THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, June 5, 2013

काजल की कोठरी में सबके चेहरे रंगीन, इसीलिए सूचना के अधिकार को डंप करने लगी राजनीति!

काजल की कोठरी में सबके चेहरे रंगीन, इसीलिए सूचना के अधिकार को डंप करने लगी राजनीति!


पलाश विश्वास


इस देश में राजनीति सबसे पवित्र गाय है क्योंकि लोकतंत्र और कानून व्यव्था का छेका उसी का एकाधिकार है। जिसका नतीजा आम भारतवासी दिन प्रतिदिन भुगत रहा है। सूचना के अधिकार के तहत सरकार, प्रशासन पर कार्रवाई हो सकती है , लेकिन  राजनीति के विरुद्ध नहीं। वामपंथी, दक्षिणपंथी संघी, अंबेडकरवादी, समाजवादी, क्षेत्रीय अस्मिता, गांधीवादी और कांग्रेस गैरकांग्रेस राजनीति अराजनीति सुशील समाज की सार्वभौम एकता का नजारा निरंतर जारी जनविरोधी नीतियों की निरंतरता में अनवरत अभिव्यक्त होती रहती है। राजनीतिक समीकरण चाहे कुछ हो , पूरी राजनीति देश को लूटने खसोटने, देश को बेचने और आम जनता के चौकतरफा स्रवनाश के जरिये एकक दूसरे के हित साधने में एक जुट है अप्रतिम संसदीय तालमेल के तहत।राजनीतिक दलों की फंडिंग को सार्वजनिक करने की मांग तो बहुत पुरानी है। खुद सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फैसले में कह चुका है कि देश के नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के खर्च का स्रोत क्या है।बीजेपी देश में भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है, लेकिन बतौर राजनीतिक पार्टी आरटीआई के दायरे में आना उसे मंजूर नहीं है। दूसरी तरफ राहुल गांधी अपनी हर सभा में आरटीआई को लाने का श्रेय लेते हैं, लेकिन अपनी पार्टी को इसके दायरे से बाहर रखना चाहते हैं। जेडी(यू), एनसीपी और सीपीआई (एम) ने भी इस फैसले का विरोध किया है।राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने के फैसले के खिलाफ करीब-करीब सभी प्रभावित पार्टियां खुलकर बोल रही हैं।


राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता अर आम जनता के प्रति है, अगर जनहित से ही जुड़े हैं उनके तमाम कार्यक्रम और उन दलों के नेता कार्यकर्ता भी भारतीय नागरिक हैं, तो कानून का राज समान रुप से उनके लिए क्यों नहीं लागू होना चाहिए ?


लोकतंत्र को पारदर्शी बनाने की मांग करने वाले लोग राजनीति को पारदर्शी बनाने को क्यों तैयार नहीं होते?


फिर, भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में चुनावी प्रत्याशियों और मंत्रियों के चयन आदि की प्रक्रिया में पारदर्शिता क्यों नहीं होनी चाहिए? जब आप सार्वजनिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण कामकाज से जुड़े हैं, और सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, तो अपने बारे में जानकारी सार्वजनिक करने में आपत्ति क्यों है?


राजनीतिक पार्टियों ने खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाए जाने के केंद्रीय सूचना आयोग के कदम पर जैसी क्षुब्ध प्रतिक्रिया जताई है, वह एक और सुबूत है कि पारदर्शिता की दुहाई देने वाले ये दल खुद ईमानदारी और पारदर्शिता के किसी पैमाने में बंधने के इच्छुक नहीं हैं।


हकीकत तो यह है कि सूचना का अधिकार मिलने के बाद से ही जनता की दिलचस्पी राजनीतिक पार्टियों की आमदनी और खर्च का ब्यौरा हासिल करने में रही है। लेकिन सूचना के अधिकार से बाहर होने के कारण राजनीतिक पार्टियाँ जवाबदेही से हमेशा बचती रहीं। अब केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा सभी राजनैतिक दलों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में आने के सम्बन्ध तीन जून को दिए गए एतिहासिक फैसले से देश की सभी सियासी पार्टियाँ तिलमिला उठी हैं।


सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत के संसद द्वारा पारित एक कानून है जो 12 अक्तूबर, 2005 को लागू हुआ (15 जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120 वें दिन)। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिये इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया जाता है। इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकार्डों और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। जम्मू एवं काश्मीर मे यह जम्मू एवं काश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतरगत लागू है।आम आदमी के लिए सचाई सामने लाने का हथियार बन चुका  सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ) छह साल पहले जब देश में लागू हुआ था तब इसकी ताकत का अंदाजा कम ही लोगों को रहा होगा। आज इसकी मदद से 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी और लवासा सिटी जैसे ढेरों बड़े घोटाले उजागर हुए हैं।दावा तो यहां तक है कि आजादी के बाद किसी कानून का इतना असर नहीं पड़ा जितना आरटीआइ का। इससे भ्रष्टाचार के मामले तो उजागर हो ही रहे हैं, जवाबदेही भी बढ़ी है।



कारपोरेट फंडिग को वैध बनाकर अबाध पूंजी प्रवाह की कालाधन रिसाइक्लिंग अर्थव्यवस्था को कारपोरेट राज में बदलने में कोई कसर बाकी नहीं है। पहले चरण के सुधारों का विरोध नहीं हुआ और न दूसरे चरण के सुधारों का। केंद्र की जनविरोधी नीतियों पर आम जनता के दरबार में हंगामा बरपा देने वाले उन्ही नीतियों के अमल का विरोध में एक शब्द तक खर्च नहीं करते। नीति निर्धारण से लेकर संसदीय कार्रवाही और न्यायिक प्रक्रिया भी कारपोरेट लाबिंग से तय होती है। रोज बाजार के विस्तार के लिए नायक और महानायक तैयार करके उनके देशव्यापी आईपीएल सर्कस लगाया जाता है। आम जनता की जमापूंजी लूटने के लिए भविष्य निधि से लेकर पेंशन, बैंक खाता, वेतन, बीमा तक शेयर बाजार के हवाले हैं, जहां सेबी बड़े खिलाड़ियों के मुनाफे के लिे हर वक्त मुश्तैद है तो रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीतियांभी कारपोरट हितों के मुताबिक तय होती हैं। तमाम केंद्रीय एजंसियां माफिया, अंडरवर्ल्ड, हवाला कारोबार, पोंजी चिटफंड, फिक्सिंग, मिक्सिंग और बेटिंग को रोकने के बजाय उन्हें बढ़ाने में मददगार हैं।  संप्रग के प्रबंधक खाद्य सुरक्षा विधेयक और जमीन अधिग्रहण विधेयक में पिछले कार्यकाल के मनरेगा, सूचना का अधिकार कानून, वनाधिकार अधिनियम और किसानों की कर्ज माफी जैसी योजनाओं से मिला राजनीतिक लाभांश देख रहे होंगे। असल में खाद्य सुरक्षा विधेयक का जो संशोधित मसौदा संसद में पेश किया गया था, उससे उसे काफी उम्मीदें हैं, बावजूद इसके कि अब भी सरकार के कुछ घटक और विपक्षी दलों को आपत्तियां हैं।भाजपा नैतिक रूप से तो इस विधेयक के पक्ष में नजर आ रही है, पर वह भी नहीं चाहती कि इसका एकतरफा लाभ यूपीए को मिले।


