरदार हलचल देखी गई। अचानक दिन के मध्य में बड़ी खबरें निकलकर सामने आई। पहले आरबीआई की क्रेडिट पॉलिसी आई, इसके बाद द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने सरकार से समर्थन वापस लिया और इसके बाद भारती पर आरोप लगे। इसके अलावा वैश्विक कमजोरी का भी बाजार पर असर देखा गया।इन सब के चलते बाजार के लिए कल का कारोबारी सत्र बहुत खराब साबित हुआ। आज देखना होगा कि कल की हलचल का आज दूसरे दिन बाजार पर क्या असर होता है।सरकार के डीएमके के साथ सुलह के संकेत देने के बाद भी बाजार में भरोसा नहीं लौट पाया। सेंसेक्स 124 अंक गिरकर 18884 और निफ्टी 51 अंक गिरकर 5694 पर बंद हुए।


तमिलनाडु का मामला भयानक राष्ट्रद्रोह का मामला है सत्ता बचाने के खातिर सरकार राष्ट्रहित को भी दांव पर लगा सकती है। श्रीलंका में युद्ध अपराध का यथार्थ अपनी जगह है। पर श्रीलंका पर प्रतिबंध लगाने के चक्कर में कश्मीर, पूर्वोत्तर और मध्य भारत में हो रहे युद्ध अपराध के बहाने वैसे ही प्रतिबंध भारत पर भी लग सकते हैं।डीएमके के समर्थन वापसी से मची खलबली के बीच सरकार ने बुधवार को फिर बहुमत का दावा किया। डीएमके पर तेवर कड़े करते हुए सरकार ने सवाल उठाया कि जब सुलह सफाई की बात चल रही थी, तो डीएमके का रुख अचानक क्यों बदल गया। इस बीच डीएमके के पांच मंत्रियों ने प्रधानमंत्रियों को अपने इस्तीफे सौंप दिये। माना जा रहा है कि संसद में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पास करने की डीएमके की मांग खटाई में पड़ सकती है। फिलहाल इस मुद्दे पर सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है।दरअसल डीएमके के समर्थन वापसी से उठे सियासी बवाल को शांत करने के लिए सरकार ने बुधवार सुबह वित्त मंत्री पी चिदंबरम की अगुवाई में तीन मंत्रियों को उतारा। चिदंबरम ने कहा कि तमिल मानवाधिकार के मुद्दे पर सरकार भी चिंतित है, और इसलिए श्रीलंका से निष्पक्ष जांच की मांग की गई है। इसी के साथ, संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ ने दावा किया कि डीएमके के समर्थन के बाद सरकार को कोई खतरा नहीं है।इसके बाद संसद की कार्यवाही शुरू होते ही दोनों सदनों में डीएमके के सांसदों ने अपनी मांगों को लेकर हंगामा करना शुरू कर दिया। राज्यसभा में तो नारेबाजी करते हुए डीएमकी की एक सांसद बेहोश तक हो गईं। इस बीच डीएमके पांच मंत्रियों एस एस पलानिमक्कम, एस गांधीसेल्वन, एस जगतरक्षकन, एम के अलागिरी और डी नेपोलियन ने प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद अपने इस्तीफे सौंप दिये। डीएमके सरकार से समर्थन वापसी की चिट्ठी मंगलवार रात ही राष्ट्रपति को सौंप चुका है। इस बीच डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने बुधवार को दोहराया कि उनकी पार्टी श्रीलंकाई तमिलों के मानवाधिकार के मुद्दे पर संसद में निंदा प्रस्ताव पास करने की अपनी मांग से पीछे नहीं हटेगी।


डीएमके के समर्थन वापस लेने के बाद यूपीए सरकार मुलायम सिंह यादव और मायावती के रहमोकरम पर है। डीएमके के बिना लोकसभा में यूपीए सांसदों की तादाद महज 230 रह जाएगी। बहुमत के लिए 272 सांसदों का समर्थन जरूरी है। बाहर से समर्थन दे रहे 59 सांसदों के दम पर यूपीए का आंकड़ा इसे पार तो कर जाएगा, लेकिन फिर 22 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी और 21 सांसदों वाली बीएसपी के पास सत्ता की चाबी होगी।बहरहाल, सरकार का कहना है कि वो संसद में श्रीलंका सरकार के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाने के साथ उसकी भाषा तय करने के लिए तमाम दलों से बातचीत कर रही है। लेकिन यूपीए और डीएमके के रिश्तों की मौजूदा तल्खी के मद्देनजर सूत्रों का मानना है कि संसद में निंदा प्रस्ताव आना मुश्किल है।

