THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, November 18, 2013

आजकल ये आदिवासी ज्यादा बोलने लगे हैं…

आजकल ये आदिवासी ज्यादा बोलने लगे हैं…

पलाश विश्वास

हमारा दुर्भाग्य है कि निग्रोइड रक्तधारा के वाहक होकर भी इस देश की गैर ब्राह्मणी अनार्य अश्वेत आम जनता के लिए इस देश के आदिवासी भिन्न ग्रह के लोग हैं और आदिवासी भूगोल से बाकी देश का कोई संवाद नहीं है।आदिवासी भूगोल में कहीं भी भारतीय संविधान लागू है ही नहीं।

मसलन तेलंगाना के आदिवासियों ने जानकारी दी है कि वहां आदिवासी इलाकों में अब भी निजाम के जमाने के कानून लागू हैं।

राष्ट्र ने संविधान की पांचवी छठीं अनुसूचियों का इस्तेमाल सिर्फ जनादेश बनाने के काम में किया है और वह ऐसा जनादेश है,जो अस्पृश्य भूगोल के विरुद्ध अनवरत युद्ध का पर्याय है।

सत्ता का रंग कुछ भी हो राष्ट्र के इस अवस्थान में कोई परिवर्तन होता नहीं है।

विकास के नाम पर  आदिवासियों के विध्वंस से रची जाती है विकास गाथा।


अब आदिवासी बोलते हैं तो लोगों को शिकायत होती है कि आदिवासी बहुत बोलते हैं।

सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जिन्हें आदिवासी आवाज से सख्त नफरत है।


अब विश्वविख्यात लेखिका अरुंधति राय आदिवासियों के हक में लिखती हैं तो अनुसूचित पिछड़े समुदायों के राजनीतिक लोग सीधे फतवा दे देते हैं कि वे तो ब्राह्मण हैं।


हिमांशु कुमार निरंतर आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई लड़ रहे हैं तो उनके इस अथक अवदान को खारिज करने के लिए एक ही ब्रह्मास्त्र काफी है कि वे तो गांधीवादी हैं।


साहित्य अकादमी पाने से पहले बंगाल का कुलीन विद्वत समाज महाश्वेता देवी के रचनाकर्म को साहित्य मानते ही नहीं थे।उनसे शिकायत रही है कि उनके लेखन में रचा कुछ नहीं गया बल्कि उनका समूचा लेखन डाक्यूमेंटेशन है।


जब पहला खाड़ी युद्ध शुरु होते ही मैंने अमेरिका से सावधान लिखना शुरु किया तो लोगों ने लाउड बता दिया या फिर यह कहते रहे कि यह तो सूचनाओं का घटाटोप है।


मेधा पाटकर लंबे समय से नर्मदा बांध के डूब में समाहित हो रही आदिवासी भूगोल की लड़ाई लड़ रही हैं, वे और तमम लोग जो आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं,यहां तक कि जनयुद्ध में शामिल माओवादियों और नक्सलियों तक को ब्राह्मण बताकर खारिज कर दिया जाता है।


सवाल यह है कि आपको अंततः आपत्ति किस बात की है?

आदिवासी भूगोल की हक हकूक, जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई से या फिर जो लोग उनकी आवाज उठा रहे हैं,उनके सामाजिक जाति परिचय से?

जाति वर्चस्व की मनुस्मृति व्यवस्था के मद्देनजर जाति परिचय का मुद्दा आपत्ति का कारण अवश्य होना चाहिये। क्योंकि राजनीति का अभिमुख यही है कि ब्राहमणवादी तंत्र यंत्र को न केवल सही सलामत रखकर बल्कि उसका हिस्सा बनकर सत्ता और बाजार में अपना अपना हिस्सा बूझ लेने के बाद अपने अंध भक्तों को जाति शत्रुओं को चिन्हाकर अपना जनाधार और कारोबार चालू रखा जा सकता है।


अब सवाल है कि जो आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई के ब्राह्मम स्वर के खिलाफ हैं,वे स्वयं आदिवासियों के सवाल पर किसके साथ खड़े हैं?


वे खुद आदिवासी भूगोल में क्यों नहीं खड़े हैं?


सवाल यह है कि जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ भारत में आर्य आक्रमण के इतिहास के साथ जो अंबेडकरी आंदोलन आजादी के बाद से निरंतर जारी है,उसकी आदिवासियों के हक  हकूक की लड़ाई में अब तक कोई भूमिका क्यों नहीं बन पायी?

और क्यों आदिवासी हक हकूक की लड़ाई की बात होती है तो सामने ब्राह्मण ही क्यों नजर आता है?


ग्यारवीं सदी तक अरावली,विंध्य के उस पार आर्यों का राज प्राचीन भारत के सा्म्राज्यों के गौरवशाली इतिहास के बावजूद कहीं नहीं था।


राजस्थान में तमाम किले आदिवासियों के ही बनाये हुए हैं,जिन्हें सारा देश राजपूत मानता है,उनके रक्त में आदिवासी खून है।


समूचे पूर्वोत्तर में अहम जनसमुदाय के ग्यारहवीं सदी में असम आगमन से पहले आदिवासी ही थे।


पूर्वी भारत में धर्मस्थल का हिंदूकरण बहुत बाद में हुआ अनार्य और आदिवासी देव देवियों के हिंदूकरण के मार्फत।

बंगाल तो ग्यारहवीं सदी तक बौद्धमय था और हिंदुत्व का कर्मकांड यहा पंद्रहवीं सदी में  चैतन्य महाप्रभु और गौरांग के वैष्णव धर्म के तहत प्रारंभ हुआ।


नृतात्विक प्रमाण सिलसिलेवार हैं कि कैसे अनार्य नस्ल के मंगोलायड और निग्रोइड समुदायों के विभिन्न आदिवासी समूहों का हिंदूकरण हुआ और वे बाद में अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में शामिल हैं।

अब भी विभिन्न राज्य में एक ही जाति के लोग मसलन गुज्जर कहीं अनुसूचित जाति ,कहीं अनुसूचित जनजाति तो कहीं पिछड़ी जाति और कहीं कहीं सवर्ण तक हैं।


ब्राह्मणों के मुकाबले असवर्ण गैरब्राह्मणों के जिनिटेकेली आदिवासियो ं के साथ कहीं बहुत ज्यादा रक्त संबंध है। लेकिन अनुसूचित जातियां,पिछड़ी जातियां,उनके संगठन,उनके मसीहा आदिवासियों की लड़ाई में कहां हैं?

इस समस्या को अभी हमने संबोधित ही नहीं किया है।


अंग्रेजी शासकों के युद्ध इतिहास में जो मिलिटरी गजट के नाम से मशहूर है,आदिवासी विद्रोहों का सिलसिलेवार विवरण है।


एक भी ब्योरा ऐसा उपलब्ध नहीं है जहां आदिवासियों की पीठ पर कोई घाव मिला है।

उन्होंने हमेशा सारे वार अपने सीने पर झेले हैं और आखिरी आदमी के खेत होने से पहले तक उनकी लड़ाई कभी भी खत्म नहीं हुई है।


इस इतिहास को देश की बाकी जनता अपना साझा गौरवशाली इतिहास अगर नहीं मानता,अगर आदिवासियों के स्वतंत्रतता संग्राम के तमम अध्याय हमारे इतिहास से बाहर हैं, तो हम एक राष्ट्र होने का दावा कैसे करते हैं,इस पर भी विचारमंतन होना चाहिए।


गैर आदिवासी जनसंघर्षों में शामिल नेतृत्वकारी लोग हमेशा सौदेबाजी औरसमझौते के अभ्यस्त रहे हैं।

गैर आदिवासी जनसंघर्षों में पलायन का लंबा इतिहास है।

तो क्या इस राष्ट्र में राष्ट्रीय जनआंदोलन के लिए हम आदिवासी नेतृत्व को स्वीकार कर लेने की हद तक लोकतांत्रिक हो सकता हैं,यह संवाद अब चलना ही चाहिए!


मेरे ख्याल स फिजूल के जाति विमर्श से ज्यादा जरुरी मसला यह है कि आदिवासी समुदायों को राष्ट्र की मुख्यधारा में कैसे लाया जाये और राष्ट्र के साथ उनकी युद्ध परिस्थितियां कैसे खत्म की जाये और भारतीय जनगण के जीवन मरण के जनसंघर्षों में हम आदिवासियों क कैसे नेतृत्वकारी भूमिका में लायें!


जो लोग आदिवासियों के हकहकूक की लड़ाई लड़ रहे हैं,उनको गरियाते रहने से ज्यादा कारगर पहल यह होगी कि गैरब्राह्मम जातियां खुद आदिवासियों की लड़ाई में शामिल हों!


यह आर्थिक अश्वमेध के वैदिकी हिंसा के समय सबसे बड़ी चुनौती है।


आज वर्षों बाद हमारी पत्रकारिता की शुरुआत के दो मुख्य जिम्मेदार लोगों में से एक कवि मदन कश्यप से पोन पर लंबी बात हुई। उर्मिलेश से बीच बीच में बातें होती रही हैं।


मदन जी से भी आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के फर्मैट पर सिलसिलेवार बातें हुईं। हमें खुशी हैं कि आदिवासियों के मामले में,राष्ट्रीयताओं के प्रश्नों प्रतिप्रशनों पर आज भी करीब पूरे तैंतीस साल बाद भी हमारे विचार समान हैं।


कवि मदन कश्यप भी मानते हैं कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाये बिना इस देश में परिवर्तन की कोई बात बेमानी है।


अब यह भी साफ कर दें कि जाति से मदन कश्यप भूमिहार हैं।

अब अगर संयोगवश अरुंधति राय,पी साईनाथ रोमा, इरोम शर्मिला,विनायक सेन, लेनिन रघुवंशी, अमलेंदु उपाध्याय,यशवंत सिंह,अखिलेंद्र प्रताप,शमशेर सिंह बिष्ट,राजीव लोचन साह,जोशी जोसेफ, सीमा आजाद, नंदिता दास, अभिराम मलिक, राम पुनियानी,इरफान इंजीनियर,शबाना आजमी, दारापुरी जी, आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, नीलाभ, सुधीर सुमन, हिमांशु कुमार, आनंद पटवर्धन, मेधा पाटकर,विजय कुजुर, प्रमोद कांवड़े, ताराराम मेहना, भास्कर वाखड़े, पाणिणि आनंद, साहिल,आलोक पुतुल, रविभूषण, रियाजुल हक, अभिषेक श्रीवास्तव,अजय प्रकाश,वीरेन डंगवाल,उत्तम सेनगुप्त, एचएल दुसाध,उदित राज जैसे तमाम लोग इस बिंदु पर सहमत हो जाते  हैं तो क्या इस मुद्दे पर विवेचन इन लोगों की जाति के मद्देनजर किया जाना चाहिए?

क्या हम इस समाज  वास्तव को खारिज कर देंगे,पहेली यह है।


विचार कहीं से आयें,अगर वे मूलनिवासी बहुजनों, देश के निनानब्वे फीसद आम जनता को गोलबंद करने में कामयाबी का रास्ता बतायें, तो उस विचार को खारिज करना आत्मघात के सिवाय कुछ नहीं है।


हमने कैडर बेस संस्थागत लोकतांत्रिक संगठनात्मक मार्क्सवादी संगठनात्मक ढांचा  अपनाकर फासीवादी जायनवादी हिंदू राष्ट्र के पैरोकार संघ परिवार की पूरे देश को नमोमय बनाने के करतब की चर्चा की है।


वे मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष के सबसे प्रबल प्रतिपक्ष हैं लेकिन फिरभी उन्होंने मार्क्सवादियों माओवादियों नक्सलवादियों की तुलना में भारतीय परिस्थितियों में मार्क्सवादी रणकौशल को बेहतर ढंग से आजमाकर दिखा चुके हैं।


इसे क्या आप उनके द्वारा मार्क्सवाद की स्वीकार कह सकते हैं,सोचिये!


बाबासाहब ने स्वीकृत वैज्ञानिक अकादमिक संवाद की पद्धति अपनायी।


बाबासाहब ने कभी कोई प्रवचन नहीं दिया।


बाबासाहब ने लिखित सुनियोजित वक्तव्य ही पेश किया हमेशा।

बाबासाहब ने  गंभीर मुद्दों पर विमर्श में विदूषक मनोरंजन का कारोबार नहीं किया।


विचार और पद्धति, साझा मोर्चे की रणनीति की तमीज के बिना अंबेडकरी आंदोलन मसीहावाद, व्यक्ति पूजा, कारोबार, सत्ता में भागेदारी  और स्थानीय क्षेत्रीय समीकरण के अलग अलग ब्रांड के आशाराम मंडप हैं या फिर कारपोरेट शापिंग माल।


किसी गंभीर मुद्दे या समस्या को संबोधित करने और सत्ता में,अवसरों में अपना हिसाब समझ लेने के सिवाय व्यापक जनता की गोलबंदी करने में नाकाम अंहबेडकरी आंदोलन ने अंबेडकर के तिरोधान के बाद उन्हें ईश्वर और अवतार जरूर बना दिया है,स्वाभिमान का साइक्लोन जरुर पैदा कर दिया है, लेकिन अंबेडकर अनुयायी भी आपस में संवाद करने की स्थिति में नहीं हैं।


दरअसल व्यक्ति केंद्रित तानाशाही से चलने वाले अंबेडकरी संगठनों में संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


सर्वोच्च शिकर से प्रवचित हुक्मनामा के तहत निरंतर भेड़ धंसान है।


भेड़ों के समूह में किसी मनुष्य को बोलने की इजाजत नहीं हैं।


इतिहास गवाह है कि जो संगठन लोकतंत्र और संवाद से परहेज करते रहे हैं, जनसंघर्षों और जनसरोकारों से उनका दूर दूर का कोई नाता नहीं है।


हालिया उदाहरण बंगाल में वामपंथी आंदोलन की आत्महत्या है। किसी भी स्तर पर संवाद से परहेज करते रहने से कब लाल जनाधार छीज गया,कब जन सरोकारों के बजाय कारपोरेत हितों का पर्याय बन गया संगठन, बूढ़़े ब्राह्मण नेतृत्व को पता ही नहीं चला।


उसी तरह किसी को खबर नहीं है कि अंबेडकर का नाम जापते जापते कब हमने अंबेडकर की विचारधारा और आंदोलन दोनों को तिलांजलि दे दी।


बंगाल में सबसे ज्यादा अबंडकरी विचारधारा के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और सबसे ज्यादा संगठन हैं,जिनके किसी दो समूहों के भी एक साथ बैठने का इतिहास नहीं है।

नतीजा है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण वर्चस्व का रोना रोने के बावजूद बंगाल शायद एक मात्र राज्य है भारतभर में, जहां आजादी के बाद से अब तलक जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति या पिछड़ी जाति का कोई प्रथम पुरुष या प्रथम नारी नहीं है।


परिवर्तन आता है तो हमारे ही मूलनिवासी बहुजन लोग,हमारे मतुआ संप्रदाय के लोग,दलित मुसलमान,पिछड़े और आदिवासी मिलकर बुद्धदेव भट्टाचार्य के बदले ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री चुन लेते हैं।


ये तमाम समुदाय अपने में से किसी को नेता मानने या अपने में से किसी की सुनने के लिए भी तैयार नहीं हैं।


कुल मिलाकर बाकी देश में भी यही किस्सा है।


बहुजन राज में उत्तर प्रदेश में जाति के आधार पर सबसे ज्यादा उत्पीड़न हुए तो अंबेडकर जन्मदिन और अंबेडकर तिरोधान दिवस को गणेशोत्सव की तर्ज पर धूम धड़ाके से मनाने वाले मराठी मूलनिवासी रिपब्लिकन पार्टी और बामसेफ के हजार धड़ों के अलावा हजारों संगठनों में खंडित विखंडित हैं।


हालत यह है कि सभी अंबेडकरी संगठनों के संयुक्त मोर्चा बनने के बजाय वहां शिवशक्ति और भीमशक्ति की युति बनते।


बाबा साहेब अगर जिंदा होते तो इतना शर्मिंदा होते कि बिना मधुमेह चुलुलूभर पानी में डूब जाते कि क्या समझकर उन्होंने मूक भारतीयों के हक हकूक की आवाज उठायी,जिन्हें अपनों से ही लड़ने से फुरसत नहीं मिलती!


मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों, समामाजिक शक्तियों , पेशेवर समूहों, आदिवासियों, पिछड़ों और आदिवासी समूहों के साथ दलितों का साझा मोर्चा बनाने का जिम्मा तो हमीं लोगों ने वामपंथियों के हवाले कर दिया है और उनके ब्राह्मण नेताओं के मातहत संगठित हो जाने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।


फिर भी हम सवाल खड़े करने वाले अपने ही लोगों को कम्युनिस्ट, कारपोरेट,संघी, ब्राह्मण, दलाल,भड़ुवा कुछ भी कहकर उसकी अलग आवाज तानाशाह ढंग से दबाने में कोई परहेज नहीं करते।


मसीहागिरि और प्रवचन के अंध भक्त भी हमीं तो।

एक दूसरे की खुफिया निगरानी,एक दूसरे के खिलाफ आरोप गढ़ने और उन्हें साबित करने में ही खप जाती है सारी ताकत।


दरअसल हालत तो यह है कि भारत में ब्राह्मण अपने जाति संस्कारों से ऊपर उठकर भी अगर ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़े हो सकते हैं, तो हमारे लोग मूलनिवासी बहुजन और अंबेडकर के अनुयायी लोग ही हर कीमत पर ब्राह्मणवाद कोजिंदा रखने पर उतारु है क्योंकि इसी जुगाड़ से उनका कारोबार और धंधा चलता है, ब्राह्मणों की सत्ता में भागेदारी मिल सकता है।



 क्योंकि मुश्किल यह है कि अनुसूचित जातियों, पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और यहां तक कि जो आदिवासियों के संगठन चला रहे हैं, वे इस विचार से हमारी जानतकारी के मुताबिक कतई सहमत नहीं हैं और न कोई पहल इस दिशा में करने के लिए वे सात दशकों की हिमालयी भूल के बावजूद तैयार हैं।


अजब पाखंड है कि जिन्हें आप मूलनिवासी बहुजन आबादी की मुख्य शक्ति वैचारिकस्तर पर मानते हैं और उनसे अपना इतिहास और रक्त संबंध जोड़ते हैं, हकीकत में आप अपनी बिरादरी में उन्हें शामिल करने को कतई तैयार नहीं हैं।


संगठन चाहे जो बने हों, आप हमें एक उदाहरण देकर बतायें कि गैरब्राह्मण तमाम जनसमुदायों ने देश में कभी कोई साझा आंदोलन किया हो।


यूं तो मसीहा संप्रदाय के लोग मुझे पहले से कारपोरेट एजंट और रामदास अठावले का अवतार बता रहे हैं।


इस यक्षप्रश्न के बाद अगर देश भर में मुझे ब्राह्मण घोषित कर दिया जाये तो ताज्जुब न होगा। इसीतरह जाति अस्मिता के संकीर्ण दायरे में हम अपने सरोकारों और बेहद जरुरी मुद्दों को अतिसरलीकृत फासीवादी रवैये  के तहत तिलांजलि देकर वैश्विक त्रिइब्लिसी शैतानी तिलिस्म में माथा कूटते रहेंगे,प्रश्न यह भी है।


नियमागिरि पर सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है या खनिज मामले में जैसे जमीनमालिक के अधिकारों को सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित किया, उसके तहत भारतीय संविधानलागू करने के आदिवासियों के आंदोलन में हां, ब्राह्मण वर्चस्व को दरकिनार करके कोई साझा आंदोलन मुक्तिकामी बहुजन मूलनिवासी अंबेडकरी कोई संगठन कब शुरु करें,मुझे बेसब्री से इसका इंतजार है। आदिवासी मुद्दों पर गैर ब्राह्मण भारतीय जनांदोलन में बतौर कार्यकर्ता खपने में मुझे गौरव महसूस होगा।



Gopal Rathi

आजकल ये आदिवासी ज्यादा बोलने लगे है.....

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आज एक जिला स्तरीय बैठक में बड़ा गजब हुआ है एक जिला पंचायत के सदस्य श्री फागराम जी, जो आदिवासी समाज के है, ने बड़ी दिलेरी के साथ होशंगाबद्द जिले के केसला ब्लाक के तामु रोड पर बनने वाले मिनरल वाटर और शराब फेक्ट्री का विरोध किया जिसकी स्वीकृती राज्य शासन ने ( पत्रांक नवीन विनिर्माण इकाई D-1/शासन FB-1-43/2011/12/5 दिनांक 16/2/2012) दे दी है, उन सदस्य महोदय ने राज्य शासन के दो वरिष्ठ मंत्रियों और जिले के

सभी अधिकारियों के सामने दिलेरी से कहा कि यह फेक्ट्री अगर खुल गई तो केसला ब्लाक के किसानों को पानी की दिक्कत हो जायेगी क्योकि फेक्ट्री तो बड़े -बड़े, मोटे- मोटे ट्यूबवेल बनाएगी और जमीन में घुसकर तीन हजार फूट से भी पानी ले आयेगी, साथ ही शराब बनाने के लिए लाखो टन अनाज बर्बाद कर देगी, इन सदस्य महोदय ने यह भी कहा कि केसला ब्लाक में 314 बच्चे गंभीर कुपोषित है, आदिवासियों को खाने को मिल नहीं रहा ऐसे में सरकार यह शराब की फेक्ट्री डालकर क्या विकास करना चाहती है और किसकाविकास...वे इस बैठक की जमकर तैयारी करके आये थे उन्होंने आंगवाड़ी, प्राथमिक स्वास्थय केंद्र, पोस्टमार्टम रूम, स्कूल, वन विभाग के भी बहुत ही जोरदार मुद्दे तथ्यों के साथ इस अंदाज में उठाये कि मन प्रसन्न हो गया. हालांकि मंत्रीद्वय और प्रशासन के अधिकारियों को उनकी सारी बातें नागवार गुजर रही थी मुझे ऐसा लगा, पर उनकी बातों में जो दम था और सारे तर्क इतने अकाट्य प्र ठोस थे कि थे जिले के अधिकारी उनके होम वर्क पर जवाब नहीं दे पा रहे थे और सिर्फ सतही बातें कर रहे थे. बैठक खत्म होते ही मै उन श्रीमान जी को खोज रहा था कि उन्हें ग्राम सभा के प्रावधानों के बारे में बताऊ कि "म प्र पंचायती राज और ग्राम स्वराज अधिनियम" के तहत राज्य शासन ग्राम सभा से पूछे बगैर किसी भी तरह के काम की स्वीकृती नहीं दे सकती यदि वह काम ग्राम पंचायत में आता है तो, पर वे मिल नहीं पाए. पर मै उन्हें खोज कर ही रहूंगा और उनसे मिलकर बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है. अधिकारीगण बैठक के बाद जैसा कि होता है कह रहे थे आजकल ये आदिवासी ज्यादा बोलने लगे है.....

( सिवनी मालवा विधान सभा क्षेत्र से समाजवादी जन परिषद् के उमीदवार फागराम के बारे में

यॊजना आयोग कीं ओर से होशंगाबाद जिला योजना समिति में शामिल रहे साथी संदीप नाइक के अनुभव )



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कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें

हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों.

-अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य


  1. Walking With The Comrades | Arundhati Roy - Outlook

  2. www.outlookindia.com/article.aspx?264738-1

  3. Mar 29, 2010 - Arundhati Roy plunges into the sea of Gondi people to find some answers... ... degradation and rights violations of the Dongria Kondh tribe.

  4. Arundhati Roy: 'They are trying to keep me destabilised. Anybody ...

  5. www.theguardian.comCultureBooksArundhati Roy

  6. Jun 5, 2011 - I bump into Arundhati Roy as we are both heading for the loo in the foyer of ... the government's attempts to develop and mine land on which tribal people live. ...It's all right for the establishment to be as shrill as it likes about ...

  7. Arundhati Roy answers a right-winger what she likes about India ...► 6:16► 6:16

  8. www.youtube.com/watch?v=VP-1-RTOgfE

  9. Aug 9, 2013 - Uploaded by Amith Belur

  10. Arundhati Roy responding to a right-winger mentions Gujarat violence, the tribal resistance in the war torn ...

  11. Tribal people in India live in extreme poverty: author - ABC

  12. www.abc.net.au/correspondents/content/2011/s3271037.htm

  13. Jul 17, 2011 - Most tribal people live in extreme poverty and many are now in a fight with the state and miners over rights to their land. Arundhati Roy spent ...

  14. "Walking with the Comrades," by Arundhati Roy - Washington Post

  15. articles.washingtonpost.comCollectionsBig Business

  16. Dec 16, 2011 - For over a decade now, the writer Arundhati Roy has served as India's most ... speeches and books, Roy has attacked both the country's religious right wing... in central India are home to millions of indigenous tribal peoples.

  17. Indian writer Arundhati Roy threatened with prosecution under anti ...

  18. www.wsws.org/en/articles/2010/04/aroy-a26.html

  19. Apr 26, 2010 - "I do not know," said Ranjan, "whether Arundhati Roy has been wrongly... rights and using indiscriminate violence in suppressing the Maoists. ... In order for the MOUs to translate into real money, tribal people must be moved.

  20. arundhati roy « Revolution in South Asia

  21. southasiarev.wordpress.com/tag/arundhati-roy/

  22. Mar 23, 2012 - Posts about arundhati roy written by redpines, hetty7, Harry Sims, and irisbright. ... In the area that I visited, there was mostly one tribe, called the Gonds. ...there has been a sort of incipient Maoist movement which has right ...

  23. Rediff On The NeT: The Rediff Interview/Mahasweta Devi - Rediff.com

  24. www.rediff.com/news/dec/24devi.htm

  25. Dec 24, 1997 - An interview with Magsaysay Award-winner, Mahasweta Devi, the Bengali novelist. ... She has worked with the Kheria-Shabar tribals in Purulia, West Bengal, .... written with Birsa Munda's rebellion as the background, won the ...

  26. India Together: Year of Birth 1871: India's denotified tribes

  27. www.indiatogether.org/bhasha/budhan/birth1871.htm

  28. Mahasweta Devi on India's Denotified Tribes March 2002: I have been going ...experience of India's poor. And, amongst them, India's tribals share a worse fate.

  29. Birsa Munda - Wikipedia, the free encyclopedia

  30. en.wikipedia.org/wiki/Birsa_Munda

  31. As the tribals with their primitive technology could not generate a surplus, ... Ramon Magsaysay Award winner, writer-activist Mahasweta Devi's historical fiction, ... for Bengali in 1979, is based on his life and the Munda Rebellion against the ...

  32. You visited this page on 14/11/13.

  33. Who is killing the tribals? | The Caravan - A Journal of Politics and ...

  34. www.caravanmagazine.inOpinionsPerspectives

  35. By MAHASWETA DEVI | 1 June 2010 .... The naxalite movement derived its name from a peasant uprising that began in the village of Naxalbari in May 1967.

  36. THE TRIBAL REVOLT | Anarchy India

  37. anarchyindia.wordpress.com/the-tribal-revolt/

  38. Apart from these, the Chenchu revolt in the Nallamalai Hills (1898), the upsurge of the... Aruna Roy, Mahasweta Devi et al. firmly believe that the adivasis may ...

  39. Legacies of a colonial state - Himal Southasian

  40. himalmag.com/component/content/article/5143-.html

  41. Jan 25, 2013 - Your book describes how Adivasi rebellions, one after another (especially in ... is at the mercy of academia, barring of course, Mahasweta Devi.

  42. [DOC]

  43. Imaginary Maps

  44. www2.warwick.ac.uk/fac/arts/english/currentstudents/.../devinle.doc

  45. "The Hunt", "Draupadi" and "Pterodactyl": Short stories by Mahasweta Devi ... Tribalsare the indigenous people of India, also known as adivasis or forest dwellers. ... The first such political uprising took place in the village of Naxalbari in West ...

  46. Mahashveta Devi: An Intimate View

  47. revolutionarydemocracy.org/rdv5n2/devi.htm

  48. Mahashveta Devi's contribution to Bengali literature as a fiction writer has ... who valiantly fought against British colonialism during the great Indian revolt of 1857. ... of Indian tribals since independence has won her the rank of a living deity.

  49. Devi, Mahsweta Postcolonial Studies @ Emory

  50. postcolonialstudies.emory.edu/mahsweta-devi/

  51. Mahasweta Devi was born in 1926 in the city of Dacca in East Bengal (modern ...which started in the Naxalbari region of West Bengal, began as a rural revolt of landless... in a 1998 interview, Devi replied: "Fight for the tribals, downtrodden, ...

  52. [PDF]

  53. Reflections on Adivasi Silence: An Interview with the ... - Asiatic IIUM

  54. asiatic.iium.edu.my/article/Asiatic%207.../Anu%20Asokan.interview.pdf

  55. An eminent social activist and well-known writer in India, Mahasweta Devi. (1926-) has written about ... all over the country and her support and hard work for the liberation oftribals ..... Birsa Munda rebellion was not well-known to the readers ...


इस व्यवस्था को टूटना ही है: अरुंधति राय

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/07/2013 01:30:00 PM



हमारे इस दौर में अरुंधति राय एक ऐसी विरल लेखिका हैं जो सरकारी दमन, अन्याय और कॉरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ पूरी निडरता और मुखरता के साथ लगातार अपनी कलम चलाती रहती हैं। वह समाज के सबसे वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े लोगों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ी रहती हैं। प्रस्तुत है पूंजीवाद, मार्क्सवाद, भारतीय वामपंथ, भारतीय राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनसे  नरेन सिंह राव की बातचीत। समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित और इसके संपादक की अनुमति से हाशिया पर साभार.



आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?

मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गई है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गए हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं - हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।


लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?

पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका 'फर्ज' बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।


मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।


जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गए हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।

जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?

देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए - भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स  सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी - क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ - वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।

क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है?

मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गए हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।

हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अण्णा हजारे ...

अण्णा हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गए। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है - चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। ... जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं... जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ 'इस बलात्कार' के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?

क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं?

देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां 'चेक एंड बैलेंस' का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता - भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि 'उनके छोटे बनिये' दांव पर लग गए हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।


दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।

भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?

मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।


मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!

भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?

माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गई है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गए हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गई (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।

क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं?

हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है... मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।


मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।

हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं?

मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं... लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं 'क्लास पोर्नोग्राफी' कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना 'ट्रिवियल' होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?

देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी 'जन आंदोलन' होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।

जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें।

देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गई थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गए? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गए। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाए। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।


अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।

वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है?

देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गए और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!

और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है...

सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।


(नरेन सिंह राव मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं और सिनेमा तथा साहित्य में दखल रखते हैं।)

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आदिवासी देश बेचना नहीं बचाना चाहते हैं

by Mukesh Kumar

अनपढ़ होने के बावज़ूद इतना होशियार बनने की कोशिश कर रहे हो. जरा सोचो, अगर पढ़े-लिखे होते तो देश को बेच देते. (इंडियन एक्सप्रेस, 1अगस्त, 2013). अगर इस अखबार में छपे ये शब्द सही हैं, तो ये शब्द हमसब को सोचने के लिए मजबूर करते हैं. मजबूर इसलिए करते है कि ये शब्द और किसी ने नहीं, एक जज ने उन आदिवासियों से कहे जो पल्लीसभा (ग्रामसभा) में हिस्सा लेने आए थे. ये पल्लीसभा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बुलाई गई थी. आदिवासियों को अपनी राय देनी थी कि वे नियमगिरि पहाड़ियों पर बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता को बॉक्साइट के खनन की अनुमति देंगे या नहीं. उनकी राय खिलाफ में थी. इसी क्रम में आदिवासियों पल्लीसभा में पेश किए गए प्रस्ताव की कॉपी मांग ली. उक्त अखबार में छपे शब्द की माने, यदि ये सही हैं, तो जज साहब को यह कृत्य किसी बड़े अपराध से कम नहीं लगा. ये अपराध भी ऐसा-वैसा नहीं, देशद्रोह जैसा. उन आदिवासियों के देशद्रोह का जिन्हें शायद ठीक-ठीक ये भी पता नहीं होगा कि देश होता क्या है, किसका होता है, किसके लिए होता है.

गजब की विडंबना है कि देश को बेचने में लगे लोग देशभक्त होने का तमगा लगाकर घूम रहे हैं, खुद को राष्ट्रवादी घोषित कर रहे हैं और जो जल, जंगल, जमीन से जुड़े हुए हैं, उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनसे कहा जा रहा है कि अगर वे पढ़े-लिखे होते तो देश बेच देते. आदिवासियों में तो खरीदने बेचने की संस्कृति ही नहीं होती और जो थोड़ी बहुत है, वह हमारे सभ्य समाज की ही देन है. उनकी आवश्यकताएं इतनी सीमित होती हैं कि उन्हें बाजार की बहुत कम जरूरत पड़ती है. ऐसे में वे अपनी कौन-सी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए देश को बेच देंगे? जाहिर है कि उनके बारे में ऐसी बात करना सरासर निराधार एवं अन्यायपूर्ण है.

सवाल उठता है कि कोई कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है? क्या सचमुच ऐसा लगता है कि आदिवासियों की बढ़ती जागरूकता देश के लिए खतरा है और वे अगर पढ़-लिख गए, तो देश बेच डालेंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि ये टिप्पणी समूचे शासक वर्ग की उस सोच को भी प्रतिबिंबित करती है, जिसमें आदिवासियों की भलाई को लेकर कोई उत्साह और प्रतिबद्धता नहीं है. वह उनसे यही अपेक्षा करता है कि ये शक्तिहीन, साधनहीन लोग उनके आदेशों पर केवल सहमति में सिर हिलाएं. क्या उन्हें लगता है कि आखिर आदिवासियों को विकास, योजनाओं औद्योगीकरण आदि की कोई समझ तो है नहीं, बस अपनी आदिम आस्थाओं और प्राचीन जीवनशैली के लिए वे रोड़े अटकाने के लिए खड़े हो गए हैं. दरअसल, ये मामला शासक वर्ग के अंदर अवचेतन में बैठे पूर्वाग्रहों का भी है. वह आदिवासियों से पूरी तरह अपरिचित है, उनसे किसी तरह का संबंध नहीं रखता. उसके सौंदर्यबोध के हिसाब से आदिवासियों की कद-काठी राक्षसों वाली है. उनका रहन-सहन उसे पिछड़ा लगता है और पिछड़ेपन को लेकर उसके अंदर इतनी अधिक नफरत भरी हुई है कि उसे वह सहन नहीं कर पाता. आदिवासी उसके लिए कौतूहल की चीज हो सकते हैं. कभी-कभार थोड़ी-बहुत सहानुभूति भी जाग जाती होगी, मगर अब विकास की राह में बाधा के रूप में उनकी शिनाख्त की जाती है. कुछ हिस्सों में माओवाद का रास्ता अख्तियार करने के बाद तो उन्हें वह वर्ग-शत्रु भी मानने लगा है.

वैसे इसकी एक बड़ी वजह गैर सरकारी संगठन और माओवादी भी हो सकते हैं. अधिकारी वर्ग में ये मान्यता बन चुकी है कि एनजीओ और माओवादियों ने आदिवासियों का बहका दिया है, उनका ब्रेनवाश कर दिया है. उन्होंने इसे जमकर प्रचारित भी किया है, इसलिए एक बड़े वर्ग में दुराग्रह के रूप में ये स्थापित हो चुका है. ये सही है कि आदिवासियों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना पैदा करने और पर्यावरण के पक्ष में लामबंद करने में ढेर सारे एनजीओ ने बड़ी भूमिका निभाई है. इसके अलावा माओवादियों के संरक्षण ने उन्हें हिम्मत और हौसले दिए हैं, जिससे पुलिस और प्रशासन का खौफ एक हद तक उनके मन से निकल चुका है. ऐसे में वे तमाम कॉर्पोरेट कंपनियों और विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन करने की छूट देने वाले शासनतंत्र की आंखों में बुरी तरह खटकते भी हैं.

कालाहांडी और रायगढ़ जिले की नियमगिरि पहाड़ियों में यही हो रहा है, इसीलिए ओड़ीसा का शासनतंत्र बुरी तरह खीझा हुआ है. उसे लग रहा है कि आदिवासियों की वजह से उसका पूरा खेल ही बिगड़ गया है. बारह में से नौ पल्लीसभाओं ने वेदांता को पहाड़ी के शिखर पर खनन करने की अनुमति देने से मना कर दिया है और ये लगभग तय है कि बाकी का रुख भी यही होगा. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य सरकार ने आदिवासियों की पल्लीसभाओं से सहमति हासिल करने के लिए तमाम तिकड़में की थीं, मगर उसे कामयाबी नहीं मिलती दिख रही. मगर पल्लीसभाओं की मंज़ूरी न मिलने का मतलब है, हजारों करोड़ के निवेश का चला जाना. ये निवेश होता तो बहुतों की जेबें भरतीं, उनकी संततियां तर जातीं. अलबत्ता बड़ी तादाद में आदिवासी विस्थापित होते, पुनर्वास के झूठे वादों से छले जाते और फिर शहरों में पलायन करके मजदूरों की तरह जीवन जीने के लिए विवश हो जाते.

लिहाजा, उन तमाम लोगों के लिए ये बहुत बड़ी राहत की बात है, जो पर्यावरण के विनाश को देख पा रहे हैं और बहुराष्ट्रीय निगमों की लूट के विरूद्ध खड़े हैं. वेदांता को रोक पाना तो एक बड़ी उपलब्धि होगी, क्योंकि वह एक बेहद बदनाम कंपनी है. ब्रिटेन की इस कंपनी ने भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी पर्यावरण के नियमों का जबरदस्त उल्लंघन किया है. इसलिए उसकी हार से एक बड़ा संकेत चारों तरफ जाएगा.

http://hindi.gulail.com/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6-%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%AC%E0%A4%9A/



आदिवासी, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र

रामचंद्र गुहा

अनुवादः अभिषेक श्रीवास्तव


यह आलेख इस तथ्य को स्थापित करता है कि भारत में विकास और लोकतंत्र का लाभ छह दशकों के दौरान समूचे आदिवासी समाज को सबसे कम प्राप्त हुआ है और उसने सबसे ज्यादा गंवाया है. लेख में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि यह तबका दलितों से भी ज्यादा वंचित है. हालांकि, आदिवासी अपने असंतोष को लोकतांत्रिक और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से प्रभावी रूप से आवाज़ दे पाने में अक्षम रहे हैं, जबकि दलितों को यह मौका मिला है. आदिवासियों के संदर्भ में राज्य और समूचे राजनीतिक ढांचे की विफलता ने ही माओवादी क्रांतिकारियों को इनके बीच प्रवेश करने का अवसर और जगह प्रदान किया है. आदिवासियों के बीच नक्सली प्रभाव के कारणों की पड़ताल के बाद यह आलेख निष्कर्ष देता है कि आदिवासी भारत के मौजूदा दौर में दो त्रासदियों का शिकार बन कर रह गया है. पहली त्रासदी यह है कि राज्य ने अपने ही आदिवासी नागरिकों के प्रति अहसान भरा नज़रिया रखते हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया है, और दूसरी यह कि उनके संरक्षक माने जाने वाले नक्सलियों के पास भी उनके लिए कोई दीर्घकालिक समाधान मौजूद नहीं है.

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समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि सरकारी परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी आदिवासी मूल का है.


जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में संकल्प प्रस्ताव रखा था जिसमें यह घोषणा की गई थी कि जल्द ही औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले इस राष्ट्र का चरित्र 'स्वतंत्र सम्प्रभु गणराज्य' का होगा. इसका संविधान अपने नागरिकों को 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; अवसरों और दर्जे की समानता; तथा कानून के समक्ष व सार्वजनिक नैतिकता और कानून के दायरे में विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्रवाई की स्वतंत्रता' की गारंटी देगा.


प्रस्ताव में आगे कहा गया था, 'अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, आदिवासी इलाकों, उत्पीड़ितों और अन्य पिछड़े तबकों के लिए पर्याप्त सुरक्षा कवच मुहैया कराया जाएगा....' प्रस्ताव रखते वक्त नेहरू ने गांधी की भावना और 'भारत के महान अतीत' के साथ ही फ्रेंच, अमेरिकी और रूसी क्रांति जैसी आधुनिक राजनीतिक परिघटनाओं की भी हवाला दिया था.


संकल्प प्रस्ताव पर बहस पूरे एक सप्ताह तक चलती रही जिसमें वक्ताओं में प्रमुख थे- संरक्षणवादी हिंदू पुरुषोत्तमदास टंडन, दक्षिणपंथी हिंदू श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दलित नेता बी आर अम्बेडकर, अधिवक्ता एम. आर. जैकर, समाजवादी एम. आर. मसानी, अग्र्रणी महिला आंदोलनकारी हंसा मेहता और कम्युनिस्ट सोमनाथ लाहिड़ी. इन तमाम दिग्गजों के बाद ईसाई धर्म अपना चुके एक पूर्व हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह बोलने के लिए उठे और उन्होंने शुरुआत कुछ यूं की-


" एक जंगली और एक आदिवासी के तौर पर मुझसे उम्मीद नहीं की जाती है कि मैं इस प्रस्ताव की सूक्ष्म कानूनी जटिलताओं को समझूंगा. लेकिन, मेरी सामान्य समझ यह कहती है कि हम सबको मिलकर स्वतंत्रता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए और साथ लड़ना चाहिए. मान्यवर, यदि भारतीय जनता का कोई भी ऐसा समूह है जिसके साथ दरिद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया है, तो वे मेरे लोग हैं. पिछले 6000 वर्षों से इनकी उपेक्षा की जा रही है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हो रहा है. सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास जिसकी मैं पैदाइश हूं, स्पष्ट तौर पर यह दिखाता है कि यहां आए अतिक्रमणकारियों ने ही मेरे लोगों को सिंधु घाटी से जंगलों में खदेड़ दिया था. जहां तक मेरा सवाल है, यहां मौजूद आप में से अधिकतर इन्हीं में शामिल हैं. हमारे लोगों का सम्पूर्ण इतिहास बाहर के आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर शोषण और बेदखली का इतिहास रहा है, जिस पर समय-समय पर विद्रोहों और असंतोष ने लगाम कसने का काम किया है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू के शब्दों पर विश्वास जाहिर करता हूं. मैं आप सभी के शब्दों पर भरोसा जाहित करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय शुरू करने जा रहे हैं-स्वतंत्र भारत का नया अध्याय जहां अवसरों की समानता होगी और जहां किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी."


साठ साल बीत गए जब जयपाल ने नेहरू और अन्य लोगों के शब्दों को पकड़ा था. सवाल उठता है कि इस वक्त उनके लोगों यानी आदिवासियों का भाग्य कहां तक पहुंचा है? यह आलेख तमाम तरीकों से इस तर्क को स्थापित करेगा कि भारतीय प्रायद्वीप के आदिवासी लोकतांत्रिक विकास के छह दशकों के अचिन्हित शिकार रहे हैं. उन्हें इस दौरान लगातार व्यापक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र द्वारा शोषित और बेदखल किया जाता रहा है (ठीक इसी दौरान बेदखली की इस प्रक्रिया के समानान्तर भड़के असंतोष और विद्रोहों ने इस पर लगाम भी कसी). ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि हम अन्य अवसरविहीन समूहों जैसे दलितों और मुस्लिमों के साथ आदिवासियों की सनातन वंचना की तुलना करें, तो यह हमें चौंकाता है. एक और जहां लोकतंत्र व प्रशासन पर राष्ट्रीय विमर्शों को आकार देने और गढ़ने में दलितों और मुस्लिमों का कुछ प्रभाव मौजूद रहा है, वहीं दूसरी ओर इनकी तुलना में आदिवासी न सिर्फ हाशिए पर बल्कि अदृश्य रहे हैं.

1.

भारत में करीब 8.5 करोड़ की आबादी ऐसी है जिसे आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. इनमें से करीब 1 करोड़ 60 लाख पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रहते हैं. हालांकि, इस आलेख में मोटे तौर पर उन सात करोड़ आदिवासियों के बारे में बात की गई है जो भारत के हृदय में निवास करते हैं, जो कमोबेश उस पहाड़ी और जंगली क्षेत्र में आता है जिसका विस्तार गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल तक विस्तारित है.


पूर्वोत्तर के आदिवासी देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों से कई निर्णायक मायनों में बुनियादी तौर पर भिन्न हैं. पहली बात, कि हाल के ही कुछ दिनों तक वे हिंदू प्रभाव से कमोबेश अछूते रहे थे. दूसरे, पर्याप्त मात्रा में उनका जुड़ाव आधुनिक शिक्षा, खासकर अंग्रेजी के साथ रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके बीच साक्षरता दर अधिक है और इसलिए देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों की तुलना में आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने के उनके अवसर भी ज्यादा हैं. तीसरी बात यह कि वे अब तक बेदखली से उपजे सदमे से बचे रहे हैं जिसका सामना देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों को करना पड़ा है. भौगोलिक रूप से देखें, तो देश के एक कोने में उनकी अवस्थिति बांध निर्माताओं और खाद्यान्न मालिकों को उनके पास फटकने से रोके हुए है.

जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है.

अनुसूचित जनजाति के दर्जे में आने वाले तमाम जनजातीय समुदायों की संख्या 500 से भी ज्यादा है. हालांकि, इनके बीच के आंतरिक फर्क को अगर छोड़ दें, तो मोटे तौर पर मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी एक समान सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तत्वों को साझा करते हैं जिसके चलते हमें उन्हें एक इकाई के रूप में देखने को बाध्य होना पड़ेगा. इसके अलावा इसी वजह से वे न सिर्फ पूर्वोत्तर के आदिवासियों, बल्कि भारत के शेष निवासियों से भी भिन्न है. रोजमर्रा की भाषा में अगर कहें तो हम इनके बीच की समानता को एक शब्द 'आदिवासी' में पिरो सकते हैं. लेकिन, इसी शब्द को एक नगा या मिजो के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. हालांकि, जब हम किसी गोंड, कोरकू, भील या उरांव की बात करते हैं तो बड़ी आसानी से ये शब्द खुद-ब-खुद जुबान पर आ जाता है क्योंकि ये आदिवासी समुदाय किसी-न-किसी समानता को आपस में लिए हुए हैं. आम तौर पर जिन चीजों को वे साझा करते हें, वे उनके सांस्कृतिक या पारिस्थितिक जीवन का हिस्सा होती हैं. मसलन, ये आदिवासी आम तौर पर ऊंचे इलाकों या कहें जंगलों में रहते हैं. हिंदुओं की तुलना में ये अपनी महिलाओं से बहुत बेहतर व्यवहार करते हैं. संगीत और नृत्य की इनकी परम्परा बहुत समृध्द है, कभी कभार भले ही वे विष्णु या शिव के किसी अवतार की पूजा कर लें, लेकिन उनके त्यौहार और कर्मकाण्ड ग्राम देवताओं व आत्माओं के ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.


आदिवासियों की रोजमर्रा के जीवन के बारे में यह समझ पिछले कई वर्षों के दौरान लिखे उनके जातीय इतिहास पर आधारित है. भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, हालांकि आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाला तत्व उनकी सांस्कृतिक या पारिस्थितिक भिन्नता नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक अवसरविहीन परिस्थितियां हैं. जैसा कि हाल ही में अपनी पुस्तक में जनसांख्यिकी विद अरुप महारत्ना ने बताया है, कि जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है. मसलन, आदिवासियों में साक्षरता दर 23.8 फीसदी है जो दलितों की साक्षरता दर 30.1 फीसदी के मुकाबले काफी कम है. स्कूलों में नाम लिखाने वाले कुल आदिवासी बच्चों में से 62.5 फीसदी मैट्रिक से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं जबकि दलितों में यह स्थिति सिर्फ्र 49.4 फीसदी बच्चों के साथ है. चौंकाने वाली बात यह है कि भारत के दलितों की 41.5 फीसदी आबादी जहां सरकार द्वारा तय की गई गरीबी रेखा से नीचे रहती है, वहीं इस कोटे में आने वाले आदिवासियों की संख्या तकरीबन आधी यानी 49.5 फीसदी है.


स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में देखें तो, दलितों की तुलना में आदिवासियों की हालत यहां भी खराब है. डॉक्टरों और क्लीनिकों तक पहुंच से जहां 28.9 फीसदी आदिवासी वंचित रह जाते हैं, वहीं दलितों में यह स्थिति 15.6 फीसदी के साथ है. आदिवासी बच्चों में सिर्फ 42.2 फीसदी का ही टीकाकरण हो पाता है जबकि दलितों में यह दर 57.6 फीसदी है. स्वच्छ जल तक 63.6 फीसदी दलितों की पहुंच है जबकि आदिवासियों में यह स्थिति 43.2 फीसदी है.

एक ओर जहां भारत सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं आदिवासियों को उपलब्ध न कराकर उनके सामाजिक और आर्थिक विकास सम्बन्धी संवैधानिक गारंटी का असम्मान किया है, वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियों में ज्यादा सक्रिय तरीके से तमाम आदिवासियों को उनकी परम्परागत जीवनशैली और आजीविका से बेदखल कर दिया है. गौरतलब है कि भारत के आदिवासियों की रिहाइश यहां के सबसे बेहतरीन जंगलों, तेज प्रवाह वाली नदियों और सम्पन्नतम खनिज संसाधनों के बीच पारम्परिक रूप से रही है, प्रकृति के साथ इसी निकटता ने उनके अस्तित्व के लिए साधन भी मुहैया कराएं हैं. हालांकि, आजादी के बाद जैसे-जैसे आर्थिक और औद्योगिक विकास की गति बढ़ती गई, आदिवासियों को व्यावसायिक वानिकी, बांधों और खदानों के लिए रास्ता खाली करना पड़ा. अक्सर आदिवासी उन दबावों और परिणामों के चलते विस्थापित हो जाते हैं जिन्हें आम तौर पर 'विकास' का नाम दिया जाता है और कभी-कभार इसलिए क्योंकि इसी विकास का एक अन्य आधुनिक पर्याय भी परिदृश्य में काम करता है जिसे तथाकथित 'संरक्षण' कहा जाता है. इस तरह, बड़ें बांधों और औद्योगिक नगरों के अलावा आदिवासियों को बेघर करने में राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का भी हाथ रहा है.

हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें उनकी जमीन चाहिए थी और अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने तरीके से उसी हाल में खेती कर रहे हैं जैसे हमने उनके पास छोड़ा था.


आखिर कितने आदिवासी इस सचेतन सरकारी नीति के चलते अपना घर-बार और जमीनें खो चुके हैं.? आकलन बताते हैं कि इनकी संख्या 2 करोड़ तक हो सकती है. संभव है कि हम इस सवाल का कोई सटीक जवाब न दे पाएं कि भारत सरकार की नीतियों की वजह से कितने आदिवासियों को उनकी इच्छा के विरुध्द विस्थापित होना पड़ा है, लेकिन इसका एक मोटा जवाब यही होगा 'कई सारे'. समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि सरकारी परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी आदिवासी मूल का है. चूंकि, भारत की आबादी का तकरीबन 8 फीसदी आदिवासी ही हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि एक आदिवासी पर एक गैर आदिवासी की तुलना में 5 गुना ज्यादा खतरा विकास या/और संरक्षण का होता है जिसके लिए उससे जबरन उसका आशियाना छोड़ देने को बाध्य किया जाता है.


आदिवासियों को उनकी जमीनों और गांवों से विस्थापित किए जाने की प्रक्रिया तब शुरू हुई जब राज्य की भूमिका अर्थव्यवस्था में नियंता की स्थिति तक पहुंच गई. आज भी उन्हें उदारीकरण और भूमंडलीकरण के तहत विस्थापित किया जाना जारी है. भारतीय अर्थव्यवस्था के विदेशी पूंजी के लिए खोले जाने का देश के कुछ हिस्सों में जहां यह असर हुआ है कि शिक्षित मानव संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता के चलते सॉफ्टवेयर जैसे उत्पादों का निर्यात किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अप्रसंस्करित कच्चे माल के निरंतर बढ़ते दोहन ने भूमंडलीकरण का बर्बर चेहरा भी उजागर कर डाला है. ऐसी ही एक स्थिति उड़ीसा के कुछ आदिवासी जिलों में बनी है जहां राज्य के गैर आदिवासी सत्ताधारी नेतृत्व में भारतीय और विदेशी खनन कंपनियों के साथ भारी संख्या में सिलसिलेवार समझौते किए हैं जिनके तहत इन कंपनियों को न सिर्फ अनुमति दी जाती है, बल्कि प्रोत्साहित भी किया जा रहा है कि वे आदिवासियों की जमीनें छीन कर उन्हें बेदखल कर दें जिसके नीचे लौह अयस्क या बॉक्साइट के भारी खजाने मौजूद हैं.


2.

राज्य की सचेतन नीतियों के परिणामस्वरूप आदिवासियों की पीड़ा को पिछले कुछ दशकों के दौरान कई आधिकारिक रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है. आजादी के एक दशक बाद गृह मंत्रालय में आदिवासी इलाके में सरकारी योजनाओं के संचालन की पड़ताल करने के लिए मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. इसने पाया कि इन योजनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारी 'अपने लोगों के बारे में बहुत करीबी ज्ञान से अनभिज्ञ थे और उन्हें आदिवासी विकास की सामान्य नीतियों का भी शायद ही कोई अंदाजा था'. इससे भी बुरा यह था कि 'अधिकारियों के भीतर श्रेष्ठता का एक भाव था जैसे कि वे उच्च सभ्यता-संस्कृति के स्वर्ग से उतरे वाहक हों. वे लोगों पर हुकूम चलाते; उनके चपरासी उन्हें गाली देते; काम पूरा हो जाने के लिए वे किसी को धमकाने-डराने में भी संकोच नहीं करते. किसी भी विफलता को आदिवासियों के मत्थे मढ़ दिया जाता; ब्लॉक अधिकारी सारा आरोप लोगों की सुस्ती, निष्क्रियता, आशंका और अंधविश्वासों पर मढ़ देता.'


देश भर में 20 ब्लॉकों के अध्ययन के बाद समिति ने निष्कर्ष निकाला कि 'आदिवासियों की तमाम समस्याओं के बीच उनकी सबसे बड़ी समस्या गरीबी है.' समिति का कहना था कि उन्होंने इन इलाकों में जो भी गरीबी देखी, वह 'सभ्य' लोगों यानी हमारी ही गलती थी. हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें उनकी जमीन चाहिए थी और अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने तरीके से उसी हाल में खेती कर रहे हैं जैसे हमने उनके पास छोड़ा था. हमने अपनी व्यावसायिक अर्थव्यवस्था के सस्ते उत्पादों को उनके बीच पहुंचाकर उनकी कला छीन ली है.

हमने यहां तक कि उनका भोजन भी शिकार पर प्रतिबंध लगाकर अथवा कुछ नई रूढ़ियां लादकर उनसे छीन लिया है जिससे कि अब वे मांस-मछली में मौजूद बहुमूल्य प्रोटीन से वंचित होते जा रहे हैं. हम उन्हें तेज कच्ची शराब बेचते हैं जो घर में बनाई बीयर या वाइन की तुलना में बहुत घातक होती है और उसके बाद उन्हें शराब न पीने का आदर्श सिखाते हैं. हम उन्हें नीची नजर से देखते हैं, उनके आत्मविश्वास को उनसे छीन लेते हैं और कानून द्वारा दी गई उन बुनियादी स्वतंत्रताओं से उन्हें वंचित कर देते हैं जिसकी उन्हें कोई समझ नहीं.'


बहुत दिन नहीं बीते थे कि एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष यू एन ढेबर से आदिवासी इलाके की हालत का जायजा लेने के लिए बनाई गई एक उच्च पदस्थ समिति की अध्यक्षता करने को कहा गया. इस समिति में 6 सांसद थे जिनमें जयपाल सिंह भी थे तथा कुछ वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता थे. इस समिति ने आदिवासियों की प्रमुख समस्याओं में भूमि का अलगाव, वन अधिकारों का हनन और विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन को दर्ज किया.

अक्सर ऐसा हुआ है कि सरकारी नीति आदिवासियों के बचाव में नहीं आ पाई है और कभी-कभार तो इन नीतियों ने उन्हें खुद और ज्यादा बदहाल करने का काम किया है. राज्य की मशीनरी बाहरी व्यक्तियों द्वारा आदिवासियों की जमीनें छीने जाने या सूदखोरों की शोषक गतिविधियों पर लगाम कसने में नाकाम रही है. इस दौरान प्रमुख ऊर्जा परियोजनाओं और पंचवर्षीय योजनाओं के तहत लगाए गए स्टील संयंत्रों ने 'पर्याप्त मात्रा में आदिवासियों को विस्थापित किया है. समिति की चिंता यह थी कि ऐसा औद्योगिक विकास

आदिवासियों के बीच यह अहसास है कि संरक्षण और विकास के पक्ष में सारे तर्क दरअसल उनकी मांगों को खारिज करने की नीयत से बनाए गए हैं.

तो 'आदिवासियों के पांव के नीचे की जमीन खींच लेगा'... हमें यह देखना होगा कि आदिवासी जीवन की नींव न हिलने पाएं और उनके आशियाने कहीं ढह न जाएं.' पहले से ही बने बांधों और मिलों की वजह से 'आदिवासी अपनी रिहाइश और आजीविका के पारम्परिक स्रोतों से उजड़ चुके थे. अधिग्रहण की कार्यवाही से बहुत परिचित न होने के चलते उन्हें जो कुछ भी नकद मुआवजा दिया गया, उसे लेकर वे पलायन कर गए. हाथ में पैसा था और पास के औद्योगिक शहरों का आकर्षण, जिसके चलते बहुत तेजी से उनके हाथ से यह पैसा जाता रहा और आखिरकार न तो पैसा ही रहा न जमीन. वे अब भूमिहीन मजदूरों की जमात में शामिल हो चुके थे जिनके पास किसी भी नौकरी के लिए आवश्यक न तो प्रशिक्षण था, न ही दक्षता अथवा योग्यता.