इस बात को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है कि क्या सरकार खाद्य सुरक्षा पर अध्यादेश जारी करेगी क्योंकि इस सिलसिले में मंत्रिमंडल के अलावे विपक्षी दलों, कुछ सहयोगी दलों और अन्य पार्टियों में मतभेदों के चलते प्रतीत होता है कि सरकार इस रास्ते का इस्तेमाल करने को लेकर दुविधा में है। सरकार इस महत्वपूर्ण कानून को जल्द लागू करना चाहती है लेकिन सरकार में ही ऐसे लोग हैं जो अध्यादेश का रास्ता अपनाने के खिलाफ हैं। यह विधेयक कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसके जरिये कोशिश है कि देश की 67 प्रतिशत आबादी को राशन की दुकानों के जरिये एकसमान मात्रा में पांच किलोग्राम अनाज एक से तीन रुपये प्रति किलोग्राम की दर से प्राप्त करने का कानूनी अधिकार मुहैया कराया जाए। ऐसी अटकलें थीं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में अध्यादेश जारी करने के प्रस्ताव पर चर्चा हो सकती है लेकिन ऐसी कोई चर्चा नहीं हुई। जारी बैठक के बाद खाद्य सुरक्षा विधेयक के बारे में बार बार पूछे जाने पर वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि मैं उस विषय पर प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता जिस पर मंत्रिमंडल की बैठक में चर्चा ही नहीं की गई। उन्होंने कहा कि खाद्य सुरक्षा विधेयक पर मंत्रिमंडल में चर्चा नहीं हुई। वह संसद में है।


राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने के सूचना आयोग के फैसले पर केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने आरटीआई पर कुछ अंकुश रखने की वकालत करते हुए आज कहा कि इसे बेकाबू नहीं होने दिया जा सकता।  खुर्शीद ने यहां कहा कि देश में आरटीआई एक विकसित होती हुई प्रक्रिया के अधीन है तथा इसके दायरे और ताकत का परीक्षण हो रहा है। उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार का एक तर्क है और यह सूचना आयोग के आदेशों में परिलक्षित होता है। इस तर्क को अदालतों सहित विभिन्न स्तरों पर परखा जाएगा। उन्होंने कहा कि उनके विचार में आरटीआई की व्यवस्था को परिभाषित करते समय अत्यधिक संवेदनशील होना चाहिए।कांग्रेस को लग रहा है कि केंद्रीय सूचना आयोग का यह फैसला लोकतंत्र पर चोट है। कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी ने इस फैसले का जोरदार विरोध करते हुए कहा कि यह लोकतंत्र पर आघात है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस इस फैसले का विरोध करती है और उसे मंजूर नहीं है।


शुरू में बीजेपी सीआईसी (सेंट्रल इन्फर्मेशन कमिशन) के इस फैसले पर कुछ भी खुलकर बोलने से परहेज करती रही। लेकिन जैसे ही कांग्रेस ने जोरदार तरीके से इस फैसले का विरोध करना शुरू किया कि बीजेपी का रुख भी साफ हो गया। बीजेपी के प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग के प्रति जिम्मेदार हैं न कि केंद्रीय सूचना आयोग के प्रति। बीजेपी ने कहा कि सीआईसी का यह फैसला लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।


राजनीतिक दलों को चंदा हासिल करने के लिए विदेशी कंपनियों से भी परहेज नहीं है। वह भी तब जब यह पूरी तरह से असंवैधानिक है।राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का पुरजोर विरोध करने वाली कांग्रेस और भाजपा ने तो वर्ष 1984 में भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कंपनी डाउ केमिकल्स से भी चंदा लेने से गुरेज नहीं किया।इन दोनों ही दलों ने वर्ष 2003 से वर्ष 2011 के दौरान विदेशी कंपनियों से लगभग 30 करोड़ रुपये चंदे के रूप में स्वीकार किए। विदेशी कंपनियों से चंदा लेना असंवैधानिक है। यह फेरा के साथ-साथ जनप्रतिधित्व कानून का भी सीधा-सीधा उल्लंघन है।इसके बावजूद वर्ष 2011 तक भाजपा और कांग्रेस ने छह विदेशी कंपनियों से क्रमश: 19,42,50,000 रुपये और 9,83,50,000 रुपये लिए।जिन विदेशी कंपनियों से चंदा लिया गया उनमें डाउ केमिकल्स, वेदांत की मद्रास एल्युमिनियम कंपनी लि., सेसा गोवा लिमिटेड, स्टरलाइट इंडस्ट्रीज इंडिया, सोलाराइज होल्डिंग्स और हयात रिजेंसी शामिल हैं।ये कंपनियां चंदे के रूप में बड़ी राशि दे कर अपने पक्ष में नीतियां तैयार कराने लगीं। अब राजनीतिक दल और सांसद खुद को संविधान से ऊपर मानते हैं।चूंकि चंदा बटोरने के मामले में सभी दल सही-गलत का ख्याल नहीं रखते, इसलिए सूचना मांगे जाने पर इन्हें परेशानी होती है।


रोज नये घोटालों की खबर होती है।रोज स्टिंग आपरेशन होते हैं। रोज जांच की प्रक्रिया शुरु होती है। गिरफ्तारियां भी होती हैं। लेकिन राजनीति का खेल इतना पक्का है कि कहीं कुछ नहीं होता।


एक खबर दूसरी खबर को दबा देती है। सारे घोटाले और भ्रष्टाचार के तार भारतीय राजनीति के कारपोरेट कायाकल्प से जुड़ते हैं,जहां तमाम संवैधानिक रक्षाकवच का उद्देश्य ही भ्रष्टाचार और घोटालों को सर्वोच्च स्तर तक जारी रखना है और सर्वदलीय मलीबगत से मिल बांटकर जनता को चूना लगाना है। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या है कि कारपोरेट लाबिंग से तय होता है कि कौन राष्ट्रपति बनें और कौन प्रधानमंत्री। अद्यतन सारे घोयालों के तार तो राष्ट्रपति भवन से जुड़े हैं।


यही कारण है कि  अभीतक जो लोग सूचना के अधिकार की प्रशंसा में अघाते नहीं थे, राजनीति के इसके दायरे में लाते ही बौखला गये हैं। उनकी अपारदर्शी चहारदीवारी पर सूरज की किरणें जगमगाकर उनकी अकूत बेहिसाब कालाधंधों को उजागर न कर दें, बस, इसी चिंता ने चुनावी राजनीति से परे पूरी राजनीतिक जमात को एकजुट कर दिया है।


आर्थिक सुधारों को लागू करने में और पूंजी के अबाध प्रवाह को जारी रखने में यह अटूट ऐक्य बार बार अभिव्यक्त होता रहा है। लेकिन भूमि सुधार का मामला हो या आदिवासियों को स्वायत्तता देने का मामला, महिलाओं को राजनीतिक संरक्षण का मामला हो या खाद्य सुरक्षा विधेयक या अन्य कोई राष्ट्रीय मसला, जिसे तत्काल संबोधित किये जाने की फौरी जरुरत हो, राजनीति तब बिखरी बिखरी नजर आती है।


