THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, January 9, 2014

खास आदमी की धुआंधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र

खास आदमी की धुआंधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र

पलाश विश्वास


आज का संवाद

खास आदमी की धुआंधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र


खास आदमी की धुआंधार बढ़त के साथ राष्ट्रद्रोह की भूमिका में अर्थशास्त्र।यह अबतक का शायद सबसे खतरनाक राजनीतिक समीकरण है।


सीधे विश्वबैंक,यूरोपीय समुदाय, अंतरराष्ट्रीय चर्च संगठन,विश्व व्यापार संगठन,

युनेस्को, अतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग से पोषित सामाजिक क्षेत्र और प्रायोजित जनांदोलनों के साथ सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए भारी साख वाले तमाम परिचिते चेहरे ,मीडिया और कारपोरेट जगत के हस्ती एक के बाद एक खास आदमी पार्टी में शामिल होते जा रहे हैं।


राजनीति के इस एनजीओकरण के कारपोरेट कायाकल्प की चकाचौंध में राज्य तंत्र को जस का तस बनाये रखते हुए,कारपोरेट राज और विदेशी पूंजी को निरंकुश बनाते हुए,जनसंहारी नीतियों की निरंतरता बनाये रखते हुए, उत्तरआधुनिक जायनवादी रंगभेदी मनुस्मृति वैश्विक व्यवस्था को अभूतपूर्व वैधता देते हुए एक और ईश्वरीय आध्यात्मिक परिवर्तन का परिदृश्य तैयार है।


मीडिया सर्वे के मुताबिक यह परिवर्तन सुनामी ही अगला जनादेश है।


इसी के मध्य मध्यवर्गीय क्रयशक्ति संपन्न उपभोक्ता नवधनाढ्य वर्ग को देश की बागडोर सौंपने की तैयारी है,जो मुक्त बाजार के तहत विकसित  एकाधिकारवादी प्रबंधकीय,तकनीकी दक्षता का चरमोत्कर्ष है।


जाहिर है कि इससे एकमुश्त परिवर्तनकामी मुक्तिकामी जनांदोलनों के साथ साथ वामपक्ष के बिना शर्त आत्मसमर्पण की वजह से जहां विचारधारा का अवसान तय है,वहीं धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के त्रिआयामी त्रिभुजीय तिलिस्म में बहुजनों की समता और सामाजिक लड़ाइयों का भी पटाक्षेप है।


इसी के मध्य आध्यात्मिक अर्थशास्त्र की अवधारणा मध्ये आर्थिक अश्वमेध अभियान के विमर्श को जनविमर्श बनाते हुए छनछनाते विकास का अर्थशास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है।


जनता तो मारे जाने के लिए नियतिबद्ध है,करव्वस्था में सुधार के बहाने हिंदू राष्ट्र के एजंडे पर अमल के लिए भारतीय संविधान की एक झटके के साथ बलि देने और करमुक्त भारत निर्माण के बहाने रंगबिरंगी पूंजी और कालाधन को करमुक्त करने का आईपीएल शुरु हो गया है।


विडंबना यह है कि जो लोग भ्रष्टाचार और कालाधन के विरुद्ध जिहादी झंडेवरदार हैं,वहीं लोग अप्रतिरोध्य भ्रष्ट कालेधन का सैन्य राष्ट्रतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।


आप याद करें कि हमने अपने एक अंग्रेजी आलेख में कई वर्ष पूर्व देश विदेश घूमने वाले मुक्त बाजार के पक्षधर और मनमोहमनी अर्थशास्त्र के घनघोर भक्त एक बहुत बड़े अंग्रेजी दैनिक के  पत्रकार का यह वक्व्य उद्धत किया था कि भारत में विकास के बाधक हैं तमाम आदिवासी।जब तक आदिवासी रहेंगे,तब तक इस देश का विकास हो नहीं सकता।इसलिए आदिवासियों के खिलाफ राष्ट्र का युद्ध अनिवार्य है।आदिवासियों के सफाये में ही राष्ट्रहित है।


उस वक्त जो शब्दावली हम उपयोग में ला रहे थे,मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर उसे हमने त्याग दिया है।उस वक्त भी हम अस्मिताओं के मध्य बहुजन भारत को आंदोलित करने का मिशन चला रहे थे।इसलिए उस आलेख के ज्यादा उद्धरण देकर हम अपने नये नजरिये के बारे में कोई भ्रम पैदा नहीं कर सकते।लेकिन सत्तावर्ग के प्राचीन वधमानस का विवेचन आवश्यक है,इसलिए उसआलेख का मुखड़ा ही पेश कर रहा हूं।


TRIBALS Create all the Problems  for the Ruling Hegemony rejecting the Exclusive Economy of Development and the FARCE of Inclusive Growth!


My great Journalist friends around complain that the Tribals and aboriginal communities are quite reluctant to be the part of the mainstream as they are against Industrialisation, Urbanisation, Development, Infrustructure, growth, economy and so on.


One of them only yesterday evening asked my opinion on this REALITY again and again informing me that he has read the comment in an american journal.


I asked him to name the journal , he just could not remember. By the way, he is a BRAHAMIN.When he insisted on my reply, I had to say that I think the Aryans are responsible for all the Problems that the Divided Bleeding Geopolitics Face. He said that Arayans created Indian CIVILISATION and the Non Aryans were UNCIVILISED.


The Journalist is an extreme advocate of the Developed world which is the CIVILISED world. He is not ashamed of his hatred for the Aboriginal Black Untouchable landscape.


I must clarify that this is nothing new. Bengali Renaissance greats thought likewise and even the Gandhian Tara Shankar Bandopaddhyaya who had been Memeber of Indian Parliament, GyanPeeth Vijeta and Sahitay Academy President dealt with the Aboriginal World with this Original Arayan vengeance which is expressed in Political Economy as well.


I have written already about the Mainstream Brahaminical Literature representing the Human Documentation of Hatred. The Aboriginal tribes described in HANSULI Banker UPAKATA and NAHGINI Kanyar Kahinee hate Urbanisation, Technology and Industrialisation. Their association with the Nature is described as superstitious, Taboos.


The Imperialism worldwide had been trying to CIVILISE DEVELOP this Aboriginal Landscape worldwide for Centuries. In India, the aboriginal World had been destroyed before Western Imperialism was born. And it is glorified as VEDIC Culture which NEVER considered the Rituals of Violence wrong and the Tradition of Ethnic Cleansing is described as Indian Aryan Hindu Culture of Unification which means MONOPOLY and Enslavement, Denial of Human Rights.

http://o3.indiatimes.com/mutinyrural/archive/2010/07/17/5036003.aspx


इस आलेख में उल्लेखित पत्रकार अब भी मीडिया में उसी बड़े अखबार में शान से काम कर रहे हैं और लिखित में अत्यंत उदार दिखते हैं।यह पाखंड समकालीन लेखन का सबसे बड़ा दुश्चरित्र है।


मसीहा माने जाने वाले तमाम लेखक बुद्धिजीवी जो हिंदी में शायद अंग्रेजी से ज्यादा हैं,क्रांति कोख जवाहरलाल नेहरु में भी इस मानसिकता के शिकार हैं।मैं समझता हूं कि इसे साबित करने के लिए किसी का उदाहरण देने की जरुरत नहीं हैं।


ऐसे महान लोग या तो बेनकाब हो चुके हैं या बेनकाब होंगे।हमारे अंग्रेजीदां मित्र बहस की तैश में जो कह गये,जाहिर है कि उसे लिखित हर्गिज दर्ज नहीं करायेंगे।लेकिन सत्तावर्ग का सौंदर्यशास्त्र भी अद्भुत है,वे सीधे तौर पर जो कहते लिखते नहीं है,उनका समूचा लेखन उसी को न्यायोचित ठहराने का कला कौशल और जादुई शिल्प है।


इसी संदर्भ में अभी अभी रिटायर हुए एक अंग्रेजी अखबार के संपादक का हवाला देना जरुरी है जो भारतीय लोगों से सिर्फ इसलिए सख्त नफरत करते हैं कि उन्होंने एक अमेरिकी महिला से विवाद किया है और उन्हें अपना देश भारत के बजाय अमेरिका लगता है।


उनकी इस नफरत की बड़ी वजह है कि भारतीय शौच से निपटने के बाद पानी का इस्तेमाल करते हैं।हमारे उन आदरणीय मित्र को शौच में कागज के बजाय पानी का इस्तेमाल करना सभ्यता के खिलाफ लगता है।


हम नैनीताल में पले बढ़े हैं।दिसंबर से लेकर फरवरी में पानी जम जाने की वजह से जहां नल फट जाना अमूमन मुश्किल है।हमें मालूम है कि कड़ाके की शून्य डिग्री के तापमान के नीचे शौच में पानी का इस्तेमाल कितना कठिन होता है।


अमेरिका और यूरोप में तो नल के अलावा दूसरी चीजें भी फट जाती होंगी। न फटे तो कागज एक अनिवार्य उपाय हो सकता है।लेकिन भारत जैसे गर्म देश में टायलेट की जगह पानी ही शौच का बैहतर माध्यम हैं। वे आदरणीय संपादक मित्र अपने पुरातन मित्रों से संपर्क भी इसलिए नहीं रखना चाहते क्योंकि वे लोग शौच में पानी का इस्तेमाल करते हैं।


टायलेट मीडिया का यह परिदृश्य विचारधारा,विमर्श और जनांदोलनों तक में संक्रमित है।साहित्य और कला माध्यमों में तो टायलेट का अनंत विस्तार है ही।


विडंबना यही है कि टायलेट पेपर में जिनकी सभ्यता निष्णात है और टायलेट में ही जिनके प्राण बसते हैं,वे लोग ही जनमत,जनादेश और जनांदोलने के स्वंभू देव देविया हैं।


अखबारों में उनका सर्वव्यापी टायलेट रोज सुबह का रोजनामचा है तो ऐसे रिटायर बेकार संपादकों या अब भी सेवारत गैरजरुरी मुद्दों के वैश्वक विशेषज्ञ मीजिया मैनेजर चाकरों  का गुरुगंभीर पादन कारपोरेट मीडिया से अब सोशल मीडिया तक में संक्रमित हैं।


बहरहाल, भारत को करमुक्त बनाने के नममय उद्घोष और बाबा रामदेव के आध्यात्मिक अर्थशास्त्र और गणित योग की धूम रंग बिरंगे चैनलों और प्रिंट मीडिया पर खास आदमी की बढ़त के मुकाबले मोर्चाबंद हैं।


यह विमर्श महज टैक्स चोर किसी गुरुजी का होता या हिंदू राष्ट्र के प्रधान सिपाहसालार का ही होता तो इस सपने को साकार करने के लिए आर्थिक अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय पेज भी रंगे न होते और न प्राइम टाइम में इस मुद्दे पर तमाम आदरणीय सर्वज्ञ एंकर देव देवियां सर्कस की तरह पैनल साध रहे होते।


इसी बीच अर्थशास्त्रियों ने एक अलग मोर्चा बहुआयामी खोल लिया है। आर्थिक सामाजिक इंजीनियरिंग करने के लिए अमर्त्य सेन अकेले नहीं हैं।उनके साथ विवेक देवराय से लेकर प्रणव वर्धन तक हैं। प्रेसीडेंसी कालेज और आईएसआई से निकले ये तमाम अर्थशास्त्री देश के समावेशी विकास के ठेकेदार हैं।


भारत सरकार, नीति निर्धारक कोर ग्रुप और रिजर्व बैंक के माऱ्पत जो मुक्त बाजार की जनद्रोही अर्थव्यवस्था है, ये तमाम अर्थशास्त्री इस कसाईक्रिया को मानवीय चेहरे के धार्मिक कर्मकांड बनाने में खास भूमिका निभाते रहे हैं।


मसलन डा.अमर्त्य सेन बंगाल में 35 साल के वाम शासन में वाम नेताओं और सरकार के मुख्य सलाहकार रहे हैं।


भारत और चीन में अकाल पर अध्ययन के लिए उनकी ख्याति है।लेकिन अपने विश्वविख्यात शोध कर्म में अमर्त्य बाबू ने इस अकाल के लिए साम्राज्यवाद को कहीं भी जिम्मेदार मानने की जरुरत ही महसूस नहीं की।वे वितरण की खामियां गिनाते रहे हैं।


सिर्फ डा. अमर्त्य सेन ही नहीं ,भारतवंशज सारे अर्थशास्त्री साम्राज्यवादी मुक्तबाजार के ही पैरोकार हैं और उनका सारा अध्ययन और शोध छनछनाते विकास की श्रेष्ठता साबित करते हैं।


बंगाल में जब ममता बनर्जी की अगुवाई में सिंगुर और नंदाग्राम का भूमि आंदोलन जारी था,तब पूंजी के स्वर्णिम राजमार्ग पर कामरेडों की नंगी अंधी दौड़ को महिमामंडित करने के लिए देश जैसी पत्रिकाओं में इन अरथशास्त्रियों के तमाम कवरआलेख छपे, जिनमें ममता बनर्जी को ताड़कासुर रुप में दिखाने में भी कसर नहीं छोड़ी गयी।


तमाम अर्थशास्त्री तब कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर देते हुए कामरेडों को आहिस्ते आहिस्ते मौत के कुएं में धकेल रहे थे।जब उन्होंने आखिरी छलांग लगा ली तब एक एक करके सारे के सारे ममतापंथी हो गये।


सबसे पहले फेंस के आरपार होने वाले सज्जन का नाम विवेक देवराय है।मजे की बात है कि पार्टीबद्ध कामरेड अर्थशास्त्री भी विचारधारा पर पूंजी का यह मुलम्मा चढ़ने से बचा नहीं पाये।


दरअसल भारतीय अर्थशास्त्र समाजशास्त्र की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग चाहे जितना करें ,उसकी सीमा मनमोहन इकोनामिक्स है।यह अर्थशास्त्र बहुसंख्य बहुजन भारतीय जनगण के बहिस्कार के तहत ही आर्थिक अवधारणाएं पेश करने में पारंगत है।


