THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, August 15, 2014

प्रधान सेवक का 'मेड इन इंडिया' फॉर्मूला

प्रधान सेवक का 'मेड इन इंडिया' फॉर्मूला

अभिषेक रंजन सिंह 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से 15 अगस्‍त को दिए अपने भाषण में जितनी भी बातें कहीं, उनमें एक अहम बात विदेशी कंपनियों के लिए थी कि वे हमारे देश में आएं और यही अपना माल बनाएं, फिर चाहे कहीं भी ले जाकर उसे दुनिया में बेच दें। देश के 65 फीसदी युवाओं के लिए उनका पलटकर संदेश यह रहा कि वे इतना काम करें कि पूरी दुनिया 'मेड इन इंडिया' उत्‍पादों से पट जाए। ज़ाहिर है, 65 फीसदी युवा आबादी के भरोसे विदेशी कंपनियों को भारत में उत्‍पादन का न्‍योता देना यहां के श्रम कानूनों के साथ गहरा जुड़ाव रखता है। प्रधानमंत्री का सीधा आशय यह है कि यहां श्रमिकों की कोई कमी नहीं, बस माल बनाने वाली बाहरी ताकतों की ज़रूरत है। इस न्‍योते की कानूनी और तथ्‍यात्‍मक पृष्‍ठभूमि को समझने के लिए अभिषेक रंजन सिंह की यह त्‍वरित टिप्‍पणी बहुत महत्‍वपूर्ण है जो उन्‍होंने खास जनपथ के लिए भेजी है। 

आख़िरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने वही कियाजिसकी आशंका पहले से लोगों को थी. केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री ने तीन अहम फैसले लिए. सरकार ने सबसे पहले रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी दी. फिर उसने बीमा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति प्रदान की और अब श्रम क़ानूनों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू कर केंद्र सरकार ने लाखों कर्मचारियों और मज़दूरों को हड़ताल पर जाने के लिए विवश कर दिया है. हैरानी की बात यह है कि श्रम क़ानूनों में किए जा रहे संशोधन से पहले सरकार ने केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से इस बाबत बातचीत करना भी मुनासिब नहीं समझा जबकि अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के नियमानुसारसरकार को श्रम क़ानूनों में किसी तरह के संशोधन करने से पहले ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों और कारखाना मालिकों से बातचीत करनी चाहिए.

फ़िलहाल श्रम क़ानूनों में संशोधन संबंधी प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी मिल चुकी है. पिछले दिनों संसद में श्रम मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी श्रम क़ानून संशोधन विधेयक पर चर्चा शुरू कीलेकिन कांग्रेस नेताओं की ओर से इसका विरोध किया गया. वैसे केंद्र सरकार के रुख़ से यह साफ़ हो चुका है कि वह श्रम क़ानूनों में संशोधन करने के इरादे से पीछे नहीं हटेगी. ज़ाहिर हैसरकार के पास स्पष्ट बहुमत है और ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में आर्थिक विकास पर ज़ोर देने की बात कहते रहे हैं. उनका मानना है कि श्रम क़ानूनों में सुधारों के बग़ैर देश में बड़ा निवेश संभव नहीं है. इस मामले में प्रधानमंत्री की दलील चाहे जो हो,लेकिन लाखों मज़दूरों की क़ीमत पर इसका फ़ायदा कॉरपोरेट घरानों को मिलना तय है.

श्रम क़ानूनों में बदलाव के तहत फैक्ट्रीज एक्ट-1948, अप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 और लेबर लॉज एक्ट-1988 में कुल 54 संशोधन किए जा रहे हैं. नए श्रम क़ानूनों के लागू होने के बाद उन कारखाना मालिकों को श्रम क़ानूनों की बंदिशों से छूट मिल जाएगीजहां 40 से कम कर्मचारी काम करते हैं. वैसे अभी 10 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को यह छूट हासिल है. इसके अलावाअप्रेंटिसशिप एक्ट के तहत कंपनी मालिकों को हिरासत में लेने का प्रावधान भी ख़त्म हो जाएगा. सरकार की दलील यह है कि इससे ज़्यादा से ज़्यादा कंपनियों को अप्रेंटिसशिप योजना में शामिल होने में मदद मिलेगी. केंद्र सरकार ने ओवर टाइम ड्यूटी की सीमा भी बढ़ाकर दोगुनी करने का प्रस्ताव किया है. फ़िलहाल तीन महीने में अधिकतम50 घंटों का ओवरटाइम निर्धारित हैजो बढ़कर 100 घंटों का हो जाएगा. फैक्ट्रीज एक्ट-1948में किए जा रहे संशोधनों के बाद कारख़ानों और कंपनियों में महिलाओं को नाइट ड्यूटी करने की छूट मिलेगी. हालांकिसभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें सरकार के इस फैसले का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि कॉल सेंटरों और मल्टीनेशनल कंपनियों में नाइट शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं को वाहन इत्यादि की सुविधाएं मिलती हैंलेकिन छोटे कल-कारख़ानों में इस तरह की सुविधाएं नहीं दी जाती हैं.


