राजनीतिक दलों के अपने-अपने लोकतन्त्र
केन्द्रीय सूचना आयोग के एक फैसले के मुताबिक देश की उन राजनीतिक पार्टियों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे मे लाया गया जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप में सरकारी कोष से लभान्वित होती रही हैं। सभी पार्टियों ने एक स्वर से इसके विरोध में कई तरह के तर्क कुतर्क पेश किये हैं। इन पार्टियों का इस मामले में मतैक्य देख कर देश की जनता हैरान है कि ऐसा मतैक्य केवल सांसदों के वेतन भत्ते में बढ़ोत्तरी सम्बन्धी विधेयक पास करवाने में दिखाई दिया था लेकिनमहिला आरक्षण या खाद्य सुरक्षा कानून के बारे में क्यों दिखाई नहीं देता ?इससे देश की राजनीति के भीतर पनप रहा भ्रष्टाचार का कैंसर बाहर झाँकता दिखाई दे रहा है। लगता है पूरा राजनीतिक तन्त्र भ्रष्ट हो चुका है जो सड़े हुये फल की तरह अब केवल अपने झड़ जाने की प्रतीक्षा में है। पारदर्शिता से केवल भ्रष्ट व्यक्ति या समूह ही डरता है। भाजपा के एक प्रवक्ता ने तो इसका स्वागत किया लेकिन दूसरे प्रवक्ता ने उससे उल्ट बयान देकर जनता को भ्रमित कर दिया है। इस पार्टी की दोहरी नैतिकता पहली बार जगजाहिर नहीं हो रही है। इसका बौद्धिक वर्ग शब्दों के साथ मन मुताबिक खेल खेलने में सिद्धहस्त है। काँग्रेस के पास अपनी कोई सुविचारित विचारधारा नहीं है इसलिये यह पार्टी कई महत्वपूर्ण मामलों में अद्भुत असमंजस में पड़ जाती है। इससे अपने किये पर पश्चाताप करने की प्रवृत्ति काँग्रेस में ज़्यादा है। इस कानून को लेकर जनता वे पिछले संसदीय चुनाव में जनता के प्रति अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला बता कर वोट माँग रहे थे, आज उसी कानून को पार्टी के लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन करने वाला बता रहे हैं। वाम दलों में माकपा की प्रतिक्रिया विस्मित कर देने वाली हैं। माकपा के महा सचिव प्रकाश करात के मुताबिक केन्द्रीय सूचना आयोग का यह फैसला लोकतन्त्र में राजनीतिक पार्टियों के रोल को सही परिप्रेक्ष्य में ठीक से समझ नहीं पाने के कारण अमान्य है। ऐसा लगता है कि करात राजनीतिक पार्टियों को सरकार और जनता से अलग विशिष्ट इकाई के तौर पर पेश कर रहे हैं। पार्टी जब सरकार बनाती है तो उसके कार्यकलाप जन सूचना अधिनियम के अन्तर्गत आ जाते हैं लेकिन जब वे विरोधी दल के रूप में शासन के एक परोक्ष भागीदार की भूमिका निभा रहे हों तो उन पर इस कानून को लागू क्यों नहीं किया जा सकता ? कुछ दलों को लगता है कि इस कानून द्वारा उनके विरोधी उनकी रणनीतिक चर्चाओं का लेखा जोखा माँग कर राजनीतिक पार्टी की निजी स्वतन्त्रता और पार्टी के आन्तरिक लोकतन्त्र पर हमला किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में कानून विशेषज्ञों का मानना है कि इस कानून के तहत केवल दर्ज किये हुये मामले के बारे ही पूछा जा सकता है। इसलिये किसने किस विषय पर किस वक्त क्या कहा, इसकी सूचना माँगी नहीं जा सकती यदि उसे किसी दस्तावेज़ में दर्ज न किया गया हो। वैसे भी किसी भी मीटिंग के मिनट्स भाग लेने वाले सदस्यों और समिति विशेष के अनुपस्थित सदस्यों को भेजे जाते हैं जो इस प्रक्रिया से सार्वजनिक दस्तावेज़ बन जाते हैं। उन्हें सार्वजनिक करने में किसी लोकतान्त्रिक पार्टी को क्या आपत्ति हो सकती है ? वाम दलों में भाकपा का दृष्टिकोण इस मामले में जनपक्ष के साथ खड़ा साफ नज़र आ रहा है।