आम आदमी को हाशिये पर रखकर ही शुरु होता है खास आदमी का अर्थशास्त्र। इसीलिए प्राचीनतम और बुनियादी अर्थशास्त्र दरअसल मनुस्मडति समेततमाम पवित्र ग्रंथों का समारोह है।


तो मुक्त बाजार का यह अर्थशास्त्र फिर वही एडम स्मिथ है, जो सिर्फ धनलाभ का शास्त्र है, जिसमें जनकल्याण का कोई तत्व ही नहीं है।जनकल्याण भी उपभोक्ता वस्तु है ,ठीक उसी तरह जैसे पुरुषतांत्रिक अर्धराज्यतंत्र में बिकाऊ स्त्री देह।


बंगाल में जो हुआ कुल मिलाकर भारत की राजधानी दिल्ली में भी उसीकी पुनरावृत्ति हो रही है। जो लोग पिछले दस साल तक मनमोहिनी स्वर्ग के देवमंडल में हर ऐश्वर्य का स्वाद चाख रहे थे,वे रातोंरात मनमोहन अवसान के बाद नमोमय हो गये हैं या आम आदमी पार्टी के खास चेहरे बनने को आकुल व्याकुल हैं।


कर व्यवस्था में सुधार और वित्तीय सुधार के लिए जो लोग मनमोहन सिंह की तारीफों के पुल बांध रहे थे, वे लोग ही अब घोषणा कर रहे हैं कि 2005 से न कोई वित्तीय सुधार हुआ और न कर प्रणाली बदलने की कोई पहल हुई।


आगे और खुलासा हो,इससे पहले अमर्त्य बाबू के समीकरण का जायजा लीजिये।


एक समीकरण वह है ,जिसे मीडिया खूब हवा दे रहा है,जिसके मद्देनजर आप में वाम को समाहित होना है और अमीर गरीब का वर्गभेद खत्म होकर वर्ग विहीन समाज की रक्तहीन क्रांति को अंजाम दिया जाना है और इसके लिए कामरेड प्रकाश कारत खास आदमी की पार्टी के साथ हमबिस्तर होने को बेताब हैं।


संजोग बस इतना सा है कि सत्ता के इस समीकरण में अंध राष्ट्रवाद का विरोध है।यह भारत के नमोमय बनाने  की परिकल्पना के प्रतिरोध का सबसे दमदार धर्मनिरपेक्ष मंच है और नरम हिंदुत्व कांग्रेस का गर्म विकल्प है हाटकेक।


मुक्त बाजार के व्याकरण के मुताबिक एक सीमा तक अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के लिए वरदान है जैसा अबतक होता रहा है।लेकिन उस लक्ष्मणरेखा के बाहर अपने सामंती सांस्कृतिक चरित्र के कारण यह अंध राष्ट्रवाद मुक्त बाजार के सर्वनाश का मुख्यकारक भी  बन सकता है।


खुदरा बाजार में और खासकर रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश में कारपोरेट साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा हित दांव पर है,जो अंध राष्ट्रवाद को मंजूर होना मुश्किल है क्योंकि उसकी सबसे बड़ी शक्ति देशभक्ति है।वह उसकी पूंजी भी है।इसी शक्ति और पूंजी के दम पर अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद सत्ता के खेल में ध्रूवीकरण के रास्ते प्रतिद्वंद्वियों को मात देता है,इसीलिए सत्ता के खेल में शामिल हर खिलाड़ी कमोबेश इसका इस्तेमाल करता रहा है।


अरब वसंत के तहत मध्य एशिया और अरब विश्व में लोकतंत्र का निर्यात बजरिये मुक्त बाजार के हित साधने के खेल में कारपोरेट साम्राज्यवादी वैश्विक व्यवस्था को भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। यह तालिबान और अल कायदा के नये अवतारों के निर्माण की परिणति में बदल गया है।


यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से अमेरिकी हितों को दुनियाभर में सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही है और उसकी महाशक्ति के टावर भी उसी धर्मोन्माद ने ढहा दिये हैं।


दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है।एक धर्मोन्मादी राष्ट्र्वाद की सोवियत  कम्युनिस्ट विरोधी अंध राष्ट्रवाद को संरक्षण देकर अमेरिका को दुनियाभर में आतंक के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ रहा है।


तो वे इतने भी चूतिये नहीं हैं कि दूसरे अंध राष्ट्रवाद को अंध समर्थन देकर वह फिर अपने हितों को नये सिरे से दांव पर लगा दें।


देवयानी खोपरागड़े के मुद्दे पर जारी भारत अमेरिका राजनयिक छायायुद्ध की अभिज्ञता ने कम से कम अमेरिकी नीति निर्धारकों को यह सबक तो पढ़ा ही दिया होगा कि भारत में सत्ता की बागडोर अंध राष्ट्रवाद के  एकाधिकारवादी वर्चस्व के हाथों चली गयी तो भारत ही नहीं,समूचे दक्षिण एशिया में उसके हित खतरे में होगें।


कारपोरेट राज,मुक्त बाजार और वैश्विक व्यवस्था पर काबिज कारपोरेट साम्राज्यवाद के लिए ईमानदार,क्रयशक्ति संपन्न मध्यवर्गीय साम्यवादविरोधी आध्यात्मिक पेशेवर प्रबंधकीय तकनीकी दक्षता वाले लोग,जिनके हित कारपोरेट राज में ही सधते हैं,बेहतर और सुरक्षित मित्र साबित हो सकते हैं हिंदुत्व के झंडेवरदारों के मुकाबले।


इसी तर्क के आधार पर मनमोहन कारपोरेट मंडल को दस साल तक अमेरिकी समर्थन मिला है संघ परिवार के बजाय।


लेकिन इस मंडली की साख चूंकि गिरावट पर है तो एक विकल्प की अमेरिका को सबसे ज्यादा जरुरत है,जो नमोमयभारत हो ही नहीं सकता,सिंपली बिकाज कि अंततः नमोमय भारत अमेरिका के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ तो अंध राष्ट्रवाद का तिलिस्म टूट जायेगा और त्वरित होगा उसका अवसान।


कारपोरेट साम्राज्यवाद को ऐसा विकल्प चाहिए जो न कारपोरेट राज के खिलाफ हो और न अमेरिकी हितों के खिलाफ और न मुक्त बाजार के खिलाफ।


इस लिहाज से खास समूहों का  आप उसके लिए रेडीमेड विकल्प है।


अगर पूंजीपरस्त संसदीय वामदलों का खास आदमियों की पार्टी से गठबंधन हुआ तो भी वह उसीतरह अमेरिकी हित में काम करेगा जैसे वामसमर्थित यूपीए एक ने किया है।


यह जितना सच है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि के खिलाफ वाम दल कांग्रेस से अलग हुए तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जिम्मेदार वाम संसदीयभूमिका की वजह से ही भारत अमेरिकी परमाणु संधि को अंजाम दिया जा सका और यूनियन कार्बाइड भी बेकसूर खलास हो गया।


भारतीय मजदूर आंदोलन की हत्या भी इसी संसदीय वाम ने की।कारपोरेट साम्राज्यवाद का भारत में कोई विरोध न होने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार भी वाम दल ही हैं।


खास लोगों की पार्टी को वाम विरासत की घोषित करके वामदल फिर सत्ता की लाटरी पर आखिरी दंव लगा रहे हैं तो अमेरिकी वैश्विक संस्थानों की पूंजी से संचालित मीडिया, गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठनों और जनांदोलनों,सूचना तकनीक प्रबंधकीय दक्षता के तमाम पेशवर ईमानदार चमकदार चेहरे लगातार आप के लिए अपने अपने कैरीयर छोड़कर अमेरिकी विकल्प को ही मजबूत बनाने में लगे हैं।


संघ परिवार की एकछत्र बढ़त को जो यह गंभीर चुनौती है,इस संकट को पूंजी और कारपोरेट को करमुक्त करने के अभूतपूर्व अवसर बतौर बनाने में बाकायदा सीधे तौर पर अर्थ शास्त्र अब राष्ट्रद्रोह की भूमिका में है।


कर मुक्त भारत का विमर्श अंततः आम आदमी को चमत्कृत कर रहा है और हिंदू राष्ट्र की बढ़त में वापसी का यही विकल्प है।


आप के साथ वाम दलों ने भी अमीर गरीब का भेद मिटाकर वर्गविहीन समाज का लक्ष्य बना रखा है तो वित्त व कर प्रबंधन में यह वर्ग भेद खत्म करके इसके लिए जरुरी संविधान संशोधनों के रास्ते हमेशा के लिए बाबा साहेब डा. अंबेडकर की मूर्ति से पीछा छुड़ाने का मौका भी मिल गया संघ परिवार को।


सत्ता की सुगंध सूंघने में अर्थशास्त्रियों की इंद्रियां सबसे ज्यादा सक्षम है।बंगाल में वे सबसे ज्यादा सूंघने में सक्षम जीव हैं तो भारत में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है।


जाहिर है कि वाम अवसान के बाद वामदलों को अपनी ओर से फिर दिशा निर्देश देने लगे हैं डा. अमर्त्य सेन। बांग्ला के सबसे बड़े दैनिक अखबार में इसीपर उनका एक लंबा आलेख प्रकाशित हुआ है।


इसीतरह अमर्त्यबाबू कू तुलना में कम विख्यात लेकिन बंगाल में प्रक्यात एक और अर्थशास्त्री डा.प्रणववर्धन ने टाइम्स के बांग्ला अखबार में उदात्त घोषमा कर दी है कि वे मुक्त बाजार के उतने ही पक्षधर हैं जितने कि समता और सामाजिक न्याय के।


बम बम बम।जो बोले से बम।बामबम बमबमाबम।

Aam Aadmi Party

2 hours ago

Aam Aadmi Party

2 hours ago

44% of voters in India's top metropolises say they will vote AAP for Lok Sabha: TOI poll


India's biggest metropolises are eagerly looking forward to the Aam Aadmi Party going national and expect it to make a big splash in the 2014 Lok Sabha elections, but a majority still view Narendra Modi as a better prime ministerial prospect than Arvind Kejriwal with Rahul Gandhi a distant third.


That's the message from an opinion poll across the country's eight most populous cities — Delhi, Mumbai, Kolkata, Chennai, Bangalore, Hyderabad, Pune and Ahmedabad — conducted exclusively for TOI by market research agency IPSOS.


The survey found that a third of the respondents thought AAP would win between 26 and 50 seats, another 26% felt it could win 51-100 seats, 11% said it would bag more than 100 and 5% even predicted a majority for the party. Put together, that means three-fourths of all those polled believe AAP will win more seats in 2014 than any party, barring what Congress and BJP won in 2009.


Given that 44% of those polled said they would vote for an AAP candidate if there was one in their constituency, and another 27% said they might, depending on the candidate, it is not difficult to see why the respondents rate AAP's electoral prospects so high.


Read more: http://timesofindia.indiatimes.com/india/44-of-voters-in-Indias-top-metropolises-say-they-will-vote-AAP-for-Lok-Sabha-TOI-poll/articleshow/28566136.cms — with Sarabjot Singh Dilli and Thomas L Pulamte.


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Satya Narayan

भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह सबसे बड़ा हिस्सा सबसे ज्यादा ग़रीब, सबसे ज्यादा असंगठित, सबसे ज्यादा शोषित, सबसे ज्यादा दमन-उत्पीड़न झेलने वाला और सबसे अशिक्षित हिस्सा है। इस हिस्से को उसकी ठोस माँगों के तहत एकजुट और संगठित किये बिना भारत के मज़दूर अपनी क्रान्तिकारी राजनीति को देश के केन्द्र में स्थापित नहीं कर सकते हैं। सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बारी में लगा होता है और गाँवों में रहता है, वहाँ खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने का सवाल ज़रूरी बन जाता है।

http://www.mazdoorbigul.net/Charter-of-demand-education-series-9-1

सर्वहारा आबादी के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब हिस्से की माँगों के लिए नये सिरे से व्यवस्थित संघ�

mazdoorbigul.net

भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह...

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जनज्वार डॉटकॉम

दंगों के बाद लोग अपने गाँव वापस जाने के ख्याल से ही असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. उन मामलों में यह असुरक्षा और भी ज्यादा है जिन में हमलावरों के खिलाफ केस तक दर्ज़ नहीं किया गया है और हमलावर उन्हें धमकाते हुए खुले घूम रहे हैं. इसके बावजूद अन्य गावों के परिवारों को शिविर छोड़कर अपने-अपने गाँव जाने के लिए कहा जा रहा था...http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-00-20/25-politics/4677-pudr-report-on-mazaffarnagar-riots

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Shamshad Elahee Shams

सरकारी टुकड़खोर सफ़ेदपोश जमात (बाबुओ) में आजकल बड़ा आत्ममंथन चल रहा है, अगर सरकार ने कोई बेहतर 'गोल्डन हैण्ड शेक पालिसी' घोषित कर दी तो ये परजीवी जमात 'धन प्राप्तिउपरान्त' लाला केजरीवाल कृत क्रांति में फ़ौरन हिस्सेदारी करने पहुँच जायेगे. लाला ने 'एन जी ओ बनाओ नौकरी से ज्यादा कमाओ' के मन्त्र को अमली जामा पहना कर उसके अगले पड़ाव में कदम रख ही दिया है यानि 'राज सुख'...इन बाबुओ को अब अपने सभी पुराने दिन याद आते होंगे कि कैसे कैसे नेताओ ने उनके तस्में खींचे ? लेकिन ये बहुत चालाक कौम है इन्हें मालूम है कि आज अगर नकली क्रांति में इनकी जान को बन आयी है तो कल अगर असली (क्रांति) हो गयी तब गुलाग .....चलो बाबुओ आज तुम्हारी ऐश है, अब तो अखबारी सर्वे के मुताबिक़ देश की जनता तुम्हारे पैर चूमने को तैयार है...आगे बढ़ो.

