THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, January 9, 2014

खास आदमी की धुआँधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र

जो लोग भ्रष्टाचार और कालाधन के विरुद्ध जिहादी झंडावरदार हैंवहीं लोग अप्रतिरोध्य भ्रष्ट कालेधन का सैन्य राष्ट्रतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

शायद  यह अब तक का सबसे खतरनाक राजनीतिक समीकरण है। सीधे विश्व बैंक, यूरोपीय समुदाय, अंतरराष्ट्रीय चर्च संगठन, विश्व व्यापार संगठन, यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग से पोषित सामाजिक क्षेत्र और प्रायोजित जनान्दोलनों के साथ सामाजिक प्रतिबद्धता के लिये भारी साख वाले तमाम परिचित चेहरे, मीडिया और कॉरपोरेट जगत के हस्ती एक के बाद एक खास आदमी पार्टी में शामिल होते जा रहे हैं।

राजनीति के इस एनजीओकरण के कॉरपोरेट कायाकल्प की चकाचौंध में राज्य तंत्र को जस का तस बनाये रखते हुये, कॉरपोरेट राज और विदेशी पूँजी को निरंकुश बनाते हुये, जनसंहारी नीतियों की निरन्तरता बनाये रखते हुये, उत्तर आधुनिक जायनवादी रंगभेदी मनुस्मृति वैश्विक व्यवस्था को अभूतपूर्व वैधता देते हुये एक और ईश्वरीय आध्यात्मिक परिवर्तन का परिदृश्य तैयार है।

मीडिया सर्वे के मुताबिक यह परिवर्तन सुनामी ही अगला जनादेश है।

इसी के मध्य मध्यवर्गीय क्रयशक्ति सम्पन्न उपभोक्ता नवधनाढ्य वर्ग को देश की बागडोर सौंपने की तैयारी है, जो मुक्त बाजार के तहत विकसित एकाधिकारवादी प्रबंधकीय, तकनीकी दक्षता का चरमोत्कर्ष है। जाहिर है कि इससे एकमुश्त परिवर्तनकामी मुक्तिकामी जनान्दोलनों के साथ-साथ वामपक्ष के बिना शर्त आत्मसमर्पण की वजह से जहाँ विचारधारा का अवसान तय है, वहीं धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के त्रिआयामी त्रिभुजीय तिलिस्म में बहुजनों की समता और सामाजिक लड़ाइयों का भी पटाक्षेप है। इसी के मध्य आध्यात्मिक अर्थशास्त्र की अवधारणा मध्य आर्थिक अश्वमेध अभियान के विमर्श को जनविमर्श बनाते हुये छनछनाते विकास का अर्थशास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है।

जनता तो मारे जाने के लिये नियतिबद्ध है, कर व्यवस्था में सुधार के बहाने हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर अमल के लिये भारतीय संविधान की एक झटके के साथ बलि देने और करमुक्त भारत निर्माण के बहाने रंगबिरंगी पूँजी और कालाधन को करमुक्त करने का आईपीएल शुरु हो गया है। विडम्बना यह है कि जो लोग भ्रष्टाचार और कालाधन के विरुद्ध जिहादी झंडावरदार हैंवहीं लोग अप्रतिरोध्य भ्रष्ट कालेधन का सैन्य राष्ट्रतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।

हमने अपने एक अंग्रेजी आलेख में कई वर्ष पूर्व देश विदेश घूमने वाले मुक्त बाजार के पक्षधर और मनमोहमनी अर्थशास्त्र के घनघोर भक्त एक बहुत बड़े अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार का यह वक्व्य उद्धृत किया था कि भारत में विकास के बाधक हैं तमाम आदिवासी। जब तक आदिवासी रहेंगे, तब तक इस देश का विकास हो नहीं सकता। इसलिये आदिवासियों के खिलाफ राष्ट्र का युद्ध अनिवार्य है। आदिवासियों के सफाये में ही राष्ट्रहित है।

