THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, June 8, 2013

मग्रास: पहाड़ की तस्वीर बदलने का एक सपना

मग्रास: पहाड़ की तस्वीर बदलने का एक सपना

तारू भंडारी

magras-welcomeजिला अल्मोड़ा, तहसील रानीखेत मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर दूर मोटर रोड पर स्थित एक गाँव मवड़ा। मेरा अपना गाँव- लगभग 1200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, पहाड़ों की गोद में बसा एक अत्यन्त ही सुन्दर स्थान। आज तो यह गाँव जीवन्त नजर आता है पर दस साल पहले स्थिति कुछ और ही थी। मैं स्वयं तो यहाँ अधिक नहीं रहा लेकिन आना-जाना हमेशा लगा रहा। पर मेरे पिता का जन्म व उनकी आरम्भिक शिक्षा इसी ग्राम से हुई। अपने रिटायरमैन्ट के बाद लगभग 2004-05 के आस-पास जब एक बार मैं इस ग्राम में गया तो वहाँ का सूनापन दिल को कचोट गया। उस समय गाँव की जनसंख्या लगभग 60 थी जिसमें से लगभग 40 लोग 60 से अधिक उमर के थे- अधिकांश पेंशन पाने वाले। बस दो-तीन बच्चे थे, एक ऐसे परिवार के जो अधिक समर्थ नहीं था। एकाध लोकल दुकानदार, एक टैक्सी ओनर कम ड्रायवर और मात्र एक सरकारी नौकर। पानी के स्रोत 1960-80 के बीच सूख गये। न गाय-भैस न किसी प्रकार के अनाज की पैदायश। टोटल मनी आर्डर इकानामी। मैने अपने एक हमउमर बुजुर्ग से पूछा कि इस गाँव का और बीस साल बाद क्या भविष्य होगा तो उसका सोचकर दिया गया उत्तर था कि यह गाँव समाप्त हो जायेगा। बस यही हाल उत्तराखण्ड के अधिकांश गाँवो का है। लगभग 300 साल पहले एक आदमी द्वारा बसाये गये इस गाँव में 1920-30 के आस-पास लगभग 3-4 सौ लोग रहा करते थें। भरा-पूरा और एकदम जीवन्त। हर घर में काफी सदस्य, हर घर में गाय, बैल, भैंस आदि। बस कुछ ही लोग नौकरी करने बाहर जाते थे। हर घर की अपनी खेती। और इसी खेती से सारा काम चलता था। नजदीकी सड़क, अस्पताल या बाजार भी पाँच किलोमीटर दूर था।

1930 के आस-पास लोगों ने बाहरी दुनिया को जाना और उसकी खोज-खबर लेना आरम्भ किया। और शुरू हुआ माइग्रेशन का दौर। जो जितने समर्थ थे उतनी ही जल्दी निकल गये। इस गाँव के प्रवासी सारी दुनियाँ में पाये जायेंगे। अधिकतर नजदीकी शहरों जैसे- हल्द्वानी रामनगर, लखनऊ, दिल्ली आदि में। इन प्रवासियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में अच्छा नाम कमाया। कई प्रवासी काफी समर्थ भी हो गये। अधिकतर प्रवासियों ने अपनी पर्वतीय ग्रामीण पृष्ठभूमि को अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया और बाकी भारतीय और विश्व के समाज के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया। इन प्रवासियों ने व्यापार के क्षेत्र में तो अधिक उन्नति नहीं की पर अन्य क्षेत्रों जैसे विज्ञान, शिक्षा, सेना, विदेश सेवा, सरकारी व गैरसरकारी नौकरी आदि में उच्चतम स्थान प्राप्त किये।