भारतीय कृषि के सर्वनाश के विरुद्ध या किसानों की आत्महत्याओं के विरुद्ध यहां तक कि घनघोर प्राकृतिक आपदा के वक्त भी राजनीति की यह एकता अनुपस्थित है।


माओवादी हिंसा से निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं रोज, जिनकी जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली पर आधारित है विकास गाथा, राष्ट्र के सैन्यीकरण के जरिये इसी जनता के दमन के लिए भारतीय पुलिस, अर्ध सैनिक बलों और यहां तक कि सेना के जवानों को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करना केद्र और राज्यसरकार का एकमात्र राष्ट्रीय खेल है। जलवा जुड़ुम के तहत और ऐसे ही घोषित अघोषित नामांतरित अबभियानों में मारे जाने वाले आदिवासी, गैर आदिवासी और सुरक्षाकर्मियों की थोक बलि पर राजनीति की नीद नहीं टूटती।


सुकमा के जंगल में पहलीबार माओवादियों ने राजनीति पर सीधा प्रहार कर दिया और जख्मी राजनीति को राष्ट्रीय संकट का नजारा समझ में आ रहा है। केंद्र और राज्यों की राजधानियों में राजनीतिक और सैन्य सरगर्मिया बढ़ गयी है माओवाद से निपटने के बहाने वंचितों के दमन के लिए। पूरी राजनीति एक सुर एक ताल से बोल रही है।


इरोम शर्मिला बारह साल से आमरण अनशन पर 1958 से जारी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत पूर्वोत्तर में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध, सोनी सोरी पर जेल में अमानवीय यातना देने वाले पुलिस कर्मी को राष्ट्रीय पदक देकर सम्मानित करती है यही राजनीति और पुलिस व सुरक्षाबलों के बलात्कार के अधिकार को जारी रखते हुए बलात्कार विरोधी कानून भी बना डालती है। राजनेताओं की पीढ़ियां बदलजाती हैं, पर हालात नहीं बदलते।


भारत में प्रतिरक्षा के नाम पर देशभक्ति के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के निरंतर आवाहन के साथ रक्षा सौदों में लगातार घोटाला होता रहा है।आंतरिक सुरक्षा का आम जनता की सुरक्षा से कोई मतलब नहीं है। विशिष्ट जनों की सुरक्षा के लिए ही बजट बनता है और खर्च होता है। आम लोग तो निहत्था असुरक्षित रहने को अभिशप्त हैं ही। उनकी ओर से थाने में आजादी के सात दशक के बावजूद बिना राजनीतिक हस्तक्षेक के गंभीर से गंभीर मामलों में एफआईआर तक दर्ज नहीं होते। सलवा जुड़ुम के तहत ही मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक निनाब्वे बलात्कार के मामले हुए, किसी मामले में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुआ। मणिपुर की माताओं के नग्न प्रदर्शन ने बहुत पहले साबित कर दिया कि इस देश में संविधान, कानून के राज और लोकतंत्र का असली मतलब क्या है।


सूचना आयोग ने एक फैसले में कहा है कि राजनीतिक दल सरकार से वित्तीय मदद प्राप्त करते हैं और इसलिए वे क्लिक करें जनता के प्रति जबावदेह हैं। आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने सूचना आयोग के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज करा राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने की मांग की थी।सूचना आयोग ने दोनों शिकायतों पर एक साथ सुनवाई करते हुए राजनीतिक दलों को खर्च और चंदे का ब्यौरा क्लिक करें सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध करवाने का आदेश दिया है।


राजनीतिक पार्टियों को डर सता रहा है कि आरटीआई के दायरे में आने से फंड को लेकर कई तरह के सवाल पूछे जाएंगे। राजनीतिक पार्टियों को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे के नाम पर मोटी रकम मिलती है। हालांकि, 20 हजार से ज्यादा की रकम पर पार्टियों को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को सूचना देनी होती है। लेकिन, चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म(एडीआर) का कहना है कि अब चालाकी से पार्टियां 20 हजार से कम की कई किस्तों में पैसा ले रही हैं। ऐसे में पता नहीं चलता है कि किसने कितनी रकम दी है और क्यों दी है।


आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि सत्ता में रहने वाली पार्टी फंड के दम पर कॉर्पोरेट घरानों को जमकर फायदा पहुंचाती है। 'आप' के नेता संजय सिंह ने कहा कि जिन कॉर्पोरेट घरानों को सस्ते में कोल ब्लॉक आवंटित किए गए उनसे कांग्रेस और बीजेपी, दोनों पार्टियों को चंदा के नाम पर मोटी रकम मिलती रही है। कई टेढ़े सवाल होंगे, जिनके जवाब देने में राजनीतिक पार्टियों को पसीने छूट जाएंगे। किस आधार पर कौन पार्टी टिकट बांट रही है और पैसे लेकर टिकट बेचने समेत कई सवालों से राजनीतिक पार्टियों को दो-चार होना पड़ सकता है।


इस मामले में याचिका दाखिल करने वाले आरटीआई ऐक्टिविस्ट और एडीआर के सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि राजनीति पार्टियों की बेचैनी से ही साफ हो जाता है कि क्यों ये आरटीआई के दायरे में नहीं आना चाहती हैं। अग्रवाल ने कहा कि सीआईसी के इस फैसले के राजनीति में पारदर्शिता बढ़ेगी और चुनाव सुधार के क्षेत्र में भी एक अहम कदम होगा। दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों का कहना है कि आरटीआई जब संसद से पास किया गया था तब इसके दायरे में राजनीतिक पार्टियों को नहीं लाने का फैसला किया था। ऐसे में सीआईसी का यह फैसला संसद का अपमान है।


बीबीसी के मुताबिक 6 सितंबर 2011 को सूचना आयोग के समक्ष दायर अपनी शिकायत में सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण दिल्ली में बेशकीमती सरकारी जमीनें रियायती किराये पर मुहैया करावाई गई हैं. इसलिए पार्टियां जनता के प्रति जबावदेह हैं.


वहीं 14 मार्च 2011 को सूचना आयोग के समक्ष दायर की गई अपनी शिकायत में अनिल बैरवाल ने तर्क दिया था कि चूंकि कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी पर जनता का पैसा खर्च होता है इसलिए ये राजनीतिक दल आरटीआई की धारा 2(एच) के तहत आती हैं.


दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए मुख्य सूचना आयुक्त ने 31 जुलाई 2012 को तीन सदस्यीय बेंच गठित करने का आदेश दिया था.


इस बेंच में सूचना आयुक्त श्रीमती अन्नापूर्णा दीक्षित और सूचना आयुक्त श्री एमएल शर्मा शामिल थे. मुख्य सूचना आयुक्त श्री सत्येंद्र मिश्र इसके अध्यक्ष थे.


बेंच के समक्ष सबूत पेश करते हुए सुभाष चंद्र अग्रवाल ने बताया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने दफ्तर 24 अकबर रोड का किराया मात्र 42,817 रुपये देती है.