इस फैसले का काँग्रेस और भाजपा द्वारा किया जा रहा विरोध समझ में आता है। क्योंकि इन पार्टियों को देश के सरमायादार तबकों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए चन्दा या सहयोग राशि के तौर पर पैसा बहाया जाता है। जो अब एक तरह का राजनीतिक नैतिकता के दायरे में शामिल किया जा चुका है। इन पार्टियों में ही दागदार सांसद भी हैं। क्योंकि अभी तक इस देश में सत्ता की दावेदार इन दानों पार्टियों को ही माना जाता है। इसलिए सत्ता के गलियारों में घुसपैठ के लिये और कई मर्तबा खुद पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने की जुगाड़ में सरमायादारों की बिरादरी से लोकसभा में एक तिहाई सदस्य विराजमान हैं तो किसानों और आदिवासियों के हक और उनके विस्थापन की समस्या को देश की प्रमुख समस्याओं की सूची में कैसे शामिल करने की वकालत कौन कर सकता है ? कांग्रेस अपने ही बनाये कानून से खुद डर रही है कि इससे उसे चन्दे के स्रोत बताने पड़ सकते हैं जिससे जनता में पार्टी की विश्वसनीयता में और गिरावट आ सकती है। यही हाल भाजपा का भी है। उसके चन्दे और चुनाव फण्ड का जो ब्योरा चुनाव आयोग में दिया जाता है वह वास्तविक हो यह ज़रूरी नहीं क्योंकि चुनाव आयोग चुनाव में खर्च होने वाले पैसे का हिसाब तो माँग सकता है, पार्टी के पास कितना पैसा कहाँ-कहाँ जमा है यह भी बताना पड़ता है लेकिन यह पैसा आया कहाँ से है? कौन लोग हैं जो पार्टी को पैसा दे रहे हैं ? ये ऐसी बातें हैं जो जनता के ध्यान में रहनी चाहिये क्योंकि सरमायादार जो पैसा कहीं लगाता है, उससे अपना स्वार्थ ज़रूर सिद्ध करता है। मतदाता होने के नाते जनता को यह ज्ञान होना चाहिये कि जिस पार्टी को वे वोट दे रहे हैं वह उसके हितों की रक्षा करने के काबिल है भी या हमारा वोट लेकर हित पैसे लगाने वालों के साधे जायेंगे। पन्द्रह बार अपने चुने प्रतिनिधियों के कारनामों से परिचित जनता अब उन राजनीतिक दलों के झाँसे में नहीं आना चाहती जिनकी कथनी और करनी में अन्तर के कारण देश के आम आदमी को दिन प्रतिदिन बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी के कारण अत्यन्त कष्टपूर्ण जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ रहा है। इन पार्टियों का कहना है कि वे केवल चुनाव आयोग के प्रति जवाबदेह है और वे वहाँ उनके हर सवाल का जवाब देते हैं। अब यह कानून जनता को भी सवाल पूछने का अधिकार दे कर उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों पर कुठाराघत कर रहा है। क्या ऐसा करके ये पार्टियाँ हमारे लोकतन्त्र की संवैधानिक सर्वोच्च सत्ता जो जनता में समाहित है उसे दरकिनार करते हुये चुनाव आयोग को ही अपना मालिक नहीं मान रहीं ? इन्हें ध्यान रहे कि चुनाव आयोग इस जनता द्वारा पारित संविधान में उल्लिखित एक संवैधानिक इकाई मात्र है। यह जनता की सेवक संस्था है न कि जनता की मालिक। जनता की प्रतिनिधि संस्था संसद् इसके लिये कायदे कानून बनाती है जिसे आयोग बिना किसी ना नुकर के पालन के लिये प्रतिबद्ध है। अब तक जनता अपनी सार्वभौम सत्ता को आत्मसात नहीं कर पायी थी इसलिए नेताओं ने उसे भी अपनी रखैल मान लिया था। इक्कीसवीं सदी जनता के जनवादी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये प्रतिश्रुत है।
No comments:
Post a Comment