THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, June 29, 2013

कैसे घटे गरीबी

कैसे घटे गरीबी


देश में तकरीबन 30 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता, जबकि सरकारी गोदामों में हर साल साठ हजार करोड़ रुपए का अनाज सड़ रहा है. गरीब तबके के बच्चों और महिलाओं में कुपोषण अत्यंत निर्धन अफ्रीकी देशों से भी बदतर है. कुपोषण और भुखमरी की वजह से लोगों का शरीर कई बीमारियों का घर बनता जा रहा है...

अरविंद जयतिलक


http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4131-kaise-ghate-gareebi-by-arvind-jaitilak-for-janjwar


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के मुताबिक देश के ग्रामीण इलाकों में सबसे निर्धन लोग औसतन 17 रुपए और शहरों में 23 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं. यह तथ्य न केवल चिंताजनक है, बल्कि गरीबी कम होने की उम्मीद पर भी एक करारा झटका है.

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सर्वे में कहा गया है कि 2011-12 के दौरान देश की 5 फीसद सबसे गरीब आबादी का औसत मासिक प्रति व्यक्ति खर्च (एमसीपीई) ग्रामीण क्षेत्रों में 521.44 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 700.50 रुपए रहा. सर्वे के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर औसतन प्रति व्यक्ति मासिक खर्च ग्रामीण इलाकों में 1,430 रुपए और शहरी इलाकों में 2,630 रुपए बताया गया है.

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो शहरी इलाकों में औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च, ग्रामीण इलाकों के मुकाबले 84 फीसद अधिक है. यह अंतर कई तरह का संकेत देता है. मसलन गरीबों की संख्या में अपेक्षित कमी नहीं आयी है और न ही समावेशी विकास को पंख लगे हैं.

वर्ष 1993-94 और 2004-05 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट को देखें तो बहुत चीजें स्पष्ट हो जाती हैं. वर्ष 1993-94 में देश में निर्धनों की संख्या 32.03 करोड़ थी, जिसमें 24.40 करोड़ निर्धन ग्रामीण क्षेत्रों में और शेष 7.63 करोड़ शहरी क्षेत्रों में थे. इसी तरह 2004-05 में निर्धनों की संख्या 30.17 करोड़ थी, जिसमें 22.09 करोड़ निर्धन ग्रामीण क्षेत्रों में और 8.08 करोड़ शहरी क्षेत्रों में थे.

एक दशक में सिर्फ दो करोड़ निर्धनों की संख्या में कमी आयी है. विडंबना यह कि शहरी क्षेत्रों में निर्धनों की संख्या बढ़ी है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि आर्थिक सुधारों और तमाम योजनाओं के बाद भी निर्धनों की संख्या में कोई खास कमी नहीं आयी है, जबकि एक अरसे से देश में गरीबी उन्मूलन के लिए सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना, अत्योदय अन्न योजना और मनरेगा जैसी अनगिनत योजनाएं चलायी जा रही हैं.

बावजूद इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं तो मतलब साफ है कि गरीबी उन्मूलन से जुड़ी योजनाएं भ्रष्टाचार का शिकार बन चुकी हैं, लेकिन यह एकमात्र कारण नहीं है. गरीबों की वास्तविक संख्या और गरीबी निर्धारण का स्पष्ट पैमाना न होना भी गरीबी उन्मूलन की राह में जबरदस्त बाधा है. भारत में अनेक अर्थशास्त्रियों एवं संस्थाओं ने गरीबी निर्धारण के अपने-अपने पैमाने बनाए हैं.

योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ दल 'टास्कफोर्स आॅन मिनीमम नीड्स एंड इफेक्टिव कंजम्पशन डिमांड' की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन और शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2100 कैलोरी प्रतिदिन प्राप्त नहीं होती है, उसे गरीबी रेखा से नीचे माना गया है, जबकि डीटी लाकड़ावाला फार्मूले में शहरी निर्धनता के आकलन के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और ग्रामीण क्षेत्रों में इस उद्देश्य के लिए कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य को सूचकांक बनाया गया है.

गरीबों की संख्या को लेकर दोनों के आंकड़े भी अलग-अलग हैं. मगर सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर 2400 कैलोरीयुक्त पौष्टिक भोजन हासिल करने के लिए कितने रुपए की जरूरत पड़ेगी. इसे लेकर कोई स्पष्ट राय नहीं है. खुद योजना आयोग भी भ्रम में है. पिछले वर्ष उसने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा कि शहरी क्षेत्र में 32 रुपए और और ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 26 रुपए मूल्य से कम खाद्य एवं अन्य वस्तुओं का उपभोग करने वाले व्यक्ति ही गरीब माने जाएंगे.

उसके मुताबिक दैनिक 129 रुपए से अधिक खर्च करने की क्षमता रखने वाला चार सदस्यों का शहरी परिवार गरीब नहीं माना जाएगा. यहां यह भी जानना जरूरी है कि इससे पहले आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र में 17 रुपए और शहरी इलाकों में 20 रुपए में आसानी से 2400 कैलोरीयुक्त पौष्टिक भोजन हासिल किया जा सकता है. तब न्यायालय ने उसे जमकर फटकार लगायी थी.

