THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, January 20, 2014

कोसी घाटी की विरासत

कोसी घाटी की विरासत


पिछले कुछ दिनों से सोमेश्वर की कोसी घाटी लगातार सुर्खियों में है. अल्ट्राटेक कम्पनी की ओर से यहां पर 20 लाख टन उत्पादन क्षमता का एक सीमेंट प्लांट लगाये जाने के प्रस्तावित मामले ने इस घाटी में निवास करने वाले लोगों और पर्यावरण प्रेमियों को भारी चिन्ता में डाल दिया है...

चंद्रशेखर तिवारी


'कदाचित पहाड़ी इलाकों में सोमेश्वर के समीप बौरारौ की कौशिला (कोसी) से अधिक सुन्दर और कोई घाटी नहीं है. यहां की नैसर्गिकता, नदी-नाले और जंगल, उपजाऊ खेत, सुन्दर वास्तुकला से युक्त लोगों के घर कुल मिलाकर एक ऐसा दृश्य उत्पन्न करते हैं, जो कि सम्भवत पूरे एशिया में कहीं न हो.'

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तकरीबन 20 किमी लम्बी व 5 किमी चौड़ी सोमेश्वर की इस अदभुत घाटी पर यह टिप्पणी 1851 में मिस्टर जे0 एच0 बैटन नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा ऑफिसियल रिपोर्ट ऑन द प्रोविन्स ऑफ कुमांऊ में दी गयी थी.

पिछले कुछ दिनों से सोमेश्वर की यह कोसी घाटी लगातार सुर्खियों में है. अल्ट्राटेक कम्पनी की ओर से यहां पर 20 लाख टन उत्पादन क्षमता का एक सीमेंट प्लांट लगाये जाने के प्रस्तावित मामले ने इस घाटी में निवास करने वाले लोगों और पर्यावरण प्रेमियों को भारी चिन्ता में डाल दिया है. हालांकि मामला अभी शुरुआती दौर में ही है.

सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखने वाले तमाम लोग सोमेश्वर घाटी के लिए इस प्रस्तावित सींमेंट प्लांट को कतई भी मुफीद नहीं मान रहे. दरअसल, सीमेंट बनाने में चूना पत्थर खडि़या पत्थर, रेत आदि के इस्तेमाल होने के कारण इनका अत्यधिक दोहन होगा, जिससे यहां के पहाड़ छलनी हो जायेंगे.

सीमेंट निर्माण में अत्यधिक उच्च तापमान की आवश्यकता से वातावरण में तापमान बढ़ने और उत्सर्जित होने वाली हानिकारक गैसों से वनस्पति को नुकसान पहुंचने की आशंका होगी. यही नहीं प्लांट से निकलने वाली धूल के दुष्प्रभाव का असर मानव के स्वास्थ्य पर भी पडे़गा.

सोमेश्वर क्षेत्र में जहां इस प्लांट को लगाये जाने की बात कही जा रही है, वह अल्मोड़ा जिले की एक अत्यन्त उपजाऊ घाटी में स्थित है. कौसानी के समीपवर्ती उच्च शिखर भटकोट (2400 मीटर) से निकलने वाली कोसी (कौशिकी, कोशिला अथवा कौशल्या नाम भी) इस घाटी के बीच से होकर बहती है.

अपने मूल स्रोत से तकरीबन 170 किमी की यात्रा पूरी कर कोसी नदी सुल्तानपुर पट्टी के बाद पश्चिमी रामगंगा में मिल जाती है. कुमाऊं में कोसी समेत करीब एक दर्जन से अधिक नदी घाटियां हैं. कुमाउंनी भाषा में इस तरह की सिंचित व चैरस घाटियों को सेरा या बगड़ कहा जाता है. नदियों द्वारा बहाकर लायी मिट्टी-कंकड़ व गोल पत्थरों से निर्मित इस तरह की घाटियां प्रायः नदी तट से लगी हुयीं अथवा उससे कुछ ऊपर होती हैं.

