Wednesday, 05 June 2013 09:52 |
सुभाष गाताडे चंूकि गुजरात के अंदर दलितों का एक हिस्सा मोदी के अल्पसंख्यक-विरोधी हिंदुत्व-एजेंडे का ढिंढोरची बना हुआ है, इसलिए वहां पर इसकी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए। उन्होंने मैला ढोने को 'आध्यात्मिक अनुभव' की संज्ञा दिए जाने को मानवद्रोही वक्तव्य कहा। उन्होंने जगह-जगह मोदी के पुतलों का दहन किया। अपनी वर्ण-मानसिकता उजागर होने के खतरे को देखते हुए मोदी ने इस किताब की पांच हजार प्रतियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली। प्रस्तुत प्रसंग के दो साल बाद सफाई कर्मचारियों की एक सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने सफाई कर्मचारियों के काम को मंदिर के पुरोहित के काम के समकक्ष रखा था। उन्होंने कहा ''जिस तरह पूजा के पहले पुजारी मंदिर को साफ करता है, आप भी मंदिर की ही तरह शहर को साफ करते हैं।'' अपने वक्तव्य में मानवाधिकारकर्मी लिखते हैं कि अगर मोदी सफाई कर्मचारियों को इतना सम्मान देते हैं तो उन्होंने इस काम को तीन हजार रुपए की मामूली तनख्वाह पर ठेके पर देना क्यों शुरू किया है? क्यों नहीं इन 'पुजारियों' को स्थायी आधार पर नौकरियां दी जातीं? मनुवादी वक्तव्य देने वाले मोदी आखिर कैसे यह समझ पाएंगे कि गटर में काम करने वाला आदमी किसी आध्यात्मिक कार्य को अंजाम नहीं दे रहा होता, वह अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालता रहता है। दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार की रोकथाम के लिए बने प्रभावशाली कानून 'अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत इलाके के पुलिस अधीक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनुसूचित तबके पर हुए अत्याचार की जांच के लिए कम से कम पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी को तैनात करे। दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में न्याय दिलाने में गुजरात फिसड््डी राज्यों में एक है, जिसकी जड़ में मोदी सरकार की नीतियां हैं। सोलह अप्रैल 2004 को गुजरात विधानसभा में एक प्रश्न के जवाब में मोदी ने कहा था कि ''इस अधिनियम के नियम 7 (1) के अंतर्गत पुलिस उपाधीक्षक स्तर तक के अधिकारी की तैनाती की बात कही गई है और जिसके लिए पुलिस अधीक्षक की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।' इसके मायने यही निकलते हैं कि वह पुलिस सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर हो सकता है। याद रहे कि इसी लापरवाही के चलते, जिसमें दलित-आदिवासियों पर अत्याचार का मामला पुलिस सब इंस्पेक्टर को सौंपा गया, तमाम मामले अदालत में खारिज होते हैं। गुजरात के सेंटर फॉर सोशल जस्टिस ने डेढ़ सौ मामलों का अध्ययन कर बताया था कि ऐसे पंचानबे फीसद मामलों में अभियुक्त सिर्फ इसी वजह से छूटे हैं क्योंकि अधिकारियों ने मुकदमा दर्ज करने में, जाति प्रमाणपत्र जमा करने में लापरवाही बरती। कई सारे ऐसे मामलों में जहां अभियुक्तों को भारतीय दंड विधान के अंतर्गत दंडित किया गया, मगर अत्याचार के मामले में वे बेदाग छूटे। पिछले दिनों जब गुजरात में पंचायत चुनाव संपन्न हो रहे थे तो नाथु वाडला नामक गांव सुर्खियों में आया, जिसकी आबादी बमुश्किल एक हजार थी। लगभग सौ दलितों की आबादी वाले इस गांव के चुनाव 2001 की जनगणना के आधार पर होने वाले थे, जिसमें दलितों की आबादी शून्य दिखाई गई थी। लाजिमी था कि पंचायत में एक भी सीट आरक्षित नहीं रखी गई थी। इलाके के दलितों ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की, वे मोदी सरकार के नुमाइंदों से भी मिले; मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अंतत: गुजरात उच्च न्यायालय ने जनतंत्र के इस मखौल के खिलाफ हस्तक्षेप कर चुनाव पर स्थगनादेश जारी किया। भीमराव आंबेडकर की जयंती के अवसर पर मोदी सरकार की तरफ से गुजरात के तमाम समाचार पत्रों में पूरे पेज के विज्ञापन छपे और यह प्रचारित किया गया कि किस तरह उनकी सरकार दलितों के कल्याण के लिए समर्पित है। यह अलग बात है कि इसकी असलियत उजागर होने में अधिक वक्त नहीं लगा। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46238-2013-06-05-04-23-14 |
Wednesday, June 5, 2013
गुजरात मॉडल में दलित
गुजरात मॉडल में दलित
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