THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, June 8, 2013

शासन में चुस्ती के बिना ‘संवेदनशीलता’ निरर्थक

शासन में चुस्ती के बिना 'संवेदनशीलता' निरर्थक

uttarakhand_economic_growth_graphआय के वितरण की असमानता के कारण उत्तराखंड को सूचकांक में मात्र 12.03 प्रतिशत का नुकसान होता है जबकि भारत के लिए यह आंकड़ा 16.37 प्रतिशत का, हिमाचल के लिए 13.22 प्रतिशत का और केरल के लिए 16.07 प्रतिशत का है। इस प्रकार का प्रतिशत अंतर उन्नत राज्यों महाराष्ट्र (18.69), तमिलनाडु (16.72) तथा कर्नाटक (16.16) के लिए अधिक है और बिहार (8.50) व असम (8.58) जैसे पिछड़े राज्यों के लिए कम है। शिक्षा घटक के कारण पैदा होने वाली असमानता को देखें तो उत्तराखंड को सूचकांक में 43.7 प्रतिशत का नुकसान होता है जबकि अखिल भारतीय स्तर पर इस प्रकार के नुकसान का औसत 42.80 है। हिमाचल प्रदेश के मामले में इस प्रकार का नुकसान 36.25 प्रतिशत और सर्वाधिक केरल के मामले में 23.25 प्रतिशत है। जहाँ तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में असमानता के कारण नुकसान की बात है उत्तराखंड में इस मद पर 39.34 प्रतिशत का नुकसान है। अखिल भारतीय स्तर पर यह नुकसान 34.26 प्रतिशत है और हिमाचल प्रदेश का नुकसान 29.17 प्रतिशत और सबसे श्रेष्ठ राज्य केरल में यह नुकसान 10.54 प्रतिशत है। इन आंकड़ों से जहिर है कि उत्तराखंड में शिक्षा की असमानता से स्वास्थ्य के क्षेत्र में असमानता से आय की असमानता से भी अधिक नुकसान हो रहा है।

ये तो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के आंकड़ों की जुबानी उजागर होने वाली कहानी है। भारत में भी तरह -तरह के आंकड़े तैरते रहते हैं। उनकी विश्वसनीयता व प्रमाणिकता के बारे में सवाल भी उठाये जा सकते हैं फिर भी वे तुलनात्मक दृष्टि से ही सही वास्तविकता का कुछ तो दिग्दर्शन करवाते ही हैं।

भारत में योजनागत विकास के दायरे में ही गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका व योगदान को मान्यता मिली है। इसमें अच्छी संभावनाएं विद्यमान हैं। नए राज्य के गठन के बाद उत्तराखंड में स्वयंसेवी संगठनों की गतिविधियाँ भी बढ़ी हैं। गैरसरकारी संगठनों की संख्या बहुत बढ़ी है इनमें से कई अपनी तरह से कुछ योगदान भी कर रहे हैं परन्तु फर्जीवाड़ा करने वाले भी कम नहीं हैं। फिलहाल ये संभावनाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं परन्तु व्यवहार में बहुत कुछ अपेक्षित है।

यह माना जाता है कि सरकारी विभागों में रोजगार से गरीबी दूर होती है। इस मामले में समान भौगोलिक परिस्थितियों वाले हिमाचल प्रदेश को देखें। उत्तराखंड के 1.40 लाख कर्मचारियों की तुलना में हिमाचल में 2.4 लाख कर्मचारी थे। हिमाचल ने 2002 व 2008 के बीच 12 लाख को रोजगार देने का वायदा किया जबकि उत्तराखंड सिर्फ दो लाख की उम्मीद कर रहा था। इसका दूसरा पहलू है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन और सेवानिवृत्त कर्मचारियों को दी जाने वाली पेंशन की राशि सरकार के खजाने के लिए बोझ बनती जा रही है। अलग राज्य के गठन के बाद उत्तराखंड में कुछ नए सरकारी उपक्रमों की स्थापना भी की गई है। इनसे भी रोजगार बढ़ा है परन्तु असली सवाल है कि ये कर्मचारी सचमुच उत्पादक हैं या अर्थव्यवस्था पर बोझ बनते जा रहे हैं। असली सवाल यह भी है कि सुशासन और जनोन्मुखी शासन के बारे में कितना ध्यान दिया जा रहा है।