उस वक्त जो शब्दावली हम उपयोग में ला रहे थे, मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर उसे हमने त्याग दिया है। उस वक्त भी हम अस्मिताओं के मध्य बहुजन भारत को आन्दोलित करने का मिशन चला रहे थे। इसलिये उस आलेख के ज्यादा उद्धरण देकर हम अपने नये नजरिये के बारे में कोई भ्रम पैदा नहीं कर सकते। लेकिन सत्तावर्ग के प्राचीन वधमानस का विवेचन आवश्यक है। उल्लेखित पत्रकार अब भी मीडिया में उसी बड़े अखबार में शान से काम कर रहे हैं और लिखित में अत्यन्त उदार दिखते हैं। यह पाखण्ड समकालीन लेखन का सबसे बड़ा दुश्चरित्र है।

मसीहा माने जाने वाले तमाम लेखक बुद्धिजीवी हिंदी में शायद अंग्रेजी से ज्यादा हैं, मैं समझता हूं कि इसे साबित करने के लिये किसी का उदाहरण देने की जरुरत नहीं हैं। ऐसे महान लोग या तो बेनकाब हो चुके हैं या बेनकाब होंगे। सत्तावर्ग का सौंदर्यशास्त्र भी अद्भुत है, वे सीधे तौर पर जो कहते लिखते नहीं है, उनका समूचा लेखन उसी को न्यायोचित ठहराने का कला कौशल और जादुई शिल्प है।

इसी संदर्भ में अभी-अभी रिटायर हुये एक अंग्रेजी अखबार के संपादक का हवाला देना जरूरी है जो भारतीय लोगों से सिर्फ इसलिये सख्त नफरत करते हैं कि उन्होंने एक अमेरिकी महिला से विवाद किया है और उन्हें अपना देश भारत के बजाय अमेरिका लगता है। उनकी इस नफरत की बड़ी वजह है कि भारतीय शौच से निपटने के बाद पानी का इस्तेमाल करते हैं। हमारे उन आदरणीय मित्र को शौच में कागज के बजाय पानी का इस्तेमाल करना सभ्यता के खिलाफ लगता है।

हम नैनीताल में पले बढ़े हैं। दिसंबर से लेकर फरवरी में पानी जम जाने की वजह से जहाँ नल फट जाना अमूमन मुश्किल है। हमें मालूम है कि कड़ाके की शून्य डिग्री के तापमान के नीचे शौच में पानी का इस्तेमाल कितना कठिन होता है। अमेरिका और यूरोप में तो नल के अलावा दूसरी चीजें भी फट जाती होंगी। न फटे तो कागज एक अनिवार्य उपाय हो सकता है। लेकिन भारत जैसे गर्म देश में टॉयलेट की जगह पानी ही शौच का बैहतर माध्यम हैं। वे आदरणीय संपादक मित्र अपने पुरातन मित्रों से सम्पर्क भी ​​इसलिये नहीं रखना चाहते क्योंकि वे लोग शौच में पानी का इस्तेमाल करते हैं।

टॉयलेट मीडिया का यह परिदृश्य विचारधारा, विमर्श और जनान्दोलनों तक में संक्रमित है। साहित्य और कला माध्यमों में तो टॉयलेट का अनन्त विस्तार है ही। विडम्बना यही है कि टॉयलेट पेपर में जिनकी सभ्यता निष्णात है और टॉयलेट में ही जिनके प्राण बसते हैं, वे लोग ही जनमत, जनादेश और जनान्दोलने के स्वयंभू देव देवियाँ हैं।

अखबारों में उनका सर्वव्यापी टॉयलेट रोज सुबह का रोजनामचा है तो ऐसे रिटायर बेकार संपादकों या अब भी सेवारत गैरजरूरी मुद्दों के वैश्वक विशेषज्ञ मीजिया मैनेजर चाकरों का गुरुगंभीर पादन कॉरपोरेट मीडिया से अब सोशल मीडिया तक में संक्रमित है।

बहरहाल, भारत को करमुक्त बनाने के नममय उद्घोष और बाबा रामदेव के आध्यात्मिक अर्थशास्त्र और गणित योग की धूम रंग बिरंगे चैनलों और प्रिन्ट मीडिया पर खास आदमी की बढ़त के मुकाबले मोर्चाबन्द हैं।