ढेबर समिति की रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चिंता वनों में आदिवासी अधिकारों के दमन पर जताई गई थी. अंग्रेजों द्वारा लाए गए वन कानूनों और भारत सरकार द्वारा उसे जारी रखे जाने का नतीजा यह हुआ था कि 'वह आदिवासी जो पहले खुद को जंगल का राजा समझता था, उसे एक सचेतन प्रक्रिया में धीरे-धीरे रंक की भूमिका में ला दिया गया और वन विभाग के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.' अधिकारियों और उनके शहरी संरक्षणवादी समर्थकों का दावा था कि जंगलों को बचाने के लिए आदिवासियों को उनसे दूर रखना बहुत जरूरी है, जिस पर ढेबर समिति ने निम्न टिप्पणी की:


लगातार यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि आदिवासी लोग जंगलों को नष्ट कर रहे हैं. हमने यह शिकायत कुछ आदिवासियों के सामने रखी. उन्होंने इसके जवाब में यह पूछा कि वे जंगल को आखिर कैसे नष्ट कर सकते हैं उनके पास न तो ट्रक हैं और न ही बैलगाड़ियां हैं. अधिक से अधिक वे अगर कुछ भी ले जा सकते हैं तो वह कुछ जलावन है जिससे वे सर्दियों में खुद को गर्म रख सकें, उस लकड़ी जिससे अपनी झोपड़ियों की मरम्मर कर सकें और अपने लघुकरघा उद्योग को जारी रख सकें. उनका कहना था कि खाना बनाने के लिए ईंधन की उन्हें बहुत जरूरत नहीं है क्योंकि वे बहुत ज्यादा भोजन पकाते ही नहीं. अपनी स्थिति का विवरण देने के बाद वे यह बताने लगे कि उनके इर्द-गिर्द कितना बड़ा विनाश जारी है. उन्होंने दोहराया कि किस तरह से पूर्व जमींदारों ने समझौतों, वन कानूनों और नियमों का उल्लंघन कर अधिकारियों की आंखों के सामने जंगल के एक बड़े हिस्से को तबाह कर दिया. उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह ठेकेदार बाहर रहकर भी निर्धारित क्षमता से ज्यादा भार ढुलवाते हैं और इस तरह जंगल व आदिवासियों का दोहरा शोषण करते हैं.


आदिवासियों के बीच यह अहसास है कि संरक्षण और विकास के पक्ष में सारे तर्क दरअसल उनकी मांगों को खारिज करने की नीयत से बनाए गए हैं. वे कहते हैं कि जब उद्योग, औद्योगिक नगरों, विकास कार्यों या पुनर्वास परियोजनाओं की बात आती है, तो सारे तर्क भुला दिए जाते हैं और विस्तृत जनजीवन को बाहरी लोगों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता है जो जरूरत हो या न हो, वन सम्पदा का बेरहमी से नाश करते हैं.

http://raviwar.com/news/50_adivasis-naxalites-and-indian-democracy-1.shtml


खत्म होती आदिवासी भाषाएं

वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थी. 2001 में यह संख्या घटकर मात्र 234 रह गयीं. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले पांच दशकों में भारत 1418 भाषाएं खो चुका है. यही नहीं भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल किया गया है...

राजीव

नई पीढ़ी की वैसी भाषाओं में कोई दिलचस्पी नहीं जो रोजगार और कैरियर में सहायक न हो, नतीजतन विकास की अंधी दौड़ में कई झारखंडी भाषा-बोलियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी हैं. विभिन्न सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि झारखंड की छह आदिवासी भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर है.

राष्ट्रीय भाषा संस्थान मैसूर की रिपोर्ट में 12 आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होने वाली सूची में रखा गया है. भारत में एक करोड़ से कम बोलने वाली भाषाओं की संख्या 29 है, जिसमें झारखंड की छह भाषाएं यथा कुडुक, किसान, मलतो, खडिया, मुंड़ा और हो शामिल हैं.

वर्ष 1991 की तुलना में 2001 में भारत की आदिवासी भाषाओं में झारखंड की हो और किसान में क्रमशः 11.33 और 12.96 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है, जबकि भाषा छोड़ने की सबसे खतरनाक प्रवृति कुडुख भाषा समुदाय में चिहिन्त की गयी है.

उल्लेखनीय है कि भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आंठवी अनुसूची में शामिल किया गया है. संविधान की आठंवी अनुसूची में हाल में संथाली और बोडो को ही मात्र आदिवासी भाषाओं में शामिल किया गया है.

वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थी. 2001 में यह संख्या घटकर मात्र 234 रह गयीं. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले पांच दशकों में भारत 1418 भाषाएं खो चुका है.

यूनेस्को द्वारा 2008-09 में जारी 'खतरे में पड़ी भाषाओं के विश्व मानचित्र' के अनुसार झारखंड की आदिवासी भाषाओं में मलतो जिसका वैकल्पिक नाम पहाडि़या, मालती, मेलरख मल, मड है तथा मलतो भाषा बोलने वालों की संख्या 224926 है, जो सिर्फ झारखंड में ही बोली जाती है.

कुडुख भाषा जिसका वैकल्पिक नाम कुडुक्स या ओराव है तथा इस भाषा को बोलने वालों की संख्या 1751489 है, जो झारखंड के अलावा बिहार में भी बोली जाती है, खडि़या भाषा जिसका वैकल्पिक नाम कारवी है. इसके बोलने वालों की तादाद मात्र 200000 है, जो झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़ तथा ओडिशा के दर्जनभर जिले में बोली जाती है.

हो भाषा का वैकल्पिक नाम कोल है जिसके बोलने वालों की तादाद 400000 है, जो झारखंड के सिंहभूम जिला, ओडिशा के क्योंझार जिला तथा पश्चिम बंगाल के कुछ जिले में बोली जाती है. विरहोरों की भाषा विरहोर जिसके बोलने वालों की संख्या मात्र 2000 है, जो झारखंड के सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू और रांची जिलों में बोली जाती है.

असुरी भाषा जिसका वैकल्पिक नाम अस्सुर या असुर है, जिसके बोलने वालों की संख्या 47000 है तथा यह भाषा झारखंड के अलावा बिहार, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बोली जाती है. मुंडारी भाषा जिसका वैकल्पिक नाम होरो है तथा इसके बोलने वालों की संख्या 750000 है, इसे बोलने वाले झारखंड के रांची जिले और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं आदि भाषायें शामिल हैं.

झारखंड की आदिवासी भाषाओं का इतिहास लगभग चार हजार वर्षों का है. कभी समृद्ध और शिष्ट साहित्य का विपुल भंडार रही ये आदिवासी भाषाएं निरंतर विकास की दौड़ में पिछड़ती जा रही हैं. बिरहोर, मलतो, असुरी भाषाएं आज तक सिर्फ दस्तावेजीकरण की ही अवस्था में है तथा इन भाषाओं के व्याकरण निर्माण आदि का कार्य अभी शुरू ही हुआ है वह भी कछुआ चाल से.

यह विडंबना ही है कि अब तक झारखंड में नौ आदिवासी मुख्यमंत्री हुए हैं, मगर विलुप्त होती आदिवासी भाषाएं इनको नजर नहीं आती हैं. आज तक विश्वविद्यालय स्तर तक सिर्फ मुंडारी, संथाली, हो, खडि़या और कुडुख भाषाओं की ही पढ़ाई शुरू की जा सकी है जबकि मलतो, किसानी, बेरगा, धांगरी, खेंदरो, असुर, बिरहोर, भूमिज, तूरी आदि अनेकों समृद्ध आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होते देखा जा रहा है. अगर जल्द से जल्द इन भाषाओं को बचाने का प्रयास नहीं किया गया, तो आने वाले दिनों में ये भाषाएं विलुप्त हो जायेंगी.

सर्वविदित है कि हो समुदाय के कानूराम देवगम, जो सांसद भी रहे, उन्होंने अपने अथक प्रयास से अनेक गीतों की रचना की जो बाद में 'हो दुरंग पोथी' के रूप में प्रकाशित हुई. 1948 में कानूराम देवगम ने हो लोककथा 'मैन इन इंडिया' छपवायी थी, मगर दुखद यह है कि झारखंड राज्य के किसी भी जिला पुस्तकालय में इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है.

इसी तरह झारखंडी समाज के शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्यारा करकेट्टा का योगदान अद्वितीय है, जिन्होंने 'बेरथा बिहा कहानी' लिखकर खडि़या भाषा में आधुनिक शिष्ट साहित्य की शुरुआत तो अवश्य की, मगर हम अपनी अर्कमण्यता के कारण इसे संजो नहीं सके.

हो भाषा साहित्य में कोल गुरु लको बोदरा का प्रमुख स्थान है, जो चालीस के दशक में हो भाषा की लिपि 'वारंग क्षिति' के आविष्कारक माने जाते हैं. उन्होंने हो भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए 'एटैए तुर्तुड पिटिका अखाड़ा' यानी आदि संस्कृति एवं विज्ञान शोध संस्थान की स्थापना भी की.

इसी संस्थान ने अब तक हो भाषा साहित्य का बचाए रखने में अपना अमूल्य योगदान दिया है, परंतु समुचित सरकारी मदद नहीं मिलने के कारण संस्थान के कार्यों में गति नहीं आ सकी है. बारंग क्षिति में लाको बोदरा द्वारा हो भाषा का एक वृहद शब्दकोश भी तैयार किया गया था, जो अब तक अप्रकाशित है.

गौरतलब है कि खडि़या साहित्यकोश के मूर्धन्य साहित्यकार नुअस केरकेट्टा खडि़या भाषा साहित्य के विकास के लिए आजीवन समर्पित रहे तथा खडि़या लिटरेरी सोसाइटी की स्थापना भी की. एक लिपि का भी अविष्कार किया, जो आज उपलब्ध नहीं है.

खुशी की बात यह है कि नुअस करकेट्टा ने खडि़या समुदाय का इतिहास 'खडि़या नंदिनी' के नाम से लिखा तथा खडि़या शब्दकोश भी तैयार किया, मगर दुखद यह है कि खडि़या साहित्य के ये धरोहर का अब तक प्रकाशन नहीं हो पाया है.

कुडुख भाषा के आधुनिक एवं शिष्ट साहित्य की शुरुआत गुमला निवासी आयता उरांव ने की, लेकिन उनकी रचनाएं आज उपलब्ध नहीं हैं. जबकि आज भी गुमला क्षेत्र में लोग आयता उरांव द्वारा रचित गीत गाते हैं तथा उनके द्वारा रचित प्रार्थना तो उरांव समाज के जीवन का आज भी अनिवार्य अंग बना हुआ है.

भाषा का खत्म होना किसी त्रासदी से कम नहीं है. भाषा के खत्म होने के साथ न सिर्फ उस भाषा के बोलने वाले खत्म हो जाते हैं, बल्कि उनका गौरवपूर्ण इतिहास भी खत्म हो जाता है. सभ्य समाज अगर भाषाओं को विलुप्त होने से बचाने का प्रयास नहीं करता है, तो उनमें और असभ्यों में क्या अंतर रह जाएगा. बहरहाल, सरकारी उदासीनता और अकर्मण्यता के कारण आज कई आदिवासी भाषाएं आदिवासी मुख्यमंत्री के नाक के नीचे विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी हैं.

rajiv.jharkhand@janjwar.com

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/important-articles/300-2012-04-23-13-06-14/4499-aadivasibahul-rajy-men-khatm-hoti-aadivasi-bhashayen-by-rajiv-for-janjwar

वैश्वीकरण और आदिवासी

वैष्वीकरण और  आदिवासी

                                                                         हरिराम मीणा

देश के जो  प्राकृतिक संसाधन बचे हुए हैं, हजारों वर्षों से आदिवासी लोग उनके संरक्षक रहे हैं और भूमंडलीकरण का यह वह दौर चल रहा है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का फटाफट और अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए, हो सकता है फिर ऐसा सुनहरा अवसर इन कंपनियों को मिले या ना मिले। संभव है कि वैश्वीकरण का जो अमानवीय चेहरा सामने आ रहा है वो और स्पष्ट न हो जाए जो जगह-जगह आमजन को व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा कर दे। यदि ऐसा हुआ तो संभव है कि सन् 1989 में जो नई आर्थिक नीति देश में शुरू की गई थी जिसकी चरम परणति जनविरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आ रही है, उसमें जनपक्षधर संशोधन करने को सरकारें विवश न हो जाएं। यह सब कुछ भांपते हुए (और यह आप और हम भली भांति जानते हैं कि चालक लोग वक्त से पहले आगत के संकेतों को समझ लेने की क्षमता रखते आए हैं) बहुराष्ट्रीय निगमों, उनको माँडल मानने वाले देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचैलियों को यह सूट करता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें ठिकाने लगाया जाए और अपना रास्ता साफ किया जाए। यह सारा झंझट जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ने वाले राष्ट्रभक्तों बनाम देशी-विदेशी लुटेरे पूँजीपति के बीच का है। लोकतंत्र में राजनीति की अहम भूमिका होती है इसलिए पूंजी-नायक राज-नेताओं के माध्यम से बड़े फैसले करवाते हैं जिसमें बिकाऊ मीडिया की सक्रिय साझेदारी रहती है।गत 6मई, 2013 को सूचना प्रौद्योगिकी समिति ने पेड न्यूज से सम्बन्धित मुद्दे पर अपनी 47वीं रिपोर्ट संसद में पेश की। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह तथ्य परेशान करने वाला है कि पेड न्यूज व्यक्तिगत पत्रकारों के भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि इसने मीडिया कम्पनी के मालिकों, प्रबंधकों, निगमों, जनसम्पर्क कंपनियों, विज्ञापन एजेंसियों राजनीति से जुड़े हुए कुछ वर्गों को भी अपने चंगुल में ले लिया है। परिणामस्वरूप विज्ञापन, समाचार तथा सम्पादकीय को एक दूसरे में इस तरह घुला मिला दिया है कि इन्हें अलग अलग करना मुश्किल होता जा रहा है।

अब सवाल उठता है कि आदिवासी हजारों सालों से देश की प्राकृतिक सम्पदा के रखवाले (ध्यान रहे कि आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों के कस्टोडियन रहे हैं, उन्होंने कभी उनके मालिक होने का दावा नहीं किया)रहते आये और अब बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीनायकों की गिद्ध दृष्टि को देखते हुए प्राकृतिक सम्पदा तथा आदिवासी समाज कहां तक सुरक्षित हैं ?

उपनिवेशवाद काल में एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस कदर भारत को लूटा था यह समझदार लोगों की स्मृति से ओझल नहीं हुआ है और अब सैकड़ों बहुराष्ट्रिक कंपनियों की घुसपैठ हो चुकी है जिनका दुहरा मकसद है-एक, भारत के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और दूसरा, भारत को उनका बाजार बना देना।

भारत के आदिवासीजन भौगोलिक दृष्टि से मुख्य समाज से अलग-थलग रहते आए हैं। वे पूंजीसंचालित बाजार का हिस्सा धीरे-धीरे बनेंगे, लेकिन जहां तक प्राकृतिक संसाधनों की बात की जाती  है तो आदिवासी अस्तित्व का सवाल गहरे रूप में जल, जंगल और जमीन से जुड़ा हुआ मिलता है जिसे दूसरे शब्दों में हम प्रकृति पर निर्भर जीवन कह सकते हैं। जंगल में आदिवासी लोग रहते आए हैं। जंगल प्रकृति का आधारभूत तत्व है। यदि जंगल है तो पहाड़ हैं, नदियां हैं, झीलें हैं, सरोवर हैं, वनस्पतियां हैं, जंगली जानवर हैं और धरती के गर्भ में संचयित खनिज सम्पदा। इसलिए जब-जब जंगल पर आंच आई तब-तब आदिवासीजन ने अपना मोर्चो संभाला। पूरा इतिहास उठाकर देखें तो पता लगता है कि आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के बाद सीधा ब्रिटिश काल आता है जब जंगलों में बाहरी घुसपैठ हुई जिसका प्रतिरोध विद्रोह तथा संघर्षों के माध्यम से आदिवासियों ने किया और यह प्रतिरोध भारत के प्रत्येक अंचल में हुआ। मुझे नहीं लगता कि कोई अंचल अछूता रहा हो। ठेठ पूर्वोत्तर की नागारानी गाईदिल्ल्यू से सिद्दू-कानू, बिस्सा मुंडा, तिलका मांझी, टंट्या मामा, गोविन्द गुरु, जोरिया भक्त, ख्याजा नायक, अल्लूरि सीताराम राजू और केरल की आदिवासी किसान क्रांति। इसी क्रम में उच्च हिमालय के लेप्चा-भूटिया से अंडमान की अबेर्दीनकी लड़ाई को शामिल किया जाए। जिस अंचल में आदिवासी है ही नहीं,वहां की तो क्या बात की जाय। बहुराष्ट्रिक कम्पनियों, सत्ता और दलालों की गठबंधनी घुसपैठ के खिलाफ आज अकेला आदिवासी खड़ा है और वह स्वयं के लिये नहीं प्रत्युत् राष्ट्रीय प्राकृतिक संपदा एवं राष्ट्र के लिये। बहुत साफ तौर पर दिखायी दे रहे हैं ये दोनों मोर्चे आमने सामने। हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि राष्ट्र, प्रकृति और पृथ्वी के पक्ष में कौन खड़ा है तथा इन्हें बर्बाद करने पर कौन आमादा है।

भारत में वैश्वीकरण की नीतियों को लेकर पिछले करीब ढाई दशकों से जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि सब मर्जों की यही एकमात्र दवा है। अब यह बात स्पष्ट होती जा रही है वैश्वीकरण के सारे फायदे राष्ट्र-समाज के भद्र वर्ग को मिलते रहे हैं जिनके अधिकार में प्रमुख शक्तियां तथा साधन-संसाधन रहते आए हैं यथा राज-धन-ज्ञान-धर्म की शक्तियां, पूंजी, बाजार, तकनीकी, उच्च शिक्षा तथा अन्य सुविधाएं। इस दृष्टि से भारत के आम आदमी के समाज का विश्लेषण किया जाए तो गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अच्छी शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य की समस्याएं, पेयजल आपूर्ति का संकट तथा अन्य आधारभूत सुविधाओं का अभाव दिखाई देता है। इसी संदर्भ में जब आदिवासी समाज की दशा में सुधार की चर्चा की जाएगी तो उनकी दशा में नहीं के बराबर परिवर्तन हुआ है। इससे उलट आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों की जो लूट वैश्वीकरण के इस दौर में मची है उसने आदिवासी जीवन को नरकतुल्य बना दिया है जहां आधारभूत सुविधाओं, मानवाधिकारों, लोकतंत्र में साझेदारी आदि की बात बहुत दूर, आदिवासी समाज का अस्तित्व ही गहरे संकट में फंसता जा रहा है। दिनांक 29 मई 2013 को मेधा पाटेकर ने भोपाल में एक प्रेस कांफ्रेंस में जोर देकर यह कहा कि अगर आदिवासी अंचलों में सरकार विकास योजनाओं को लेकर अभी भी नहीं पहुंची तो नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा। इसी सप्ताह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर जबरदस्त नक्सली हमला हुआ जिसमें छत्तीसगढ़  के पूर्व गृहमंत्री महेन्द्र कर्मा सहित कई नेता हताहत हुए। नक्सलवाद के उभार को भी वैश्वीकरण के संदर्भ  में देखा जा सकता है। प्रसिद्ध पत्रकार एवं आदिवासी विषयों के अध्येता रामशरण जोशी ने राजस्थान पत्रिका (28 मई 2013) छपे अपने लेख में  हिंसा को नकारते हुए बस्तर की समस्या को व्यापक दृष्टि से देखने का आग्रह किया है। उन्होंने यह संकेत दिए कि सरकारें चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, उनके प्रति आदिवासी समाज में अविश्वास की एक मान्यता घर कर चुकी है, उसे दूर करने की आवश्यकता है। आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा, विकास के नाम पर उनका विस्थापन और विकास संबंधी सरकारी कदमों को अविश्वास की दृष्टि से देखना वह समस्या है जो विशेष रूप से आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती है। गत जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल में अगर महाश्वेता देवी यह कहती हैं कि 'नक्सलियों के भी अपने सपने हैं' तो वे प्रकारान्तर से बहुत कुछ कह देती हैं जिसे समझने की जरूरत है। हंस पत्रिका के संपादक एवं प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र यादव ने अपने संपादकीय (जुलाई, 2013) में स्पष्ट लिखा है कि 'बुद्धिजीवियों का नक्सलियों के लिये जो वैचारिक समर्थन है वह बना रहेगा-क्योंकि वह समर्थन अन्याय के खिलाफ, दमन के खिलाफ उठती आवाज का है। हिंसा कभी एकतरफा नहीं होती।' कोई भी हिंसा समाज ही क्या, सृष्टि की किसी भी योजना के विरुद्धअपराध है। सवाल यह उठता है कि हिंसा का समाधान प्रतिहिंसा है या विकास का सही विकल्प ?  

भारतीय इतिहास व परंपरा में भारतीय समाज, राष्ट्र, लोकतंत्र व विकास के सभी प्रमुख क्षेत्रों की दृष्टि से आदिवासी समाज के स्वभाव का विश्लेषण किया जाएगा तो यह स्पष्ट होता है कि उपनिवेशवादकाल से पूर्व आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज से अलग-थलग रहा, ब्रिटिशकाल में आदिवासी अंचलों में विकास व उपनिवेशवाद विस्तार की दृष्टि से हस्तक्षेप हुआ, लेकिन आदिवासी प्रतिरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने आदिवासी समाज को अलग-थलग रखकर ही हस्तक्षेप करने की नीति को प्राथमिकता दी, साथ ही उनका नजरिया हिकारत से भरा हुआ था। सम्पूर्ण आदिवासी समाज को बाकायदा जंगली बर्बर  लोगों के समुदाय के रूप चित्रित किये जाने का दुष्चक्र रचा गया।

प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ ने अपनी पुस्तक 'हाउ द रिच आर डेस्ट्रोइंग प्लेनेट' की प्रस्तावना में लिखा है -'' इस दुनिया में पाए जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबलानहीं करते। इसलिए ऐसे समय में जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें 'थिंक ग्लोबली एंड एक्ट लोकली' के उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि 'कंज्यूम लेस एंड शेयर बेटर।''

   हाल ही में दिवंगत वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज ने 20 सितंबर 2006 को काराकास में हुए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भाषण देते हुए विश्व जन-गण के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का संदर्भ देते हुए कहा था कि-''मैं याद दिलाना चाहता हूं कि इस दुनिया की जनसंख्या का 7प्रतिशत अमीर लोग 50प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत 50 प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र 7 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।................ इस दुनिया के 500 सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब 41 करोड़ 60 लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का 40 प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग 2 डालर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं और यह 40 प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आय का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल 92 लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुँचने  से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं । नवजात बच्चों की मृत्यु दर प्रति एक हजार में 47 है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में 5 है। मनुष्यों के जीवन में प्रत्याशा 67 वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा 79 वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र 40 वर्ष ही है। इन सबके साथ ही 1.1 अरब लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं है। 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। 80 करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और 1 अरब 2 करोड़ लोग भूखें हैं। ये है हमारी दुनिया की तस्वीर।''

इन्हीं हालातों को देखते हुए क्यूबा के दिवंगत राष्ट्रपति फिदल कास्त्रो ने जोर देकर कहा था ''एक प्रजाति खात्मे के कगार पर है और वह है मानवता'। रोजा लग्जमबर्ग का कहना है कि अगर पृथ्वी को बचाए रखना है तो बर्बर पूंजीवाद का एक ही विकल्प है वह है समाजवाद।

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका की अगुवाई में एक मुहिम के तहत अग्रसर पूंजीवाद साम्राज्यवाद को करीब 25 वर्ष होने जा रहे हैं। इसी चैथाई शताब्दी में अमरीका ने जो बेलगाम दादागीरी की है उसके ज्वलंत उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, मिस्र, लीबिया, सीरिया और लेटिन अमेरिका के राष्ट्रों की संप्रभुता में सेंध आदि है, लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रों के साम्यवादी-समाजवादी दलों की सदस्यता में वृद्धि, 2012 के चुनाव में ग्रीस में तेजी से उभरी रेडिकल वामपंथी पार्टी सिरिजा, अरब देशों में अमरीका के विरुद्ध शत्रुगत भावना का फैलाव, दक्षिणी अमरीकी देशों में अमरीका विरोधी माहौल तथा अमरीकी धमकी के खिलाफ उत्तरी  कोरिया की चुनौती आदि को देखते हुए दुनिया के हर क्षेत्र में पंूजी के इस नवसाम्राज्यवाद के क्रूर यथार्थ का पर्दाफाशकरने व बेहतर विकल्प ढूंढने के प्रयास जारी हैं।

25 मई 2013 को जयपुर में हुए राज्य स्तरीय लघु पत्रिका सम्मेलन में बोलते हुए 'उद्भावना' के सम्पादक अजेय कुमार ने यह कहा कि वाशिंगटन में खबरों का एक म्यूजियम है जिसका नाम 'न्यूजियम' रखा हुआ है। वहां प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडियाके माध्यम से प्रचारित-प्रसारित ढेरों सारी खबरें हैं, लेकिन वियतनाम युद्ध, द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान हिरोशिमा-नागाशाकी पर परमाणु हमला, इराक, अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले जैसी अमरीकी बर्बरता की खबरों को म्यूजियम में स्थान नहीं दिया गया है। इससे जाहिर है कि यह अमरीकी द्वारा उठाए गए वे कदम हैं जिनसे अमरीका की बदनामी होती है न कि उसका महाशक्ति के रूप में प्रमाणित होना। उन्होंने नोम  चोम्स्की की पुस्तक 'क्राइसिस दिस टाइम' में मजदूर स्टेग के उदाहरण से वैश्वीकरण के इस दौर के संकट से रूबरू कराने का प्रयास किया। अजेय कुमार ने यह भी कहा कि अमरीका की 30 करोड़ की आबादी के पास 31 करोड़ पंजीकृत हथियार हैं। जाहिर है कि अमरीका किस दुनिया में रह रहा है और किन आसमानों पर सोच रहा है और वह कुछ सोच व कर रहा है वह सबकुछ दुनिया के विकासशील व गरीब राष्ट्र-समाजों के सरोकार कतई नहीं।

अर्सा पहले महान दार्शनिक रूसेा ने यह प्रश्न उठाया था कि ''क्या आप स्वतंत्रता का असमानता के साथ सामंजस्य बैठा सकते हैं और क्या लोग कानूनन बराबर हो सकते हैं जब भौतिक चीजों तक उनकी पंहुंच  बराबर न हो ?''

