THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, January 14, 2014

इस बाजारू राजनीति की आखिरी मंजिल भुखमरी

इस बाजारू राजनीति की आखिरी मंजिल भुखमरी

इस बाजारू राजनीति की आखिरी मंजिल भुखमरी

HASTAKSHEP

भारत में अस्पृश्यता और जातिव्यवस्था दरअसल नस्ली भेदभाव की फसल है

पलाश विश्वास

इस महादेश में दो विश्वविख्यात अर्थशास्त्री नोबेल विजेता हैं। डॉ. अमर्त्य सेन और डॉ. मोहम्मद युनूस। दोनों जायनवादी युद्धक विश्व व्यवस्था के डॉ. मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह आहलूवालिया और आनंद शर्मा से बड़े कारिंदे हैं। उनका करिश्मा किसी पास्को, वेदांता, रिलायंस मंत्री मुख्यमंत्री से कम हैरतअंगेज नहीं है। छनछनाते विकास के दोनों सबसे बड़े प्रवक्ता बाकी अर्थशास्त्री दोहराव के कीर्तनिया है। युनूस तो बांग्लादेश में एक मुश्त सहकारिता, एनजीओ और संचार क्रांति के मुखिया हैं तो अमर्त्य बाबू बंगाल और भारत सरकारों के मानविक प्रवक्ता हैं। अमर्त्यबाबू की वैश्विक ख्याति भारत और चीन की भुखमरी के अध्ययन के लिये है, जिस अध्ययन में उन्होंने देशज उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था पर कहीं आघात नहीं किया है। महामना युद्धक मसीहा नोबेल महाशय के नाम से अर्थशास्त्र का कोई पुरस्कार चालू नहीं किया, लेकिन मुक्त बाजार के अर्थशास्त्र को महिमामंडित करने के लिये काला धन के जखीरे के लिये कुख्यात स्वीडिश बैंक ने नोबेल के नाम पर पुरस्कार शुरू कर दिये। संजोग देखिये कि भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े बाजारू अर्थशास्त्री अमर्त्य बाबू को स्वीडिश बैंक के पुरस्कार से नवाजा गया है और इसी पुरस्कार के लिये ही सर्वजन स्वीकृत हैं।

नोबेल विशेषज्ञ ड़ॉ सुबोध राय से बात हुयी है और उन्होंने बताया कि युनूस को नोबल फाउंडेशन का ही पुरस्कार मिला है लेकिन अमर्त्य बाबू तो सीधे बैंक आफ स्वीडन के नोबेल विजयी हैं।

आप मंटेक बाबू या फिर अश्वमेध ईश्वर मनमोहन बाबू को जो चाहे कह लें लेकिन अमर्त्य बाबू के अध्ययन और उनके सिद्धांतों के खिलाफ एक शब्द का उच्चारण भी नहीं कर सकते। बंगाल में तो युनूस और अमर्त्य टैगोर के बराबर पूजनीय चरित्र हैं। जबकि उनकी स्थापनाओं और विवेक देवराय, रंगराजन, राजन,तेंदुलकर और सब्सिडी खत्म करने वाले देव देवियों की विकासगाथा स्थापनाओं में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। अपने क्रांतिकारी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक की भी बोलती ब्द है।

बंगाल के ही एक सिरफिरे हमारे परम मित्र डॉ. सुबोध राय ने इस फर्जी नोबेल पुरस्कार के खिलाफ न केवल बांग्ला और अंग्रेजी में ग्रंथ की रचना की है बल्कि उन्होंने खुद परमाणु वैज्ञानिक होने के बावजूद बांग्ला के सबसे बड़े अखबार समूह के उनके निरंतर महिमांडन के विरुद्ध और अमर्त्यबाबू के विरुद्ध हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा हारने के बाद खुद बुढ़ापे में वकालत की सर्वोच्च परीक्षा पास करके अपनी लड़ाई जारी रखी हुयी है। बंगाल में इंद्र देवता की तरह विराजमान हैं अमर्त्यबाबू और सत्ता से हमेशा की तरह सुगंधित, लेकिन महज अमर्त्य के विरोध की वजह से हमारे मित्र की महिषासुर दशा है।

