THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, June 5, 2013

दलित-आदिवासी आक्रोश की अभिव्यक्ति जैना हत्याकांड

दलित-आदिवासी आक्रोश की अभिव्यक्ति जैना हत्याकांड


जैना मंडल हत्याकांड में पुलिस ने 89 लोगों को नामजद अभियुक्त बनाया. 40 आदिवासी स्त्री-पुरुषों को गिरफ्तार कर पुलिस ने पहले उन्हें प्रताड़ित किया, उसके बाद जेल भेजा दिया. गिरफ्तार 16 महिलाओं को इतनी यातना दी गई कि उनमें से दो गर्भवती महिलाओं का गर्भपात तक हो गया...

मुकेश कुमार


बिहार के पूर्णिया जिला मुख्यालय से लगभग चालीस किलोमीटर दूरी धमदाहा प्रखण्ड में भूमि के सवाल पर आदिवासियों के आक्रोश की अभिव्यक्ति 24 मई, 2013 को एक स्थानीय दबंग को जिंदा जला देने के रूप में सामने आई . कुकरन गाँव की आदिवासी महिलाओं ने जमीन व इंदिरा आवास सहित अन्य मामलों से संबंधित ठगी से तंग आकर पंचायत मुखिया चीमा देवी के पति 38 वर्ष के जयनन्दन मंडल उर्फ 'जैना मंडल, को जिंदा आग के हवाले कर दिया.

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यह घटना दिन के लगभग ग्यारह बजे उस वक्त घटी जब जैना मंडल अपने साथ हथियारों से लैश आठ-दस लोगों को लेकर अपने ईंट-भट्ठे के लिए आदिवासियों के कब्जे वाली जमीन पर 'जेसीवी' मशीन के साथ मिट्टी खोदने पहुंचा. आदिवासियों ने शुरू में इसका विरोध किया, लेकिन जैना मंडल और उसके आदमी नहीं माने. आदिवासियों को डराने के लिए हवा में उन लोगों ने राइफल से गोली चलाई. इससे आदिवासियों का गुस्सा भड़क उठा और वे परंपरागत हथियारों से लैश होकर प्रतिरोध के लिए आ डटे.

दोतरफा संघर्ष के बाद आदिवासी जैना मंडल के गुर्गे को खदेड़ने में कामयाब रहे. इस दौरान जैना मंडल सहित एक अन्य व्यक्ति आदिवासियों की गिरफ्त में आ गया. आदिवासियों ने उस आदमी को तो छोड़ दिया, लेकिन जैना मंडल की जमकर धुनाई की. उसे छोड़ देने के आगामी खतरों को भाँपते हुए आग जलाकर उसमें झोंक दिया. यह पूरी कार्यवाही दिन के ग्यारह बजे से तीन बजे के बीच तक चलती रही.

बताया जाता है कि मृतक जैना मंडल का रिश्ता पूर्णिया जिले के ही रुपौली विधायक बीमा भारती (जद-यू) के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दबंग पति अवधेश मंडल जो फिलहाल पत्नी के निजी सचिव की हत्या के मामले में जेल में हैं, के गिरोह जिसे 'फैजान-पार्टी' के नाम से जाना जाता है, से रहा है. कुछ दिन पहले तक इस गिरोह से इस पूरे इलाके में हड़कंप मचा रहता था. हालांकि उसका आतंक और दबदबा आज भी कायम है, जिसके दम पर बीमा भारती पिछले तीन बार से विधायक हैं. जैना मंडल पर अपराध के कई मुकदमे भी चल रहे हैं. आदिवासियों के इस आक्रोश के पीछे कई मामलों के खिलाफ सामूहिक गुस्सा और भय दोनों व्याप्त रहा है.

मूलतः भागलपुर जिले के नवगछिया प्रखण्ड के गुरुनाथ नगर गंगानगर गाँव के रहने वाले जैना मंडल ने लगभग पाँच-छह वर्ष पूर्व इस आदिवासी गाँव के समीप 14 एकड़ जमीन, जो बिहार के चर्चित जमींदारों में से एक मौलचंद के रिश्तेदार सुख सिंह की है, खेती करने के लिए 'लीज' पर ली. खेती के सिलसिले में इस आदिवासी गाँव में उसका आना-जाना बढ़ गया. इसी दौरान उसने एक आदिवासी लड़की को प्रेम जाल में फांस कर उससे विवाह कर लिया, जबकि वह पहले से शादीशुदा था और उसकी पहली पत्नी सरकारी स्कूल में 'शिक्षामित्र' की नौकरी कर रही है.