उल्लेखनीय है प्रख्यात चिंतक ऐजाज अहमद का यह कथनांश -

''लोकतांत्रिक परियोजना में उत्पन्न हुए इस संकट ने इस विचार को विश्वसनीय बना दिया है कि भूमण्डलीकरण के आवरण में साम्राज्यवाद का जो मौजूदा दौर चल रहा है उसका सचमुच कोई विकल्प नहीं है। इस संकट में तमाम तरह की राजनैतिक प्रयोगशालाएं खड़ी कर दी हैं। मसलन, अमेरिका से लेकर पश्चिमी एशिया तथा स्वयं भारत तक कि धार्मिक पुनरूत्थानवाद, समूचे यूरोप में नस्ल तथा फासीवादी आंदोलन जिसमें पूर्वी यूरोप तथा रूस भी शामिल हैं। कट्टरवाद और बहुसंख्यकवाद, सभी को न्याय देने के खिलाफ विश्व भर के सम्पन्नों का विद्रोह , विश्व में सैनिक तथा आर्थिक दारोगागिरी करने वाले अमेरिका , नाटो तथा मुद्राकोष एवं विश्व व्यापार संगठन जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं की सरपरस्ती में विश्व सरकार का उभरना।''

वैश्वीकरण  का जो अमानवीय चेहरा उभर कर सामने आया है उसकी प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नानुसार हैं:-

प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-सनाप दोहन हुआ है जिसकी वजह से राष्ट्रीय संसाधनों का राष्ट्र-समाज के लिए उपयोग में नहीं कर सकने की विवशताएँ  और नक्सलवाद जैसी चुनौतियां सामने आई हैं। आम आदमी का एक महत्वपूर्ण तबका आदिवासियों के रूप में अपने अस्तित्व के संकट से जूझने लगा है।

आर्थिक भ्रष्टाचार की चरम सीमा दिखाई दे रही है जिसमें सत्यम, आदर्श सोसाईटी, 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल आदि उदहारण हमारे सामने हैं जिन्होंने आम जनता व बुद्धिजीवियों के दिलोदिमाग को हिलाकर रख दिया हैं। यही वजह है कि अन्नाहजारे जैसे लोग किसी भी मकसद से आमरण अनषन पर बैठते हैं तो  मीडिया व बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन उन्हें रातों रात मिलने लगता है।

आर्थिक मंदी के नाम पर आम आदमी के आर्थिक हितों की परवाह न करते हुए औद्योगिक घरानों को बहुत सारी सुविधाएं देने के लिए सरकार मजबूर होती है। इसी क्रम में जनता के धन का दुरूपयोग कार्पोरेट जगत द्वारा सरकारों के माध्यम से किया जाने लगता है।

जनसेवा व सुविधाओं के नाम पर महत्वपूर्ण क्षेत्रों का निजीकरण तेजी से होता है जिसमें प्रमुख रूप से षिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र है्रं जो जनसेवा की गुणात्मकता का बहाना लेकर अन्ततः निजी लाभ को सर्वोपरि रखता है। आम आदमी व जरूरतमंद के लिए इन क्षेत्रों से संबंधित सुविधाओं में कोई जगह नहीं मिलती। केवल ऐसी सुविधायें समर्थ वर्ग की पहुंच तक रह पाती हैं , चाहे नियमों में यह स्पष्ट प्रावधान हो कि एक निश्चित  प्रतिशत  अभावग्रस्त तबके के लिए आरक्षित रहेंगे। सामाजिक न्याय की संवैधानिक अपेक्षाओं के विरूद्ध यह सब होता जा रहा है। इसका एक उदहारण मुम्बई के 'सेवन हिल्स हास्पिटल' का है जब नियम विरूद्ध कार्यवाही के मसले पर संसदीय समिति को भी वहां का प्रबन्धन ठेंगा दिखा सकने का दुस्साहस कर सकता है।

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में आम आदमी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसकी पहुंच राष्ट्रस्तरीय सरकारी व प्राईवेट प्रबन्धन तक नहीं हो सकती। उसके लिए मीडिया, जन संचार माध्यम न होकर साधन सम्पन्न वर्ग का मीडिया बनकर रह जाता है। बाजार यद्यपि अपने स्वभाव के अनुरूप आम आदमी तक ना चाहते हुए भी पहुंचता है लेकिन जरूरतमंद चीजें उचित दामों पर उसे नहीं मिल पाती। उपभोग की वस्तुएं राष्ट्र के स्तर पर उपलब्ध होते हुए भी उसे मुहय्या नहीं हो पाती। जीवनयापन के जो प्रमुख तौर-तरीके या साधन आम आदमी के पास थे, उनका धीरे-धीरे उसके हाथों से खिसक जाना यथाः कृषि, शिल्प , कुटीर उद्योग व स्थानीय व्यापार व्यवसाय आदि। कुल मिलाकर भूमंडलीकरण में पूंजी व बाजार हावी होता है जिस पर एक चालाक वर्ग का आधिपत्य रहता है और आम आदमी धीरे-धीरे हाशिये  पर चला जाता है।

इसलिए अब समय आ गया है जब पूंजी और उच्च तकनीकी के मिश्रण से विकास के जिस वैश्विक  माडल को विकल्पहीन सर्वमान्य माना जाता रहा है, उस पर पुनर्विचार एवं विमर्श  की आवष्यकता है ताकि समग्र रूप से बहतर भविष्य की सम्भावनाओं की तलाश  सम्भव हो सके, चूंकि विकल्पहीन नहीं होता दुनिया के लिए कोई भी काल-खण्ड।

  वैश्वीकरण बनाम प्रकृति और आदिवासी की अवधारणा को समझने के लिये जाने माने ग्लोबल इन्वेस्टर जेरेमी ग्रेंथम कहते हैं कि 'सभी संसाधनों के अंधाधुंध  उपयोग से हमारी ग्लोबल अर्थव्यवस्था ऐसे कई संकेत दर्शा रही है जिनके कारण हमसे पहले कई सभ्यताएं धराशायी हो चुकी हैं।'माइक्रो सोफ्ट धनपति बिल गेट्स ने पिछले दिनों प्रयश्चित करते हुए कहा है कि 'पूंजी को अब मानवीय चेहरे के साथ आना चाहिए।' स्पष्ट है कि पूंजी की वैश्विक भूमिका मनुष्यविरोधी रही है।

आज सवाल आदिवासी का होने के साथ साथ राष्ट्र का है और राष्ट्र के आगे प्रकृति तथा अंततः पृथ्वी का। इसलिये सवाल हम सब का है। जो तटस्थ हैं या रहेंगे वे भी बच नहीं सकते।

                                                           31, शिवशक्ति नगर,

                                                        किंग्स रोड़, अजमेर हाई-वे,

             जयपुर-302019

                                                         दूरभाष- 94141-24101

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आदिवासी

http://hi.wikipedia.org/s/eeb

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

ब्राजील के कयोपो (Kayapo tribe) आदिवासियों के मुखिया

सामान्यत: "आदिवासी" (ऐबोरिजिनल) शब्द का प्रयोग किसी भौगोलिक क्षेत्र के उन निवासियों के लिए किया जाता है जिनका उस भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना सम्बन्ध रहा हो। परन्तु संसार के विभिन्न भूभागों में जहाँ अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग क्षेत्रों से आकर लोग बसे हों उस विशिष्ट भाग के प्राचीनतम अथवा प्राचीन निवासियों के लिए भी इस शब्द का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, "इंडियन" अमरीका के आदिवासी कहे जाते हैं और प्राचीन साहित्य में दस्यु, निषाद आदि के रूप में जिन विभिन्न प्रजातियों समूहों का उल्लेख किया गया है उनके वंशज समसामयिक भारत में आदिवासी माने जाते हैं। आदिवासी के समानार्थी शब्‍दों में ऐबोरिजिनल,इंडिजिनस, देशज, मूल निवासी, जनजाति, वनवासी, जंगली, गिरिजन, बर्बर आदि प्रचलित हैं. इनमें से हर एक शब्‍द के पीछे सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ हैं.

अधिकांश आदिवासी संस्कृति के प्राथमिक धरातल पर जीवनयापन करते हैं। वे सामन्यत: क्षेत्रीय समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से स्वयंपूर्ण रहती है। इन संस्कृतियों में ऐतिहासिक जिज्ञासा का अभाव रहता है तथा ऊपर की थोड़ी ही पीढ़ियों का यथार्थ इतिहास क्रमश: किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में घुल मिल जाता है। सीमित परिधि तथा लघु जनसंख्या के कारण इन संस्कृतियों के रूप में स्थिरता रहती है, किसी एक काल में होनेवाले सांस्कृतिक परिवर्तन अपने प्रभाव एवं व्यापकता में अपेक्षाकृत सीमित होते हैं। परंपराकेंद्रित आदिवासी संस्कृतियाँ इसी कारण अपने अनेक पक्षों में रूढ़िवादी सी दीख पड़ती हैं। उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीपसमूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप देखे जा सकते हैं।

अनुक्रम

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भारत के आदिवासी[संपादित करें]

मुख्य लेख : आदिवासी (भारतीय)

भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 700 से अधिक है। सन् 1951 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 थी जो 2001 की जनगणना के अनुसार 8,43,26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है।

प्रजातीय दृष्टि से इन समूहों में नीग्रिटो, प्रोटो-आस्ट्रेलायड और मंगोलायड तत्व मुख्यत: पाए जाते हैं, यद्यपि कतिपय नृतत्ववेत्ताओं ने नीग्रिटो तत्व के संबंध में शंकाएँ उपस्थित की हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से उन्हें आस्ट्रो-एशियाई, द्रविड़ और तिब्बती-चीनी-परिवारों की भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में विभाजित किया जा सकता है। भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी भारत का विभाजन चार प्रमुख क्षेत्रों में किया जा सकता है : उत्तरपूर्वीय क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र और दक्षिणी क्षेत्र।

उत्तर पूर्वीय क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय अंचल के अतिरिक्त तिस्ता उपत्यका और ब्रह्मपुत्र की यमुना-पद्या-शाखा के पूर्वी भाग का पहाड़ी प्रदेश आता है। इस भाग के आदिवासी समूहों में गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, डाफला, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो, खासी, नाग, कुकी, लुशाई, चकमा आदि उल्लेखनीय हैं।

मध्यक्षेत्र का विस्तार उत्तर-प्रदेश के मिर्जापुर जिले के दक्षिणी ओर राजमहल पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से लेकर दक्षिण की गोदावरी नदी तक है। संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भूमिज, खड़िया, बिरहोर, जुआंग, खोंड, सवरा, गोंड, भील, बैगा, कोरकू, कमार आदि इस भाग के प्रमुख आदिवासी हैं।

पश्चिमी क्षेत्र में भील, ठाकुर, कटकरी आदि आदिवासी निवास करते हैं। मध्य पश्चिम राजस्थान से होकर दक्षिण में सह्याद्रि तक का पश्चिमी प्रदेश इस क्षेत्र में आता है। गोदावरी के दक्षिण से कन्याकुमारी तक दक्षिणी क्षेत्र का विस्तार है। इस भाग में जो आदिवासी समूह रहते हैं उनमें चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगोंड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर आदि उल्लेखनीय हैं।

नृतत्ववेत्ताओं ने इन समूहों में से अनेक का विशद शारीरिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर भौतिक संस्कृति तथा जीवनयापन के साधन सामाजिक संगठन, धर्म, बाह्य संस्कृति, प्रभाव आदि की दृष्टि से आदिवासी भारत के विभिन्न वर्गीकरण करने के अनेक वैज्ञानिक प्रयत्न किए गए हैं। इस परिचयात्मक रूपरेखा में इन सब प्रयत्नों का उल्लेख तक संभव नहीं है। आदिवासी संस्कृतियों की जटिल विभिन्नताओं का वर्णन करने के लिए भी यहाँ पर्याप्त स्थान नहीं है।

यद्यपि प्राचीन काल में आदिवासियों ने भारतीय परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया था और उनके कतिपय रीति रिवाज और विश्वास आज भी थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में आधुनिक हिंदू समाज में देखे जा सकते हैं, तथापि यह निश्चित है कि वे बहुत पहले ही भारतीय समाज और संस्कृति के विकास की प्रमुख धारा से पृथक् हो गए थे। आदिवासी समूह हिंदू समाज से न केवल अनेक महत्वपूर्ण पक्षों में भिन्न है, वरन् उनके इन समूहों में भी कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमश: कम हो रही है।

आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है। मनोवैज्ञानिक धरातल पर उनमें से अनेक में प्रबल "जनजाति-भावना" (ट्राइबल फीलिंग) है। सामाजिक-सांस्कृतिक-धरातल पर उनकी संस्कृतियों के गठन में केंद्रीय महत्व है। असम के नागा आदिवासियों की नरमुंडप्राप्ति प्रथा बस्तर के मुरियों की घोटुल संस्था, टोडा समूह में बहुपतित्व, कोया समूह में गोबलि की प्रथा आदि का उन समूहों की संस्कृति में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। परंतु ये संस्थाएँ और प्रथाएँ भारतीय समाज की प्रमुख प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं हैं। आदिवासियों की संकलन-आखेटक-अर्थव्यवस्था तथा उससे कुछ अधिक विकसित अस्थिर और स्थिर कृषि की अर्थव्यवस्थाएँ अभी भी परंपरास्वीकृत प्रणाली द्वारा लाई जाती हैं। परंपरा का प्रभाव उनपर नए आर्थिक मूल्यों के प्रभाव की अपेक्षा अधिक है। धर्म के क्षेत्र में जीववाद, जीविवाद, पितृपूजा आदि हिंदू धर्म के समीप लाकर भी उन्हें भिन्न रखते हैं।

आज के आदिवासी भारत में पर-संस्कृति-प्रभावों की दृष्टि से आदिवासियों के चार प्रमुख वर्ग दीख पड़ते हैं। प्रथम वर्ग में पर-संस्कृति-प्रभावहीन समूह हैं, दूसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा अल्पप्रभावित समूह, तीसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा प्रभावित, किंतु स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्ववाले समूह और चौथे वर्ग में ऐसे आदिवासी समूह आते हैं जिन्होंने पर-संस्कृतियों का स्वीकरण इस मात्रा में कर लिया है कि अब वे केवल नाममात्र के लिए आदिवासी रह गए हैं।

कमार दम्पत्ति खेत से लौटते हुए

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदाय[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

संस्थाएँ[संपादित करें]

आदिवासी अध्ययन[संपादित करें]

पत्रिकाएँ[संपादित करें]

अन्तरजाल एवं दूरदर्शन[संपादित करें]

आजादी से दूर हैं देश के आदिवासी

- एनसी सक्सेना

आजादी के इतने दशकों बाद भी आज आदिवासी समाज पूरी तरह उपेक्षित है और विकास की तमाम अवधारणा उसके उत्थान के बारे में नहीं सोचती। आज सच पूछिए तो आदिवासी समाज को विकास की तमाम घोषणाओं से डर लगता है।


उनके लिए विकास यानी उनकी जमीन से उनकी बेदखली और उन्हें उनके जंगलों से उन्हें बाहर निकाला जाना। आजादी के इतने सालों बाद तक हम उन्हें उनकी जमीन से बेदखल करते रहे हैं। जब वे इस अन्याय के खिलाफ एकजुट होते हैं तो उनका दमन किया जाता है।


ये समझना जरूरी है कि या तो आदिवासी दमन को चुपचाप झेलता जाएगा या फिर बंदूक उठाएगा! जहां भी उनका बेइंतहा शोषण किया गया, वहां लंबे समय तक उसे झेलने के बाद ही आदिवासियों ने बंदूक उठाई है। आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ हर जगह यह मुख्य वजह दिखाई देती है।


लंबे समय तक सरकारी नौकरी में रहते हुए मैंने गांव-गांव जाकर देखा कि किस तरह से उन्हें तमाम नियमों को ताक पर रखकर उजाड़ा गया। आदिवासियों की स्थिति के बारे में इसी से पता चल जाता है कि जो दो कानून मुख्य रूप से उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, उन्हीं का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ।


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अन्याय के खिलाफ आदिवासियों के पास आवाज उठाने का लोकतांत्रिक अधिकार नहीं है। न तो कोई राजनीतिक पार्टियां उन्हें अपने मुख्य एजेंडे में रखने को तैयार हैं और न उनकी अलग राजनीतिक दावेदारी विकसित हो पाई है। वे हाशिए पर ही थे, और हाशिए पर ही हैं।


तमाम कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिसंख्य आदिवासी समुदाय वंचित है। गरीबी रेखा (बीपीएल) का लाभ लेने वालों में आदिवासियों का नाम ही नहीं है, वे छूटे हुए हैं। लिहाजा बीपीएल से जुड़ी हुई तमाम योजनाओं से भी वे बाहर हैं।


एक तरह से देखा जाए तो विकास के साथ उनका अलगाव बढ़ता जा रहा है। आलम यह है कि किसी भी गांव में पैसा कानून का भी पूरी तरह से क्रियान्वयन होता नजर नहीं आता। मंत्रालय की रत्तीभर भी दिलचस्पी नहीं है। इन योजनाओं के तहत जो पैसा आवंटित होता है, वह खर्च ही नहीं होता है। लूट की खुली छूट है।


मैंने उड़ीसा की विवादित पॉस्को और वेदांता परियोजना, दोनों में अपनी रिपोर्टें पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी। नियमों-कानूनों का हवाला देते हुए बताया कि किसी भी सूरत में ये परियोजनाएं इस रूप में नहीं चलनी चाहिए। कहना तो सबसे आसान है, उसमें कुछ नहीं जाता पर लागू करने वाले सिर्फ मुंहजबानी खर्च करते हैं, करते नहीं।


उड़ीसा में जंगलों में उगने वाले तेंदूपत्तों पर रॉयल्टी 12 हजार रुपए टन है, जबकि बॉक्साइट पर 30 रुपए प्रति टन! हर जगह आदिवासी को मारा जाता है। उसका शोषण कागज पर लिखकर और कई बार बिना लिखे ही किया जा रहा है। ऐसे में इस समुदाय का अलगाव, उसका पिछड़ापन बढ़ेगा ही। इन बुनियादी सवालों को देखे, सुने, सुलझाए बिना कोई विकास बेमानी है।

http://hindi.webdunia.com/news-independence-day/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-1120813049_1.htm

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Mamata Banerjee

November 16

Sachin Tendulkar is an icon of Indian and World cricket. Legends are forever. They only move from one field to another, leaving behind their unmistakable mark of excellence.


His sportsmanship qualities, talents, sense of perfection, dedication and loving nature will still be available not only in the field of sports but even in other fields.


As the worthiest sports star he richly deserves the Bharat Ratna which I have been voicing for the last few years.


Congratulations Sachin, move ahead Sachin. I wish him long life and brighter future.


We are proud of you.

Mamata Banerjee

12 hours ago



Closing Ceremony - 19th Kolkata International Film Festival(9 photos)

In a colourful closing ceremony, curtains came down on the 19th Kolkata International Film Festival today at the Science City Auditorium.


Pancha Kanya - Mousumi Chatterjee,Sushmita Sen,Rani Mukherjee,Bipasha Basu and Koel Mullick were felicitated on this occasion.


This much loved event of Kolkata - 19th edition of the festival was a true carnival of cinema. All the cine lovers enjoyed the eight days' event in a festive spirit.


I am uploading some pictures of today's event for all of you to see.

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आपने अमरीका के ब्लैक हिल्स के दमन और प्रतिरोध की गाथा जरूर सुनी होगी। यह अमरीका के दक्षिणी डकोटा में पहाड़ियों की एक श्रृंखला़ है जहां सोना मिलने की चर्चा हुई थी। करीब 150 साल पहले ब्लैक हिल्स में सोने के खदानों पर कब्जे के लिए मुनाफाखोर बाहरी लोगों ने एक बड़ा हमला किया था। वहां के मूल निवासियों (रेड इंडियंस) को उनकी जमीन से बेदखल करने के लिए किया गया यह हमला जनसंहारों, समझौतों और हमलों के जरिए उन्हें बेदखल करने का क्लासिक उदाहरण बन गया। लेकिन साथ ही यह प्रतिरोध की मिसाल बनकर इतिहास की गाथाओं में भी अमर हो गया। आज जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए लड़ने वाले तमाम आदिवासियों के लिए यह एक सबक है। आज करीब डेढ़ सदी के बाद लगभग वही खेल हमारे देश के हृदयस्थल छतीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में खेला जा रहा है। हालांकि जनता के प्रतिरोध ने सरकार के पूरे खेल को ही बिगाड़ दिया है और उसकी सारी गणनाओं और गुणा-भाग को नकारा बना दिया है।


देश की जनता के खिलाफ शासक वर्गों द्वारा छेड़े गए युद्ध ऑपरेशन ग्रीन हंट के लगभग तीन साल पूरे हो गए हैं। इन तीन सालों में इस युद्ध ने दमन के नए-नए स्वरूपों को आख्तियार किया है। हालांकि दमन के इन भिन्न रूपों ने विभिन्न तरह के प्रतिरोधों को भी जन्म दिया है। ऑपरेशन ग्रीन हंट के शुरुआती दौर में शासक वर्ग जहां विभिन्न तरह के विजिलांते गैंगों यानी हत्यारे गिरोहों पर निर्भर था, वहीं आज जनसंहार के जरिए आतंक कायम करने का स्वरूप प्रधान हो गया है। नियमित कॉम्बिंग ऑपरेशन, इलाकों की घेरेबंदी, तलाशी, जनसंहार और जनता में आतंक बनाए रखने के लिए उनकों उत्पीड़ित करने जैसे तरीकों का इस्तेमाल काफी आम है। एक तरफ गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हवाई हमलों के जरिए माओवादियों को नेस्तनाबूद कर देने के लिए बेचैन हैं वहीं हिंदू फासीवादी ताकतें सेना भेजकर सबकुछ कुचल देने की ख्वाहिश रखती हैं। संसदीय वामपंथी पार्टियों का गठजोड़ जनता में सुधार तेज करने पर जोर देता है। शासक वर्ग इस युद्ध को एक मुकाम पर जल्दी ले जाने के लिए बेचैन है। ऐसे में यह सवाल बनता है कि उन इलाकों में माओवादियों की उपस्थिति के चालीस साल बाद आज अचानक क्या हो गया है? आखिर खनिज संपदा को निकाल लेने में सरकार को इतनी जल्दबाजी क्यों है? इन सारे सवालों के जवाब भारत के राजनीतिक-आर्थिक सवालों और शासक वर्गों के संकट से जुड़े हुए हैं।


राजनीतिक-आर्थिक संकट और युद्ध


1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय अंग्रेजों ने यहां के जमींदार और बड़े पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दी। इसमें अंग्रेजों ने भारत में साम्राज्यवादी हित भी बरकरार रखे। इसके मद्देनजर जो आर्थिक नीति अपनायी गयी वह नेहरू-महलानोबिस मॉडल के नाम से मशहूर है। दरअसल इसने देश के विकास की मुख्य संरचनात्मक बाधा कृषि संबंधों में बगैर कोई बदलाव किए यहां के जमींदारों और पूंजीपतियों के हित में आर्थिक नीतियां बनायीं। इसकी वजह से अधिकतर जनता बेहद निर्धनता की जिंदगी गुजारती रही। कृषि संबंधों में अर्धसामंती संबंध बरकरार रहने से गरीब जनता की क्रय क्षमता को बढ़ाना संभव नहीं हुआ। कृषि विकास में मौजूद संरचनात्मक बाधा से उपजे अंतर्विरोधों की वजह से 1960 के दशक के मध्य तक यह मॉडल पूरी तरह धराशायी हो गया। दुनिया के स्तर पर भी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आयी तेज उछाल जमीन पर औंधे मुंह आ गिरी थी। कीन्सीय अर्थशास्त्र का जादू भी अब बेकार हो गया था। इन सबने भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाला। 1960 के दशक के अंत तक कारखानों में बड़े पैमाने पर छंटनी और मजदूरों के संघर्ष की घटना आम हो गयी। मुद्रास्फीति में भी लगातार वृद्धि हो रही थी। तमाम उद्योग अपनी क्षमता से काफी कम उत्पादन कर रहे थे। इसके बावजूद उत्पादित माल को बेच पाना संभव नहीं हो रहा था। यह संकट लगातार गहराता गया। इसने मजदूरों और किसानों के गहन संघर्षों को जन्म दिया। नक्सलबाड़ी आंदोलन भी इसी पृष्ठभूमि में खड़ा हुआ आंदोलन था। शासक वर्ग का संकट निरंतर बढ़ता गया और जन संघर्ष लगातार तीखे होते गए। ऐसे में 1970 का दशक दमन और प्रतिरोध का दशक हो गया। शासक वर्गों के संकट को ध्यान में रखते हुए तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश की औपचारिक संसद को भी रद्द करते हुए 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। बड़े पैमाने पर दमन और हत्या का अभियान चलाया गया। डीआईआर और मीसा जैसे दमनकारी कानूनों के तहत तमाम हड़तालों और आंदोलनों को प्रतिबंधित कर दिया गया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां की गयीं। आपातकाल का असली लक्ष्य हमें जेआरडी टाटा के इस बयान से पता चलता है जो उन्होंने बंबई में एक पत्रकार को बातचीत के दौरान दिया था। उनका कहना था, 'चीजें काफी आगे निकल गयी हैं। हम यहां जिन हड़तालों, बहिष्कारों और प्रदर्शनों के दौर से गुजर रहे हैं आप उनका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। इन वजहों से मैं उन दिनों अपने कार्यालय से बाहर गलियों में भी नहीं टहल सकता था। संसदीय व्यवस्था हमारी जरूरतों से मेल नहीं खाती है।' इस तरह बड़ी पूंजी के हित में शासक वर्ग ने संसदीय व्यवस्था को खारिज कर दिया और इस दौरान बड़ी पूंजी के हित में काफी नयी नीतियां बनायी गयीं और उन्हें काफी रियायतें प्रदान की गयीं। सबसे पहले निर्यात आधारित 15 इंजीनियरिंग उद्योगों को अपनी लाइसेंस की क्षमता से 25 फीसदी अधिक क्षमता के स्वतः विस्तार की अनुमति दे दी गयी। 25 अक्तूबर, 1975 को मंझोले आकार के 21 उद्योगों को लाइसेंस से रियायत दे दी गयी। विदेशी कंपनियों और बड़े एकाधिकारी घरानों को 30 महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपने लाइसेंस से असीमित विस्तार की छूट दे दी गयी। सीमेंट, इस्पात और अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं पर सरकारी नियंत्रण को काफी ढीला कर दिया गया। कॉरपोरेट कर और व्यक्तिगत आय पर कर में काफी अधिक छूट दी गयी। उच्च तकनीक और उच्च निर्यात उद्योगों में विदेशी कंपनियों को क्रमशः 51 फीसदी और 74 फीसदी मालिकाने की अनुमति दी गयी। तीखे दमन और हत्या के जरिए प्रतिरोधों को कुचलकर मुनाफाखोर कंपनियों के लिए एक माकूल माहौल बनाया गया।


इन रियायतों और मजदूर वर्ग पर बर्बर दमन की बदौलत फिर थोड़े समय के लिए संकट टल गया लेकिन तब भी 1981 में भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के पास हाथ फैलाना पड़ा। इस कर्जे के एवज में भारत सरकार ने कई सार्वजनिक उपक्रमों में निजी कंपनियों को हिस्सेदारी बांटी। इसके बाद भी संकट का कोई हल नहीं निकला और 1991 में अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट ग्रस्त हो गयी। सरकार के पास अपने आयातों का भुगतान करने के लिए भी विदेशी मुद्रा नहीं रह गया था। ऐसे में भारत सरकार ने आइएमएफ की तमाम शर्तों को स्वीकार करते हुए कर्जा लिया। आइएमएफ ने कर्जे के एवज में भारत सरकार को स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम लागू करने के लिए बाध्य किया। इस कार्यक्रम का मकसद बाजार के हित में पूरी अर्थव्यवस्था को रिस्ट्रक्चर करना था। पूरी अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय निगमों और कंपनियों के लिए खोल दिया गया। इसकी शर्तों के अनुरूप राजकोषीय घाटा कम करने के नाम पर तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को घाटे में दिखाकर निजी हाथों में नीलामी की प्रक्रिया शुरू की गयी। सार्वजनिक खर्चों में लगातार कटौती की गयी। भारतीय बाजार की क्षमता का इस्तेमाल करने के लिए बड़े पैमाने पर बाहरी कंपनियां आयीं। एक तरफ उन्होंने कर्ज दिया तो दूसरी तरफ बाजार पर कब्जा कर लिया। विश्व बैंक और आइएमएफ द्वारा निर्देशित इन नीतियों ने थोड़े समय के लिए राहत दी और इनसे अर्थव्यवस्था में एक हद तक उछाल आयी। लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक में यह गुब्बारा फूटने लगा और शासक वर्ग फिर 1991 के आर्थिक संकट की तरह ही एक नये संकट में घिरने लगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 1991 के दौर का भूत इस कदर परेशान करने लगा कि उन्होंने 2012 के सितंबर में पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य को मुक्त करने और खुदरा बाजार में 100 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत देने के पक्ष में बात करते हुए कहा, 'अगर हमने अब भी कुछ नहीं किया तब विदेशी निवेशकों के साथ-साथ घरेलू फर्म भी हमारी अर्थव्यवस्था में निवेश करने से कतराने लगेंगे। पिछली बार 1991 में हम ऐसे ही संकट में फंस गए थे। उस समय हमें कोई छोटी राशि भी उधार देने के लिए तैयार नहीं था। हमें अपनी अर्थव्यवस्था में विश्वास खत्म होने से पहले ही गतिशील हो जाना चाहिए।'


दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने फिर से भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो गया है। इसने न केवल तथाकथित विकास के वर्तमान दौर बल्कि पूरे शासक वर्ग को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। अर्थशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि मुक्त अर्थव्यवस्था में प्रतिकूल भुगतान संतुलन खुद ही एक साम्य यानी संतुलन की स्थिति में आ जाती है। यह बताता है कि प्रतिकूल भुगतान संतुलन की वजह से आयात महंगा हो जाता है और देश का निर्यात सस्ता हो जाता है। इससे आयात की मांग में कमी होती है और इसी समय सस्ता होने की वजह से निर्यात के लिए मांग बढ़ जाती है। इस तरह अर्थव्यवस्था में आयात-निर्यात में फिर एक संतुलन की स्थिति के आने से भुगतान संतुलन में एक संतुलन की स्थिति बनती है। लेकिन भारत में आज यह सिद्धांत कोई काम नहीं कर रहा। महंगे आयात के दौर में भी आयात के लिए मांग में कोई कमी नहीं हो रही है। इस तरह भुगतान संतुलन के मोर्चे पर काफी बुरी स्थिति बन गयी है। इसकी बड़ी वजह भारत में असमानता का काफी बढ़ना है। हाल के दिनों में भारत में एक ऐसे वर्ग का विकास हुआ है जिसकी आय पर मंदी और संकट का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन बहुमत जनता की बदहाली की वजह से बाजार का विस्तार संभव नहीं हो पाया है।


भारत सरकार का वस्तुओं का व्यापार घाटा (आयात-निर्यात का अंतर) 2000-2001 में 2.6 फीसदी से बढ़कर 2012-2013 में 10.9 फीसदी हो गया है। पहले सरकार का यह घाटा अदृश्य खाते (सेवा, विदेशों में भारतीयों की आय, विदेशों में भारतीय निवेश पर प्राप्त आय और भारत में विदेशी निवेश पर अदायगी) के जरिए पूरा होता था। इस व्यापारिक खाते और अदृश्य खाते के जोड़ को ही चालू खाता कहा जाता है। भारत सरकार का व्यापारिक खाता घाटा अदृश्य खाते पर आमदनी से काफी अधिक रहा है। इसलिए हमेशा ही चालू खाते पर घाटे की स्थिति रही है। 2003 के बाद चालू खाते पर घाटे की स्थिति ज्यादा ही बुरी हो गयी है। 2004-05 में अदृश्य खाता जहां 92.6 फीसदी व्यापारिक घाटे को पूरा करता था वहीं 2012-2013 में यह महज 52.9 फीसदी ही पूरा कर पा रहा है। 2011-2012 के पहले और 1947 के बाद सबसे अधिक चालू खाता घाटा और जीडीपी का अनुपात 1957-1958 (3.1 फीसदी) और 1990-1991 (3 फीसदी) में था। 2011-2012 में यह 4.2 फीसदी पर पहुंच गया और 2012-2013 में इसके 5 फीसदी पर पहुंचने का अनुमान है। आरबीआई लगातार तीन तिमाही में 2.5 फीसदी से अधिक चालू खाता घाटा और जीडीपी के अनुपात को अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं मानता है। 2012-2013 में चालू खाता घाटा की राशि 94.2 अरब डॉलर के आंकड़े को छू गयी है। वर्तमान में इस घाटे को विदेशी निवेश और विदेशी कर्जों से प्राप्त धन से पूरा किया जाता रहा है।


आज भारत का कुल बाहरी कर्ज मार्च, 2009 में 225.5 अरब डॉलर से बढ़कर दिसंबर, 2012 में 376.3 अरब डॉलर हो गया है। इसके अलावा विदेशी निवेश पर भी सरकार को देनदारी चुकानी होती है। इस तरह भारत की कुल विदेशी देनदारी (विदेशी कर्ज और विदेशी निवेश) मार्च, 2009 में 409 अरब डॉलर से बढ़कर दिसंबर, 2012 में 723.9 अरब डॉलर हो गया है। एक अध्ययन बताता है कि भारत के कुल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रुप में विदेशी निवेश और कर्जों पर भारत सरकार की देनदारी  ब्रिटिश राज के अधीन प्रतिशत के रुप में भारत से वार्षिक पूंजी की निकासी के लगभग बराबर था। इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने भुगतान संतुलन को अनुकूल बनाए रखना काफी मुश्किल हो गया है। इस खतरे को पाटने के लिए भारत सरकार के सामने अब और कोई रास्ता नहीं है। विदेशी एवं देशी बड़े पूजीपतियों को रियायतों के जरिए विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने और अर्थव्यवस्था को बचाए रखने की तमाम कोशिश बेकार साबित हो गयी है। विदेशी निवेश को लाने के नाम पर सरकार ने जुलाई में टेलीकॉम और कुछ अन्य क्षेत्रों में 100 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत दे दी है। हालांकि इससे भी कितना फायदा होगा यह कहना मुश्किल है। आज तमाम अधिकारियों एवं सरकारी विशेषज्ञों के चेहरे पर 1991 की तरह एक दुसरे संकट की चिंता साफ झलक रही है। इस संकट की मूल वजह है बहुमत जनता की गरीबी की वजह से उसकी क्रय क्षमता का नहीं बढ़ना। कृषि विकास की संस्थागत बाधाओं को दूर किए बगैर इसे हासिल कर पाना भी मुश्किल है। भारतीय शासक वर्ग ने इसे पूरा किए बगैर ही पूंजी को छूट देकर और जनता पर दमन के जरिए जितनी भी कोशिशें कीं, उनसे तात्कालिक राहत तो जरूर मिली, लेकिन उसने संकट से कोई निजात नहीं दिलाया। ऐसे मंे भारत सरकार के पास एक आसान रास्ता है तमाम प्राकृतिक संपदा को विदेशी कंपनियों के हाथों में बेच देना। 2003-04 से शुरू हुए इस संकट को पाटने के लिए भारत सरकार ने इसी रास्ते का चयन किया और तमाम जंगलों-पहाड़ों को बहुराष्ट्रीय निगमों और बड़े पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया। हालांकि जनता के प्रतिरोध ने सरकार की इस योजना को नाकाम कर दिया है। ऐसे में जेआरडी टाटा के शब्दों में बड़ी पूंजी और साम्राज्यवादी ताकतों को एक फासीवादी राज्य की जरूरत है। भारत सरकार उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए ही एक समन्वित युद्ध की जल्दबाजी में है। अब अर्थव्यवस्था से और अधिक अतिरिक्त मुनाफा यानी सरप्लस वसूलने की तमाम सामान्य कोशिशें बेकार साबित हो चुकी हैं। कर्जों और विदेशी निवेशों के जरिए अर्थव्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश भी अब विफल हो गयी है। इस तरह अर्थव्यव्स्था का यह पूरा मॉडल ही खतरे में है। अब ऐसे में इस पूरे तंत्र को बचाए रखने के लिए देश के संसाधनों को बेचना ही एकमात्र रास्ता रह गया है। इसके लिए शासक वर्गों को एक मिलिटरी स्टेट या फिर फासीवादी स्टेट जैसे राजनीतिक तंत्र की जरूरत है। यह युद्ध भी शासक वर्ग की इन जरूरतों का ही हिस्सा है।


आखिर यह कैसा युद्ध है?