शायद ये सफलताएं ही कारण थे कि इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में कुछ प्रवासियों ने केवल अपनी आवश्यकताओं से आगे भी सोचना आरम्भ किया। विजन, संसाधन व योग्यता तो थी ही । कुछ प्रवासियों ने रिटायरमेंट के बाद की अपनी जिन्दगी को कुछ मायने देने के लिये अपने गाँव की ओर रूख किया। क्या इस गाँव को बचाया जा सकता है । मतलब अपने गाँव को बचाने से नहीं था वरन् यह था कि क्या इस प्रकार का एक माडल बनाया जा सकता है जिसमें गाँव बच सके। और अगर हम एक गाँव को बचा पाये तो इस अनुभव को रिप्लीकेट किया जा सकता है। और सबसे पहले अपना गाँव- अन्य कोई गाँव हमारी बात क्यों सुनेगा।

गाँव की जनसंख्या देखकर यह तो समझ में आ ही गया था कि यहाँ का जीवन वापस लाना है तो समस्त क्षेत्र की बात करनी पड़ेगी, तभी आर्थिक और सामाजिक विकास सम्भव होगा। यह भी स्पष्ट था कि रोजगार सृजन हमारे काम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। अपनी व क्षेत्र की मजबूतियों, कमियों और उपलब्ध मौकों का विश्लेषण करने पर यह समझ में आया कि खेती या मैन्यूफैक्चरिंग में हम मैदानी क्षेत्र का मुकाबला कभी नहीं कर पायेंगे। पर यह भी समझ में आने लगा कि 1920-30 के भारत में और 2000 के भारत और विश्व में जमीन-आसमान का अन्तर आ गया है। आज भारत आर्थिक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है जबकि तब का भारत गुलाम और गरीब था। तब दौड़ मात्र रोजी-रोटी की थी जबकि आज सम्पन्नता के बाद के सन्तोष की भी आवश्यकता है। आज के भारत में सारे यूरोप या अमेरिका से अधिक आबादी का मिडिल क्लास है जो अच्छा कमाता है और अच्छा खाता-पीता है। इसकी आवश्यकतायें पुराने भारत से एकदम अलग हैं। यह भी स्पष्ट दिखता था कि प्रदूषण रहित अच्छे वातावरण तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर इस क्षेत्र में वह चीज है जो अन्य किसी के पास नहीं। इस देश के कई विदेशी बुजुर्गों से बात करने पर यह बात भी समझ में आई कि लोगों ने अपने आप से पूछना आरम्भ कर दिया है कि क्या वे जिन्दगी की सही दौड़ में भाग ले रहे थे या बस रैट रेस (चूहा दौड़) की अन्धी दौड़ में व्यस्त थे। इसका उत्तर है आध्यात्म और उत्तराखण्ड की निगाह से यह देवभूमि आध्यात्मिक शांति के लिये अत्यन्त ही श्रेष्ठ है। बस लक्ष्य मिल गया। इस लक्ष्य की घोषणा करते ही हमारे गाँव के एक बुजुर्ग ने संस्था के संचालको से सवाल किया कि क्या वे स्वयं अथवा उनके बच्चे यहाँ बसने के लिये आयेंगे। नकारात्मक उत्तर पाकर उन्होंने पूछा कि इस सूरत में हम कैसे आशा करें कि अन्य किसी के बच्चे यहाँ बसने के लिये आयेंगे। हमारा उत्तर था कि न हम यहाँ बसेंगे और न किसी से बसने के लिये कहेंगे। न ही कोई हमारे कहने पर यहाँ बसने के लिये आयेगा। पर यह स्थिति हम अवश्य पैदा कर सकते हैं कि हम, हमारे बच्चे, हमारे मित्र और शुभचिन्तक यहाँ आयेंगे और बार-बार आयेंगे। और तब कुछ लोग अपने आप यहाँ बसने की कोशिश करेंगे।