चूंकि टाइम्स के बांग्ला अखबार में भुखमरी पर बांग्ला में प्रकाशित पुस्तक क्षुधार्त बांग्ला की समीक्षा छपी है। बंगाल में महायुद्ध के दौरान हुयी छिटपुट बम वर्षा से जान माल की कोई क्षति न होने के कारण साम्राज्यवादी उत्पादन प्रणाली की वजह से पैंतीस लाख लोगों की भूख से हुयी मौत का एक और आख्यान प्रकाशित हुआ है। इसी के साथ चर्चिल की रंगभेदी नीतियों को इस महाविध्वंस का जिम्मेदार ठहराते हुये एक आलेख भी छपा है। अगर नेट पर उपलब्ध हुआ तो दोने बांग्ला आलेख इस संवाद में आपकी राय मिलने के बाद नत्थी कर दूंगा। जिन्हें बांग्ला आती है, वे पढ़ सकते हैं।

मैं बार बार लिख रहा हूँ, कह रहा हूँ कि भारत में अस्पृश्यता और जातिव्यवस्था दरअसल नस्ली भेदभाव की फसल है। जाति व्यवस्था हिन्दुओं में है लेकिन आदिवासियों और मुसलमान समेत गैरहिंदुओं, जो जाति व्यवस्था से बाहर हैं और देवभूमि समेत समूचे हिमालय में, पूर्वोत्तर में जो सवर्ण हिंदू हैं, जो तरह-तरह के बस्ती वाशिंदा हैं, विकास की वजह से जो विस्थापित हैं, या डूब में हैं, जो देश विभाजन के शिकार लोग हैं और निरंतर जारी विकास गृहयुद्ध के शिकार हैं, उन सबकी दुर्गति की मूल वजह यह रंगभेदी व्यवस्था है। खास बात तो यह है कि वैश्विक जायनवादी व्यवस्था के मुक्त बाजार में जो मुख्य हथियार बायोमेट्रिक, डिजिटल, रोबोटिक नागरिकता खुफिया निगरानी तंत्र ड्रोन और प्रिज्म है और उन्हें अमली जामा पहुँचाने का जो अचूक कॉरपोरेट धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद है, उसका असली महादुर्ग यह रंगभेद है। अर्थशास्त्री और डॉ. आशीष नंदी जैसे कॉरपोरेट समाजशास्त्री जिस कॉरपोरेट सामाजिक सरोकार के तहत समावेशी विकास के जरिये सामाजिक कार्यक्रम का विमर्श चलाते हैं, वह मुक्त बाजार की प्रबंधकीय दक्षता और युद्धक मार्केटिंग के तहत मुक्त बाजार के विस्तार के लिये अनिवार्य क्रयशक्ति निर्माण की जुगत हैं। क्योंकि बहिष्कृत मारे जाने वाले बहुसंख्य भारतीय को उपभोक्ता बनाये बिना मुक्त बाजार का तंत्र शहरों के अलावा जनपदों में कहर बरपा ही नहीं सकता, इसलिए रंग बिरंगी सामाजिक योजनाओं, सशक्तीकरण और समावेशी विकास की लोकलुभावन अवधारणाओं के साथ बाजार के महाअमृत का स्वाद चखने के लिये उनकी न्यूनतम क्रयशक्ति की अनिवार्यता है और इसी क्रयशक्ति के आत्मघाती रामवाण से उनका वध भी होना है। क्योंकि यह क्रयशक्ति पूँजी के एकाधिकारवादी जनसंहारी अश्वमेध को न्यायपूर्ण बनाता है।

हमने इतिहास और अर्थशास्त्र सिर्फ इंटरमीडियट तक पढ़ा है क्योंकि जन्मजात आंदोलनों के मध्य होने के बावजूद हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि कहीं से न अकादमिक और न पेशेवर थी और इन विषयों की अनिवार्यता के बारे में हमें मालूम हुआ विश्वविद्यालय से निकलने के बहुत बाद। छात्र जीवन में तो हम कला विधाओं के सौंदर्यशास्त्री दिवास्वप्न में निष्णात थे, समूत सत्तर दशक में अपनी निरंतर सामाजिक सक्रियता के बावजूद।