सबसे पहले वाजपेयी सरकार के शासनकाल में यह बात स्थापित करने की कोशिश की गयी कि देश की खनिज संपदा पर नक्सलवादी जमे हुए हैं। इसके बाद से ही एक योजनाबद्ध दमन की शुरुआत हुई। इसके संचालन के लिए वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक यूनिफाइड कमांड बनायी। यह यूनिफाइड कमांड मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान ज्वाइंट ऑपरेशनल कमांड में बदल गयी। 2006 से ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताना शुरू किया। इसके बाद ठोस रूप से गृहमंत्री पी. चिदंबरम के कार्यकाल में एक समन्वित युद्ध की शुरुआत हुई। गृहमंत्री ने माओवादियों के सफाये के लिए पहले सौ दिनों का एक कैलेंडर बनाया। फिर इसे एक साल और फिर तीन साल कर दिया गया। माओवादियों और आम जनता की तरफ से तीव्र प्रतिरोध ने तत्कालीन गृहमंत्री की समूची योजना पर पानी फेर दिया। 2009 आते-आते यह तीखा दमन पूरी तरह एक युद्ध में तब्दील हो गया। इसमें सीमा पर इस्तेमाल होने वाले तमाम विध्वंसक हथियार, हवाई निगरानी, ड्रोन आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हो रहा है। ऐसे में इस युद्ध के चरित्र और लक्ष्य को समझना काफी जरूरी है।


देश के आर्थिक हालात से स्पष्ट है कि यह युद्ध साम्राज्यवाद और बड़ी पूंजी की रक्षा और उनके हित में छेड़ा गया है। इसका मूल मकसद देश के प्राकृतिक संसाधनों पर इन मुनाफाखोर ताकतों को कब्जा दिलाना और जनता के तमाम प्रतिरोधों को कुचलकर शासक वर्गों के लिए एक उपयुक्त माहौल उपलब्ध कराना है। ताकि इस संकट का तमाम बोझ आम जनता के सिर पर डाल दिया जाये। इस युद्ध की योजना से लेकर क्रियान्वयन और तकनीक भी साम्राज्यवादी ताकतें उपलब्ध करवा रही हैं। यह युद्ध महज माओवादियों के खिलाफ नहीं है बल्कि उन तमाम लोगों के खिलाफ है जो साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ खड़े हैं।


आज तमाम संघर्षों पर शासक वर्ग ऐसे ही दमन कर रहा है। कुडनकुलम में परमाणु रिएक्टर के खिलाफ, असम में विस्थापन के खिलाफ, उड़ीसा में पोस्को के खिलाफ संघर्ष, दिल्ली में मारुति के मजदूरों के संघर्ष सहित तमाम संघर्षों को कुचलने के लिए बर्बर दमन चलाया जा रहा है। जो भी संघर्ष समझौताविहीन तरीके से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं उन पर माओवादी होने का ठप्पा लगाकर उनको दमन का शिकार बनाया जा रहा है। दरअसल शासक वर्गों की चिंता यह है कि इन संघर्षों की बागडोर कहीं माओवादियों के हाथों में न आ जाये। शासक वर्ग जानता है कि बुरे दमन के दौर में भी आंदोलनों को नेतृत्व देने के लिए उपयुक्त संरचना और जज्बा केवल माओवादियों में ही है। इसलिए साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ तमाम संघर्षों को एकदम शुरू से ही कुचला जा रहा है। हाल ही में उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीयताओं के संघर्षों के भी माओवादियों के हाथों में आने की चर्चा शुरू हुई है। इसका मतलब है कि उत्तर-पूर्व में भी दमन के एक नये अभियान की शुरुआत होने वाली है। शासक वर्ग द्वारा छेड़ा गया यह युद्ध प्रतिरोध की तमाम जनवादी और देशभक्त ताकतों के खिलाफ है लेकिन चूंकि माओवादी इस प्रतिरोध के सबसे अग्रिम और मुकम्मल मोर्चे पर हैं इसलिए इस युद्ध के सबसे पहले निशाने पर वे ही हैं।


दमन और प्रतिरोध


दुनिया में वर्ग समाज के अस्तित्व के साथ ही वर्गीय शोषण की शुरुआत हुई और शोषण को निरंतर जारी रखने के लिए दमन का तंत्र विकसित किया गया। इस तरह दमन का सीधा संबंध शोषण के साथ रहा है। जैसे-जैसे शोषण तेज हुआ है इसको जारी रखने के लिए दमन भी तेज हुआ है। शोषण-दमन से उपजे विक्षोभ ने प्रतिरोधों को भी जन्म दिया। प्रतिरोध का स्वरूप हमेशा दमन के स्वरूप पर ही निर्भर रहा है जबकि दमन का स्वरूप शोषण के स्वरूप पर निर्भर करता है। इस तरह शोषण, दमन और प्रतिरोध के बीच द्वंद्वात्मक संबंध रहा है। शोषण का स्वरूप जब-जब तीखा हुआ है इसको जारी रखने के लिए तीखे दमन का सहारा लिया गया है। इसकी वजह से तीखे प्रतिरोध भी पैदा हुए हैं। जब शोषण की तीव्रता काफी बढ़ जाती है तब जनता के अंदर का विक्षोभ एक ठोस शक्ल ले लेता है और दमन के तमाम औजारों को चुनौती देते हुए उठ खड़ा होता है। तमाम काल में विद्रोहों का यही स्वरूप रहा है।


इस तरह द्वंद्वात्मक तरीके से देखा जाए तो दमन ही प्रतिरोध के स्वरूप को निर्धारित करता है। आज जब साम्राज्यवादी और बड़ी पूंजीपतियों की लूट अपने चरम पर पहुंच गयी है-इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए दमन के स्वरूप और तंत्र भी निर्धारित किए गए हैं। आज इसने एक युद्ध का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। भारत में 1947 के बाद अब तक का यह सबसे तीखा युद्ध है। सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक तमाम क्षेत्रों में आज साम्राज्यवाद के साथ ऐसा तालमेल है जो अबतक के इतिहास में नहीं देखा गया है। इस तरह इस युद्ध ने तमाम क्षेत्रों में एक संगठित स्वरूप ले लिया है।


ऐसे में भारत में जो संसदीय वामपंथी और शासक वर्गीय ताकतें माओवादियों के प्रतिरोध को ही दमन का कारण बताते हैं, वे पूरी तरह अपने धोखाधड़ी भरे और अवैज्ञानिक नजरिए को ही सामने रखता है। बल्कि ऐसा करके ये ताकतें भारत के शासक वर्गों के साथ ही इस युद्ध के पक्ष में खड़ी होती हैं और शासक वर्ग द्वारा जनता के संघर्षों को कुचल देने को जायज ठहराती हैं। आज जब शासक वर्ग दमन के सबसे उच्च स्तर यानी युद्ध की हालत में है, ऐसे में प्रतिरोध का स्वरूप भी इस दमन के स्वरूप से निर्धारित होगा, न कि हमारे अपने मन में बनाए गए आकलनों से। इतिहास में ऐसा कभी नहीं रहा कि प्रतिरोधों की वजह से दमन शुरू हुआ हो बल्कि प्रतिरोध तो हमेशा दमन की वजह से ही शुरू हुए हैं। ऐसे में प्रतिरोध को स्वरूप की बहसों में उलझाना न केवल इतिहास के अनुभवों को नकारना है बल्कि शासक वर्ग के साथ ही खड़ा होना है। जहां तक प्रतिरोध में हिंसा का सवाल है तो हिंसा तो प्रकृति में ही निहित है। मानव अस्तित्व का सवाल भी इस प्राकृतिक हिंसा के प्रतिरोध से जुड़ा हुआ है। मानव विकास का सिद्धांत हमें बताता है कि जो भी जीव प्राकृतिक हिंसा का प्रतिरोध करने में विफल रहे हैं, उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया। साम्राज्यवादी लूट और बड़े पूंजीपतियों के हित में छेड़े गए इस युद्ध का प्रतिरोध की जनवादी और देशभक्त ताकतों की गोलबंदी और उनके प्रतिरोध से ही संभव होगा। इसे प्रतिरोध के स्वरूप की बहस में उलझाना न केवल साम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबों को सफल बनाने के बराबर होगा, बल्कि प्रतिरोध को ही नष्ट कर देने के बराबर होगा।


भारत में एक अन्य धारा है जो सरकारी बलों और माओवादियों की लड़ाई के बीच में आदिवासियों को फंसा हुआ मानती है। इनका मानना है कि माओवादियों का प्रतिरोध ही आदिवासियों को दमन का शिकार बना रहा है। इस तरह आदिवासियों पर शोषण-दमन के लिए ये माओवादियों को ही मूल जिम्मेवार मानते हैं। ये असल में शासक वर्गों की लडाई का मकसद ही नहीं समझ पाते, इसलिए प्रतिरोध को भी नहीं समझ पाते। दुनिया की तमाम लड़ाइयों में ऐसे लोग रहे हैं जिनमें कुछ लोग जहां जीवन-मौत की लड़ाई में शामिल होकर अन्याय पूर्ण युद्ध का प्रतिरोध करते हैं वहीं कुछ ऐसे लोग होते हैं जो तमाशबीन की तरह इसका आनंद लेते हैं और सही-गलत का केवल फैसला देते हैं। रॉबर्ट वेल ने अपने लंबे आलेख (Is the Torch Passing? The Maoist Revolution in India) में ऐसे लोगों के बारे में ठीक ही कहा है, ''उत्पीड़ित जनता का बहुमत इस लड़ाई के बीच में नहीं फंसा है बल्कि उन्होंने तो अपना निर्णय ले लिया है लेकिन समाज के 'प्रभावी', 'स्पष्टभाषी' समेत प्रगतिशील और वामपंथी लोग इसके बीच में खुद को उलझा हुआ महसूस कर रहे हैं। सैंडविचेज-जिसका नाम सामंतों के लिए अंग्रेजी में एक विशेष पदवी पर रखा गया है-संसदीय लोकतंत्र जैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक आयात की तरह है। भारतीय वामपंथियों के बारे में यह कहना ज्यादा माकूल होगा कि वे उस सर्वव्यापी सादी रोटी की तरह हैं जो हल्के या मसालेदार, शाकाहारी या मांसाहारी किसी भी सब्जी के साथ चलती है। भारत में वामपंथियों और प्रगतिशील संगठनों ने इसी तरह असीमित दृष्टिकोण और प्रस्थापना अपनायी हुई हैः संसदीय और गैरसंसदीय, माक्र्सवादी और गांधीवादी, हिंसक और अहिंसक। अगर आकलन किया जाए तो यहां अकेले कम्युनिस्ट पार्टियों की संख्या तीस है। इनमें से आधे बड़े या छोटे, राष्ट्रीय या क्षेत्रीय नक्सलवादी हैं।''


जनता की ताकत में विश्वास कमजोर होने की वजह से कई ताकतें शासक वर्गों के अंतर्विरोधों में ही अपनी जगह तलाशती हैं। इस तरह ये न केवल राजनीतिक विकल्प को कमजोर करती हैं बल्कि शोषण के पुराने तंत्र को भी टिकाये रखने में मदद करती हैं। 1970 के दशक के बाद से ही यह प्रचारित किया जाने लगा कि अब संस्थागत प्रतिरोधों का कोई मतलब नहीं रह गया। इस प्रक्रिया में जनता के संस्थागत प्रतिरोधों को खत्म करने के लिए स्वतःस्फूर्त प्रतिरोधों को खड़ा करने की कोशिश की गई। शासक वर्गों और फासीवादी ताकतों के लिहाज से यह काफी माकूल भी था क्योंकि जनता के भीतर की उथल-पुथल और गुस्से को एक संगठित या क्रांतिकारी प्रतिरोध की षक्ल देने के बजाए यह इस आक्रोष को संगठित और ठोस बदलावों (क्रांति) से दूर करते हुए उसे नाकाम बना देनेवाले सेफ्टी वाल्व के रूप में यह काम कर रहा था। इसके लिए एनजीओ काफी सटीक संस्था थे। इन स्वतःस्फूर्त प्रतिरोधों के झंडाबरदार सामराजी पैसों पर पलनेवाले ये एनजीओ अब एक्टिविस्ट बन गए। जाहिर तौर पर स्वतःस्फूर्त प्रतिरोधों के लिए जगह संस्थागत प्रतिरोध की ताकतों की समझौतावादी नीतियों ने ही उपलब्ध करवायी।


जयराम रमेश का अभियान


जब बर्बर युद्ध के जरिए भी शासक वर्ग प्रतिरोध को खत्म नहीं कर पा रहा तब वह दुनिया के प्रतिरोध विरोधी अपने अनुभवों के आधार पर अलग-अलग तरीके इस्तेमाल कर रहा है। सैनिक भाषा में इस समग्र रणनीति को कम तीव्रता वाला युद्ध कहा जाता है। यह विद्रोहों के खिलाफ अपनायी जाने वाली एक ठोस साम्राज्यवादी रणनीति है जिसमें युद्ध के सैनिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तमाम पहलुओं को शामिल किया जाता है। भारत में भी इस रणनीति का इस्तेमाल 1990 के दशक के उतरार्ध से ही शुरू हो गया। जनता के विकास के नाम पर अपनाये जाने वाले सुधार भी इसी रणनीति का हिस्सा हैं। यहां सरकार ने प्रतिरोध वाले इलाकों के लिए एक इंटिग्रेटेड एक्शन प्लान बनाया। इस प्लान में हमला और सुधार दोनों को साथ-साथ चलाने की बात है। यह वैसा ही सुधारवादी प्लान है जो अमरीका के ब्लैक हिल्स से रेड इंडियंस को विकास और सभ्य बनाने के नाम पर रिजर्वेशन में ले जाने के लिए अपनाया गया था और अंततः वुंडेड नी में एक जनसंहार के जरिए उन्हें खत्म कर दिया गया था। आज भारत में इसी इंटिग्रेटेड एक्शन प्लान को लागू करने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री ने दिन-रात एक कर दिया है। उन्होंने इसकी शुरुआत सारंडा से की और फिर इसे झारखंड के अन्य इलाकों, उड़ीसा और छतीसगढ़ तक विस्तार दिया। सारंडा में इसका नाम सारंडा एक्शन प्लान दिया गया। इतना ही नहीं, आदिवासियों पर जयराम रमेश का इस कदर दिल आ गया कि उन्होंने अपना नाम जयराम रमेश मुंडा रख लेने की घोषणा की। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मरने के बाद सारंडा में ही दफनाया जाना चाहिए। लेकिन उनके विकास की पोल तभी खुल जाती है जब सारंडा एक्शन प्लान की हकीकत सामने आती है। सारंडा एक्शन प्लान का खाका केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय, झारखंड सरकार, एनजीओ और विश्व बैंक के अधिकारियों के एक दल ने बनाया है। इस दल में तीन अधिकारी विश्व बैंक के थे। इसमें आदिवासियों को साइकिल, रेडियो, सोलर लैंप और फॉरेस्ट एक्ट के तहत 4 हेक्टेयर जमीन देने जैसी बातें हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे ब्लैक हिल्स के रेड इंडियंस को पूरा जंगल, शिकार और चरागाह छोड़ने के एवज में जमीन का एक छोटा टुकड़ा दिया जा रहा था।


हम जानते हैं कि जंगल पर सदियों से आदिवासियों का अधिकार रहा है। ऐसे में पूरे जंगल से उन्हें बेदखल कर उन्हें 4 हेक्टेयर जमीन देने की बात काफी हास्यास्पद है। इतना ही नहीं आदिवासियों की बर्बादी के लिए जवाबदेह माइनिंग कंपनियों और जंगल पर आदिवासियों के अधिकार के बारे में यह एक्शन प्लान कोई बात नहीं करता। मूल सवाल यहां यही बनता है कि आखिर विश्व बैंक को आदिवासियों के विकास की चिंता कब से हो गयी। दुनिया में कॉरपोरेट शार्कों और मुनाफाखोरों के लिए काम करने वाली यह संस्था अचानक भारत में आदिवासियों के विकास के बारे में कैसे चिंतित हो गयी। असली मकसद तो आदिवासियों को नमक चटाकर उनका घर-बार हड़प लेने का है। हालांकि केंद्रीय मंत्री यह मामूली सुधार भी लागू नहीं कर पाए। सारंडा एक्शन प्लान के नाम पर आवंटित राशि का एक बड़ा हिस्सा इनके अधिकारियों और एनजीओ की जेब में जा रहा है। झारखंड सरकार के अधिकारी केंद्रीय गृहमंत्री को यह भी नहीं बता पाये कि इस प्लान के नाम पर आवंटित राशि का कितना हिस्सा खर्च किया जा सका है। इसी एक्शन प्लान के क्रियान्वयन के दौरान सेल और जिंदल स्टील को सारंडा में माइनिंग लीज आवंटित किए गए। जिंदल स्टील को देने के लिए 1,270 एकड़ फॉरेस्ट लैंड को माइनिंग के लिए डाइवर्ट कर दिया गया। इस तरह जिंदल स्टील को लोहा और मैगनीज अयस्क की निकासी के लिए करीब 2,470 एकड़ जमीन आवंटित की गई। सेल को भी करीब 520 एकड़ जमीन दी गई। इस तरह सारंडा एक्शन प्लान की माइनिंग कंपनियों के साथ रिश्तों की पोल पूरी तरह खुल जाती है। सारंडा एक्शन प्लान आदिवासियों के विकास का कोई प्लान नहीं बल्कि उनके जंगलों पर कॉरपोरेट कंपनियों को कब्जा दिलाने के लिए प्रतिरोध को खत्म करने का जरिया भर है।


विकल्प को नष्ट करने की साजिश


देश में लंबे समय से समय व्याप्त आर्थिक संकट ने राजनीतिक संकट को भी जन्म दिया है। दरअसल यह संकट देश में विकास की बाधाओं और अंतर्विरोधों का ही परिणाम है। इसलिए इन अंतर्विरोधों को हल किए बगैर इसका कोई समाधान नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त इस संकट ने 1970 के दशक से ही राजनीतिक क्षेत्रों में अपना रंग दिखाना शुरू किया और 1990 के दशक के अंत तक यह काफी गहरा हो गया। हालत यह हो गई कि संविधान की प्रस्थापनाओं के अनुरूप कोई भी पार्टी सरकार चला पाने की हालत में नहीं है। जहां कई पार्टियां मिलकर सरकार बना रहीं हें वहीं कई पार्टियां मिलकर सांवैधानिक विपक्ष की कुर्सी संभाल रही हैं। लेकिन जो नहीं बदला है वह है साम्राज्यवाद और बड़ी पूंजी के पक्ष की नीतियां। निरंतर घोटालों की खबरों ने तो शासक वर्गों को और बेनकाब कर दिया है। देश के खुफिया विभाग द्वारा आतंकवाद के नाम पर कत्लेआम ने तो शासक वर्गों की पोल खोलकर रख दी है। इतना ही नहीं एक सरकारी अधिकारी द्वारा संसद पर सरकार द्वारा हमले कराये जाने की बात ने तो उन्हें और बेनकाब कर दिया है। ऐसे में देश में एक विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हुई है।


इस विकल्पहीनता की स्थिति में माओवादियों के संघर्ष ने जनता के सामने एक विकल्प के रुप में उभरी है। उनकी कुर्बानियों और जीवन-मौत के समझौताहीन संघर्षों ने जनता में यह बात स्थापित करने की कोशिश की है कि अब मुकम्मल बदलाव की किसी भी कोशिश का नेतृत्व नक्सलवादी की कर सकते हैं। इसके अलावा आज देश में अकेले माओवादियों के पास ही एक ठोस राजनीतिक-आर्थिक विकल्प है। माओवादियों के विकास के नए वैकल्पिक मॉडल की चर्चा भी इन दिनों बड़े स्तर पर सामने आयी है।


एक रिपोर्ट के अनुसार छतीसगढ़ में जनताना सरकार ने जो वैकल्पिक सत्ता का विकास किया है उसका मूल जोर भूमि सुधार, कृषि, स्वास्थ्य और शिक्षा पर है। सिंचाई के लिए तालाब का निर्माण, बेघर लोगों के लिए सामूहिक श्रम से घर का निर्माण, वैज्ञानिक विधि से खेती कराना, शिक्षा के क्षेत्र में वैकल्पिक पुस्तकें व पाठ्यक्रम का निर्माण तथा स्कूलों के संचालन जैसे कुछ मुख्य कार्य जनताना सरकार कर रही है। एक रिपोर्ट बताती है कि 2011 में जनताना सरकार ने भूमि के समतलीकरण का अभियान शुरू किया। इस अभियान में 6,321 एकड़ जमीन को खेती करने के लायक बनाया गया। इस प्रक्रिया में करीब 341 तालाबों को काम के लायक बनाया गया। इसमें जहां कुछ नये तालाब बनाये गये जबकि कुछ पुराने तालाबों को ही काम के लायक बनाया गया। आम जनता की भागीदारी के बारे में यह रिपोर्ट कहती है कि अकेले दक्षिणी बस्तर में 1,20,000 लोगों ने जमीन को समतल बनाने के अभियान में हिस्सा लिया। इसमें एक तिहाई महिलाएं शामिल थीं। लगभग 1,000 सांस्कृतिकर्मियों ने काम के दौरान उनकी मदद की और रोज दो घंटे के हिसाब से काम करने वालों को तरो-ताजा बनाकर उनके उत्साह को बनाए रखने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। इस तरह जनता के सहयोग से आम जनता के पक्ष में विकास का एक नया मॉडल जन्म ले रहा है। जाहिर तौर पर जनता के सामने एक मुकम्मल विकल्प के रूप में दावेदारी के लिए इसे अभी बहुत कुछ करना होगा।


ऐसे में शासक वर्गों के साम्राज्यवादी, सामंतवादी और बड़ी पूंजी के हित में एक संकटग्रस्त आर्थिक मॉडल के समांतर आम जनता का एक वैकल्पिक जन मॉडल आकार ले रहा है। अपने जीवनस्तर को ऊंचा उठाने के लिए आम जनता इसमें भागीदारी कर रही है। इन परिस्थितियों में शासक वर्ग के संकटग्रस्त राजनीतिक-आर्थिक मॉडल को इस वैकल्पिक मॉडल से दीर्घकाल में एक खतरा महसूस हो रहा है। इसलिए शासक वर्ग इस नए विकल्प को भ्रूण रूप में ही कुचल देना चाहता है। एक ठोस राजनीतिक-आर्थिक विकल्प पेश करने की वजह से भी माओवादी शासक वर्गों के प्रमुख निशाने पर हैं। इस तरह शासक वर्गों का यह युद्ध इन दो तरह के राजनीतिक-आर्थिक मॉडलों के बीच युद्ध भी है।


आज जब शासक वर्ग ने देश की जनता के खिलाफ साम्राज्यवाद-सामंतवाद और बड़ी पूंजी के हित में सघन अभियान छेड़ दिया है, तमाम जनवादी और देशभक्त ताकतों का इस युद्ध के प्रतिरोध में गोलबंद होना आज के लिए जरूरी और लाजिमी बन जाता है। इतिहास गवाह है कि दमन ने और अधिक प्रतिरोध को जन्म दिया है। देश की शोषित-पीड़ित जनता इस युद्ध के खिलाफ जीवन-मौत के संघर्षों में रोज जूझ रही है। अंतिम रूप से यह संघर्ष अपनी मातृभूमि की रक्षा में है। इसलिए आज जनवादी ताकतों का भी यह दायित्व बनता है कि हर संभव तरीके से अपनी मातृभूमि के खिलाफ लुटेरी ताकतों के हित में छेड़े गये इस युद्ध का हर संभव प्रतिकार किया जाये।

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गडचिरौली मुठभेड़: मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट.

Posted by चन्द्रिका on 9/03/2013 02:29:00 PM

मूलतः यह रिपोर्ट अंग्रेजी में लिखी गई थी जिसका हिन्दी में अनुवाद किया है प्रेम प्रकाश ने.