लक्ष्य तो तय हो गया पर आरम्भ कैसे करें । ताकि सारा गाँव और सारा क्षेत्र हमारे साथ चले। एक रिसार्ट खोलने के लिये उतनी ही जमीन चाहिये और वैसे ही संसाधन जो हमारे पास नहीं थे। पर्वतीय गाँवों में चकबन्दी नहीं हुई और एक आदमी के पास जमीन के 100 वर्गफुट के दस टुकड़े हो सकते हैं जो किसी काम के नहीं। जमीन बेचने के लिये कोई तैयार नहीं क्योकि इसके मालिक सारी दुनिया में फैले हैं और उनको इससे मिलने वाली धनराशि में कोई रुचि नहीं। और इतने कम पैसे के लिये कोई बाप-दादों की जमीन क्यों बेचने लगा। और आरम्भ में हमारे गाँव में भी कोई हमारी बात क्यों सुनने लगा। पर हमने काम आरम्भ कर दिया और सबसे पहले जून 2005 में एक संस्था का गठन कर दिया- 'मवड़ा ग्राम विकास संस्था' (मग्रास) । मुख्य उद्देश्य था गाँव में पुनः जीवन लाना।

गाँव में पानी का एक पक्का टैन्क बनाया जो पानी स्टोर करने के काम लाया जाने लगा। इसके बाद एक और पक्का टैन्क बनाया जो और अधिक काम में आया। हमारे गाँव में आम होता है तो आम के 1500 पौधे लगाये गये सभी के खेतों में, इस बात को सोचे बिना कि इन पेड़ों के आम किसके पास जायेंगे। संस्था या जमीन मालिक के पास। सोचा गया कि पहले फल तो होने दो फिर बटवारे की बात करेंगे। पर जानवर नहीं तो खाद नहीं। खाद, पानी व देखभाल के अभाव में पौधे सही नहीं चल पाये। एक साल अत्यधिक ठन्ड में सारे पेड़ पाले से नष्ट हो गये। प्रयास हर दिशा में जारी थे। हमारे गाँव के केन्द्र में मकानों की एक कतार है जिसमें बीच में कुछ मकान खण्डहर हो गये हैं। इस कतार में रहने वाले अपने-आपको इन्ही खण्डहरों के रूप में देखते थे। ऐसा ही एक खण्डहर पिछले 70 साल से खाली था और आपसी कड़ुवाहटों के चलते उसी रूप में रहा। उसका असली मालिक गाँव में अपने नये स्थान में रहने लगा। पर संस्था बनते ही उसने यह खण्डहर संस्था को दान कर दिया। और संस्था ने भी किसी रजिस्ट्री के बिना इसमें अपना धन लगाकर उसका जीर्णोद्धार कर दिया। इससे प्रेरित होकर एक और खण्डहर को उसके मालिक ने जीर्णोद्धार कर संस्था को दे दिया। कोई कागज पत्र नहीं- बस दे दिया और संस्था ने ले लिया। इन दोनों मकानों को संस्था आज अपने कार्य्रक्रमों के लिये उपयोग में ला रही है।

आस-पास के समस्त क्षेत्र को अपने काम में शामिल करने के लिये संस्था ने क्षेत्र के स्कूलों व कालेजों में काम आरम्भ किया। वर्ष 2007 से हम क्षेत्र के एकमात्र इन्टर कालेज खिरखेत में एक मग्रास स्टडी सेन्टर चला रहें है जिसमें कम्प्यूटर, टी. वी., डी. वी. डी की सुविधाये हैं तथा एक सेन्टर में मैनेजर पूर्णकालीन रूप से बैठता है। इस सेन्टर में हम विद्यार्थियों से अंग्रेजी, कम्प्यूटर, इन्टरनेट, व्यक्तित्व विकास व व्यावसायिक मार्गदर्शन की बातें करते है। साथ ही कालेज में प्रत्येक कक्षा में टॉपर को एक स्कालरशिप भी देते हंै। वर्ष 2010 में भारी वर्षा के चलते क्षेत्र के एक प्रिपेटरी पब्लिक स्कूल झलोड़ी का भवन ध्वस्त हो गया था। संस्था ने इस भवन के निर्माण में काफी आर्थिक सहायता की। स्कूल के शिक्षा कार्यक्रम में भाग लिया तथा स्कूल में अपना एक पूर्णकालीन टीचर भी रखा है। क्षेत्र के एक और सरकारी हाईस्कूल पनघट में भी हमारे कुछ कार्यक्रम चलते हैं तथा एक और इन्टर कालेज रदूड़ीपीपल ने हमारे कार्यक्रम अपने यहाँ चलाने की प्रार्थना की है।