अनुसूचित-जनजाति के लिए आरक्षित पंचायत होने का लाभ लेते हुए उसने अपनी आदिवासी पत्नी को मुखिया पद के लिए चुनाव में खड़ा किया और चुनाव जिताने में सफल भी हो गया. इसलिए यह पूरा मामला भूमि हड़पने की एक सुनियोजित साजिश की तरह ही लगता है.

वर्ष 2009 में गांव के 70 आदिवासी परिवारों को इंदिरा आवास बनाने के लिये 35-35 हजार रुपया मिला. उन सबका भरोसा जीतकर जैना ने सबका घर बना देने की बात कहते हुए उनसे इंदिरा आवास का पैसा अपने पास जमा करा लिया. भोले-भाले आदिवासियों ने उसपर भरोसा करने के साथ-साथ पैसा दूसरे काम में न खर्च हो जाए, इस डर से उसके हवाले कर दिया. उस पैसे से जैना मंडल ने ईंट बनाने का चिमनी-भट्ठा खोल लिया और ईंटे का व्यापार करने लगा.

कुछ दिन इंतजार करने के बाद आदिवासी उससे पूर्व में किए गए वादे के मुताबिक घर बनाने की मांग करने लगे, लेकिन इसमें वह आनाकानी करने लगा. इससे तंग आकर लगभग दो माह पहले आदिवासियों ने उसके ईंट भट्ठे की ओर जाने वाले रास्ते को अवरुद्ध कर दिया. रास्ता खुलवाने के लिये जैना भाकपा-माले के स्थानीय के पास गया. भाकपा-माले के जिला कमिटी सदस्य एसके भारती के मुताबिक, 'पार्टी नेताओं की मौजूदगी में जल्द ही घर बना देने के उसके आश्वासन पर भट्ठे का आदिवासियों द्वारा बाधित रास्ता साफ कराया गया.' लेकिन दो माह बीत जाने पर भी उसने आदिवासियों के घर बनाने की दिशा में कोई पहल नहीं की.

बताया जाता है कि जैना ने जिस भूस्वामी सुख सिंह की जमीन 'लीज' पर ली थी, उसने अपनी दो बेटियों को 51-51 एकड़ जमीन दान में दी थी. इस जमीन का एक हिस्सा लगभग 17 एकड़ आदिवासी गाँव के ही पास है. इस जमीन को राज्य सरकार ने 'लाल कार्ड' घोषित कर दिया था, तभी से इस पर आदिवासी खेती कर रहे थे. राज्य सरकार के इस निर्णय के खिलाफ भूस्वामी हाईकोर्ट गए और कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में आया. इससे आदिवासी आर्थिक संकट में फंस गए.

बताया जाता है कि इस संकट का हल निकाल जैना मंडल ने भूस्वामी को जमीन बेचने पर राजी कर लिया. आदिवासियों के साथ मिलकर उसने तय किया कि सभी थोड़ा-थोड़ा जमीन खरीद लें. फिर उसने सभी आदिवासियों से अपने पास पैसा इकट्ठा करने को कहा. आदिवासियों ने जमीन खरीदने व लिखवाने की कानूनी प्रक्रिया की जानकारी के अभाव में उसके पास ही पैसा जमा कर देने में भलाई समझी.

जैना मंडल ने जिन आदिवासियों ने जमीन खरीदने का पैसा जमा किया था, उनके नाम जमीन खरीदने के बजाय सारी जमीन अपने मुखिया पत्नी के नाम करा दी. इसका खुलासा तब हुआ जब आदिवासी उससे अपने-अपने हिस्से की जमीन बाँट देने की बात करने लगे. इससे निपटने के लिए जैना ने जिले के डीसीएलआर (भू-राजस्व से संबंधित अधिकारी) के पास अपनी पत्नी के नाम खरीदी गई जमीन के 'पोजीशन' बताने की अर्जी दे डाली. इसके बाद लगभग एक वर्ष पूर्व एसडीओ ने वहाँ का जायजा लिया तो इस मामले का खुलासा हुआ. आदिवासियों ने उनको अपनी व्यथा बताई, मगर धोखाधड़ी और मामले की जटिलता को देखते हुए वे भी कुछ नहीं कर पाये.