जमीनी हकीकत और जनचेतना का पावरहाउस

उत्तराखंड में तमाम योजनाओं पर अमल और बड़ी मात्रा में धनराशि खर्च करने व उपलब्धियों के गुणगान के बाद भी जल स्रोत गायब हो रहे हैं। पानी के लिए हाहाकार रहता है। बिजली नियमित रूप से नहीं मिलती है। रसोई गैस के लिए मारामारी है। सर्दियों में घरों को गरम रखने के लिए ईंधन नहीं होता। खेत बंजर होते जा रहे हैं और खेती की जमीन के उपयोग की कोई समेकित योजना सामने नहीं है। जंगली जानवर व सूअर आदि किसानों के लिए आतंक के रूप बन गए हैं।

इस बीच जैविक खेती, जड़ी-बूटियों की खेती, फलों और सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने , मशरूम उत्पादन और फूलों की खेती जैसे व्यावसायिक खेती के विकल्प आकर्षक सिद्ध हुए हैं परन्तु पशुओं से सुरक्षा व जल प्रबंधन व विपणन तथा प्रसंस्करण के उचित उपायों की आवष्यकता बनी हुई है।

भले वायु, जल, की गुणवत्ता कचरा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन और वन आवरण के पैमानों पर तैयार सूचकांक में हरित प्रदेश के रूप में उत्तराखंड को योजना आयोग से सर्वश्रेष्ठ राज्य के रूप में मान्यता मिली है परन्तु राज्य की 60 प्रतिशत भूमि वन के रूप में रखे जाने से जनता के लिए आर्थिक गतिविधियों का क्षेत्र सीमित होता जा रहा है प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की कीमत राज्य की गरीब जनता को चुकानी पड़ रही है। अनुमान है कि उत्तराखंड देश को 25,000 करोड़ रु. से अधिक की पर्यावरण सेवा-उपयोगिता देता है परन्तु तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुरूप राज्य का पांच सालों के लिए मात्र 41 करोड़ रु. वार्षिक की अतिरिक्त मदद दी जा रही है। इस पर भी इस राशि को पर्यावरण से जुड़े खर्चों तक सीमित रखने की शर्त भी रखी गई है। दूसरी तरफ उत्तराखंड की 165 से अधिक योजनाएं व परियोजनाएं वन संरक्षण अधिनियम के कारण लंबित हैं इनमें 57 सड़क परियोजनाएं शामिल हैं। कुछ बिजली परियोजनाएं भी खटाई में हैं। राज्य की 27,000 मेगावाट की विद्युत उत्पादन संभावनाओं की तुलना में मात्र 3618 मेगावाट की क्षमता स्थापित की जा सकी है। पर्यावरण संबंधी सरोकारों को देखते हुए राज्य की पनबिजली उत्पादन की अधिकांश आकांक्षाओं पर ग्रहण रहने के आसार हैं।

उत्तराखंड में 15,793 गांवों की तुलना में 86 छोटे नगर हैं। इन सब का विकास स्थानीय लोगों की जरूरतों के साथ ही पर्यटन के लिए भी करने की जरूरत है। राज्य में 150 से अधिक स्थान पर्यटन केन्द्रों के रूप में जाने जाते हैं परन्तु 72 प्रतिशत से अधिक पर्यटक धार्मिक पर्यटक होते हैं।पर्यटन निश्चित रूप से बढ़ रहा है और स्थानीय लोगों के लिए आय के अवसर भी पैदा करता है परन्तु संभावनाओं का पूरा दोहन अभी दूर की कौड़ी है। साहसिक पर्यटन, प्रकृति दर्शन, वन्य जीव केन्द्रों के पर्यटन, पर्यावरण केन्द्रित पर्यटन, ग्राम्य- पर्यटन, पर्वतारोहण, शिलारोहण, जल-क्रीड़ा पर्यटन जैसे अनेक रूपों के पर्यटन को बढ़ावा देने की संभावना बनी हुई है। इस दिशा में सफलता अधिकाधिक रोजगार सृजन में भी सहायक सिद्ध होगी।