इन सभी कार्यक्रमों के लिये सारा धन संस्था के निजी स्रोतों से आता है। हमने वर्ष 2011 तक सरकार से कैश में किसी भी प्रकार की ग्रान्ट सहायता नहीं ली थी। हमें सरकारी सहायता लेने में कोई आपत्ति नहीं है। पर कुछ अच्छा काम करने के बाद तथा अपने में कुछ ताकत पैदा करने के बाद ही हम यह सहायता लेना चाहतें है। पर हम भविष्य में भी अधिकतर धन अपने ही स्रोतों से पैदा करना चाहते हैं जिसके लिये ग्रामीण पर्यटन एक अच्छा साधन बन सकता है। इसके लिए हमने अपने सारे गाँव को ही एक रिसार्ट में बदल दिया है। अचल सम्पत्ति के मामले में संस्था की ऑनरशिप शून्य है पर हमारा पाँच सम्पूर्ण भवनों पर पूर्ण नियन्त्रण है। साथ ही अन्य भवनों मे भी एक-एक कमरा और मिल सकता है। इसी पर्यटन प्रयास के चलते एक प्रवासी बन्धु ने गाँव में एक तीन मंजिला इमारत बना दी तथा इसमें ग्रामीण पर्यटन पर आधारित कार्यक्रम आरम्भ किये- योग, आयुर्वेद और आघ्यात्म। और यही हमारे ग्रामीण पर्यटन कार्यक्रम की विशेषता होंगे। हम चार योग व जीवन शैली सम्बन्धी कार्यक्रम यहाँ पहले ही चला चुके हैं। इसके अतिरिक्त इस स्थान पर हम विभिन्न प्रकार की कार्यशालायें भी चला रहे हैं। हमने गत वर्ष बाँस से भवन निर्माण कार्यशाला चलाई थी जिसके बाद दो-तीन नये बाँस के भवन बनाने के प्रस्ताव हमारे सामने आये हैं। हमारे विचार से ग्रामीण पर्यटन से हमारे गाँव का निस्तार हो सकेगा।

वर्ष 2006 से हम लगातार एक वार्षिक पत्रिका छाप रहे हैं। हमारे  पास तभी से एक वैबसाइट भी है । गत वर्ष तक हमारा सारा कार्यक्रम निजी डोनेशन से चल रहा था। हमारा काम कभी धन के अभाव में रुका नहीं। हमें विश्वास था कि यदि योजना सही हो तथा उसका क्रियान्वयन ईमानदार हो तो धन आयेगा ही। पर हम यह भी जानते थे कि मात्र डोनेशन से कोई ऐसा काम नहीं किया जा सकता जो हमेशा चल पायेगा। पर हमारे ग्रामीण पर्यटन कार्यक्रम ने समस्त क्षेत्र की आय के लिये स्रोत खोल दिये हैं। कार्यक्रम की सफलता के लिये हम केवल दो पैरामीटर देना चाहेंगे। 1940 से 2005 तक गाँव के केवल दो रिहायशी मकान बने पर 2005 से 2012 तक दो रिहायशी मकानों का जीर्णोद्धार किया गया तथा चार नये रिहायशी/ गैर रिहायशी मकान बने। हम यह भी कह सकते हैं कि गत तीन वर्षों में जितने देशी व विदेशी (गाँव के निवासी व प्रवासियों के अतिरिक्त) जनों ने इस गाँव का भ्रमण किया होगा उतने इस गाँव के कुल इतिहास में नहीं आये होंगे।

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