तकरीबन 150 गांवों को अपने गोद में समेटे सोमेश्वर की यह घाटी अपनी नैसर्गिक सुन्दरता, विपुल प्राकृतिक सम्पदा, उपजाऊ खेती के लिए विख्यात है. इस घाटी में धान, गेहूं, सरसों, अदरक, प्याज व आलू की भरपूर फसल होती है. सामाजिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक संदर्भों में भी यह घाटी विशेष है.

आजादी के दौर में चनौदा में स्थापित उत्तराखण्ड का पहला गांधी आश्रम, प्रसिद्ध समाज सेविका सरला बहन द्वारा महिला उत्थान व पर्यावरण संरक्षण के लिए खोला गया कौसानी का लक्ष्मी आश्रम, ऐतिहासिक व पुरातत्व की दृष्टि से सोमेश्वर, व गणानाथ के प्राचीन मन्दिर, ऐड़ाद्यौ, पिनाकेश्वर, रुद्रधारी जैसे तपोस्थल... और परम्परा में रची-बसी तमाम लोक गाथाएं, किस्से व कहानियां....यह सब इस घाटी को एक समृद्ध विरासत का स्वरुप प्रदान करती हैं.

धान की रोपाई के दौरान लगने वाले हुड़किया बौल ( खेती से जुड़ा लोकगीत) यहां की लोक परम्परा का एक जीवन्त उदाहरण है -

ये सेरी का मोत्यूं तुम भोग लगाला होऽ
सेवा दिया बड़ा हो ऽ
ये गौं का भूमिया परो दैणा होया होऽ
हलिया व बल्दा बरोबरी दिया होऽ
हाथों दिया छावो हो, बिंया दिया फारो होऽ
पंचनामो देवा होऽ

(अर्थात हे देवता! इन खेतों में उगे मोती के समान धान आपको भोग के लिए अर्पित हैं. हे भूमि देवता! हमारी इन फसलों पर अपनी कृपा निरन्तर बनाये रखना. रोपाई लगाने वाले और पाटा फेरने वाले को बराबर मान देना. हलवाहे और बैलों को एक समान गति प्रदान करना. रोपाई लगाने वाले के हाथ अनवरत चलते रहें और रोपाई के ये पौंध सभी खेतों के लिए पूर्ण हों हे पंचनाम देवता!)

यह वही घाटी है, जिसके चन्द दूरी पर स्थित कौसानी नामक स्थान में महात्मा गांधी ने कुछ दिन प्रवास करने के उपरान्त यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य की तुलना स्विटजरलैण्ड से की थी. धर्मवीर भारती की पुस्तक 'ठेले पर हिमालय' के सभी मनमोहक दृश्यों के वे तमाम रंग -....कल-कल करती हुई कोसी... सुन्दर गांव और हरे मखमली खेत... पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकानें व.....नदी-नालों पर बने हुए पुल... इस घाटी के कैनवास में अब भी मौजूद हैं.

लद्दू घोडे़ की चाल चलते घराटों की खिचर-खिचर आवाज के बीच कोसी का घटवार (शेखर जोशी की कहानी) के मुख्य पात्र गुसांईं व लछमा के सुख-दुखों को अब भी यहां के जनजीवन में निकट से देखा जा सकता है.

सही मायने में कोसी घाटी की समृद्ध विरासत से जुड़ा यह प्रश्न पहा़ड़ के संवेदनशीलता और उसके विशिष्ट भौगोलिक परिवेश के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. सरकार को इस प्रकार के त्वरित विकासों के बदले उन दीर्घकालिक विकास परियोजनाओं को वरीयता देने की पहल करनी होगी, जिससे देर-सबेर सीमित मात्रा में ही सही पर उसका लाभ बगैर किसी प्रतिकूल प्रभाव के निरन्तर मिलता रहे.

बेहतर होगा यदि सरकार इस प्लांट को लगाने के बजाय यहां के जल, जंगल व जमीन के संरक्षण पर अपना ध्यान केन्द्रित करे और स्थानीय खेती-बाड़ी को बढ़ावा देकर उसे रोजगार से जोड़ने का यत्न करे. खैर, अब भी बहुत वक्त है. आखिर हम सभी को इस सुरम्य घाटी को ग्रहण लगने से पूर्व बचाने का यत्न करना ही चाहिए.

chandrashekhar-tiwariचंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय में रिसर्च एसोसिएट हैं.

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