गडचिरोली जिले में इस वर्ष मुठभेड़ की छः वारदातों की खबरें मीडिया व प्रेस में आयीं। इन मुठभेड़ों में कुल 26 व्यक्तियों की जिंदगी खत्म हो गई। जहाँ पर मुठभेड़ हुई वहाँ के लोगों ने पुलिस द्वारा बताई गयी बात की सच्चाई पर सवाल खड़े किए हैं।  

        विभिन्न राज्यों के अखिल भारतीय नागरिक आजादी और जनतांत्रिक अधिकारों की संयुक्त संस्था 'जनतान्त्रिक अधिकार संगठनों का समन्वय' (सी.डी.आर..) ने भारतीय जन वकील संघ (इंडियन एसोशिएसन आफ पीपुल्स लायर) के साथ मिलकर सत्य को सुनिश्चित करने के लिए तथ्यों की जाँच-पड़ताल को अंजाम दिया। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र और दिल्ली के सात संगठनों के 23 सदस्यीय दल ने 23 से 26 अगस्त 2013 तक गडचिरोली जिले का दौरा किया। दल नें पाँच गाँवों-  धानोरा तहसील के सिंदेसुर, कुरखेड़ा तहसील के भगवानपुर, एटापल्ली तहसील के मेंधरी और अहेरी तहसील के गोविंदगाँव व भाटपार का भ्रमण किया जहाँ मुठभेड़ हुई थी। जाँच दल नें पांचों गाँवों के लोगों, जन प्रतिनिधियों, मीडिया के लोगों, राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों और पुलिस से मुलाक़ात की।

जाँच दल की तात्कालिक प्राप्तियाँ निम्नलिखित हैं:

1.      सभी पांचों घटनाओं में पुलिस द्वारा पहले गोलाबारी शुरू की गयी। भगवानपुर और गोविंदगाँव की  घटनाओं  में जो लोग मारे गए उनकी तरफ से कोई जवाबी गोलाबारी नहीं हुई।

2.         सभी पांचों घटनाओं में पुलिस द्वारा चेतावनी व समझाने का कोई प्रायस नहीं किया गया। पुलिस द्वारा तथाकथित माओवादियों से अपना हथियार डालने के लिए कोई घोषणा नहीं की गई। भगवानपुर, मेंधरी, गोविंदगाँव और भाटपार की घटनाओं में जहाँ लोग पुलिस द्वारा चारो तरफ से घेर लिए गए थे, पुलिस द्वारा आत्मसमर्पण करने के लिए घोषणा नहीं की गई और लोगों को बाद में मार डाला गया।

3.         मेंधरी और भगवानपुर की घटनाओं में हुई हत्याएं फर्जी मुठभेड़ थी। मेंधरी गाँव में छः महिला माओवादियों ने मारे जाने से पहले ही अपने हथियार डाल दिये थे और समर्पण कर दिया था। भगवानपुर में जो व्यक्ति मारा गया वह मारे जाने से पहले पुलिस हिरासत में था।

4.      भगवानपुर, मेंधरी और भाटपार गाँव की घटनाओं में गाँव वालों को पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटा गया। भगवानपुर में 10 व्यक्तियों को सारी रात सड़क पर पीटा गया। मेंधरी में एक व्यक्ति को पुलिस द्वारा लोगों को पीटने तथा दुर्व्यवहार से बचाने के लिए गोली मार दी गयी। भाटपार गाँव के तीन लोगों को दो दिन तक पुलिस स्टेशन में रोक कर रखा गया और पीटा जाता रहा।

5.    मुठभेड़ में हत्या की सभी घटनाओं में यह अनिवार्य है कि अपराध की जाँच ऐसे पुलिस अधिकारी द्वारा हो जो हत्या में शामिल पुलिस बल और पुलिस स्टेशन से स्वतंत्र हो। हमारी अधिकतम जानकारी के अनुसार इसका पालन नहीं किया गया।

6.       पुलिस अधीक्षक नें हमसे कहा की उचित पंजीयन और जाँच को सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक मुठभेड़ में हत्या की आंतरिक जाँच एक उप पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा की जा रही है। यद्यपि उसने पुष्ट किया कि इन घटनाओं की जाँच रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। आंतरिक जाँच होने की वजह से इसमें न तो पारदर्शिता होगी और न ही निष्पक्षता।

7.       मेंधरी मुठभेड़ मामले में मजिस्ट्रेट स्तर की जाँच का आदेश दिया गया है। परंतु हमें मजिस्ट्रेट द्वारा ग्रामीणों के बयान दर्ज करने के प्रयास का एक भी साक्ष्य नहीं मिला। किसी भी तरह अधिशासी मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच इस तरह के मामले की जाँच में निष्पक्षता नहीं प्रदान कर सकती।

8.      कम से कम सिंदेपुर की दो हत्याओं को "द्विपक्षीय क्षति" कहा जा सकता है। पुलिस और प्रशासन का इस मामले में रवैया अत्यंत निर्मम है। गाँव के दो युवा लड़के दो-तरफा गोलाबारी में मारे गए। अभी तक उन परिवारों को न तो कोई मुआवजा मिला और न ही राज्य द्वारा उन परिवारों से कोई संवेदना प्रकट की गई। इसके विपरीत सरकार ने बड़ी फुर्ती से अपने "मानवीय सरोकार" के प्रमाण के रूप में प्रत्येक परिवार को 10 लाख रुपये की सहायता के बड़े विज्ञापन बोर्ड जिले भर में लगा दिया है।

9.   भाटपाल गाँव में मारी गई महिलाओं में से एक उसी गाँव की निवासी थी। उसके माँ-बाप के अनुनय-विनय और सारे गाँव के पुलिस थाने पर इकट्ठा होने के बावजूद पुलिस ने अंतिम अधिकार के रूप में मृत शरीर को उन्हें देने से इंकार कर दिया। यह अत्यंत निंदनीय है। अन्य मामलों में भी लाशें लंबे समय तक बिना पहचाने ही पड़ी रहीं, उनकी तस्वीरें प्रकाशित नहीं की गईं तथा माँ-बाप व संबंधियों को पोस्टमार्टम की प्रक्रिया व अंतेष्टि में शामिल होने की संभावना को खत्म कर दिया गया।   

          

उपरोक्त के प्रकाश में सीडीआरओ इस विचार पर पहुंचा है कि पांचों मुठभेड़ों में हुई जीवन की क्षति को आसानी से बचाया जा सकता था। पुलिस और सुरक्षा बलों के क्रिया-कलाप को निर्देशित करने के लिए आरपीसी में दिये गए स्थापित मानकों का पालन इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त हो सकता था। इन परिस्थितियों में गोलाबारी करना गाँव के हिसाब से गलत  था जो न तो "आत्म रक्षा" और न ही 'दोषियों" को हिरासत में लेने की दृष्टि से उपयोगी था। वास्तव में उपरोक्त प्रत्येक मामला दोषियों को हिरासत में लेने की अत्यधिक असफलता थी।  यह शक्ति का अतिरिक्त व अनाधिकृत गठन था।   

           समान तरह की घटनाओं की लगातार पुनरावृत्ति बताती है कि बंदियों के लिए कोई कार्यकारी नीति नहीं है और उनको माओवादी होने के संदेह में मारा जा रहा है। यह प्रशासन द्वारा विभिन्न जगहों पर लगाए गए बैनर में स्पष्ट दिखाता है जो मेंधरी में मारी गई महिला माओवादियों की तस्वीरों से भरा है । यह कहता है कि 'सामान्य जनतेवार अन्याय करल, तार पोलिसांच्या बंदुकीनेच मारल' (अगर तुम सामान्य जन के साथ अन्याय करोगे तो तुम पुलिस की बंदूकों से मारे जाओगे)

        इस तरह पुलिस के खतरे की एक झलक को इस बंदूक के आनंद की प्रवृत्ति में देखा जा सकता है जो भगवानपुर की घटना में दिखाई दी। उपचारात्मक उपायों से दूर पुलिस अधीक्षक गडचिरोली ने पुलिस की भाषा ही दोहराते हुये कहा कि इससे कोई मतलब नहीं की यह कितना अविश्वासनीय है कि सामान्य ग्रामीण रहवासी जोकि माओवादियों से संबन्धित नहीं है पुलिस पर गोलाबारी किए जबकि उनसे रुकने के लिए कहा गया। इस तरह की नीति भविष्य में भयानक अनहोनी की पूर्व-सूचना देती है ।      

        चारो मामले में पुलिस का विवरण हमारी खोज तथा ग्रामीणों के विवरण से गंभीर रूप से भिन्न है। प्रेस को दी गई पुलिस रिपोर्ट तथा एफ़आईआर चौंकाने वाली है जिसमें कहा गया है कि जाँच पूर्णतया हत्या में शामिल पुलिस दल के विवरण पर आधारित है। यह नागरिक न्यायशास्त्र के विचार से पूर्णतया उलट है। हत्यारा, सूचनादाता, जाँच और न्यायाधीश एक दूसरे से अलग होने चाहिए। और यह कानून तथा व्यवहार में सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

उपरोक्त के प्रकाश में हम मांग करते हैं कि:

          

1.      बंदियों को गिरफ्तार करने के बजाय उनको जान से मारना तथा अधिकतम नुकसान पहुंचाना अवश्य ही बंद किया जाय।

2.       मुठभेड़ के सभी मामलों में जिम्मेदार पुलिस दल के खिलाफ आपराधिक मानवहत्या की एफ़आईआर दर्ज हो। इसकी जाँच दूसरे जिले के पुलिस अधिकारी को सौंपी जाय।

3.      भाटपाल, मेंधरी और भगवानपुर की घटनाओं में जहाँ लोगों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया, की न्यायिक जाँच की जाय।

4.      न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा प्रत्येक मुठभेड़ की घटना की मजिस्ट्रेट स्तरीय जाँच की जाय और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान उनके घर पर भयमुक्त वातावरण में दर्ज किया जाय तथा इस तरह के गवाहों पर भविष्य में पुलिस प्रताड़ना के मामलों को रोकने के लिए कदम उठाए जाएँ।

5.      भगवानपुर से गिरफ्तार दो व्यक्तियों को अविलंब रिहा किया जाय।

6.      भगवानपुर गाँव के देवराव व बुधनाथ के परिवारों को अविलंब मुआवजा दिया जाय।


द्वारा जारी:

·       जनतान्त्रिक अधिकार संघ,पंजाब (Association for Democratic Rights, Punjab)

·       जंतान्त्रिक अधिकार रक्षा संघ, पश्चिम बंगाल(Association for the Protection of Democratic Rights, West Bengal)

·        नागरिक स्वतन्त्रता समिति, आंध्र प्रदेश (Civil Liberties Committee, Andhra Pradesh)

·       जंतान्त्रिक अधिकार रक्षा समिति, मुंबई (Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai)

·       भारतीय जन वकील संघ (Indian Association of People's Lawyers)

·       जंतान्त्रिक अधिकार रक्षा संगठन, आंध्र प्रदेश(Organisation for the Protection of Democratic Rights, Andhra Pradesh)

·       जंतान्त्रिक अधिकार जनसंघ, दिल्ली (People's Union for Democratic Rights, Delhi)



गाँव की जाँच-प्राप्ति  का विवरण: संक्षिप्त रूप

(Village Accounts of our Findings – Short Version)


1-गोविंदपुरगाँव, अहेरी तहसील: 11 जनवरी को मावोवादियों के 11 सदस्यीय समूह की  ग्रामीणों के साथ शाम 7 बजे बैठक हुई। बैठक के दौरान माओवादियों नें गाँव में शराब उत्पादन और शराब पीने की बंदी के लिए, परिवार में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए, ग्रामीणो में झगड़े और तनाव को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने और बिजली के तारों से शिकार के खतरनाक तरीकों को बंद करने के लिए अभियान चलाया। उन्होने  सरकार की लघु-बचत योजना 'बचत घट' के विरोध का लोगों से आह्वान किया। गाँव में रात्रि भोज के बाद मावोवादी दल बस्ती से अभी बाहर गया ही होगा कि "सुरक्षा बल" के लोगों ने ग्रामीणों को घेर लिया और उन पर गोलियां बरसाने लगे।

        छः व्यक्ति वारदात की जगह पर ही मारे गए जबकि बाकी माओवादी बच निकलने में  सफल हो गए। प्रतिरक्षा में माओवादियों द्वारा कोई गोलीबारी नहीं की गई। मृतकों में दो महिलाएं थी। गाँव से कुछ व्यक्तियों को मृतकों की पहचान के लिए लाया गया।


2- भगवानपुर, कुरखेडा तहसील: 16 जुलाई 2013 को रात के लगभग 10 बजे गाँव के 11 लोग जंगल में शिकार के लिए गए। उसमें से 8 लोग तीन स्कूटरों पर गए जिसके कुछ देर बाद तीन लोग दूसरे स्कूटर पर गए। बाद में गए लोग अपने साथ एक भामार (एक देशी बंदूक), एक कुल्हाड़ी, एक चाकू तथा एक टोपी वाली टार्च ले गए।  

करोडी गाँव के महात्मा फुले स्कूल के नजदीक मुख्य सड़क पर उन्होन्नें सी – 60 कमांडो दल को देखा और जल्दी से निकल जाने का निश्चय किया। पुलिस दल जो तीन गाड़ियों में था ने उनका पीछा किया और उन्हें रोक लिया। उनमें से तीन ग्रामीणों नें पुलिस को समझाने की कोशिश की कि उनके 8 साथी नीचे है। लेकिन सब कुछ अनसुना कर पुलिस द्वारा पीटे जाने के बाद आनंदराव मार दिया गया। आनंदराव घटना की जगह पर ही गिर गया और मर गया उसकी पसलियों के ठीक नीचे दो गोली मारी गई थी। साक्षियों ने बताया कि जिन पुलिस वालों  ने आनंदराव को मारा वे उसे पहले से जानते थे।   

        पुलिस ने अन्य आठ व्यक्तियों के लौटने की प्रतीक्षा की और उन्हें पकड़कर भोर के 4 बजे तक लगातार पीटती रही जबकि 10 ग्रामीणों व लाश को दो गाड़ियों में अरमोरी पुलिस थाने लाया गया। वहाँ आनंदराव के साथ दो व्यक्तियों देवराव राजाराव उसेंदी तथा बुधनाथ पांडुरंग तुलावी पर आईपीसी की धारा 307 व 353 के तहत केस दर्ज की गई। वर्तमान में वे दोनों चंद्रपुर केंद्रीय जेल में बंद हैं। बाकी बचे लोगों को जिन्हें पुलिस नें हवालात में बंद कर रखा  था बाद में छोड़ दिया गया।    


3- सिंदेसूर, धनोरा तहसील: 12 अप्रैल की सुबह सिंदेसूर गाँव से 12 लोगों का एक समूह पहाड़ी की तली में अपने खेतों के निकट जंगल से महुआ के फूलों को इकट्ठा कर रहा था। कुछ समय बाद चार माओवादी वहाँ आए और उन्होनें 20 साल के दो लड़कों से गाँव से पीने के लिए पानी लाने को कहा। जब ये लड़के पानी लेकर लौट रहे थे तो पुलिस ने अचानक आकार गोलीबारी शुरू कर दी। परिणाम स्वरूप जवाबी गोलीबारी हुई और दोनों लड़के उसकी चपेट में आ गए। दोनों ही मुकेश दुरु हुड़को तथा सुखदेव वरलू गवडे मारे गए। गोलीबारी के अंत में एक पुलिस  और चार माओवादी मृत पाये गए। दो मृतक ग्रामीण लड़कों के लिए मुआवजे की घोषणा की गई है परंतु अभी तक वह अंधेरे में ही अटकी हुई है।


4- मेंधरी, एटापल्ली तहसील: 7 जुलाई की सुबह 6 औरतों व दो पुरुषों का एक मावोवादी समूह गाँव के निकट एक नाले के पास था। उनमें से दो औरतें नहाने के लिए नाले में गईं तथा शेष गाँव की एक युवती के साथ चाय पीते हुये बातचीत करनें लगीं जबकि दो पुरुष सदस्य गाँव में चीनी तथा चाय खरीदने चले गए। नजदीक ही एक पुलिस को छिपते हुये देखकर गाँव की युवती अपने घर भाग गई और उसके कुछ क्षण बाद ही गोलीबारी शुरू हो गई। महिला मावोवादी अपना बैग वहीं छोड़कर बंदूकों के साथ दौड़ीं तथा जवाबी गोलीबारी शुरू हो गई। बिना युद्ध सामाग्री के भागते हुये महिलाओं नें गाँव की शरण लेने की कोशिश की लेकिन पुलिस नें खुले खेतों में उनका पीछा किया। दूसरी तरफ से अन्य पुलिस वाले आ गए और महिलाओं ने अपने आपको फंसा हुआ पाया, उन्होने अपनी बंदूकें फेंक दीं तथा आत्मसमर्पण में अपने हाथ उठा दिये। उनमें से एक नें अपनी बंदूक फेककर उसी खेत में महुआ के पेड़ पर चढ़ गई। इसके बाद पुलिस महिलाओं के निकट पहुंची, आत्मसमर्पण की हुई महिलाओं को नजदीक से मारा तथा पेड़ पर छिपने का प्रयास कर रही महिला को भी मार गिराया। 10 से अधिक गाँव वालों को खींचकर बाहर लाया गया और उन्हें पीटा गया जबकि वे मृतकों को पहचानने में असमर्थ थे। एक ग्रामीण को तब मार दिया गया जब वह शवों से दूर भागने की कोशिश कर रहा था।     


5- भाटपार, अहेरी तहसील: तीन अप्रैल की शाम चार सशस्त्र मावोवादियों का एक समूह ग्रामीणों के साथ बैठक कर रहा था। बाद में उस रात वे गाँव छोड़ दिये और आधा किलोमीटर दूर नदी के किनारे रुके। उनके साथ गाँव की दो औरतें भी थीं। दूसरे दिन तड़के सुबह गाँव वालों नें गोली की आवाज सुनी और उनमें से एक औरत भागती हुई गाँव में आई। बाकी पांचों की लाशों को पुलिस नदी के इस पार लायी। गाँव वालों नें पुलिस से कुम्मा ताड़ो की बेटी सुनीता की लाश को परिवार वालों को देने की मांग की। पुलिस नें लोगों को दूर रहने की चेतावनी दी, जबकि तीन ग्रामीणों को खेत से पकड़ा, उनको पीटा और अपने साथ धोजराज पुलिस थाने लाये। अगले दिन सुबह अधिकतम ग्रामीण थाने गए और मृतक की लाश को वापस करने तथा चार ग्रामीणों को छोड़ने की मांग किए। वे चार ग्रामीणों के साथ वापस आए। लाश को कभी भी परिवार वालों को नहीं सौंपा गया।

जनतान्त्रिक अधिकार संगठनों का समन्वय

(Coordination of Democratic Rights Organisations)

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शीशे के घरों पर पत्थर फेंकनेवालों की हिमायत में: वरवर राव से बातचीत

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/24/2013 10:53:00 PM



वरवर राव मूलतः तेलगू के कवि हैं. उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. दुनिया के क्रांतिकारी लेखकों में वरवर राव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. जन आंदोलन और मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित यह साक्षात्कार सितारे हिन्द, गोपाल कुमार और आरळे श्रीकांत की बातचीत पर आधारित है.



विश्व मीडिया के सामने आप भारतीय मीडिया को कितना जनोन्मुख देखते हैं?


वर्तमान समय में खासकर तीसरी दुनिया में जो जनान्दोलन चल रहे हैं, उनके बारे में मीडिया बता रहा है। यहाँ यह जनांदोलन के पक्ष में ही होता है। खासकर इराक के ऊपर अमेरिकी हमले के समय हो या आज तक। अल-जजीरा जो कि जनांदोलन के पक्ष में है उसे एक तरह से वैकल्पिक और पीपुल्स मीडिया कह सकते हैं। 'द गार्जियन' अख़बार का प्रकाशन चाहे अमेरिका से हो, चाहे लंदन से, वह थोड़ा-थोड़ा निष्पक्ष होता है लेकिन अगर वर्ग-संघर्ष की बात हो तो शायद उनकी पक्षधरता शासक-वर्ग के साथ ही होती है। जैसे बी.बी.सी. को भी निष्पक्ष माना जाता है मगर आजकल बी.बी.सी. भी वर्ग-संघर्ष की समस्या होने पर उतना निष्पक्ष नहीं रह पाता है। इंग्लैंड का 'रूल्स ऑफ लॉ' केवल इंग्लिश लोगों के लिए ही चलता है, आयरिश क्रांतिकारियों के लिए नहीं। फ्रांस कई क्रांतियों का केंद्र रहा है। अल्जीरिया उसका उपनिवेश था जहाँ फ्रांस ने अपने विरोध में चल रहे संघर्ष का दमन किया। 1968 में द गाल ने ज्यां पॉल सार्त्र और सीमोन द बउवार जैसे बुद्धिजीवियों के रहते हुए भी छात्रों के आन्दोलन को कुचल दिया।


आज स्थिति यह है कि इस्लाम को मानने वाले जितने भी देश हैं, जैसे- अफ़गानिस्तान, इराक, ईरान, सीरिया, फिलिस्तीन आदि। इन देशों में जब भी साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष होता है तो वहाँ विश्व-मीडिया की भूमिका निष्पक्ष नहीं होती है। विश्व-मीडिया ने एक मानसिकता भी बना रखी है कि इन देशों की संस्कृति ही पिछड़ी है। मीडिया हमेशा से ही यह प्रचार करती रही है कि इन देशों के लोग 'कॉन्फ्लिक्ट्स सिविलियन्स' हैं। आज विश्व-मीडिया हो या भारत की मीडिया, यह हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। मीडिया शुरुआत से ही एक उद्योग रही है और समय के साथ ही यह एक 'मोर ऑफ द मोनोपोलस इंडस्ट्री का माउथ पीस' रह गई है। 1955 के आंध्रा चुनाव के समय के तेलुगु अख़बार का संदर्भ देना यहाँ उचित ही रहेगा क्योंकि उसमें मीडिया के बारे में कहा गया है कि "This is the product of capitalism and that's why all the stories which one is published also are fictitious. It itself is a poison's daughter." क्योंकि एक पूँजीपति ही अख़बार शुरू करता है तो वह आपको या लेखकों को 'लोकतांत्रिक क्रिया-कलापों' के लिए कितनी जगह देगा? वह उतनी ही जगह देगा जहाँ तक उसकी स्वार्थ-सिद्धि का अतिक्रमण न हो। एक उद्योगपति या 'मास्टर ऑफ फैक्ट्री' उसमें काम करने वाले मजदूरों को कितनी आजादी देगा? जैसा कि मार्क्स ने कहा है "आज काम करने के लिए रोटी, कल के मजदूर को पैदा करने के लिए भी रोटी, उससे ज्यादा क्या? और आजादी भी उतनी ही कि कल आकर वह फैक्ट्री में काम कर सके, जी सके।" उतनी ही आजादी आपको भी दे सकता है। हम यह भी देखते हैं कि एक फैक्ट्री-मालिक दूसरों, खासकर कम्युनिस्ट लोगों द्वारा ट्रेड यूनियन नहीं बनाए जाने पर खुद एक ट्रेड यूनियन बनाता है। तो जिस प्रकार एक पूँजीपति अपने लाभ का अतिक्रमण न होने तक ही आजादी देता है, वैसी ही आजादी अख़बारों में भी होती है। इस प्रकार अख़बार में एकाधिकार की प्रबलता दिखाई देती है।


हमारे भारत में देखा जाए तो अख़बार जूट मिलों के प्रचार के लिए शुरू हुआ था। देश-भर में अनेक जूट मिलों के मालिक गोयनका ने अपने जूट मिलों के प्रचार के लिए 'इंडियन एक्सप्रेस' नामक अख़बार की शुरुआत की जिसके बाद में बहुत-से संस्करण निकले। लगभग सौ साल पहले तेलुगु में काशीनाथुनि नागेश्वर राव ने बंबई से 'आंध्र पत्रिका' नामक अख़बार निकाला जिसका राष्ट्रीय आंदोलन में काफ़ी योगदान रहा। हम इसे तेलुगु मीडिया और तेलुगु साहित्य के लिए 'देशोद्धारक' मानते हैं। अब इसी नाम से प्रेस क्लब और प्रकाशन भी चल रहा है। इस पत्रिका में तेलुगु के जाने-माने लेखक लगातार लिखते आए हैं। 1920 से 1960 तक का लगभग विश्व-क्लासिक इसमें अनूदित होकर आया है। हम अपने बचपन से ही इस पत्रिका को पढ़ते आए हैं। इसके बारे में सौ साल पहले ही एक लेखक ने कहा था कि इसे 'अमृतांजन' के प्रचार के लिए शुरू किया गया। 'अमृतांजन' बनाने वाली एक कंपनी बंबई में है। इसमें एक व्यंग भी है कि अख़बार पढ़ते हुए सिरदर्द होता है, इसीलिए 'अमृतांजन' पीता है। इसमें पोलिटिकल इकोनॉमी यह है कि 'अमृतांजन' के प्रचार के लिए यह अख़बार शुरू किया गया।


आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आया है जिसमें कुछ गंभीर बातें भी होती हैं। मैंने एक बार उन्हें लिखा था समझो, बहुत अच्छे टेस्ट की फिल्में दिखाने वाले चैनल हैं। वे सत्यजीत रे की फिल्में दिखाते हैं या श्याम बेनेगल की लेकिन ये विज्ञापन के लिए अच्छी फिल्में दिखाते हैं। इसका उद्देश्य क्या है? हमें ऐसा लगता है कि वह एक अच्छी फिल्में बनाने वाला या दिखाने वाला चैनल है मगर ये फिल्मी चैनल अपने विज्ञापन दिखाने के लिए है और हमारी अभिरुचि सिनेमा देखने में। डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसका उदाहरण है। नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनल हो या डिस्कवरी चैनल, बहुत रोचक होते हैं। मगर ये चैनल हमे भूगोल पढ़ाने के लिए तो शुरू नहीं हुए हैं! अब इसलिए कि मीडिया को लाने के लिए पहली सीमा यह है कि इंडस्ट्री, वह भी मोनोपोली इंडस्ट्री, अपने प्रचार के लिए कोई भी अख़बार शुरू करती है। अब उसकी पोलिटिकल इकोनॉमी भी देखिए तो जाहिर होता है, बहुत से लोगों ने लिखा भी है कि आठ-दस पेज के अख़बार निकालने के लिए आज की स्थिति में 16 या 20 रुपए का खर्च आता है और चार-पांच रुपये में इसे बेचा जाता है। फिर ये दस रुपयों का जो नुकसान हो रहा है, वह कहाँ से पूरा हो रहा है? इसके लिए सरकार या प्राइवेट कंपनियाँ विज्ञापन देती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान टाइम्स देखिए। एक समय में टाइम्स ऑफ इंडिया के सोलह पब्लिकेशन होते थे। हम पढ़ते-लिखते थे क्योंकि अच्छी पत्रिका होती थी और ये निष्पक्ष लिखते थे। एक तरफ़ विज्ञापन, एक तरफ़ आलेख और समाचार और 'फुली अल्टरनेटिव', हिन्दुस्तान टाइम्स में देखिए। अब आपको एयरपोर्ट पर टिकट खरीदते समय टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान में पूरे विज्ञापन मिलेंगे। ये कहाँ से लेते हैं आप?