जनचेतना का विस्तार

इसमें संदेह नहीं कि राज्य की स्थापना के बाद ऐसी संस्थाओं और नीतियों के गठन की तरफ भी ध्यान गया है जिन्हें राज्य की विशिष्ट जरूरतों के अनुरूप माना जा सकता है। निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश जैसे विशालकाय राज्य का हिस्सा रहते हुए ऐसी बातें संभव नहीं होतीं। कहा जा सकता है कि पृथक राज्य की स्थापना से अवसरों और संभावनाओं के द्वार अवश्य खुले परन्तु राजनीतिक नेतृत्व इनका लाभ उठाने में विफल रहा क्यों कि राजनीतिक धरातल पर विपन्नता और संस्कृतिविहीनता के कारण कुर्सी की दौड़ और टांग खींचने वाली केकड़ा संस्कृति का हर दल में बोलबाला रहा खास तौर पर सत्तारूढ़ दल में और सत्ता में हिस्सेदारी के इंतजार में कुंठित दलों और नेताओं के बीच।

राज्य में राजनीतिक चेतना का संचार पृथक राज्य आंदोलन के दौरान ही बहुत तेज हो चुका था परन्तु राज्य की स्थापना के बाद से यह नवनिर्माण की रचनात्मक दिशा में जाने के बजाय नौकरी के लिए आंदोलनों, राज्य आंदोलनकारी के रूप में मान्यता, नौरियों में वेतन संशोधनों की मांग, वेतन मानों और एरियर के भुगतान आंदोलनों के बीच भटक के रह गई। इसके लिए अकेले इन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। सरकारें और राजनीतिक नेतृत्व इनसे कहीं अधिक गैर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

सरकारी दफ्तरों में अनुशासन नामक चीज अतीत की बात बन चुकी है। फिर काम होने और समय पर होने का सवाल कहाँ होता है। एक ऐसी समाज व्यवस्था में जहाँ हर बात के लिए सरकार का मुंह ताकने की आदत पड़ गई हो और सरकारों और दफ्तरों में अनुशासन और प्रतिबद्धता नहीं के बराबर हो तो निराशा का फैलना स्वाभाविक ही माना जाएगा। सच्चाई यह है कि संसाधनों की कमी का रोना एक बात है और उपलब्ध संसाधनों को लुटा देना और उनका अपव्यय उससे भी बड़ी बात है। क्या उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व वित्तीय संसाधनों का उपयोग इस पहाड़ी राज्य की प्राथमिकताओं और सुशासन के मानकों के अनुरूप हुआ है ? इस प्रश्न का उत्तर हाँ में शायद कोई नहीं दे पाएगा।

राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने के अरमानों को पर्यावरण की उपेक्षा का ग्रहण लग गया। वैकल्पिक ऊर्जा की परियोजनाएं कागजों में भटकती रह गईं। लिहाजा जलावन, रसोई गैस, बिजली की आपूर्ति और पेय जल की समस्याएं विकराल होती जा रही हैं और आम जनता इनके लिए परेशान। सिंचाई के साधनों और उपयुक्त कृषि टेक्नोलॉजी के अभाव व जंगली जानवरों के आतंक ने ग्रामीण अर्थतंत्र को खोखला कर दिया है। अब पलायन, मनीआर्डर व नौकरी पर निर्भरता पहले से भी अधिक बढ़ गई है। दूसरी तरफ महानगरों और बड़े शहरों में रोजगार की संभावनाएं ज्यादा दमनकारी व शोषणकारी हो गई हैं। पहाड़ों में एकमात्र सार्थक बदलाव यह हुआ है कि शैक्षणिक संस्थाएं पहले से ज्यादा हैं और आसानी से सुलभ हैं प्रतिभासम्पन्न बच्चों के लिए इससे संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। परन्तु शिक्षा की गुणवत्ता और नौकरी की गुणवत्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध के चलते होनहार बच्चों के लिए भी राह आसान नहीं है। स्वरोजगार की संभावना पैदा हुई हैं परन्तु प्रशिक्षण और उसकी गुणवत्ता के सवाल इन संभावनाओं को भी निराशा के दायरे में खींचते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि बच्चों के मां-बाप अब शिक्षा के महत्व को मानते हैं और अपनी आय का बड़ा हिस्सा बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा, जो भी उन्हें संभव लगती है, प्रदान करने में लगाने को तैयार हैं।