उधर श्रीलंका से जुड़े अमेरिकी प्रस्ताव पर गुरुवार को जेनेवा में वोटिंग होनी है। सरकार मानती है कि प्रस्ताव पहले से ही काफी सख्त है। सरकार प्रस्ताव में मामूली बदलाव कराना चाहती है। भारत जवाबदेही की बात करेगा लेकिन तय वक्त में जांच की नहीं। भारत स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच पर जोर देगा। नरसंहार शब्द जोड़ने की मांग नहीं की जाएगी। भारत किसी देश के आंतरिक मामलो में दखल के खिलाफ है। साफ है कि सरकार डीएमके की मांग को भाव देने के मूड में अब बिलकुल नहीं दिख रही।वहीं ममता बनर्जी ने श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर सरकार का समर्थन की बात कही है। सूत्रों की मानें तो ममता ने यूपीए सरकार को संदेश भिजवाया है कि श्रीलंका मामले पर वो भारत की मौजूदा विदेश नीति से सहमत हैं। हालांकि अभी ये साफ नहीं है ममता सरकार को बचाने के लिए आगे आएंगी या नहीं लेकिन कुछ लोग इसे मुलायम को ममता का जवाब भी मान रहे हैं।


संयुक्त प्रगति गठबंधन की पूर्व सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने बुधवार को यूएनएचआरसी में श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दों पर सरकार के किसी भी रुख का समर्थन कर सबको चौंका दिया। ममता बनर्जी ने अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा कि हमारी पार्टी तमिल भाइयों और बहनों के आंदोलन का समर्थन करती है। एक दूसरे मुल्क में तमिल जनसंख्या के एक वर्ग द्वारा सहे गये अत्याचार से हम बहुत चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि हम हमेशा से ही तमिल भाइयों के साथ हैं। हम उनकी चिंताओं का समर्थन करते हैं। यह स्थानीय भावना है। हम उनकी भावनाओं का भी समर्थन करते हैं।इस बयान का मतलब है कि इस मामले में केंद्र जो भी फैसला लेगा पार्टी उसके साथ होगी। सूत्रों के अनुसार, तृणमूल के इस बयान से पहले संसदीय मामलों के मंत्री कमलनाथ ने बुधवार सुबह ममता बनर्जी से बात की थी। ममता के इस बयान से द्रमुक से झटका खाई यूपीए गठबंधन को थोड़ी राहत जरूर मिली है।


यूपीए सरकार में डीएमके पार्टी के पांचों मंत्रियों ने अपने इस्तीफे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 20 मार्च 2013 को सौंप दिए. यह मंत्री हैं-रसायन और उर्वरक मंत्री एम के अझागिरी, सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता राज्यमंत्री डी नेपोलियन, वित्त राज्यमंत्री एस एस पलनिमणिक्कम, नवीन तथा नवीकरणीय ऊर्जा राज्यमंत्री एस जगतरक्षकन और स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण राज्यमंत्री एस गांधी सेल्वन.


इससे पहले डीएमके पार्टी के 5 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल ने 19 मार्च 2013 को नई दिल्ली में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात की और उन्हें पार्टी अध्यक्ष एम करुणानिधि का पत्र सौंपा, जिसमें यूपीए सरकार से पार्टी के 18 लोकसभा सदस्यों का समर्थन वापस लेने की बात कही गई थी.


तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री व द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के अध्यक्ष एम. करुणानिधि ने बुधवार को कहा कि उनकी पार्टी ने जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचसीआरसी) में श्रीलंका के खिलाफ लाए जाने वाले अमेरिकी प्रस्ताव को कमजोर करने में भारत की भूमिका के कारण केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार से खुद को अलग कर लिया। करुणानिधि ने कुछ मीडिया संगठनों की भी आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने संप्रग सरकार से बाहर होने के डीएमके के फैसले को लेकर दिए गए बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया।


करुणानिधि ने कहा, `पार्टी ने साफ तौर पर कहा है कि भारत सरकार ने श्रीलंका के खिलाफ लाए जाने वाले अमेरिकी प्रस्ताव को कमजोर करने में मदद दी। इसके अतिरिक्त अमेरिकी प्रस्ताव में संशोधन का जो सुझाव डीएमके ने दिया, केंद्र सरकार ने उस पर विचार नहीं किया। ऐसे में पार्टी ने संप्रग सरकार से अलग होने का निर्णय लिया।`


उन्होंने कहा कि डीएमके 47 सदस्यीय यूएनएचआरसी में लाए जाने वाले अमेरिकी प्रस्ताव में दो बदलाव कराना चाहती थी। पार्टी चाहती थी कि श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों के खिलाफ वर्ष 2009 में की गई अंतिम एवं निर्णायक कार्रवाई के दौरान वहां की सेना ने तमिलों पर जो जुल्म ढाए, उसे `नरसंहार` तथा `युद्ध अपराध` कहा जाए।


द्रविड़ मुनेत्र कड़गम


द्रविड़ मुनेत्र कड़गम को द्रमुक नाम से भी जाना जाता है, तमिलनाडु की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी है. इसका प्रमुख मुद्दा समाजिक समानता, खासकर हिन्दू जाति प्रथा के सन्दर्भ में, तथा द्रविड़ लोगो का प्रतिनिधित्व करना है. एम करुणानिधि इसके प्रमुख हैं.विदित हो कि डीएमके मांग करती रही है कि भारत को श्रीलंका में हुए तमिलों के नर संहार की स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अमेरिका के प्रस्ताव में संशोधन पर जोर देना चाहिए.


बहरहाल इराक युद्ध के 10वीं बरसी के मौके पर दुनियाभर की मीडिया में इस बात को लेकर बहस हो रही है कि क्या यह जंग जरूरी थी। जैविक हथियारों के प्रोपोगेंडा से शुरू किए गए अमेरिका की जंग में किसका नुकसान किसका फायदा हुआ, इसका आकलन किया जा रहा है। भले ही अमेरिका ने इराक में घुसकर उसके खिलाफ युद्ध कर अपने मंसूबों पर कामयाबी हासिल कर ली हो। भले ही उसने सद्दाम को फांसी पर लटका कर चैन की सांस ली हो। लेकिन वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस युद्ध के फैसले को सही नहीं मानते हैं। उन्हें यह समझदारी भरा फैसला नहीं लगता। हालांकि वे इस बात पर जरूर सहमत हैं कि इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता कायम हुई है। इराक युद्ध के आठ साल बाद 2011 में अमेरिका ने इराक छोड़ा था। इराक के खिलाफ अमेरिकी युद्ध के दौरान 4,475 अमेरिकी सैनिकों ने जान गंवाई थी, जबकि 32 हजार से ज्यादा सैनिक घायल हुए।


इसी बीच इराक की राजधानी बगदाद मंगलवार को बम धमाकों से दहल उठी। इन हमलों में अब तक करीबन ६५ लोगों के मारे जाने की पुष्टि हुई है तथा २०० से अधिक घायल हुए हैं। यह हमले बगदाद के शिया बहुल इलाकों में किए गए। अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना के हमले की १०वीं बरसी पर इराक में एक बार फिर सांप्रदायिक तनाव दिखाई देने लगा। सूत्रों के अनुसार इन हमलों में अधिकांश कार बम हमले थे। हमलों में ग्रीन जोन इलाके के साथ छोटे रेस्तरांओं, श्रमिक कार्य क्षेत्र और बस स्टापों को निशाना बनाया। तकरीबन दो घंटे के मध्य इराक की राजधानी इन धमाकों से दहल गई। १९ मार्च २००३ में अमेरिका के इराक पर हमला करने के १० साल पूरे होने के दिन इन हमलों ने बगदाद को हिला दिया। उल्लेखनीय है कि वर्ष २००६ से २००७ के बीच इराक में हिंसा चरम पर थी और मंगलवार को हुए ताजा हमले भी शायद इराक के सुरक्षा बलों और लंबे समय तक स्थायित्व को संभावित चुनौती हैं।