हमारा नाइट वाचमैन मर गया था, उसके ऊपर मैंने कविता लिखी है। उसके बारे में मैंने रुचि ली थी। वह दस दिनों में एक बार आकर देखता। "क्या है?" "ये पेपर है।" "यह सब!" दस दिन में एक पेपर बनता है! उसके मन में आया कि अंग्रेजी पेपर लेना है। अंग्रेजी पेपर इतना मोटा रहता है कि दस दिन में एक बनता है। अब यह देखिए कि कॉमन माइंड का कॉमन सेंस भी इतना रहता है कि इससे तो ज्यादा पैसा बनता है, इसीलिए इतना लेता है। यह बात मैंने कविता में भी लिखी है। जैसा कॉमन माइंड का स्टैंड ज्यूडिसियरी के लिए भी होता है। उसके बारे में कॉमन माइंड कहते हैं कि जो हारता है, वो कोर्ट में रोता है और जो जीतता है, वो घर आकर रोता है। वैसा ही मीडिया और अख़बार के बारे में भी एक कॉमन माइंड के लिए ठीक है। 'अरे, ये तो कहानी लिखते हैं', 'और इतना मोटा पेपर क्या हो सकता है?', यह फुली एडवरटाइजमेंट है, यह जन-सामान्य की भी समझ होती है। अब हमारे जिन लोगों का स्टेट्स बढ़ गया है उनका कहना है कि अब पेपर लेते ही इसलिए हैं कि कौन-से मॉल में कौन-सी चीज चीप मिलेगी? पेपर आते ही वो यही देखते हैं और खरीदने जाते हैं। हमारी तरह गंभीर और अर्थपूर्ण राजनीतिक ख़बर पढ़ने के लिए नहीं। आज आप देखिए, खासकर अंग्रेजी में द हिन्दू छोड़कर कोई भी अख़बार, न्यूज़ के लिए पढ़ने लायक होता है? वो भी जहाँ एकेडमिक डेवलपमेंट पॉलिसी की बात होती है। समझिए, कुडनकुलम हुआ है कल, कुडनकुलम के मुद्दे में मीडिया और सुप्रीम कोर्ट से लेकर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी तक सब इसे एक डेवलपमेंट प्रोग्राम समझते हैं और समर्थन देते हैं। इसे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन प्राप्त है। आज की स्थिति में एक भी ऐसा अख़बार नहीं है जो इस तथाकथित विकासात्मक नीति और भूमंडलीकरण-नीति का समर्थन नहीं करता हो। नहीं तो मनमोहन सिंह की बुनियाद ही क्या है? मनमोहन सिंह की बुनियाद ही एक मिडिल क्लास इंटलेक्चुअल की बुनियाद पर बनी हुई है। कश्मीर का प्रसंग है, मैं परसों दिल्ली जाकर आया। एक सौ पचास लोग कश्मीर रैली से दिल्ली आए थे। उसमें दस हजार मिसिंग केसेज के लोग थे। जिनको फाँसी हुई है या जिन्हें आजीवन जेल हुआ है। मकबूल भट्ट की माँ थीं। एक और व्यक्ति जिसे आजीवन जेल की सजा हुई है, उसकी दो-तीन साल की बच्ची थी। अफ़जल गुरु की 'डेड बॉडी' की डिमांड थी। अच्छा, हमारा माइंड सेट भी देखिए आप! सरबजीत सिंह पाकिस्तान में मर जाता है। शायद उन्होंने मारा है। उसको फाँसी देना और बात है और मारना दूसरी बात! तो इसपर गुस्सा आता है हमारे लोगों को। इसी तरह की राय हम बनाकर रखते हैं देश-भक्ति के बारे में। आज की स्थिति में दूसरे देश पर आक्रमण करना ही देश-भक्ति है। राजकपूर ने एक फिल्म बनाई थी, 'परदेशी'। फिल्म का नायक रूस जाकर आता है। फिल्म में एक देशी लड़की होती है, नरगिस। नायक उसको समझाता रहता है कि रूस में बहुत बर्फ़ गिरती है। आज हम हैदराबाद में रहकर मई महीने में कैसा महसूस करते हैं? नायिका पूछती है, 'क्या होता है बरफ़?' नायक के समझाने पर उसे समझ में आता है तो वह हँसती है। "अच्छा, ऐसा होता है बरफ़!" बोलने के बाद वह पूछती है, "तुम इतनी क्यों तारीफ़ कर रहे हो रूस की?" रूस की जनता बहुत प्रेम से देखती है रूस को, हम जैसे भारत को देखते हैं। देश-भक्ति ऐसी होती है। अपने देश के लिए जितना गुमान हमको होता है, उनके देश के लिए उतना गुमान उन लोगों को होता है। इसको हमें मानना है, यह देश-भक्ति है। हमें यह मानना चाहिए कि पाकिस्तान की जनता को पाकिस्तान के प्रति प्रेम है। परस्पर द्वेष नहीं होना चाहिए। तो खैर, उन्होंने मार डाला। एक तो फाँसी होने के कारण, दूसरा मार डालने के कारण बहुत गुस्सा आया। इतने गुस्से के बावजूद पाकिस्तान सरकार ने, जिसे हम लोकतंत्र नहीं मानते, उसने हमें डेड बॉडी दी, उनके परिवार वालों को दी। आपने क्या किया है अफ़जल गुरु के बारे में? आप लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, (डेड बॉडी दे देते तो) क्या होता? आसमान तो नहीं गिरता उधर? सरबजीत की डेड बॉडी दे दी तो क्या हुआ? कश्मीर में क्या होता? हमें यह कहना है कि सरकार जो स्टैंड लेती है, मीडिया भी वही स्टैंड लेता है। पाकिस्तान की जेल में क्या हो रहा है, इतनी जाँच करने वाले मीडिया-बुद्धिजीवी क्या यह बताते हैं कि भारत की जेलें कैसी हैं? क्या किसी ने कभी जाँच की है? हम कमेटी फॉर द रिलीज ऑफ पोलिटिकल प्रिजनर्स की तरफ़ से देखें। कश्मीर से आए लोग अफजल गुरु की 'डेड बॉडी' माँग रहे हैं। यासीन मलिक तो फ्लाइट से आया था, उसे इन्क्वायरी करके फ्लाइट से वापस श्रीनगर भेज दिया और जो लोग बस से आए उन्हें एक टेंट हाउस में सी.आर.पी.एफ. ने रखा, उनको आने नहीं दिया और उन्हें जन्तर-मन्तर जाते समय गिरफ्तार किया। उनके समर्थन में हम प्रेस क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहते थे तो प्रेस-कॉन्फ्रेंस रद्द करके वहाँ संघ परिवार के लोग आ गए। अब मीडिया जो आपसे पूछ रहा है, उसे लेकर आप समझ सकते हैं। यह हमारा अनुभव है। अब लोगों को गिरफ्तार करने के विरोध में असहमति प्रकट करने के लिए दस हजार रुपये बाँधकर, जो कि प्रेस क्लब का नियम है, हम प्रेस-कॉन्फ्रेंस करने गए। हमारे जाते ही दरवाजा बन्द कर दिया गया। अन्दर मीडिया वाले थे और बाहर दिल्ली पुलिस। एक तरफ़ बजरंग दल वाले, अलग-अलग संघ-परिवार के लोग और टोपी लगाए 'आम आदमी' के लोग नारे लगा रहे थे और हर एक हाथ में यासीन मलिक का फोटो लिए, 'बलात्कारी यासीन मलिक' बोलकर नारे लगा रहे थे। इसीलिए मैंने उनको 'वन्दे मातरम पार्टी', 'भारत माता की जय पार्टी' और 'आम आदमी पार्टी' कहा। तो वे नारे लगा रहे थे और हम अंदर गए। अंदर कहा गया कि प्रेस-कॉन्फ्रेंस तो रद्द कर दिया गया है। आप कैसे रद्द कर सकते हैं? आपके नियम के मुताबिक हमने रुपए दे दिए हैं। ये कैसा लोकतंत्र है?' यही लोकतंत्र है? अरे, Media is supposed to be fourth pillar of the democracy. ओ! यही लोकतंत्र है। यह सच भी है क्योंकि लोकतंत्र के एक-एक स्तंभ का क्या हो रहा है, यह दिखाई दे रहा है। विधि- व्यवस्था की क्या हालत हो रही है? इसे कैसे अमल में लाया जा रहा है? न्याय-तंत्र की क्या हालत हो रही है? सबमें कितने घोटाले चल रहे हैं, दिखाई दे रहे हैं। आंध्रा में पाँच जज जेल में हैं। ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ठीक लोग हैं। यह बात आज से नहीं, जब भोपाल गैस 'ट्रेजेडी' हुई थी तो संबंधित कम्पनी में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के शेयर्स थे। वह कम्पनी एवरेडी बैटरी बनाने वाली एक मल्टीनेशनल कम्पनी है। ऐसा कौन-सा कॉरपोरेट सेक्टर है जहाँ जजों के शेयर्स न हों, राजनीतिज्ञों के शेयर्स न हों या ब्यूरोक्रेट्स के शेयर्स न हों? तभी तो मल्टीनेशनल कम्पनियाँ चैम्पियन बन गई हैं। 1984 का समय था। कहा गया कि 'जिन लोगों के कम्पनी में शेयर्स नहीं हैं, वे जाँच में शामिल हो सकते हैं।' तीन लोग यह कहकर पीछे हट गए कि 'हमारे शेयर्स हैं।' न्याय-तंत्र के साथ-साथ मीडिया की भी यही हालत हो गई है। यदि मीडिया के बारे में देखें तो खासकर वे लोग जो बड़े-बड़े एंकर्स हैं, कैसे पॉलिटीसियन्स और ब्यूरोक्रेट्स से संबंध रख कर, पैसे बना रहे हैं, सारी बातें बाहर आ रही है। मीडिया में खास बात यह है कि इसमें निहित स्वार्थ बहुत ज्यादा हो गया है। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अख़बार बेनेट कोलमेन कम्पनी के इंटरेस्ट के लिए चलते हैं। इसीलिए अरिंदम गोस्वामी इतनी बाउंसिंग बातें करता है। एक तरफ़ कोबाद गाँधी को दिखाया जाता है, भगत सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए। भगत सिंह के नारे लगाने वालों, इन्कलाब के नारे लगाने वालों को मीडिया आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी कहता है। हाँ, परसों उन्होंने मुझे भी कहा, 'हम (प्रेस क्लब को) एंटी-नेशनलिस्ट को नहीं देते हैं।' अरे, एंटी-नेशनलिस्ट तो एक जिद है, जिसे आप क्वालिफाई करते हो। लेकिन न्यूज पेपर, जिसे सरकार इनसर्जेंसी कहती है, वो इनसर्जेंट्स का भी इंटरव्यू लेता है। जा-जाकर प्रभाकरण का इंटरव्यू लिया है, जंगल में जा-जाकर गणपति का इंटरव्यू लिया है। आप खुद जा-जाकर सरकार जिन्हें इनसर्जेंट कहती है, उनका इंटरव्यू लेते हैं, हम आकर प्रेस-क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहें तो हमको एंटी-नेशनल कहते हैं। मीडिया को राष्ट्रवादी या राष्ट्र-विरोधी नहीं होना चाहिए। Ever who are anti-national? You are supposed to unwed the press-conference. How they anti-nationals think? ऐसी स्थिति मीडिया की है। इसका कारण मीडिया की एक सीमा है और वह सीमा यह है कि मोनोपोलिस्ट्स का, कॉरपोरेट सेक्टर के निहित स्वार्थ को सर्व करने के लिए मीडिया आज है।



यूरोपियन मीडिया, लैटिन-अमेरिकी देशों की मीडिया या अन्य देशों की मीडिया जिसकी किसी भूमिका से आप बहुत प्रभावित हुए हों।


वैसे तो मैं मीडिया की भूमिका से प्रभावित नहीं हूँ मगर मीडिया में लिखने वाले कुछ लेखकों से जरूर प्रभावित हूँ। खासकर एदुआर्दो गालेआनो एक जर्नलिस्ट है, लैटिन अमेरिका में। ज्यादातर उसने 'गडमेला के स्टेबल' को लेकर बहुत कुछ लिखा है पर समग्रता से पूरे लैटिन अमेरिका में, जितने भी देशों में अमेरिकन साम्राज्य के विरोध में संघर्ष चल रहा है, उसके बारे में रिपोर्टिंग करने और किताबें लिखने के लिए एदुआर्दो गालेआनो से बेहतर और कोई नहीं है। आजकल जेम्स पेत्रासहै जो खासकर भूमंडलीकरण के विरोध में लिख रहा है। वैसे देखें तो ज्यादातर लोग फ्रीलांस करने वाले इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट हैं, इन्हें हम मीडिया नहीं कह सकते। मगर वो अपने लेखन से ऐसी जगह पहुँच गए हैं कि वे जो भी लिखें तो मीडिया लेता है, रॉयल्टी देता है क्योंकि लोग पढ़ते हैं। उनका लेखन बिकता है। जेम्स पेत्रास लिखे तो बिकता है, एदुआर्दो गालेआनो लिखे तो बिकता है,चॉम्स्की लिखे तो बिकता है।


एक समय था जब बाजार सहमति का निर्माण कर रहा था, Manufacturing the consent, कन्सेंट को मेन्यूफेक्चर कर रहा था। पहले इतना प्रचार करते हैं कि आप एक खास 'ब्रांड' का टूथ-पेस्ट उपयोग करें मगर आपके दाँत वैसे सफेद नहीं हो सकते। पहले टूथ-पेस्ट खरीदने के लिए मानसिकता को बनाता है (माइंड सेट करता है), बाद में टूथ-पेस्ट को प्रोड्यूस करता है। यानी सहमति की उत्पत्ति होती है। यह स्थिति थी। आज यहाँ तक कि मेन्यूफेक्चरिंग डिसेंट भी मार्केट करता है। अब देखिए, तेलंगाना में एक समय हमारी न्यूज छापना अख़बार बेचने के लिए एक अच्छी चीज थी। खासकर टास्क के समय में (2004 में), फर्स्ट पेज पर हेडलाइन होती थी हमारी न्यूज। अब रामकृष्णा का इतना प्रचार हुआ टास्क के समय में, खासकर बंदूक रखे हुए जो फोटो हैं, हजारों फोटो छापे हैं हजारों न्यूज पेपर में, क्योंकि वह बिकता है। मीडिया के बारे में बात करना, एक तरह का रोजॉर्न ऑन द कन्ट्राडिक्शन्स। उसका मालिक होता है, उसका प्रॉपराइटर होता है, उसके लिए निहित स्वार्थ होता है, उसमें काम करने वाले होते हैं, खासकर जो ग्रास-रूट लेवल में स्ट्रिंगर्स से लेकर। मीडिया से जनता जो आशा करती है, वे उससे जानकार लोग होते हैं, होना चाहिए, नहीं होते हैं यह दूसरी बात है, होना चाहिए। उससे बहुत माने हुए लेखक आए हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है, वाल्टेयर मूवमेंट में पत्रकारों की जो भूमिका है। जब समझते हैं कि 'हमारे लिए इंडस्ट्री, खासकर न्यूज पेपर में काम नहीं मिल सकता है', तो बाहर जाकर लिखते हैं। इमरजेंसी में बहुत से पत्रकारों को भी अरेस्ट किया था। कुलदीप नैयर तो जेल में था क्योंकि इमरजेंसी का विरोध कर रहा था, बाद में उसने अपने अनुभवों को लिखा। वैसे तो बहुत से माने हुए यूरोपियन जर्नलिस्ट भी हैं, मगर मेरे ऊपर जो प्रभाव है, एदुआर्दो गालेआनो का है। ऐसे भी लैटिन अमेरिका के जितने भी लेखक हैं, वे पत्रकार भी हैं, जैसे मैं हूँ। (गाब्रिएल गार्सिया) मार्केस, एक तो उपन्यासकार थे और वो रिपोर्टिंग भी कर रहे थे। यूरोप में हेमिंग्वे, जो लेखक था, वह युद्ध की रिपोर्टिंग करता था। द्वितीय विश्व युद्ध में, he was the reporter. ऐसे लोगों का प्रभाव है, हेमिंग्वे का तो बहुत प्रभाव है।




नेपाल में जनता क्रांति कर रही थी और पड़ोसी देश भारत का मीडिया क्रांति को आतंकवाद कह रहा था। आपने तब भारत की मीडिया के बारे में क्या राय बनाई थी?


नेपाल की क्रांति जब तक क्रांति रही है, वहाँ और यहाँ भी क्रांति को आतंकवाद ही कहा गया है। मगर नेपाल में जब क्रांति संसदीय लोकतंत्र में शामिल हुई तब वहाँ और यहाँ की मीडिया उसकी बहुत प्रशंसा कर रही है। आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा है। शायद एक सप्ताह पहले दिल्ली में प्रचंड आया था और द हिन्दू में दो दिनों तक सिलसिलेवार उसका साक्षात्कार आया और वह कहता है कि भारत-नेपाल का सम्बन्ध बहुत अच्छा होना चाहिए। भारत हमारी बहुत सहायता करता है। हम क्रांति छोड़कर 'प्लूरल डेमोक्रेसी' में आये हैं। हम में से जो लोग गए हैं उनसे क्रांति नहीं आ सकती, वे कुछ निश्चय कर सकते हैं मगर क्रांतिकारी नहीं हो सकते। हमें कहना है कि आज के प्रचंड और बाबूराम भट्टराई को लेकर सीताराम येचुरी हों या मनमोहन सिंह हों, बहुत प्रशंसा करते हैं क्योंकि इन लोगों ने क्रांति छोड़ दी है। ऐसा नहीं है कि नेपाल में क्रांति हो रही है तो यहाँ की क्रांति को आतंकवाद कहते हैं। क्रांति कहीं भी होती है तो इसे आतंकवाद ही कहते हैं। क्रांति नहीं हो रही है, क्रांति के नाम पर क्रांति का विरोध हो रहा हो तो बहुत प्रशंसा होती है। जो आज चल रहा है वो एक 'continuation of corolism' है। एक समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार थी, आज मल्टीनेशनल कंपनी की सरकार है। ईस्ट इंडिया कंपनी के इंटरेस्ट में 1857 में संघर्ष हुआ था जब ईस्ट इंडिया कंपनी से कुछ नहीं हो सका तो उससे ब्रिटिश सरकार बनी जो कंपनी की हिफाजत करती थी। क्लाइव के बारे में, वारेन हेस्टिंग्स के बारे में उसके बयान को देखें तो कंपनी को कितना फायदा मिला है? कितना नुकसान किया है? इंग्लिश पार्लियामेंट में बहुत चर्चा चली है, उसके बारे में। आज की स्थिति में देखा जाए तो यह बहुत छोटी बात है।


आज बुश क्या काम कर रहा है? या दूसरे अमेरिकन प्रेसिडेंट जो रिटायर्ड हुए हैं, क्या कर रहे हैं? ये लोग बड़ी-बड़ी कंपनियों में लग गए हैं, कम्पनियाँ इनके इंटरेस्ट में चल रही है, जिसमें क्लिंटन भी शामिल है। क्लिंटन दवा-उद्योग में है तो कोई शस्त्र-उद्योग में। तो वो इंटरेस्ट में ही राजनीति में आते हैं। अब 1930-40 के जर्मनी की स्थिति देखिए। हिटलर चुनाव में जाने से पहले 'नेशनल सोशलिज्म' का स्लोगन लेकर चुनाव लड़ा था। उसने कहा था कि 'मैं सरकार में आऊंगा तो 'नेशनल सोस्लिज्म' लाऊंगा।' एक तो 'नेशनल' बोलकर सेंटीमेंट को अपील कर रहा था और 'सोशलिज्म' बोलकर रिवर्सिटी को अपील कर रहा था। हिटलर का मानना था कि जर्मन ही शासन कर सकते हैं। उसको यहूदियों से समस्या थी और 'यहूदी को ख़त्म करो' कहते हुए उसने लगभग 90 प्रतिशत यहूदियों को ख़त्म किया। दूसरी तरफ 'नेशनलिटी' के विषय में उसका कहना था कि जर्मन, आर्यन हैं और आर्यन ही पूरी दुनिया पर शासन कर सकते हैं। एक समय था, सिकंदर का मानना था कि ग्रीक राजा ही पूरी दुनिया को जीत सकता है। इसीलिए सिकंदर दुनिया को जीतने निकला था। वह सिविल सोसाइटी का समय था। यूरोप में तो एक कहावत भी है कि जो भी नेशनल स्टेट हैं इनमें से एक-एक को अपने बारे में एक अलग भावना होती है।


फ्रांस की जनता समझती है कि वो बहुत सभ्य हैं और जर्मनी के लोग असभ्य। किसी को गाली देनी है तो उसे 'जर्मन' बोलते हैं। जर्मन समझते हैं कि हम आर्यन हैं और हम सबसे ज्यादा सभ्य हैं। इसी प्रकार अंग्रेज लोगों का मानना है कि जो हैं सो हम ही हैं और पूरी दुनिया पर हमने ही शासन किया है। सबका यही रवैया है। अब संस्कृत में देखिए आप, 'म्लेच्छ' कहते हैं, 'अनटचेबल' जो यहाँ के दलित लोग होते हैं। 'अनटचेबल' यूरोप में भी होते हैं। ये जो माइंड सेट होता है, इसी माइंड सेट को अपील करके वो सरकार में आया। अपनी कंपनी का यह रूल लागू करने के लिए पार्लियामेंट में उसके लिए बहुत मुश्किल हो गई और काम नहीं बना तो तो पार्लियामेंट को जला कर कम्युनिस्टों के ऊपर इसका इल्जाम लगाया और दो कम्पनियों की हिफ़ाजत के लिए वहाँ फासिज्म लाया, इसी तरह द्वितीय विश्वयुद्ध आया। आज हम देखें तो पूरी दुनिया की स्थिति एक-जैसी हो गई है। एक तरफ़ तो क्राइसिस है उनके इम्पीरियलिज्म का, दूसरी तरफ़ उस क्राइसिस से बाहर आने के लिए फ़ासिज्म। पार्लियामेंट की स्थिति देखिए आप। पार्लियामेंट चलता ही नहीं और संविधान के तहत जितने भी कानून बनाए गए हैं, उसके दायरे में काम नहीं चल रहा है। सी.बी.आई. है, यह एक स्टेच्यूटरी बॉडी है। उसे जो जाँच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया है, वह अपनी रिपोर्ट कानून मंत्री को बताता है।


आदिवासियों के बारे में देखिए। फिफ्थ शिड्यूल है, सिक्स्थ शेड्यूल है, अपने जल-जंगल-जमीन के लिए तो...उसके ऊपर उनका हक है। दूसरी तरफ़ जैसे नॉर्थ-ईस्ट स्टेट्स बने हैं। यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन में जल-जंगल-जमीन के ऊपर ही नहीं, इलाके की बात भी आई है। एक तरफ़ इंटरनेशनल लॉ और यहाँ के संविधान के तहत इतने हक हैं, दूसरी तरफ़ पूरे भारत में पूर्वी भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सेंट्रल इंडिया में लाखों एकड़ जमीन आदिवासियों से छीन ली जा रही है, विस्थापन हो रहा है। बात क्रांति की नहीं है। संविधान कहाँ लागू हो रहा है? मौलिक अधिकार कहाँ लागू हो रहे हैं? संविधान की प्रस्तावना कहाँ लागू हो रही है? डायरेक्टिव पॉलिसीज को तो छोड़ दीजिए क्योंकि डायरेक्टिव पॉलिसीज में तो...अस्पृश्यता मिट जाना, हरेक को शिक्षा मिलना, समानता की बातें हैं। डायरेक्टिव बिल तो सरकार की तरफ से कोई बंधन नहीं है। 'it is not binding on the part of Sarkar', मगर एक आदर्श है। जो 'bindingly' सरकार के ऊपर जो धारा-56 है, वह भी नहीं लागू हो रही है। यानी जैसा संकट बढ़ता है, खासकर जो साम्राज्यवाद का संकट बढ़ता है, साम्राज्यवाद के प्रभाव में हैं सरकारें। जितने भी कानून बनाते हैं, जितने भी पार्लियामेंट-असेम्बली चलाते हैं, वे भी नहीं चल सकते। यानी उनका कानून ही उनके लिए शृंखला (बेड़ी) बन जाता है। उनका शासन ही उनके लिए शृंखला (बेड़ी) बन जाता है और उसको छोड़कर अपने असली रूप, जो फासिज्म का रूप होता है, वह दिखता है। इसमें और एक समझने वाली बात है कि यूरोप, जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की जन्म-भूमि है, खासकर इंग्लैंड और फ्रांस, वे देश भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय संकट में आ गए। जर्मनी, इटली और जापान में पार्लियामेंट खत्म होकर फासिज्म-नाजिज्म लागू हुआ। तो तीसरी दुनिया के बारे में क्या समझ सकते हैं जहाँ संसदीय लोकतंत्र के लिए कोई जगह ही नहीं है। इसलिए कहते हैं कि संसदीय लोकतंत्र के लिए यहाँ जगह नहीं है, इसीलिए यहाँ जो लोकतंत्र आना है, वो नया लोकतंत्र ही हो सकता है जो क्रांति से होता है, शस्त्र-संघर्ष से होता है। आज वही चल रहा है भारत में।


अहिन्दी क्षेत्र की ख़बरें, राष्ट्रीय समाचार पत्र हिंदी क्षेत्र में नहीं पहुँचाते हैं। ऐसे में क्या राष्ट्रीय अखंडता प्रभावित होती है?


अब आज की स्थिति ऐसी आ गई है कि जिला संस्करण होते हैं। एक जिले की खबर दूसरे जिले में नहीं जाती है। अब हैदराबाद को ही लीजिए। एक दिलसुखनगर का संस्करण होता है, एक चिकटपल्ली का और एक उस्मानिया कैम्पस का संस्करण। दिलसुखनगर की ख़बरें आपके इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी) में ही रह जाती है। यानी न्यूज़ को कम्पार्टमेंटलाइज्ड कर दिया है और दमन को नेशनलाइज्ड कर दिया है। जनता क्या सोच रही है इसको कम्पार्टमेंटलाइज्ड कर दिया है और इस सोच को लेकर सरकार जो दमन चला रही है वह सेंट्रलाइज्ड रहे, कॉरपोरेटाइज्ड बना रहे। ख़ास कर आन्ध्र प्रदेश में 1974 से ईनाडु दैनिक शुरू हुआ है तभी से जिला संस्करण शुरू हुआ और न्यूज़ कम्पार्टमेंटलाइज्ड हुआ है।


हम वारंगल में रहते थे, बड़ा रेडिकल मूवमेंट था। उस रेडिकल मूवमेंट को लेकर जिला प्रशासन जो दमन चलाती थी वह खबर जिले के ही अखबार में आती थी। लेकिन अगर उसके ऊपर किसी कांग्रेसी नेता या एम.एल.ए. की प्रतिक्रिया आती तो पूरे आन्ध्र प्रदेश में खबर आती। तो बाहर वाले पूछते कि आपने यह क्या किया है? समझिये इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी) में एक संघर्ष चल रहा है और कुलपति का पुतला फूँका गया। कुलपति सेन्ट्रल के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट का है और उसका पुतला फूँका गया तो पूरी दिल्ली में खबर पहुँचती है। क्योंकि दिल्ली में उसी समय उसकी किताब का राष्ट्रपति उद्घाटन भी कर रहा होता है। लेकिन दिल्ली के इफ्लू में रहने वाले छात्रों पर पुलिस ने दमन किया तो यह जिला संस्करण में आता है। यह तो हो ही रहा है। देखिये न, अभी कितनी आत्महत्याएँ हुई हैं इफ्लू में। अब देखिए स्थितियाँ कितनी बदल गई हैं? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में राधाकृष्णन कुलपति बनाए गए थे। राष्ट्रीय आन्दोलन का समय था। विश्वविद्यालय के अन्दर और बाहर बहुत संघर्ष चल रहे थे। विश्वविद्यालय के अन्दर आर्मी भेजनी पड़ी थी। जब राधाकृष्णन को ले जाया गया तो उन्होंने कहा कि 'जब तक सेना कैम्पस से बाहर नहीं आती, तब तक मैं अपना कुलपति पद नहीं संभालूँगा।' तो प्रशासन को मानना पड़ा। पुलिस बाहर आई तो वे अन्दर गए और पद संभाला। अब उस वैल्यू सिस्टम की आज के वैल्यू सिस्टम से तुलना कीजिए। अब के कुलपति आते ही पुलिस को बुलाकर लाते हैं। हॉस्टल में स्टूडेंट की समस्या हुई है, एक मरा, दूसरा मरा! यह कौन हल करेगा? शिक्षक का क्या कर्तव्य है? मैं क्लास में पढ़ा रहा हूँ। 120 छात्र हैं, इन 120 छात्रों को पचास मिनट के लिए कंट्रोल करने का जो मेरा मोरल अथॉरिटी, मोरल रिस्पांसिबिलिटी होती है, क्या मैं ये पुलिस की सहायता से कर सकता हूँ? कैम्पस में कितने भी...यानी you lost your moral responsibility and the authority, and that's …..लाठी बुला रहा है। यही हर जगह हो रहा है। 1982 से 1984 तक हमारे वारंगल के 12 कॉलेजों में रेडिकल मूवमेंट के कारण धारा-144 लगाई गई थी। मैं क्लास में पढ़ाता था तो खिड़की से बाहर बन्दूक दिखती था। मैंने एक जगह लिखा भी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में जर्मनी में यह बात फैल रही थी कि अब जर्मनी, पेरिस नगर पर कब्ज़ा करेगा। इस पर एक अच्छी फिल्म भी 'लास्ट लेसन' आई है। फ्रेंच शिक्षक रोजाना सबक पढ़ाता कि कल से फ्रेंच भाषा नहीं पढ़ाई जाएगी क्योंकि जर्मन लोग आ जाएंगे। The last date for teaching वाली स्थिति हमारे यहाँ भी दो सालों तक रही थी। तो यह स्थिति आजकल हर जगह हो गई है। चाहे केंद्रीय विश्वविद्यालय हो, इफ्लू हो या उस्मानिया कैम्पस हो। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के बाहर पुलिस ने मुझको रोका कि कहाँ जा रहे हो और क्यों जा रहे हो? तब प्रो. वी. कृष्णा ने उनको मुझे अन्दर आने देने को कहा, तब जाकर मुझे अन्दर जाने दिया गया। यह कैसी स्थिति आ गई है? अब मीडिया को भी देखिए आप, ईनाडु के ऑफिस में प्रवेश नहीं कर सकते है! हर जगह दिखने वाला स्टेट कंट्रोल है और स्टेट के ऊपर कॉरपोरेट कंट्रोल है।


अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल को मीडिया ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नायक घोषित किया। मीडिया की इस भूमिका को आप किस तरह देखते हैं?


अब देखिए, तो 11 अप्रैल, 2011 को जब पहली बार अन्ना ने आन्दोलन शुरू किया था तो उस दिन मैं एम.एल. पार्टी के क्रन्तिकारी नेतृत्वकर्ता वासुदेव राव का पहला मेमोरी लेक्चर दे रहा था। मैंने कहा था कि ये तो अन्नलू के विरोध में अन्ना को लाया है। अन्नलू नक्सल को कहते हैं जिसका मतलब होता है भाई। जंगलमहल से लेकर बारह राज्यों में जो माओवादी आन्दोलन आया है, उसे मनमोहन सिंह देश के लिए बहुत बड़ा खतरा समझता है।  तो अन्नलू के प्रभाव का क्या करे, तो अन्ना हजारे को लाया। अन्ना हजारे सरकार और मीडिया दोनों के द्वारा मिलकर खड़ा किया गया है। इसके पीछे की कहानी यह है कि एक तरफ बी.जे.पी. बाबा रामदेव को प्रमोट कर रही थी। अब आप यह भी देखिए कि देश में बाबा रामदेव के बहुत उद्योग हैं, बहुत-सी दुकानें हैं। अब उन दुकानों के विज्ञापन के लिए उसको एक आश्रम चाहिए, एक पॉलिटिक्स चाहिए। अब ये सब तो एक घेरे के तहत होता है न। राजा दुष्यंत का राज चलना है तो राज चलने के लिए एक आश्रम होता है, वहाँ ऋषि होते हैं और उन ऋषियों के लिए सैकड़ों एकड़ जमीन देते हैं, गायें देते हैं। तो वे उसके धर्म को पालते हैं। ये ब्राह्मण हैं, वे क्षत्रिय हैं। वैसे ही रामदेव का आश्रम है, हर तरीके की बहुत-सी दुकानें हैं। अब उसको चलाना है तो उसके लिए एक धर्मनीति और एक राजनीति जरूरी हो जाती है और बी.जे.पी. उसको एक वाइस प्रेसीडेंट कैंडीडेट के रूप में देखती है। एक रामदेव है, योग वगैरह भी सिखा रहा है, उसका प्रभाव हो रहा है जिसका मीडिया भी खूब प्रचार कर रहा है। सरकार ने सोचा हम किसको लाएँ? तो अन्ना को लाया गया। सेबेस्टियन जो कि हमारे CPDR (Committee for Protection of Democratic Rights) का प्रेसीडेंट है। वह हैदराबाद के एक डेमोक्रेटिक राइट्स मूवमेंट में कह रहा था कि (अन्ना हजारे) गाँव में लोगों को पीटता है, प्रतिरोध पर लिखित रूप से प्रतिबंध लगाता है। ये कैसे प्रतिबंध लगते हैं? कैसे लागू करते हैं? ये अस्पृश्यता को बनाए रखना चाहता है। ये वैसा ही धर्म चाहता है, जैसा गाँधी ने चलाया था। खैर, जो भी हो, वैसे दो-तीन गाँवों में सुधार करने वाला आदमी जब दिल्ली में बैठता है और मीडिया का इतना बड़ा रिस्पॉन्स मिलता है तो वह अपने आपको बहुत बड़ा समझता है। यह बंबई आया था, सैकड़ों-हजारों गाड़ियाँ आई थीं। तो यह समझा कि 'ये सब मेरे लिए आए हैं।' अरे, ये सब तुम्हारे लिए नहीं, अपने इंटरेस्ट के लिए आए हैं। बासागुडा मुठभेड़ के बाद हम दिल्ली में धरना पर थे। कोई भी मीडिया वाला हमारे पास नहीं आया। दूसरी तरफ अन्ना हजारे का आन्दोलन चल रहा था, पूरा मीडिया वहाँ जमा हुआ थी। लगभग पचास चैनल्स स्थापित किए थे उन्होंने! अब देखिये, मीडिया के लिए अन्ना हजारे में कोई आकर्षण नहीं है। तो अब केजरीवाल को लाए हैं, अब केजरीवाल को प्रमोट किया जा रहा है। हमारा जैसा अनुभव है कि आम आदमी के टोपी वाले ने अज्ञान की रक्षा की है। आने वाले समय में कैसे डेमोक्रेसी हो सकती है? यानी "one can do or undo" आज स्थिति यह है कि कॉरपोरेट कम्पनियाँ किसी को ऊपर उठा भी सकती हैं और किसी को गिरा भी सकती हैं। अब अन्ना हजारे हो या जो भी हो। समझना यह है कि संकट क्या है? राजनीतिक अर्थशास्त्र का संकट क्या है? संसदीय लोकतंत्र का संकट क्या है? इसको ख़त्म करने के लिए अलग-अलग प्रयोग कर रहे हैं। एक तरफ दमन का दौर चल रहा है तो दूसरी तरफ ये नीति कभी शासक के लिए स्टिकेन कैरेक्टर का होता है। स्टिकी होता है और उसके साथ कैरेक्टर भी होता है। दमन तो चलता रहता है, शासन का दबाव भी बढ़ता रहता है। कभी-कभी इतिहास का भी इस्तेमाल होता है, वह चाहे अन्ना हजारे का हो या अरविन्द केजरीवाल का या फिर आम आदमी का हो। 'आम आदमी' भी आज कोई आम आदमी नहीं है। आम आदमी ग्रास रूट लेवल के सेंस में है।     


बुद्धिजीवियों का एक वर्ग मानता है कि मीडिया भारत में माओवादियों को बहुत कवरेज देता है?


