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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, June 28, 2013

उत्तराखंड त्रासदी: वो क्या करें जिनकी हथेली पर मुकद्दर बर्बादी लिखकर चली गई

उत्तराखंड त्रासदी: वो क्या करें जिनकी हथेली पर मुकद्दर बर्बादी लिखकर चली गई


उत्तराखंड की बर्बादियों में बच गए लोग न सो पा रहे हैं और न चैन से जी पा रहे हैं. रह-रहकर उनकी आंखों में वो मंजर कौंध जाता है. सबसे बुरा हाल उन लोगों का है जो वहीं के रहने वाले थे और अब उनका न घर बचा न गांव.

देहरादून के अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी तीन साल की एक बच्ची की आंखों में उतरा हुआ दर्द सुनने वाले को गौरीकुंड से गंगासागर तक बहा ले जाएगा. तीन दिनों तक मलबे में दबी रही. दोनों पैर टूटे हुए, बदन खरोंचों से भरा हुआ और आखों में उतरी याचना दिल की तलहटी को चीरकर रख देगी.

बद्रीनाथ में लोगों की कतारों की श्रृंखलाएं भोर के इंतज़ार में पूरी रात गुज़ार देती हैं. सुबह दोपहर में बदल जाती है, दोपहर शाम बन जाती और शाम फिर रात में बदल जाती है लेकिन न दिल की आस टूटती है और न आंखों से जीने की प्यास रूठती है.

कहा जा रहा है कि पहले बीमारों को निकाला जाएगा, फिर बुजुर्गों को, इसके बाद औरतों को और फिर बाक़ियों को. इस व्यवस्था में बदइंतज़ामी और बेबसी के रंग को मिला दिया जाए तो टीस की तरंगें आसमान के कैनवस तक फैल जाती हैं.

राजस्थान के बूंदी के रहने वाले अस्मित ने बताया, 'जो भी हेलीकॉप्टर आ रहा है वीआईपी को पर्ची बना के दे रहे हैं. आज टोकन बना हुआ है पर नंबर नहीं आता है. उत्तराखण्ड सरकार कुछ नहीं करती.'

जो परदेस से आए थे वो तो लौट गए. लेकिन वो क्या करें जो अपने गांव में बैठे थे और मुकद्दर हथेली पर बर्बादी लिखकर चली गई. कुछ लोग केदारनाथ मंदिर के पास पूजा के सामान की दुकान लगाते थे लेकिन उस दिन जल की जमींदारी जीवन को ही बहा ले गई. 28 साल के हर्षवर्द्धन अपने पीछे पत्नी, दो बच्चों और माता-पिता को छोड़कर काम पर गए थे लेकिन अब वो कभी वापस नहीं लौटेंगे.

21 साल का लक्ष्मण, 16 साल का सुमित, 21 साल का प्रमोद, 23 साल का गौरव, 17 साल का योगेंद्र. अब ये नाम परिवार के लिए दफन इंतज़ार का दर्द बन गए हैं. वार्ते सिंह राणा की नज़रें नाश के उन नज़ारों का बाइस्कोप बन जाती हैं.

उत्तराखंड के दर्जनों गांवों में हज़ारों ज़िंदगियां हिली हुई ज़मीन पर हौसले की रोशनाई से नई ज़िंदगी में नूर भर रही हैं. ये वो स्याही है जो संघर्ष की पतीली पर बनती है. बिखराव के विरुद्ध, बेचारगी के विरुद्ध और बर्बादी के विरुद्ध. ये स्याही सारी चीज़ों को फिर से सही-सही जगह रख देगी. उम्मीद इसी सुनहरी चिड़िया का नाम है.

जितने चेहरे दर्द की उतनी कहानियां
सबसे बुरा हाल है उन कुनबों का है जिनमें से आधे बचे और आधे छूट गए. अब उन घरों में मातम है और आंखों में अपने चाहने वालों की वापसी का इंतज़ार. ये इंतज़ार कब ख़त्म होगा कुछ पता नहीं.

बाड़मेर का हेमराज अपने घऱ लौट तो आया है लेकिन दिल की दहशत अपने साथ लेकर. पूरा गांव चार धाम की यात्रा पर गया था. 40 किलोमीटर पहले मौसम ख़राब हो गया. गुरुद्वारे में रात गुज़ारी. अगली सुबह वापस लौटने के लिए निकले. लेकिन दस मिनट बाद ही देखा कि दुनिया उजड़ती जा रही है.

हेमराज ने बताया, 'दस मिनट बाद गुरुद्वारा और दर्जनों लोग पानी में बह गए. उसके बाद तो हमनें सैकड़ों लाशें पानी में बहती हुई देखीं. हेमराज के लिए समय अभी भी वहीं का वहीं ठहरा हुआ है. गिरते हुए मकान, बहती हुई लाशें और बर्बाद होती बस्तियां. रात में चार-पांच बार हेमराज की नींद खुलती है, बार-बार याद आता है.

ऐसे ही एक शख्‍स हैं अहमदाबाद के दिनेशभाई चौहान. इनका पूरा परिवार लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करने गया था लेकिन जब पानी आया तो पैरों तले की ज़मीन खिसक गई. नरेंद्र मोदी के दावे कुछ भी हों लेकिन दिनेशभाई कहते हैं मदद के इंतज़ार में रहते तो मारे जाते.

बिहार के सहरसा के राजेश्वर प्रसाद का तो घर ही उजड़ गया है. परिवार के सात लोग केदारनाथ गए थे और कोई नहीं लौटा. राजेश्वर प्रसाद की बहू सुधा ने बताया, 'रोज यहां बैठकर दरवाजे पर निराश होकर सुबह शाम बिता देते हैं मगर वो लौट कर नहीं आये. इलाके से 11 लोग गए थे लेकिन अब यहां से चीखती हुई आवाजों का डेरा है.

गाजियाबाद के साहिबाबाद से 16 लोग गए थे पुण्य कमाने और सिर्फ 6 लौटे. बाक़ी कब लौटेंगे और लौटेंगे भी या नहीं, कोई नहीं बताता.

जितने चेहरे दर्द की उतनी कहानियां. बेबस आखों में उतरी हुई बर्बादी की वीरानियां. सबने देखा है ज़िंदगी को उजड़ते हुए. अलकनंदा से गंगा तक घटाओं से घाटियों तक उम्मीदों के साये में रूठी हुई ज़िंदगी ज़िंदादिली का इम्तिहान ले रही है. इसमें पास तो पास और फेल तो फेल.

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