THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, June 5, 2013

गुजरात मॉडल में दलित

गुजरात मॉडल में दलित

Wednesday, 05 June 2013 09:52

सुभाष गाताडे 
जनसत्ता 5 जून, 2013: दलितों के अधिकारों की जानकारी हासिल करने के लिए सूचनाधिकार के तहत डाले गए आवेदन पर जानकारी मिलने में कितना वक्त लगता है? यों तो नियत समय में जानकारी मिल जानी चाहिए, मगर आप गुजरात जाएं तो वहां कम से कम तीन साल का वक्त जरूर लग सकता है और वह भी तब जब आप सूचना हासिल करने के लिए राज्य के सूचना आयोग के आयुक्त का दरवाजा खटखटाने को तैयार हो जाएं। 
पिछले दिनों देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित एक समाचार से यही पता चलता है। मालूम हो कि दलितों के बीच कार्यरत 'नवसर्जन ट्रस्ट' ने जुलाई 2010 में यह आवेदन डाला था कि राज्य में कितने दलित छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती है और उसके लिए भी उसे तीन साल का इंतजार करना पड़ा और तीन साल बाद भी एक जिले- अमदाबाद- के बारे में और वह भी आइटीआइ, विज्ञान, कला, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में अध्ययनरत छात्रों के बारे में था, स्कूलों में अध्ययनरत दलित छात्रों के बारे में अब भी जानकारी हासिल नहीं हो सकी है। 
मगर आधे-अधूरे तरीके से ही, राज्य सरकार ने जो जवाब भेजे हैं उनसे दो बातें स्पष्ट होती हैं: एक, हजारों ऐसे दलित छात्र हैं जिन्हें यह छात्रवृत्ति नहीं मिली है और दलित छात्रों के लिए आबंटित बजट का अच्छा-खासा हिस्सा अन्य कामों में लगाया जा रहा है। उदाहरण के लिए, अकेले अमदाबाद में 3,125 छात्रों को अब भी यह छात्रवृत्ति नहीं मिली है और इस तरह कम से कम तीन करोड़ रुपए सरकार ने अन्य कामों में लगाए हैं। आरटीआइ के तहत मिली जानकारी के मुताबिक जहां 1,613 छात्रों का छात्रवृत्ति के लिए दिया गया आवेदन लटका हुआ है, वहीं कोष की कमी के नाम पर  1,512 छात्रों को छात्रवृत्ति देने से इनकार किया गया है।
मालूम हो कि योजना आयोग ने यह नियम बनाया है कि हर राज्य को दलितों की आबादी के हिसाब से उनके कल्याण के लिए बजट का एक हिस्सा आबंटित करना होगा। अगर बजटीय प्रावधानों को पलटें तो दलितों की लगभग आठ फीसद आबादी वाले इस सूबे में यह प्रतिशत छह से भी कम बैठता है।
दलितों के साथ जारी छल बहुस्तरीय दिखता है। अब बजट में सामाजिक समरसता के नाम पर जारी एक अन्य योजना को देखें। खबर मिली कि गुजरात सरकार की तरफ से पिछले दिनों सफाई कर्मचारियों के लिए बजट में एक विशेष प्रावधान किया गया। इसके अंतर्गत बजट में लगभग 22.50 लाख रुपए का प्रावधान इसलिए रखा गया ताकि सफाई कर्मचारियों को कर्मकांड का प्रशिक्षण दिया जा सके। वैसे इस योजना का एलान करते वक्त गुजरात सरकार इस बात को सहसा भूल गई कि यह उसकी एक पुरानी योजना का ही संशोधित रूप है, जिसके अंतर्गत अनुसूचित तबके के सदस्यों को धार्मिक कार्यों को अंजाम देने के लिए 'गुरुब्राह्मण' का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिस योजना की विफलता पहले ही प्रमाणित हो चुकी है क्योंकि इसमें प्रशिक्षित लोग रोजगार की तलाश में आज भी भटक रहे हैं। 