Courtesy: Niticentral

हालांकिकर्मचारियों की छंटनी के मामले में कारखाना मालिकों को ज़्यादा अधिकार देने से सरकार फ़िलहाल पीछे हट गई हैक्योंकि इसके ख़िलाफ़ ट्रेड यूनियनों का गुस्सा भड़क सकता है. फ़िलहाल अप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 के तहत किसी भी फैक्ट्री और कंपनी में रखे जाने वाले कुल प्रशिक्षुओं (ट्रेनी) में से पचास प्रतिशत लोगों को नियमित कर्मचारी बनाए जाने का प्रावधान है. ऐसे सभी कर्मचारियों को पीएफ और ईएसआई समेत सभी बुनियादी सुविधाएं देने का प्रावधान है. इसके अलावाकिसी कंपनी में बतौर प्रशिक्षु (ट्रेनी) रखने की अवधि दो साल तक ही निर्धारित है. हालांकिअप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 में संशोधन के बाद कारखानों और कंपनियों में प्रशिक्षुओं का शोषण होना तय हैक्योंकि नए संशोधनों के बाद किसी भी कंपनी में कार्यरत प्रशिक्षुओं में से पचास प्रतिशत लोगों को नियमित रोज़गार देने की पाबंदी हटा दी गई है. इतना ही नहींकर्मचारियों को बतौर प्रशिक्षु दो साल से अधिक नहीं रखने की बाध्यता भी श्रम सुधारों के नाम पर ख़त्म कर दी गई है. देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या हैइसलिए शिक्षित नौजवान कम तनख्वाह पर भी काम करने के लिए मज़बूर हैं. बेरोज़गार युवाओं की मज़बूरियों का फ़ायदा निश्‍चित रूप से कल-कारखानों और अन्य कंपनियों के मालिकान उठाएंगे. श्रम क़ानूनों में नए संशोधनों के बाद अब कोई भी कंपनी अधिक संख्या में युवाओं को बतौर ट्रेनी रखेगीवह भी कम वेतन पर. नए श्रम क़ानूनों का फ़ायदा बड़े अख़बार समूह और समाचार चैनल भी उठाएंगे.

श्रम क़ानूनों में संशोधन समेत कई अन्य मुद्दों पर 7 अगस्त, 2014 को इंटक मुख्यालय में सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के पदाधिकारियों की बैठक हुईजिसमें यह निर्णय लिया गया कि सितंबर के प्रथम सप्ताह में सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय अधिवेशन किया जाएगा. याद रहे कि पिछले साल 20 और 21 फरवरी को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने यूपीए सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ हड़ताल की थी. बावजूद इसके केंद्र सरकार इस पूरे मामले पर ख़ामोश रही. सरकार के इस रवैये से यह कहा जा सकता है कि उसने मज़दूरों के हितों के लिए क़ानून बनाना तो दूरअब उनके विषय में सोचना भी बंद कर दिया है. कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की सुविधाओं से जुड़ी मांगें वर्षों पुरानी हैंलेकिन अफ़सोस की बात यह है कि उनकी मांगों पर सरकार कभी ग़ौर नहीं करती. कॉरपोरेट घरानों का कहना है कि भारत में नई आर्थिक नीतियां तो लागू हो गई हैंलेकिन यहां मौजूद श्रम क़ानून काफ़ी पुराने हैंजो वैश्‍वीकरण के लिहाज़ से सही नहीं हैं. लाल किले से नरेंद्र मोदी के नारे 'मेक इन इंडिया' और 'मेड इन इंडिया' की असली कहानी दरअसल श्रम कानूनों को लेकर कॉरपोरेट घरानों की इसी शिकायत का परिणाम है। 

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