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Himanshu Kumar

तो जनाब मुल्क का सूरते हाल ये है कि देश को पांच हजार साल पहले स्वर्गवासी हो चुके राजा जी चला रहे हैं . जिनका नाम राम था बतावैं . और मुलुक की राजनीती भी इसी बात पे चल री है कि इन पांच हज़ार साल पुराने राजा जी का मंदिर जोंन सी पारटी बनवावेगी वोही देश पे राज करेगी .


बाकी छोटी जात और आदिवासी तो नक्सलवादी हो चुके हैं और मुसलमान आतंकवादी बन गए हैं इसलिए पुलिस और आर्ध सैनिक बलों को उन्हें मारने पीटने और जेलों में ठूंसने के काम पे लगा दिया गया है .


बाकी की बची हुई पुलिस और सेना को गरीबों की ज़मीनों पे कब्ज़ा कर के अमीर कंपनियों को सौंपने के काम में लगा दिया गया है .


किसान , मजदूर , औरतों , पे रोज़ लट्ठ चल रहे हैं . इनमे से जो भी ज़ुबान खोलता है उसे हम रामजी के जय जय कार के साथ पीट देते हैं .बाकियों पर हम भारत माता की जय बोल कर पीट देवें हैं .


तो भक्तों बोलिए भाआआआआआआआआआआअ रत माताआआ की जय .

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Yashwant Singh

अभी मैंने आशुतोष को फोन किया. आईबीएन7 वाले को. तो भाई ने बोला कि ये कोई टाइम है फोन करने का. मैंने पूछा- ''भइया, हां या ना में बता दो कि इस्तीफा दिया है या नहीं, क्योंकि आपकी विदाई की फोटो शेयर हो रही है फेसबुक पर''. तब भी भाई मुझे घुड़कता रहा, बोलता रहा कि... ''ये कोई टाइम है भला फोन करने का''.


हद है यार.


ये वही आशुतोष भाईसाहब हैं जो बिना बुलाए दिन दहाड़े कांशीराम के घर में ही नहीं बल्कि बेडरूम में घुस गए थे और झापड़ खाकर बाहर निकले थे. और, उसी के बाद एसपी सिंह के रहमोकरम पर पत्रकार बन गए थे. पर अब यही महोदय खबर के लिए फोन किए जाने पर समय का हवाला दे रहे हैं.


बताया जा रहा है कि ये आशुतोष महाशय आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लडेंगे लोकसभा का, इसलिए पत्रकारिता नामक महान पेशे का दिल पर पत्थर रखकर महान त्याग किया है. अगर ऐसे लोगों ने आम आदमी को चपेटे में ले लिया तो खून चूसने वाले जंगली छोटे जानवरों के जीवन का क्या होगा और उन मोटे जानवरों के खून का क्या होगा जिसका इंतजार जंगली छोटे खूनपिस्सू प्राणी करते हैं.. लगता है प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाने वाला है...


पता नहीं अरविंद केजरीवाल के पास कोई छननी बची है या नहीं या फिर दिल्ली प्रदेश में चुनाव जीतने के बाद इन 'आप' वालों की छननी छलनी-छलनी हो चुकी है... जो भी हो, वे खुद जानें.. लेकिन सैकड़ों मीडियाकर्मियों की नौकरी खाने वाले आशुतोष जैसे कार्पोरेट संपादकों की जगह आम आदमी पार्टी में हो गई तो भगवान जाने ये पार्टी कैसे आम आदमी की रह पाएगी....


सुना तो ये भी है कि आम आदमी पार्टी वाले अब अपने यहां जहाज कंपनियों के प्रबंधकों से लेकर बैंकरों तक और माफियाओं के परिजनों से लेकर पुराने गिरहकटों तक को टिकट देने को तैयार बैठे हैं. अगर ये सच है तो हम सब कुछ दिन बाद आम आदमी पार्टी के पर्चे को जहाज बनाकर आने वाले बरसात में अपने अगल-बगल की चोक गलियों नालियों में बहाया-भगाया करेंगे... या फिर उसे इतिहास अतीत की बातें मानकर रद्दी के भाव कबाड़ी साथियों को बेच बैठेंगे, ताकि किसी गरीब का तो घर चले...


पढ़ते रहिए डंके की चोट पर...

http://bhadas4media.com/edhar-udhar/17095-ashutosh-resing-ibn7.html


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বামপন্থীরা যে কণ্ঠহীন হয়ে পড়ছেন, সেটা দেশের পক্ষে শুভ নয়

দেশের মানুষ অনাহারে পীড়িত, খাদ্যাভাবে তাঁদের মেধা স্তিমিত, অসুখে ভোগার এবং মৃত্যুর সম্ভাবনা বেড়ে

যাচ্ছে, লেখাপড়ার মান প্রায় সব দেশের তুলনায় নীচে, এ সব নিয়ে বামপন্থীদের চিন্তার বড় রকম পরিচয়

পাচ্ছি না। এর মধ্যে একটা চিন্তার খেলাপ আছে। অনির্বাণ চট্টোপাধ্যায়কে সাক্ষাৎকারে বললেন অমর্ত্য সেন


বামপন্থীরা পশ্চিমবঙ্গে দীর্ঘ দিন ক্ষমতায় ছিলেন, তখন তাঁদের যা যা করার কথা ছিল তার বিশেষ কিছুই করতে পারেননি। আপনি এবং জ্যঁ দ্রেজ বলেছিলেন, বামপন্থী শাসিত পশ্চিমবঙ্গে অনেক সুযোগ নষ্ট হয়েছে। আজ তাঁরা ক্ষমতার বাইরে, এবং ধূলিসাৎ হয়ে গেছেন, এখনও কিছুই করে বা ভেবে উঠতে পারছেন না। তাঁদের সমস্যাটা ঠিক কোথায়?

এটা আমার কাছে খুব আশ্চর্যের এবং খুব দুঃখের বলেই মনে হয়, যেহেতু আমার নিজের রাজনৈতিক সহানুভূতি বামপন্থার দিকেই। তবে এটা শুধু পশ্চিমবঙ্গের সমস্যা বলে ধরলে চলবে না। সমস্ত দেশ জুড়েই বামপন্থী রাজনৈতিক চিন্তার মানের একটা প্রচণ্ড অবনতি ঘটেছে বলে আমি মনে করি। সেটা আমার দুঃখের কারণ, কেননা এটা না হলে যে ভারতবর্ষ হতে পারত সেই ভারতবর্ষ বিষয়ে আমার খুব আশা ছিল। এখানে দুটো জিনিস বলা যায়। একটা হচ্ছে, বামপন্থা এবং দক্ষিণপন্থা, দুটোই আমাদের দেশের সাবেকি ধর্মভিত্তিক এবং সাম্প্রদায়িক চিন্তার থেকে বাইরে। দক্ষিণপন্থী রাজনৈতিক পথ হোক, বামপন্থী রাজনৈতিক পথ হোক, সাম্প্রদায়িক চিন্তামুক্ত রাজনীতির একটা প্রয়োজন আছে। তার জন্যেই, স্বতন্ত্র পার্টি যখন ধূলিসাৎ হয়ে গেল তাতেও আমি দুঃখ বোধ করেছিলাম, এই জন্যে যে, সাম্প্রদায়িকতা বাদ দিয়ে দক্ষিণপন্থার চিন্তাটা কী, বামপন্থার সঙ্গে তার কী তফাত, এ নিয়ে তো আমাদের চিন্তা করার প্রয়োজন আছে।এবং দক্ষিণপন্থীরা যে কথাগুলো বলেন, তার মধ্যেও তো কিছু কিছু চিন্তনীয় মূল্যবান জিনিস আছে। যেমন, বাজারের ভূমিকা কী, ইনসেনটিভটা কী করে দিতে হয়, কেন এ-রকম দাঁড়ায় যে সরকারি জায়গাগুলোতে ইনসেনটিভের যে অভাব হচ্ছে, অনেক সময়— সব সময় না হলেও— বেসরকারি হাতে দিলে সেই সমস্যা হয় না। এই বিষয়ে দক্ষিণপন্থীদের একটা বক্তব্য আছে, তার সঙ্গে তো হিন্দুত্বের কোনও যোগ নেই। তাই স্বতন্ত্র পার্টি যখন শেষ হয়ে গেল, তখন আমি সে বিষয়ে আলোচনা করেছিলাম এবং সেটা দুঃখজনক ঘটনা বলেছিলাম। যদিও আমাকে এটাও বলতে হয়েছিল যে, আমি স্বতন্ত্র পার্টিকে কোনও দিনই ভোট দিতাম না, তবু ভারতবর্ষের রাজনৈতিক চিন্তার দিক দিয়ে স্বতন্ত্র পার্টির থাকাটা আমার একটা শুভ জিনিস বলে মনে হয়েছিল। ঠিক তেমনই, বামপন্থার দিক দিয়ে রাজনৈতিক চিন্তার প্রয়োজনটা ভারতবর্ষের কমিউনিস্ট পার্টি মেটাতে পারতেন। কিন্তু বামপন্থা যদি ধূলিসাৎ হয়ে যায়, তা হলে সেই সুযোগটাও চলে যাবে। বলতেই হবে যে, এটা একটা দুঃখের কারণ।

আর একটা দুঃখের কারণ হল, বামপন্থা এবং দক্ষিণপন্থার মধ্যে, ইংরেজিতে যাকে বলে নিউট্রাল, তা তো আমি নই। আমার ধারণা, বামপন্থার যে বক্তব্যগুলো আছে, সব মিলিয়ে ভারতবর্ষের পক্ষে সেগুলো অনেক বেশি ন্যায্য। অতএব সে দিক থেকে দেখলে, এই সময় যে বামপন্থীদের একটা কণ্ঠহীনতা তৈরি হল, সেটা দেশের পক্ষে ক্ষতিকর বলে আমি মনে করি। কারণ এখানে এখন এক দিকে কংগ্রেস সম্বন্ধে সবাই মনে করছেন যে তাঁদের কিছু করার ক্ষমতা নেই, তাঁদের ইনকমপিটেন্স অনেক, দুর্নীতি বন্ধ করার ব্যাপারে তাঁরা গভীর চিন্তা করেছেন এটা মনে করারও খুব একটা কারণ নেই। উল্টো দিকে, যাঁরা কংগ্রেসের বহুমুখী আর্থিক নীতির বিরোধী, এবং একমাত্র আয়বৃদ্ধির দিকেই বিশেষ জোর দিচ্ছেন, সেই বাজারপন্থীদের হিন্দুত্ব এবং আর এস এস-এর ওপর নির্ভর করার কোনও বড় কারণ নেই। তাঁরা যে সে পথেই যাচ্ছেন, তার কি সত্যিই কোনও প্রয়োজন ছিল?

অন্য দিকে, বামপন্থীরা তো জোরদার ভাবে সাম্প্রদায়িকতা বিরোধী। তাঁদের গলার জোর থাকলে নানা বড় সমস্যা আলোচিত হতে পারত, এখন যেখানে ঘাটতি পড়েছে। রাজনৈতিক অর্থনৈতিক চিন্তা, সরকারি কাজকর্ম কী উপায়ে ঠিক ভাবে, ভাল করে চলতে পারে, এবং দেশে যাঁরা কোনও রকম অর্থনৈতিক প্রগতির সুযোগ পান না, কী ভাবে তাঁদের শিক্ষা, স্বাস্থ্যের প্রসার করা যেতে পারে, কী ভাবে তাঁদের অর্থনৈতিক জোর বাড়ানো যেতে পারে, এই আলোচনাগুলো তো বামপন্থীদেরই করা উচিত। সাম্প্রদায়িকতা বর্জিত দক্ষিণপন্থার প্রয়োজন স্বীকার করার সঙ্গে সঙ্গে আমাদের মানতে হবে যে, বামপন্থী চিন্তার আরও বড় প্রয়োজন। বামপন্থা ধূলিসাৎ হলে দেশের খুবই লোকসান।


অবশ্য 'ধূলিসাৎ' কথাটা হয়তো পুরো ঠিক নয়। বামপন্থীরা দুর্বল হয়েছেন নিশ্চয়ই, কিন্তু এটাও দেখা যাচ্ছে যে, সি পি এমের সভায় লোক আসছেন, বিহারে সি পি আইয়ের খুব বড় বড় মিটিং হচ্ছে, লিবারেশন পঞ্চাশ হাজার লোকের মিটিং করেছে...

না, কিন্তু এক সময় যাঁদের একেবারে মুঘল সম্রাটের মতো প্রতিপত্তি ছিল, তাঁদের একটু ক্ষমতা কমে যাওয়াটাই ধূলিসাৎ হওয়ার মতো দেখাবে, ধূলিসাৎ হওয়ার জন্য একেবারে ধূলির সঙ্গে মিশে যাওয়ার তো প্রয়োজন নেই! বামপন্থীরা অনেকটা দুর্বল হয়ে পড়েছেন, এটাই বোধহয় এখানে বলার কথা। এখন, প্রশ্নটার দুটো দিক ছিল। এক হল, এটা কতটা সংকট, এবং তার কুফলগুলি কী। তারই জবাব দিচ্ছিলাম। তার সঙ্গে আর একটা প্রশ্ন, কেন ঘটল এই সংকট? সেটা নিয়ে কিছু আলোচনা করা যেতে পারে। কী মনে করো তুমি?


ঠিক বুঝতে পারি না, তবে একটা কথা মনে হয়। আমাদের দেশে নিশ্চয়ই এখনও বহু মানুষ আছেন, যাঁদের কাছে বামপন্থা খুবই প্রাসঙ্গিক, তাঁদের জীবনের সমস্যাগুলো তো কোনও এক ভাবে বামপন্থাতেই সমাধানের চেষ্টা করতে হবে বলে তাঁরা মনে করেন। কিন্তু বামপন্থী দলগুলো যাঁরা চালান, তাঁদের সঙ্গে এই সব মানুষের কতটা সংযোগ আছে? এখানেই একটা প্রশ্ন মনে আসে। পশ্চিমবঙ্গে অন্তত বামপন্থী দলের নেতৃত্ব প্রায় পুরোপুরি উচ্চবর্গের হাতে থেকে গেছে, সেটাই কি তাঁদের দুর্বলতার বড় কারণ?