वैसे इस बात की उम्मीद करना भी बेकार है कि प्रस्तुत योजना का खाका बनाने के पहले जनाब मोदी ने वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत दलितों को उच्चवर्णीय हिंदुओं का मैला ढोने और उन्हें ताउम्र सफाई करने के लिए मजबूर करने वाली सामाजिक प्रणाली को बेपर्द करने वाले आंबेडकर के वक्तव्य को देखा होगा। आंबेडकर के मुताबिक 'अस्पृश्यता की प्रणाली हिंदुओं के लिए सोने की खान है। इस व्यवस्था के तहत चौबीस करोड़ हिंदुओं का मैला ढोने और सफाई करने के लिए छह करोड़ अस्पृश्यों को तैनात किया जाता है, जिन्हें ऐसा गंदा काम करने से उनका धर्म रोकता है। मगर चूंकि यह गंदा काम किया ही जाना है और फिर उसके लिए अस्पृश्यों से बेहतर कौन होगा?'
बहरहाल, 'कर्मकांड प्रशिक्षण' वाली योजना का एलान जब गुजरात सरकार कर रही थी, उन्हीं दिनों सूबे की हुकूमत के दलितद्रोही रवैए को उजागर करती दो घटनाएं सामने आई थीं। पहली थी अमदाबाद से महज सौ किलोमीटर दूर धांडुका तहसील के गलसाना ग्राम के पांच सौ दलितों के कई माह से जारी सामाजिक बहिष्कार की खबर। गांव की ऊंची कही जाने वाली जातियों ने वहां बने पांच मंदिरों में से किसी में भी दलितों के प्रवेश पर पाबंदी लगा रखी थी। राज्य के सामाजिक न्याय महकमे के अधिकारियों द्वारा किए गए गांव के दौरे के बाद उनकी पूरी कोशिश इस मामले को दबाने को लेकर थी। दूसरी खबर थी थानगढ़ में दलितों के कत्लेआम के दोषी पुलिसकर्मियों की चार माह बाद गिरफ्तारी।
मालूम हो कि सितंबर में गुजरात के सुरेंद्रनगर के थानगढ़ में पुलिस द्वारा दलितों पर तब गोलीचालन किया गया था, जब वे इलाके में थानगढ़ नगरपालिका द्वारा आयोजित मेले में दुकानों की नीलामी में उनके साथ हुए भेदभाव का विरोध कर रहे थे। इलाके की पिछड़ी जाति भारवाडों ने एक दलित युवक की पिटाई की थी, जिसको लेकर उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। 
इस शिकायत पर कार्रवाई करने के बजाय पुलिस ने टालमटोल का रवैया अख्तियार किया और जब दलित उग्र हो उठे तो उन पर गोलियां चलाई गर्इं, जिसमें तीन दलित युवाओं की मौत हुई थी। याद रहे दलितों के इस संहार को अंजाम देने वाले सब इंस्पेक्टर केपी जाडेजा को बचाने की पुलिस महकमे ने पूरी कोशिश की थी, दलितों के खिलाफ दंगा करने के मामले भी दर्ज किए गए। अंतत: जब दलितों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तभी चार माह से फरार चल रहे तीनों पुलिसकर्मी सलाखों के पीछे भेजे जा सके थे।