भारतीय जनता पार्टी अपने दफ्तर 11 अशोक रोड का किराया मात्र 66,896 रुपये ही देती है.


राजनीतिक दलों को अब हिसाब देना होगा कि पैसा कहां से आया और कहां खर्च हुआ.

उन्होंने अन्य पार्टियों के दफ्तरों के किराए का ब्यौरा भी सूचना आयोग के समक्ष पेश किया.


फ़ैसला


श्री अनिल बैरवाल ने पार्टियों को मिलने वाली टैक्स छूट का ब्यौरा उपलब्ध करवाया.


सूचना आयोग के समक्ष प्रस्तुत की गई सूचना के मुताबिक बीजेपी को साल 2006 से 2009 के बीच 141.25 करोड़ रूपये की टैक्स छूट दी गई.


वहीं कांग्रेस पार्टी को क़रीब 300 करोड़ रुपये की टैक्स छूट दी गई.


अपने फैसले में सूचना आयोग ने कहा, 'भारत के मौजूदा कानून राजनीतिक दलों को अपनी कमाई और खर्च का ब्यौरा जनता को उपलब्ध करवाने के लिए मजबूर नहीं करते हैं. ऐसे में नागरिकों के पास इस जानकारी को हासिल करने का एकमात्र ज़रिया पार्टियों द्वारा आयकर विभाग के समक्ष दायर आयकर रिटर्न ही है."


आयोग ने कहा, "राजनीतिक पार्टियों के चंदे के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में जनता की दिलचस्पी रहती है. इससे वोट देते वक्त सही फैसला लेने में भी मदद होगी. लोकतंत्र के सुचारू रूप से चलने के लिए पारदर्शिता जरूरी है. राजनीतिक दल राजनीतिक शक्ति के निर्वाह में अहम भूमिका निभाते हैं ऐसे में उनका पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह होना जनहित में है."


सूचना आयोग ने अपने फैसले में कहा है कि कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सीपीआई, एनसीपी जैसी पार्टियां केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता लेती हैं इसलिए यह सूचना के अधिकार की धारा के अंतर्गत आती हैं.


सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाते हुए राजनीतिक पार्टियों को छह सप्ताह के अंदर जनसूचना अधिकारी और अपीलीय प्राधिकरण तैनात करने और मांगे जाने पर चार सप्ताह के भीतर जानकारी उपलब्ध करवाने का आदेश दिया है.



इस फैसले के बाद सत्ताधारी कांग्रेस ने ही सीआईसी को निशाने पर नहीं लिया है, बल्कि अब तक अपनी शुचिता के लिए पहचानी जाने वाली माकपा का बिफरना तो और भी आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों को शायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि सिविल सोसाइटी के दबाव पर सूचना के अधिकार का जो कानून अस्तित्व में आया, एक दिन खुद वे भी उसकी जद में आ जाएंगे। देशवासियों को भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिये सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून  का प्रभावशाली हथियार देने वाली संप्रग सरकार की अगुवाई  कर रही कांग्रेस को खुद इसके दायरे में आना स्वीकार नहीं है। कांग्रेस ने राजनीतिक दलों को इस कानून के दायरे में लाने के केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले को खारिज करते हुए इसे विचारधारा का दमन और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चोट करने वाला करार दिया है।  गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी ने ही सूचना का अधिकार कानून बनाया था और जिसके बाद खूब वाहवाही लूटी थी।अब खुद पार्टी इस फैसले से सहमत नहीं है।


वहीं बीजेपी के मुताबिक बीजेपी राजनीतिक क्षेत्र में पारदर्शिता के पक्ष में है, और वो आयकर विभाग और चुनाव आयोग के कानूनों का पालन करते हैं। इसके अलावा सूचना आयोग के निर्देश का भी पालन करेंगे।राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने के केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के फैसले पर बीजेपी ने यू टर्न ले लिया है। पार्टी ने मंगलवार को पहले तो फैसले का समर्थन किया और कहा कि उसे इससे किसी तरह की दिक्कत नहीं है, लेकिन चंद मिनटों बाद ही यू टर्न लेते हुए फैसले का विरोध किया। बीजेपी ने कहा कि चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को साफ करना चाहिए कि आखिर पार्टियां किसके प्रति जवाबदेह हैं, चुनाव आयोग के या फिर सूचना आयोग के। पार्टी का यह भी कहना है कि इस मामले में सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए ताकि इस बारे में फैसला लिया जा सके। बीजेपी प्रवक्ता कैप्टन अभिमन्यु ने इस बारे में पूछे गए सवाल पर कहा कि पार्टी ऐसे किसी नियम, कानून या आदेश के विरोध में नहीं है, जिनसे शुचिता को ताकत मिले और पारदर्शिता मजबूत हो। जब उनसे पूछा गया कि क्या अन्य पार्टियों की तरह बीजेपी भी इस फैसले के खिलाफ है तो उन्होंने फैसले को चुनौती देने से इनकार करते हुए कहा कि बीजेपी शुरू से ही शुचिता का पालन कर रही है। लेकिन पार्टी ने अभिमन्यु के बयान के कुछ ही मिनटों के भीतर यू टर्न ले लिया। पार्टी उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि चुनाव आयोग और सरकार यह साफ करे कि राजनीतिक पार्टियों की जवाबदेही चुनाव आयोग के प्रति है या फिर सूचना आयोग के प्रति। पार्टी ने कहा कि सीआईसी का यह फैसला लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। इस फैसले से पार्टियों को अपनी बैठकों के चाय पानी का खर्च, राजनीतिक सभाओं पर आने वाला खर्च और पार्टी की आंतरिक बैठकों की जानकारी देनी होगी।


माकपा ने भी राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के मुख्य सूचना आयोग  के आदेश को अस्वीकार्य बताया  है। पार्टी के पोलित ब्यूरो ने  एक बयान जारी कर कहा,यह फैसला संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों की भूमिका के बारे में गलत अवधारणा पर आधारित है।


अब कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी के मुताबिक वो सूचना आयोग के उस आदेश को सिरे से खारिज करते हैं जिसमें राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के तहत आने की बात कही गई थी।जनार्दन के मुताबिक कांग्रेस पार्टी इस निर्णय से इत्तेफाक नहीं रखती है। जनार्दन ने आगे कहा है कि राजनीतिक पार्टियां किसी कानून के तहत नहीं बनाई गईं हैं साथ ही किसी सरकारी वित्तीय मदद से पार्टियां नहीं चलती हैं। इसके अलावा राजनीतिक दल लोगों की संस्थाएं हैं जो अपने लोगों के प्रति जवाबदेह है।


उल्लेखनीय है कि कांग्रेस केन्द्र की संप्रग सरकार के नौ साल के कार्यकाल में टू जी, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, कोयला, एस बैण्ड आदि घोटालों के आरोपों पर बचाव करते हुए आरटीआई कानून का हवाला देते हुए कहती रही है कि उसने ही जनता को भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिये १० रूपये की आरटीआई वाली बन्दूक दी है।


 



केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा राजनीतिक दलों को भी सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के दायरे में लाए जाने के फैसले के महज दो दिनों बाद ही गोवा में एक सूचना कार्यकर्ता ने इस दिशा में अपना काम शुरू कर दिया है।

सरकारी कर्मचारी रह चुके काशीनाथ शेट्टी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को आरटीआई के तहत अर्जी देकर पार्टी से खनन कंपनियों से मिली नगदी और चंदे के अलावा उसके अपने विधायकों एवं पदाधिकारियों द्वारा दिए जाने वाले अंशदान की जानकारी मांगी है।


शेट्टी ने आईएएनएस से कहा, "आरटीआई के तहत एक अर्जी भाजपा को सौंपी गई है। ऐसी ही अर्जियां कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) और गोवा विकास पार्टी (जीवीपी) जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को भी सौंपी जाएंगी।"


आरटीआई के तहत शेट्टी द्वारा मांगी गई जानकारी में 'भाजपा द्वारा वेदांता/सेसा गोवा एवं अन्य खनन कंपनियों से लिए गए चंदे' का हिसाब शामिल है।


गोवा में खनन कम्पनियों और राजनीतिक दलों के बीच चोली दामन का रिश्ता हालांकि जग जाहिर है, फिर भी इसका दस्तावेजों में कहीं जिक्र नहीं है।


राज्य में सबसे अधिक लौह अयस्क दोहन और निर्यात करने वाली कंपनी, सेसा गोवा प्रा.लि. ने 2009-10 में भाजपा को 85 लाख रुपये और कांग्रेस को 30 लाख रुपये का भुगतान किया था। इसी अवधि में एमजीपी को दो लाख रुपये, जबकि शिवसेना को एक लाख रुपये मिले थे।


यह दु:संयोग है कि यह दान उस अवधि में दिया गया, जब गोवा में खनन अपने चरम पर था और यह गैरकानूनी खनन हो रहा था।


शेट्टी ने यह भी पूछा है कि क्या भाजपा के हर विधायक को अंशदान करना होता है, "यदि हां तो कृपया विस्तृत ब्योरा मुहैया कराया जाए।"


अर्जी के माध्यम से 1999 से 2012 तक सभी चुनाव घोषणा पत्रों की मांग की गई है, ताकि यह देखा जा सके कि चुनावी घोषणा पत्रों में किए गए वादे भाजपा के सत्ता में आने के बाद पूरे किए गए या नहीं।


भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सीआईसी के आदेश का अध्ययन कर रहा है और प्रदेश इकाई को अभी तक वहां से आरटीआई अर्जियों पर कार्रवाई के तौरतरीके पर कोई निर्देश नहीं मिला है।


भाजपा नेता ने कहा कि आरटीआई अर्जियों के निस्तारण के लिए अपने सांगठनिक ढांचे को संशोधित और सूचनाओं को व्यवस्थित करने के लिए समय की दरकार है।


सूचना का अधिकार

भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी ही देश का असली मालिक होता है। इसलिए मालिक होने के नाते जनता को यह जानने का हक है कि जो सरकार उसकी सेवा के लिए बनाई गई है। वह क्या, कहां और कैसे कर रही है। इसके साथ ही हर नागरिक इस सरकार को चलाने के लिए टैक्स देता है, इसलिए भी नागरिकों को यह जानने का हक है कि उनका पैसा कहां खर्च किया जा रहा है। जनता के यह जानने का अधिकार ही सूचना का अधिकार है। 1976 में राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश मामले में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 19 में विर्णत सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। अनुच्छेद 19 के अनुसार हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्त करने का अधिकार है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जनता जब तक जानेगी नहीं तब तक अभिव्यक्त नहीं कर सकती। 2005 में देश की संसद ने एक कानून पारित किया जिसे सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम में व्यवस्था की गई है कि किस प्रकार नागरिक सरकार से सूचना मांगेंगे और किस प्रकार सरकार जवाबदेह होगी।


सूचना के अधिकार कानून के बारे में कुछ खास बातें:


सूचना का अधिकार अधिनियम हर नागरिक को अधिकार देता है कि वह -

सरकार से कोई भी सवाल पूछ सके या कोई भी सूचना ले सके.

किसी भी सरकारी दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति ले सके.

किसी भी सरकारी दस्तावेज की जांच कर सके.

किसी भी सरकारी काम की जांच कर सके.

किसी भी सरकारी काम में इस्तेमाल सामिग्री का प्रमाणित नमूना ले सके.


सभी सरकारी विभाग, पब्लिक सेक्टर यूनिट, किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता से चल रहीं गैर सरकारी संस्थाएं व शिक्षण संस्थाएं, आदि विभाग इसमें शामिल हैं. पूर्णत: निजी संस्थाएं इस कानून के दायरे में नहीं हैं लेकिन यदि किसी कानून के तहत कोई सरकारी विभाग किसी निजी संस्था से कोई जानकारी मांग सकता है तो उस विभाग के माध्यम से वह सूचना मांगी जा सकती है। (धारा-2(क) और (ज)


हर सरकारी विभाग में एक या एक से अधिक लोक सूचना अधिकारी बनाए गए हैं। यह वह अधिकारी हैं जो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार करते हैं, मांगी गई सूचनाएं एकत्र करते हैं और उसे आवेदनकर्ता को उपलब्ध् कराते हैं। (धारा-5(१) लोक सूचना अधिकारी की ज़िम्मेदारी है कि वह 30 दिन के अन्दर (कुछ मामलों में 45 दिन तक) सूचना उपलब्ध् कराए। (धारा-7(1)।


अगर लोक सूचना अधिकारी आवेदन लेने से मना करता है, तय समय सीमा में सूचना नहीं उपलब्ध् कराता है अथवा गलत या भ्रामक जानकारी देता है तो देरी के लिए 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 25000 तक का ज़ुर्माना उसके वेतन में से काटा जा सकता है। साथ ही उसे सूचना भी देनी होगी।


लोक सूचना अधिकारी को अधिकार नहीं है कि वह आपसे सूचना मांगने का करण पूछे (धारा 6(2)


सूचना मांगने के लिए आवेदन फीस देनी होगी (केन्द्र सरकार ने आवेदन के साथ 10 रुपए की फीस तय की है

लेकिन कुछ राज्यों में यह अधिक है,  बीपीएल कार्डधरकों से सूचना मांगने की कोई फीस नहीं ली जाती (धारा 7(5)।


दस्तावेजों की प्रति लेने के लिए भी फीस देनी होगी. (केन्द्र सरकार ने यह फीस 2 रुपए प्रति पृष्ठ रखी है लेकिन

कुछ राज्यों में यह अधिक है, अगर सूचना तय समय सीमा में नहीं उपलब्ध् कराई गई है तो सूचना मुफ्रत दी जायेगी। (धारा 7(6)


यदि कोई लोक सूचना अधिकारी यह समझता है कि मांगी गई सूचना उसके विभाग से सम्बंधित नहीं है तो यह

उसका कर्तव्य है कि उस आवेदन को पांच दिन के अन्दर सम्बंधित विभाग को भेजे और आवेदक को भी सूचित

करे। ऐसी स्थिति में सूचना मिलने की समय सीमा 30 की जगह 35 दिन होगी। (धारा 6(3)