এখানে তিনটে সমস্যা আছে।

প্রথম হচ্ছে, বামপন্থী নেতৃত্বের, যাকে বলা চলে, শ্রেণিক্ষীণতা। এটা ঠিকই যে, বামপন্থী নেতৃত্বের মধ্যে উচ্চবর্গের প্রাধান্য এখনও খুবই বেশি রকম। অবশ্য উচ্চ শ্রেণি থেকে বড় ও ভাল চিন্তা আসতে পারে না এমন কথা মনে করার কোনও কারণ নেই। কার্ল মার্ক্স থেকে গ্রামশি ও রজনী পাম দত্ত, সবাই তো উচ্চ শ্রেণি থেকেই এসেছেন, তাতে করে যে সৎ চিন্তার খেলাপ ঘটেছে, এটা মনে করার সত্যিই কোনও কারণ নেই। কিন্তু সংখ্যাগরিষ্ঠ মানুষ কোন দিকে কষ্ট পাচ্ছেন, কোন দিকে তাঁদের উন্নতির প্রয়োজন, কোন দিকে নজর দেওয়ার জন্য তাঁরা প্রশ্ন করছেন এবং নিজেরাও খানিকটা জবাব দিচ্ছেন, এই সব বিষয়ে শ্রেণিক্ষীণতা থেকে যে রাজনৈতিক দুর্বলতা আসে তা তো উপেক্ষণীয় নয়।

*

দ্বিতীয় কথা, এবং এটা আমি খুবই বড় বলে মনে করি, আমাদের বামপন্থার চিন্তাধারা তো গোড়ায় বিদেশ থেকে এসেছিল। প্রথম দিকে ভারতবর্ষেও নতুন বামপন্থী চিন্তার অভাব ছিল না, কিন্তু বিদেশি মূলটি শক্ত ছিল। সেই বিদেশমুখী বা বিদেশভিত্তিক দর্শন আমাদের দেশে নতুন চিন্তার বিরোধী হয়েই থেকে গেছে। সেটার তো কোনও পরিবর্তন হয়নি। অথচ এক দিকে সোভিয়েত ইউনিয়ন উঠে গেল, অন্য দিকে চিনে কমিউনিস্ট পার্টি যে বাজারধর্মী অর্থনীতি করছেন, এ বিষয়ে তো কোনও সন্দেহ নেই। আমরা কিন্তু এখনও ওই আমেরিকান সাম্রাজ্যবাদ বলে একটা টার্গেট খাড়া করে তার সঙ্গে যুদ্ধ করে যাচ্ছি, সেই লড়াইকেই প্রাধান্য দিয়ে চলেছি। বাস্তবতার সঙ্গে একটা বড় রকমের ফারাক দেখা দিয়েছে। সেটা ক্রমশই বাড়ছে।

যে সময় সোভিয়েত ইউনিয়ন ছিল, তার সঙ্গে রাজনৈতিক নেতৃত্ব নিয়ে আমেরিকার ঝগড়া ছিল, তখন এর একটা বড় মানে ছিল। এখন চিনের সঙ্গে আমেরিকার একটা বচসা আছে, কিন্তু সেটা রাজনীতির কারণে নয়, সেটা তো আন্তর্জাতিক বাজারে অর্থনৈতিক প্রাধান্য কার হবে, তা নিয়ে। বলা যেতে পারে, এটা একেবারেই ধনতান্ত্রিক সমাজের একটা বিশেষ রূপ, যে— অর্থনৈতিক ক্ষমতা কার বেশি হবে। এরই মধ্যে আমরা আন্তর্জাতিক বাস্তবতা উপেক্ষা করে মার্কিন সাম্রাজ্যবাদের সঙ্গে ছায়াযুদ্ধ চালিয়ে যাচ্ছি। কুলীন ব্রাহ্মণ রূপে পুরনো আচারবিচার মেনেই আমরা সাবেকি ক্রিয়াকর্মগুলি করে যাচ্ছি। আমেরিকার যে সাম্রাজ্যপ্রীতি নেই তা নয়, এবং অস্ত্রশস্ত্র নিয়ে তাদের গায়ের জোরও অনেক, নানা ভাবে পৃথিবীতে তার প্রকাশ হয়। কিন্তু এটাই আমাদের প্রধান সমস্যা নয়, এবং এর সঙ্গে লড়াই করতে হলে পঞ্জিকা অনুসরণ করে পুরোটা পথ চলতে থাকার খুব কারণও আমাদের নেই।

কংগ্রেস সরকার যখন আমেরিকার সঙ্গে পারমাণবিক বিদ্যুৎ কেন্দ্র নিয়ে চুক্তি করলেন, তখন তো কমিউনিস্ট পার্টি থেকে সরকারের সমর্থন তুলে নিয়ে সরকার ফেলে দিতে চেষ্টা করা হল। তাঁরা যদি তখন সে চেষ্টায় সফল হতেন, তা হলে বোধহয় পার্টি আরও হীনবল হয়ে যেত। সে পতন না হলেও কমিউনিস্ট পার্টির তখন তেজ কমে গেল। অথচ সেই সময় এ-রকম করার তেমন কোনও কারণ ছিল না। প্রথম কথা, কমিউনিস্ট পার্টি দুটি তো সরকারে ছিলেন না, বাইরে থেকে তাকে টিকতে দিচ্ছিলেন। তাঁরা যদি বলতেন, এই নীতিতে আমরা বিশ্বাসী নই, কিন্তু এই কারণে আমরা সরকারকে ফেলব না, সবাই সেই যুক্তিটা বুঝতে পারতেন। রাজনৈতিক চিন্তা করতে পারে এ-রকম যে কোনও লোকেরই এই ব্যাপারটা ভাবা উচিত, অথচ তখন তাঁরা ওই দিকটিকে উপেক্ষা করলেন। আমি নিজেও তো মনে করি, আমাদের দেশে যে পারমাণবিক শক্তি তৈরি হচ্ছে, তাতে আমাদের লাভের চেয়ে ক্ষতি অনেক বেশি। ফুকুশিমার মতো দুর্ঘটনার সম্ভাবনা আছে, অন্তর্ঘাতের আশঙ্কা আছে, মুম্বইয়ের হোটেলে যা হয়েছিল, একটা পারমাণবিক কেন্দ্রে যদি তা হত, তার ভয়াবহ পরিণাম হতে পারত। তার ওপর নিউক্লিয়ার মেটিরিয়াল চুরি যাওয়ার সম্ভাবনাও আছে, এবং তার ফলে সন্ত্রাসবাদীদের হাতে বড় অস্ত্র আসতে পারে। এ-সব কারণেই আমিও এর বিরোধী। কিন্তু তাই বলে সরকারের পতন ঘটানোর তখন কোনও কারণ ছিল না। সেই সময় সরকারের পতন হলে বিজেপি ক্ষমতায় আসত। সেই সম্ভাবনা যে তখন ঠেকানো গিয়েছিল, সেটা যে কমিউনিস্ট পার্টির জন্যে ঠেকানো গিয়েছিল, তা তো বলা যাবে না।

তৃতীয়ত, কমিউনিস্ট পার্টির কাছে তো বিভিন্ন বিষয়ে নতুন চিন্তার একটা আশা করা যায়। যেমন, অর্থনৈতিক বাস্তব নিয়ে নতুন ভাবে চিন্তা করা দরকার। বাজার ব্যবস্থার প্রয়োগে লোকের অর্থনৈতিক উন্নতি কতটা করা সম্ভব, এটা একটা বড় প্রশ্ন। সেটা বিভিন্ন দেশের নিজের অর্থনীতির উন্নয়নের পক্ষে কাজে লাগতে পারে। চিনে এর প্রয়োগ প্রচণ্ড বেশি, কিন্তু চিন বাদ দিলেও অন্যান্য দেশেও এটা খুবই দেখা যাচ্ছে, যেমন ভিয়েতনাম। এ সব বিষয়ে নতুন চিন্তার প্রয়োজন। তার পাশাপাশি সরকারের কী করা উচিত, কী ভাবে করা উচিত, সে-সব বিষয়েও বামপন্থীদের সুস্পষ্ট ও সাবলীল চিন্তা আশা করা যায়। আমেরিকার সঙ্গে পারমাণবিক চুক্তি নিয়ে তাঁরা অত্যন্ত চিন্তিত, কিন্তু দেশের মানুষ অনাহারে পীড়িত, খাদ্যাভাবে তাঁদের মস্তিষ্ক এবং মেধা স্তিমিত থাকছে, অসুখে ভোগার এবং মারা যাওয়ার সম্ভাবনা বেড়ে যাচ্ছে, লেখাপড়ার মান পৃথিবীর প্রায় সব দেশের তুলনায় নীচে— এ সব নিয়ে বামপন্থীদের চিন্তার বড় রকম পরিচয় পাচ্ছি না, কেবল ওই মার্কিন সাম্রাজ্যবাদকে কী ভাবে রোখা যায়, তাই নিয়ে আলোচনা। বলতেই হবে, এর মধ্যে একটা চিন্তার খেলাপ আছে। ভারতবর্ষের পক্ষে তার ফল ভাল বলে আমি মনে করি না।

সুতরাং এই তিনটি ক্ষীণতাকে আমি সমস্যা বলে মনে করি।

প্রথমত, নতুন চিন্তা খুব একটা কিছু হচ্ছে না;

দ্বিতীয়ত, বহির্মুখী চিন্তার দিকে আমাদের নজর, এবং তা-ও পাঁজি দেখে পুরনো পথে;

তৃতীয়ত, শ্রেণি-বিভাগের দিক থেকে আমাদের বামপন্থী নেতৃত্ব এখনও খুবই উচ্চবর্ণ নিয়ন্ত্রিত। এ-সব ক'টাই বেশ খানিকটা চিন্তার কারণ।


এই বহির্মুখী চিন্তার কথাটার সূত্র ধরে একটা কথা বলি। বিভিন্ন দেশে বামপন্থী চিন্তায় তো অনেক পরিবর্তন এসেছে। ইউরোপে, লাতিন আমেরিকায় বামপন্থী দলগুলো নিজেদের অনেক ভাবে পালটেছে। বহির্মুখী চিন্তায় অভ্যস্ত দল বা তার নেতারা সে-সব অভিজ্ঞতা থেকেও অনেক কিছু শিখতে পারতেন। সেগুলোও তো বাইরের অভিজ্ঞতা।

ঠিকই। বহির্মুখী আগ্রহে আমার কোনও আপত্তি নেই। কিন্তু বহির্মুখী বিভ্রান্ত চিন্তাকে প্রাধান্য দেওয়াতে আমার আপত্তি না করে কোনও উপায় নেই। সারা পৃথিবী থেকেই অনেক কিছু শেখা যায়। যে কথাটা আমি নানা ভাবে বলার চেষ্টা করি আমাদের চিন থেকে শেখার অনেক কিছু আছে, জাপান থেকে শেখার আছে, কোরিয়া থেকে শেখার আছে, ইউরোপ থেকে শেখার আছে, ইত্যাদি। কিন্তু ওঁরা তো ঠিক তা করেননি। এক সময় ছিল কমিনটার্ন— তাঁরা যা ঠিক করলেন, সেই মতোই ওঁরা ভাবতেন। অর্থাৎ এই বহির্মুখী চিন্তার মধ্যে বিশেষ কিছু নির্দিষ্ট যুক্তিধারার প্রাধান্য ছিল। এখানে আশ্চর্যের ব্যাপার হচ্ছে, মজার ব্যাপারও বলা যেতে পারে, যে, যাঁদের কাছ থেকে সেই নেতৃত্ব আসত তাঁরা তো সরে গেছেন, নেই কেউ, কিন্তু সেই একই ধরনের পুরনো চিন্তার প্রাধান্যটা থেকে গেছে।

রবীন্দ্রনাথের লেখায় আছে 'কর্তার ভূত'-এর কথা, কর্তা চলে গেছেন কিন্তু ভূত আছে। এটা একেবারেই সেই কর্তার ভূতের ব্যাপার। কর্তা নেই, রাশিয়ায় তো নেইই, চিনে এক ভাবে আছেন ঠিকই, কিন্তু তাঁদের চিন্তাধারা তো একেবারেই অন্য দিকে, অথচ ভূতরা থেকে গেছে। এবং রবীন্দ্রনাথের লেখাতেই আছে, কর্তা থাকলে তাঁর সঙ্গে ঝগড়া করা যায়, ভূতের সঙ্গে যুক্তিতর্ক করা অনেক কঠিন।


এখানে একটা প্রশ্ন। সাম্রাজ্যবাদের বিরুদ্ধে যুদ্ধ করাটা খুব জরুরি। কিন্তু সেই যুদ্ধটা করবার জন্য একটা ওয়াকিবহাল, সক্ষম জনসাধারণকে তো চাই, যাঁরা শিক্ষায় স্বাস্থ্যে সমৃদ্ধ, যাঁরা জানেন কী ঘটছে না ঘটছে। কংগ্রেস বা বিজেপির রাজনীতির বিরুদ্ধে লড়তে হলেও তো এগুলোয় জোর দেওয়া জরুরি। এটা কেন বুঝে ওঠা গেল না, সেটা আশ্চর্যের ব্যাপার নয় কি? অথচ কেরলে কিন্তু বামপন্থীরা অন্য ভাবে চিন্তা করেছেন।

কেরালায় করেছেন। সেখানে বামপন্থীদের চিন্তাটা শুধু বহির্মুখী চিন্তা নয়। এবং সেটাই তো কেরালার মাধুর্য। সেখানে কমিউনিস্ট পার্টি এল উচ্চবর্ণের আধিপত্য বিরোধী আন্দোলনের সঙ্গে যুক্ত হয়ে। তাদের একটা নিজেদের দর্শন ছিল। তার মধ্যে একটা হচ্ছে যে, যতটা সম্ভব অনৈক্য দূর করার চেষ্টা করতে হবে, এবং তার একটা উপায় হচ্ছে সবার জন্য শিক্ষার ব্যবস্থা। সবাই শিক্ষার সুযোগ পেলে তাঁরা স্বাস্থ্য চাইবেন, রাজনৈতিক পরিবর্তন চাইবেন এবং পরিবর্তন কী রূপে চাইবেন সে বিষয়ে তাঁদের খুব স্পষ্ট বক্তব্য থাকবে। কমিউনিস্ট পার্টি এই জিনিসটা তো ওই উচ্চবর্ণবাদ-বিরোধী আন্দোলন থেকে পেল। কেরালার পার্টি কখনওই সম্পূর্ণ ভাবে বহির্মুখী হয়নি, তাঁরা একটা দেশি সমস্যার সমাধান করার জন্যই চেষ্টা করেছেন, আলোচনা করেছেন।


কেরলে মন্দিরে নিম্নবর্ণের প্রবেশের অধিকার নিয়ে আন্দোলনেও বামপন্থীরা সংযুক্ত হয়েছেন, যেটা এখানে ভাবা কঠিন। বস্তুত, এখন ভারতবর্ষে তো অনেক রকম আন্দোলন হচ্ছে। অনেক ধরনের অধিকারের জন্য...

