आतंकवादी कौन है? नक्सली या नेता?
जब जब नक्सली हमला होता है, राज्य अपने खतरों के प्रति जागरूक होता है. हाँ, आज का सच यही है कि हम नक्सली कार्रवाई को आतंकवादी हमले के समकक्ष देख रहे हैं, खासकर छत्तीसगढ़ में नेताओं पर नक्सली हमले के बाद. मैंने विगत में अक्सर नक्सलियों के कारगुजारियों की निंदा की है. लोकतंत्र में, इस तरह की हत्याओं की कोई जगह नहीं. फिर भी, कुछ तथ्यों पर नजर डालना जरूरी है.
छत्तीसगढ़ में जितने लोग बंदूक की गोली से नहीं मरते उससे कहीं ज्यादा इलाज योग्य बीमारियों और भूख से मर जाते हैं. भूख और गरीब भूल जाइए, राज्य में तैनात जितने सीआरपीएफ जवानों की मौत मच्छर काटने से होती है उसकी तुलना में माओवादियों से संघर्ष के दौरान कम मरते हैं. यह विडंबना ही तो है. बेशक, एक तरफ तो यह हमारे सीआरपीएफ जवानों की दयनीयता दर्शाता है तो दूसरी तरफ वर्तमान भारत की सच्ची कहानी कहता है कि किस तरह हम अपनी आबादी के तकरीबन 60 प्रतिशत हिस्से की उपेक्षा कर उन्हें भूख, इलाज योग्य बीमारियों और मच्छर काटने से मरने के लिए छोड देते हैं. लगभग 650 करोड़ भारतीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य गरीबी रेखा के मानक 1.25 डॉलर प्रति दिन से से कम में गुजारा करते हैं. भारत और भारतीय मीडिया फोर्ब्स सूची में अपने अरबपतियों की बढती संख्या पर जहां जश्न मनाते हैं, वहीं निर्धन गरीब भूख से मर रहे होते हैं -अज्ञात और अनसुने.
सच यह है, माओवादी हरेक बेहद गरीब परिवार से हैं जो हाशिए पर भूखों मरने को छोड़ दिए गए हैं. दुनिया भर में, जहां भी नेताओं ने जनता के इतने बड़े वर्ग को हाशिए पर रखा, वहां क्रांतियां हुईं. इतिहास मारे गए नायकों से भरा है. उद्देश्यपूर्ण मृत्यु की पुण्यतिथि मनाई जाती है जबकि अकारण मारने वालों को हत्यारा माना जाता है. जब सेना मारती है, हत्या नहीं होती, इसी तरह, बहुत बार, जब कोई किसी उद्देश्य के लिए मारा जाता है इतिहास उसे अपना लेता है. सरकार माओवादियों को हत्यारे और आतंकवादी बताने पर आमादा है लेकिन सच यह है कि हमारी सरकारें तमाम सालों से हत्यारों से भरी हैं. सिर्फ इसी अर्थ में नहीं कि ढेरों राजनेताओं पर आपराधिक मामले चल रहे है बल्कि देश की बहुसंख्यक आबादी को खाना, स्वास्थ्य और रोजगार से वंचित रखने के चलते भी वे हत्यारे हैं– यही वे तीन आधारभूत चीजें हैं जिनकी कसौटी पर किसी सरकार को आंका जाना चाहिए. हमारी सरकारें 40% जनता को 45 वर्ष की उम्र तक पहुंचने से पहले मार डालती है. अगर भोजन और स्वास्थय तक पहुंच होती तो ये लोग 75 साल जीते.
हमारी सरकारों ने अपने राष्ट्र विरोधी कृत्यों और उस स्वार्थ्यपरक राजनीति से तमाम सालों में लाखों को मार डाला है जिससे वे खुद और मुट्ठी भर व्यापारिक घराने संमृद्ध होते हैं जबकि चारों और भयंकर गरीबी फैलती है. यही वजह है कि मेधा पाटकर से लेकर महाश्वेता देवी तक ढेरों की निगाहों में - माओवादी आतंकवादी अथवा हत्यारे नहीं हैं बल्कि उद्देश्य विशेष के लिए हथियार उठाने, मारने वाले लोग हैं. वे खाना चाहते हैं. वे चाहते हैं लोग गरीबी से बाहर निकलें. वे स्वास्थ्य और निर्धनता से आजादी चाहते हैं, वे सरकार द्वारा उन्हें दिए जाने वाले सुनिश्चित मृत्युदंड की बजाए जीने का और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार चाहते हैं. मरने की हद तक पहुंचा दिया गया मनुष्य हमेशा जुझारू होता है. इस तरह के लोग जहां संघर्षरत रहते हैं वहां उन्हें जनसमर्थन मिलता है.
अगर सरकार वास्तव में माओवादी समस्या समाप्त करना चाहती है, तो इससे परे देखने की जरूरत है. उसे अपना दिल टटोलने की अवश्यकता है... इसके बाद गरीबतर लोगों के लिए वास्तव में अच्छा काम करने की. गरीबों द्वारा हथियार उठाने की कोई वजह नहीं हो सकती. भोजन उनकी आवश्यकता है. उस भोजन की जो सरकारी गोदामों में बंद सड़ रहा है या फिर भंडारण सुविधाओं की कमी के चलते खुले में पड़ा है. कहा जाता है कि हमारे गोदामों में इतना खाद्यान्न पड़ा है कि उन्हें एक के ऊपर एक रख दिया जाए तो चाँद तक आने जाने के लिए सड़क बन जाए! फिर भी, हम गरीबों को खाना नहीं देते'! हमने चौंक़ाते हुए सत्ता प्रायोजित सलवा जुडूम बनाया (इस विषय में पूर्व लेख: नक्सलियों को रोकने के लिए गरीब ग्रामीणों के हाथों बंदूकें सौंपना अपने आप में एक मानवीय संकट है, का संदर्भ, लें) और फिर बदले में माओवादियों द्वारा पलट कर किया गया हमला और इसके संस्थापक की मौत भुगती. लेकिन हमने गरीबों के लिए भोजन, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और गरिमापूर्ण जीवन की जरूरत महसूस नहीं की.
ममता बनर्जी बंगाल में नक्सल प्रभावित इलाकों में महज भोजन की बुनियादी सुविधा मुहैया करा देने से माओवादी खतरे को काबू करने में काफी हद तक सक्षम हैं. अब देश में भी ऐसा ही करने की जरूरत है. माओवादियों के खिलाफ सरकार द्वारा की जाने वाली नारेबाजी और दोषारोपण मानवता के खिलाफ उसके अपने आतंकवाद से उसे दोषमुक्त नहीं कर सकता. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में गरीबों के लिए वास्तविक काम ही सरकार को आंतरिक सुरक्षा से कैसे निपटे, इस तनाव से बचा सकता है. अन्यथा, ऐसे में न सिर्फ मारे जाने वाला हरेक माओवादी अपनी तरह के ढेरों माओवादियों को जन्म देगा बल्कि मच्छरों के काटने से मरने वाले जवानों के बच्चे एक दिन मलेरिया फैलाने वाले देश की सत्तारूढ़ परजीवी पार्टियों पर गोलियां बरसा सकते हैं... और इतिहास, फिर कहूंगा, उन्हें आतंकवादी नहीं कह पाएगा.
http://visfot.com/index.php/comentry/9336-naxal-story-arindam-1306.html
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