यह विमर्श महज टैक्स चोर किसी गुरुजी का होता या हिन्दू राष्ट्र के प्रधान सिपाहसालार का ही होता तो इस सपने को साकार करने के लिये आर्थिक अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय पेज भी रंगे न होते और न प्राइम टाइम में इस मुद्दे पर तमाम आदरणीय सर्वज्ञ एंकर देव देवियाँ सर्कस की तरह पैनल साध रहे होते। इसी बीच अर्थशास्त्रियों ने एक अलग मोर्चा बहुआयामी खोल लिया है। आर्थिक सामाजिक इंजीनियरिंग करने के लिये अमर्त्य सेन अकेले नहीं हैं। उनके साथ विवेक देवराय से लेकर प्रणव वर्धन तक हैं। प्रेसीडेंसी कॉलेज और आईएसआई से निकले ये तमाम अर्थशास्त्री देश के समावेशी विकास के ठेकेदार हैं।

भारत सरकार, नीति निर्धारक कोर ग्रुप और रिजर्व बैंक के मार्फत जो मुक्त बाजार की जनद्रोही अर्थव्यवस्था है, ये तमाम अर्थशास्त्री इस कसाई क्रिया को मानवीय चेहरे के धार्मिक कर्मकाण्ड बनाने में खास भूमिका निभाते रहे हैं।

मसलन डॉ. अमर्त्य सेन बंगाल में 35 साल के वाम शासन में वाम नेताओं और सरकार के मुख्य सलाहकार रहे हैं। भारत और चीन में अकाल पर अध्ययन के लिये उनकी ख्याति है। लेकिन अपने विश्वविख्यात शोध कर्म में अमर्त्य बाबू ने इस अकाल के लिये साम्राज्यवाद को कहीं भी जिम्मेदार मानने की जरूरत ही महसूस नहीं की। वे वितरण की खामियाँ गिनाते रहे हैं। सिर्फ डॉ. अमर्त्य सेन ही नहीं, भारतवंशज सारे अर्थशास्त्री साम्राज्यवादी मुक्तबाजार के ही पैरोकार हैं और उनका सारा अध्ययन और शोध छनछनाते विकास की श्रेष्ठता साबित करते हैं।

बंगाल में जब ममता बनर्जी की अगुवाई में सिंगुर और नंदाग्राम का भूमि आन्दोलन जारी था, तब पूँजी के स्वर्णिम राजमार्ग पर कॉमरेडों की नंगी अंधी दौड़ को महिमामंडित करने के लिये देश जैसी पत्रिकाओं में इन अर्थशास्त्रियों के तमाम कवर आलेख छपे, जिनमें ममता बनर्जी को ताड़कासुर रूप में दिखाने में भी कसर नहीं छोड़ी गयी।

तमाम अर्थशास्त्री तब कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर देते हुये कॉमरेडों को आहिस्ते-आहिस्ते मौत के कुएं में धकेल रहे थे। जब उन्होंने आखिरी छलाँग लगा ली तब एक-एक करके सारे के सारे ममतापंथी हो गये।

सबसे पहले फेंस के आर-पार होने वाले सज्जन का नाम विवेक देवराय है। मजे की बात है कि पार्टीबद्ध कॉमरेड अर्थशास्त्री भी विचारधारा पर पूँजी का यह मुलम्मा चढ़ने से बचा नहीं पाये। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग चाहे जितना करें भारतीय दरअसल, उसकी सीमा मनमोहन इकोनामिक्स है। यह अर्थशास्त्र बहुसंख्य बहुजन भारतीय जनगण के बहिस्कार के तहत ही आर्थिक अवधारणाएँ पेश करने में पारंगत है।

आम आदमी को हाशिये पर रखकर ही शुरू होता है खास आदमी का अर्थशास्त्र। इसीलिये प्राचीनतम और बुनियादी अर्थशास्त्र दरअसल मनुस्मृति समेत तमाम पवित्र ग्रंथों का समारोह है। तो मुक्त बाजार का यह अर्थशास्त्र फिर वहीएडम स्मिथ है, जो सिर्फ धनलाभ का शास्त्र है, जिसमें जनकल्याण का कोई तत्व ही नहीं है। जनकल्याण भी उपभोक्ता वस्तु है, ठीक उसी तरह जैसे पुरुषतांत्रिक अर्धराज्यतंत्र में बिकाऊ स्त्री देह।

बंगाल में जो हुआ कुल मिलाकर भारत की राजधानी दिल्ली में भी उसी की पुनरावृत्ति हो रही है। जो लोग पिछले दस साल तक मनमोहिनी स्वर्ग के देवमंडल में हर ऐश्वर्य का स्वाद चाख रहे थेवे रातों रात मनमोहन अवसान के बाद नमोमय हो गये हैं या आम आदमी पार्टी के खास चेहरे बनने को आकुल-व्याकुल हैं।