খাবারের অধিকার, তথ্য জানার অধিকার...


জমির অধিকারের জন্যে, আদিবাসীদের অধিকারের জন্যে... কিন্তু বামপন্থী দলগুলো অনেক সময়েই নিজেদের এগুলো থেকে দূরে রাখে। অথচ এই সব আন্দোলনের সঙ্গে নিজেদের সংযুক্ত না করলে তো হবে না।

ঠিকই। এবং সেটা কী কারণে ঘটছে না, তা বোঝা দরকার। বলা যায়, চিন্তার অভাব, কিন্তু তা বললে দুটো অসুবিধে আছে। এক, তাতে খুব ব্যাখ্যা হল না— কেন চিন্তার অভাব, সেই প্রশ্নটা থেকেই গেল। আর দ্বিতীয়ত, এ কথা বলে বোধহয় একটু দাম্ভিকতাও দেখানো হল। কিন্তু তবু, এটা যে চিন্তার বিভ্রান্তি, তা না বলে কোনও উপায়ও নেই।


অশোক রুদ্র যে 'ইনটেলিজেনসিয়া অ্যাজ রুলিং ক্লাস'-এর ধারণাটা এনেছিলেন, এটা কি তার সঙ্গে কোনও ভাবে যুক্ত?

খানিকটা যুক্ত হচ্ছে বটে, সেটা একটা ব্যাপার তো নিশ্চয়ই। কিন্তু আর একটা ব্যাপার হচ্ছে, দেশের প্রধান পার্থক্য হল গরিব এবং বড়লোক, অবস্থাপন্ন এবং অবস্থাহীন, ক্ষমতাশীল এবং ক্ষমতাহীন... এই সব কটা বর্গের মধ্যে যখন একই ধরনের ভাগ হচ্ছে, তখন একটা প্রচণ্ড রকম দ্বিধাবিভক্ত রাজনীতি চলছে। এখন, আমরা ইনটেলেকচুয়ালরা পড়েছি ক্ষমতাবানের দিকে, এবং তার ফলে আমাদের চিন্তাধারা, আমরা যা নিয়ে লিখছি, যা নিয়ে চিন্তা করছি, যা নিয়ে ঝগড়া করছি, সেগুলো সবই ওই পথেই চলছে। তার ফলে ইনটেলেকচুয়ালদের কাছ থেকে সেই নেতৃত্ব সহজে আসছে না। ইংল্যান্ডে এক সময় লেবার পার্টি থেকে, অথবা জার্মানি, ফ্রান্স বা ইটালিতে বামপন্থী চিন্তাধারা থেকে যেটা এসেছিল, সেটা আসছে না। ইনটেলেকচুয়াল শাসক শ্রেণির— রুলিং ক্লাস-এর— মধ্যেই পড়বেন, এমন তো কোনও কথা নেই, কার্ল মার্ক্স অথবা আন্তোনিয়ো গ্রামশি শাসক শ্রেণির মধ্যে পড়েন, এটা তো বলা যাবে না! এবং আমাদের মধ্যেও মৌলিক বামপন্থী চিন্তাশীল লেখক ও বক্তা নেই এমনটাও নয়।

কিন্তু ইনটেলিজেনসিয়াকে একটা পুরো গ্রুপ যদি ধরা যায়, তা হলে সেই হিসেবে আমরা নিজেদের আইডেন্টিফাই করছি তাঁদের সঙ্গে, যাঁদের আক্ষেপ হল, কুকিং গ্যাসটা আর একটু সস্তা হলে ভাল হয়, ডিজেলের দামটা আর একটু কম হওয়া উচিত, কিংবা বিদ্যুতের মাসুলটা আর একটু কম করা হোক, যদিও শতকরা ত্রিশ ভাগ লোকের কোনও বিদ্যুতের কানেকশন নেই। আমরা যে সেই না-থাকাটা নিয়ে কিছু বলি না এবং বিদ্যুতের দাম নিয়ে কাগজে তার চেয়ে অনেক বেশি আলোচনা হয়, এই সব কারণেই অশোক রুদ্র বোধহয় বলবার চেষ্টা করেছিলেন যে, আমরা একটা ভিন্ন দলে পড়ে গেছি। এই সমস্যাটার সঙ্গে ওই উচ্চবর্ণ বা উচ্চ শ্রেণির আধিপত্যের একটা যোগ আছে ঠিকই। নিম্নবর্গের থেকে আমাদের আইডেনটিটির সাহচর্যের যে অভাব ঘটেছে, এবং তার সঙ্গে সঙ্গে, উচ্চ শ্রেণি যে সব সমস্যা নিয়ে চিন্তিত সেগুলির সঙ্গে আমরা যে ভাবে একাত্ম হয়ে গিয়েছি, তার পরিপ্রেক্ষিতেই অশোক রুদ্রের বক্তব্য ছিল যে, এই ইনটেলিজেনসিয়া থেকে আমাদের একটা নতুন নেতৃত্ব আসার সম্ভাবনা ক্রমশই ক্ষীণ হয়ে যাচ্ছে। এটা নিশ্চয়ই ব্যতিক্রমহীন সত্য বলে মনে করার কারণ নেই, অশোকদা নিজেও তা জানতেন, না হলে তিনি ওই প্রবন্ধ লিখতেন না, তিনি নিজেও তো ওই দলেরই লোক (যেমন আমিও)। কিন্তু তিনি নানা সত্যের মধ্যে বড় সত্য বলে ওই কথাটা বলছেন এবং সেটা আমার কাছে খুবই বড় কথা বলে মনে হয়।


এখানেই কি নিম্নবর্গের নিজের কণ্ঠস্বর বা সক্ষমতার প্রশ্নগুলো খুব বড় হয়ে ওঠে না? যাদের একেবারে কোনও কণ্ঠস্বর নেই, সেই শিশুদের নিয়ে আপনাদের প্রতীচী ট্রাস্টেরই এক জনের লেখা পড়লাম। মিড ডে মিল প্রসঙ্গে তিনি বলছেন, 'যখন থেকে লেখাপড়া শিখেছি, বামপন্থী স্লোগান দেখে আসছি: দ্রব্যমুল্য বৃদ্ধির বিরুদ্ধে গর্জে উঠুন। এখন দেখছি, ডিজেল, রান্নার গ্যাস, এই সবের দাম নিয়ে আন্দোলন হচ্ছে। কিন্তু গত পাঁচ বছরে ডাল এবং তেলের দাম বেড়েছে প্রায় একশো শতাংশ হারে। আর এই সময়ে মিড ডে মিল রাঁধার জন্য যে টাকা দেওয়া হয়, সেটা বেড়েছে তেত্রিশ শতাংশ। বাচ্চারা খাবে, তাদের জন্যে বলবার কেউ নেই। এক, তারা বাচ্চা; দুই, গরিব ঘরের বাচ্চা। এটা মিডিয়ায় আসে না, আমাদের অ্যাকাডেমিকরাও এ নিয়ে কিছু বলেন না। আবার, ফুলকপির দাম বেড়ে গেলে তা নিয়ে যত কথা হয়, চালের দাম আঠারো টাকা থেকে ছাব্বিশ টাকা হলে সেই তুলনায় কিছুই হয় না। এ নিয়ে বামপন্থী, দক্ষিণপন্থী, কারও কোনও উৎসাহ নেই।' দক্ষিণপন্থীরা বলবেন না, তা হয়তো স্বাভাবিক, বামপন্থীদের তো বলার কথা!

সেটাই ঠিক। বামপন্থীদের কাছ থেকে আমরা যেগুলো আশা করতে পারতাম, সেগুলো তাঁরা অনেক সময়েই করে উঠতে পারেননি। তার জায়গায় সাম্রাজ্যবাদ রোধ করার কথাই বলে চলেছেন। সাম্রাজ্যবাদ নিশ্চয়ই রোধ করা দরকার। কিন্তু সাম্রাজ্যবাদ বামপন্থীরা ঠিক যে চেহারায় দেখছেন, পৃথিবীতে এখন সেটি সেই চেহারায় খুব বিরাট ভাবে আছে বলে আমি মনে করি না। একটা সাম্রাজ্যবাদ নিশ্চয়ই আছে, কিন্তু সেটা অনেক সূক্ষ্ম ভাবে আছে। সেটা বিচার করতে হলে সার্ত্র্ পড়া দরকার, গ্রামশি পড়া দরকার, তাঁরা এ বিষয়ে কী বলেছেন বোঝা দরকার। কিন্তু সাম্রাজ্যবাদ কথাটা যে ভাবে একটা খুব স্থূল অর্থে ব্যবহার করা হয়, বলা হয় আমেরিকা আমাদের সব কিছু নিয়ে নিল, স্কুল করতে দিচ্ছে না, হাসপাতালগুলো খারাপ করে দিল, সেটা তো সত্যি নয়! এবং সেটা যাঁরা বিশ্বাস করেন, তাঁদের সেই বিশ্বাস দূর করাটা কঠিন হবে, কারণ বিশ্বাসটা ঠিক কোথা থেকে আসছে, তা বোঝা কঠিন। এখন, এটা বললেই লোকে বলবেন যে, 'আপনি সাম্রাজ্যবাদকে সমর্থন করছেন'। তাতে আমি বলতে পারি যে, আমি সাম্রাজ্যবাদের ভীষণ বিরোধিতা করছি, কিন্তু সাম্রাজ্যবাদটা কোথায় কোন ফর্মে হচ্ছে, সেটা তো আমাদের জানা দরকার। সাম্রাজ্যবাদের ফলে আমাদের অনেক কিছু ক্ষতি হতে পারে, কিন্তু কোথায় কী কী ক্ষতি হচ্ছে, সেটা পরিষ্কার ভাবে বিশ্লেষণ করাটা খুবই জরুরি।

http://www.anandabazar.com/archive/1140108/8edit3.html



বাজারকে বিশ্বাস করি, আবার সামাজিক ন্যায়েও বিশ্বাস করি



আমার ক্ষেত্রে কারণটা ওই রকম নয়৷ স্কুল থেকে শুরু করে, কলেজেও প্রথম দিকে, আমার সবচেয়ে বেশি উত্‍সাহ ছিল, ইতিহাস আর সাহিত্যে৷ সাহিত্যটা এখনও পড়তে ভালো লাগে৷ কিন্ত্ত বিষয় হিসাবে আমার ইতিহাসে খুব উত্‍সাহ৷ কলেজে যখন গেলাম, কলেজের বেশ কিছু বন্ধু মার্কসবাদী ইতিহাসের দিকে আমার মনটাকে নিয়ে গেল৷ প্রেসিডেন্সি কলেজে মার্কসবাদী ইতিহাসের একটা ঐতিহ্য ছিল৷ এক সময় সুশোভন সরকারের মতো অধ্যাপকরা পড়াতেন৷ কাজেই আমি তখন প্রচুর মার্কসবাদী ইতিহাস পড়ি৷ পরে মার্কসবাদী ইতিহাস সম্বন্ধে আমার মনে কিছু প্রশ্ন জাগতে লাগল৷ যেগুলো মার্কসবাদীরা খুব একটা আলোচনা করত না৷ এমনিতেও এই ধারার মূল ব্যাপার ছিল ইতিহাসের অর্থনৈতিক ব্যাখ্যা৷ কাজেই অর্থনীতির কতগুলি জিনিস বোঝবার জন্য আমি অর্থনীতির দিকে আকৃষ্ট হলাম৷ আমার সবকিছুতে একটা প্রশ্ন করার স্বভাব আছে৷ আমার বাবারও ছিল৷ সব কিছু সঙ্গে সঙ্গে একেবারে প্রশ্নাতীত ভাবে না নিয়ে, যাচাই করে নেওয়া৷ যাচাই করতে গেলে দুটো জিনিস লাগে- ডিডাকটিভ লজিক, আর ইনডাকটিভ লজিক৷ অর্থনীতির পদ্ধতি এটাই৷ যুক্তি দিয়ে তত্ত্ব নির্মাণ, এবং তথ্য দিয়ে সেই তত্ত্বকে যাচাই করা৷ সুতরাং, যখন অর্থনীতি পড়তে লাগলাম, এই পদ্ধতিটা আমাকে আকৃষ্ট করল৷ অর্থাত্‍, যতই ভালো কথা হোক, যুক্তি এবং তার পরে যুক্তিকে মিলিয়ে তথ্য দিয়ে প্রমাণ না করলে আমরা সেটা মানব না৷


আপনি এক জায়গায় লিখেছেন, ভারতীয় অর্থনীতিবিদদের মধ্যে বাঙালিদের এত রমরমা তার একটা কারণ প্রেসিডেন্সি কলেজে অর্থনীতি শিক্ষার মান৷ এক সময় প্রেসিডেন্সির মান পড়ে গেছে অভিযোগ উঠেছে৷ এবং এখন আবার চেষ্টা হচ্ছে প্রেসিডেন্সির পুনর্গঠনের জন্য৷ কিন্ত্ত এই নিয়ে দুটো সমালোচনা হচ্ছে৷ অনেকে বলছেন শুধু প্রেসিডেন্সিকে একটা এলিট ইনস্টিটিউশন হিসাবে তৈরি করলে সার্বিক শিক্ষার মান উন্নত হবে না৷ দ্বিতীয়ত, আমাদের রাজনৈতিক আবহে স্বায়ত্তশাসন কি আদৌ সম্ভব?