सवाल आज भी जस का तस बना हुआ है कि 32 और 26 रुपए में 2400 कैलोरीयुक्त भोजन कैसे हासिल किया जा सकता है. अगर इतने कम पैसों में ही लोगों को पौष्टिक आहार मिल जाता तो फिर वे कौन-सी वजहें हैं जिससे देश में भुखमरी और कुपोषण की समस्या गहराती जा रही है. एक तथ्य यह भी है कि गरीबी के कारण मौत का सामना करने वाले विश्व के संपूर्ण लोगों में एक तिहाई संख्या भारतीयों की है.

देश में तकरीबन 30 करोड़ से अधिक लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता, जबकि सरकारी गोदामों में हर साल साठ हजार करोड़ रुपए का अनाज सड़ जा रहा है. आंकड़े बताते हैं कि गरीब तबके के बच्चों और महिलाओं में कुपोषण अत्यंत निर्धन अफ्रीकी देशों से भी बदतर है. भारत के संदर्भ में इफको की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि कुपोषण और भुखमरी की वजह से देश के लोगों का शरीर कई तरह की बीमारियों का घर बनता जा रहा है.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति शर्मिंदा करने वाली है. 119 विकासशील देशों में उसे 96वां स्थान प्राप्त है. गौरतलब है कि सूची में स्थान जितना नीचा होता है सम्बन्धित देश् भूख से उतना ही अधिक पीडि़त माना जाता है. पिछले महीने विश्व बैंक ने 'गरीबों की स्थिति' नाम से जारी रिपोर्ट में कहा कि दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग गरीबी से जूझ रहे हैं जिनमें से एक तिहाई संख्या भारतीयों की है.

रिपोर्ट के मुताबिक निर्धन लोग 1.25 डालर यानी 65 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं. सवाल यह भी है कि जब विश्व बैंक 65 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर करने वाले लोगों को गरीब मान रहा है, तो 32 रुपए रोजाना पर जीवन निर्वाह करने वाले लोगों को योजना आयोग अमीर कैसे मान सकता है.

राष्ट्रीय मानव विकास की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो कि पिछले कुछ वर्षों में देश में निर्धनता बढ़ी है. लेकिन मजे की बात यह कि कैपजेमिनी और आरबीसी वेल्थ मैनेजमेंट द्वारा जारी विश्व संपदा रिपोर्ट (2013) में कहा गया है कि भारत में करोड़पतियों की संख्या में 22.2 फीसद का इजाफा हुआ है. यह इस बात का संकेत है कि देश में विकास की गति असंतुलित है और योजनाओं का लाभ समाज के अंतिम छोर तक नहीं पहुंच पा रहा है.

दरअसल इसकी कई वजहें हैं. एक तो गरीबों की संख्या को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है और न ही गरीबी निर्धारण करने का व्यावहारिक पैमाना. सरकार इन दोनों को दुरुस्त करके ही लक्ष्य को साध सकती है. निश्चित रूप से गरीबों के कल्याणार्थ चलाए जा रहे सभी कार्यक्रमों के उद्देश्य पवित्र है, लेकिन उसके क्रियान्वयन में ढेरों खामियां हैं. इन्हें दूर करके ही गरीबी उन्मूलन किया जा सकता है.

सर्वविदित है कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के अंतर्गत आवंटित धनराशि तथा खाद्यान्न भ्रष्ट नौकरशाही-ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों की भेंट चढ़ रहा है. इसमें सरकार को सुधार लाना होगा. इसके अलावा सरकार को भूमि सुधार की दिशा में भी आगे बढ़ना होगा. आज आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की भूमि खनन कंपनियों को आवंटित की जा रही है, नतीजतन आदिवासियों को अपने मूल क्षेत्र से विस्थापित होना पड़ रहा है. यह सही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ऊसर और बंजर जमीन के पट्टे भूमिहीनों में बांटे गए हैं, लेकिन भू-जोत सीमा का दोषपूर्ण क्रियान्वयन गरीबों का कोई बहुत भला नहीं कर सका है.

आमतौर पर माना गया कि मनरेगा के क्रियान्वयन से गरीबी में कमी आएगीख् लेकिन इससे भी निराशा हाथ लगी है. गांवों से पलायन जारी है और शहरों पर दबाव बढ़ता जा रहा है. दूसरी तरफ कल-कारखानों और उद्योग-धंधों में वृद्धि नहीं हो रही है. सरकार को चाहिए कि गरीबी के लिए जिम्मेदार विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से विचार करे और उसके उन्मूलन के लिए कारगर रोडमैप तैयार करे. आंकड़ों में गरीबों की संख्या कम दिखाने मात्र से इस समस्या का अंत होने वाला नहीं है.

arvind -aiteelakअरविंद जयतिलक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.

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