कर व्यवस्था में सुधार और वित्तीय सुधार के लिये जो लोग मनमोहन सिंह की तारीफों के पुल बाँध रहे थे, वे लोग ही अब घोषणा कर रहे हैं कि 2005 से न कोई वित्तीय सुधार हुआ और न कर प्रणाली बदलने की कोई पहल हुयी।

आगे और खुलासा हो, इससे पहले अमर्त्य बाबू के समीकरण का जायजा लीजिये।

एक समीकरण वह है, जिसे मीडिया खूब हवा दे रहा है, जिसके मद्देनजर आप में वाम को समाहित होना है और अमीर-गरीब का वर्गभेद खत्म होकर वर्ग विहीन समाज की रक्तहीन क्रांति को अंजाम दिया जाना है और इसके लिये कामरेड प्रकाश कारत, खास आदमी की पार्टी के साथ एकजुट होने को बेताब हैं। संजोग बस इतना सा है कि सत्ता के इस समीकरण में अन्ध राष्ट्रवाद का विरोध है। यह भारत के नमोमय बनाने की परिकल्पना के प्रतिरोध का सबसे दमदार धर्मनिरपेक्ष मंच है और नरम हिन्दुत्व काँग्रेस का गर्म विकल्प है हॉटकेक।

मुक्त बाजार के व्याकरण के मुताबिक एक सीमा तक अन्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के लिये वरदान है जैसा अब तक होता रहा है। लेकिन उस लक्ष्मणरेखा के बाहर अपने सामंती सांस्कृतिक चरित्र के कारण यह अन्ध राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के सर्वनाश का मुख्यकारक भी बन सकता है।

खुदरा बाजार में और खासकर रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश में कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा हित दाँव पर है, जो अन्ध राष्ट्रवाद को मँजूर होना मुश्किल है क्योंकि उसकी सबसे बड़ी शक्ति देशभक्ति है। वह उसकी पूँजी भी है। इसी शक्ति और पूँजी के दम पर अन्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद सत्ता के खेल में ध्रुवीकरण के रास्ते प्रतिद्वंद्वियों को मात देता है, इसीलिये सत्ता के खेल में शामिल हर खिलाड़ी कमोबेश इसका इस्तेमाल करता रहा है।

अरब वसंत के तहत मध्य एशिया और अरब विश्व में लोकतंत्र का निर्यात बजरिये मुक्त बाजार के हित साधने के खेल में कॉरपोरेट साम्राज्यवादी वैश्विक व्यवस्था को भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। यह तालिबान और अल कायदा के नये अवतारों के निर्माण की परिणति में बदल गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से अमेरिकी हितों को दुनियाभर में सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही है और उसकी महाशक्ति के टावर भी उसी धर्मोन्माद ने ढहा दिये हैं।

दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। एक धर्मोन्मादी राष्ट्र्वाद की सोवियत कम्युनिस्ट विरोधी अन्ध राष्ट्रवाद को संरक्षण देकर अमेरिका को दुनियाभर में आतंक के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ रहा है।

तो वे इतने भी कमअक्ल नहीं हैं कि दूसरे अन्ध राष्ट्रवाद को अन्ध समर्थन देकर वह फिर अपने हितों को नये सिरे से दाँव पर लगा दें।

देवयानी खोपरागड़े के मुद्दे पर जारी भारत अमेरिका राजनयिक छायायुद्ध की अभिज्ञता ने कम से कम अमेरिकी नीति निर्धारकों को यह सबक तो पढ़ा ही दिया होगा कि भारत में सत्ता की बागडोर अन्ध राष्ट्रवाद के एकाधिकारवादी वर्चस्व के हाथों चली गयी तो भारत ही नहीं, समूचे दक्षिण एशिया में उसके हित खतरे में होगें।