जैना की धोखाधड़ी से आदिवासी आक्रोशित हो गये. 24 मई को जब जैना अपने गुर्गों के साथ उस पाँच एकड़ जमीन जो बिहार सरकार की है तथा उस पर वर्षों से आदिवासियों का कब्जा है, पर पूरी तैयारी के साथ मिट्टी खोदने आया तो आदिवासियों ने पहले उसे रोकने की कोशिश की. जब वो नहीं मन तो उसे जिंदा आग के हवाले कर दिया.

सामंती उत्पीड़न के लिहाज से पूरे बिहार में सबसे कुख्यात माने जाने वाले इसी क्षेत्र में आज से लगभग चार दशक पूर्व इस गांव से मात्र दस किलोमीटर दूरी पर स्थित आदिवासी गाँव रूपसपुर चँदवा में भूस्वामियों ने एक दर्जन से ज्यादा आदिवासियों की हत्या कर दी थी. आजादी के बाद इसे बिहार का पहला नरसंहार बताया जाता है. हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार फणीशवरनाथ रेणु ने भी इस घटना का उल्लेख किया था. कुकरन के आदिवासियों ने रूपसपुर चँदवा के आदिवासियों की भांति उत्पीड़कों के हाथों मरने के बजाय उसे ही मार डालना तय किया.

आदिवासी महिलाओं ने पुलिस के समक्ष स्पष्ट तौर पर इस घटना की जिम्मेवारी ली. पुलिस ने 89 लोगों को नामजद अभियुक्त बनाया है. 40 आदिवासी स्त्री-पुरुषों को गिरफ्तार कर पुलिस ने पहले उन्हें प्रताड़ित किया, उसके बाद जेल भेजा दिया. गिरफ्तार 16 महिलाओं को इतनी यातना दी गई कि उनमें से दो गर्भवती महिलाओं के गर्भपात तक हो गया.

इस मामले में पुलिस ने भाकपा-माले के पूर्णिया जिला सचिव ललन सिंह को मुख्य साजिशकर्त्ता के बतौर नामजद किया. गाँव में पुलिस कैंप कर रही है और गिरफ्तारी व दमन के डर से आदिवासी गाँव छोडकर भाग रहे हैं. सत्ताधारी दल जद-यू की धमदाहा विधायक लेसी सिंह आदिवासियों द्वारा की गई इस कार्रवाई को निंदनीय और दंडनीय बता रही हैं. भूस्वामी मौलचंद स्टेट के उत्तराधिकारी भाजपा सांसद उदय सिंह इस घटना के पीछे भाकपा-माले का हाथ बताते हैं. भाकपा-माले ने इन आरोपों के खिलाफ 29 मई को पूर्णिया में विरोध-मार्च निकालकर अपना प्रतिवाद दर्ज किया, जबकि महिला संगठन 'ऐपवा' की ओर से पुलिस द्वारा महिला उत्पीड़न के खिलाफ डीएम के समक्ष प्रदर्शन कर आदिवासियों की रिहाई और दोषी पुलिसकर्मी पर कार्रवाई की मांग की.

दरअसल, इस घटना की जड़ में मूल रूप से भूमि समस्या है. हालांकि आजादी के तुरंत बाद जमींदारी उन्मूलन से संबंधित कानून बनाने वाला पहला राज्य बिहार ही था. मगर सरकारों पर सामंती वर्चस्व के चलते इसे कभी सख्ती से लागू न किया जा सका. दलित-पिछड़े उभार की कोख से निकली सरकारें भी इसे लागू करने में नाकाम ही रही. यही हाल वर्ष 2005 में बिहार के बदलाव-विकास की बात करते हुए सत्ता में आई नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी सरकार का भी रहा. हालांकि सत्ता में आते ही उन्होंने वर्ष 2007 में भूमि सुधार के लिए पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार से सम्बद्ध रहे डी. बंद्दोपाध्याय की अध्यक्षता में 'भूमि सुधार आयोग' का गठन जरुर किया, लेकिन इसका भी वही हश्र हुआ. सरकार उसकी सिफ़ारिशों को लागू करने से पीछे हट गई.

