फारवर्ड प्रेस का ताज़ा अंक (कँवल भारती) 'फारवर्ड प्रेस' के ताज़ा अंक (जून 2013) में राजनीतिक रपटें पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि उसकी सम्पादकीय नीति नरेंद्र मोदी और भाजपा के समर्थन में हो गयी है. हालाँकि उनके कर्नाटक, बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के जातिवादी विश्लेषण पूरी तरह गलत हैं. फिर भी अगर नेता की जाति ही फारवर्ड प्रेस की नजर में 'बहुजन अवधारणा' का मुख्य आधार है, (जो मुझे लग भी रहा है) और वैचारिकी महत्वपूर्ण नहीं है, तो ऐसी बहुजन अवधारणा पिछडों के लिये भले ही कोई अर्थ रखती हो, दलित आन्दोलन के तो मूल पर ही कुठाराघात है. केरल के श्रीनारायण गुरु मठ में नरेन्द्र मोदी गये, इसकी प्रशंसा करने के बजाय मोदी ने वहाँ जो भाषण दिया, उस पर चर्चा क्यों नहीं की गयी, जो पूरी तरह हिन्दुत्व का अजेंडा था? यह कहने का क्या मतलब है—"कर्नाटक की चुनावी जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, दक्षिण के गैर-ब्राह्मण समुदाय द्वारा नरेन्द्र मोदी को अपना हमदम स्वीकार करना." (पृष्ठ 14) यह तो सीधे-सीधे मोदी का एजेंट बनना हुआ. समाचार विश्लेषण के लिए तो बहुत से अखबार हैं, जो इस काम को बहुत अच्छी तरह से कर रहे हैं. फारवर्ड प्रेस को हम एक ऐसी पत्रिका के रूप में देख रहे थे, जो एक वैचारिकी का निर्माण करने के मकसद से निकल रही है. पर अब लगता है कि यह हमारी गलत सोच थी. यह जातिवादी पत्रिका है और इसका मकसद पिछड़ी जातियों को उत्साहित करना है, भले ही उनकी विचारधारा ब्राह्मणवादी हो. फारवर्ड प्रेस ने इस अंक में "डिक्की" की भी एक रिपोर्ट छापी है, जो दलितों में एक नया शोषक पूंजीवादी वर्ग के रूप में उभर रहा है. उसने हरियाणा सरकार की तारीफ के पुल बाँध दिये, पर हरियाणा सरकार के मंत्री से यह तक नहीं पूछा कि हरियाणा में दलितों पर सर्वाधिक अत्याचार क्यों हो रहे हैं? भई, मैंने तो इस पत्रिका से अपने आप को अलग कर लिया.
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