THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, August 17, 2014

वही धमक फिर

अफलातून

 जनसत्ता 15 अगस्त, 2014 : गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में कहा, 'मत भूलिए कि महात्मा गांधी, जिनको हम आज भी अपना पूज्य मानते हैं, जिन्हें हम राष्ट्रपिता मानते हैं,

उन्होंने भी आरएसएस के कैंप में जाकर 'संघ' की सराहना की थी।' 

1974 में 'संघ' वालों ने जयप्रकाशजी को बताया था कि गांधीजी अब उनके 'प्रात: स्मरणीयों' में एक हैं। संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका क्रमांक-2, सितंबर-अक्तूबर, 2003 में अन्य बातों के अलावा गांधीजी के बारे में पृष्ठ 9 पर लिखा गया है: ''देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।'' संघ के कार्यक्रमों के दौरान बिकने वाले साहित्य में 'गांधी वध क्यों?' नामक किताब भी होती है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और समाचार-पत्रों द्वारा दंगों की रिपोर्टिंग की बाबत खुद गांधीजी का ध्यान खींचा जाता रहा और उन्होंने इन विषयों पर साफगोई से अपनी राय रखी। विभाजन के बाद संघ के कैंप में गांधीजी के जाने का विवरण उनके सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक 'पूर्णाहुति' में दिया है। इसके पहले, 1942 से ही संघ की गतिविधियों को लेकर गांधीजी का ध्यान उनके साथी खींचते रहते थे। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ  अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के बारे में प्राप्त एक शिकायत गांधीजी को भेजी और लिखा था कि वे शिकायतकर्ता को नजदीक से जानते हैं, वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं। 

9 अगस्त, 1942 को हरिजन (पृष्ठ: 261) में गांधीजी ने लिखा: ''शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ  अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके तीन हजार सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- 'पहले अंगरेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे, अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।' बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसे ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है। 

''नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा। 

''धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंगरेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंगरेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।'' 

गांधीजी विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ 'करो या मरो' की भावना से  दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। 21 सितंबर '47 को प्रार्थना-प्रवचन में 'हिंदू राष्ट्रवादियों' के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की: ''एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है, यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे, तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे, जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके। यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है। मुझे लगता है, ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं। प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करे। जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं, वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें, मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है, वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी। हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है, मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा।'' 

प्यारेलाल ने 'पूर्णाहुति' में सितंबर, 1947 में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों और गांधी-हत्या का विस्तार से वर्णन किया है। प्यारेलालजी की मृत्यु 1982 में हुई। तब तक संघ द्वारा इस विवरण का खंडन नहीं हुआ था। 

गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे- 'संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।' गांधीजी ने उत्तर दिया- 'पर यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।' उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 'तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था' बताया। (पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ: 17) 

अपने एक सम्मेलन (शाखा) में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता  गोलवलकर ने उन्हें 'हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष' बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ''मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है। पर मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी। हिंदू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। यदि हिंदू यह मानते हों कि भारत में अहिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा- तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा... मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।'' 

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उन२में गांधीजी से पूछा गया- 'क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? यदि नहीं देता, तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?' 

गांधीजी ने कहा- ''पहले प्रश्न का उत्तर 'हां' और 'नहीं' दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आतताई कौन है? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की। यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जाएं, तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे- उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।'' 

तीस नवंबर '47 के प्रार्थना प्रवचन में गांधीजी ने कहा: ''हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिंदुत्व की रक्षा का एकमात्र तरीका उनका ही है। हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से। हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं। उनमें पढ़े-लिखे लोग भी हैं। मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता।'' 

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन (18 नवंबर '47) में उन्होंने कहा, ''मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें। वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी। परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है। इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा... मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे, तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे।... मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है, गांधी? वह जैसा चाहे बकता रहे! यह तो गया बीता हो गया है। जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है। 

''रही बात सरदार पटेल की, सो उसमें कुछ है। वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है। परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा, हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी, न सिख धर्म की। गुरु ग्रंथ साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गई है। ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता। इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं। मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है। हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती। आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा, जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आएगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है।'' 

इन सब बातों को याद करना उस भयंकर त्रासदाई और शर्मनाक दौर को याद करना नहीं है, बल्कि जिस दौर की धमक सुनाई दे रही है उसे समझना है। गांधीजी उस वक्त भले एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी! इस बार हमें पहले से भी बड़ी कीमत अदा करनी होगी।


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