इस सप्ताह जिनेवा में सँयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका में मानवाधिकारों की स्थिति के बारे में अमरीका द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव पर मतदान होगा। इस प्रस्ताव पर मतदान अभी होना है, लेकिन मतदान की भावी परिणामों ने अभी से भारत की घरेलू राजनीतिक स्थिति को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। तमिलनाडु की द्वविड़ मुन्नेत्र कषगम पार्टी ने भारत में सत्तारुढ़ सँयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से निकलने की घोषणा कर दी है। इसका मतलब यह है कि सत्तारूढ़ गठबन्धन बहुमत में रहते हुए भी बहुमत खोने के एकदम निकट पहुँच गया है। रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अनुसंधान संस्थान के एक विद्वान बरीस वलख़ोन्स्की ने इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा :


आज जो परिस्थिति पैदा हो गई है, उससे जुड़ी कुछ बातों की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है। सबसे पहली बात तो यह है कि श्रीलंका में क़रीब एक चौथाई सदी तक चले गृहयुद्ध को श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी सिंहलियों द्वारा समर्थित सरकार और श्रीलंका की अल्पसंख्यक आबादी द्वारा समर्थित विद्रोही संगठन 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम' यानी लिट्टे के बीच युद्ध के रूप में देखा जाता है। लेकिन यदि भूमंडलीय स्तर पर देखें तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की यह भूमिका बदल जाती है। केवल भारत में ही लगभग छह करोड़ तमिल रहते हैं और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों, पश्चिमी देशों अफ़्रीका तथा आस्ट्रेलिया में भी उनकी संख्या एक करोड़ से कम नहीं है। ये तमिल प्रवासी भी बड़े प्रभावशाली हैं और पश्चिमी देशों की जनता के बीच अच्छा-ख़ासा प्रभाव रखते हैं। इसीलिए पश्चिमी दुनिया के देश लिट्टे द्वारा किए गए अपराधों की तरफ़ से आँखें मूँद कर श्रीलंका की सरकारी सेना द्वारा किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघनों पर ही ज़ोर दे रहे हैं। जबकि 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम' ने भी बहुत से भयानक अपराध किए हैं। लिट्टे ने ही दुनिया में सबसे पहले आत्मघाती आतंकवादी हमलावरों का इस्तेमाल करना शुरू किया था। 1991 में लिट्टे की एक आत्मघाती आतंकवादी महिला ने ही राजीव गाँधी की हत्या की थी। श्रीलंका के तो इतने ज़्यादा राजनीतिज्ञों की हत्या लिट्टे ने की है कि उनको गिनना भी आसान नहीं है।


विशेषज्ञों ने यह भी आकलन किया है कि 11 सितम्बर 2001 तक दुनिया में किए गए ज़्यादातर आतंकवादी हमले 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम' के सदस्यों ने ही किए थे। तब तक इस्लामी उग्रवादी सक्रिय नहीं हुए थे। जबकि आज हम आतंकवाद शुरू करने का सारा दोष उन्हीं के ऊपर डालते हैं। 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम' ने ही सबसे पहले स्त्रियों और बच्चों को बंधक बनाकर उनका 'जीवित-ढाल' के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया था और बाद में सरकार को उनकी मौत के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया था। बरीस वलख़ोन्स्की ने आगे कहा :


दूसरी बात इस समस्या के भूराजनीतिक पहलू से सम्बन्ध रखती है। अमरीका द्वारा श्रीलंका में मानवाधिकारों के सवाल पर प्रस्ताव पेश करने का मतलब यह नहीं है कि वह ख़ुद सारी दुनिया में मानवाधिकारों का पालन करता है। पिछले बारह सालों में अमरीका और उसके सहयोगी देशों द्वारा इराक, अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी एशिया के देशों में जो लड़ाइयाँ शुरू की गईं, उनमें उनसे कहीं ज़्यादा लोग मारे गए हैं, जितने लोग श्रीलंका में हुए गृहयुद्ध के शिकार हुए हैं। तो सवाल यह उठता है कि क्या अमरीका ने मानवाधिकारों का ठेका ले रखा है। जी नहीं, मामला कुछ दूसरा ही है। दर‍असल अमरीका श्रीलंका की नीतियाँ बदलना चाहता है। वह चाहता है कि अपनी विदेश नीति में श्रीलंका चीन की तरफ़ झुकना बन्द कर दे।