इस पहाड़ी राज्य के अर्थिक विकास की आकांक्षा व अपनी अस्मिता व पहचान बनाये रखने की इच्छा परस्पर गुँथी हुई हैं। कांग्रेस या भाजपा से इस प्रकार के सपने को साकार करने के प्रयासों की उम्मीद का तो कोई आधार ही नहीं है परन्तु उत्तराखंड क्रांति दल जैसे किसी क्षेत्रीय दल से ऐसी उम्मीद की जा सकती थी परन्तु ये क्षेत्रीय दल न तो अपना ठोस जनाधार तैयार कर सके और न ही कोई ऐसा नेता पैदा कर सके जो जन अपेक्षाओं का प्रतीक बन कर जनमत को दिशा दे सकें।

राज्य सरकार आबंटित धन भी समय से खर्च करने में असफल सिद्ध होती रही है, सुशासन की बात तो दूर की है। जो धन खर्च भी होता है उसमें से कितना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है इसका कोई ठोस आकलन अपेक्षित है। शासन में पारदर्शिता लाने में ई- शासन के औजार उपयोगी हो सकते हैं परन्तु सुशासन के अन्य मानदंडों को लागू किये बिना ये कारगर सिद्ध नहीं हो सकते हैं।

विकास के मामले में गुजरात बनाम केरल मॉडल की चर्चा अकसर सुनी जाती है। उत्तराखंड के लिए क्या उपयोगी है , यह पूछा जा सकता है। क्या सरकारी योजनाओं के बल पर तेज विकास कर उसका लाभ सभी जगह पहुँचने की प्रतीक्षा की जाए। या फिर निजी क्षेत्र को आकर्षित करने और स्थानीय लोगों की प्रतिभा और क्षमता को निखरने का मौका दिया जाए। सच तो यह है कि फिलहाल विकास के तमाम उपक्रमों के बावजूद लोगों के सपने अधूरे रह गए हैं। राज्य की भोली भाली जनता ने ऐसे विकास की कल्पना कभी नहीं की थी जिसमें सुशासन के बजाय भ्रष्ट तंत्र का बोलबाला हो जाए और भाईचारा तिरोहित कर दिया जाए। नीतियाँ और कार्यक्रम जन आकांक्षाओं के आधार पर नहीं भ्रष्ट माफिया तंत्र के स्वार्थों की पूर्ति के आधार पर चलते नजर आते हैं। परन्तु उम्मीद की सबसे बड़ी किरण यह है कि अब जनता पहले से कहीं ज्यादा संवेदना सम्पन्न और मुखर है। जनचेतना का पावरहाउस ही निराशा के अंधकार से लड़ने की ताकत देगा। हालात के नाटकीय मोड़ों ने जनता को पृथक राज्य का सपना साकार करने का मौका दिया तो यह उम्मीद क्यों न की जाए कि जनता का विवेक जाग्रत रहे तो सपनों के उत्तराखंड को धरती पर उतारा जा सकता है। अगर भ्रष्ट सरकारी तंत्र की तरह से जन चेतना भी भ्रष्ट हो गई तो फिर हमें कोई रसातल में जाने से बचा भी नहीं सकता है।

(समाप्त)

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