THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, March 18, 2013

इरोम के बहाने उत्तरपूर्व

इरोम के बहाने उत्तरपूर्व

                                                                चिन्मय मिश्र
इरोम शर्मिला पर आत्महत्या का मुकदमा चलाने की प्रक्रिया ने यह साबित कर दिया है कि यह देश संवेदना की भाषा भूल चुका है। बहुत से लोग शायद इस तर्क से सहमत नहीं होंगे कि इंफाल ओर साबरमती आश्रम में कोई समानता भी है। गांधी ने दिल्ली को अपने संघर्ष का केंद्र कभी नहीं बनाया। वे स्वयं को साबरमती आश्रम ले आए और जिस दिन भारत आजाद हुआ, उस दिन भी वे दिल्ली में नहीं, बल्कि नोआखली में थे। 4 मार्च को इरोम दिल्ली की अदालत में थीं और उसी के समानांतर चौबीसों घंटे चलने वाले समाचार चैनलों की सुर्खियों में भी। 5 मार्च को वे देशभर के अखबारों के पहले पन्ने पर थीं और 6 मार्च को एक बार पुन: सब चर्चाओं से दूर मणिपुर के अस्पताल के अपने जेल वार्ड में पहुंच गईं।
मीडिया के सामने नए मुद्दे आ गए। अंग्रेजी कहावत भी है, 'जैसे ही आप नजरों से दूर होगे वैसे ही दिमाग से भी विस्मृत हो जाओगे।' मीडिया ने भी अपने वार्षिक कैलेंडर में 2 नवंबर के दिन पर लाल गोला बना दिया होगा, जिस दिन इरोम का अनशन 12वें से 13वें वर्ष में प्रवेश करेगा और सारा देश एक बार पुन: उस दिन इरोम के साथ होगा और अगले दिन अपने-अपने रोजमर्रा के काम में जुट जाएगा। इधर सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम के खिलाफ चल रही सुगबुगाहट को थोड़ी आवाज उमर अब्दुल्ला ने दी। हाल ही में बारामुला में एक युवक सेना की गोली से मारा गया है। परन्तु उमर अब्दुल्ला का यह विरोध कमोवेश घड़ियाली आंसू जैसा है, क्योंकि वे प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर पुलिस अधिनियम के अंतर्गत ऐसे अधिकार राज्य पुलिस को देना चाहते हैं, जिसके अंतर्गत पुलिस अपने विशेष सुरक्षा क्षेत्र घोषित कर सकती है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सन 2010 में घाटी में फैला युवा असंतोष से कश्मीर में जो 100 से अधिक नवयुवक राज्य पुलिस बल की गोलियों से ही मारे गए थे।
लेकिन मणिपुर की कहानी कुछ अलग है। वहां यह कानून पिछले 50 वर्ष से लागू है। इतना ही नहीं शाम होते न होते वहां कर्फ्यू जैसी स्थितियां निर्मित हो जाती हैं। पिछले दिनों भोपाल में मणिपुर व देश के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक रतन थियाम के नाटकों पर केंद्रित एक अनूठा समारोह  'रंग सोपान' आयोजित हुआ। इसमें उनके सात नाटकों का मंचन हुआ। वे अपने नाटकों के जरिए एक ऐसा अलौकिक संसार रचते हैं, जिसमें बहुत कुछ रंगों और पार्श्व ध्वनियों से संप्रेषित होता है। उनके अनेक नाटकों में सामूहिक क्रंदन एवं रुदन मानोंं कलेजा चीरता सा प्रतीत होता है। उन अंधेरे पलों में हमारे सामने वहां की कारुणिक परिस्थिति और उन सबके बीच बैठी इरोम साफ नजर आती हैं। मंच पर भी अंधेरा है, हमारे अंदर भी अंधेरा उतरता है और धर्मवीर भारती का नाटक 'अंधायुग' युद्ध की विभीषिका को अभिव्यक्त करते हुए समझाता है कि गांधारी का विलाप और श्रम अकारण नहीं है, कृष्ण चाहते तो महाभारत रोक सकते थे। आज दिल्ली में बैठा सत्ता वर्ग बजाए किसी हल पर पहुंचने के हठधर्मिता का प्रयास कर रहा है। वह स्वयं नियुक्त न्यायमूर्ति जीवन रेड्डी आयोग की सिफारिशें मानने से भी इंकार कर रहा है।
हम चीन से सीमा विवाद पर बात करने को तैयार हैं, पाकिस्तान से संबंध ठीक करने में दिन रात एक कर रहे हैं, लेकिन अपने आंतरिक विवादों के निराकरण को लेकर ठंडापन बनाए हुए हैं। रतन थियाम कहते हैं, 'मणिपुर में बहुत सारे युद्ध हुए हैं। बहुत से आक्रांता बाहर से आए हैं। हम भी गए हैं। समकालीन युद्ध का क्या स्वरूप है? किसी को मार देना या किसी पर बम फेंक देना भर युद्ध नहीं है। कई विराट शक्तियां हैं जो समूची सभ्यताओं, परंपराओं संस्कृतियों और आचार संहिताओं पर आक्रमण करती हैं।' मणिपुर और कमोवेश पूरे उत्तरपूर्व में ऐसा ही युद्ध चल रहा है। वह विस्तारित होकर पूरे हिमालय, जिसमें जम्मू-कश्मीर शामिल है, में फैलता जा रहा है। मध्यभारत का वन क्षेत्र नक्सलवाद की चपेट में है। 130 से अधिक जिले विस्थापन के खिलाफ  संघर्ष कर रहे हैं। हर जगह अपनी-अपनी शर्मिला संघर्ष कर रही है। रतन थियाम अपनी सज्जनता में समकालीन युद्ध के सर्वाधिक घातक स्वरूप आर्थिक युद्ध को सीधे-सीधे इसमें नहीं जोड़ते। लेकिन वे सच्चाई से मुंह छुपाने की आधुनिक रणनीति को बहुत कोमलता से अभिव्यक्त करते हुए याद दिलाते हैं,
धूल से ढके होने के बाद भी
संध्या के सूर्य की लालिमा
सुंदर बनी रहती है
आंख बचाने की सोचकर 
उन्हें बंद करने से वह कैसे दिखाई देगी?
परंतु चुभन से डर कर नीति निमार्ताओं ने उत्तर पूर्व से आंख फेर ली हैं। वहां के आधे युवा नशीली दवाओं के आदी होते जा रहे हैं। उत्तरपूर्व की लड़कियां पलायन स्थलों पर यौन हिंसा का सर्वाधिक शिकार होती हैं। अपनी जिद को पूरा करने के दंभ में राष्ट्रहित की ओट में गलत को भी सही ठहराने का प्रयास कागजों में तो सफल दिखाई देता है, लेकिन वास्तविक धरातल पर उसकी प्रतिक्रिया दिन-ब-दिन खतरनाक रूप लेती जा रही है।

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