कॉरपोरेट राज, मुक्त बाजार और वैश्विक व्यवस्था पर काबिज कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के लिये ईमानदार, क्रयशक्ति संपन्न मध्यवर्गीय साम्यवादविरोधी आध्यात्मिक पेशेवर प्रबन्धकीय तकनीकी दक्षता वाले लोग, जिनके हित कॉरपोरेट राज में ही सधते हैं, बेहतर और सुरक्षित मित्र साबित हो सकते हैं हिन्दुत्व के झंडेवरदारों के मुकाबले । इसी तर्क के आधार पर मनमोहन कॉरपोरेट मंडल को दस साल तक अमेरिकी समर्थन मिला है संघ परिवार के बजाय। लेकिन इस मंडली की साख चूँकि गिरावट पर है तो एक विकल्प की अमेरिका को सबसे ज्यादा जरूरत है, जो नमोमयभारत हो ही नहीं सकता, सिंपली बिकॉज़ कि अन्ततः नमोमय भारत अमेरिका के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ तो अन्ध राष्ट्रवाद का तिलिस्म टूट जायेगा और त्वरित होगा उसका अवसान।

कॉरपोरेट साम्राज्यवाद को ऐसा विकल्प चाहिए जो न कॉरपोरेट राज के खिलाफ हो और न अमेरिकी हितों के खिलाफ और न मुक्त बाजार के खिलाफ।

इस लिहाज से खास समूहों का आप उसके लिये रेडीमेड विकल्प है। अगर पूँजीपरस्त संसदीय वामदलों का खास आदमियों की पार्टी से गठबंधन हुआ तो भी वह उसीतरह अमेरिकी हित में काम करेगा जैसे वामसमर्थित यूपीए एक ने किया है। यह जितना सच है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि के खिलाफ वाम दल कांग्रेस से अलग हुये तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जिम्मेदार वाम संसदीय भूमिका की वजह से ही भारत अमेरिकी परमाणु संधि को अंजाम दिया जा सका और यूनियन कार्बाइड भी बेकसूर खलास हो गया। भारतीय मजदूर आंदोलन की हत्या भी इसी संसदीय वाम ने की। कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का भारत में कोई विरोध न होने के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार भी वाम दल ही हैं। खास लोगों की पार्टी को वाम विरासत की घोषित करके वामदल फिर सत्ता की लाटरी पर आखिरी दाँव लगा रहे हैं तो अमेरिकी वैश्विक संस्थानों की पूँजी से संचालित मीडिया, गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठनों और जनान्दोलनों, सूचना तकनीक प्रबंधकीय दक्षता के तमाम पेशवर ईमानदार चमकदार चेहरे लगातार आप के लिये अपने अपने कैरीयर छोड़कर अमेरिकी विकल्प को ही मजबूत बनाने में लगे हैं। संघ परिवार की एकछत्र बढ़त को जो यह गम्भीर चुनौती है, इस संकट को पूँजी और कॉरपोरेट को करमुक्त करने के अभूतपूर्व अवसर बतौर बनाने में बाकायदा सीधे तौर पर अर्थ शास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है। कर मुक्त भारत का विमर्श अन्ततः आम आदमी को चमत्कृत कर रहा है और हिन्दू राष्ट्र की बढ़त में वापसी का यही विकल्प है। आप के साथ वाम दलों ने भी अमीर गरीब का भेद मिटाकर वर्गविहीन समाज का लक्ष्य बना रखा है तो वित्त व कर प्रबंधन में यह वर्ग भेद खत्म करके इसके लिये जरुरी संविधान संशोधनों के रास्ते हमेशा के लिये बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की मूर्ति से पीछा छुड़ाने का मौका भी मिल गया संघ परिवार को। सत्ता की सुगन्ध सूँघने में अर्थशास्त्रियों की इन्द्रियाँ सबसे ज्यादा सक्षम है। बंगाल में वे सबसे ज्यादा सूँघने में सक्षम जीव हैं तो भारत में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। जाहिर है कि वाम अवसान के बाद वामदलों को अपनी ओर से फिर दिशा निर्देश देने लगे हैं डॉ. अमर्त्य सेन। बांग्ला के सबसे बड़े दैनिक अखबार में इसी पर उनका एक लम्बा आलेख प्रकाशित हुआ है। इसी तरह अमर्त्यबाबू की तुलना में कम विख्यात लेकिन बंगाल में प्रख्यात एक और अर्थशास्त्री डॉ. प्रणव वर्धन ने टाइम्स के बांग्ला अखबार में उदात्त घोषणा कर दी है कि वे मुक्त बाजार के उतने ही पक्षधर हैं जितने कि समता और सामाजिक न्याय के। बम बम बम। जो बोले से बम। बामबम बमबमाबम।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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