THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, March 18, 2013

विकास का पैमाना

Monday, 18 March 2013 11:27
विकास का पैमाना

जनसत्ता 18 मार्च, 2013: हाल ही में 'फोर्ब्स' पत्रिका ने दुनिया के जिन अरबपतियों की सूची जारी की, उनमें पचपन भारतीयों के नाम थे और अमेरिका, चीन, रूस और जर्मनी के बाद भारत पांचवें स्थान पर रहा। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ताजा मानव विकास रिपोर्ट में भारत को दुनिया के एक सौ सत्तासी देशों में एक सौ छत्तीसवें पायदान पर जगह मिली। दो साल पहले इसी सूचकांक में भारत को एक सौ चौंतीसवां स्थान मिला था। यानी हालात सुधरने के बजाय और बिगड़े हैं। संयुक्त राष्ट्र किसी भी देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रतिव्यक्ति आय, लैंगिक विषमता, पर्यावरण और लोगों के जीवन स्तर को कसौटी मान कर मानव विकास सूचकांक जारी करता है। लेकिन हर अगले साल देश में अरबपतियों की तादाद में इजाफे के बरक्स इस मामले में आम लोगों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पा रहा है तो इसकी क्या वजहें हैं? हालांकि भारत ने औसत आयु, स्कूली पढ़ाई-लिखाई और प्रतिव्यक्ति आय में बढ़ोतरी दर्ज कराई है, लेकिन यह प्रगति इतनी कम है कि इस बार भी भारत को दक्षिण एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों के आसपास ही जगह मिली है। 
गुणवत्ता के पैमाने पर शिक्षा की सच्चाई कई सरकारी या गैर-सरकारी संस्थाओं के अध्ययनों में सामने आती रही है। इसी तरह, प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा तय करते वक्त दो लोगों की आमदनी में जमीन-आसमान का अंतर छिप जाता है। ग्रामीण इलाकों में रोजगार गारंटी योजना से हालात में कुछ सुधार हुआ, मगर सभी जानते हैं कि बीते कुछ सालों में आर्थिक मंदी की वजह से ज्यादातर लोगों की आमदनी लगभग ठहरी रही, वहीं बाजार में जरूरी वस्तुओं की कीमतें बढ़ती गर्इं। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही बहुत सारे लोगों को अपने रोजमर्रा के खर्चों में कटौती करने को मजबूर होना पड़ा। औसत आयु में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन तथ्य यह भी है कि बेहतर चिकित्सा सुविधाएं सिर्फ अच्छी आर्थिक हैसियत वाले लोगों तक सिमट कर रह गई हैं। यह बेवजह नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन-स्तर की कसौटी पर तय किए जाने वाले बहुआयामी गरीबी सूचकांक में भारत को औसतन 0.283 अंक मिले, जो बांग्लादेश और पाकिस्तान से मामूली बेहतर है। स्त्री-पुरुष समानता, प्रजनन स्वास्थ्य, महिलाओं के सशक्तीकरण और राजनीतिक-आर्थिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी के मामले में भारत को एक सौ अड़तालीस देशों में एक सौ बत्तीसवें स्थान पर जगह मिली।

संसद में लगभग ग्यारह फीसद प्रतिनिधित्व, माध्यमिक या उच्च शिक्षा तक केवल साढ़े छब्बीस फीसद महिलाओं की पहुंच, श्रम बाजार में स्त्रियों की बेहद कम भागीदारी और प्रसव के बाद महिलाओं की मृत्यु-दर के आंकड़े देखते हुए यह अप्रत्याशित नहीं लगता है। आज भी दुनिया भर में कुपोषण के चलते मरने वाले बच्चों की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है। वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल उनासी देशों में भारत पैंसठवें, यानी रवांडा जैसे बेहद गरीब देश से भी आठ पायदान नीचे खड़ा है। यही नहीं, इस मामले में देश की हालत पिछले पंद्रह सालों में और बदतर हुई है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने संसद में विपक्ष की आलोचना का जवाब देते हुए अपनी सरकार के कार्यकाल में ऊंची विकास दर का हवाला दिया। पर हर साल आने वाली संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि ऐसे दावों के बरक्स आम लोगों की क्या हालत है। विडंबना यह है कि हमारे नीति नियंता इस विरोधाभास को दूर करने के लिए तनिक चिंतित नहीं दिखते।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40904-2013-03-18-05-58-17

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