আমার নিজের ধারণা হচ্ছে, উচ্চশিক্ষায় যদি উত্‍কর্ষ আনতে হয়, সেটা এলিটিস্ট হতে বাধ্য৷ পৃথিবীতে উচ্চশিক্ষার দিক থেকে উন্নত দেশগুলোতে, যেমন আমেরিকা বা জার্মানিতে, ওরা সাধারণদের জন্য শিক্ষা সবার মধ্যে ছড়িয়ে দেয়৷ স্কুল থেকে যারা ছেড়ে বেরিয়েছে, তাদের অনেককে বৃত্তিমূলক শিক্ষা দেওয়া হয়৷ জার্মানিতে এই দিকে জোরটা বেশি৷ আর যারা বৃত্তির দিকে যাচ্ছে না, সাধারণ বিষয় নিয়ে পড়ছে, আমেরিকাতে তাদের জন্য কমিউনিটি কলেজ৷ একটা প্রবেশিকা পরীক্ষা দিয়ে ঢুকতে হয়৷ কমিউনিটি কলেজগুলো অঞ্চলভিত্তিক৷ স্থানীয় ছেলেমেয়েরা প্রবেশিকা পরীক্ষা পাশ করলে, কী ব্যাকগ্রাউন্ড, স্কুলে কী নম্বর পেয়েছে, সে সব দেখবে না৷ যে কেউ প্রায় বিনামূল্যে পড়তে পারে৷ এইটা হচ্ছে একটা সাধারণ শিক্ষা ছড়িয়ে দেওয়া৷ তার পরে এই কমিউনিটি কলেজে যারা খুব ভালো করছে, তাদের ভালো ইউনিভার্সিটিতে নিয়ে যায়৷ অর্থাত্‍ এটা হচ্ছে ছে‌েঁক নেওয়া৷ খুব উচ্চশিক্ষা, গবেষণা ইত্যাদি সাধারণের জন্যে নয়৷ এটা কিন্ত্ত শুধু ধনতান্ত্রিক দেশেই নয়৷ সোভিয়েত রাশিয়াও তা-ই করত৷ সেরা বিজ্ঞানীদের অ্যাকাডেমিতে উত্তরণ হত৷ চিনের অ্যাকাডেমিগুলোও সম্পূর্ণ এলিটিস্ট৷ কিন্ত্ত খালি এটাই করলে এবং সাধারণ শিক্ষাটা না দিলে এলিটিজ্ম্ সম্পর্কে লোকের আপত্তি থাকবেই৷ কাজেই সাধারণ মানুষ যেখানে যায়, স্কুলে এবং স্কুলের ঠিক পরে ওই বৃত্তিগত এবং সর্বসাধারণের কলেজে, তাদের শিক্ষার মান বাড়াতেই হবে৷ কিন্ত্ত উচ্চতম শিক্ষা এলিটিস্ট হবেই৷ এখন সেটা প্রেসিডেন্সি হবে না যাদবপুর হবে সেটা অন্য ব্যাপার৷ উত্‍কর্ষের দিক দিয়ে এলিটিজম ছাড়া উপায় নেই৷ কিন্ত্ত আমি সেটা মানব তখনই যখন সাধারণের শিক্ষার দিকটা দেখা হচ্ছে৷ এবার স্বায়ত্তশাসন৷ আমি সব সময় স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷ কেননা, ভারতবর্ষে শিক্ষার অনেকগুলো সমস্যার মধ্যে একটা বড়ো সমস্যা হচ্ছে সরকারি এবং রাজনৈতিক হস্তক্ষেপ৷ পশ্চিমবাংলায় বিশেষ করে৷ এক সময় আলিমুদ্দিনে ঠিক হত, এখন গভর্নিং বডিগুলোয় তৃণমূলের লোকেরা রাজত্ব করেছে৷ সুতরাং, এটা আমাদের দলীয় রাজনীতির ঐতিহ্য৷ এটা না কাটিয়ে যদি কোনও নেতা বলেন তিনি শিক্ষায় উত্‍কর্ষ আনতে চান, তিনি ভণ্ডামি করছেন৷ আমার মতামত হল, শিক্ষা প্রতিষ্ঠান চালানোর ব্যপারে কোনও রাজনীতিবিদের, এমনকী শিক্ষা দফতরের আমলাদেরও কোনও কিছু বলার থাকবে না৷ তোমার পাবলিক ইউনিভার্সিটিকে টাকা দেওয়ার থাকে দিয়ে দাও, মাঝে মাঝে দেখো যে টাকা তছনছ হচ্ছে কি না, অডিট করো৷ কিন্ত্ত কাকে নিয়োগ করা হবে বা কী নিয়ে গবেষণা হবে তাতে রাজনীতিবিদদের বা আমলাদের কোনও হস্তক্ষেপ থাকা উচিত নয়৷ সুতরাং, আমি পুরোপুরি স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷ কিন্ত্ত স্বায়ত্তশাসনের একটা সমস্যা আছে৷ ধরো একটা কলেজ স্বায়ত্তশাসন পেয়ে গেল৷ কিন্ত্ত তাতেই যে উত্‍কর্ষ বাড়বে এমন কোনও কথা নেই৷ পরিচালকরা হয়তো নিজেদের পেটোয়া লোকদের নিয়ে এল যারা খালি স্বজনপোষণ করবে বা কোনও দলের তল্পিবাহক হবে৷ স্বায়ত্তশাসনের মধ্যে এই জিনিসটা হতে থাকে এবং হয়ও৷ এইটা অন্য দেশে কেন হয় না? আমেরিকায় এর কারণ কালচার অফ কম্পিটিশন৷ প্রতিযোগিতার সংস্কৃতি৷ আমাদের দেশেও এটা আনা দরকার, কিন্ত্ত আনতে অনেক সময় লাগবে৷ যদি পেটোয়া রাজ তৈরি হয়, পড়াশুনা বা গবেষণার মানটা ভালো থাকবে না৷ তখন যাঁরা সত্যিই ভালো শিক্ষক, বা গবেষক, তাঁরা অন্য জায়গায় চলে যাবেন৷ কিন্ত্ত কেউ ছেড়ে চলে গেলেই সঙ্গে সঙ্গে ছাত্রদের কাছে খবরটা চলে আসে, যে অমুক জায়গায় কিন্ত্ত অনেকে ছেড়ে চলে যাচ্ছেন৷ তখন ওরা আর ওইখানে যাবে না৷ অর্থনীতিতে ও কিছু অন্যান্য বিষয়ে আমাদের ভালো ছাত্ররা অনেক সময় দিল্লিতে গিয়ে পড়েছে৷ কেন গিয়েছে? এই প্রতিযোগিতার জন্য৷ কিন্ত্ত অত দূরে যাওয়ার একটা পয়সাকড়ি দরকার, বা যোগাযোগ দরকার৷ এখন যা কম্পিটিশন, তাতে কিছু ছাত্র এখান থেকে ছেড়ে ওখানে যেতে পারছে৷ এটা যাতে সবাই পারে, যথেষ্ট আর্থিক সাহায্য বা ঋণের ঢালাও ব্যবস্থার মারফত, সেটা দেখতে হবে৷ এবং সবাই পারলে, এদের টনক নড়বে৷ কারণ ছাত্র না পেলে তো পয়সাও আসবে না৷ কাজেই স্বায়ত্তশাসনের সঙ্গে প্রতিযোগিতার সংস্কৃতিকে মেলাতে হবে৷ এবং এই দুটো এক সঙ্গে থাকলে আমি স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷


আপনি লেখায় বামপন্থী গোঁড়ামির উল্লেখ করেছেন অনেক বার৷ কিন্ত্ত এই মুহূর্তে যদি আমি অর্থনীতির দিকে তাকাই, মানে মূল স্রোতের অর্থনীতি বিশেষ করে নীতি প্রণয়নের ক্ষেত্রে, সে ক্ষেত্রেও কি একটাও গোঁড়ামি নেই?


মানে তুমি বলছ যাঁরা অর্থনৈতিক সংস্কারের কথা বলছেন সেটা একটা গোঁড়ামি কি না?


মানে শুধু যেন ওইটাই একমাত্র পথ হিসেবে বেছে নেওয়া হয়েছে৷


নিশ্চয়ই, সেটা তো আছেই৷ যেমন, অর্থনৈতিক সংস্কার অমর্ত্য সেনও চান৷ কিন্ত্ত উনি বলছেন খালি অর্থনৈতিক সংস্কারে হবে না৷ যে মতটা আমার নিজের কাছাকাছি মত৷ আমি নিজে মনে করি অর্থনৈতিক সংস্কারটা দরকারি৷ এইটার সঙ্গে, আমি স্বায়ত্তশাসনের প্রসঙ্গে যেটা বললাম, তার একটা যোগ আছে৷ অনেক সময় অনেক বামপন্থীরা কী করেছে? এটা বাজারকে দেব না, রাষ্ট্র করবে৷ কিন্ত্ত রাষ্ট্রের তো প্রতিযোগী নেই৷ কাজেই প্রতিযোগিতাও নেই৷ তখন রাষ্ট্র অদক্ষ বা দুর্নীতিপরায়ণ হয়ে পড়ে৷ শান্তিনিকেতনে আমাদের যে বাড়ি ছিল, এক সময় তার জমিটার খাজনা ছিল দশ আনা৷ সেই দশ আনা খাজনা দিতে বাবাকে মাসের পর মাস ঘোরাত৷ বাবা রোদের মধ্যে ছাতা নিয়ে লাইন দিয়ে খাজনার অফিসে গিয়ে শুনতেন 'অফিসার আজকে আসেননি'- এই ভাবে দিনের পর দিন ঘোরাত৷ আবার খাজনা না দিলে জরিমানা হবে৷ পরে মনে হয়েছে ওরা আসলে বাবার কাছে ঘুষ চাইছিল৷ বাবা সেটা বুঝতে পারেননি৷ ঘুষটা কেন? এক জন অর্থনীতিবিদের কছে ঘুষটা হচ্ছে সরকারি একচেটিয়া ব্যবস্থার দক্ষিণা৷ বাজারে ব্যবসায়ী মুনাফাটা করছে৷ আর এই একচেটিয়া ব্যবস্থায় কিছু দুর্নীতিগ্রস্ত রাজনীতিবিদ আর আমলা সুযোগটা নিচ্ছে৷ তফাত্‍টা কোথায়? সেই জন্য আমার কাছে দু'পক্ষের গোঁড়ামিটাই সমস্যা৷ কিন্ত্ত প্রতিযোগিতাকে সত্যিকারের হতে হবে৷ যেমন এখন দেশে অনেকগুলো জাতীয় ব্যাঙ্ক আছে৷ এটা ঠিক প্রতিযোগিতা নয়৷ কেন? কারণ, কাল যদি স্টেট ব্যাঙ্ক দেউলিয়া হয়ে যায়, ম্যানেজার জানে কোনও ঝামেলা নেই৷ অর্থমন্ত্রক বেইল আউট বা ত্রাণ করবে৷ লোকসান বেশি গেলে পুষিয়ে দেবে৷ এটাকে আমি এক জায়গায় বলেছি 'কম্পিটিশন উইদাউথ টিথ'৷ মানে ধার নেই৷ দারিদ্র্য মোচন ইত্যাদি উদ্দেশ্যের ব্যাপারে বামপন্থীদের সঙ্গে আমার খুব একটা তফাত্‍ নেই৷ কিন্ত্ত বেশির ভাগ বামপন্থীই বাজারে বিশ্বাস করেন না, আমি করি৷ বাজারের শাঁসটা হচ্ছে প্রতিযোগিতা৷ প্রতিযোগিতা হলেই এক দল আর মুনাফা লুটতে পারবে না, সে আমলা, রাজনীতিবিদ, বা ব্যবসায়ী, যে-ই হোক৷ এক দলের হাতে মুনাফাটা থাকবে না৷ তার ফলে মুনাফাটা কমে যাবে৷ ক্রেতাদের সুবিধা হবে৷ এই অর্থে আমি বাজারকেও বিশ্বাস করি আবার সামাজিক ন্যায়েও বিশ্বাস করি৷


আপনি চিন নিয়ে প্রচুর কাজ করেছেন৷ চিনের সংস্কারের পরিপ্রেক্ষিতে অনেকেই অভিযোগ করেন যে এক দিকে যেমন সংস্কার হচ্ছে, তার ফলে প্রচুর 'সোয়েট শপ' তৈরি হয়েছে, অসাম্য বাড়ছে৷ সেটাকে কী ভাবে আপনি দেখেন?