वर्ष 2007 में मोदी की एक किताब 'कर्मयोग' का प्रकाशन हुआ था। आइएएस अधिकारियों के चिंतन शिविरों में दिए मोदी के व्याख्यानों का संकलन इसमें किया गया था। यहां उन्होंने दूसरों का मल ढोने और पाखाना साफ करने के वाल्मीकि समुदाय के 'पेशे' को 'आध्यात्मिकता के अनुभव' के तौर पर संबोधित किया था। उनका कहना था कि ''मैं नहीं मानता कि वे इस काम को महज जीवनयापन के लिए कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता... किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मीकि समुदाय का काम है कि समूचे समाज की खुशी के लिए काम करना, यह काम उन्हें भगवान ने सौंपा है; और सफाई का यह काम आंतरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए। इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं रहा होगा।'' गौरतलब है कि जातिप्रथा और वर्णाश्रम की अमानवीयता को औचित्य प्रदान करने वाला उपरोक्त संविधानद्रोही वक्तव्य टाइम्स आफ इंडिया में नवंबर मध्य, 2007 में प्रकाशित भी हुआ था। 
चंूकि गुजरात के अंदर दलितों का एक हिस्सा मोदी के अल्पसंख्यक-विरोधी हिंदुत्व-एजेंडे का ढिंढोरची बना हुआ है, इसलिए वहां पर इसकी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए। उन्होंने मैला ढोने को 'आध्यात्मिक अनुभव' की संज्ञा दिए जाने को मानवद्रोही वक्तव्य कहा। उन्होंने जगह-जगह मोदी के पुतलों का दहन किया। अपनी वर्ण-मानसिकता उजागर होने के खतरे को देखते हुए मोदी ने इस किताब की पांच हजार प्रतियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली। 
प्रस्तुत प्रसंग के दो साल बाद सफाई कर्मचारियों की एक सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने सफाई कर्मचारियों के काम को मंदिर के पुरोहित के काम के समकक्ष रखा था। उन्होंने कहा ''जिस तरह पूजा के पहले पुजारी मंदिर को साफ करता है, आप भी मंदिर की ही तरह शहर को साफ करते हैं।'' अपने वक्तव्य में मानवाधिकारकर्मी लिखते हैं कि अगर मोदी सफाई कर्मचारियों को इतना सम्मान देते हैं तो उन्होंने इस काम को तीन हजार रुपए की मामूली तनख्वाह पर ठेके पर देना क्यों शुरू किया है? क्यों नहीं इन 'पुजारियों' को स्थायी आधार पर नौकरियां दी जातीं?
मनुवादी वक्तव्य देने वाले मोदी आखिर कैसे यह समझ पाएंगे कि गटर में काम करने वाला आदमी किसी आध्यात्मिक कार्य को अंजाम नहीं दे रहा होता, वह अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालता रहता है।
दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार की रोकथाम के लिए बने प्रभावशाली कानून 'अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत इलाके के पुलिस अधीक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनुसूचित तबके पर हुए अत्याचार की जांच के लिए कम से कम पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी को तैनात करे। दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में न्याय दिलाने में गुजरात फिसड््डी राज्यों में एक है, जिसकी जड़ में मोदी सरकार की नीतियां हैं।
सोलह अप्रैल 2004 को गुजरात विधानसभा में एक प्रश्न के जवाब में मोदी ने कहा था कि ''इस अधिनियम के नियम 7 (1) के अंतर्गत पुलिस उपाधीक्षक स्तर तक के अधिकारी की तैनाती की बात कही गई है और जिसके लिए पुलिस अधीक्षक की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।' इसके मायने यही निकलते हैं कि वह पुलिस सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर हो सकता है। 
याद रहे कि इसी लापरवाही के चलते, जिसमें दलित-आदिवासियों पर अत्याचार का मामला पुलिस सब इंस्पेक्टर को सौंपा गया, तमाम मामले अदालत में खारिज होते हैं। गुजरात के सेंटर फॉर सोशल जस्टिस ने डेढ़ सौ मामलों का अध्ययन कर बताया था कि ऐसे पंचानबे फीसद मामलों में अभियुक्त सिर्फ इसी वजह से छूटे हैं क्योंकि अधिकारियों ने मुकदमा दर्ज करने में, जाति प्रमाणपत्र जमा करने में लापरवाही बरती। कई सारे ऐसे मामलों में जहां अभियुक्तों को भारतीय दंड विधान के अंतर्गत दंडित किया गया, मगर अत्याचार के मामले में वे बेदाग छूटे।
पिछले दिनों जब गुजरात में पंचायत चुनाव संपन्न हो रहे थे तो नाथु वाडला नामक गांव सुर्खियों में आया, जिसकी आबादी बमुश्किल एक हजार थी। लगभग सौ दलितों की आबादी वाले इस गांव के चुनाव 2001 की जनगणना के आधार पर होने वाले थे, जिसमें दलितों की आबादी शून्य दिखाई गई थी। लाजिमी था कि पंचायत में एक भी सीट आरक्षित नहीं रखी गई थी। इलाके के दलितों ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की, वे मोदी सरकार के नुमाइंदों से भी मिले; मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अंतत: गुजरात उच्च न्यायालय ने जनतंत्र के इस मखौल के खिलाफ हस्तक्षेप कर चुनाव पर स्थगनादेश जारी किया। 
भीमराव आंबेडकर की जयंती के अवसर पर मोदी सरकार की तरफ से गुजरात के तमाम समाचार पत्रों में पूरे पेज के विज्ञापन छपे और यह प्रचारित किया गया कि किस तरह उनकी सरकार दलितों के कल्याण के लिए समर्पित है। यह अलग बात है कि इसकी असलियत उजागर होने में अधिक वक्त नहीं लगा।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46238-2013-06-05-04-23-14

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