कृषि-प्रधान और आधी से अधिक गरीब-भूमिहीन आबादी वाले राज्य बिहार के लिए भूमि सुधार का प्रश्न यहाँ की बहुसंख्यक आबादी के लिए जीवन-मरण और इज्जत की गारंटी से संबंधित प्रश्न है. जो लोग बिहारी समाज में सामंतवाद की उपस्थिति तक से इंकार करते हैं, वे शायद यहाँ रोज-ब-रोज होने वाले सामंती उत्पीड़न की घटनाओं से अपनी आँख पर पर्दा डाले रहते हैं और उसे देखना नहीं चाहते.

काम करने से इंकार करने पर गरीब-मजदूर की खुलेआम पिटाई, गरीब-दलित महिला से बलात्कार, छोटी-मोटी बात पर गरीबों या फिर उनके बाल बच्चों को बेरहमी से पीट देना तो यहाँ आम बात है. यही कारण है कि उत्पीड़ित तबके का भिन्न-भिन्न रूप में प्रतिरोध सामने आता रहता है. कभी दलितों-मुशहरों की ओर से, तो कभी आदिवासियों की ओर से इन सवालों पर प्रतिरोध का बिहार में दीर्घकालिक इतिहास रहा है. इसलिए भूमि समस्या के निराकरण में सत्ता के 'इग्नोरेंस' के खिलाफ जब पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से आंदोलन शुरू हुआ तो बिहार के गरीबों ने सबसे आगे बढ़कर उसे गले लगाया, क्योंकि यह उन्हें अपनी मुक्ति से जुड़ा हुआ आंदोलन लगा.

जनता के प्रतिरोध को दबाने के लिए कथित ऊंची जाति के सामंतों-जमींदारों ने जब निजी सेना बनाई तो मझोली जातियों के भूस्वामियों ने भी उसे अपना समर्थन दिया, जिससे उनकी वर्गीय एकता की ही पुष्टि होती है. राज्य की आती-जाती सरकारों ने भी उन्हीं के एजेंडे पर काम किया और जन-प्रतिरोध को कुचलने के लिये कई-कई बार निजी सेना और पुलिस का साझा अभियान चलाया गया.

इसकी पुष्टि तब और खुलकर हुई जब भूस्वामियों की कुख्यात सेना-रणवीर सेना जिस पर दो दर्जन से अधिक नरसंहार में लगभग 300 दलित-पिछड़ी जाति व अल्पसंख्यक समुदाय के गरीबों, जिनमें स्त्री और बच्चों को भी शिकार बनाया गया था, के संस्थापक बरहमेश्वर मुखिया की हत्या हुई. मुखिया की मौत से मर्माहत लोगों में दलितों के मसीहा कहलाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, कभी बिहार की सत्ता की चाभी लेकर घूमने वाले दलित नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान सहित अन्य ने भाजपा-जदयू और कांग्रेस के साथ खड़े होकर आँसू बहाये.

मामले की सीबीआई जांच की मांग हुई और सुशासन बाबू ने फौरन इसकी अनुशंसा करते हुए सामंती प्रतिबद्धता का सबूत पेश किया. इससे बिहार में भूमि सुधार के मार्ग की गंभीरता और राजनीतिक जटिलता का साफ पता चलता है. यही कारण है कि आज इनके एजेंडे से भूमि सुधार का मुद्दा सिरे से गायब हो गया है, अगर है भी तो महज खानापूर्ति. इस मामले में भाकपा-माले जन-प्रतिरोध संगठित करती प्रतीत करती है, लेकिन उसे भी इसमें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है.

बिहार के मौजूदा राजनीतिक हालात के चलते राज्य के ग्रामीण अंचलों में बड़े पैमाने पर भूमि समस्या के कारण कलह हो रहे हैं. न्यायालयों में जितने भी मामले लंबित हैं, उनमें ज़्यादातर भूमि विवाद से ही संबंधित हैं. डी. बंद्दोपाध्याय आयोग के अनुसार राज्य में गैर मजरुआ, शिलिंग से फाजिल, बेनामी, मंदिर-मठों एवं भूदान की 21 लाख एकड़ जमीन है, जिसे आयोग ने भूमिहीन-गरीबों के बीच बांटने की सिफ़ारिश की थी. जिस पूर्णिया जिले में उपरोक्त घटना घटी है, लगभग पाँच लाख एकड़ ऐसी जमीन अकेले इसी जिले में है.

(मुकेश कुमार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में रिसर्च फ़ेलो हैं.)

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4056-dalit-adivasi-aakrosh-kee-abhivykti-jaina-mandal-hatyakand

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