तीसरी बात भारत की घरेलू राजनीतिक परिस्थिति से जुड़ी हुई है। सन् 2011 में तमिलनाडु की विधानसभा के लिए हुए चुनावों में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम को मुँह की खानी पड़ी थी और तमिलनाडु की सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी। अब यह पार्टी फिर से तमिलों के बीच जातीय भावना उकसाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहती है। इसीलिए द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के नेता एम० करुणानिधि भारत सरकार से यह माँग कर रहे हैं कि इस प्रस्ताव में कुछ बदलाव किए जाने चाहिए और उसमें 'जनसंहार' शब्द भी जोड़ा जाना चाहिए।


इस परिस्थिति में भारत सरकार को अपना सन्तुलन बनाना पड़ रहा है। उसके सामने कुछ ही रास्ते हैं। या तो प्रस्ताव को जैसे का तैसा छोड़ दिया जाए और संसद में अपना बहुमत गँवाने का ख़तरा उठाया जाए। पिछले साल तृणमूल काँग्रेस पहले ही सत्तारूढ गठबन्धन को छोड़ चुकी है। अगर भारत सरकार श्रीलंका के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पर कड़ा रुख अपनाएगी तो श्रीलंका के साथ भी रिश्ते ख़राब होंगे और एक ऐसा उदाहरण भी बन जाएगा, जिसका कभी भारत के ख़िलाफ़ भी इस्तेमाल करना सम्भव होगा।


तमिल विपक्ष यह माँग कर रहा है कि इस प्रस्ताव में श्रीलंका की सरकार से यह माँग भी जोड़ी जानी चाहिए कि वह निष्पक्ष अन्तर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को अपने यहाँ आने दे और उन्हें जाँच करने की खुली आज़ादी दे दे। भारत सरकार का कहना है कि सिर्फ़ श्रीलंका सरकार की सहमति से ही अन्तर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक श्रीलंका में भेजे जा सकते हैं और उन्हें किसी भी हालत में श्रीलंका की सर्वसत्ता का उल्लंघन करके ज़बरदस्ती श्रीलंका में नहीं भेजा जाना चाहिए।


इसका कारण भी साफ़ है। कश्मीर में भारत पर भी यह इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह वहाँ अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहा है। इसलिए यदि श्रीलंका में निष्पक्ष पर्यवेक्षकों को भेजने की माँग की जाएगी तो भारत यह भी स्वीकार कर लेगा कि ऐसे ही निष्पक्ष पर्यवेक्षक कश्मीर में भी आ सकते है और अपने हिसाब से जाँच कर सकते हैं।


इस तरह भारत सरकार अब एक ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई है, जहाँ दोनों ही रास्ते एक दूसरे से कहीं ज़्यादा टेढ़े हैं।


ब्रिटिश पत्रिका द लैन्सेट ने एक अध्ययन में कहा कि वर्ष 2003 में इराक युद्ध की शुरूआत से लेकर वर्ष 2011 में अमेरिका के वापस लौटने तक वहां कम से कम 1,16,000 आम लोग मारे गए और गठबंधन सेना के 4,800 सैनिकों ने अपनी जान गंवाई।


उन्होंने कहा कि इस युद्ध में शामिल अमेरिका ने अभी तक 810 अरब डॉलर खर्च किए हैं और भविष्य में इसके तीन ट्रिलियन तक पहुंचने की संभावना है ।


इन आंकड़ों का अनुमान अमेरिका में पब्लिक हेल्थ के दो प्रोफसरों ने लगाया है । उन्होंने अपने अध्ययन के लिए प्राथमिक आंकड़े पत्रिकाओं में प्रकाशित अध्ययनों, सरकारी एजेंसियों की रिपोर्टों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों की रिर्पोटों और मीडिया में आयी खबरों से लिए हैं ।


उनका कहना है, हमारे अध्ययन के अनुसार वर्ष 2003 से 2011 तक आठ वर्ष चले इस युद्ध के दौरान कम से कम 1,16,903 इराकी निवासी और गठबंधन सेना के 4,800 से ज्यादा सैनिक मारे गए हैं ।


उनका कहना है कि युद्ध के दौरान देश की स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने वाले ढांचे नष्ट हो गए, जिससे बड़ी संख्या में जख्मी और बीमार इराकियों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाईं । करीब 50 लाख लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा ।


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