আসলে 'সোয়েট শপ' ইত্যাদি কথাগুলো যারা ব্যবহার করে তারা জানে না যে কী বলছে তারা৷ 'সোয়েট শপ' মানে কী? তাদের কাজের পরিবেশ খারাপ, মজুরি কম৷ এই প্রশ্ন এলেই আমার প্রথম প্রশ্ন হচ্ছে- এই 'সোয়েট শপ'টা না থাকলে কি মজুররা ভালো থাকত? এই 'সোয়েট শপ'-এ যা পাচ্ছে তার অর্ধেকও হয়তো পেত না৷ সে তো নিজের ইচ্ছেতে আসছে, তাকে জোর করে তো কেউ নিয়ে আসছে না৷ কেন আসছে? কারণ তার আয় বাড়ছে৷ অন্যদের কাছে সেই কারখানা দেখে যতই নোংরা মনে হোক, যতই 'সোয়েট শপ' মনে হোক, যতই দেখুক লোকে ঘাম ফেলছে৷ কিন্ত্ত গ্রামে সে যে ঘাম ফেলছিল আরও কম মজুরিতে বা বেকার ছিল, সেটা লোকে দেখছিল না৷ ঠিক যেমন বাংলাদেশে৷ আমার কাছে কাজের পরিবেশের নিরাপত্তা খুব গুরুত্বপূর্ণ৷ ওটার জন্য কোনও রকম আপস করা উচিত না৷ যেটা বাংলাদেশের সমস্যা৷ কিন্ত্ত বাংলাদেশের যে সব মেয়েরা আজ বাংলাদেশে বস্ত্রশিল্পে কাজ করছে, এত দিন তারা কী করেছে? গ্রামে তাদের কোনও কর্মসংস্থানই ছিল না৷ ১৫-১৬ বছর বয়সেই বিয়ে দিয়ে দিত৷ ফলে বাংলাদেশের জন্মহার খুব বেশি ছিল৷ এখন কমে গিয়েছে৷ ভারতের থেকেও বেশি হারে কমেছে৷ একটা প্রধান কারণ হল, এই মেয়েরা এখন বিয়ে করছে ২২-২৩ বছরে৷ আগে বিয়ে করত ১৪-১৫ বছরে৷ মেয়েরা এখন স্বাবলম্বী হতে পারছে৷ শুধু 'সোয়েট শপ' বলে এই ব্যবস্থা তুলে দেওয়ার কথা তাই মানব না৷ যদি দেখাতে পার যে বিকল্প উন্নততর কোনও ব্যবস্থা ছিল তা হলে মানব৷


বিকল্পের বিষয়টা ইন্টারেস্টিং৷ আপনাদের একটা সমীক্ষার ফলাফল পড়ছিলাম৷ তাতে বলা হয়েছে, পশ্চিমবঙ্গে ভোটে সিঙ্গুর নন্দীগ্রামের থেকে অনেক বেশি গুরুত্বপূর্ণ স্থানীয় রাজনীতি৷


আমাদের সমীক্ষায় অন্যান্য প্রশ্নও ছিল, কিন্ত্ত মূলত আমরা বুঝতে চেষ্টা করেছি, এত দিন পরে বামফ্রন্ট হারল কেন? আমরা ২৪০০-র বেশি বাড়িতে পুঙ্খানুপুঙ্খ প্রশ্ন করেছি৷ এই একই বাড়িগুলিতে আমরা ২০০৪-০৫ সালেও সমীক্ষা করেছিলাম৷ তার পরই পরিবর্তনটা দেখতে পাচ্ছি৷ সবাই বলে যে সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের জন্য বামফ্রন্ট হেরেছে৷ সেইটা কতটা সত্যি? আমরা দেখলাম সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের প্রভাব আছে৷ সিঙ্গুরের প্রভাব আছে সিঙ্গুরের ১৫০ কিলোমিটারের মধ্যে৷ নন্দীগ্রামেরও তাই৷ কিন্ত্ত পশ্চিমবঙ্গের বেশির ভাগ গ্রাম এদের থেকে তো অনেক দূরে৷ সেখানে দেখলাম সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের অতটা প্রভাব পড়েনি৷ গ্রামের নির্বাচনে অনেক ত্রুটি থাকা সত্ত্বেও লোকে নেতাদের, সে স্থানীয় হোক বা কলকাতার হোক, তাদের কাজের বহর বা পারফর্মেন্স সম্পর্কে লোকে কী ভাবছে, ভোটে তার একটা প্রভাব পড়েই৷ আমরা তাদের গ্রামের, কলকাতার বা জেলার নেতাদের নম্বর দিতে বলেছি৷ ১ থেকে ৫-এর মধ্যে৷ তারা কতটা বিরক্ত বা নিরাশ৷ '৫' হল সব থেকে বেশি নিরাশ ও '১' হল খুব ভালো৷ তার পর গড়ে আমরা দেখছি তৃণমূল বা বামফ্রন্ট- দু'দলেরই নেতাদের নিয়েই মানুষের প্রচুর আপত্তি আছে৷ দু'দলেরই নম্বর বেশ খারাপ৷ তার পর দেখেছি এই নম্বরগুলো পরিসংখ্যানগত দিক থেকে আলাদা কি না৷ দু'দলই খারাপ কিন্ত্ত ২০১১-এর পর দেখছি অনেকগুলো ব্যাপারেই, যেমন শিক্ষা, স্বাস্থ্য, সেচ বা পার্টির ব্যবহার ইত্যাদির ক্ষেত্রে বামফ্রন্ট নিয়ে আপত্তিটা বেশি৷ সাদা চোখে দেখলে মনে হয় নম্বর দু'দলেরই খারাপ৷ কিন্ত্ত পরিসংখ্যানের কিছু টেস্ট করলে তফাত্‍টা ধরা পড়ে৷ দু'একটা জিনিসে ওরা তৃণমূলকে বেশি খারাপ বলছে৷ যেমন সামর্থ্য ও বিচক্ষণতা তৃণমূলের বেশি খারাপ৷


আপনাদের সমীক্ষা অনুসারে যে সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের প্রভাব স্থানীয়৷ কিন্ত্ত ২০০৬ সালে বামফ্রন্ট বিশাল ভোটে জিতেছিল এবং ২০১১ সালে হেরেছে৷ তার মানে কি এই পাঁচ বছরটাই সব থেকে গুরুত্বপূর্ণ? নাকি তার আগের...


আসলে, এ রকম হতে পারে যে আমি নানা কারণে ক্ষুব্ধ৷ কিন্ত্ত আমি সেটাকে প্রকাশ করছি না৷ কেননা পার্টি আমাকে কিছু কিছু সুযোগসুবিধা দিচ্ছে৷ পু্রোপুরি প্রাপ্য দিচ্ছে না হয়তো৷ কিন্ত্ত ওরা এত দিকে ছড়ি ঘোরাচ্ছে যে আমি কিছু বললে হয়তো যা পাচ্ছি সেটুকুও বন্ধ হয়ে যাবে৷ এবার আস্তে আস্তে লোকের বিশ্বাস হল যে অন্য দলটার জেতার সম্ভাবনা আছে৷ ১৯৯৫-তে বা ২০০৪ সালেও যেটা ছিল না, আর কেউ জিতবে বলে কারও কোনও ধারণাই ছিল না৷ তখন আমার ক্ষোভ থাকলেও কেন আমি প্রকাশ্যে ক্ষোভ প্রকাশ করব? আমরা বলছি কিন্ত্ত প্রধানত পঞ্চায়েত নির্বাচন প্রসঙ্গে৷ কিন্ত্ত যখন দেখা যায় অন্য পার্টির জেতার সম্ভাবনা আছে, তখন আস্তে আস্তে ওই দিকে সরতে শুরু করে৷ কাজেই তুমি শুধু সুযোগটা চাইলেই হয় না, যে দেবে বলছে তার জেতার সম্ভাবনা কতটা, সেটাও গুরুত্বপূর্ণ৷ আমরা এটাকে বলছি- 'মডেল অফ ক্লায়েন্টেলিজম'৷ অর্থাত্‍ তুমি আমাকে ভোট দেবে আর আমি তোমাকে কিছু পাইয়ে দেব৷ বাংলায় যাকে 'পাইয়ে দেবার রাজনীতি' বলে৷ এবং আমরা বলছি পশ্চিমবঙ্গে এই পাইয়ে দেওয়ার রাজনীতির প্রকোপটা বেশি৷ দু'দলের তরফেই৷


http://eisamay.indiatimes.com/editorial/interviews/interview-with-Pranab-Bardhan/articleshow/28585138.cms


ইতিহাস বলবে, দল পায়ে বেড়ি না পরালে এই সদাচারী নেতাও সাহসী হতে পারতেন

Jan 8, 2014, 10.38AM IST


সুমন চট্টোপাধ্যায়


মুখ্যমন্ত্রিত্ব ছাড়ার আগে তাঁর শেষ বিদেশ সফরে ইজরায়েল গিয়েছিলেন জ্যোতি বসু৷ জেরুজালেমের অভিজাত কিং ডেভিড হোটেলের সুইটে বসে এক দীর্ঘ ও খোলামেলা সাক্ষাত্‍কারে আমার অসংখ্য প্রশ্নের উত্তর দিয়েছিলেন তিনি৷ সর্বশেষ প্রশ্নটি ছিল, 'ইতিহাস কীভাবে আপনাকে স্মরণ করবে বলে আপনি মনে করেন?' দীর্ঘ শাসনকালে স্বভাবসুলভ যে ভঙ্গিতে তিনি বিবিধ স্পর্শকাতর প্রশ্ন হেলায় উড়িয়ে দিতেন এ ক্ষেত্রেও তার কোনও ব্যতিক্রম ঘটেনি৷ তাঁর তাত্‍ক্ষণিক উত্তর ছিল, 'ইতিহাস আবার কাউকে মনে রাখে না কি? তুমি কি আকবর দ্য গ্রেট-কে মনে রেখেছ?' ইতিহাসের কাছ থেকে মনমোহন সিংয়ের প্রত্যাশা একেবারে অন্য রকম৷ তিনি মনে করেন, সমসাময়িক মিডিয়া এবং বিরোধী দলগুলি তাঁর প্রতি যে অবিচার করেছে এবং এখনও করে চলেছে, ভবিষ্যত্‍ তা করবে না৷ ইতিহাস অন্তত তাঁর প্রতি তুলনায় অনেক বেশি সদয় হবে৷




যে কোনও ব্যক্তি বা ঘটনা সম্পর্কে তাত্‍ক্ষণিক সিদ্ধান্তে আসা বা নিদান দেওয়া মিডিয়ার কর্তব্য এবং দুর্বলতা৷ আর বিরোধীদের কটূক্তির উদ্দেশ্য তো পুরোপুরি রাজনৈতিক৷ অতএব, দু'য়ের কারওরই বিচারপদ্ধতি প্রশ্ন অথবা সংশয়ের ঊর্ধ্বে নয়৷ ইতিহাসের বিচার তুলনায় অনেক দূরবর্তী ও নির্মোহ৷ সময়ের পলিমাটির অসংখ্য আস্তরণ জমাট বাঁধার পরে তখনই শুরু হয় ইতিহাসের বিচার৷ অতএব, প্রধানমন্ত্রী মনমোহন সিং যদি ইতিহাসের করুণা-প্রার্থী হন, বলা যাবে না, 'ধন্য আশা কুহকিনী তোমার মায়ায় মুগ্ধ ত্রিভুবন'৷ কিংবা মুগ্ধ মনমোহন! জ্যোতি বসু এবং মনমোহন সিং উভয়েই প্রধানমন্ত্রী হওয়ার বিষয়ে দৈবের কৃপা পেয়েছিলেন৷ প্রথম জনের দল তাঁকে সেই কৃপা গ্রহণ করতে দেয়নি৷ দ্বিতীয় জনের ক্ষেত্রে দলের বিরোধিতার কোনও প্রশ্নই ছিল না৷ কেন না মনমোহন ছিলেন স্বয়ং সোনিয়া গান্ধীর কৃপা-ধন্য, টানা দশ বছরের প্রধানমন্ত্রিত্বে এক দিনের জন্যও সেই কৃপা থেকে তিনি বঞ্চিত হননি৷ বলতেই হবে এ দিক থেকে দেখতে গেলে অন্তত জ্যোতি বাবুর চেয়ে মনমোহন অনেক বেশি ভাগ্যবান৷




প্রধানমন্ত্রী হিসেবে এটাই ছিল মনমোহনের শক্তির প্রধানতম উত্‍স আবার সবচেয়ে বড়ো দুর্বলতা৷ মনমোহন সিংকে কংগ্রেসের অধিকাংশ প্রবীণ নেতাই কোনও দিন মন থেকে মেনে নিতে পারেননি৷ তাঁর দুর্বল নেতৃত্বের বিরুদ্ধে দলের ভিতরে অভিযোগও উঠেছে অহরহ৷ কিন্ত্ত একমাত্র সোনিয়া গান্ধীর কারণেই দশ বছরে এক দিনের জন্যও সেই ক্ষোভ দানা বাঁধতে পারেনি ৷ এমনকি রাহুল গান্ধীও সরকারি সিদ্ধান্তের প্রকাশ্য বিরোধিতা (যেমন দাগী রাজনীতিবিদদের সম্পর্কে সুপ্রিম কোর্টের রায় বদলানোর সরকারি উদ্যোগ) করেই প্রধানমন্ত্রীর নেতৃত্বে আস্থা প্রকাশ করেছেন প্রায় সঙ্গে সঙ্গে৷ সোনিয়ার নিঃসঙ্কোচ সমর্থন ভূতের রাজার বর হয়ে বরাবর রক্ষাকবচের কাজ করে গিয়েছে মনমোহন সিংয়ের ক্ষেত্রে৷ গল্পের রাক্ষসীর প্রাণ-ভোমরাটি যে রকম শরীরের বাইরে লুকোনো কৌটোয় গচ্ছিত থাকত, মনমোহনের প্রধানমন্ত্রিত্বের প্রাণ-ভোমরাটিও সেই রকম গচ্ছিত ছিল দশ নম্বর জনপথে রাখা সিন্দুকে৷