लोक सूचना अधिकारी यदि आवेदन लेने से इंकार करता है। अथवा परेशान करता है। तो उसकी शिकायत सीधे

सूचना आयोग से की जा सकती है।


सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं को अस्वीकार करने, अपूर्ण, भ्रम में डालने वाली या गलत सूचना देने अथवा सूचना के लिए अधिक फीस मांगने के खिलाफ केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के पास शिकायत कर सकते है।


लोक सूचना अधिकारी कुछ मामलों में सूचना देने से मना कर सकता है। जिन मामलों से सम्बंधित सूचना नहीं दी जा सकती उनका विवरण सूचना के अधिकार कानून की धारा 8 में दिया गया है।


लेकिन यदि मांगी गई सूचना जनहित में है तो धारा 8 में मना की गई सूचना भी दी जा सकती है।


जो सूचना संसद या विधानसभा को देने से मना नहीं किया जा सकता उसे किसी आम आदमी को भी देने से मना नहीं किया जा सकता।


यदि लोक सूचना अधिकारी निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना नहीं देते है या धारा 8 का गलत इस्तेमाल करते हुए सूचना देने से मना करता है, या दी गई सूचना से सन्तुष्ट नहीं होने की स्थिति में 30 दिनों के भीतर सम्बंधित लोक सूचना अधिकारी के वरिष्ठ अधिकारी यानि प्रथम अपील अधिकारी के समक्ष प्रथम अपील की जा सकती है (धारा 19(1)।


यदि आप प्रथम अपील से भी सन्तुष्ट नहीं हैं तो दूसरी अपील 60 दिनों के भीतर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग (जिससे सम्बंधित हो) के पास करनी होती है। (धारा 19(3)।


सूचना का अधिकार क्या है?


संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है. अनुच्छेद 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति का अधिकार है. 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने "राज नारायण विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार" मामले में कहा है कि लोग कह और अभिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि वो न जानें. इसी कारण सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 में छुपा है. इसी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारत एक लोकतंत्र है. लोग मालिक हैं. इसलिए लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारें जो उनकी सेवा के लिए हैं, क्या कर रहीं हैं? व प्रत्येक नागरिक कर/ टैक्स देता है. यहाँ तक कि एक गली में भीख मांगने वाला भिखारी भी टैक्स देता है जब वो बाज़ार से साबुन खरीदता है.(बिक्री कर, उत्पाद शुल्क आदि के रूप में). नागरिकों के पास इस प्रकार यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है. इन तीन सिद्धांतों को सर्वोच्च न्यायालय ने रखा कि सूचना का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा हैं.


यदि आरटीआई एक मौलिक अधिकार है, तो हमें यह अधिकार देने के लिए एक कानून की आवश्यकता क्यों है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि आप किसी सरकारी विभाग में जाकर किसी अधिकारी से कहते हैं, "आरटीआई मेरा मौलिक अधिकार है, और मैं इस देश का मालिक हूँ. इसलिए मुझे आप कृपया अपनी फाइलें दिखायिए", वह ऐसा नहीं करेगा. व संभवतः वह आपको अपने कमरे से निकाल देगा. इसलिए हमें एक ऐसे तंत्र या प्रक्रिया की आवश्यकता है जिसके तहत हम अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सकें. सूचना का अधिकार 2005, जो 13 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ हमें वह तंत्र प्रदान करता है. इस प्रकार सूचना का अधिकार हमें कोई नया अधिकार नहीं देता. यह केवल उस प्रक्रिया का उल्लेख करता है कि हम कैसे सूचना मांगें, कहाँ से मांगे, कितना शुल्क दें आदि.


सूचना का अधिकार कब लागू हुआ?


केंद्रीय सूचना का अधिकार 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ. हालांकि 9 राज्य सरकारें पहले ही राज्य कानून पारित कर चुकीं थीं. ये थीं: जम्मू कश्मीर, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, असम और गोवा.


सूचना के अधिकार के अर्न्तगत कौन से अधिकार आते हैं?


सूचना का अधिकार 2005 प्रत्येक नागरिक को शक्ति प्रदान करता है कि वो:


सरकार से कुछ भी पूछे या कोई भी सूचना मांगे.

किसी भी सरकारी निर्णय की प्रति ले.

किसी भी सरकारी दस्तावेज का निरीक्षण करे.

किसी भी सरकारी कार्य का निरीक्षण करे.

किसी भी सरकारी कार्य के पदार्थों के नमूने ले.


सूचना के अधिकार के अर्न्तगत कौन से अधिकार आते हैं?


केन्द्रीय कानून जम्मू कश्मीर राज्य के अतिरिक्त पूरे देश पर लागू होता है. सभी इकाइयां जो संविधान, या अन्य कानून या किसी सरकारी अधिसूचना के अधीन बनी हैं या सभी इकाइयां जिनमें गैर सरकारी संगठन शामिल हैं जो सरकार के हों, सरकार द्वारा नियंत्रित या वित्त- पोषित किये जाते हों.


"वित्त पोषित" क्या है?


इसकी परिभाषा न ही सूचना का अधिकार कानून और न ही किसी अन्य कानून में दी गयी है. इसलिए यह मुद्दा समय के साथ शायद किसी न्यायालय के आदेश द्वारा ही सुलझ जायेगा.


क्या निजी इकाइयां सूचना के अधिकार के अर्न्तगत आती हैं?


सभी निजी इकाइयां, जोकि सरकार की हैं, सरकार द्वारा नियंत्रित या वित्त- पोषित की जाती हैं सीधे ही इसके अर्न्तगत आती हैं. अन्य अप्रत्यक्ष रूप से इसके अर्न्तगत आती हैं. अर्थात, यदि कोई सरकारी विभाग किसी निजी इकाई से किसी अन्य कानून के तहत सूचना ले सकता हो तो वह सूचना कोई नागरिक सूचना के अधिकार के अर्न्तगत उस सरकारी विभाग से ले सकता है.


क्या सरकारी दस्तावेज गोपनीयता कानून 1923 सूचना के अधिकार में बाधा नहीं है?


नहीं, सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अनुच्छेद 22 के अनुसार सूचना का अधिकार कानून सभी मौजूदा कानूनों का स्थान ले लेगा.


क्या पीआईओ सूचना देने से मना कर सकता है?


एक पीआईओ सूचना देने से मना उन 11 विषयों के लिए कर सकता है जो सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 8 में दिए गए हैं. इनमें विदेशी सरकारों से प्राप्त गोपनीय सूचना, देश की सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों की दृष्टि से हानिकारक सूचना, विधायिका के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने वाली सूचनाएं आदि. सूचना का अधिकार अधिनियम की दूसरी अनुसूची में उन 18 अभिकरणों की सूची दी गयी है जिन पर ये लागू नहीं होता. हालांकि उन्हें भी वो सूचनाएं देनी होंगी जो भ्रष्टाचार के आरोपों व मानवाधिकारों के उल्लंघन से सम्बंधित हों.


क्या अधिनियम विभक्त सूचना के लिए कहता है?