कहाँ दे रहा है सही कवरेज? जब चाहा तब बहुत कवरेज दिया। मेरा अनुभव कहता है कि एक साल पहले मुझे अंग्रेजी इलेक्ट्रोनिक मीडिया वाले NEWS6  हो, NDTV हो, HEAD LINES  हो या TIMES NOW  हो, महीने में चार-पाँच बार बुलाते थे। TIMES NOW  हम नहीं जाते थे,  इन्कार करते थे। एक तरफ से सभी बुलाते थे, बहस होती थी। अब तो मीडिया में कवरेज ही नहीं है। उन्होंने जब चाहा तब किया। ये भी इसलिए कि सरकार इसका प्रचार करके उसके ऊपर दमन लाने के लिए या बुद्धिजीवियों के ऊपर जो इसका प्रभाव है उसको ख़त्म करने के लिए। इनको भी बुलाएँगे उनकी राय जानने के लिए और दूसरे लोगों से उसका खंडन भी करवाएँगे। मुद्दे के अंग-अंग का खंडन करते हैं और हमें यह बताना चाहते हैं कि कोई इसका जवाब नहीं दे सका है। मगर इसमें ये असफल हुए हैं। जब असफल हो गए तो साइलेंस किलिंग शुरू किया है। मीडिया आज कोई भी बड़ा विस्फोट हो या एनकाउण्टर हो, बाहर आने नहीं देती है।


माओवादियों के वार्ताकार होने के आधार पर आप तब कैसा महसूस करते हैं जब मीडिया माओवाद को 'आंतरिक आतंकवाद' और 'देश के लिए बड़े खतरे' जैसा कहता है?


मीडिया तो वैसे ही बनाता है। ये नहीं कि मनमोहन सिंह ने कहा है इसीलिए मैं...। रोजाना मीडिया वही प्रचार कर रहा है और उसे मानने के लिए भी मिडिल शासक तैयार हैं। ऐसी स्थिति बनी है, इसीलिए समस्या हो रही है लेकिन अब एक अंतर आ गया है। ग्रास-रूट लेवल पर जो संघर्ष कर रहे हैं, आदिवासी लोग हैं, दलित लोग हैं, किसान-मजदूर लोग हैं, वे अपने लिए, अपने साथ रहकर काम करने वाले माओवादी क्या कर रहे हैं, ये समझ गए हैं। वे मीडिया पर निर्भर नहीं हैं उनके बारे में समझने के लिए। जो टाउन्स में, अर्बन्स में रहने वाले मिडिल-क्लास लोग हैं, उनको तो सही पहचान माओवादियों के बारे में नहीं हो रही है, यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि 1857 से लेकर आज तक हम देखते हैं कि संघर्ष करने वाले किसान-मजदूरों को बुद्धिजीवियों का समर्थन मिल रहा था क्योंकि उसे मालूम होता था कि ग्रास-रूट लेवल पर क्या हो रहा है। आज ऐसा नहीं है। अगर है भी तो दूसरी बात है कि आज बुद्धिजीवियों को खरीद लिया गया है। कॉरपोरेट सेक्टर ने उन्हें खरीद लिया है। पहले गाँव में जब टीचर होते थे, उनका बहुत ही कम वेतन हुआ करता था। वेतन न हो तो गाँव की जनता के ऊपर निर्भर होकर बच्चों को पढ़ाते थे। यानी, वे जनता के साथ रहते थे। आज स्थिति बदल गई है। आज टीचर को, प्रोफेसर को एक लाख रुपए वेतन मिलता है और पढ़ाने की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है। तो क्या अपेक्षा करते हैं? क्योंकि बात यहाँ तक आ गई बुद्धिजीवी के लिए कि अब वे चेतना से जनता के पक्ष को रख सकते हैं, स्थिति से जनता के पक्ष नहीं रख सकते। स्थिति बहुत बदल गई है, हमारी लाइफ़-स्टाइल बहुत बदल गई है। हर तरफ़ से टैक्स मिल रहा है। घर आकर कार देता है, बाद में इंस्टॉलमेंट में कीमत लेता है। टी.वी. देता है। सभी उपकरण जो मनोरंजन के, रहने के हैं, आपके घर में आ जाते हैं, इंस्टॉलमेंट में ले सकते हैं और सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर आपको वेतन देती है। यह सहूलियत सॉफ्टवेयर में है, यूनीवर्सिटीज में है, हर जगह है, आपको जनता से अलग करने के लिए। ऐसी स्थिति में आप जनता का पक्ष लेने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि आपकी वैसी स्थिति नहीं है। भूख को महसूस करने की स्थिति ही नहीं है आपकी। भूखी पीढ़ी का पक्ष कैसे रख सकते हैं? चेतना से रख सकते हैं, कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। अब कितने लोग हो सकते हैं जो अपनी चेतना को...। आज देखिए न, एक विरोधाभास है, आदिवासी लोग जंगल में रहते हैं और हमारी जो ये पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी है, ये तो नंबर से बनने वाली है। अब एक नंबर से बनने वाली पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी, जिसे मेजोरिटी डेमोक्रेसी कहते हैं। इस मेजोरिटी डेमोक्रेसी में आठ-दस प्रतिशत रहने वाले आदिवासियों की चेतना डिसाइड नहीं करती तो कौन-सी बात डिसाइड कर सकती है क्योंकि मैंने केरल जाकर देखा था, वहाँ चार प्रतिशत ही आदिवासी लोग हैं। 1970 से लेकर नब्बे के दशक तक जनता के लिए लिखने वाला, एक बड़ा मशहूर लोक-साहित्य का कवि, रामाकृष्णा मिनिस्टर बन गया। बहुत ही अच्छी तरह आदिवासियों के लिए लिखा। मैंने उनसे पूछा, 'यह नेशनल पार्क क्यों बनवाया? आदिवासी महिला के ऊपर इतना क्यों हमला हो रहा है? यहाँ की जो जाति है, जिसका नाम कुछ है, जो एंटी नेशनल पार्क स्ट्रगल चलाया है।' कहा, "नहीं-नहीं, जमाना बदल गया है।" "नहीं-नहीं, जमाना नहीं बदला, तुम बदल गये हो।" और एसेम्बली में बैठकर रेजोल्यूशन करते हैं एंटी-आदिवासी क्योंकि पूरे गैर-आदिवासी लोग हैं। वे डिसाइड कर रहे हैं। इसीलिए तो मेरा कहना है कि बात (आदिवासियों के संबंध में) ज्यादा लोग पूछ रहे हैं, ऐसा नहीं होता है। अब सोम पेटा हुआ है। वहाँ समस्या खासकर किसके लिए आ रही है? फिशरमैन (मछुआरों) के लिए आ रही है, किसानों के लिए आ रही है। श्रीकाकुलम जिले की आबादी में वे लोग माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) ही हो सकते हैं और उनकी जिंदगी खत्म हो रही है। ये संख्या से निश्चय करते हैं या न्याय-अन्याय से डिसाइड करते हैं? महाभारत में जब पांडव जंगल में जा रहे होते हैं तो द्रौपदी उनके साथ जाती है, कुन्ती नहीं जा पाती। तो कुन्ती द्रौपदी से एक बात कहती है – "सुनो! अब तो बारह साल के लिए इन लोगों की तुम्हीं देखभाल कर लेना। ये युधिष्ठिर है, बड़ा है, तुम्हारे मन में भी उसके लिए सम्मान है। पकाने और खिलाने के समय तुम यह बात मन में रखती हो, मुझे बताने की जरूरत नहीं। भीम है, वो तो छीन लेता है, उसके बारे में भी कुछ कहने की जरूरत नहीं। अर्जुन है, उसके लिए तुम्हारे मन में प्रेम है। इन तीनों के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पर ये जो नकुल-सहदेव हैं, छोटे बच्चे हैं। ये पूछते नहीं, ये मुँह से कहते नहीं हैं। इनके बारे में सोचो।" यानी oppressed of oppressed के बारे में, जिसे न्याय मिलना है, उसके बारे में सोचो। यानी आज की डेमोक्रेसी की एक परिभाषा यह होनी चाहिए कि एक्सप्रेशन मे कौन-से लोग Oppressed हैं? उनको क्या मिलना चाहिए? आदिवासियों में भी बंजारों को बहुत कुछ मिल रहा है लेकिन कोया, गोंड, इन लोगों को क्या मिल रहा है? दलितों में भी माला (मेहतर) जैसी जाति को मिल रहा है, लेकिन मादिगा (चमार), को क्या मिल रहा है? डक्करी को क्या मिल रहा है? सब-कास्ट को क्या मिल रहा है? यह सोचना ही डेमोक्रेसी होती है, न्याय होता है। ये सब चेतना से डिसाइड कर सकते हैं मगर मेजोरिटी-माइनॉरिटी, ये जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की बातें हैं, उससे तो नहीं हो सकता।


माओवाद-नक्सल आन्दोलन और आदिवासी उन्मूलन के सन्दर्भ में क्या भारतीय मीडिया का नजरिया बदलना चाहिए?


बदलना तो चाहिए ही लेकिन भारतीय मीडिया के सेल्फ इंटरेस्ट से तो समस्या आती है। उसका इंटरेस्ट तो है ही मगर उससे ज्यादा क्या चाहेगा? जन-आंदोलन को अपना मीडिया बनाना है, एक वैकल्पिक मीडिया बनाना चाहिए, जनता का मीडिया बनाना चाहिए और वह ग्रास-रूट लेवल से बनती आनी चाहिए क्योंकि समझिए, आपने एक ग्लास हाउस (शीशे का घर) बना लिया है। अब ग्लास हाउस के ऊपर पत्थर डालने वाले लोगों की हिफ़ाजत के लिए ग्लास हाउस में रहने वाले तो काम नहीं करते। तो ग्लास हाउस पर पत्थर डालने वाले लोगों के लिए एक अलग मीडिया बननी है। तो जैसा (सत्यजीत राय की फिल्म) प्रतिद्वंद्वी में एक कैरेक्टर कहता है कि "सिर्फ बम डालना ही नहीं है, अपना बम तुमको ही बनाना है।" तो क्रांति करने वाले जैसे क्रांति के लिए अपने आप शस्त्र बनाते हैं या पुलिस-स्टेशन पर हमला करके छीन लेते हैं, वैसे ही अपना मीडिया भी खुद बना लेना है या जनांदोलन के प्रभाव से मीडिया के ऊपर दबाव लाकर अपनी बातें रखने के लिए उसके ऊपर दबाव डालना है। जब दबाव बनता है, जैसे 2004 में जब दबाव बना तो हमारी ख़बरें दी गईं। जब दबाव नहीं बनता है, तो हमारी ख़बरें नहीं दी जाती हैं। जैसा मार्क्स ने भी कहा है कि केवल जल-जंगल-जमीन की मुक्ति नहीं, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को भी मुक्त करना है Judges are to be judged, prosecutors are to be prosecuted. वह होना है। उसके लिए अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को हमें मुक्त करना है। इसे करने के लिए वैकल्पिक मीडिया बनाना है, वैकल्पिक पीपुल्स मीडिया बनाना है, वैकल्पिक भाषा को बनाना है, वैकल्पिक संस्कृति को बनाना है। आज 'वैकल्पिक' नहीं हो सकता है, वो 'पीपुल्स' (जनता का) ही होना चाहिए। मगर उस पर आक्रमण हो रहा है। उसे इस आक्रमण से मुक्त करके हमें जनता के हित में करना है।


क्या तेलुगु, तमिल, मलयालम, बंगला जैसी भाषाई पत्रकारिता ज्यादा जनपक्षीय भूमिका निभाती है?


क्रांति की स्थिति बहुत आगे रही तो मजबूरन उसका पक्ष लेते हैं, वैसी नहीं रही तो पक्ष नहीं लेते। दूसरी तरफ़ जितनी अंग्रेजी, हिन्दी भाषाओं का निहित स्वार्थ है उतना निहित स्वार्थ नहीं रहे तो थोड़ा बचते हैं। समझिए, दैनिक भास्कर है। दैनिक भास्कर की छत्तीसगढ़ में बहुत सी कोयले की कंपनियाँ हैं तो उसका निहित स्वार्थ ज्यादा होता है। वहीं आंध्र प्रदेश का एक छोटा-मोटा न्यूज पेपर होता है, उतना निहित स्वार्थ नहीं होता है, तो रिपोर्ट नहीं होती है। यहीं आप छत्तीसगढ़ आंदोलन को देखिए। दंडकारण्य आंदोलन के बारे में भोपाल से आने वाले, अलग क्षेत्रों से आने वाले, रायपुर से आने वाले हिंदी पेपर्स में रिपोर्टिंग बहुत रिटॉर्टेड (तोड़ी-मरोड़ी गई) होती है, लेकिन हैदराबाद से आने वाला जब भद्राचलम से रिपोर्टिंग करता है, तो उतना 'बायस्ड' (पक्षपातपूर्ण) नहीं होता क्योंकि उसका उतना निहित स्वार्थ नहीं है, तो फ़र्क होता है। तमिल मीडिया वहाँ के ईलम के इश्यू को लेकर क्या रिपोर्टिंग करता है? एल.टी.टी.ई. के बारे में वह क्या रिपोर्टिंग करता है? केरल में यू.ए.पी.ए. लागू किया जा रहा है, वहाँ का मीडिया कोई रिपोर्टिंग नहीं करता है। तो वहाँ भी एक निहित स्वार्थ काम करता है और ज्यादातर पूरे मीडिया को कंट्रोल कर रही हैं मल्टीनेशनल कम्पनियाँ। यहाँ तक कि क्षेत्रीय अख़बार भी मल्टीनेशनल कंपनियों के दलाल बन गए हैं। एक भी अख़बार या चैनल ऐसा नहीं है जिसके ऊपर टाटा या अम्बानी का कंट्रोल न हो। नमस्ते तेलंगाना नाम का एक न्यूज पेपर है। उसका एक चैनल है, टी न्यूज चैनल। ये टी न्यूज चैनल, राज न्यूज से लिंक होता है, जी.टी.वी. से लिंक होता है, क्योंकि अलग से चल नहीं सकता। एक विशिष्टता होती है जो कि मल्टीनेशनल कम्पनी की ही होती है, यही समस्या है।


पोस्को, जैतापुर, कुंडनकुलम, तेलंगाना की ख़बरें इन दिनों राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी ख़बर नहीं हैं। ख़बरें कौन रोकते हैं – सरकार या उद्योगपति?


दोनों ही। उद्योगपति के लिए सरकार रोकती है। उद्योगपति भी छोटे-मोटे तो हैं नहीं। उद्योगपति कॉरपोरेट हैं और ख़बरें उनके इंटरेस्ट में सरकार रोकती है। इंटरेस्ट उनका है।


अम्बानी परिवार के ख़िलाफ़ देश के किसी हिस्से में कोई ख़बर लीक नहीं हो सकती। आखिर क्यों?


क्योंकि कल ही अरुंधति रॉय कह रही थीं, "आप क्यों इतनी बहस कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बनेगा या राहुल बनेगा? यह बहस क्यों? जो भी बने, बनाने वाला अम्बानी है, टाटा है।" सवाल यह है, देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कौन होते हैं? दिखने वाले कठपुतली हैं ये लोग। इनको चलाने वाले तो अलग हैं – अंबानी है, टाटा है, बात यह है। इसलिए अम्बानी के विरोध में कहीं ख़बर लीक नहीं हो सकती।


आप जनपक्षीय पत्रकारिता की दिशा में प्रेस-काउंसिल और काटजू जी की भूमिका से संतुष्ट हैं?


(हँसते हुए) नहीं हैं, क्योंकि खासकर हमारा अनुभव है कि जब 'चेयरमैन ऑफ़ दि प्रेस काउंसिल' होते हुए काटजू यहाँ आया था, हम कुडनकुलम में 'फैक्ट फाइंडिग' के लिए गए थे। वरलक्ष्मी (हमारी संस्था की सचिव) भी गई थी जो वहाँ गिरफ्तार कर ली गई। देश-भर के एक ऑल इंडिया फैक्ट फाइंडिंग, आर.डी.एफ. ने आयोजित किया। वहाँ क्रांति चलाने के लिए उड़ीसा, दिल्ली, राँची सहित अन्य जगहों से लोग आए थे। यहाँ से वरलक्ष्मी और तीन लोग गए जो वहाँ गिरफ्तार कर लिए गए। एक महीने के लिए जेल में रहे। मीडिया ने इनका फोटो लगाकर खूब प्रचार किया कि 'ये सब माओवादी हैं। वरलक्ष्मी माओवादी है और वरलक्ष्मी का पति एक 'अंडरग्राउंड' माओवादी नेता है।' जबकि सच्चाई यह है कि वरलक्ष्मी की शादी ही नहीं हुई है। तमिल न्यूज पेपर, तमिल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खूब झूठा प्रचार किया। दैनिक ईनाडु है, जिसका सबसे बड़ा सरक्युलेशन रहता है। उसने भी ख़बर छापी। हमने प्रोटेस्ट किया, तो उसका कहना था कि 'आप भी लिखिए, हम वह भी छापेंगे।' आज कोई बड़ा विषय होता है, कल हमारा खंडन होता है और दूसरा न्यूज आता है। इसे लेकर हमने प्रेस-काउंसिल से शिकायत की। प्रेस-काउंसिल का चेयरमैन दो-तीन रोज के लिए यहाँ आया था। उसके एजेंडे में यह मुद्दा ही नहीं था। मैं उससे मिलने के लिए गया तो पता चला कि वह मुख्यमंत्री से मिलने गया है, तो मैं पुष्पराज के कहने के बाद प्रेस-काउंसिल के एक सदस्य से मिला। तो प्रेस-काउंसिल के सदस्य ने कहा कि 'मुझे शिकायत ही नहीं मिली है। आप फिर से दीजिए।' यह एक स्थिति है। दूसरी स्थिति यह है कि इतना बड़ा जनांदोलन चल रहा है, इतने छात्रों ने खुदकुशी कर ली है, तेलंगाना मुद्दे को लेकर हजारों लोग परेशान हैं लेकिन वह (काटजू) यहाँ आकर इसके विरोध में बयान देकर जाता है और ईनाडु के बारे में जो शिकायत आती है, वो नहीं लेता है। कहता है कि 'मुझे सी.एम. ने डिनर पर बुलाया है।' आपको तो रामोजी राव डिनर देता है, आपको तो मुख्यमंत्री डिनर देता है, तो आप कैसे शिकायत लीजिएगा? आप ही बोल रहे हैं कि 'मैं नहीं जा सकता हूँ, मैं नहीं ले सकता हूँ।' यह कैसा जनपक्ष होता है? हाँ, हमको लगता है कि जो सेक्युलर डेमोक्रेटिक इश्यूज हैं, उन पर उसका रवैया तो ठीक लगता है लेकिन समस्या यह है कि जब मुद्दा वर्ग का होता है तो हम कहीं भी न्याय की आशा नहीं कर सकते।


भारतीय मीडिया की वह भूमिका जिसने आपको निजी तौर पर बहुत दुखी किया? आप जनांदोलनों की वैकल्पिक मीडिया के बारे में क्या सोचते हैं?


जनांदोलन का मीडिया बन रहा है और बनाया भी जा रहा है। छोटी-छोटी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बन रही हैं। हाल ही में संजय काक ने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है 'रेड आंट ड्रीम' (माटी के लाल)। उन्होंने तीन मुद्दे लिए हैं। दंडकारण्य में क्या हो रहा है? जब अरुंधति रॉय गई थीं तो संजय काक भी गए। दंडकारण्य में कैसा जनतंत्र है? क्या प्रयोग किए जा रहे हैं? किन सपनों को हासिल करने के लिए वहाँ के लोग सोच रहे हैं? एक नियमगिरी आदिवासी ने क्या-क्या संघर्ष किए हैं? क्योंकि बाहर की दुनिया यह समझ रही है कि नियमगिरी एक स्पॉण्टेनियस (स्वत:स्फूर्त) आंदोलन है। वो (मीडिया) पूरा सच नहीं बता रहा है। वहाँ भी माओवादियों की भूमिका है। ज्यादा तो नहीं, मगर भूमिका है। तीसरा पंजाब को लेकर। भगत सिंह को लेकर आज तक क्रांति की क्या परंपरा है? क्या चल रहा है मल्टीनेशनल कम्पनियों में? इन तीनों को मिलाकर डॉक्यूमेंट्री बनाई है काक ने। हम इस फिल्म को इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी, हैदराबाद) में भी ले जाकर दिखाएंगे। तो एक वैकल्पिक, जनता के पक्ष में लेकर मीडिया आना चाहिए और इसके लिए छोटे-छोटे प्रयास होने चाहिए। ये हो रहे हैं और होंगे।


एन.जी.ओ. के कार्यों को मीडिया ने 'विकासपरक पत्रकारिता' का नाम दिया है। क्या आप एन.जी.ओ. की लीक से हो रही पत्रकारिता से संतुष्ट हैं?


कैसे संतुष्ट हो सकते हैं? क्योंकि उसका उद्देश्य यह है कि सारांश के तौर पर वह साम्राज्यवाद की सेवा कर रहा है। खासकर यह होता है कि क्रांति की बात को लेकर प्रचार होता है, तो क्रांति को 'रिफॉर्म' में खत्म करने के लिए एन.जी.ओ. आ रहा है, कॉन्सस (जागरूकता) में आ रहा है। मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी थी, मिनुगुरुलु। इसे अमेरिका में रहने वाले एक एन.आर.आई. ने यहाँ आकर यह बनायी है। मुझे लगा कि इसे एक्शन एड सपोर्ट कर रहा है। थीम अच्छी है, बनाया भी बहुत अच्छा है। नेत्रहीन विद्यार्थियों का मुद्दा है। उनके होस्टल, उनके स्कूल, कितनी बुरी हालत में हैं! उनके लिए जो फंड मिलता है, उसे वहाँ के चलाने वाले खा जाते हैं और उनके लिए जो कमेटी है, कमेटी का चेयरमैन कैसे फंड को खा जाता है? फिल्म अच्छी बनी है। 'अंधा होने से पहले वह अच्छा फोटोग्राफ़र था। बाद में एक एक्सीडेंट में वह अंधा हो गया। तो वो अपनी यादों के सहारे, अपने ज्ञान से, कैमरा लगाकर पूरी फिल्म बनाता रहता है, बहुत अच्छा! अगर क्रिएटिविटी देखी जाए तो as an art-piece, best art-piece. अब उसका पूरा-पूरा प्रयास होता है कि ये सब चीजें, नीचे जो हो रही हैं, उन्हें वह कलेक्टर को बताए। ये सब करके, कैमरा लगा के, और वह भी कलेक्टर के अटेंशन के लिए एक बड़े वाटर टैंक के ऊपर से कहता है कि 'मैं खुदकुशी कर लूँगा।' तो नीचे बहुत-से लोग आते हैं, पुलिस आती है, तो कलेक्टर भी आता है। तब उसने फिल्म बनाई। पूरा रिफॉर्म हो जाता है। यानी इससे क्या निकलता है देखने वालों को? जितना भी हो रहा है, भ्रष्टाचार हो या जो भी हो, कलेक्टर के नीचे एक सिस्टम है, उसी से हो रहा है। इसमें कलेक्टर नहीं है, इसमें पोलिटिकल सिस्टम नहीं है, इसमें दूसरे लोग नहीं हैं और ये रिफॉर्म करने वाला भी वही पालिटिकल सिस्टम है। वही रिफॉर्म करता है, ये फिल्म में है। जैसे 'अंकुरम' एक अच्छी जेन्यूइन फिल्म थी। फिल्म का एक पात्र झूठे मुठभेड़ में मारा गया, उसके बारे में जो बयान दिया गया, उस बयान को लेकर सरकार ने जाँच कराई और उसके लिए सजा भी दी। यह संदेश देने के लिए बहुत प्रभावशाली और बहुत विश्वसनीय फिल्म बनाई है। इसका उद्देश्य है रिफॉर्म की बात करना, वह कहीं सच्चाई में नहीं हो रहा है। आजाद के एन्काउंटर के बारे में सुप्रीम कोर्ट में गए तो बेंच ने कहा, "ये कैसे हो सकता है? रिपब्लिक अपने बच्चों को आप मार रहा है?" When we have petition the Supreme Court that was the first reaction of the Supreme Court. अन्त में क्या निकला है? सी.बी.आई. ने जाँच की, रिपोर्ट दी, क्या निकला है? दूसरी तरफ़ हमारा अनुभव है, कलेक्टर का अपहरण कर लिया, बहुत से डिमांड रखे, जनता के, आदिवासियों के। क्या नतीजा निकला? एक भी आदिवासी को नहीं छोड़ा, एक भी डिमांड पूरी नहीं की। समझिए, आप बताते हैं कि यह होने से बहुत रिफॉर्म आया है तो देखिए कि कहाँ आया है? सारे एन.जी.ओ. की कोशिश यह होती है कि क्रांति से रिफॉर्म में ले जाएँ, तो खासकर एन.जी.ओ. की भूमिका यह हो रही है कि लोगों की चेतना को वर्ग-संघर्ष की ओर न ले जाओ, वर्ग-संकट की ओर न ले जाओ, क्लास-कोलैबोरेशन (वर्ग सहभागिता) और एडजस्टमेंट (वर्ग सामंजस्य) में ले जाओ क्योंकि ये भी कॉरपोरेट स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट (संरचनात्मक सामंजस्य) करते हैं। एन.जी.ओ. स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट के लिए काम कर रहे हैं और इसीलिए मीडिया उनका बहुत प्रचार करता है।


क्या भारत में 'प्रो-एस्टेब्लिस्मेंट जर्नलिज्म' के समानांतर 'एंटी-एस्टैब्लिशमेंट जर्नलिज्म' खड़ा हो पाया है?


अब ऐसा नहीं है कि मीडिया में ही एंटी-एस्टेब्लिशमेंट लोग हैं, मगर वह तो 'dominated by, controlled by Pro-establishment'. अब अपनी-अपनी छोटी-छोटी पत्रिकाएँ निकालनी हैं, इसीलिए तो एक समय था कि कलकत्ते में 'छोटी पत्रिकाओं का आंदोलन चला। पीपुल्स मीडिया का एक आंदोलन आना चाहिए तो उतने पैमाने पर नहीं हो सकता, फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों में डि-सेंट्रेलाइज्ड (विकेंद्रीकृत) रूप में आना चाहिए। अभी कोशिश हो रही है, ये बंद नहीं होनी चाहिए, बल्कि और भी ज्यादा होनी चाहिए।


भारत के बहुल पेशेवर पत्रकारों और चंद गैर-पेशेवर पत्रकारों के लिए आपकी कोई अपील?


जाइए, वहाँ देखिएगा, जहाँ ग्रास-रूट पर संघर्ष हो रहा है। जाइए, देखिए, आपको जो लगे, वो रखिए। बिना गए, बिना देखे, जो आपको दिया गया है, वो मत बताइए। सच्चाई को बाहर लाइए। बस...।

http://hashiya.blogspot.in


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