এই বিষয়টি মাথায় রাখলেই প্রধানমন্ত্রী হিসেবে মনমোহনের ব্যর্থতা ও দুর্বলতার রহস্যটির সম্যক উন্মোচন হয়৷ বিদেশিনীর ইস্যুতে বিজেপি-র পাল থেকে হাওয়া কেড়ে নিতে ২০০৪-এর লোকসভা ভোটের পরে প্রধানমন্ত্রিত্ব প্রত্যাখ্যান করেছিলেন সনিয়া৷ ঠিক সে সময় সক্রিয় রাজনীতি থেকে পাকাপাকিভাবে অবসরের কথা ভাবছিলেন মনমোহন, ইতি-উতি চাকরির অনুসন্ধানও করছিলেন৷ সেই ভোটের আগে নিজের বাড়িতে একটি নৈশভোজে কয়েক জন সাংবাদিককে ডেকেছিলেন কংগ্রেস সভানেত্রী৷ পাকেচক্রে আমিও সেখানে উপস্থিত ছিলাম৷ নৈশভোজের শামিয়ানার ঢোকার দরজায় জোড় হাত করে দাঁড়িয়েছিলেন মনমোহন৷ বাকি কংগ্রেস নেতারা তো দূরস্থান, তখন তিনিও ভাবেননি, আর কয়েক দিন পরেই গলাবন্ধ লাগিয়ে তাঁকে প্রধানমন্ত্রিত্বের শপথ নিতে পৌঁছতে হবে রাষ্ট্রপতি ভবনের দরবার হলে৷ মনমোহন জানতেন প্রধানত তিনটি কারণের জন্য সোনিয়া এত নেতার মধ্যে তাঁকেই মনোনীত করেছেন- সততা, নিঃশর্ত আনুগত্য এবং রাজনৈতিক উচ্চাশাহীনতা৷ দশ বছরে প্রতিটি দিন এই তিনটি গুণের প্রমাণ দিয়ে গিয়েছেন মনমোহন সিং৷




প্রশ্ন উঠতেই পারে, হুকুমবরদারের এই ভূমিকা তিনি স্বীকার করলেন কেন? এমনতরো পন্ডিত মানুষটির তা হলে কি আত্মসম্মানজ্ঞানই ছিল না? রাজনীতিতে, বিশেষ করে কংগ্রেসের দলীয় রাজনীতিতে (ইদানীং অবশ্য সব দলের ক্ষেত্রেই বিষয়টি সত্য) অবশ্য এই সব প্রশ্ন তোলাই অবান্তর৷ নেত্রীর কৃপা পাওয়ার লড়াইটাই যে দলে দস্ত্তর সেখানে আত্মমর্যাদাবোধ নিয়ে নিজের স্বাতন্ত্র্য বা ইচ্ছা-অনিচ্ছা প্রতিষ্ঠিত করার চেষ্টা আত্মহননেরই সমতুল৷ এই পরিপ্রেক্ষিতটি মাথায় রাখলে ভবিষ্যতের ইতিহাস বোধ হয় মেরুদন্ডহীনতার জন্য প্রাক্তন প্রধানমন্ত্রীর প্রতি ততটা নির্দয় হবে না৷ এক দিকে কোয়ালিশনের বাধ্যবাধকতা, অন্য দিকে নেত্রীর ইচ্ছা-অনিচ্ছা সম্পর্কে সতত স্পর্শকাতরতা, এই দু'য়ের মাঝখানে পড়ে তাঁকে যে ৩৬৫০টি দিন ট্র্যাপিজের সরু দড়ির ওপর দিয়ে হাঁটতে হয়েছে, এ কথা তো অনস্বীকার্য!




দিল্লিতে আম আদমি পার্টির অভ্যুত্থান ও রমরমার বাজারে রাজনীতবিদের সততা ফের চলে এসেছে দৈনন্দিন আলোচনায়৷ অথচ মনমোহন সিংয়ের দুর্ভাগ্য, তাঁর দুর্বলতাগুলিকে মিডিয়া ও কংগ্রেস বিরোধীরা প্রতিনিয়ত বড়ো করে দেখাচ্ছে, অথচ তাঁর এই দুর্লভ ব্যক্তিগত সততার বিষয়টিকে কেউ ধর্তব্যের মধ্যেই আনতে চাইছে না৷ এমনকী প্রধানমন্ত্রী হিসেবে তৃতীয় সাংবাদিক বৈঠকে তিনি যখন বলেছেন, 'প্রধানমন্ত্রী হিসেবে আমি কোনও দিন স্বজন-পোষণ করিনি, আমার আত্মীয়-পরিজন বা পরিচিতদের এক ছটাকও বাড়তি সুবিধে নিতে দিইনি', এই সত্যটিও তেমন গুরুত্ব পায়নি ছিদ্রান্বেষী মিডিয়ায়৷ মন্ত্রীর কুর্সি ব্যবহার করে লাগামছাড়া দুর্নীতি আর স্বজন-পোষণই যে দেশে রাজনীতির অন্য নাম তার মধ্যে দেশের সর্বোচ্চ পদে এতগুলি বছর কাটিয়েও সম্পূর্ণ নিষ্কলুষ থাকতে পারাটা একেবারেই কম কৃত্বিত্বের বিষয় নয়৷ বফর্স কেলেঙ্কারির মতো কোনও কেলেঙ্কারিতে তাঁর নাম জড়ায়নি, পুত্র, কন্যা অথবা জামাতার কারণে তাঁকে এক দিনের জন্যও বিড়ম্বনায় পড়তে হয়নি৷


প্রধানমন্ত্রিত্বের মোহ থেকে তিনি মুক্ত ছিলেন এ কথা যেমন বলা যাবে না তেমনই এ কথাও বলতে হবে পার্থিব অন্য কোনও মোহ বা প্রাপ্তিযোগ তাঁকে বেপথু করতে পারেনি৷ আবার পূর্বসূরি বিশ্বনাথ প্রতাপ সিংহের মতো ব্যক্তিগত সততাকে বুক পকেটের ব্যাজ বানিয়েও কোনও দিন ঘুরে বেড়াননি মনমোহন৷ চোর-ডাকাত-লুটেরাদের দেশে সাম্প্রতিক ভারতীয় রাজনীতির তিনিই বোধ হয় একমাত্র সদাচারী যুধিষ্ঠির৷




১৯৯১ সালে হঠাত্‍ দেশের অর্থমন্ত্রী হয়ে যাওয়ার আগে সারাটা জীবন হয় শিক্ষকতা নয় আমলাগিরি করেছেন মনমোহন৷ প্রধানমন্ত্রী হওয়ার পরেও সেই মজ্জাগত অভ্যাস ও প্রশিক্ষণের ঊর্ধ্বে নিজেকে তিনি নিয়ে যেতে পারেননি৷ অন্য ভাবে বলতে গেলে মনমোহন সিং কোনও দিন নেতা ছিলেন না, নেতা হওয়ার চেষ্টাও করেননি৷ নিজের দুর্নাম ঘোচাতে প্রণব মুখোপাধ্যায় পর্যন্ত বারেবারে লোকসভার ভোটে লড়েছেন এবং শেষ দু'বার সসম্মানে জিতেছেন৷ ১৯৯৯-এর লোকসভা ভোটে দিল্লিতে একবার হেরে যাওয়ার পরে জনতার দরবারে যাওয়ার আর কোনও চেষ্টাই করেননি তিনি৷ স্বাধীনতা উত্তর ভারতের ৬৬ বছরের ইতিহাসে মনমোহনই একমাত্র প্রধানমন্ত্রী যিনি বরাবর রাজ্যসভার সদস্য৷ এতে হয়তো নিয়মের অন্যথা হয় না, কিন্ত্ত গণতন্ত্রের আত্মা ক্ষতিগ্রস্ত হয় ঠিকই৷ রাহুল গান্ধীর অভিষেক পর্যন্ত নিজের পদটিকে রক্ষা করাটাই ছিল প্রধানমন্ত্রিত্বের অঘোষিত লক্ষ্য৷ সেই লক্ষ্য তিনি পূর্ণ করেছেন মুঘল আমলের বৈরাম খানের মতোই৷




মনমোহনের ব্যর্থতাকে সুতরাং প্রধানমন্ত্রীর একার ব্যর্থতা হিসেবে দেখাটা বোধ হয় সত্য ও তথ্যের অপলাপ হয়েই দাঁড়াবে৷ সামগ্রিক ভাবে এটা কংগ্রেস দলের ব্যর্থতা, কংগ্রেস নেতৃত্বের ব্যর্থতাও৷ সোনিয়া, রাহুল গান্ধী সহ বাকি সবাইকে বাদ দিয়ে বেঁড়ে ব্যাটাকে ধরার মতো একমাত্র মনমোহন সিংকে কাঠগড়ায় তোলাটা অবশ্যই একদেশদর্শী ও ইতিহাসের ভ্রান্ত সরলীকরণ৷ দলীয় নেতৃত্ব যখন পরিণতির তোয়াক্কা না করে তাঁর পিছনে দাঁড়িয়েছে তখনই মনমোহন সাহসী সিদ্ধান্ত নিতে পেরেছেন অক্লেশে৷ ভারত-মার্কিন পরমাণু চুক্তি তার সর্বোত্‍কৃষ্ট উদাহরণ৷ আবার খাদ্য নিরাপত্তা নিশ্চিত করার লক্ষ্যে সরকারকে গৌরী সেন বানাতে সোনিয়া যখন জেদ ধরেছেন, বিশ্বাস এবং দেশের অর্থনৈতিক বাস্তবতাকে উপেক্ষা করে নেত্রীর আদেশ শিরোধার্য করতে হয়েছে তাঁকে৷ দ্বিতীয়টি সত্য হলে প্রথমটিও সত্যি৷ পায়ে পড়ানো বেড়ি যখনই আলগা হয়েছে মনমোহন দেখিয়ে দিয়েছেন তিনিও চালিয়ে খেলতে পারেন৷ আবার যখন আলগা হয়নি, তিনি থেকেছেন জো-হুজুর৷ ১৯৯১ সালে খাদের মুখ থেকে দেশের অর্থনীতিকে মনমোহন বাঁচাতে পেরেছিলেন প্রধানত পি ভি নরসিংহ রাওয়ের সৌজন্যে৷ তখন তাঁকে সেই স্বাধীনতাটুকু দিয়েছিলেন মরিয়া প্রধানমন্ত্রী৷ পরিপ্রেক্ষিত ভিন্ন হলেও সোনিয়া বা দলের কাছ থেকে প্রধানমন্ত্রী হিসেবে মনমোহন কি সেই স্বাধীনতা সত্যিই পেয়েছেন? ইতিহাসের দ্বারস্থ হওয়ার কথা বলতে চেয়ে প্রধানমন্ত্রী আসলে নিজের সেই বিষাদ আর অভিমন্যু দশার কথাই বোধ হয় বলতে চেয়েছেন৷




যে সময় মনমোহন অর্থমন্ত্রীর দায়িত্ব নিয়েছিলেন তখন ভারতের জনসংখ্যা ছিল চুরাশি কোটি আর গোটা দেশে টেলিফোন লাইন ছিল মাত্র পঞ্চাশ লাখ৷ প্রায় দেউলিয়া অবস্থায় পৌঁছেছিল দেশ, ভাণ্ডারে জমা ছিল মাত্র এক বিলিয়ন ডলার৷ পাঞ্জাবে সন্ত্রাসের আগুন তখনও ধিকি ধিকি জ্বলছে, কাশ্মীর উপত্যকায় পুুরোদমে শুরু হয়ে গিয়েছে বিচ্ছিন্নতাবাদী আন্দোলন৷ দশ বছর আগেও দেশের রাজনীতিতে যাদের গুরুত্ব ছিল নেহাতই প্রান্তিক, সেই হিন্দুত্ববাদীরাই তখন স্ফীতকায় চেহারা নিয়ে সংসদে প্রধান বিরোধী দলের আসনে৷ ভাঙনের মুখে সোভিয়েত ইউনিয়ন, বর্হিবিশ্বে ভারতের একমাত্র রক্ষাকর্তা৷ একটি কম্পিউটার আমদানি করার জন্যও তখন যে কোনও ব্যবসায়ীকে অপেক্ষা করতে হত তিন-তিনটি বছর, অন্তত পঞ্চাশ বার যেতে হত দিল্লিতে৷ প্রায় একই সময় লাগত একটি টেলিফোন লাইন পেতেও৷ ভ্যাকুয়াম ক্লিনার তৈরি করার জন্যও প্রয়োজন হত লাইসেন্সের, কোকা কোলাতে চুমুক দেওয়াটাও ছিল বে-আইনি৷ সেই ভারতবর্ষের সঙ্গে ২০১৪ সালের ভারতবর্ষের আদৌ কোনও মিল আছে কি? যদি না থাকে তা হলে তার সিংহভাগ কৃতিত্ব দাবি করতে পারেন ওই স্বল্পবাক, সজ্জন সর্দারজিই৷ সমকালীন মিডিয়া বা বিরোধী দলগুলি যাই বলুক, এ দেশের রূপান্তরের প্রধান স্থপতি ওই মনমোহন সিংই৷ সবার ঊর্ধ্বে এই সত্যটিকে ইতিহাস অবজ্ঞা করতে পারবে কি?




তখন মনমোহন পেরেছিলেন কেননা আর এক জন এর রাজনৈতিক খেসারত দিতে প্রস্ত্তত ছিলেন৷ ১৯৯৫ সালের মধ্যেই নাটকীয় রদবদল ঘটে গিয়েছিল দেশের অর্থনীতির মানচিত্রে৷ তবু ১৯৯৬ সালের লোকসভা ভোটে গো-হারান হেরে গিয়েছিল কংগ্রেস৷ ২০১৪তেও হারবে৷ সস্তা জনপ্রিয়তার স্রোতের বিরুদ্ধে এবার মনমোহন দাঁড় টানলেন না বা টানতে পারলেন না, এটাই দুঃখের৷

http://eisamay.indiatimes.com/editorial/post-editorial/post-edit/articleshow/28541954.cms


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