हाँ, सूचना का अधिकार अधिनियम के दसवें अनुभाग के अंतर्गत दस्तावेज के उस भाग तक पहुँच बनायीं जा सकती है जिनमें वे सूचनाएं नहीं होतीं जो इस अधिनियम के तहत भेद प्रकाशन से अलग रखी गयीं हैं.


क्या फाइलों की टिप्पणियों तक पहुँच से मना किया जा सकता है?


नहीं, फाइलों की टिप्पणियां सरकारी फाइल का अभिन्न अंग हैं व इस अधिनियम के तहत भेद प्रकाशन की विषय वस्तु हैं. ऐसा केंद्रीय सूचना आयोग ने 31 जनवरी 2006 के अपने एक आदेश में स्पष्ट कर दिया है.


मुझे सूचना कौन देगा?


एक या अधिक अधिकारियों को प्रत्येक सरकारी विभाग में जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) का पद दिया गया है. ये जन सूचना अधिकारी प्रधान अधिकारियों के रूप में कार्य करते हैं. आपको अपनी अर्जी इनके पास दाखिल करनी होती है. यह उनका उत्तरदायित्व होता है कि वे उस विभाग के विभिन्न भागों से आपके द्वारा मांगी गयी जानकारी इकठ्ठा करें व आपको प्रदान करें. इसके अलावा, कई अधिकारियों को सहायक जन सूचना अधिकारी के पद पर सेवायोजित किया गया है. उनका कार्य केवल जनता से अर्जियां स्वीकारना व उचित पीआईओ के पास भेजना है.


अपनी अर्जी मैं कहाँ जमा करुँ?


आप ऐसा पीआईओ या एपीआईओ के पास कर सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के मामलों में, 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है. अर्थात् आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई पटल पर अपनी अर्जी व फीस जमा करा सकते हैं. वे आपको एक रसीद व आभार जारी करेंगे और यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वो उसे उचित पीआईओ के पास भेजे.


क्या इसके लिए कोई फीस है? मैं इसे कैसे जमा करुँ?


हाँ, एक अर्ज़ी फीस होती है. केंद्र सरकार के विभागों के लिए यह 10रु. है. हालांकि विभिन्न राज्यों ने भिन्न फीसें रखीं हैं. सूचना पाने के लिए, आपको 2रु. प्रति सूचना पृष्ठ केंद्र सरकार के विभागों के लिए देना होता है. यह विभिन्न राज्यों के लिए अलग- अलग है. इसी प्रकार दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी फीस का प्रावधान है. निरीक्षण के पहले घंटे की कोई फीस नहीं है लेकिन उसके पश्चात् प्रत्येक घंटे या उसके भाग की 5रु. प्रतिघंटा फीस होगी. यह केन्द्रीय कानून के अनुसार है. प्रत्येक राज्य के लिए, सम्बंधित राज्य के नियम देखें. आप फीस नकद में, डीडी या बैंकर चैक या पोस्टल आर्डर जो उस जन प्राधिकरण के पक्ष में देय हो द्वारा जमा कर सकते हैं. कुछ राज्यों में, आप कोर्ट फीस टिकटें खरीद सकते हैं व अपनी अर्ज़ी पर चिपका सकते हैं. ऐसा करने पर आपकी फीस जमा मानी जायेगी. आप तब अपनी अर्ज़ी स्वयं या डाक से जमा करा सकते हैं.


मुझे क्या करना चाहिए यदि पीआईओ या सम्बंधित विभाग मेरी अर्ज़ी स्वीकार न करे?


आप इसे डाक द्वारा भेज सकते हैं. आप इसकी औपचारिक शिकायत सम्बंधित सूचना आयोग को भी अनुच्छेद 18 के तहत करें. सूचना आयुक्त को उस अधिकारी पर 25000रु. का दंड लगाने का अधिकार है जिसने आपकी अर्ज़ी स्वीकार करने से मना किया था.


क्या सूचना पाने के लिए अर्ज़ी का कोई प्रारूप है?


केंद्र सरकार के विभागों के लिए, कोई प्रारूप नहीं है. आपको एक सादा कागज़ पर एक सामान्य अर्ज़ी की तरह ही अर्ज़ी देनी चाहिए. हालांकि कुछ राज्यों और कुछ मंत्रालयों व विभागों ने प्रारूप निर्धारित किये हैं. आपको इन प्रारूपों पर ही अर्ज़ी देनी चाहिए. कृपया जानने के लिए सम्बंधित राज्य के नियम पढें.


मैं सूचना के लिए कैसे अर्ज़ी दूं?


एक साधारण कागज़ पर अपनी अर्ज़ी बनाएं और इसे पीआईओ के पास स्वयं या डाक द्वारा जमा करें. (अपनी अर्ज़ी की एक प्रति अपने पास निजी सन्दर्भ के लिए अवश्य रखें)


मैं अपनी अर्ज़ी की फीस कैसे दे सकता हूँ?


प्रत्येक राज्य का अर्ज़ी फीस जमा करने का अलग तरीका है. साधारणतया, आप अपनी अर्ज़ी की फीस ऐसे दे सकते हैं:

स्वयं नकद भुगतान द्वारा (अपनी रसीद लेना न भूलें)

डाक द्वारा:

डिमांड ड्राफ्ट से

भारतीय पोस्टल आर्डर से

मनी आर्डर से [केवल कुछ राज्यों में]

कोर्ट फीस टिकट से [केवल कुछ राज्यों में]

बैंकर चैक से


कुछ राज्य सरकारों ने कुछ खाते निर्धारित किये हैं. आपको अपनी फीस इन खातों में जमा करानी होती है. इसके लिए, आप एसबीआई की किसी शाखा में जा सकते हैं और राशि उस खाते में जमा करा सकते हैं और जमा रसीद अपनी आरटीआई अर्ज़ी के साथ लगा सकते हैं. या आप अपनी आरटीआई अर्ज़ी के साथ उस विभाग के पक्ष में देय डीडी या एक पोस्टल आर्डर भी लगा सकते हैं.


क्या मैं अपनी अर्जी केवल पीआईओ के पास ही जमा कर सकता हूँ?


नहीं, पीआईओ के उपलब्ध न होने की स्थिति में आप अपनी अर्जी एपीआईओ या अन्य किसी अर्जी लेने के लिए नियुक्त अधिकारी के पास अर्जी जमा कर सकते हैं.


क्या करूँ यदि मैं अपने पीआईओ या एपीआईओ का पता न लगा पाऊँ?


यदि आपको पीआईओ या एपीआईओ का पता लगाने में कठिनाई होती है तो आप अपनी अर्जी पीआईओ c/o विभागाध्यक्ष को प्रेषित कर उस सम्बंधित जन प्राधिकरण को भेज सकते हैं. विभागाध्यक्ष को वह अर्जी सम्बंधित पीआईओ के पास भेजनी होगी.


क्या मुझे अर्जी देने स्वयं जाना होगा?


आपके राज्य के फीस जमा करने के नियमानुसार आप अपनी अर्जी सम्बंधित राज्य के विभाग में अर्जी के साथ डीडी, मनी आर्डर, पोस्टल आर्डर या कोर्ट फीस टिकट संलग्न करके डाक द्वारा भेज सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के मामलों में, 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है. अर्थात् आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई पटल पर अपनी अर्जी व फीस जमा करा सकते हैं. वे आपको एक रसीद व आभार जारी करेंगे और यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वो उसे उचित पीआईओ के पास भेजे.