डॉ. सुबोध राय ने अमर्त्य बाबू को पूरा पढ़ा है। उन्होंने हमारी धारणा की पुष्टि भी कर दी कि महामना अमर्त्य बाबू ने अपने समूचे अध्ययन और विमर्श में न कभी साम्राज्यवाद या कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के खिलाफ और न ही धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सभी पक्षों के खिलाफ कुछ लिखा है। जैसे वे मोदी के फासिस्ट चेहरे को प्रधानमंत्री के रुप में न देखने की चाहत बताकर सुर्खियों में रहे और कांग्रेस, वाम, समाजवादी व अंबेडकरी धर्मोन्माद के बारे में एकतरफा चुप्पी साध गये, वैसे ही जाति विमर्श को अर्थशास्त्र से जोड़ने के गैरसरकारी उपक्रम चालू करने के बावजूद भारत की रंगभेदी नस्ली मुक्त बाजार व्यवस्था के खिलाफ या औपनिवेशिक ब्रिटिश या अमेरिकी रंगभेद के बारे में भी वे अपने समूचे अध्ययन और विमर्श में खामोश रहे हैं।

डॉ. सुबोध राय परमाणु वैज्ञानिक भी हैं और सोवियत संघ में दस साल रहे भी हैं। सोवियत विघटन के बाद वे भारत आये हैं। "आप" के बारे में कॉरपोरेट कायाकल्प के बारे में हम जैसे अपढ़ व्यक्ति के आकलन से वे सहमत हैं। उनका आभार। "आप" को वे कोई विकल्प नहीं मानते और न आप के साथ वे कोई समझौता करना चाहते हैं, जबकि बंगाल में ममता पक्ष और वामपक्ष दोनों "आप" जहाज में सवार होने को बेताब हैं। इसके बदले अपनी आर्थिक सामाजिक अवधारणाओं को रुप देने के लिये इसी बीच उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी भी बना ली है, जिसका मकसद बंगाल में एकाधिकारवादी वर्चस्व को तोड़ना है। उनको शुभकामनाएं और कम से कम इस मामले में हम उनके साथ खड़े नहीं हो सकते क्योंकि हमारा मानना है कि राज्यतंत्र को जस का तस रखकर हर विकल्प, हर जनादेश की कॉरपोरेट विकल्प बन जाने से भिन्न कोई नियति है ही नहीं।

शैतानी गलियारों के निर्माण बजरिये सैकड़ों महासेजों और सैकड़ों अत्याधुनिक महानगरों के जरिये अगले चुनावों के बाद महाविध्वँस का शंखनाद है जिसकी सिंहगर्जना की गूँज समूचे परिवेश में हैं। चूँकि हमारी इंद्रियाँ विकलाँग हैं और हम इस महाविध्वँस की पदचाप सुनने में असमर्थ हैं। अभी तो सिर्फ कृषि का विनाश हुआ है। सुधारों के अगले चरण में भारतीय जनपदों और देहात के दिग्दिगंतव्यापी सर्वनाश की तैयारी में है कायाकल्पित कॉरपोरेट राजनीति, जिसकी आखिरी मंजिल भुखमरी है।

यूरोप और अमेरिका में महाविकास के लिये आँधी और तूफान में बेघरों की तस्वीरें अब भारत में सार्वजनिक यथार्थ बनने वाला ही है। ब्राजील की तापलहरी की आँच और आस्ट्रेलिया का दावानल की पहुँच की जद में हैं हम। हमारे मित्र पीसी जोशी ने अल्मोड़ा से गलत इलाज की वजह से अपनी पत्नी के निधन के एक दिन पहले हमें ग्राफिक ब्यौरे के साथ बताया कि खेती के विनाश और एकाधिकार वादी भूमाफिया की वजह से पहाड़ों और तराई में, समूचे उत्तराखंड में कैसा आजीविका संकट है और किस तेजी से लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं। गनीमत है कि प्रतिकूल परिस्थितियो के बावजूद हिमालयी भूकंप, भूस्खलन, बाढ़, डूब प्रदेशों में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इजाएं और वैणियां साक्षात अन्नपूर्णा हैं, उनकी वजह से ही पहाड़ को अब भी दो जून की रोटी मिल पाती है। मैदानों में तो पुरुषतंत्र के एकाधिकारवादी वर्चस्व की वजह से मातृशक्ति भी हमें इस अमोघ दुर्भिक्ष से बचा नहीं सकती।

About The Author

 पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना 

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