क्या सूचना प्राप्ति की कोई समय सीमा है?


हाँ, यदि आपने अपनी अर्जी पीआईओ को दी है, आपको 30 दिनों के भीतर सूचना मिल जानी चाहिए. यदि आपने अपनी अर्जी सहायक पीआईओ को दी है तो सूचना 35 दिनों के भीतर दी जानी चाहिए. उन मामलों में जहाँ सूचना किसी एकल के जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करती हो, सूचना 48 घंटों के भीतर उपलब्ध हो जानी चाहिए.


क्या मुझे कारण बताना होगा कि मुझे फलां सूचना क्यों चाहिए?


बिलकुल नहीं, आपको कोई कारण या अन्य सूचना केवल अपने संपर्क विवरण (जो हैं नाम, पता, फोन न.) के अतिरिक्त देने की आवश्यकता नहीं है. अनुच्छेद 6(2) स्पष्टतः कहता है कि प्रार्थी से संपर्क विवरण के अतिरिक्त कुछ नहीं पूछा जायेगा.


क्या पीआईओ मेरी आरटीआई अर्जी लेने से मना कर सकता है?


नहीं, पीआईओ आपकी आरटीआई अर्जी लेने से किसी भी परिस्थिति में मना नहीं कर सकता. चाहें वह सूचना उसके विभाग/ कार्यक्षेत्र में न आती हो, उसे वह स्वीकार करनी होगी. यदि अर्जी उस पीआईओ से सम्बंधित न हो, उसे वह उपयुक्त पीआईओ के पास 5 दिनों के भीतर अनुच्छेद 6(2) के तहत भेजनी होगी.


इस देश में कई अच्छे कानून हैं लेकिन उनमें से कोई कानून कुछ नहीं कर सका. आप कैसे सोचते हैं कि ये कानून करेगा?

यह कानून पहले ही कर रहा है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कोई कानून किसी अधिकारी की अकर्मण्यता के प्रति जवाबदेही निर्धारित करता है. यदि सम्बंधित अधिकारी समय पर सूचना उपलब्ध नहीं कराता है, उस पर 250रु. प्रतिदिन के हिसाब से सूचना आयुक्त द्वारा जुर्माना लगाया जा सकता है. यदि दी गयी सूचना गलत है तो अधिकतम 25000रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. जुर्माना आपकी अर्जी गलत कारणों से नकारने या गलत सूचना देने पर भी लगाया जा सकता है. यह जुर्माना उस अधिकारी के निजी वेतन से काटा जाता है.


क्या अब तक कोई जुमाना लगाया गया है?


हाँ, कुछ अधिकारियों पर केन्द्रीय व राज्यीय सूचना आयुक्तों द्वारा जुर्माना लगाया गया है.


क्या पीआईओ पर लगे जुर्माने की राशि प्रार्थी को दी जाती है?


नहीं, जुर्माने की राशि सरकारी खजाने में जमा हो जाती है. हांलांकि अनुच्छेद 19 के तहत, प्रार्थी मुआवजा मांग सकता है.


मैं क्या कर सकता हूँ यदि मुझे सूचना न मिले?


यदि आपको सूचना न मिले या आप प्राप्त सूचना से संतुष्ट न हों, आप अपीलीय अधिकारी के पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 19(1) के तहत एक अपील दायर कर सकते हैं.


पहला अपीलीय अधिकारी कौन होता है?


प्रत्येक जन प्राधिकरण को एक पहला अपीलीय अधिकारी बनाना होता है. यह बनाया गया अधिकारी पीआईओ से वरिष्ठ रैंक का होता है.


क्या प्रथम अपील का कोई प्रारूप होता है?


नहीं, प्रथम अपील का कोई प्रारूप नहीं होता (लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने प्रारूप जारी किये हैं). एक सादा पन्ने पर प्रथम अपीली अधिकारी को संबोधित करते हुए अपनी अपीली अर्जी बनाएं. इस अर्जी के साथ अपनी मूल अर्जी व पीआईओ से प्राप्त जैसे भी उत्तर (यदि प्राप्त हुआ हो) की प्रतियाँ लगाना न भूलें.


क्या मुझे प्रथम अपील की कोई फीस देनी होगी?


नहीं, आपको प्रथम अपील की कोई फीस नहीं देनी होगी, कुछ राज्य सरकारों ने फीस का प्रावधान किया है.


कितने दिनों में मैं अपनी प्रथम अपील दायर कर सकता हूँ?


आप अपनी प्रथम अपील सूचना प्राप्ति के 30 दिनों व आरटीआई अर्जी दाखिल करने के 60 दिनों के भीतर दायर कर सकते हैं.

क्या करें यदि प्रथम अपीली प्रक्रिया के बाद मुझे सूचना न मिले?


यदि आपको प्रथम अपील के बाद भी सूचना न मिले तो आप द्वितीय अपीली चरण तक अपना मामला ले जा सकते हैं. आप प्रथम अपील सूचना मिलने के 30 दिनों के भीतर व आरटीआई अर्जी के 60 दिनों के भीतर (यदि कोई सूचना न मिली हो) दायर कर सकते हैं.


द्वितीय अपील क्या है?


द्वितीय अपील आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने का अंतिम विकल्प है. आप द्वितीय अपील सूचना आयोग के पास दायर कर सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के विरुद्ध आपके पास केद्रीय सूचना आयोग है. प्रत्येक राज्य सरकार के लिए, राज्य सूचना आयोग हैं.


क्या द्वितीय अपील के लिए कोई प्रारूप है?


नहीं, द्वितीय अपील के लिए कोई प्रारूप नहीं है (लेकिन राज्य सरकारों ने द्वितीय अपील के लिए भी प्रारूप निर्धारित किए हैं). एक सादा पन्ने पर केद्रीय या राज्य सूचना आयोग को संबोधित करते हुए अपनी अपीली अर्जी बनाएं. द्वितीय अपील दायर करने से पूर्व अपीली नियम ध्यानपूर्वक पढ लें. आपकी द्वितीय अपील निरस्त की जा सकती है यदि वह अपीली नियमों को पूरा नहीं करती है.


क्या मुझे द्वितीय अपील के लिए फीस देनी होगी?


नहीं, आपको द्वितीय अपील के लिए कोई फीस नहीं देनी होगी. हांलांकि कुछ राज्यों ने इसके लिए फीस निर्धारित की है.

मैं कितने दिनों में द्वितीय अपील दायर कर सकता हूँ?


आप प्रथम अपील के निष्पादन के 90 दिनों के भीतर या उस तारीख के 90 दिनों के भीतर कि जब तक आपकी प्रथम अपील निष्पादित होनी थी, द्वितीय अपील दायर कर सकते हैं.


यह कानून कैसे मेरे कार्य पूरे होने में मेरी सहायता करता है?


यह कानून कैसे रुके हुए कार्य पूरे होने में सहायता करता है अर्थात् वह अधिकारी क्यों अब वह आपका रुका कार्य करता है जो वह पहले नहीं कर रहा था?


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